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________________ पूर्व पीठिका 1.19.1 श्वेताम्बर-परम्परा 1.19.1.1 आहार-ग्रहण संबंधी नियम जीवन की प्रथम आवश्यकता आहार है, भले ही गृहस्थ हो या साधु। आहार के बिना लौकिक या लोकोत्तर कोई भी साधना नहीं हो सकती। जैन श्रमणियाँ छह कारणों को समक्ष रखकर आहार की गवेषणा करती हैं(1) क्षुधा-वेदना को शांत करने के लिये (2) सेवा की भावना से शारीरिक शक्ति अर्जित करने के लिये (3) ईया समिति (विहार आदि) का पालन करने के लिये (4) संयम का पालन करने के लिये (5) प्राण-रक्षण हेतु और (6) धर्म-चिन्तन की दृष्टि से। परन्तु साथ ही वे अशुद्ध आहार ग्रहण नहीं करती22। सदा सात्त्विक ऐषणीय प्रासुक एवं अचित्त आहार ही ग्रहण करती हैं। गृहस्थ या पार्श्वस्थ के साथ घर में प्रवेश नहीं करती। आधाकर्मी और औद्देशिक आहार का परिहार कर भिक्षा प्राप्त करती हैं। वे श्रेष्ठ कुलों से भिक्षा ग्रहण करती हैं, निंदित, गर्हित कुलों का तथा मृतक- पिण्ड को ग्रहण नहीं करती, पर्व-महोत्सव निमित्त बना वही आहार लेती हैं, जो परिभुक्त या शुद्ध हो संखडी (बृहद्भोज) में जाना उनके लिये निषिद्ध है। उसे स्वाद की लोलुपता और मायाचार से बचने का स्पष्ट निर्देश किया है। श्रमण-श्रमणी के आहार से संबंधित संपूर्ण नियम आचारांग सूत्र में विस्तार से वर्णित है।23 ये नियम श्रमण-श्रमणी दोनों के लिये सामान्य हैं। 1.19.1.2 वस्त्र एवं उपकरण संबंधी नियम सामान्यतया साधना की दृष्टि से श्रमण-श्रमणियों के नियम समान होने पर भी स्त्रियों की प्रकृति और सामाजिक स्थिति को देखकर आचार्यों ने श्रमणियों के लिये वस्त्र एवं उपकरणों के संबंध में कुछ विशेष नियम बनाये। जैसे-श्रमण संपूर्ण वस्त्रों का एवं पात्र का त्याग कर सकता है, वैसा श्रमणी के लिये वस्त्र-पात्र रहित रहना वर्जित है।224 इतना ही नहीं, वरन उसकी आवश्यकता को देखकर 96 हाथ वस्त्र का उपयोग करने की आज्ञा दी है, जब कि साधु को 72 (24 अंगुल का एक हाथ) हाथ वस्त्र ही उपयोग में लेने का विधान है।25 साध्वियों की मानसिक एवं शारीरिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उनके लिये 'अवग्रहानन्तक' अर्थात् भीतर पहने जाने वाले वस्त्र के साथ ऊपर पहने जाने वाले वस्त्र का भी विधान है।226 यह वस्त्र साधु के लिये निषिद्ध है। गृहस्थ पद से दीक्षित होने वाली श्रमणी अपने साथ रजोहरण, गोच्छक (पात्रादि पोंछने का वस्त्र) पात्र तथा चार अखण्डित वस्त्र अपने साथ लेकर दीक्षित हो सकती है।27 वे वस्त्र बहुमूल्य, चर्म एवं रोम से निर्मित, सूक्ष्म और सौन्दर्य युक्त नहीं होने चाहिये। आगमिक व्याख्या साहित्य में श्रमणी को तन ढंकने एवं शील सुरक्षा के लिये 25 प्रकार की उपधि रखने का निर्देश दिया है। उनके नाम इस प्रकार है-28 - 222. स्थानांग सूत्र 6 223. आचारांग द्वि श्रु. प्रथम अध्ययन 224. नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए-बृहद्कल्प सूत्र:5/19 225. आचारांग प्रथम श्रुतस्कंध 8/4/209 226. कप्पइ निग्गंथीणं उग्गहणन्तगं वा उग्गहपटॅग वा धारित्तए वा परिहरित्तए वा-बृहकल्प सूत्र 3/12 227. वही,3/16 228. बृहत्कल्प नियुक्ति, गाथा 3964-4091 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001693
Book TitleJain Dharma ki Shramaniyo ka Bruhad Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Sadhvi Arya
PublisherBharatiya Vidya Pratishthan
Publication Year2007
Total Pages1076
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size24 MB
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