Book Title: Marankandika
Author(s): Amitgati Acharya, Jinmati Mata
Publisher: Nandlal Mangilal Jain Nagaland
Catalog link: https://jainqq.org/explore/090280/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . * . . rai दिग आचार्य अमितगति प्रणीता मरणकंडिका प्रेरणा स्रोत : श्री १०८ प्राचार्य अजितसागरजी महाराज अनुवादिका : प्रायिका जिनमतीजी प्रकाशक: श्री नंवलाल मांगीलाल जैन डोमापुर ( नागालेण्ड) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि वचन द्वादशांग जिनवारण में प्रथम अंग श्राचारांग है, इसमें मुनियों के आचरण का वर्णन है, यह गणधर देव द्वारा ग्रथित विशाल १८ हजार पद प्रमास श्रुत है, इसी को आधार बनाकर वर्तमान पंचमकाल के मूलाचार आदि ग्रंथ श्री कुन्दकुन्द प्राचार्य आदि द्वारा रचे गये हैं। श्री शिवकोटि श्राचार्य प्रणोत प्राकृत भाषामय गाथाबद्ध भगवती नाराघा तथा इसकी तिच्या स्वरूप आचार्य प्रमित गति प्रणीत संस्कृत श्लोक बद्ध मरणकण्डिका भी आचारांग से सम्बद्ध है | भगवती आराधना का प्रकाशन अनेक बार हुआ है । मूलाराधना नाम से सोलापुर से प्रका शित इस भगवती आराधना में श्री अपराजित सूरिकृत संस्कृत टीका पण्डित श्राशाधरकृत संस्कृत टीका तथा आचार्य अमितगति कृत संस्कृत श्लोक स्वरूप मरणकण्डिका समाविष्ट है। संस्कृत टोका रहित गाथा युक्त हिन्दी अनुवाद युक्त प्रकाशन तथा संस्कृत टीका सहित हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन भी हुआ है । किन्तु मण्डका का स्वतंत्र प्रकाशन तथा उसका हिन्दी अनुवाद अभी तक नहीं हुआ था, इम कमो को देखकर अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगो, परमपूज्य श्राचार्य रत्न श्री अजितसागरजी महाराज ने श्रामिका जिनमती माताजी को प्रेरणा दी कि इसका अनुवाद करें। माताजी ने आचार्य श्री की आज्ञा शिरोधार्य करके तत्काल मदनगंज किशनगढ़ नगरी के चातुर्मास में अनुवाद प्रारम्भ कर दिया और मैंने संस्कृत श्लोकों की प्र ेस कॉपी तैयार की। अनुवाद बढाई मास में पूर्ण किया और धाचार्य श्री के आदेशानुसार यहीं कमल प्रिन्टर्स में मुद्रण हेतु दे दिया । इसके अनुवाद में श्राचार्य श्री द्वारा प्रोषित एवं उन्हीं के द्वारा नागौर शास्त्र भण्डार को प्रति से लिखित जो कॉपी थी उसका आधार लिया गया है। तथा मूलाराधना में स्थित श्लोकों का भी । मुद्रित मूलाराधना में मरकण्डिका के प्रारम्भ के १९ श्लोक नहीं हैं। ये बलोक ऐलक पत्रालाल सरस्वती भवन, ब्यावर को हस्त लिखित प्रति तथा उदयपुर की हस्तलिखित प्रति में भी नहीं हैं, केवल नागौर की हस्तलिखित प्रति में हैं। प्रति परिचय - ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन की प्रति सुवाच्य है, इसमें ग्रन्थ पूर्णता के अनंतर पाठ इलोक प्रमाण प्रशस्ति है तदनंतर आराधना स्तव नाम के प्रकरण में ३२ श्लोक हैं । पुनश्च कौन से नक्षत्र में क्षपक संस्तर ग्रहण करे तो कौन से नक्षत्र में मरा होगा, इस विषय का प्रतिपादन करने वाला "नक्खत्त गणना" नाम का प्राकृत भाषामय गद्य प्रकरण है । इस ग्रन्थ को श्लोक संख्या २२७९ है । यह प्रति मम्वत् १५६८ की लिखी हुई है । (२) उदयपुर की हस्तलिखित प्रति में भी यही क्रम है किन्तु श्लोक संख्या २२५२ हैं । संवत् १६२१ की लिखी हुई है । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) नागौर की हस्तलिखित प्रति में यही क्रम है। श्लोक संख्या २२७६ हैं 1 सम्वत् १५५४ को लिखित है । इस प्रति के अन्त में इस प्रकार परिचय है-सम्वत् १५५४ वर्षे । कातिक सुदी १५ मुरी श्री दुबला... हाडान्वये नाराइणदास राज्य प्रवतमाने श्रीमूलसंघ बलात्कारगणे, सरस्वतीगच्छे श्री नन्दीसंघ श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेवा तत् पट्टे भट्टारक श्री शुभचन्द्रदेवा तत् पट्टे भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवा तत् शिष्य मुनि श्री रस्नकोतिदेवा-मण्डलाचार्य तत् शिष्य मुनि हेमचन्द्र तत् सिषिणी अर्जका पुण्यश्री खडेलवालन्वये मोधा गोत्रे, साधु महाराज तत् भार्या साम्ही तयो पुत्री लोलू, साहूगांगा, साहू लोलू तद भार्या वाल्हू तयो पुत्र साह लोहट तथा साहगांगा तद् भार्या राणो तयो पुष साह हरसिंह तत् भार्या कर्मा, तयो पुत्र.........निजज्ञानावर्ण कम क्षयार्थ इदं शास्त्रं अर्यका पुण्यश्री योग्य पठनार्थ प्रदत्त । ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात् सुखी नित्यं नियांधी भेजषाभवेत् ।। ६ ।। सुभमस्तु ।। ६ ।। मांगल्यं ददाति । श्रेयो भवतु ॥ अर्थ सम्बत् १५५४ की वर्ष में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तिथि में गुरुवार में हाडा अन्वय में नारायणदास के राज्य काल में मूल संघ बलात्कारगण सरस्वती गम्छ नंदी संघ कुन्दकुन्द अन्य में भट्टारक पदमनन्दी हुए । पुनः उस पट्ट में क्रमश: शुभचन्द्र, जिन चन्द्र हुए उनके शिष्य मुनि रत्नकीर्ति हुए उनके शिष्य हेमचन्द्र मुनि और उनकी शिष्या आर्यिका पुण्यश्री नाम की थी । खंडेलवाल जाति में गोधा गोत्र वाले एक साधु महाराज श्रादक थे उसकी भार्या साल्ही उस दम्पत्ति के दो पुत्र थे लोलू साह और साहूगांगा । लोलू साहू को भार्या बाल्हू । इनका पुत्र साह लोहट था । तथा साधुगांगा की पत्नो रानी नाम को थो । उनका पुत्र साह हरसिंह था. उसकी पत्नी कर्मा यो । उसके पुत्र ने अपने ज्ञानावरण कर्म के नाश के लिए यह शास्त्र आयिका पुण्य श्री को पढ़ने के लिए दिया । ज्ञानदान से ज्ञानी, अभयदान से निर्भय अन्नदान से नित्यसुखी और प्रौषधिदान से निरोग होता है । शुभ हो । मंगल देवे । कल्याण हो । ग्रंथ का नाम-मरणों के अनेक भेदों का कथन करने से इसका नाम-मरणकंडिका है । प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों में इसका नाम ग्रंथ प्रारम्भ में नहीं मिलता। हाँ अन्त में "मरणकंडिका नवखत्त गणनया सम्मता" ऐसा नामोल्लेख मिलता है। प्रशस्ति में "भगवतोमाराधनां स्थेयसोम्" आराधनेषा यदकारि पूर्णा...। तावत् तिष्ठतु भूतले भगवतो । इन शब्दों में उल्लेख प्राप्त होता है । अतः मरण कडिका तथा न केट में आराधना विधि नामकरण किया है। एक विशेष - शिवकोटि प्राचार्य प्रणीत भगवती पाराधना ग्रंथ में गाथा १९९० में मध्यम तथा 'उत्कृष्ट नक्षत्र में क्षपक का मरण होवे तो तृणमय बिम्ब अपित करें ऐसा कहा है किन्तु मरणकडिका में यह बिधि नहीं बताया है, उस स्थान पर जिनार्चा (शांति कम) बतलाई है। इसी प्रकार Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] गाथा १९९१ तथा गाथा १९९२ में बतायी गयी विधि का मरणकंडिका में उल्लेख नहीं है, बल्कि इन दो गाथाओं पर इलोक रचना हो नहीं है । अस्तु । इस ग्रंथ में आगत विविध छन्दों के न म एव लक्षण इसप्रकार हैं समानिका- अक्षर S I S 1 5 I S I ग्लोर जी समाति का तु ऽ 3 ' S S । 5 1 S I い स्या दिन्द्र व ज्रा यदि तौ ज गौ गः इन्द्रवा - ११ अक्षर उपेन्द्रवजा - ११ अक्षर ' 5 1 S I । 5 1 5 5 उपेन्द्रवज्रा प्र थ मे ल घोसा उपजाति -- इन्द्रवचा और उपेन्द्रवज्रा का मिला हुआ लक्षण जिसमें हो वह उपजाति कहलाती है। तथा किसी समान प्रक्षर वाले दो छन्दों का मिला लक्षण जिस श्लोक में हो वह उपजाति है । जैसे वंशस्थ और इन्द्रवंशा का मिला लक्षण भी उपजाति है । शालिनी -- ११ अक्षर अनुकुला - ११ अक्षर रथोद्धता - ११ अक्षर स्वागता -- ११ पर दोधक - ११ अक्षर श्येनी - ११ अक्षर वंशस्थ - १२ अक्षर सोटक S - १२ प्रक्षर 5 3 $ S ऽ I S L ऽ मा तौ यो चेच्छा नि तो वेद लो के ऽ । 1 $ S I - い 5 ग गा श्चेत् I | $ S 1 S रात् परे ने र ल गं र यो द्ध ता S ' S । I I 13 I 1 S S स्वागता र न भ गे गुंरुणा स्र -2-AP स्था द नु क्रू लाभ त 5 1 S 1 I い न S 1 I S 1 I S I 1 S 5 दोध कमिच्छति भत्रित याद गौ 5 15 1 S । S ! $ IS ये क्यु दी कि तार जो र लौ गुरुः | S ' S S 1 1 5 1 S 1 3 वदंति वंश स्थवि लं ज तो जरो 1 G 1 I S 1 1 5 I 1 $ वद तो ट क म ब्धि स का रघु तम् भुजंगप्रयात - १२ अक्षर । 5 S 1 5 भुजंगप्रयातं च तु भि यं का रेंः S I S SI 5 5 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] I S त्रग्विणी - १२ अक्षर S I S $ 1 S S । S S कीर्तिषाच तू रे फिका सग्विणी द्रुतविलंबित - १२ अक्षर मंदाकिनी I --१२ अक्षर मोटक - १२ अक्षर 5 I " I 5 1 1 S I S ! $ द्रत विलंबित म ह न भ भ रो 1 ' S S I S मंदाकिनी I नन र र घटिता 1 1 S I I S । 5 I I मोट कना म स मस्त म भी र य S い I 3 $ । सारंग - १२ अक्षर 5 S I S 5 । सा रंग संज्ञ समस्तै स्त का रे स्तु रुचिरा - १३ ग्रक्षर I $ I 5 1 I । I S 1 5 I S ज भी स जोगि ति रुचि रा च तु ग्रं है: मालिनी- १५ ग्रक्षर । शशिकला - १५ अक्षर प्रशिकला I T S 1 I S I S S बसंततिलका - १४ प्रक्षर s 5 I S I शे यं व सं तु ति ल क त भ ग ज गौ गः 1 1 5 上 | 1 I I । 5 प्रहरणकलिता - १४ अक्षर | I I । न न भ न लगि ति प्र ह र र कलिता पृथ्वी - १७ प्रक्षर I S I t न न ।। 1 I S S S । S S । ऽ ऽ मयययु ते यं मालिनी भोगिलो के: 1 I I । 1 I 1 1 1 । 1 । 1 S गु रु नि ध न म नु ल घुरिह शशिकला 1 $ I । ' S S । 1 । ऽ ' S 5 । ऽ । 1 S SI I | S S S ISSIS जसो ज स य ला व सुग्रह यति श्च पृ ध्वो गुरुः शार्दूलविक्रीडित १९ अक्षर ऽ ऽ ऽ र्या स्वर्य दिमः स जो सत व गाः शार्दूलविक्रीडितं । I I | 455 ।ऽ।ऽ ऽ SS ? 5 5 1 नात्रयेण त्रि मुनि यति यु तात्रग्धरा की लि यं इस प्रकार इस ग्रंथ में कुल २७ प्रकार के छन्द हैं। इस ग्रंथ में कुल श्लोक संख्या २२७९ हैं उनमें ५८ श्लोक ११ मात्रा वाले हैं. ४५ श्लोक १२ मात्रा वाले हैं, २ श्लोक १३ मात्रा के हैं । ४ श्लोक १४ मात्रा के हैं, १ श्लोक १५ मात्रा का है । १ श्लोक १७ मात्रा का है । स्तव तथा प्रशस्ति में १७ श्लोक १९ मात्रा वाले हैं, ८ इलोक २१ मात्रा वाले हैं। शेष सब श्लोक अनुष्टुप् छन्द में हैं। इस ग्रंथ का सभी भव्य मुमुक्षु स्वाध्याय करें, विशेषतः साधुगण इसका अध्ययन अवश्य करें, क्योंकि इसमें सल्लेखना विधि है और साधु जीवन रूप प्रासाद में मल्लेखना तो मणिमय कलशारोहण है । इति भद्रमुपान् - आर्यिका शुभमति स्रग्धरा - २१ अक्षर 53 । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्राचार्य प्रमितगति द्वितीय भगवान महावीर के निर्वारण के पश्चात् १६२ वर्ष तक अनुबद्ध केवलियों और श्रुत केवलियों की परम्परा रही । इसके पश्चात् वी. नि. सं. ६८३ तक ही श्रुतधराचार्य ( आचारांगधारी अथवा एकाध अंग के अंशधारी ही ) शेष रहे। इस प्रकार श्रुतज्ञान का क्रमिक हास होता रहने से सर्व प्रथम धरसेनाचार्य से ज्ञान प्राप्त कर पुष्पदन्त भूतबलो प्राचार्य ने श्रुत निबद्ध किया। इसके पश्चात् वि. सं. १०३६ तक अनेकों दिगम्बराचार्य हुए और उन्होंने जिनवाणी की प्रपूर्य सेवा की, अपनी अनेक रचनाओं से श्रुतदेवी का भण्डार समृद्ध किया । माथुर संघीय परम्परा में श्र ेष्ठ आचार्य वोरसेन, उनके शिष्य देवसेन, उनके शिष्य अमितगति प्रथम, उनके श्री शिष्य नाभिषेण, उनके शिष्य माधवसेन और माधवसेन के शिष्य श्रमितगति द्वितीय हुए हैं। इन्हीं श्रमितगति द्वितीय का समय राजा मुञ्ज का राज्यकाल है तथा वह वि० सं० १०३६ से १०७८ तक का काल है। इस प्रकार अमितगति द्वितीय का समय ११ वीं शताब्दि का उत्तरार्धं सिद्ध होता है। अमितगति द्वितीय के पश्चात् भी शान्तिषेण भ्रमरसेन, श्रीसेन, चन्द्रकीति, अमरकीर्ति आदि आचार्य इस संघ परम्परा में हुए हैं । धर्मं परीक्षा की प्रशस्ति में स्वयं श्रमितगति प्राचार्य ने अपनी गुर्वावनि वीरसेन से प्रारम्भ की तो उपासकाचार और सुभाषित रत्न संदोह में देवसेन से प्रारम्भ की है । आचार्य अमितगति द्वितीय एक समर्थ ग्रन्थकार थे। प्रापका संस्कृत भाषा पर असाधारण अधिकार था । उनकी कवित्व शक्ति अपूर्व थी। अमरकीर्ति ने अपनी षट्कर्मोपदेश को अन्तिम प्रशस्ति में आपको महामुनि मुनि चूड़ामणि आदि विशेषरणों से युक्त कहा है । प्राचार्य श्रमितगति की जितनी भी रचनाएं हैं उनसे उनकी प्राञ्जल रचना शेली प्रस्पष्ट अनु. भव में श्राती है । प्रसाद गुण युक्त मनोहारी सरल-सरस काव्य कौमुदी का पान करक हृदय मानन्द से गद्गद हो जाता है । उनकी सब रचनाएँ उद्बोधन प्रधान हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा मनुष्य को असत्प्रवृत्तियों की ओर से सावधान कर सत्प्रवृत्तियों को अपनाने की ही प्रेरणा की है। आचार्य श्री कर्म सिद्धान्त के भी विद्वान् थे । आचार्य अमितगति की कृतियों से उत्तर कालीन कृतियां भी प्रभावित हैं, अतः आचार्यश्री अपने समय के एक विशिष्ट ग्रंथकार थे। उन्होंने अपने बंदुष्य से जिनशासन का तथा संस्कृत वाङ्मय का मान बढ़ाया तथा सुरभारती के साहित्य भण्डार को समृद्ध किया था। अब १०८ आचार्यश्री की रचानाओं पर क्रमशः सविवरण प्रकाश डाला जाता है Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [-] रचना कलाप संविवरण १. सुभाषित रत्नसंदोह यह ग्रंथ आचार्यश्री ने सं० १०५० (ई० ९९४ ) में रचा । इस ग्रन्थ में ३२ परिच्छेदों द्वारा कोप, मान, माया, लोभ आदि विषयक सुभाषित लिखकर सुभाषित रत्न भाण्डागार को श्री वृद्धि हो को है । सम्भवतया यह आपकी प्रथम रचना है । इसके अध्ययन से इसके रचियता को वर्णन शंलो, कल्पना शक्ति और कवित्व गुण के प्रति पाठक को श्रद्धा होना स्वाभाविक है (संस्कृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है और ललित पदों का चयन उनको विशेषता है । जिस विषय पर भी वे पच रचना करते हैं उस विषय का चित्र पाठक के सामने उपस्थित कर देते हैं। वे एक निर्मल सम्यक्त्व और चारित्र के धारक महामुनि होने के कारण जनता को सदुपदेशामृत का हो पान कराते हैं । तदनुसार सुभाषित रत्न सन्दोह के सुभाषित सचमुच में सुभाषित ही हैं । पूरा ग्रन्थ नाना प्रकार के सभाषितों से भरा हुआ है। ___ यह ग्रंथ अनेक बार प्रकाशित हुआ है ।' २. धर्म परीक्षा धर्म परीक्षा नामक जन ग्रन्थ बहुसंख्यक हैं । यथा-हरिषेण कृत धर्म परीक्षा [ अपभ्रंश ] अमितगति द्वितीय कृत धर्म परीक्षा (संस्कृत), वृत्तविलास कृत धर्म परीक्षा (कन्नड़), सौभाग्यसागर कृत धर्म परीक्षा ( संस्कृत }, पद्मसागर कृत धर्म परीक्षा (संस्कृत), मानविजयगणी कृत धर्म परीक्षा (संस्कृत), यशोविजय कृत धर्म परीक्षा (संस्कृत), जिनमण्डन कृत धर्म परीक्षा, पार्वकीति कृत धर्म परीक्षा, रामचन्द्र कृत धर्म परीक्षा आदि । इनमें से यहाँ अमिलगति द्वितीय लिखित धर्म परीक्षा के सम्बन्ध में कहा जाता है ग्रन्थ का विषय स्पष्टतया तीन भागों में विभक्त है। इसमें बीस परिच्छेद हैं । ग्रन्थ यह पुराणों में वणित अतिशयोक्ति पूर्ण प्रसंगत कथाओं और दृष्टान्तों की असंगति दिखलाकर उनकी ओर से पाठकों की रुचि को परिमाजित करने वाली कथा-प्रधान रचना है । उसके दो मुख्य पात्र हैं मनोवेग और पनवेग । दोंनों विद्याधर कुमार हैं । मनोवेग जैन धर्म का श्रद्धानी है। यह पवनवेग को भी श्रद्धानी बनाने के लिए पाटलीपुत्र ले जाता है । उस समय वहाँ ब्राह्मण धर्म का बहुत प्रचार था और ब्राह्मण विद्वान् शास्त्रार्थ के लिए तैयार रहते थे । दोनों बहमूल्य आभूषणों से वेष्ठित अवस्था में हो घसियारों का रूप धारण करके नगर में जाते हैं और ब्रह्मशाला में रखी हुई भेरी को बनाकर सिंहा. सन पर बैठ जाते हैं। ब्राह्मण विद्वान् किसी शास्त्रार्थी को प्राया जानकर एकत्र होते हैं और उनका विचित्ररूप देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। यह देखकर मनोवेग कहता है, १ सुभाषित रत्न सन्दोह प्रस्ता० पृ० ८ पं० कैलाशचन्द्र सि. शा० (जीवराज जैन ग्रन्थमाला) २ धर्म परीक्षा, प्रा. अमितगति दि० प्रस्ता० पृ० १५ ए० एन० उपाध्ये (जीवराज जैन ग्रन्थमाला) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ] हम तो केवल घास बेचने वाले लड़के हैं हमारा मूलरूप महाभारत की कथानों में है। इसी पर से परस्पर में कथा वार्ता चल पड़ती है । मनोवेम अपने अनुभव की अराम्भव घटनाएँ सुनाता है और जैसे ही ब्राह्मण विद्वान् उसका विरोध करता है वह तत्काल उनके पुराणों से उसी प्रकार की कथा सुनाकर उन्हें चुप कर देता है । इस प्रकार मनोवेग ब्राह्मणों के शास्त्रों और धर्म की बहुत सी असम्भव बातें पवनवेग को समझाता है, जिससे पवनवेग जैन धर्म का श्रद्धानो बन जाता है और वे दोनों श्रावक का सुखो जीवन बिताते हैं।' उक्त ग्रंथ में जहाँ कहीं अवसर आया अमितति ने जैन सिद्धान्तों और परिभाषाओं का प्रचूरता से उपयोग करते हुए लम्बे-लम्बे उपदेश इसमें दिए हैं । दूसरे, इसमें लोकप्रिय तथा मनोरंजक कहानियां भी हैं जो न केवल शिक्षाप्रद हैं बल्कि उनमें उच्चकोटि का हास्य भी है और वे बड़ी हो बुद्धिमत्ता के साथ ग्रंथ में गुम्फित हैं । अथ च, अन्त में ग्रन्थ का एक बड़ा भाग पुराणों को कहानियों से भरा हुआ है जिनको अविश्वसनीय बताते हुए प्रतिवाद करना है तथा कहीं सुप्रसिद्ध कथाओं के जन रूपान्तर भी दिए हुए हैं जिससे यह प्रमाणित हो जाम जिहावा -गान हैं : अमितगति बहुत विशुद्ध संस्कृत लिख लेते हैं। हमें ही नहीं, बल्कि अमितगति को भी इस बात का विश्वास था कि उनका संस्कृत भाषा पर अधिकार है।' उन्होंने लिखा है कि मैंने धर्म परीक्षा दो माह के भीतर लिखकर पूर्ण की है। इनकी धर्म परीक्षा किसी पूर्ववर्ती मूल प्राकृत रचना के आधार पर हुई है, इसमें हर प्रकार की सम्भावना है ।" स्व. पं० कैलाशचन्द सि. शास्त्री भी लिखते हैं कि अमितगति से पूर्व हरिपंण ने अपभ्रंश भाषा में धर्म परीक्षा रची थी जो जयराम को कृति की ऋणी है । पुनः हरिपेण की कृति के आधार पर अमितगति ने धर्म परीक्षा रची।। पूज्य अमितगति को धर्म परीक्षा रविकर और शिक्षाप्रद भारतीय साहित्य का सुन्दर नमूना है। [पुराणपन्य के उत्साही अनुयायियों को एक तोखा ताना इस रचना से मिल सकता है।" इस धर्म परीक्षा को रचना १०७० ( ईस्वी० १०१४ ) में पूर्ण हुई। यह ग्रंथ अनेक बार [विभिन्न स्थानों से ] प्रकाशित हुआ है। १. मुभाषित प्रस्ता. पन्न १०-११ ( जीवराज ग्रंथमाला ) २. वर्म परीक्षा प्रस्ता० १० १६ ए. एन. पा. ३. धर्म परीक्षा प्रस्ता- पृ० २२ ए. एन. उपा० ४. धर्म परीक्षा । प्रास्ति । प्रलोक १० ५. धर्म परीक्षा । प्रस्ता० . २२० एन० उपा० ६. सुभाषित० प्रस्ता• पृ. १. [ जीवराज ग्रन्थमाला ] ७. धर्म परीक्षा प्रस्ता. पृ. २८ ए. एनए उपा० ८. ध परीक्षा प्रशस्ति । लोक २० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] ३. पंचसंग्रह जैन ग्रन्थों में पंचसंग्रह नामके अनेक ग्रन्थ हैं। यथा-दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह [कर्ता-अज्ञात], श्वे. प्राकृत पंचसंग्रह, दि. संस्कृत पंचसंग्रह ( अमितगति द्वितीय ) तथा दि० संस्कृत पंचसंग्रह (श्रीपाल सुत उड्ढा विरचित ) । गोम्मटसार को भी पंचसंग्रह कहा जाता है । जिनरत्न कोश में श्वे. हरिभद्र सूरि द्वारा बनाए गए एक और पंचसंग्रह का भी उल्लेख है।' अमितगति का पंचसंग्रह प्रधानतः पाकृत पंचसंग्रह के आधार पर ही तैयार किया गया है।' पंडित हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री का कहना है कि अमितमति ने प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत भाषा में कुछ पल्लवित पद्यानुवाद किया है।' ५० लाशचन्द्र सिद्धांत शास्त्री तो कहते हैं कि "यह स्वतन्त्र रचना ही नहीं है किन्तु प्रा. पंचसंग्रह का संस्कृत श्लोकों में रूपान्तर है। अमितगति का यह पंचसंग्रह श्री उड्ढा के पंचसंग्रह का भी ऋणी है । अमितगति ने इसका बहुत अनुकरण किया है। कुछ विशेष कथन भी है, किन्तु अनुकरण अधिक है ।" __ अमितगति को यह र वना [ एवं अन्य भी रचनाएँ ] सरल व सुखसाध्य होती हुई भी गम्भीर और मधुर है । यह ग्रंथ करणानुयोग का उत्तम ग्रन्थ है । इसकी रचना शैली गोम्मटमार से विलक्षण व सरल है । अनेक स्थलों में विषय वैशष्य भी उपलब्ध होता है । गोम्मटसार कर्मकाण्ड का अध्ययन तो टीका तथा अंक संदृष्टि के बिना शक्य नहीं, परन्तु पंचसंग्रह में अंक सन्दृष्टि ग्रंथकार ने हो यथा. स्थान दे दी अतः टीका की आवश्यकता भी मूल रचना से दूर हो गई ।" __ यह ग्रंथ वि० सं० १०७३ [ईस्वी सन् १०१५1 में निर्मित हुआ । ग्रंथ रचना के समय से अनुमित होता है कि कविराज का जन्म विक्रम को ग्यारहवीं शती के प्रथम पाद के अन्त में (१०२५) में हुआ, परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि ये कब स्वर्गवासी हुए । अब तक इस पंचसंग्रह का प्रकाशन दो बार हुआ है । १. प्राकृत पंच संग्रह । प्रस्ता. पृ० १४-१५ २. धर्म परीक्षा प्रस्ता० पृ. २२ ए. एनउपाध्ये ३. प्रा० पंचसंग्रह । प्रस्ता० पृ० १४ तथा १६ ४. सुभाषित र० म० । प्रस्ता. पृ० ११ जीवराम ग्रन्थमाला ५ पनसंग्रह । प्रस्ता पृ० ८ ६० दरबारीलालजी न्यायतीर्थ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] ४. प्रावकाचार ग्रंथकार इसे उपासकाचार कहते हैं। इसका प्रचलित नाम अमितगति श्रावकाचार है । वतं. मान में भिन्न-भिन्न प्राचार्यों द्वारा निर्मित कई दशक श्रावकाचार सम्बन्धी अंथ उपलब्ध होते हैं। प्राचार्य सोमदेव के पश्चात् संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् आचार्य अमितगति हुए हैं। इन्होंने विभिन्न विषयों पर अनेक ग्रन्थों की रचना की है । प्रावक धर्म पर भी "उपासकाचार" नामक ग्रन्थ बनाया। इसमें १५ परिच्छेद हैं । इसमें प्रावक धर्म का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रथम परिच्छेद में धर्म का माहात्म्य, दूसरे में मिथ्यात्व की अहितकारिता तथा सम्यक्त्व की हितकारिता, तीसरे में सप्त तत्व, चतुर्थ में आत्मा को सिद्धि तथा ईश्वर सृष्टि कर्तृत्व का खण्डन प्ररूपित हैं । अन्तिम तीन परिच्छेदों में क्रमशः शोल, १२ तप तथा १२ भावनाएं वरिणत हैं । मध्य के परिच्छेदों में रात्रि भोजन, अनर्थदण्ड, अभक्ष्य भोजन, तीन शल्य, दान, पूजा तथा सामायिकादि षट् आवश्यकों का वर्णन है। __ यह देखकर आश्चर्य होता है कि श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन एक ही परिच्छेद में किया गया है और श्रावक धर्म के प्राणभूत ११ प्रतिमाओं के वर्णन को तो एक स्वतन्त्र परिच्छेद की भी मावश्यकता नहीं समझी है । मात्र ११ श्लोकों में ही बहुत साधारण ढंग से उनका स्वरूप कहा गया है। स्वामी समन्तभद्र ने भी एक-एक श्लोक द्वारा ही एक-एक प्रतिमा का वर्णन किया है, पर यह सूत्रात्मक होते हुए भी बहुत विशद और गम्भीर है । प्रतिमाओं के नामोल्लेखन मात्र करने का प्रारोप सोमदेव पर भी लागू है । उन्होने भी अपने यशस्तिलकचम्पुगत उपासकाध्ययन में प्रतिमाओं का नामोल्लेख मात्र किया है। इन्होंने प्रतिमाओं का वर्णन क्यों नहीं किया, यह विचारणीय है। अमितगति ने ७ व्यसन का वर्णन यद्यपि ४६ श्लोकों में किया है, पर बहुत बाद में। यहाँ तक कि १२ व्रत, समाधिमरण व ११ प्रतिमाओं का वर्णन करने के पश्चात् स्फुट विषयों का वर्णन करते हुए ७ व्यसनों का वर्णन किया। अमितगति ने गुरणब्रत और शिक्षानतों के नामों में उमास्वामि का और स्वरूप वर्णन करने में सोमदेव का अनुसरण किया है । पूजन के वर्णन में देवसेन का अनुकरण करते हुए भी अनेक ज्ञातव्य बातें कही हैं । निदान के प्रास्त प्रप्रशस्त भेद उपवास की विविधता, आवश्यकों में स्थान, आसन, मुद्रा, काल आदि का वर्णन अमितगति के प्रावकाचार की विशेषताएं हैं । यदि संक्षेप में कहा जाए तो पूर्ववर्ती श्रावकाचारों का दोहन और उनमें नहीं कहे गए विषयों का प्रतिपादन करना ही भाचार्य अमितगति का लक्ष्य रहा है। १. उपासकाचार प्रशस्ति लोक ७ से ९ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] इस भावकापार के अन्त में रचनाकाल नहीं दिया गया है तो भी उक्त बाधार से विक्रम को ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध उनका समय सिद्ध है।' यह ग्रन्थ अनेक बार प्रकाशित हुआ है। ५. द्वानिशिका इसका प्रचलित नाम सामायिक पाठ भी है । यह बड़ी लोकप्रिय रचना है । जो किसी ने किसी अनुवाद के साथ अनेक बार प्रकाशित हुई है। यह भावना प्रधान ३२ श्लोकों में निबद्ध रचना है । लोकप्रसिद्ध श्लोक--"सस्वेषु मंत्रो गुणिषु प्रमोदं......" इस रचना का आद्य श्लोक है । विभिन्न जिनवाणो संग्रहों में इसका प्रकाशन होता ही है । इसके हिन्दो पद्यानुवाद भी हुए हैं। इसे प्रायः सर्वत्र सामायिक का अंग माना जाकर सामायिक में बोला जाता है। ६. तत्व भावना इसका नाम भी सामायिक पाठ है । यह १२० पद्यों में रचित एक संस्कृत भाषा की भावनात्मक रचना है । इस रचना पर गुणभद्र के प्रात्मानुशासन का स्पष्ट प्रभाव है । करिता की शैली सरस, सरल तथा हृदयग्राही है। ७. आराधना यह कृति इतनी अच्छी है कि जैसे यह शिवार्य (शिवकोटि) की प्राकृत धाराधना का निकटतम अनुवाद हो। यह सोलापुर से सन् १९३५ में प्रकाशित हुई है।" जहाँ तक मुझे ख्याल है इसका अभी तक हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशन नहीं हुधा है । इसका नाम "मरणकहिका" ग्रन्ध में प्रदत्त है । ___ मैं पहली बार ही इस मरणकडिका (प्राराधना) का यह प्रांजल, सरल, सहज व सरस अनु. वाद पूज्य जिनमति माताजी कृत देख रहा हूं। इसका विषय-परिचय एवं अन्य भी विशिष्ट परिचय पूज्य माताजी स्वयं इसी ग्रन्थ में दे ही रहीं हैं, अतः यहाँ नहीं लिखा जाता है। १. श्रावकाचार संग्रह भाग ४ प्रस्तापत्र २७-२८ पं.हीरालाल सि.पा. २. योगसार प्राभूत प्रस्ताव पत्र १२ ३. पं. कैलाशचन्द्र सि० शा० ४ धर्म परीक्षा । प्रस्ता० पृ० २२ ए. एन. उपाध्ये ५ योपसार प्राभूत । प्रस्ता० पृ. १२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] प्रस्तुत मरणकंडिका (पाराधना) को अनुवादिका इस ग्रन्थ को चूकि पृथक से टीका-अनुवाद अभी तक कहीं से होकर प्रकाशित नहीं हुधा अतः पूज्य १०५ प्रा० जिनमतोजी ने लिखकर सकल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन समाज का पारमार्थिक उपकार किया है-यह बात अत्यन्त स्पष्ट है । पतः आजकल संस्कृत या प्राकृत जैसी भाषामों के ज्ञाता तो रहे नहीं, अतः पूज्या माताजी की यह सरल-जल अनुवाद-चन्द्रिका सर्वोपयोग योग्य होगो हो । प्रेरणा के स्रोत इस ग्रन्थ के अनुवाद की प्रेरणा पूज्य पट्टाधीश प्राचार्य अजितसागरजी ने गत वर्ष उनके सलूम्बर-चातुर्मास के काल में दी । आचार्य श्री की स्वयं की २० वर्ष पूर्व को हस्तलिखित मरणकंडिका भी है । प्राचार्य श्री ने इस हस्तलेखन के पूर्व भी इस ग्रन्थ का प्रायोपान्त अनेक बार स्वा. ध्याय किया था । अापको यह भावना रही थी कि इस अन्य का पृथक से अनुवाद होना चाहिए। इस ग्रंथ के आदि के १९ श्लोक कहीं नहीं मिले । सोलापुर तथा कलकत्ता के प्रकाशनों में भी उक्त प्रथम १९ श्लोक नहीं हैं । पूज्य आचार्य श्री ने नागौर के भण्डार से इस ग्रन्थ को पूर्ण प्रति प्राप्त कर इन्हें उतार लिए। जिसके कारण से अब यह ग्रन्थ पूरा अस्खलित छप रहा है, इस बात को खुशो है। आचार्य श्री के भावों के अनुसार ग्रंथ के अन्त में समाधिमरण से सम्बन्धित विभिन्न ग्रंथों के लगभग १५० श्लोक भी दिये गए हैं। इस प्रकार आचार्य श्री को प्रेरणा से माताजी ने यह कार्य हाथ में लिया तथा प्रसन्नतापूर्वक इसे पूरा किया है। अनुवादिका का देह परिचय पूज्य जिनमती माताजी का जन्म फाल्गुन शुक्ला १५ सं० १९९० को म्हसवड़ नाम { जिलासातारा, महाराष्ट्र ) में हुआ । म्हसवड़ ग्राम सोलापुर के पास स्थित है । जन्म नाम प्रभावतो था। आपके पिता का नाम पूलचन्द्रजी और माताजी का नाम कस्तूरी देवी था । दुर्भाग्य से प्रभावती के बचपन में हो माता-पिता काल-कवलित हो गए। फलस्वरूप प्रापका लालन-पालन आपके मामा के घर हुआ। सन् १९५५ में आर्थिकारत्न ज्ञानमती माताजी ने म्हसवड़ में चातुर्मास किया । उस समय चातुर्मास में अनेक बालाएं माताजी से द्रश्यसंग्रह, तत्त्वार्थ सूत्र, कातन्त्र व्याकरण आदि ग्रंथों का अध्ययन करती थी। उस समय बीस वर्षीय बालिका प्रभावतो भी उन अध्ययनरत बालानों में से एक थी। प्रभावती ने बंराग्य से अोतप्रोत होकर सन् १९५५ में ही दीपावली के दिन १०५ ज्ञानमतीजी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] से दशम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए । तत्पश्चात् पूज्य प्रा. वीरसागरजी के संघ में वि० सं० २०१२ में ब० प्रभावतीधी ने क्षुल्लिका दीक्षा ली; आपका जिनमती नाम रखा गया सन् १९६१ ई० तदनुसार कार्तिक शुक्ला ४ वि० सं० २०१६ में सीकर (राज.) चातुर्मास के काल में पूज्य १०८ आ० शिवसागरजी महाराज से क्षु० जिनमतीजी ने स्त्री पर्याय के योग्य सर्वश्रेष्ठ सोपान आयिकावत' की कठोरतम प्रतिज्ञा अंगीकृत को । शनैः शनैः अपनी प्रखर बुद्धि से तथा पूज्य भा० ज्ञानमतीजी के प्रबल निमित्त से आप अनेक शास्त्रों की पारंगत हो गई। आप ज्ञानमती माताजी को “गर्भाधान क्रिया से न्यून माता" कहती हैं । आज प्राप न्याय, व्याकरण के ग्रन्थों को विदुषी के रूप में इस देश के मुमुक्षुओं को गौरवान्वित कर रही हैं। मापने प्रमेयकमलमार्तण्ड जैसे महान् दार्शनिक ग्रथ को २०३६ पृष्ठों में हिन्दो टीका प्रथम बार लिख कर; एक भाषानुदित दर्शनग्रन्थ सरल व सुलभ कर दिया है । इससे पूर्व इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुआ था। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि परापेक्षी वृत्ति के रिना हो स्वयं ने निजी सस्कृत व न्याय के अधिकृत ज्ञान से यह कार्य सम्पन्न किया है। आज पुनः मरणकंडिका का अनुवाद देख कर हृदय प्रफुल्लित होता है । इस ग्रन्थ से साधु व श्रावक दोनों को ही नूनमेव पारलौकिक मार्गदर्शन प्राप्त होगा। पूज्य माताजी सस्वास्थ्य, रत्नत्रय की समीचीन व वर्धमान सम्पालना करती हुई चिरकाल जिएं, यही पुनीत भावना भाता हुमा पाठकों से निवेदन करता हूं कि जिन्हें, सदराचाररहित, मानलिप्सारिक्त, अत्यन्त सरल, सहज, श्रीमानों आदि से असम्पृक्त, एकान्त, लोक से नोरस एवं चिदानन्द में सरस जीवन जीने वाली प्रायिकोत्तर आयिका के दर्शन करने हों वे "जिनमति" के शरण की निज मति करें [ अर्थात् जिनमति के दर्शन अवश्य करें] सुभास्ते पन्थानः सन्तु । भद्र भूयात् । विनीतअवाहरलाल मोतीलाल जैन वकतावत, साड़िया बाजार, भीण्डर ( उदयपुर) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wale विषय परिचय यह मरणकांडका नामा ग्रन्थ आचार्य अमितगांत [ द्वितीय ] विरचित है । इसमें भक्त प्रत्याख्यान मरण प्रादि का सविस्तृत विवेचन होने से सार्थक गौरण नाम मरणकडिका है । तथा अपर नाम पाराधना विधि भी है, क्योंकि इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार माराधनाओं का कथन है । यह ग्रंथ शिवकोटि आचार्य प्रणीत भगवतो पाराधना को प्रति छाया स्वरूप है। इसमें भक्त प्रत्याख्यान मरण का प्रमुखतया वर्णन है । इस मरण के कथन में चालीस अधिकार हैं। इन अधिकारों में से कोई अधिकार बिलकुल छोटा तो कोई बहुत बड़ा है, कोई मध्यमरूप है अतः इन अधिकारों के समुदाय बनाकर उनको बारह जगह विभक्त किया है । अनुशिष्ट अधिकार ( दूसरा ) सबसे अधिक विशाल है इसलिए इसको महाधिकार कहा है । प्रतिज्ञा पूर्वक मंगल श्लोक के अनन्तर चार आराधनाओं की सिद्धि के पांच हेतु बतलाए हैं-चोतन, मिश्रण, सिद्धि, म्यूढि और नियूं दि । सम्यग्दर्शन प्रादि दोषों को भली प्रकार से दूर करना द्योतन कहलाता है, प्रात्मा के साथ सम्यग्दर्शन प्रादि का एकीकरण मिश्रण है, सम्यग्दशनादि का परिपूर्ण करना सिद्धि है । ख्याति लाभ यश की चाह बिना इन सम्यक्त्व आदि का वहन म्यूढि कहलाती है । और परीषह आदि के प्राने पर भी निराकुलता से मरण पर्यन्त सम्यक्रवादि को ले जाना निव्यू द्वि कही जातो है, इन द्योतन आदि के ग्रन्या-तरों में उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण। ऐसे नाम हैं, अर्थ सर्वत्र यही है। सम्यक्त्व को आराधना अन्य तीन पाराधना का मुल आधार है, यदि सम्यक्त्व नहीं है और ज्ञानादि हैं तो वे समीचीन नहीं कहलाते न इनके धारक व्यक्ति आराधक ही कहलाते हैं । श्रद्धा-सम्यक्त्व रहित ज्ञान व्यर्थ है, भारभूत है, जैसे नेत्र का सार सर्प, कण्टक आदि का परिहार करके चलना है, किन्तु जो नेत्रवान पुरुष गतं में गिरता है तो उसका सनेव होना व्यर्थ है, वैसे सम्यक्त्व रहित ज्ञान को दशा है । जो सम्यक्त्व की पाराधना करता है उसकी नियम से ज्ञानाराधना होती है और जो चारित्र पाराधक पुरुष है वह तप आराधक भी है । चार प्राराधनाओं को सतत धाराधना करनो चाहिए, ऐसा नहीं विचारे कि अन्त समय में पाराधना कर लेंगे, क्योंकि जैसे राजपुत्र हमेशा शस्त्र संचालन का अभ्यास करता है तभी वह समरांगण में शत्रु पर विजय प्राप्त करता है वैसे जो साधु हमेशा आराधना में संलग्न रहता है यह मरण काल में ध्यानादि से व्युत नहीं होता मरण पर विजय प्राप्त कर लेता है । यदि कोई पुरुष जीवन में आराधना के अभ्यास विना हो अन्त में समाधिमरण पूर्वक प्राण छोड़ता है तो वह स्थाणुमूल निधानवत् है अर्थात् मार्ग से जाते हुए ठूठ से टकराना ठूठ उखड़ जाना और उसके नोचे गडा धन मिलना, यह सब असंख्य प्राणियों में से किसी एक को ही सुलभ है सबको नहीं वैसे बिना अभ्यास के समाधिमरण होना किसी एक को ही सम्भव है सबको यह सम्भव नहीं। सबका तो यही कर्तव्य है कि हमेशा दर्शन ज्ञानादि की आराधना करता रहे । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] भक्त प्रत्याख्यानमरण अर्ह आदि अधिकारमरण के सतरह भेद हैं। इनमें से इस मरणकंडिका में पांच मरणों का कथन है । बालमरण, बालबालमरण, बालपंडितमरण, पंडितमरण और पडितपंडितमरण । व्रत रहित सम्यग्दृष्टि के मरण को बालमरण कहते हैं । मिथ्यादष्टि के मरण को बालबालमरण कहते हैं । अणुनती पंचमगुणस्थानवों तथा प्रायिका, क्षुल्लक आदि का बालपंडित मरण होता है । छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्तो मुनिजनों का पंडितमरण कहलाता है और चौदहवें गुणस्थानवर्ती ग्रहन्त देव का निर्वाण पण्डित पण्डिस मरण है। सम्यक्त्व की आराधना पूर्णकरण करणे बाले जीवों का कथन करते हुए नीवादि सात तत्वों के श्रद्धान की प्रेरणा दो है एव ऐसा बताया है कि जिनागम के एक अक्षर का भी प्रथद्धान करे तो वह सम्यक्त्वाराधक नहीं है जो बाहर से संयत असंयत, मयतासंयत रूप है, किन्तु सम्यग्दर्शन रहित है तो वह आराधक नहीं है उसका मरण वालवाल मरणही कहलाता है । पण्डित मरण के तीन हैं-भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन । भक्त प्रत्याख्यान मरण के वर्णन में चालोस अधिकार हैं-अह, लिंग शिक्षा, विनय, समाधि, अनियत बिहार, परिणाम, उपधित्याग, चिति, भावना, सल्लेखना, दिशा, क्षमरण, अनुशिष्टि [प्रथम] परगण चर्या, मार्गरणा, सुस्थित. उपसर्पण. निरूपण, प्रतिलेख, पृच्छा, एक संग्रह, मालोचना, गुणदोष, शय्या, संस्तर, निर्यापक, प्रकाशन, हानि, प्रत्याख्यान, क्षामरण, क्षपणा, अनुशिष्टि [द्वितीय] सारणा, कवच, समता, ध्यान, लेश्या, फल, पाराधक त्याग। (१) अर्ह-भक्त प्रत्याख्यान मरण को धारण करने में जो मुनि योग्य हैं उसे अहं कहते हैं अर्थात् रोग आदि के कारण जिसका मरण सन्निकट है, ऐसे साधु को समाधि के योग्य होने से 'मह' कहते हैं अर्थात् जिस अधिकार में इस प्रकार समाधि के योग्य कौन साधु है इसका वर्णन होता है वह अहं नामका अधिकार है। (२) लिंग-दि. जैन साधु का वेष लिग किस प्रकार होता है इसका वर्णन इस प्रकरण में है अर्यात् पोछो धारण, नग्नता, तैलादि के संस्कार से रहितता इत्यादि का कथन है । (३) शिक्षा थ तज्ञान का अभ्यास । (४) विनय-गुरुजनों का सम्मान, ज्ञान विनय प्रादि का कथन इस अधिकार में है। (५) समाधि--मनका समाधान होना अथवा मनकी एकाग्रता। ।६) अनियत विहार--साधुजन यत्र तत्र विहार करते हैं उसमे जो लाभ होता है उसका वर्णन । (७) परिणाम-अपने को जो कार्य करना है उसका विचार करना। (८) उपधित्याग--परिग्रह त्याग । (९) थिति--शुभ परिणामों को उत्तरोत्तर वृद्धि। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] (१०) भावना संक्लिष्ट भावना का त्याग और शुद्ध भावना का ग्रहण । (११) सम्मलेन ताकाण और तमासों सः कृलोकरा ! (१२) दिशा-समाधि के इच्छुक प्राचार्य अपने पद पर अन्य मुनि को प्रतिष्ठित करते हैं उस विधि का कथन इस में है। (१३) क्षमणा-समाधि के इच्छुक प्राचार्य अपने संघ से क्षमा याचना करते हैं। (१४) अनुशिष्टि-समाधि के वांछक आचार्य परमेष्ठी अपना पद अन्य शिष्य को देकर उसको तथा समस्त संघ को पृथक्-पृथक् उनके कर्तव्य का श्रेष्ठ उपदेश देते हैं, उसका कथन । (१५) परगणचर्या-समाधि के हेतु आचार्य अन्य संघ में जाने के लिए गमन करते हैं। (१६) मार्गणा-समाधिमरण कराने में परम सहायक ऐसे आचार्य का अन्वेषण करना । (१७) सुस्थित-अपने तथा पर के उपकार करने में समर्थ प्राचार्य को सुस्थित कहते हैं ऐसे प्राचार्य के निकट जाना। (१८) उपसर्पण-समाधिमरण कराने में ममर्थ ऐसे आचार्य के चरणों में आत्म समर्पण । (१९) निरूपण-उक्त समर्थ आचार्य द्वारा पागत क्षपक मुनि का निरीक्षक परीक्षण करना । (२०) प्रतिलेख-समाधिमरण को सिद्धि कसो होगी इत्यादि विषयों का शोधन करना निरीक्षण करना। पृच्छा--समाधि के लिए अपने संघ में साधु के प्रा जाने पर संघनायक संघ से पूछते हैं कि इनको ग्रहण करना है या नहीं ? अर्थात् यह साधु समाधि के योग्य है या नहीं आप इस कार्य में समर्थक हैं या नहीं इत्यादि आचार्य द्वारा पूछा जाना। (२२) एकसंग्रह–एक प्राचार्य एक हो क्षपक मुनि को समाधि हेतु संस्करारूढ़ करते हैं, एक साय अनेकों को नहीं। (२३) आलोचना-जीवन पर्यन्त साधु अवस्था में जो दोष लगे हैं उनको आचार्य के लिए निवेदन कर देना। (२४) गुणदोष - मालोचना के गुण दोषों का कथन । (२५) शय्या-जहां भक्त प्रत्याख्यान मरण ग्रहण करता है वह स्थान बसतिका कंसी हो । (२६) संस्तर---जिस पर क्षपक लेटता है वह भूमि तृण आदि कैसे हों ? (२७) निर्यापक-क्षपक की सेवा करने वाले मुनिगण कैसे हों ? (२८) प्रकाशन -क्षपक को यावज्जीव आहार का त्याग कराने के लिए उसको आहार दिखाकर आहार से विरक्ति कगना । (२६) हानि--क्षपक से क्रमशः प्राहार पानो का त्याग कराना। (३०) प्रत्याख्यान-जोवन पर्यंत के लिए सर्वथा माहार त्याग । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] (३१) क्षामण-क्षपक द्वारा समस्त संघ से क्षमा याचना। (३२) क्षपणा-क्षपक द्वारा कर्मों की निर्जरा होना । उसका कथन । (३३) अनुशिष्टि-निर्यापक प्राचार्य द्वारा क्षपक के लिए महायत आदि मूलगुण तथा उत्तर गुणों का उपदेश देना । इसमें सबसे अधिक श्लोक हैं, यह सबसे बड़ा अधिकार है । (३४) सारणा-रत्नत्रय धर्म में क्षपक को प्रेरित करना । (३५) कवच-क्षपक को धर्मोपदेश द्वारा वैराग्यरूप दृढ़ कवच पहना देना इसमें धोर परीषह विजयी सुकुमाल आदि मुनियों को कथायें हैं। (३६) समता-समता भाव का वर्णन । (३७) ध्यान-धर्मध्यान आदि का सविस्तार कथन । (३८) लेश्या-छह लेश्या का कथन एवं मरते समय कौन सी लेश्या होवे तो क्षपक किस गति में जाता है इसका वर्णन। (३६) फल-चार पाराधनाओं को भाराधमा माया फल मिलता है। आराधक के शरीर का त्याग--क्षपक की मृत्यु होने के बाद संघ का कर्तव्य क्या है क्षपक के शव का क्या करना इत्यादि विषय का कथन । 1) अहं-जिस साधु को नेत्र दृष्टि अत्यल्प हो गयी है कर्ण श्रवण कार्य नहीं करते जंघाबल सर्वथा घट गया है असाध्य रोग जो कि साधु पद में बाधक है, उपसर्ग आ गया है, दुभिक्ष हो गया है इत्यादि कारणों के उपस्थित होने पर उस साधु के समाधि ग्रहण का अवसर है, अतः ऐसे साधु समाधि के अर्ह-योग्य कहलाते हैं । इसमें ६ कारिकायें हैं । लिंग--मुनि लिंग मुख्यतया समाधि का साधक है जो गृहस्थ अन्त में समाधि करना चाहता है वह मुनिलिम धारण करके समाधिमरण करे । मुनिलिंग के चार चिह्न हैं-अचेलकत्व, या नान्य वस्त्र, शस्त्रअलंकार का त्याग । लोच-दाढी मूछ. शिर के केशों को हाथ से उखाड़ना । व्युत्सृष्ट देहता-शरीर के ममत्व का त्याग । प्रतिलेखन-मयूर के पखों की पोछी धारण करना । इसमें २० कारिकायें हैं। ३) शिक्षा-जिनागम का सतत अभ्यास करना, इससे हेयोपादेय का हित अहित ज्ञान होता है, परिणाम, संवर, प्रत्यन संवेग, रत्नत्रयस्थिरत्व, तपोभावना, परदेशकत्व । इस प्रकार इसमें जिन शिक्षा का महत्व बतलाया है । इसमें १३ श्लोक हैं। (४) विनय -दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपविनय, उपचारविनय इन पांचों विनयों का कथन इसमें है । इसमें २४ श्लोक हैं। (५) समाधि- मनको समाहित शान्त स्थिर करना ममाधि है अथवा मनको वश करना समाधि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] जैसे वश में किया गया दास अन्यत्र नहीं जाता वैसे वंश हुद्या मन प्रशुभ में नहीं जाता इत्यादि । इसमें ११ कारिकायें हैं । ( ६ ) अनियत विहार - साबु वायुवद् निःसंग होकर सर्वत्र विहार करे कहीं पर भी प्रतिबद्ध न रहे इससे नत्र में स्थिरता आदि गुणों को प्राप्ति होती है । इसमें १० श्लोक हैं । (७) परिणाम — मेरे में कौन से समाधिमरण के ग्रहण की क्षमता है, अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने आज तक समाधि पूर्वक मरण नहीं किया अतः दुःख का भाजन बन रहा हूं । अब अवश्य ही समाधि युक्त मरण करूँगा । इत्यादि रूप समाधि के लिए दृढ़ परिणाम करना इत्यादि । इसमें ८ श्लोक हैं । ( ८ ) उपधित्याग -- परिग्रह का त्याग प्रर्थात् जो परिग्रह त्याग महाव्रत पहले से स्वीकार किया है उसमें विशेष रूप से दृढ़ता लाना, साधु योग्य पुस्तक आदि में भी ममत्व नहीं करना साधु योग्य वस्तु होते हुए भी विवेक युक्त ही ग्रहण करना इत्यादि । इसमें श्लोक हैं । श्रिति - सम्यक्त्वादि गुणों में प्रतिदिन विशुद्धि बढ़ाना । इसमें ७ कारिकायें हैं । ६ ( ९ ) (१०) भावना संघ के समक्ष अपनी समाधि ग्रहण की भावना व्यक्त करना, कांदर्पी आदि संक्लेश वाली शुभ ५ भावना का सर्वथा त्याग करना और तपो भावना. धैर्यं भावना प्रादि पवित्र शुद्ध भावना का आश्रय लेना इसमें एकत्व भावना में दृढ़ ऐसे नामदत्त नाम के महामुनि का कथानक है । इसमें २५ कारिकायें हैं । E सल्लेखना प्रादि अधिकार (११) सल्लेखना - संन्यास के सम्मुख व्यक्ति को बारह तपों में विशेष रीत्या संलग्न होना चाहिए । यह अन्तरंग और ग्रह बाह्य तप हैं इन तपों की विधि एवं इनसे होने वाला तत्कालीन लाभ आदि का सुन्दर विवेचन इस अधिकार में है भक्त प्रत्याख्यान का उत्कृष्टः काल बारह वर्ष प्रमाण है उसको इस प्रकार व्यतीत करें - विविध प्रतापन योग कायक्लेश आदि तपों द्वारा चार वर्ष व्यतीत करें, चार वर्ष समस्त रसों का त्याग करके पूर्ण करें, आत्राम्ल और रस त्याग द्वारा दो वर्ष तथा एक वर्ष आचामल तप द्वारा और अन्तिम छह मास उत्कृष्ट कायक्लेश द्वारा व्यतीत करें । कषाय सल्लेखना - कषायों का कृशोकरण या त्याग भी साथ साथ सर्वथा करना आवश्यक है तभी वह सल्लेखना कहलाती है। इसमें ६८ कारिकायें हैं । (१२) दिशा - समाधिमरण के इच्छुक व्यक्ति यदि प्राचार्य हैं तो वे अपना आचार्य पद योग्य शिष्य को शुभ नक्षत्र वार आदि में देते हैं एवं उनकी संघ संचालन का दिशा बोध देते हैं। इसमें ५ कारिका हैं । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] (१३) क्षमण-समस्त संघ को बुलाकर समाधि के इच्छुक आचार्य सर्व संघ के समक्ष क्षमा याचना करते हैं । इस में ३ श्लोक हैं। (१४) अनुशिष्टि --समाधि के इछुक आचार्य नवीन बनाये गये प्राचार्य को शिक्षा उपदेश देते हैं कि जिस प्रकार नदी का प्रवाह उद्गम स्थान में पल्प और सागर में प्रविष्ट होते समय विशाल होता है उस प्रकार आप अपने स्वयं के व्रताच रस में तथा संघ के प्रताचरण में प्रवृति करना अर्थात् उत्तरोत्तर ब्रताचरण में वृद्धि करते रहना, संघस्थ साधु द्वारा आलोचना करने पर उनके दोष कभी भी प्रगट नहीं करना इत्यादि तथा शिष्यों को भी हृदयस्पर्शी उपदेश देते हैं । इसमें यह शिक्षा दी है कि आप मुनिगण कमी भी पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनियों की संगति नहीं करना तथा प्रायिका की संगति कभी भो नहीं करना। इसमें ११२ कारिकायें हैं । परगणचर्या-समाधि के इच्छुक आचार्य दूसरे संघ में समाधि के लिए प्रवेश करते हैं-जाते है जिसमें अपरिस्रावी आदि गुणों से भूषित निर्यापक आचार्य हो । यदि अपने संघ में हो आचार्य समाधि करेगा तो बाल आदि मुनिजनों पर ममत्व होने से या किसी अज्ञानी मुनि द्वारा आज्ञा भंग होने से परिणाम क्लेशित होकर समाधि नष्ट होगी इत्यादि । इसमें १६ कारिकायें हैं। 185) मार्गणा-निर्यापक प्राचार्य अर्थात् जिसे सल्लेखना कराने की विधि ज्ञात है, वयावृत्य में रुचि सम्पन्न है ऐसे आचार्य का अन्वेषण करना । इसमें १६ कारिकायें हैं । सुस्थितादि अधिकार (१७) सुस्थित-निर्यापक आचार्य के पाठ गुण हैं--प्राचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान्, प्रका रक, आयापायहम्, उत्पीडक, सुखकारी और अपरिस्रावी । इन सबका विस्तृत विवेचन, इस अधिकार में है । अपरित्रात्री गुण उसे कहते हैं जो क्षपक के महान् से महान् दोष को भी प्रगट न करे । जिस प्रकार गरम तबे पर जल की बूंद समाप्त होती दिखायी नहीं पड़ती वैसे जो प्राचार्य क्षपक के दोष को नहीं दिखाता । यदि आचार्य अपरिस्रावी गुरण युक्त नहीं है तो क्षपक को महान हानि तथा धर्म का ह्रास होगा इत्यादि । इसमें १७ कारिकायें हैं । {१८) उपसर्पण-निर्यापक प्राचार्य के प्राप्त होने पर उनके निकट अपने प्रागमन का हेतु बतलाकर विनयपूर्वक आलोचना आदि के विषय में निवेदन करना तथा निर्यापक आचार्य द्वारा जरा अभ्यागत साधु को भाश्वासन देना । इसमें ६ कारिकायें हैं। ११) परीक्षग--निर्यापक प्राचार्य अभ्यागत समाधि के इच्छुक साधु का परीक्षण करते हैं कि इसमें सल्लेखना के प्रति कितना उत्साह है तया निमित्त आदि द्वारा यह भी देखते हैं कि रामाधिमरण निविघ्न होगा या नहीं । इसमें ३ कारिकाएं हैं । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] (२०) निरूपण-निर्यापक आचार्य समाधि के अनुकूल राज्य, राजा, देश आदि है या नहीं तथा अपने संघस्थ साधुओं का भाव भी देखते हैं। इसमें एक हो कारिका है । (२१) पृच्छा-निर्यापक आचार्य अपने संघ के साधुओं को पूछते हैं कि अपने को इस अभ्यागत साध की सल्लेखना करानी है । इसमें भी १ कारिका है । (२२) एक संग्रह संघ में एक ही साधु को सल्लेखना के लिए अनुमति देना चाहिए । अनेक को नहीं, जैसे मुख में एक ही प्रास लेते हैं । इसमें ३ कारिका है। (२३) आलोचना—आलोचना-विशुद्ध भावों से मायाचार छोड़कर करनी होती है, इसके लिए उद्यान यादि रम्य स्थान, शुभ वार, नक्षत्र आदि होना चाहिए । इन स्थान, प्रादि के विषय में इसमें सुन्दर विवेचन है । इसमें ४२ कारिकायें हैं । (२४) गुणदोष आलोचना करने से कितने गुण प्राप्त होते हैं और नहीं करने से कितने दोष आते हैं इसका विशद वर्णन तथा आलोचना दश दोषों को टालकर ही नियम से करना चाहिए इनमें से एक दोष से होने वाली हानि को उदाहरण सहित समझाया है । छल से गुरु से पूछे कि अमुक व्रत में दोष लगे तो क्या प्रायश्चित है प्रच्छन्न येत्या पूछकर स्वतः की शुद्धि हुई मानना छन्न नामा दोष है । अन्य के भोजन से अपनी तृप्ति हो तो अन्य के बहाने अपनी शुद्धि हो किंतु ऐसा सम्भव नहीं है इस: निराक सेना को १६ ई. समाधि पूर्वक मरण सम्भव है, अन्यथा नहीं इत्यादि कथन इस अधिकार में है । इसमें ६६ श्लोक हैं । (२५) शय्या-क्षपक जहाँ पर सल्लेखना करेगा वह स्थान कैसा होना जिससे कि क्षपक के ध्यान में विध्न न हो एवं वह स्थान पवित्र होना चाहिए इत्यादि कथन इसमें ८ कारिकायें हैं ।। (२६) संस्तर--क्षपक जिस पर लेटता है वह शिला, काष्ठ आदि रूप संस्तर कैसा होना चाहिए इसका वर्णन इसमें है । इसमें ८ कारिकायें हैं। निर्यापकादि अधिकार (२७) निर्यापक-क्षपक की वैयावृत्त्य के लिए नियषिक प्राचार्य ४८ मुनियों को नियुक्त करते हैं __४८ मुनिजन भी निर्यापक कहलाते हैं इनमें किस प्रकार के गुण होते हैं एवं इनकी किस किस कार्य में नियुक्ति होती है इस बात का मनोहर वर्णन इसमें है इसमें ४२ कारिफायें हैं । {२८) प्रकाशन--क्षपक मुनिराज को अन्न, स्वाद्य, और लेह्य इन तीन प्रकार के आहार को दिखाकर फिर त्याग कराना चाहिए, अन्यथा उक्त आहार में आसक्ति रह जाना सम्भव है, इसका इसमें वर्णन है । इसमें ७ कारिकायें हैं। (२६) हानि-क्षपक मुनि की मनोहर आहार में आराक्ति होवे तो उस आसक्ति को दूर करने का इरा में कथन है। इसमें ४ कारिकायें हैं। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] (३०) प्रत्याख्यान-क्षपक द्वारा तीन प्रकार के आहार का यावज्जीव तक त्याग किया जाता है। एक पेय पदार्थ ग्रहण करता है वह किस प्रकार होना इसका वर्णन है । इसमें १० श्लोक हैं। (३१) क्षामण-चतुर्विध संघ के समक्ष क्षपक द्वारा क्षमा याचना का सुन्दर विवेधन इसमें है। इसमें ४ कारिकायें हैं। (३२) क्षपण-समाधि में स्थित साधु अत्यन्त विशुद्ध एवं दृढ़ वैराग्य परिणाम द्वारा असंख्यात गुण श्रेणी निर्जरा करता है । इसका कथन इसमें है । इसमें ६ कारिकायें हैं। अनुशिष्टि महाधिकार (३३) अनुशिष्टि समाधिस्थ क्षपकराज मुनि एवं अन्य सभी साधु समुदाय को आचार्य द्वारा पंच महादत प्रादि का अत्यन्त सुन्दर अतिविस्तृत उपदेश इस महाधिकार में दिया गया है । एक एक महादत का इस प्रकार का हृदयस्पर्शी वर्णन भगवती आराधना ग्रन्थ तथा इस मरणकण्डिका ग्रंथ को छोड़कर अन्यत्र कहीं पर हाटगोचर नहीं होता है । इस अधिकार के दो श्लोक सूत्र रूप हैं मिथ्यात्ववमनं दृष्टि, भावनां भक्तिमुत्तमा । रति भाव नमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे कुरूद्यमम् ॥ ७५३ ॥ अर्थात- हे क्षपकराज साधो! तुम मिथ्यात्व का यमन करो, सम्यक्त्व को भावना करो, परमेष्ठियों में उत्तम भक्ति करो, परिणाम शुद्धि रूप भाव पंचनमस्कार में रति और ज्ञानाभ्यास में प्रयत्नशील होवो। सूत्ररूप इस कारिका में निर्दिष्ट मिथ्यात्व वमन का उपदेश ग्यारह श्लोकों में है इसी में मिथ्यात्व दोष से जिसकी आँख फूट गयी थी, ऐसे संघश्री नामा व्यक्ति की कथा का उल्लेख है । सम्यक्त्व भावना के वर्णन में नौ श्लोक है, राजा श्रेणिक की कथा है । भक्ति वर्णन में नो श्लोक हैं राजा पधरथ की कथा है । पंच नमस्कार का वर्णन करनेवाले सात श्लोक हैं । सुभग ग्धाले की कथा है । ज्ञानाभ्यास के वर्णन में सप्तरह श्लोक हैं इसमें यममुनि तथा दृढसूर्य चोर की कथा है । दूसरा सूत्ररूप लोक मुने महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपादि निग्रहम् । हृषीक निजयं द्वे'धा, तपोमार्गे कुरूद्यमम् ।। ७५४ ।। अर्थ- हे मूने ! महावत की रक्षा करो, क्रोध, मान, माया और लोभ का निग्रह करो, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करो, दो प्रकार के बाह्य अभ्यन्तर तप मार्ग में उद्यम करो। इस श्लोक में उल्लिखित चार विषयों में से पंचमहाव्रतों का वर्णन श्लोक ८०५ से १४२१ तक है । कषाय निग्रह और इन्द्रिय विजय वर्णन सम्मिलित रूप से १४२२ से १५१८ तक है । तप का वर्णन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] १५१६ से १५४६ श्लोकों तक है। अहिंसा महाव्रत के कथन में यमपाल चांडाल की, सत्यमहाव्रत में राजावसु को कथा है । ब्रह्मचर्य के वर्णन में तो प्राचार्य देव ने जो सांगोपांग विवेचन किया उसे पढ़कर कौन सा सहृदय व्यक्ति प्रब्रह्म से विरक्त नहीं होगा ? अवश्य होगा। इसमें काम के दोष बताते हुए वारत्रिक, गोरसंदीव और कडारपिंग की कथा है, स्त्रीदोष में रक्ता, गोपवतो और वोरवती का उल्लेख है। शरीर दोष में सुरत राजा को कथा । वृद्ध सेवा में चारुदत्त की कथा तथा संगति दोष वर्णन में शकट, कुपार, रुद्र, पाराशर आदि का उल्लेख है । परिग्रह त्याग महाव्रत में पांच कथाओं का उल्लेख है । गुप्ति समिति पांच महाव्रतों को पच्चीस भावनाएं इनका वर्णन कर, दशल्य त्याग का उपदेश है । इन्द्रिय दोष कथन में भी अनेक उदाहरण हैं। कषाय के दोषों के वर्णन में द्वीपायन आदि का समुल्लेख है । अन्त में निद्रा जीतने के उपाय तथा तपस्या की प्रेरणा पुर्वक यह महाधिकार पूर्ण होता है । सारणादि अधिकार (३४) सारणा - समाधिस्थ मुनि वेदना से पीड़ित होने पर उन्हें पुनः पुनः जिनवारो को शिक्षारूप अमृत से स्थिर करना वैयावृत्य द्वारा वेदना का प्रतीकार करना, क्षपक बेदना से बेहोश होने पारूप नियपिक आचार्य का परम कर्तव्य है वेदना से प्राकुलित क्षपक की जो उपेक्षा करता है वह प्रधार्मिक है, वह क्षपक को भवसमुद्र में डुबोने वाला है और जिनधर्म बाह्य है। इसमें २० कारिकायें हैं । (३५) कवच - जिस प्रकार रण में प्रवेश करने वाला सुभट यदि लोहमय कवच पहिने हुए है तो वह बाण आदि से घायल नहीं होता और क्रमशः युद्ध में विजय प्राप्त करता है उसी प्रकार महान् महान् उपसर्ग विजेता मुनिपुंगवों की कथानों द्वारा दिव्य उपदेश रूपी कवच क्षपक को प्राचार्य पहिना देते हैं। उससे यह समाधिस्थ साधु घोरता पूर्वक क्षुधादि की बाधा सहन कर कर्म शत्रु पर विजय प्राप्त करता है। इसमें सुकुमार आदि घोर उपसर्ग विजयी १५ मुनियों की कथायें हैं। इसमें १७६ श्लोक हैं । ( ३६ ) समता - निर्यापक आचार्य पुनरपि क्षपक को आहार, पान वैयावृत्य करने वाले तथा शय्या आदि में समभाव रखने का उपदेश देते हैं । इसमें १५ कारिकायें है । ध्यानादि अधिकार ( ३७ ) ध्यान - प्रथम हो प्रातं रौद्र रूप दो प्रशुभ ध्यानों का त्याग करना बताया है फिर धर्म्यध्यान के वर्णन में उसका परिकर, भेद आदि का कथन है इसी में बारह भावनायें हैं । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४ ] संसार भावना के अन्तर्गत पंचपरावर्तन का कथन है । लोक भावना में अठारह नाते की कया, सुभोग राजा की कथा और सुदृष्टि सुनार की कथा है । शुक्लध्यान के कथन में उसके चार भेद और उनके स्वामी का प्रतिपादन किया है । ये धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही श्रेष्ठ तप संयम आदि हैं इत्यादि ध्यान का माहात्म्य बतलाया है इसमें २०३ श्लोक हैं। (३८) लेश्या-लेश्या के छह भेदों का कथन करके किस लेश्या के साथ मरण करने पर कहां उत्पन्न होता है यह बताया है शुक्ल लेश्या के उत्कृष्ट अंश के साथ मरण करने वाले क्षपक मुनि की उत्कृष्ट आराधना होती है और पीत लेश्या के साथ मरण करने वाले के जघन्य पारा धना होती है । इसमें १८ श्लोक हैं। (३६) फल-सम्यग्दर्शन प्रादि चार आराधना सहित सन्यास करने वाले साधु के उत्कृष्ट आराधना पूर्वक सिद्ध पद प्राप्त होता है, मध्यम प्रारराधना बाले यदि शुक्ल लेल्या युक्त हैं तो अनुत्तर विमानों में अहमिन्द्र पद प्राप्त करते हैं । कोई लौकान्तिक देव होते हैं, कोई सोलह स्वर्गों में इन्द्र पद प्राप्त करते हैं । जघन्य आराधना करने वाले यथायोग्य सौधर्मादि स्वर्गों में देव होते हैं। जो समाधि का नियम लेकर भी वेदना प्रादि से विचलित होते हैं अथवा कांदी आदि खोटी भावना से संयुक्त हैं वे समाधि को विराधना कर देवदुर्गति में जन्म लेते हैं । इममें ३८ श्लोक हैं। आराधक अंग त्याग--क्षपक मुनि का समाधि मरण होने पर उस शरीर को यावत्य करने वाले धेर्यशाली मुनिगण नैऋत, दक्षिण या पश्चिम दिशा में ले जाकर मटबी में रख देते हैं । वह स्थान समभूमिरूप होना चाहिए रात्रि में समाधि होये तो रात भर जागरण करना होगा एवं क्षपक के शरीर में छेदन करना भी आवश्यक है, मृतक को ले जाने प्रादि की विधि मूल में पूर्ण रूप से देखना चाहिए । जघन्य मध्यम आदि नक्षत्र में समाधि होवे तो क्या करना यह भी बताया है । समाधि रूप महायज्ञ में जो सहयोगी हैं, यावृत्य करते हैं, यहां तक जो केवल दर्शन वन्दन भी करता है वह जीव महान् भाग्यशाली है, उसका भी समाधि पूर्वक मरण होता है इस प्रकार इस अधिकार के अन्त में निर्यापक प्रादि को विशेषता कही है। इसमें ४१ श्लोक हैं। प्रयोचार भक्तत्याग इंगिनी, प्रायोपगमनाधिकार प्रतुल बोर्णधारो महामुनिराज अकस्मात् मरण के कारण उपस्थित होने पर प्राहार स्याग कर प्रवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण को स्वीकार करते हैं। इसके तीन भेद हैं । इंगिनी मरण में पर के उपकार की अपेक्षा नहीं होती और प्रायोपगमन मरण में तो अपने और पर दोनों के उपकार, सेवा, वैयाबृत्य की अपेक्षा नहीं होती, इसमें सर्वथा शरीर चेष्टा मे रहित Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] निश्चल स्थित होकर आरमध्यान पूर्वक प्राणों का विसर्जन किया जाता है। इस अधिकार में अल्पकाल में ही अपने हित के साधक महामुनि विवद्धनकुमार, धर्मसिंह, वृषभसेन, यतिवृषभ और शकटाल मुनियों को कथायें हैं। इनमें अन्त की तीन कथाएं तो बड़ी ही रोमांचकारी और विस्मयकारी हैं । इसमें ६६ श्लोक हैं । बालपंडित मरणाधिकार पंचम गुणस्थानवी जीवों के बालपंडित मरण होता है जो एक बार बालपंडित मरण कर लेता है वह सातवें भव में मुक्त हो जाता है । इसमें १० ही कारिकायें हैं। पंडितपंडित मरणाधिकार यह मरण १४ गुणस्थानवर्ती अरहंत भगवान के होता है यही निर्वाण कहलाता है। इसमें शुक्लध्यान द्वारा धाति और अघाति कर्मों का नाश किया जाता है। शुक्लध्यान की बाह्य सामग्री का किंचित् वर्णन कर क्षपक श्रेणी में मोहनीय प्रादि कर्मों के नाश का क्रम बतलाया है, पुनश्च केवलो समुद्घात तथा अंत में ८५ अधातिकर्मों का नाश होता है । सिद्धों के सुख का सुन्दर रीत्या विवेचन किया है। इसमें ६५ श्लोक हैं। सब अधिकारों के कूल २२३५ श्लोक हैं । रत्नत्रय स्वरूप आराधना का पृथक रूप से ३२ श्लोकों में स्तोत्र किया गया है तथा कौन से नक्षत्र में समाधि-संस्सर ग्रहण करे तो कौन से मात्र में मरण होगा इस विषय का प्राकृत भाषा में कथन है और अंत में आठ श्लोकों में ग्रंथकर्ता अमितगति प्राचार्य की प्रशस्ति है। --मायिका शुभमती Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका विषय श्लोक २८-५७ ir or in पोठिका मंगलाचरण एवं प्रतिज्ञा चार आराधना के सिद्धि के पांच हेतु द्योतम, मिश्रण, सिद्धि, न्यूढि, निन्यू ढि संक्षेप से दो पाराधना कही है मिश्याष्टिके (फ भी मायना नहीं होती आराधना सदा हो भावित होना चाहिए बाल मरणाधिकार मरण के सतरह भेद मरण के संक्षेप में पांच भेद पांच प्रकार के मरणों के स्वामी पंडित मरण के तीन भेद सम्यक्त्व आराधना २. बाल-बाल मरणाधिकार ३. भक्त प्रत्याख्यान मरण अर्ह आदि अधिकार भक्त प्रत्याख्यान मरण के दो भेद-सभिचार, अविचार अहं. लिग, शिक्षा आदि चालीस अधिकारों का नाम निर्देश अर्ह-सल्लेखना कौन धारण करें लिंग अधिकार औत्सगिक लिंग, अनीत्सगिक लिंग श्रौत्सगिक लिंग के चार प्रकार-अचेलकरव, लोच, व्युत्सृष्ट देहता, प्रतिलेखन अचेलकत्व वर्णन लोन वर्णन ५८-६८ ६९-२०६ २२-२४ २५-६६ २६-२६ २६-३० ३०-३७ ३० ८२ ८३-८८ ३२-३४ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ३७-४० ४०.४६ ४९-५२ [ २७ ] विषय श्लोक व्युत्सृष्ट देहता प्रतिलेखन ९७-९९ शिक्षा नामा तीसरा अधिकार [ भक्त प्रत्याख्यान के चालीस अधिकारों में से तीसरा] १.०.११२ भक्त प्रत्याख्यान के ४० अधिकारों में से विनय नामा ४ अधिकार ११३-१३७ समाधिनामा ५वां अधिकार भक्त प्रत्याख्यान के ४० अधिकारों में से ५वां] १३-१४९ मनको शांत, स्थिर करना, अशुभ से रोकना समाघि है १३८ भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से ६ अनियत विहार अधिकार १५०-१६० अनियत विहार से सम्यक्त्व में शुद्धि, रत्नत्रय में स्थिरता परीषह जय का अभ्यास आदि गुण प्राप्त होते हैं साघुत्रों को कण्ठगत प्राण होने पर भी आगम की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए भक्त प्र० के ४० प्रधिकारों में से ७ परिणाम अधिकार १६१-१६८ पालन्द विधि, परीहार विधि १६२ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से ८वां सपधित्याग अधिकार १६९-१७७ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से ९वां निति अधिकार १७८-१८४ भक्स प्र० के ४० अधिकारों में से १० भावना अधिकार १८५-२०९ कांदी आदि पांच संक्लिष्ट भावना त्याज्य हैं, इनका स्वरूप १९६-१६१ संक्लेश रहित तपोभावना प्रादि पाच भावना ग्राह्य हैं नागदत्त मुनि की कथा २०६ सल्लेखनादि अधिकार २१०-४३२ बाह्य तप के भेद, अनशन तप के सार्वकालिक और प्रसार्वकालिक दो भेद २१३ अवमौदर्य, रस त्याग आदि २१६-२४१ भिक्षु प्रतिमा भक्त प्रत्याख्यान सन्यास का काल १२ वर्ष उत्कृष्ट है, उक्त काल में फंसा तप करें २५९.२६३ ५२-५६ ५३-५४ ५६-५९ ६२-६३ ७०.१३१ ७१ ७१-७८ ८२ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ८८-८९ ८६ ८६-१० ६०-१२० ६७-१०३ १०४-१०६ १०७-१०८ १०८-११७ ११७.१२० [ २८ ] विषम श्लोक भक्त प्र० के ४, अधिकारों में से १२ दिशा अधिकार २७८-२८२ तीर्थ प्रवृत्ति निमित्त नवीन प्राचार्य को शिक्षा-दिशा बोध देना २५२ भक्त प्र० के ४० अधिकार में से क्षमा अधिकार २८३-२८५ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से १४ अनुशिष्टि अधिकार २८६.३९८ समाधि के इच्छुक प्राचार्य द्वारा नूतन आचार्य को हृदयनाही शिक्षा देना, मार्जार के शब्द के समान पाचरण नहीं करना यावृत्य के १८ गुण ३१३-३३३ आयिका की संगति त्याज्य है पावस्थादि भ्रष्ट मुनियों का संसर्ग त्याज्य है ३४६-३४९ सज्जन दुर्जन संग आचार्य की शिक्षा को सुनकर सर्व संघ हर्ष से रोमांचित होता है उनकी विनय एवं स्तुति करता है। ३६७-३६६ भक्तप्र० के ४० अधिकारों में से १५वां परगण चर्या नामा अधिकार ३९९-४१५ आचार्य यदि स्व संघ में समाधि करे तो बाल आदि मुनियों पर ममत्व प्रादि परिणाम होते हैं अतः पराये संघ में जाना चाहिये ४०५ पर संघ में ममत्व प्रादि दोष नहीं पाते ४१२ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से १६या मार्गण अधिकार ४१६-४३२ समाधि का इच्छुक प्राचार्य पांच सौ आदि योजन तक निर्यापकाचार्य का अन्वेषण करें ५. सुस्थितादि अधिकार निर्यापक आचार्य के आठ गुणों के नाम दशस्थिति कल्प ४३३-४३८ व्यवहार शब्द का अर्थ यहां पर प्रायश्चित्त है उसके पांच भेद ४६५ अपरिस्रावोमुरण यदि प्राचार्य में न होवे तो महान् हानि ५०६-५१४ . भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से १८वा उत्सर्पण अधिकार ५३.-५३५ निर्यापकाचार्य के निकट जाना १२०-१२५ १२२ १२५-१३१ १२५ १३२-२०१ १३२ १४२ १५४-१५६ १६०-१६२ ५३० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ . १६४-१६६ १६५.१७६ १७५ [ २६ ] विषय श्लोक भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से १६वा परीक्षण अधिकार ५३६-५३८ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से २० निरूपण अधिकार भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से २१वां पृच्छा अधिकार । ५४० भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से २२वां एक संग्रह अधिकार ५४१-५४३ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से २३वां पालोचना अधिकार ५४७-५८९ आलोचना करने का योग्यकाल मालोचना के योग्य स्थान ५८४-५८६ भक्त प्र. के ४० प्रधिकारों में से २४वां गुण दोष प्रधिकार ५९०-६५८ पालोचना के दस दोष वर्णन ५९०-६३३ भक्त प्र० के ४० अधिकारों में से २५वा शय्या अधिकार ६५९-६६७ भक्त प्र. के ४० अधिकारो में से २६वां संस्तर अधिकार ६६८-६७५ ६. निर्यापकादि अधिकार ६७६-७४६ नियमिक-मरियारक मुनि ४५ होनाः । उनके सेना के विभाग ६७७-६९१७ कम से कम दो निर्यापक होना भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से २८वा प्रकाशन अधिकार ७१६-७२५ भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से २६वा हानि अधिकार ७२६-७२६ भक्त प्र. के ४० अधिकारा में से ३०बां प्रत्याख्यान अधिकार ७३०.७३६ भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से ३१वां क्षामण अधिकार ७४०-७४३ भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से ३२वां क्षपण अधिकार ७४४-७४९ ७. अनुशिष्टि महाधिकार ७५०-१५६७ निर्यापकाचार्य द्वारा क्षपक को महान् दिम्ब उपदेश देना कि हे मुने ! तुम मिथ्यात्व का वमन करो ७५३-७५४ संवश्री की कथा ७६२ मम्यक्त्व भावना में श्रणिक की कथा ७७१ जिनेन्द्र भक्ति में पसरथ की कथा ७८३ गणमोकार माहात्म्य में सुभग ग्वाले की कथा यम मुनि की कथा ८०४ दृढ़ सूर्य चोर की कथा ८०५ १७६-१९७ १७९-१६० १६७.१९९ २००-२०१ २०२-२२१ २०२-२०८ २०८ २१३.२१४ २१४-२१६ २१८२१६ २२०.२२१ २२२-४५१ २२५.२२६ २२-२२६ २३२-२३३ २३४-२३५ २३२-२३६ २३६-२४० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय अहिंसा महाव्रत वर्णन यमपाल चांडाल की कथा सत्य महाव्रत वर्णन वसुराजा की कथा अचौर्य महाव्रत वर्णन ब्रह्मचर्यं महाव्रत वर्णन दश अब्रह्म काम दोष वर्णन वारत्रिक नामके भ्रष्ट मुनि की कथा गोरसंदोवनामा भ्रष्ट मुनि की कथा कडार पिंग की कथा स्त्रीदोष वर्णन रक्ता रानी की कथा गोपवती की कथा वीरवतो की कथा शोलवती स्त्रियों की प्रशंसा शरीर दोष वर्णन सुरत राजा की कथा वृद्ध सेवा वर्णन चारुदत्त की कथा संगति दोष वर्णन शकट, पार, रुद्र, पाराशर, देवर्षि, देवपुत्र और सात्यकि स्त्री संगति से भ्रष्ट हुए सात्यकि और रुद्र की कथा पाराशर, शकट और कूपार की कथा परिग्रह त्याग महाव्रत वर्णन सगे दो भाईयों की कथा [३०] चोरों की कथा धनलोभी जिनदस की कथा श्लोक ८०१-८५१ ८५० ६९२-८५२ ८७६ ८८३-९०७ ९०८-११७१ १३-९७३ ९४२ ९४७ ९७० ६७४- १०४६ ६८५ ९८६ ९८७ १०३४-१०४९ १०५०-११२० ११११ ११२१-११३६ ११३३ ११३७-११६१ ११५३-११५४ ११७२-१२४० ११८३ ११८४ ११८५ पृष्ठ २४१-२५२ २५१ २५२-२५८ २५७ २५९-२६४ २६४-३३० २६४-२६५ २६५-२८० २७१-२७२ २७३-२७४ २७८- २७९ २८०-२९६ २५३ २८३ २-४ २९३-२९० २९८-३१४ ३११ ३१४-३१६ ३१७-३१८ ३१६-३२७ ३२२ ३२३ ३२४ ३३०-३५१ ३३४ ३३५ ३३५-३३६ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय श्लोक पृष्ठ ११६७ ३४०-३४१ ३५२-३५३ ३५३ १२४४-१२४७ १२४८ १२४६-१२५१ १२५२ १२५३-१२५४ १२६१-१२५० १२७१-१३५० १२७५ १२६३ १३४२ १३४८ पिण्याक गंध की कथा फएहस्त को काथा गुप्तित्रय ईर्यासमिति माषासमिति एषणासमिति प्रादान निक्षेपण समिति, प्रतिष्ठापण समिति अहिंसादि ब्रतों की पच्चीस भाषनाएँ शस्य त्रय वर्णन वशिष्ठ मुनि की कथा लक्ष्मीमती को कथा संभूत को कथा पुष्पदंता आर्यिका की कथा मरीचि की कथा पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनि इन्द्रिय दोष कथन गंधमित्र की कथा गंधर्वदत्ता की कथा भीमराजा की कथा सुवेग घोर की कथा गोप में आसक्त नागदत्ता को कथा कोप के दोष द्वीपायन मुनि की कथा मान के दोष सगर चको के साठ हजार पुत्रों की कथा माया के दोष मायावी भरत नामा कुम्हार को कथा लोभ दोष कार्तवीयं की कथा ३६४-३६८ ३७०-३६४ ३७१-३७२ ३७५ ३६०-३६१ ३६२-३६३ ३९३.३६४ ३६५-४०१ ४१०-४१५ ४११ ४११-४१२ १३५५-१३८१ १४२०-१४२९ १४२३ १४२४ १४२५ १४२६ १४२७ १४३०.१४४५ ४१४ १४१६-१४५२ १४५२ १४५३-१४६१ १४६० १४६२-१४६७ १४६६ ४१९ ४१६-४२२ ४२१-४२२ ४२२-४२४ ४२४ ४२४-४२६ ४२५-४२६ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय इन्द्रिय विजय का उपाय कषायों के विजय का उपाय निद्रा को जीतने का उपाय तपस्या की प्रेरणा 5. सारणावि अधिकार वेदना से पीड़ित क्षपक को निर्यापक आचार्यं दिलाटी हैं, एयविषयक क्षपक के वेदना का यथाशक्य प्रतीकार करते हैं भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से ३५वां कवच अधिकार सुकुमार मुनि की कथा सुकौशल मुनि की कथा गजकुमारमुनि की कथा सनत्कुमार मुनि की कथा एरिक पुत्र की कथा धर्मघोष मुनि की कथा श्रीदस मुनि को कथा वृषभसेन मुनि की कथा कातिकेय मुनि को कथा अभयघोष मुनि की कथा विद्युतचर की कथा गुरुदत्त मुनि की कथा चिलात पुत्र मुनि की कथा [ ३२ ] दण्डमुनि को कथा अभिनंदन श्रादि पांचसो मुनियों की कथा बाचायं वृषभसेन की कथा नरकगति के दुःख तिर्यंचगति के दुःख मनुष्यगति के दुःख देवगति के दुःख श्लोक १४८७-१४६४ १४९५ - १५१४ १५१५-१५२६ १५२७- १५५४ १५६८-१७८३ १५७४- १५८७ १५८८-१७६७ १६१८ १६१६ १६२० १६२१ १६२२ १६२४ १६२५ १६२६ १६२७ १६२८ १६२९ १६३० १६३१ १६३२ १६३३ १६३४ १६३९-१६५ε १६६०-१६६७ १६६८-१६७८ १६७ε- १६८२ पृष्ठ ४३०-४३२ ४३२-४३८ ४३६-४४२ ४४२-४४८ ४५२-५१४ ४५३-४५६ ४५६-५०६ ४६२ ४६३ ૬૪ ४६४-४६५ ४६६ ४६६-४६७ ४६७-४६८ ४६८-४६९ ४६६-४७० ४७ १ ४७१-४७२ ४७३-४७४ ४७४-४७५ ४७५-४७६ ४७६-४७७ ४७७-४७८ ४७९-४-२ ४८३-४५४ ४८५-४६७ ४८७-४८८ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] विषय १ष्ठ ४९६-४९८ ५१५ ५१६ ५१७ ५१-५२३ ५२३-५७० ५२४-५२६ ५.२७-५३० ५३१.५३३ श्लोक पंचपरमेष्ठियों के साक्षीपूर्वक किया गया पाहार का प्रत्याख्यान छोड़े तो वह परमेष्ठियों की विराधना हो हुई १७१६-१७२६ सुभौम चक्री को कथा १७३३ भक्त प्र. के ४० आंधकारों में से ३६वां समता अधिकार १७६८-१७८३ ध्यानादि अधिकार १७८४ रौदध्यान के चार भेद १७८७ आतध्यान के चार भेद १७८६-१७९० ध्यान का परिकर १७६१ घHध्यान के चार भेद १७६३-१७६९ बारह भावना १८००-१९६४ अनित्य भावना १८०१-१९१३ अशरण भावना १८१४-१८३१ एकत्व भावना १८३२-१८४१ अन्यत्व भावना १८४२-१८५७ संसार भावना १८५८-१९८८ लोक भावना १८८६-१९.३ अशुचि भावना १६०४-१६११ आस्रव भावना १९१२-१९२६ संवर भावना १६२७-१६३६ निर्जरा भावना १९३७-१९४७ धर्म-भावना १६४८-१९५६ बोधि दुर्लभ भावना १६५७-१९६४ शुक्लध्यान का वर्णन १९६८-१९७३ भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से लेश्या नामा ३च्या अधिकार १९८७-२००४ भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से आराधना फल नामा ३९वां अधिकार २००५-२०४३ भक्त प्र. के ४० अधिकारों में से अंतिम ४०वां आराधक त्याग नामा अधिकार २०४४-२०७३ ५३-५४६ ५४७-५५३ ५५४-५५५ ५५५-५५६ ५६२-५६५ ५६५-५६७ ५६७-५७० ५७१-५७५ ५७८-५८३ ५८३-५९३ ५६३-६०२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ६०६-६२५ ६०६-६१२ ६१६-६२१ ६२२ ६२२-६२३ ६२३-६२४ [ ३४ ] विषय श्लोक १०. अयोचार भक्त त्याग इंगिनो प्रायोपगम अधिकार २०८४-२१४६ प्रबोचार भक्त त्याम के तीन भेद, विरुद्ध, विरुद्धतर और विरुद्धतम २०८५-२१०१ इंगिनीमरा २१०२-२१३३ प्रायोपगमनमरण २१३४-२१४३ धर्मसिंह मुनि को कथा २१४५ वृषभसेन मुनि की कथा यतिवृषभ आचार्य की कथा २१४७ शकटाल मुनि को कथा २१४८ ११. बालपंडित मरणाधिकार २१५०-२१५६ १२. पंडित पडित मरणाधिकार २१६०-२२३५ यह मरण चौदहवें गुणस्थान में होता है क्षायिक सम्यक्त्व, क्षपक थे रिण प्रादि का कथन २१६५-२१७४ केवली समुद्घात २१८२-२१८५ अघातियाकर्म नाश २१५१-२१६९ सिद्धों का निवास, सिद्धों का सुख २२०७-२२२९ आराधना स्तवन नक्षत्र वर्णन ग्रथ कर्ता को प्रशस्ति अनुवादिका को प्रशस्ति ग्रंथ के श्लोकों का वर्णानुक्रम शुद्धि पत्र ६२६-६२८ ६२६-६४६ ६३८-६४० ६४२-६४४ ६५०-६५९ ६६०-६६३ ६६४-६६६ ६६९-७०६ ७१० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्य १०८ आचार्य रत्न श्री अजितसागरजी महाराज का संक्षिप्त जीवन वृत्त गौरवर्ण, मध्यम कद, चौड़ा ललाट, भीतर तक झांकती-सी ऐनक धारण की हुई आंखें हितमित प्रिय धीमा बोल, संयमित सधी चाल और सतत सान्त मुद्रा, बस यही है इनका अंगन्यास । विषयाशाविरक्त, अपरिग्रही, ज्ञान-ध्यान- तप में निरत विद्यारसिक, महापण्डित, निस्पृह, भद्रपरिणामी, साधना में कठोर, वात्सल्य में मुकोमल, सरल प्रवृत्ति, तेजस्वी महान् आत्मा, बस यही है इनका अन्तर आभास | जिसका आदर्श जीवन दूसरों के लिये प्रेरणा का स्रोत हो, जो कहने की अपेक्षा करके बताए और जो मनुष्य पर्याय में 'करणीय' को आत्मसात् कर सतत विकासोन्मुख हो, वास्तव में जीवन वही है, अन्यथा जीवन की घड़ियां तो सबकी बीतती ही हैं । विद्वत्ता और चारित्र परस्पर पूरक है। श्रद्धा इनको दृढ़ता प्रदान करती है और इन तीनों का सामंजस्य जीवन का लक्ष्य रत्नत्रय बन जाता है इस रत्नत्रय का भव-भवान्तरों तक सतत साधन ही एक दिन साधक को अपने गन्तव्य तक पहुँचाता है वह गन्तव्य है मुक्ति, निर्वाण, सिद्धावस्था | वर्तमान के ऐसे ही साधकों में एक नाम है- आचार्य रत्न अजितसागर । यथा नाम तथा गुण । विक्रम संवत् १६८२ में भोपाल ( म०प्र०) के निकट 'आष्टा' कस्बे से जुड़े भौंरा ग्राम में परम पुण्यशाली सुश्रावक श्री जबरचन्दजी पद्मावती पुरवाल के घर माता रूपाबाई की कोख से एक बालक ने जन्म लिया था। आज प्रायः सबके जन्मों का लेखा-जोखा नगरपालिकायें रखती हैं पर कुछ ऐसे भी हैं जिनके जन्म का लेखा राष्ट्र, समाज और जातियों के इतिहास प्यार से अपने अंक में सुरक्षित रखते हैं । यह बालक भी ऐसा ही था - राजमल । परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य थी । साधारण काम धन्धा था, अतः अपने बड़े तीन भाइयों की तरह बालक राजमल की भी स्कूली शिक्षा पूर्ण नहीं हो सकी, पर बालक की बुद्धि प्रखर थी, स्वभाव सरल था और व्यवहार विनम्र अतः वस्तु-परिज्ञान उसे शीघ्र ही हो जाता था । पर अध्ययन का क्रम नहीं चल सका । बस, इन्दौर जिले के अजनास ग्राम में स्कूली शिक्षा विधिवत् कक्षा चार तक ही हो Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ (ख) सकी। राजमल को इस भौतिक अर्थकरी शिक्षा से प्रयोजन भी क्या था। उसे तो आत्म विद्या में दक्षता पानी थी। अपने असीम पुण्योदय से 'राजमल' को संवत् २००० में आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के दर्शनों का प्रथम सौभाग्य मिला, आचार्य श्री एवं संघ के सान्निध्य से आपके जीवन की दिशा ही बदल गई । आपके हृदय में परम कल्याणकारी जैन धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा बलवती हुई। १७ वर्ष को किशोरावस्था में ही परम पूज्य आनावर श्री वीरसागरजी महाराज की सत्प्रेरणा से प्रभावित होकर आप संघ के अभिन्न अंग हो गये और आपने जैनागम का टोस गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। जैसे जैसे आपकी निर्मल आत्मा में ज्ञान प्रगट हुआ तैसे-तैसे आपकी प्रवृत्ति बैराग्योन्मुख होने लगी । ज्ञान का फल वैराग्य ही तो है। स्वामि कातिकेयाचार्य ने कहा है इय दूलहं मणयत्त लहिणं जे रमंनि विसएम् । तेलहिय दिब्बरयणं, भुइणिमित्त पजालंति ।। इस दुर्लभ मनुष्य-पर्याय को प्राप्त करके भी जो इंद्रियों के विषयों में रमते हैं, वे मुढ़ दिव्यरत्न को पाकर उसे भस्म के लिये जलाकर राख कर डालते हैं 1 जैनागमों का आपका अध्ययन फलीभूत हुआ। २० वर्ष के नवयौवन में जहां आज युवक-युवतियां शादी-व्याह की चिन्ता में रत रहकर अपना संमार बढ़ाने का आयोजन करते हैं, वहीं 'राजमल ने विक्रम संवत् २००२ में झालरापाटण (राजस्थान) में आचार्य श्री से सप्तम प्रतिमा (आजीवन ब्रह्मचर्य) के नत अंगीकार कर भोगों से विरति का उपक्रम प्रारम्भ किया । अब राजमल ब्रह्मचारी राजमल हो गये । बुद्धि तो प्रखर थी ही, लगन और अथवा श्रम से आपने आगम ज्ञान का मानसिक और भौतिक दोनों रूपों में संचय क्रिया, फलस्वरूप संघ और समाज में आपको 'महापण्डित' के रूप में लोकप्रियता मिली। परन्तु आत्मार्थी ब्र. राजमल को इस लोकप्रियता और विद्वत्ता से तृप्ति नहीं मिली। उन्हें तो अमृतचन्द्राचार्य की इस उक्ति पर पूर्ण आस्था थी आत्मध्यानरनिर्जेय, विद्वत्तायाः परं फलम् । अशेषशास्त्रशास्तृत्वं, संसारोऽभापि धीधनैः ।। _ 'विद्वत्ता की सफलता इसी में है कि आत्मज्ञान में लीनता हो । यदि वह नहीं है तो उसका सम्पूर्ण शास्त्रों का शास्त्रीपना (पठन-पाठन, विवेचन आदि कार्य) संसार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ (ग) के सिवाय और कुछ नहीं है। उसे भी सांसारिक धन्धा अथवा संसार परिभ्रमण का ही एक अंग समझना चाहिये । परिणामतः आपने सीकर (राज.) में अपार जनसमुह के बीच परम पूज्य दिगम्बर जैनाचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से सम्पूर्ण अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह ना याग करके पार्दिक शुदला दर्थी संवत् २०१८ के दिन महाव्रत अंगीकार कर मुनि-दीक्षा ग्रहण की। अब ब्र० राजमल मुनि श्री अजितसागर हुए । विद्या व्यसनी मुनि श्री संघ में पठन-पाठन के ही कार्य में संलग्न रहते थे, एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाते थे, वि. सं. २०२५ तक अपने दीक्षागुरु के सान्निध्य में रहे और पिछले कुछ वर्षों से संघ का स्वतन्त्र नेतृत्व कर रहे हैं। और अब ई. सन् १९८७ से परंपरागत चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य परमेष्ठी के रूप में स्वपर हित में संलग्न हैं। अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी मुनिश्री संस्कृत-व्याकरण, जैन न्याय, दर्शन, साहित्य तथा धर्म आदि में निष्णात 'ज्ञानध्यानतपोरक्तः' साधु हैं। विधिवत् शिक्षण के बिना ही अपने श्रम और विचक्षण प्रतिभा से आपने जो जानार्जन कर उसका फल भी प्राप्त किया है, उसे देखकर अच्छे-अच्छे विद्वान् भी आश्चर्यान्वित हो नतमरतक हो जाते हैं । आज भी आपकी ज्ञानार्जन की रुचि और तल्लीनता सबके लिये ईष्र्या की वस्तु है। आप बड़ी रुचि के साथ संघस्थ साधुओं तथा आर्यिकाओं को अध्ययन कराते हैं तथा अन्य सचिशील जिज्ञासुओं की शंकाओं का सन्तोषप्रद समाधान करते हैं। ___आपकी दिन चर्या एवं कार्यप्रणाली देखकर लगता है कि जैसे एक परीक्षार्थी परीक्षा में सफलता प्राप्ति हेतु परीक्षा के दिनों में बड़ी तन्मयता और परिश्रमपूर्वक अध्ययन में प्रवृत्त होता है, उसमे भी कहीं बहुत लगन मे पूज्य श्री आत्म कल्याणरूपी परीक्षा में सफलता हेतु सतत तैयारी कर रहे होते हैं। अध्ययन अध्यापन के अतिरिक्त आपकी रुचि दुष्प्राप्य एवं अप्रकाशित प्राचीन ग्रन्थों के प्रकाशन की भी रहती है । वर्षायोग में या बिहार-मार्ग में जहां भी आप जाते हैं, ग्रंथ भण्डारों का अवलोकन करते हैं और अप्रकाशित रचनाओं का संशोधन कर उन्हें प्रकाशित करने की प्रेरणा देते हैं। अद्यावधि आप द्वारा संशोथित तथा आपकी प्रेरणा से प्रकाशित निम्नलिखित कृतियां प्रकाश में आई हैं१. गणधरवलय पूजा २. श्रु तस्कंत्रपूजा विधान ३. सूक्तिमुक्तावली ४. सुभाषित मंजरी (२ भाग) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ (१) ५. सम्यक्त्वकौमुदी ६. परमाध्यात्मतरंगिणी ७. स्तोत्रादि संग्रह (नागर भंडार से संकलित ) ८. छाला सह १०. सुभाषितावली ६. सूक्तिमुक्तावली (संस्कृत-हिन्दी पद्य ) ११. कवल चन्द्रायण व्रत विधान १३. दश धर्म १५. धन्यकुमार चरित १२. कथा चतुष्टय १४. लोकार्धसूक्तिसंग्रह १६. सर्वोपयोगी श्लोकसंग्रह प्रस्तुत ग्रंथ मरणकण्डिका ग्रंथ भी आपकी सत्प्रेरणा से प्रकाशित हो रहा है, जो अभी तक हिंदी अनुवादरूप से अप्रकाशित था । भी देते हैं। सभी ( जीवन के प्रारंभ महाराज श्री द्वारा संकलित ग्रंथ सन्दर्भ ग्रंथों का काम स्वाध्यायियों के लिये वे परम उपयोगी हैं । मात्र सत्तरह वर्ष का का) काल आपने घर में व्यतीत किया। विवेक जागृत होते ही आप विरक्त हुए और तब से अनवरत वही विरक्तता पुष्ट होती गई । दिनांक ७ जून १६८७ को उदयपुर में विशाल जनसमूह के समक्ष चतुविध संघ के सान्निध्य में आ. कल्प श्रुतसागरजी महाराज के आदेश से आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया है। आ. शांतिसागरजी महाराज की परम्परा में आप चौथे आचार्य हैं । अब तक आपने अपने कर-कमलों से १० मुमुक्षुओं को क्षुल्लक, आर्यिका एवं मुदिक्षा प्रदान की है। विशाल संघ का नेतृत्व करते हुए आप पंचाचार के पालन में स्वयं सदैव तत्पर रहते हैं और केवल संघ के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज के श्रद्धेय एवं वंद्य हैं । आप श्री अपनी साधना में और तेजस्वी बनें, इसी भावना के साथ मैं आपके पावन चरणों में सविनय श्रद्धायुक्त त्रिधा नमोस्तु पूर्वक भक्ति पुष्प अर्पित करता हूँ । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री सर्वज्ञवीतरागाय नमः ॐ शास्त्र स्वाध्याय का प्रारम्भिक मंगलाचरण ओंकारं बिन्दुसंयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैय ॐकाराय नमोनमः ॥१॥ अविरल शब्दघनौघप्रक्षालितसकल मूतलकलंका | मुनिभिरुपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितं ॥२॥ अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥३॥ ॥ श्रीपरम गुरवे नमः, परम्पराचार्य गुरवे नमः, सकलकलुषविध्वंसकं श्रेयस परिवर्धक, धर्मसंबंधक, भव्यजीवमनः प्रतिबोषकारकं पुण्यप्रकाशक, पापप्रणाशकमिदं शास्त्रं श्री मरणकंडिका नामधेयं श्रस्य मूलग्रंथकर्तारः श्रीसर्वज्ञदेवास्सयुस र ग्रंथकर्त्तारः श्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधर वेवास्तेषां वचनानुसारमासाद्य श्राचार्य प्रमितगति देवविरचितं श्रोतार : सावधानतया श्रृण्वन्तु || मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥१॥ सर्व मंगल मांगल्यं सर्वकल्याणकारक 1 प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥२॥ * Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल स्तोत्र भगवतं महावीरं, नौमि सत्त्व हितकरम् । तीर्थ प्रवर्तते यस्य, विषमेऽपि कलो युगे ॥१॥ जिनेवाः समुत्पना, गणीन्द्र कुण्ड संचिताम् । सप्तभंग तरंगां तो, वाग्गंगां स्तौमि निर्मलाम् ॥२॥ सबै तपोधनाः पूज्या स्त्रिरत्नः सुविभूषिताः । मयाशिलाते नित्यं, कुर्वन्तु मलगालनम ॥३॥ माराधनाविधिर्येन, वणिता सुमनोहरा । भक्तित्रयेन सं स्तोध्ये, शिवकोटि मुनीश्वरम् ॥४॥ मरणकण्डिका ग्रन्थः गीर्वाण्यां येन स्थितः । सरि रमितगत्यार्य: स्तयते भवाहानये ॥५॥ श्री शान्तिसागराचार्य, कायथस्य विनाशकम् । मुनितारागरणे सोमं नमस्यामि विशुद्धितः ।।६।। श्री धीरसागराचार्य, क्षुल्लिका व्रत दायिनम् । मनसि स्मरणं कृत्वा, नमामि बहु भक्तितः ॥७॥ महाखत प्रदातारं, शिबसिन्धु मुनीश्वरम् । त्रियोगेन प्रदेऽहं तपसा समसंकृतम् ।।८॥ धर्मसागर नामानं, सरि स्तोव्येऽधशान्तये । सोमवत् स्वभावो यस्य, घचनममृतोपमम् ।।। बह शास्त्रेष नपुण्यं, धत्ते यो गणनायकः।। स्तुवे तं विभक्तितो नित्यं, सूरिमजितसागरम् ॥१०॥ मरणकण्डिका नाम्नः ग्रन्थस्यास्यानुवादनम् । तस्यादेश वनाहं, कुवं स्वज्ञान शुद्धये ।।११।। नाम्नी ज्ञानमती मायर्या जगन्मान्यां प्रभाविकाम् । अनेक ग्रन्थ प्रणेत्री मातरं तां नमाम्यहम् ॥१२॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mauriya धोमवाचार्यामितगतिप्रणीता मरणकण्डिका [ आराधना विधि ] पीठिका सिद्धान् नत्वाहदादींश्च, चतुर्धाराधना फलं । क्रमेणाऽहं ध्रुवं वक्ष्ये, स्वस्वरूपोपलब्धये ॥३॥ द्योतनं मिश्रणसिद्धि, यदि निव्यू दिमञ्जसा । वर्शनशानचारित्र, सिद्धि हेतु समोहिते ॥२॥ धोतनं दर्शनादीना, मलमलविसारणं । आत्मनो मिश्रणं साद्ध, तेरेकोरणं मतं ॥३॥ यह सल्लेखना विषयक ग्रन्थ है, इसके प्रारंभ में ग्रन्थकार स्वयं के एवं श्रोतृजनों के प्रारब्ध कार्य में आने वालो विघ्न बाधाओं को दूर करने के लिए मंगल करते हैं। सिद्ध परमात्मा, अहंन्त परमात्मा तथा आदि शब्द से आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठियों को नमस्कार करके मैं (ग्रन्थकार) ऋम से चार प्रकार को आराधना को और आराधना के फल को अपने स्वरूप की (मोक्ष की प्राप्ति के लिये निश्चय से कहता हूं ||१|| आराधना किसे कहते हैं एवं वह किसके होती है ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की सिद्धि के हेतु पांच कहे गये हैंधोतन, मिश्रण, सिद्धि, व्यूढि एवं निव्यू ढि। मरणकाल में इन सम्यग्दर्शन आदि रत्न. त्रय की निरतिचार परिणति होना आराधना कहलातो है ।।२।। ___सम्यग्दर्शन आदि के मल अतीचारों का भलीप्रकार से निराकरण करना 'द्योतन' कहलाता है । आत्मा के साथ उस सम्यग्दर्शनादि का एकीकरण करना मिश्रण कहलाता है । इसप्रकार द्योतन और मिश्रण का अर्थ जानना चाहिये ।।३।। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका सम्पूर्णीकरणं सिद्धि, व्यू हिमिसिरिष्यते । लाभपूजायशोथित्वं, व्यतिरेकेरणयोगिनः ॥४॥ परीषहोपसर्गादि, विनिपाते निराकुलं । पर्यन्ते प्रापणं तेषां, निन्यूंढि महितासताम् ॥५॥ प्राराधनाद्विधा प्रोक्ता, संक्षेपेण जिनागमे । दर्शनस्यादिमा तत्र, चारित्रस्यापरा पुनः ।।६।। रत्नत्रय को या चतुर्विध आराधनाओं को पूर्ण करना सिद्धि कहलाती है । लाभ, प्रजा और यश की चाह के बिना सम्यक्त्व आदि के वहन करने की बुद्धि होना साधु को न्यूढि (निर्वहन या धारणा) है ।।४।। परीषह और उपसर्ग आदि के आने पर भी रत्नत्रय को-आराधनाओं को निराकुलता से मरण पर्यन्त ले जाना सज्जनों को मान्य ऐसी निव्यू ढि (निस्तरण) कहलाती है ।।५।। विशेषार्थ-सम्यक्त्व आदि को आराधना पांच तरह से होती है। द्योतन, मिश्रण, सिद्धि, व्यूढि और निव्यू ढि । अन्य ग्रन्थों में इन पांचों का नाम इसप्रकार पाया जाता है.---उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण यह केवल संज्ञा भेद है अर्थ समान ही कहा गया है । सम्यक्त्व का द्योतन--शंका कांक्षा आदि श्रद्धा संबंधी दोषों को दूर करना सम्यक्त्व का घोतन है । संशय आदि ज्ञान संबंधी दोष दूर करना सम्यग्ज्ञान का द्योतन कहलाता है । व्रतों को पच्चीस भावनायें बतलायी हैं। उन भावनाओं को नहीं भाने रूप दोषों को दूर करना चारित्र का द्योतन समझना चाहिये । असंयमरूप भाव तप का दोष है उसको हटाना तपका द्योतन है । सम्यक्त्व गुण का आत्मपरिणाम के साथ एकीकरण सम्यक्त्व का मिश्रण है। ज्ञान के साथ आत्मा को ऐक्य परिणति ज्ञान का मिश्रण है, चारित्र रूप ऐक्य परिणति चारित्र का मिश्रण और तपोभावना का आत्मा के साथ ऐक्य होना तप का मिश्रण है। सम्यक्त्व को पूर्णता सम्यक्त्व की सिद्धि रूप आराधना कहलाती है, ऐसे ही ज्ञान को पूर्णता चारित्र की पूर्णता एवं तप की पूर्णता क्रमशः ज्ञान की सिद्धि रूप आराधना, चारित्र की सिद्धि रूप आराधना और तप को सिद्धि रूप आराधना होती है । ख्याति आदि के चाह बिना श्रद्धा का धारण करना सम्यक्त्व की व्यूढि है । ऐसे ज्ञान को किसी लौकिक इच्छा के Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका सम्यक्त्वाराधने साधोः ज्ञानस्याराधना मता । ज्ञानस्याराधने साध्या, सम्यक्त्वाराधना पुरा ।।७।। ज्ञानं मिथ्यारशोऽज्ञान • मुक्तं शुद्धनयर्यतः । विपरीतं ततस्तस्य, ज्ञानस्याराधना कुतः ॥८॥ मारिनाराधने व्यक्तं, भवत्याराधनं तपः । तपस्याराधने भाज्या, चारित्राराधना पुनः ।।६।। महागुणमवृत्तस्य, सदृष्टेरपि नो तपः । गजस्नानमिवास्येदं, मन्थरज्जुरिवाथवा ।।१०॥ बिना धारण करना, चारित्र एवं तप को भी किसी कामना के बिना धारण करना क्रमश: ज्ञान को ब्युढि, चारित्र की ब्यढि और तप की व्यूटि रूप आराधना जाननी चाहिये। परीषह आदि के उपस्थित होने पर भी श्रद्धा से, शान्ति से, दारिम से और रूप से विचलित नहीं होना तथा इन श्रद्धा आदि चारों को मरणपर्यंत ले जाना, पालन करना या निभाना क्रमशः सम्यक्स्च की नियू दि, ज्ञान की निव्यू दि चारित्र की नियहि और तप की निव्यू ढि रूप आराधना होती है । जिनागम में संक्षेप से आराधना दो प्रकार की कहो है । प्रथम सम्यक्त्व आराधना और दूसरी चारित्र आराधना ।।६।। सम्यक्त्व की आराधना कर लेने पर नियम से ज्ञान की आराधना हो जातो है किन्तु ज्ञान को आराधना होने पर सम्यक्त्व आराधना भजनीय है-होती भी है और नहीं भी होती । अतः सर्व प्रथम सम्यक्त्व आराधना कही है ॥७॥ जिस कारण से मिथ्याइष्टि का ज्ञान शुद्ध नय की दृष्टि से अज्ञान ही कहलाता है । उस कारण से मिथ्यादृष्टि जीव के ज्ञान की आराधना कहाँ से होगी ? नहीं होगी ।।८। चारित्र की आराधना कर लेने पर नियम से तप को आराधना होतो है, किन्तु तप की आराधना करने पर चारित्र की आराधना भजनीय है, होती भी है और नहीं भी होती ।।९।। सम्यग्दृष्टि है किन्तु अन्नती है तो उसका तप महा गुणकारी नहीं होता, उनका तप तो गज स्नानवत् है अथवा मथानी की रस्सी के समान है अर्थात् जैसे गज स्नान Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका पाराधने चरित्रस्य, सर्वस्याराधनाऽथवा । शेषस्याराधना भाज्या, चारित्राराधना पुनः ॥११॥ कृत्याकृत्ये यतो ज्ञात्या, करोल्यावान मोक्षणे । अन्तर्भावः चरित्रस्य, ज्ञानवर्शनयोस्ततः ॥१२॥ व्यापारस्तत्र चारित्रे, मनोवायकाय गोचरः । यो दूरीकृतसाध्यस्य, तत्तयोगदितं जिनः ॥१३॥ चारित्रं पञ्चमं सारो, ज्ञानदर्शनयोः परः । सारस्तस्याऽपि निर्वारगमनुत्तरमनश्वरं ॥१४॥ करके अपने ऊपर बहुत सी धूल डाल लेता है । स्नान द्वारा शरीर का मल जितना निकला था उससे अधिक मल शरीर में लग जाता है वैसे सम्यग्दृष्टि बिना संयम के तप द्वारा जितना कर्मक्षपण करता है उससे अधिक नवीन कर्म असंयम के कारण संचित कर लेता है। अथवा जैसे छाछ बिलोते समय मथानी की रस्सी एक तरफ से स्खलतो जाती है और एक तरफ से बंधती जाती है, वैसे अविरत सम्यग्दृष्टि के तप से पुराने कर्म निर्जीर्ण होते जाते हैं और नवीन कर्म बंधते जाते हैं ॥१०॥ अथवा चारित्र की आराधना होने पर नियम से सभी आराधना संपन्न होती है किन्तु शेष सम्यक्त्व आदि की आराधना करने पर चारित्र की आराधना होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि यह मेरे को करने योग्य है, यह करने योग्य नहीं है इत्यादि हेय और उपादेय पदार्थों को जानकर ही यह जीव कृत्य-उपादेय का ग्रहण और अकृत्यहेय का त्याग करता है इसलिये चारित्र में ज्ञान तथा दर्शन का अन्तर्भाव होता है अर्थात् जहाँ चारित्र है वहाँ ज्ञान और दर्शन होता ही है ।।११।१२।। ___ चारित्र में मन वचन और काय संबंधी जो सर्व व्यापार प्रयत्न होना है वही तप है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है अर्थात् माया छल आदि को दूर कर चारित्र में प्रयत्नशील होना, चारित्र में उपयोग लगाना तप है, अतः चारित्र आराधना में तप आराधना अंतर्भूत होती है ऐसा कहा है ॥१३॥ ज्ञान और दर्शन का सार पंचम यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होना है उस पंचम चारित्र का सार श्रेष्ठ अविनश्वर निर्वाण प्राप्त होना है ।।१४।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका चक्षुष्टेर्मतः सारः सर्पादीनां विवर्जनं । भवति सा दृष्ट्वा विवरेपततः सतः ॥ १५ ॥ निर्वाणस्य सुखं सारो, निर्व्याबाधं यतोऽनघं । चेष्टा कृत्या ततस्तस्यां तदर्थं स्वहितैषिणा ।। १६ ।। रत्नत्रये यतो यत्नः सा साध्याराधनागमे । श्रागमस्य ततः सारः सर्वस्यैषा निरूपिता ।। १७॥ [ % भावार्थ — केवलज्ञान और केवलदर्शन तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त होता है तथा सर्वोत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र चौदहवें गुणस्थान के अंत में होता है और उसके होते ही निर्वाण मोक्ष- सिद्धावस्था प्राप्त होती है, इसलिये ज्ञान और दर्शन का सार यथाख्यात चारित्र है तथा उस चारित्ररूप सार का भी सार निर्वाण है, ऐसा कहा है । नेत्र द्वारा देखने का सार सर्प आदि कष्टदायक पदार्थों का दूर से परिहार कर चलना है, यदि नेत्र दृष्टि है और देखकर भी गर्त में पड़ता है तो उस गर्त में गिरने वाले पुरुष के नेत्र दृष्टि का होना व्यर्थ है। आशय यह है कि श्रद्धान और ज्ञान होने पर भी यदि चारित्र नहीं है तो श्रद्धा व ज्ञान व्यर्थ है, क्योंकि अकेले श्रद्धा तथा ज्ञान से मुक्ति नहीं होती । अतः सम्यक्त्व तथा ज्ञान आराधना के साथ चारित्र तथा तप को आराधना अवश्य आराधनीय है । जैसे नेत्र के होते हुए भो सावधानो रूप आचरण नहीं होवे तो वह पुरुष गर्त आदि में गिर जाता है । वैसे श्रद्धा ज्ञान रूप नेत्र होते हुए भो चारित्र रूप सावधानी नहीं होने से यह जोव संसार रूप गर्त में गिरता है ॥१५॥ जिस कारण से निर्दोष बाधा रहित निर्वाण का सुख ही संसार में सारभूत पदार्थ है । उस कारण से अपने आत्मा के हित की इच्छा करने वाले मुमुक्षुओं को उस निर्वाण सुख की प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्न करना चाहिये ||१६|| जिनागम में रत्नत्रय में प्रयत्नशील होना रूप चारित्र का सार आराधना कही है और सर्व आगम का सार आराधना है । अर्थात् आगम का सार और चारित्र का सार एक मात्र आराधना है || १७|| आगे कहते हैं कि चार आरावनाओं का मरणकाल में आराधना करना दुर्लभ है Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका चतुरङ्ग प्रपाल्यापि, चिरकालमदूषणं । विराध्य म्रियमाणाना मनन्ताकथि संसृतिः ॥१८॥ समिति गुप्तिसंज्ञान, दर्शनादित्रयेशिनाम् । प्रतितापवादानां जायते महदन्तरम् ॥१६॥ चारित्राधनेसिद्धा, श्चिर मिथ्यात्वभाषिताः । क्षणाद् दृष्टा यतः सुवे, चारित्रातधनाः ततः ॥२०॥ मृतावाराधनासारो, यदि प्रयचमतः । किमिवानों सदा यत्नश्चतुरंगे विधीयते ॥२१॥ चिरकाल तक सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओं का अतिचार रहित पालन करके भी यदि कोई मुनिराज मरणकाल में उन आराधनाओं को विराधना करके मरते हैं तो उनके अनंतकाल तक संसार परिभ्रमण होता है ऐसा आगम में कहा है ।।१८।। ईर्यासमिति, भाषा समिति आदि पाँच समिति, मनोगुप्ति आदि ज्ञान दर्शन आदि रत्नत्रय इन सबमें अतिचार रहित प्रवृत्ति करना और अतिचार युक्त प्रवृत्ति करना इन दोनों प्रवृत्ति में महान अन्तर है अर्थात् समिति व्रतादि को निर्दोष पालना और संक्लिष्ट परिणामों से युक्त होकर अतिचार युक्त पालना इसमें भेद है । अतिचार रहित व्रताचरण से महान संवर और निर्जरा होती है ।।१६।। विशेषार्थ-गमन, भाषण आदि में आगमोक्त विधि से प्रवृत्ति करना समिति है। मन, वचन काय की प्रवृत्ति रोकना गुप्ति है। संशय आदि दोषों से रहित शान संज्ञान कहलाता है । तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं। इनमें संक्लेश रहित प्रवृत्ति करनेवाले ही मुक्तिरमा के वल्लभ होते हैं अन्य नहीं। जो चिरकाल से मिथ्यात्व संयुक्त थे वे भी अल्पकाल में सम्यक्त्व युक्त चारित्र आराधना के प्रभाव से सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। इसी कारण से सूत्र में चारित्र आराधना का वर्णन किया है ॥२०॥ _ विशेषार्थ—अनादिकाल से यह जीव मिथ्यात्व में ही रहता है, क्वचित कालादि लब्धि से सम्यक्त्व प्राप्त कर यदि निरतिचार चारित्र का पालन करते हैं तो वे जीव शीघ्र उसी भव में मुक्त हो सकते हैं अतः चारित्र की शुद्धि परमावश्यक है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीठिका विधातव्यं सर्वदाराधनार्थिना । परिकर्म सुसाध्याराधना तेन भावितस्य प्रजायते ॥ २२ ॥ 2 राजन्यः सर्वदा योग्यां विदधानः परिक्रियाम् शक्तोजित श्रमीभूतः समरे जायते यथा ॥२३॥ 1 श्रामण्यं सर्वेदा कुर्वन् परिकर्म प्रजायते । अभ्यस्त करणः साधु, र्ध्यानशक्तो मृतौ तथा ॥२४॥ [ 13 शास्त्र में मरणकाल में आराधना का सार प्राप्त होता है ऐसा कहा है तो फिर चार प्रकार की आराधना में सदा काल प्रयत्न करने को क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार प्रश्न उपस्थित होता है ||२१|| उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर देते हैं-आराधना के इच्छुक मुनिजनों को सदा ही उन आराधनाओं के सहायभूत परिकर में प्रयत्नशील रहना चाहिये, क्योंकि जिसने पूर्व में भली प्रकार आराधना भावित को है उसके मरण काल में वह सहज सिद्ध हो जाती है ||२२|| विशेषार्थ -- कार्य सिद्धि में सहायक कारण जितने शक्तिशाली रहेंगे, कार्य उतना सहज साध्य होगा | यहाँ पर मुनियों का सल्लेखना रूप कार्य करना है, उसके समर्थ कारण सम्यक्त्व आदि श्राराधना में सतत उद्यमशील रहना है जिससे मरण उपस्थित होने पर वेदना आदि के कारण रत्नत्रय से धर्मच्युत न होवे | इसलिये साधुओं को उपदेश है कि वे आराधना में प्रमाद न करें । जिसप्रकार राजपुत्र सर्वदा शस्त्र अस्त्र का संचालन आदि रूप युद्ध का अभ्यास करता रहता है तभी वह रणांगण में विजय प्राप्त करने में समर्थ होता है । उसी प्रकार यहाँ समझना चाहिये ||२३|| जैसे शस्त्र का अभ्यस्त राजपुत्र युद्ध में विजयी होता है वैसे हमेशा आराधना सुप्ति, ध्यान, योग आदि परिकर्म को करता हुआ साधु मरण काल में समाधि करने में समर्थ होता है अर्थात् मरणकालीन पीड़ा में भी ध्यान आदि से च्युत नहीं होता है ।। २४ ।। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका कृतयोग्यक्रियो युद्ध, जगतीपतिदेहजः । आवत्से विद्विषो जित्या, बलाद्राज्यध्वजं यथा ॥२५॥ साधर्भावित चारित्रो, गृहोते संस्तराहवे । प्रामाधन जिन्दा, सिगारदाविद्विषस्तथा ॥२६॥ पद्मभावितयोगोऽपि, कोप्याराषयते मृति । तत्प्रमाणं न सर्वत्र, स्थाणुमूलनिधानवत् ॥२७॥ * पीठिका समाप्ताः जैसे श्रेष्ठ राजा का पुत्र पहले शस्त्रादि संचालन क्रिया का अच्छी तरह अभ्यास किया करता है फिर समर भूमि में शत्रु को बलात् जोतकर उसके राज्य ध्वज को हस्तगत कर लेता है ।।२५।।। ठीक इसीप्रकार जिसने जीवन में पहले भली प्रकार से चारित्र की आराधना की है ऐसा साधु रूपी राजपुत्र संस्तरसल्लेखना रूपी समर में प्रविष्ट होकर मिथ्यात्व आदि शत्रु राजा को जीतकर आराधनारूपी ध्वज को हस्तगत कर लेता है ।।२६।। यदि कदाचित् क्वचित् कोई व्यक्ति पहले व्रतों का निर्दोष पालन आदि कुछ भी नहीं किये हुए होते हैं और मरण काल में अच्छी तरह आराधना को प्राप्त होते हैं तो उसको सर्वत्र प्रमाण नहीं मान लेना अर्थात् किसी का पूर्व में व्रत तप ध्यान के किये बिना ही सल्लेखना सहित मरण हो जाता है । यह देखकर सभी को वैसा हो जायगा हम भी अन्तकाल में आराधना करेंगे ऐसा मानकर प्रमादो होकर नहीं बैठना चाहिये क्योंकि ऐसा होना स्थाणु मूल निधानवत् है । अर्थात् कोई जन्मांध व्यक्ति मार्ग में जा रहा था अचानक स्थाणु (ठूठ) से टकराया, मस्तक से विकारो खून निकल गया और उससे नेत्र खुल गये-दिखाई देने लगा, साथ ही जीणं स्थाणु उखड़ जाने से उसके मल में रखा हुआ धन का घट भी उसे प्राप्त हो गया। यह कार्य जिसप्रकार असंख्य जीवों में किसी एक के हो संभव है सबके लिये तो असंभव हो है, ऐसे ही बिना पूर्व में रत्नत्रय की साधना किये सल्लेखना की प्राप्ति होना अशक्य है ॥२७॥ ।। इसप्रकार पीठिका समाप्त हुई ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . बालमरणाधिकार विस्तरेणागमोपलेष, मध्ये सप्तवशस्वहम् । मरणान्यत्र पञ्चैव, कथयामि समासतः ।।२।। पंडितं पंडितादिस्पं, पंडिसं बालपंजितं । चतुर्थ मरणं बालं, बालबालं च पंचमम् ।।२।। अर्थ-आगम में विस्तारपूर्वक सत्तरह प्रकार के मरणों का वर्णन पाया जाता है, मैं ग्रन्थकार उनमें से केवल पाँच प्रकार के मरणों का संक्षेप से इस ग्रन्थ में वर्णन करता हूं ॥२८॥ विशेषार्थ-भगवती आराधना टीका में मरण के सत्तरह भेद इसप्रकार कहे हैं १ आधीचिमरण, २ तद्भवमरण, ३ अवधिमरण, ४ आदि अन्तमरण, ५ बालमरण, ६ पंडितमरण, ७ अवसन्नमरण, ८ बाल पंडितमरण, ९ सशल्यमरण, १० बलाकामरण, ११ वोसट्टमरण, १२ विप्पाण समरण, १३ गिद्धपुट्ठमरण, १४ भक्त प्रत्याख्यानमरण, १५ प्रायोपगमनमरण, १६ इंगिनीमरण और १७ केवलोमरण अर्थात् पंडित पंडितमरण । इन सबका लक्षण यहाँ पर कहते हैं—आबीचिमरण-प्रतिक्षण आयुके एक एक निषेक उदय में आकर समाप्त होना । तद्भवमरण-वर्तमान आयु का समाप्त होना, अर्थात् मरणकर अन्य भवमें चले जाना। अवधिमरण-इम वर्तमान पर्याय का जैसा मरण हुआ वैसा आगामी पर्याय का होना--जितनी और जो आयु वर्तमान में भोग रहे हैं, उतनी वैसी आयु आगे के भव में भी होना । आदि अन्तमरण Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका निश्रेयस सुखादीनां, प्रासनीकरणक्षमं । आदिम जायते तत्र, प्रशस्तं मरणत्रयम् ॥३०॥ वर्तमान की आयु के समान आगे को पर्याय में आयु नहीं होना-विभिन्न प्रकार की होना । बालमरण-पहले गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान वाले जीवों के मरण को बालमरण कहते हैं । पंडितमरण-छठे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान वालों का मरण । अबसन्न या ओसण्ण मरण-पार्श्वस्थ प्रादि भ्रष्ट मुनियों का मरण । बालपंडितमरणपंचम गुणस्थान वालों का मरण । सशल्यमरण-निदान आदि शल्य युक्त जीवों का मरण । बलाका मरण-विनय, गुप्ति, समिति, ध्यान, शुभ भाव आदि से रहित होकर मुनियों का जो मरण होता है, वह बलाका मरण है 1 बोसट्टमरण-इन्द्रिय आदि के आधीन होकर मरण होना । विप्पाणस मरण-भयंकर उपसर्ग आदि से अथवा अन्य किसी कारण से संयम में दोष नहीं लग जाय मैं ऐसी वेदना या कष्ट सह नहीं सकता, और नहीं सहा जाय तो चारित्र में दूषण उपस्थित होगा ऐसी स्थिति में अर्हन्त के निकट आलोचना करके श्वास निरोध द्वारा कोई मनिराज मरण करे तो उसे विप्पाणस मरण कहते हैं। गिद्धपुट मरण-उपर्युक्त कारणों के होने पर जो मुनि शस्त्र द्वारा प्राण त्याग करते हैं उसे गिद्धपुट्ठ मरण कहते हैं । भक्त प्रत्याख्यानमरण-काय और कषाय को कृश करके विधिपूर्वक सन्यास धारण कर मरण होना । इंगिनीमरणजिसमें मुनि अपनी सेवा दूसरों से नहीं कराते स्वयं करते हुए आहार त्यागपूर्वक प्राण छोड़ देते हैं । प्रायोपगमनमरण-आहार त्यागकर वन में अकेले रहकर काष्ट के समान शरीर का त्यागकर ध्यान में लोन रहते हुए प्राण त्याग करना । केवलीमरण-चौदहवें गुणस्थान में अहंतदेव का निर्वाण होना मोक्ष होना केवलोमरण कहलाता है । इसप्रकार सत्तरह मरणों का यह संक्षिप्त लक्षण कहा है। अर्थ-पंडित पंडित मरण, पंडित मरण, बालपंडित मरण, बाल मरण और "बाल बाले मरण इसप्रकार मरण के पांच भेदों के ये नाम हैं ।।२।। अर्थ---उक्त पाँच प्रकार के मरणों में से आदि के तीन मरण प्रशस्त माने हैं, क्योंकि नि:श्रेयस ( मोक्ष ) सुख और अभ्युदय सुखों को सन्निकट करने में ये मरण समर्थ हेतु हैं ।।३०।। . V Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमरणाधिकार [ ११ विज्ञातव्यमयोगानां, सत्र पंडितपंडितम् । देशसंयत जीवानां, मरणं बालपंडितम् ॥३१॥ पादोपगमनं भक्त, प्रतिज्ञामिङ्गिणीमृति । वान्त पंडित धा, योगिनो युक्ति चारिणः ॥३२॥ भजते मरणं बालं, सम्पदृष्टिरसंयतः । मिथ्यात्व कुलित स्वान्तो, बाल बालमपास्तधीः ।।३३।। अर्थ-अब यहाँ पर पाँच प्रकार के मरणों के स्वामी कौन कौन हैं इसका क्रमशः तोन कारिका द्वारा प्रतिपादन करते हैं। पंडित पंडित नामका मरण अयोगी जिनके होता है अर्थात् चौदहवें गुणस्थान के अन्त में आधुपूर्ण होकर जिनेन्द्र भगवान जो निर्वाण को प्राप्त करते हैं उसे पंडित पंडित मरण कहते हैं। देशसंयतनामा पंचम गुणस्थानवी जीवों के बाल पंडित मरण होता है ।।३१।। अर्थ-निर्दोष चारित्र पालन करने वाले साधु जनों का पंडितमरण होता है, उसके तीन भेद हैं-भक्त प्रतिज्ञामरण, इंगिनी मरण और प्रायोपगमनमरण ॥३२॥ भावार्थ-छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के मुनिजनों के जो मरण होता है वह पंडित मरण है । इन गुणस्थानों में मरण करने वाले मुनिराज नियम से चैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं। अर्थ-बालमरण असंयत सम्यग्दृष्टि के होता है। मिथ्यात्वकर्म के उदय से जिनका चित्त संक्लिष्ट है ऐसे कुबुद्धि-मष्ट बुद्धिवाले मिथ्यादृष्टि जीवों के बाल बाल मरण होता है ॥३३॥ विशेषार्थ-पाँच प्रकार के मरणों के स्वामो गुणस्थानों के क्रमानुसार इस प्रकार हैं- प्रथम गुणस्थान में बाल बाल मरण होता है तथा द्वितीय सासादन गुणस्थान में भी बाल बाल मरण होता है। क्योंकि मिथ्यात्व को चिर संगिनी कषाय अनन्तानुबन्धो का यहाँ उदय है। तीसरे मिश्र गुणस्थान में मरण नहीं है । चतुर्थ असंयत गुणस्थान में बाल मरण होता है। मिथ्याइष्टि जीव श्रद्धा और चारित्र दोनों से बाल (अज्ञानी-मूर्ख) हैं अतः उसके भरण को बाल बाल मरण कहते हैं अर्थात् इसके न सम्यक्त्व है और न चारित्र है । असंयत सम्यग्दृष्टि के श्रद्धा है किन्तु चारित्र Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका शामिकों क्षायिकी दृष्टि, वैविकीमपि च त्रिधा। समाराधयतः पूर्वा, सम्यक्स्वाराधनेष्यते ॥३४॥ नहीं है अत: उसके मरण को बाल मरण नामसे कहा जाता है। पंचम देश विरत गुणस्थान में होने वाले मरण को बाल पंडित मरण कहते हैं चूकि इसमें श्रद्धा है किंतु चारित्र अपरिपूर्ण है । इरो यारह गुण पानवती के डित मरण होता है क्योंकि श्रद्धा और चारित्र दोनों से सम्पन्न है । बारहवें गुणस्थान में तथा तेरहवें गणस्थान में मरण नहीं होता। चौदहवें गुणस्थान में सर्व श्रेष्ठ मुक्ति प्राप्त होती है अत: इसमें होने बाले मरण को पंडित पंडित मरण कहते हैं । प्रथम गुणस्थान में मरण करने वाले चारों गतियों में जा सकते हैं । सासादन वाले नरक गतिको छोड़कर अन्य तीन गति में जाते हैं । चतुर्थ गुणस्थान में मरणकर यदि पहले बद्धायुष्क है तो नरकगति में प्रथम नरक में हो जायेंगे आगे नहीं, तियंच तथा मनुष्य सम्बन्धी बद्धायुष्क है तो भोगभूमि के मनुष्य तियंच होंगे। देवों में वैमानिक देव होंगे । पंचम गणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान में मरण करने वाले जीव वैमानिक देव ही होते हैं । चौदहवें गणस्थान में तो परिनिर्वाण होता है । अर्थ-दर्शन आराधना, ज्ञान आराधना, चारित्र आराधना और तप आराधना इसप्रकार चार प्रकार की आराधना होती है. इनमें से प्रथम दर्शन आराधना का वर्णन करते हैं क्योंकि आराधना करने वालों को सर्व प्रथम इसीका माराधन करना होता है । दर्शन आराधना के तीन भेद हैं-उपशम सम्यग्दर्शन, क्षयोपशम सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन ।।३४।। विशेषार्थ-जीवों को सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है, अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, कालादि लब्धियों को प्राप्त होकर मिथ्यात्व प्रकृति और अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन पाँच मोहनीय कर्म प्रकृतियों का उपशम (दबाकर) करके उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, यह अत्यन्त निर्मल होता है, और अन्तमु हत्तंकाल तक रहता है। उपशम सम्यक्त्व के अनन्तर क्षयोपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है । उपशम सम्यक्त्व प्राप्ति में प्रथम क्षणमें ही मिथ्यात्व कर्म के तीन खण्ड किये जाते हैंमिथ्यात्व, सम्यरिमथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति । क्षयोपशम सम्यक्त्व में इन तीन प्रकृतियों में से मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का तथा चार अनन्तानुबन्धी कषायों का Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमरणाधिकार [ १३ मन्यते दर्शितं तत्त्वं, अन्तुना शुभदृष्टिना। पूर्व ततोऽन्यथापीदमजानानेन रोच्यते ॥३५॥ ..---- ..- -- उदयाभावी क्षय और सद्वस्थारूप उपशम किया जाता है। विवक्षित कर्म प्रकृति का उदय पाने के एक समय पहले स्तिबुक संक्रमण द्वारा सजातीय अन्य कर्म प्रकृतिरूप होकर उदय में आना और निर्जीर्ण होना "उदयाभावीक्षय" कहलाता है। यहां पर अनंतानुबन्धी का उदयाभावी क्षय यह है कि अनंतानुबन्धी कषाय के उदय काल प्राप्त कर्म निषेकों का प्रतिसमय एक एक निषेक अप्रत्याख्यान आदि बारह कषायरूप संक्रमित होकर पर मुखसे उदय में आते रहना। इसीप्रकार मिथ्यात्व और मिश्र प्रकृति का सम्यक्त्व प्रकृतिरूप होकर उदय में आकर नष्ट होते रहना।। सद्वस्थारूप उपशम-जो कर्म निषेक अभी वर्तमान में उदय प्राप्त नहीं हैं उनको सत्ता में ही अवस्थित रखना, असमय में (बीच में ही) उदय में नहीं आने देना (दबा देना) सद्वस्थारूप उपशम कहलाता है। जैसे अनन्तानुबन्धी कषाय का जो द्रव्य उदय प्राप्त था उसे तो परमें संक्रामित कर दिया था। अब सर्व शेष द्रव्य जो हैं उन्हें मध्य में उदय में नहीं आने देंगे । इसप्रकार की प्रक्रिया को सद्वस्थारूप उपशम कहते हैं । इसप्रकार उदयाभावी रूप, सवस्थारूप उपशम के साथ सम्यक्त्वप्रकृति का उदय होना क्षयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है । क्षायिक सम्यक्त्व-पूर्वोक्त चार अनन्तानुबन्धी और तीन दर्शनमोहनीय कर्मों का सर्वथा क्षय होकर जो शाश्वत प्रगाढ आत्म श्रद्धा तथा तत्त्व श्रद्धा प्राप्त होती है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह क्षयोपशम सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है। इन सम्यक्त्वों का विस्तार पूर्वक वर्णन लब्धिसार क्षपणासार शास्त्र से जानना चाहिये। अर्थ-दर्शन आराधना को करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव आप्त आदि पुरुषों द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों पर श्रद्धान करता है. तथा अजानकार गुरुद्वारा अन्यथारूप तत्त्व पर ( विपरीत तत्त्व पर ) भो "यह गुरु ने कहा है" ऐसा समझकर श्रद्धा करता है ॥३५।। भावार्थ-सम्यग्दृष्टि के वास्तविक तत्त्वों का श्रद्धालु होता है किन्तु कदाचित् तत्त्व देशना देने वाले गुरु अपने अज्ञान या प्रमाद विस्मति आदि के कारण विपरीत Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] मरणकण्डिका वर्ण्यमान यवा सम्यक, श्रद्दधाति न सूत्रतः । । तमर्थ स तदा जोथो, मिथ्यारष्टिनिगद्यते ॥३६॥ जेयं प्रत्येक बुद्धन, गणेशेन निवेदितं । श्रुतकेवलिना सूत्रमभिन्नदश पूर्विणा ॥३७॥ प्राप्तार्थश्चारुचारित्रः, शंक्यते न महामनाः । शंक्यते मंवधर्माऽसौ, कुर्वाणस्तत्त्वदेशनां ॥३८॥ तत्त्वार्थ का प्रतिपादन करते हैं और शिष्य जन यह गुरुपदिष्ट तत्त्व सत्य है ऐसा समझकर श्रद्धा करते हैं तो वे सम्यक्त्वी ही हैं। अर्थ-पूर्वोक्त सम्यग्दृष्टि को कोई ज्ञानी गुरु सूत्र को दिखाकर उसके तत्त्व श्रद्धा में विपरीतता बतलाते हैं अर्थात् तुम्हारा अमुक तत्त्वबोध ठीक नहीं है, सूत्र में ऐसा कहा है इत्यादि, भली प्रकार समझाने पर यदि बह जीव उस सूत्रार्थ पर विश्वास नहीं करता और अपनी पूर्व मान्यता का आग्रह नहीं छोड़ता तो उस समय से वह मिथ्याष्टि बन जाता है ॥३६।। अर्थ-सूत्र की परिभाषा करते हैं-प्रत्येक बुद्ध मुनि द्वारा प्रतिपादित, गणधर द्वारा तथा श्रुतकेवली और अभिनदर्शपूर्वी द्वारा प्रतिपादित वाक्य सूच'कहलाता है ।।३७।। विशेषार्थ-तोर्थकर प्रभु के समवशरण में उनकी दिव्यध्वनि का विश्लेषण करने वाले सप्तद्धि संपन्न मुनिपुगब गणधर कहलाते हैं । आचारांग आदि समस्त थ त में पारंगत यतिराज श्र तकेवली नाम से कहे जाते हैं । जो अपने विशिष्ट क्षयोपशम से ज्ञान और वैराग्य सम्पन्न रहते हैं अन्य के उपदेशादि को अपेक्षा से रहित उन ऋषियों को प्रत्येक बुद्ध कहते हैं । तथा जो तपस्वी मुनिराज ग्यारह अंगों को पढ़कर क्रमश: पर्वज्ञान प्राप्त करने में संलग्न हैं, दसवाँ विद्यानुवाद नामके पूर्व को पड़ने पर उनके समक्ष विद्याओं की अधिष्ठात्री देवियाँ उपस्थित होती हैं, उस वक्त उन देवियों के प्रलोभन में जो नहीं आते हैं, उनके द्वारा जिनका ज्ञान वैराग्य भिन्न खण्डित नहीं होता है वे अभिन्न दर्शपूर्वी कहलाते हैं। इन चारों ही मुनि श्रेष्ठों द्वारा प्रतिपादित जो आगम है उन्हें "सूत्र" नामसे कहते हैं । अर्थ-जिसने अच्छी तरह आगम के अर्थ को आत्मसात् किया है, जो दृढ़ एवं सुन्दर चारित्र अर्थात् निर्दोष चारित्रयुक्त है ऐसे मुनिराजों के वचन प्रामाणिक होते हैं, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ बानमरणाधिकार धर्माधर्मनभः काल पुद्गलाञ्जिनदेशितान् । प्राज्ञया श्रद्दधानोऽपि, दर्शनाराधको मतः ॥३।। सिद्धाः संसारिणो जीवाः, प्रयाता: सिद्धिमनेकधा। आज्ञया जिननायाना, श्रद्ध याः शुद्ध दृष्टिना ॥४०॥ उनमें भव्य जीवों को शंका नहीं करनी चाहिये । किन्तु जो मन्दधर्मा है अर्थात जिसका चारित्र उज्ज्वल नहीं है वह तत्त्व देशना करता है तो उसमें विकल्प है. यदि उसका तत्त्वप्रतिपादन पूर्वोक्त सूत्रार्थ से मिलता है तो ग्राह्य है अन्यथा अग्राह्य है ।।३८। भावार्थ—गणधर आदि चार प्रकार के मुनिराजों द्वारा कथित सूत्र प्रामाणिक होते ही हैं तथा जो संसार शरीर भोगों से पूर्णरीत्या विरक्त हैं, स्वार्थवश नहीं हैं लौकिक प्रयोजन से रहित हैं, वास्तविक आगम ज्ञान जिन्हें गुरुमुख से प्राप्त है। ऐसे आचार्य के वचन भी प्रामाणिक माने जाते हैं। जो साधु निर्दोष आचरण में शिथिल हैं उनके बचन यदि सूत्रार्थ से मिलते जुलते हैं तो मान्य हैं और सूत्रार्थ से नहीं मिलते तो अमान्य हैं। अर्थ- अब यहाँ पर तत्त्वार्थ कौन है, द्रव्य कौन है यह बतलाते हैं-जिनेन्द्र द्वारा उपदिष्ट धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आकाशद्रव्य और पुद्गलद्रव्य ये पांच अजीव द्रव्य हैं, इनमें आज्ञामात्र से श्रद्धान करने वाला जीव दर्शनारावनाका आराधक माना जाता है ।।३।। भावार्थ-जिन्हें छह द्रव्य सात तत्त्वों को प्रमाणनय आदि द्वारा तीन क्षयोपशम के कारण भली प्रकार बोध प्राप्त है वे इन तत्वों पर श्रद्धा करते है तो सम्यक्त्वी है हो किन्तु जो मन्द क्षयोपशमके कारण तर्कणा शक्ति से रहित हैं तो यह जिनेन्द्र द्वारा कहा हुया है, प्रभु अन्यथाबादी नहीं होते ऐसा विश्वास कर उनकी आज्ञा से तत्त्वरुचि करते हैं तो वे भी सम्यक्त्वी हैं दर्शनाराधना के आराधक हैं। _अर्थ-जोव दो प्रकार के हैं संसारी और मुक्त । पंच परावर्तन युक्त जीव संसारी कहलाते हैं और जो (अनेक प्रकार की) सिद्धि को प्राप्त हैं उन्हें सिद्ध या मुक्त जीव कहते हैं । जिनदेव कथित इन जीवों पर उनको आज्ञा से शुब सम्यक्त्वी को श्रद्धान करना चाहिये ।।४०॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] मरकण्डिका आस्रवं संवरं बन्धं, निर्जरां मोक्षमंजसा । पुण्यं पापं च सदृष्टिः, श्रद्दधासि जिनाशया ॥ ४१ ॥ विशेषार्थ - ऊर्ध्वलोक आदि तीनों लोकों में संसरण परिभ्रमण करना संसार है, परिभ्रमण पाँच प्रकार का है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इनका स्वरूप सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों से जानना । उक्त संसार जिनके पाया जाता है वे अष्ट कर्मों से संयुक्त दुःखी जीव संसारी हैं। जो अंजन सिद्धि, पादुका सिद्धि आदि सिद्धि को छोड़कर एक ही प्रकार की आत्म सिद्धि को प्राप्त हैं, कर्माष्टक से रहित ऐसे परमात्मा सिद्ध जीव कहलाते हैं । ▸ अर्थ – सम्यक्त्व जीव जिनेन्द्र को आज्ञा से आस्रव संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष एवं पुण्य पाप इन सबका भली प्रकार से श्रद्धान करता है ||४१ ॥ भावार्थ - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष पुण्य और पाप ये नव पदार्थ हैं। पुण्य पाप रहित जीवादि सात तत्त्व कहलाते हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं । काल को छोड़कर शेष पाँच अस्तिकाय कहलाते हैं । चेतना एवं ज्ञान दर्शन गुणवाला जीव तत्त्व है। जड़ तत्त्व को अजीव कहते हैं | योग द्वारा कर्म का आत्मा में प्रविष्ट होना आस्रव है । कर्म प्रदेश और आत्म प्रदेशों के संश्लेष संबंध को बन्ध कहते हैं । कर्मों का आना रुक जाना संवर है । संचित कर्म का अंशरूप से निकल जाना नष्ट होना निर्जरा है, संपूर्ण कर्मों का नष्ट होना- प्रात्मा से पृथक् होना मोक्ष है । प्रशस्त कर्मको पुण्य और अप्रशस्त कर्मको पाप कहते हैं। छह द्रव्यों में जीव का लक्षण पूर्वोक्त है। पुद्गल-जो पूरण गलन करे अथवा जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण युक्त पदार्थ है वह पुद्गल है ये जितने दृश्यमान पदार्थं हैं वे सब पुद्गल द्रव्य हैं इसके अणु और स्कन्ध के भेद से दो भेद हैं । स्कन्ध के अनेक अनेक भेद हैं । कर्म पुद्गल द्रव्य रूप ही है। जीव और पुद्गल के गति में सहायक द्रव्य 'धर्म' कहलाता है । जीव और पुद्गल को ठहरने में सहायक अधर्म द्रव्य है । जीवादि सर्व द्रव्यों को निवास में हेतु आकाश है । तथा सब द्रव्यों के परिवर्तन शीलता में सहायक कालद्रव्य है । बहुत प्रदेश वाले द्रव्यों को अस्तिकाय कहते हैं । इन द्रव्यादिका सविस्तार वर्णन पंचास्तिकाय, जीवकांड आदि में देखना चाहिये । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमरणाधिकार [ १७ नकमप्यक्षरं येन, रोच्यते तत्त्वदशितम । स शेषं रोचमानोऽपि, मिश्यादृष्टिरसंशयम् ॥४२॥ मोहोदयाकुलंस्तत्त्वं, तथ्यमुक्त न रोचते ।। जागुरुणानुक्त गा, व शेबसे ।।३३॥ मिथ्यात्वं वेदयन्नंगी, न तत्त्वे कुरुते रुचिम् । कस्मैपित्तज्वरालय, रोचते मधुरो रसः ।।४४।। अनेना श्रद्दधानेन, जिनवाक्यमनेकशः । बालबालमतिः प्राप्ता, कालेऽतीते यतोऽङ्गिना ॥४५।। इवमेय वचो जैन मनुत्तममकल्मषम् । निर्ग्रन्थं मोक्षवमति, विधेया धिषणा ततः ।।४।। अर्थ-तत्त्वार्थ के प्रतिपादक अक्षर समुदाय में से एक अक्षर का भी यदि अश्रद्धान किया जाता है तो वह व्यक्ति निश्चय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है, भले ही वह शेष अक्षरों पर श्रद्धा करता हो ।।४२॥ भावार्थ-एक बड़े पात्र में मधुर दूध रखा है, उसमें एक ही विषकी बूद पड़ जाय तो सारा दूध विषैला बनकर प्राणघातक हो जाता है, ठोक ऐसे ही समस्त शास्त्रों में श्रद्धा युक्त होने पर भी एक अक्षर पर अविश्वास हो जाय तो वह मिथ्याष्टि बन जाता है। अर्थ-मिथ्यात्वकर्म के उदय से आकुलित चित्त बाले को जिनेन्द्र प्रणीत वास्तविक तत्त्व रुचिकर नहीं होता है और इससे विपरीत अवास्तविक तत्त्व उसे रुचिकर लगता है ॥४३।। अर्थ-मिथ्यात्व का वेदन करने वाले जीवको तत्त्व रुचिकर उस प्रकार नहीं लगता जिसप्रकार पित्तज्वर वाले को मीठा रस रुचिकर नहीं लगता ॥४४॥ ____ अर्थ-जिस जीव ने जिनेन्द्र वचन की श्रद्धा नहीं की उस जीव ने अतीत काल में अनेक बार बाल बाल मरण प्राप्त किये हैं ।।४५।। अर्थ-इसप्रकार मिथ्यात्व का कटक फल जानकर भव्य जीवों को ऐसी श्रद्धा एवं बुद्धि करनी चाहिये कि यह जिन वचन ही उत्तम है निर्दोष पाप रहित है तथा निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग स्वरूप है ।।४६।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] मरणकण्डिका शंका कांक्षा चिकित्सान्य, दृष्टि शंसनसंस्तवाः । सदाचार रतीचाराः, सम्यक्त्वस्य निवेदिताः ॥४७॥ उपवृहः स्थितीकारो, वात्सलत्वं प्रभावना । चत्वारोऽमी गुणाः प्रोक्ताः सम्यग्दर्शन वद्ध काः ।।४।। जिनेशसिद्ध चैत्येष, धर्मदर्शन साधुषु ।। प्राचार्येऽध्यापक संघे, श्रुते श्रुततपोधिके ।।४६॥ अर्थ—सआचरणवाले आचार्यदेव ने सम्यक्त्व के पांच अतीचार बताये हैंशंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अन्यदृष्टि संस्तव । तत्त्व विषय में 'यह इसप्रकार है अथवा नहीं ऐसी आशंका को शंका नामका अतीचार कहते हैं । जो प्रादि भोगादि को नाहा काला कहलाती है। रत्नत्रयधारी मुनि आदि में ग्लानि का होना विचिकित्सा दोष है | तत्त्वदृष्टि विहीन व्यक्तियों को मनसे श्रेष्ठ मानना अन्यदृष्टिसंस्तव कहलाता है और वचन से अन्य मतावलम्बी व्यक्तियों की प्रशंसा करना अन्य दृष्टि प्रशंसा कहलाती है ।।४७।। अर्थ-उपबृहण, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये चार गुण सम्यग्दर्शन को वृद्धिंगत करने वाले हैं ।।४८॥ भावार्थ-अपने आत्मीक गुणों को विस्तृत करना उपबहण है। इसका दूसरा नाम उपगहन भी है, अन्य धर्मात्मा व्यक्ति के दोष प्रगट नहीं करना उपगहन गुण है । अपने को और परको रत्नत्रय धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण गुण है। निश्छल रूप से धार्मिक पुरुषों में स्नेह होना वात्सल्य है, तथा धर्मका प्रकाशन प्रभाबना कहलाती है । निःशंकितत्व, नि:कांक्षितत्व, निविचिकित्सा और अमूढदृष्टित्व ये चारगुण और भी हैं । जिनेन्द्र के वचन में शंका न होना निःशंकितत्व है। भोगाकांक्षा का अभाव नि:कांक्षितत्व गुण है । धर्म और धर्मात्मा में ग्लानि का अभाव निविचिकित्सा है, और परमत के चमत्कार आदि को देखकर जो मूढता होती है उसे नहीं होने देना अमढ़ दृष्टित्व है । ये सब मिलकर सम्यवत्व के आठ अंग या गुण कहलाते हैं । अर्थ-अब सम्यग्दर्शन विनय को कहते हैं-अरिहंत देव, अरिहंत की प्रतिमा, सिद्ध, सिद्धप्रतिमा, जन धर्म, रत्नत्रय, साधु, आचार्य, उपाध्याय, संघ, श्रुत, श्रु तज्ञान में जो अपने से अधिक है उनमें तथा तपश्चर्या में जो अपने से अधिक है, इन सबमें Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमरणाधिकार भक्तिः पूजा यशोबावो, दोषावज्ञा तिरस्क्रिया । समासेनैष निविष्टो विनयो वर्शनाश्रयः ॥ ५० ॥ मृतावाराधयन्नेवं निश्चरित्रोऽपि दर्शनं । प्रकृष्ट शुद्धलेश्याको, जायते स्वल्पसंसृतिः ॥५१॥ रोचका जंतवो भक्त्या, स्पर्शकाः प्रतिपादकाः । श्रागमस्य समस्त स्य, सम्यक्त्वाराधका मताः ।। ५२ ।। उत्कृष्टा मध्यमा होना, सम्यक्त्वाराधना त्रिधा । उत्कृष्ट लेश्यया तत्र, सिद्धयत्युत्कृष्टया तया ।। ५३ ।। [ १६ भक्ति करना तथा पूजा, यशोगान करना, धर्मात्मा के दोषों को प्रगट न करना उनके दोषों को दूर करना ये सब दर्शन के विनय कहलाते हैं । इसप्रकार संक्षेप से दर्शन विनय का वर्णन किया है ||४६-५०।। भावार्थ - अन्तरंग में महापुरुषों के गुणों में अनुराग होना भक्ति कहलाती है । आदर के भाव पूजा है। उन अरहंत आदि पूज्य जनों के गुणों का गान करना यशोगान है । पूज्य साधु आदि में किसी प्रकार का दोष हो तो उसे प्रगट न करना दोषावज्ञा 1 यदि अपने में योग्यता है तो युक्ति द्वारा उनके दोषों का निराकरण करना दोषतिरस्क्रिया कहलाती है । श्रर्थ -- इसप्रकार दर्शन की आराधना करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि चतुर्थं गुणस्थानवर्ती होने से चारित्र रहित है तो भी मरण काल में उत्कृष्ट और शुद्ध लेश्यायुक्त हुआ संसार भ्रमण को अल्प करता है । अर्थात् पोत पद्म और शुक्ल लेखामें यदि अविरत सम्यक्त्वी मरण करता है तो उसका संसार अत्यल्प रह जाता है ॥५१॥ श्रर्थ- - समस्त आगमार्थ की रुचि करने वाले, भक्ति से स्पर्श करने वाले एवं उस अर्थ का प्रतिपादन करने वाले जीव सम्यक्त्व के आराधक कहलाते हैं ।। ५२ ।। अर्थ – सम्यक्त्व आराधना के तीन भेद हैं- उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य | उत्कृष्ट लेश्या - शुक्ललेश्या से युक्त सम्यक्त्वी के जो आराधना होती है, उसे उत्कृष्ट सम्यक्त्व आराधना कहते हैं और इस उत्कृष्ट सम्यक्त्व आराधना वाले तथा उत्कृष्ट शुक्ललेश्या वाले सल्लेखना करके सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं । अर्थात् शुक्ललेश्या मुक्त सम्यक्त्वी जीव आराधना करके मुक्त हो जाते हैं ||१३|| Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका भवन्त्यन्ये भवाः सप्त, मध्यया मध्यलेश्यया । संख्याता वाप्यसंख्याता, हीनया हीन लेश्यया ॥५४॥ तत्र केवलिनो वर्या, मध्या सा शेष सशाम् । असंयतस्य सदष्टे, होनं संक्लिष्टचेतसः ।।५।। संख्यातामप्यसंख्याता, मनुसत्याथ संसृतिम् । मृत्युकालेऽनुगच्छन्तो, जीवाः सिध्यन्तिदर्शनम् ॥५६॥ अर्थ- मध्यमलेश्या द्वारा सम्यक्त्व की आराधना करने वाले जीवों के सात भव शेष रहते हैं, अर्थात् सात भवों को लेकर मुक्त हो जाते हैं। तथा जघन्य लेश्या युक्त सम्यक्त्व आराधना करने वाले जीवों के संख्यात अथवा असंख्यात भव शेष रहते हैं । अनंतर वे जीव सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं ।।५४।। अर्थ-उन तीन प्रकार के लेश्यायुक्त तम्यक्त्व आराधनाओं में से उत्कृष्ट लेण्यायुक्त सम्यक्त्वाराधक केवलो जिन हैं पंचम गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक के सम्यग्दृष्टि जीवों के मध्यम लेश्यायुक्त मध्यम सम्यक्त्व आराधना मानी हैं ( और उनके सात भव ही शेष रहते हैं ) चतुर्थ गुणस्थान वाले संक्लिष्ट परिणामी असंयत सम्यक्त्वी के जघन्य लेश्या युक्त जघन्य दर्शनाराधना होती है ॥५५।। अर्थ-मरणकाल में यह जोब यदि दर्शन की जघन्य आराधना भी कर लेता है अर्थात् मरते समय सम्यक्त्व से च्युत नहीं होता है और उसके चारित्र नहीं है, अविरत है तो भी वह उस सम्यक्त्वाराधना के प्रताप से संख्यात अथवा असंख्यात भव संसार परिभ्रमण कर अवश्यमेव मुक्त हो जाता है ।।५६।। भावार्थ-सम्यक्त्व होकर छुट गया तो ऐसे जीवों के भव अनंत भी हो सकते हैं-वह अर्ध पुद्गल परावर्त्तन प्रमाण काल तक संसार में रुल सकता है किन्तु यदि मरणकाल में सम्यक्त्व नहीं छूटता सम्यक्त्व को लेकर परलोक गमन करता है तो उसके संख्यात या असंख्यात भव ही शेष रहते हैं इससे अधिक नहीं । यदि पंचम आदि आगे के गुणस्थानों में मरण होता है अर्थात् सम्यक्त्व के साथ देशचारित्र अथवा सकल चारित्र भरते समय रहता है तो वह जीव नियम से सात भवों में प्रमुक्त हो जाता है। अर्थ यह हुआ कि मरण के समय में सम्यक्त्व रहना अधिक महत्वपूर्ण है। सम्यक्त्व होकर प्रायः छुट जाता है, विरले ही जीवों के मृत्यु के समय में बह रह पाता है। तथा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालमरणाधिकार [२१ मुहूतमाप ये लब्ध्वा, जीवा मुचन्ति दर्शनम् । नानंतानंत संख्याता, तेषापद्धा भवस्थितिः ॥५७।। * इति बालमरणाधिकारं समाप्त * सम्यक्त्व के साथ-साथ देश विरत सकल विरत रूप चारित्र होना उससे और अधिकअधिक दुर्लभ है, क्योंकि संक्लेश के कारण प्रायः मरणकाल में चारित्र की बिराधना हो जाया करती है। अतः जीवन में सम्यक्त्व हुआ इस महत्व से अधिक महत्व मरते समय सम्यक्त्व रहा इस बात का है। एवं जीवन में देशव्रत या महाव्रत का पालन किया इस महत्व से अधिक महत्व मरणकाल में भी चारित्र रहा इस बात का है । सम्यक्त्व सहित होकर विरले जीव ही मृत्यु को प्राप्त करते हैं तथा सम्यक्त्व और चारित्र दोनों से संयुक्त होकर मृत्यु करने वाले अति विरले जीव हैं । इसप्रकार जानकर सतत सम्यक्त्वाराधना में प्रयत्नशील होना चाहिए। अर्थ-जो जीव एक मुहुर्त प्रमाण काल के लिये सम्यक्त्व प्राप्त करके उसे छोड़ देते हैं उन जीवों के संसार में रहने का काल अनंतानंत भव प्रमाण है ।।५७।। भावार्थ-जिनको अभी तक सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति नहीं हुई है उनके संसार परिभ्रमण का समय अथाह है वे कब तक संसार भ्रमण करेंगे इसका कुछ भी निश्चय नहीं है। किन्तु जिनके सम्यक्त्व होकर छूट भी गया तो वे जीव नियम से अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनंतकाल भ्रमण कर मुक्त हो जायेंगे अर्थात् सम्यक्त्वी के संसार परिभ्रमण का किनारा आ जाता है, अतः सम्यक्त्व की महिमा अपरम्पार है, यही भवनाशक है। ।। बालमरण का कथन समाप्त हुआ ।। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालबालमरणाधिकारः २ संयतोऽसंयतो वा यो, मिथ्यात्वकलुषीकृतम् । विवधात्यधमः कालं, कस्याप्याराधको न सः ।।५।। जिनरमाणि मिथ्यात्वं, तत्त्वार्थानामरोचनम् ।। इवं सांयिकं जन्तो, गं होतमगृहीतकम् ॥५६॥ तत्र जीवादितत्त्वानां, कथितानां जिनेश्वरः । विनिश्चय पराचीना, दृष्टिः सांशयिकीमता ॥६०॥ अर्थ-जिसने मिथ्यात्व से कलुषित होकर काल किया है अर्थात् मिथ्यात्व में आकर मरण किया है, वह बाहर से संयमी अथवा असंयमी हो किन्तु वह व्यक्ति किसी भी आराधना का आराधक नहीं होता ।।५८।। भावार्थ-मिथ्यात्व परिणाम हो जाने पर द्रव्य से संयम रहने पर भी किसी एक भी आराधना का वह आराधक इसलिये नहीं है कि सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान चारित्र समीचीनता को प्राप्त नहीं होते हैं । ____ अर्थ—जिनेन्द्र भगवान ने मिथ्यात्व का स्वरूप इसप्रकार बतलाया है कि तत्त्वार्थों में अरुचि होना मिथ्यात्व परिणाम है, जीव के इस मिथ्यात्व परिणाम के तीन भेद हैं--सायिक मिथ्यात्व, गृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व ॥५९।। __अर्थ-जिनेश्वर द्वारा प्रतिपादित जीवादि तत्वों का निश्चय नहीं होना सांशयिक मिथ्यात्व कहलाता है । अर्थात् जिनेन्द्र कथित तत्त्व सत्य है कि सांख्यादि द्वारा कथित तत्त्व सत्य है इसप्रकार संशय रहना सांशयिक मिथ्यात्व है ।।६०॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालबालमरणाधिकार [ २३ परोपदेशसम्पन्न, गृहीतमभिधीयते । निसर्गसंभवं प्राज, मिथ्यात्त्वमगहीतकम् ॥६१॥ अहिंसादिगुरणाः सर्वे, व्यर्यामिथ्यात्व भाविते । कट केऽलाबुनि क्षीरं, सफलं जायते कुतः ॥६२।। सर्वे दोषाय जायन्ते, गुणामिथ्यात्व दूषिताः । किमोषधानि निम्नति, सविषाणि न जीवितम् ।।६३।। निति संयमस्थोऽपि, न मिथ्याष्टिरश्नुते । जवनोऽप्यन्यतो यायी, किं स्वेष्टं स्थानमृच्छति ॥६४॥ अर्थ-कुगुरु आदि के उपदेश संगति आदि से जो अतत्त्व श्रद्धा रूप मिथ्यात्व होता है उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं । जो स्वभाव से ही मिथ्यात्वरूप भाव होता है उसे प्राज्ञ पुरुष अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं ।।६१।। अर्थ-मिथ्यात्व युक्त जीव में पाये जाने वाले अहिंसा आदि सर्व निरर्थक हो जाते हैं, जिस प्रकार कड़वो तुम्बड़ी में रखा हुआ दूध कड़वा हो जाता है, उस दुध से कुछ लाभ नहीं होता ।।६२॥ अर्थ-अहिंसा आदि सर्वगुण मिथ्यात्व से दूषित हुए सबके सब दोष के लिये कारण हो जाते हैं । क्या विषयुक्त हुई औषधियाँ जीवन प्रदान कर सकतो हैं ? नहीं, वह तो उलटे जीवननाशक ही बनती हैं। इसीप्रकार मिथ्यात्व विष से युक्त अहिंसादिगुण गुण न रहकर दोष ही बन जाते हैं ।।६३।। अर्थ-मिथ्यादृष्टि जीव संयम में स्थित होकर भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता । क्या वेग से गमन करने वाला पथिक भी विपरीत दिशा में जा रहा है तो अपने इष्ट स्थान पर पहुँच सकता है ? अर्थात् जाना हिमालय में है और दक्षिण की ओर दौड़ रहा है वह पुरुष जमे अपने इष्ट हिमालय को प्राप्त नहीं कर सकता है, भले ही वह कितने ही वेग से गमन करे, वैसे ही मिथ्यात्वी कितना भी उच्च संयम क्यों न पाले किन्तु वह मुक्त नहीं हो सकता ।।६४।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] मरकण्डिका न विद्यते व्रतं शीलं यस्य मिथ्यादृशः पुनः । न कथं दीर्घसंसारमात्मानं विदधाति सः ।। ६५ ।। प्ररोचित्वाज्जिनाख्यातं, एकमप्यक्षरं मृतः । निमज्जति भवाम्भोधौ, सर्वस्यारोचको न किं ॥ ६६ ॥ संख्येयाः संत्यसंख्येया, बालबालमृतौ भवाः । भव्य जन्तोरनंता वा, परस्य गणनातिगाः ॥ ६७ ॥ | अनंतेनापि कालेन प्रभज्य भवपंजरं । सिद्धयन्ति भविनो भव्या, नाभव्यास्तु कदाचनं ॥ ६८ ॥ * इति बालबालमरणाधिकारं समाप्तम् * अर्थ – मिथ्यादृष्टि जीव अहिंसा आदि व्रतों से सम्पन्न होकर भी दीर्घ संसारी ही रहता है, संसार के कष्टों से छूट नहीं सकता है, तो फिर जिस मिथ्यादृष्टि के व्रत, शील आदि कुछ भी नहीं है उसके दीर्घ संसार परिभ्रमण कैसे नहीं होगा ? वह अवश्य ही अपने आत्मा को दीर्घ संसारी बना लेता है ।। ६५ ।। अर्थ - जिनदेव प्रतिपादित आगम के एक अक्षर की भी अश्रद्धा करने वाला पुरुष मरकर भवसागर में डूब जाता है तो फिर संपूर्ण आगम की अश्रद्धा करने वाले पुरुष की बात ही क्या है ? अर्थात् वह तो अवश्य संसार समुद्र में भज्जन करेगा ही ||६६ || भावार्थ -- अनादि काल से आज तक चौरासी लाख योनियों में इस जीवका परिभ्रमण हो रहा है उसका कारण मिध्यात्व है । जब तक मिध्यात्व का अभाव नहीं होता तबतक संसार के महादुःखों से छुटकारा नहीं हो सकता भले ही व्रताचरण शील पालन यादि हो किन्तु वे सब गुण अंक रहित शून्य के समान हैं । अर्थ - - मिथ्यादृष्टि जीव यदि भव्य है तो उसके बालबालमरण होता है और उसके संख्यात या असंख्यात भव हैं अथवा किसी के अनन्तभव शेष हैं ||६७ || अर्थ - भव्य जीव अनंतकाल भव भ्रमण करके भी अन्त में भव पंजर का नाश कर मुक्त हो जाते हैं । किन्तु जो जीव अभव्य हैं वे कभी भी मुक्त नहीं होते, हमेशा चतुर्गतियों में भ्रमण करते हैं ।। ६८ ।। || बालबालमरण का वर्णन समाप्त हुआ || Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अर्ह आदि अधिकार भक्तस्यागः प्रशस्तेषु, मध्ये मृत्युषु वर्ण्यते । प्रादायद्यभवत्वेन, शेषवर्णनमग्रतः ॥६६॥ सवीचार मवीचारं, भक्तत्यागं विधाविदुः । शक्यश्चिरायुषामद्य, स्तत्रान्योऽन्यस्य कथ्यते ॥७०।। भक्तत्यागं सवीचारं, मृत्यु तत्र विषक्षणा। चत्वारिंशद्विबोध्यानि, सूत्राणीमानि धीमता ॥७१॥ अर्थ-प्रशस्तमरणों में सर्व प्रथम भक्त प्रत्याख्यान नामके प्रशस्तमरण का वर्णन करते हैं, क्योंकि वर्तमान कलिकाल में यह मरण संभव है। शेष दो मरण इंगिनी और प्रायोपगमनका वर्णन आगे करेंगे ॥६९।। अर्थ- भक्त प्रत्याख्यानमरण के दो भेद हैं सवीचार और अवीचार । जिसके प्रायु अभी दीर्घकालोन है उसके सवीचार भक्त प्रत्याख्यानमरण होता है और जिसकी आयु अत्यल्प है उसके अवीचार भक्त प्रत्याख्यानमरण होता है ।।७।। भावार्थ-यहाँ पर दीर्घ आयु और अल्प आयु का अर्थ यह है कि जिसके अकस्मात् आयु के नाशके कारण उपस्थित नहीं हुए हैं, जो बुद्धिपूर्वक शनैः शनै: आहारादिको कृश कर सकता है इतनी आयु अभी शेष है वह दोर्घायु है ऐसा अर्थ लगाना, तथा जिसके प्रायुके नाशके कारण उपस्थित हो गये हैं वह अल्पायु नामसे कहा गया है। अर्थ--सवीचार भक्त प्रत्याख्यानमरण की विवक्षा करने के इच्छुक बुद्धिमान पुरुषको ये चालीस सूत्र जानने चाहिये, अर्थात् भक्त प्रत्याख्यानमरण के वर्णन में चालीस सूत्राधिकार हैं अथवा चालीस प्रकरण हैं ।।७१।। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरकण्टका प्रस्तावना -- श्रर्हलिंग, शिक्षा, विनय, समाधि, अनियतबिहार, परिणाम, उपथित्याग, श्रिति, भावना, सल्लेखना, दिक, क्षमण, अनुशिष्टि, परगणचर्या, मार्गणा, सुस्थित, उपसर्पण, निरूपण, प्रतिलेख, पृथ्छा, एकसंग्रह, आलोचना, गुणदोष, शय्या, संस्तर, निर्यापक, प्रकाशन, हानि, प्रत्याख्यान, क्षामण, क्षपणा, अनुशिष्टि, सारणा, कवच, समता, व्यान, लेश्या, फल, आराधक त्याग, लक्षणानि चत्वारिंशत्सूत्राणि ॥ ७२ ॥ २६ ] अब उन चालीस सूत्रों का नाम निर्देश करते हैं अर्थ - अर्ह ? लिंग २ शिक्षा ३ विनय ४ समाधि ५ अनियतविहार ६ परिणाम ७ उपधि त्याग व श्रिति ९ भावना १० सल्लेखना ११ दिशा १२ क्षमण १३ अनुशिष्टि १४ परगणचर्या १५ मार्गणा १६ सुस्थित १७ उपसर्पण १८ निरूपण १६ प्रतिलेख २० पृच्छा २१ एक संग्रह २२ आलोचना २३ गुणदोष २४ शय्या २५ संस्तर २६ निर्यापक २७ प्रकाशन २८ हानि २६ प्रत्याख्यान ३० क्षामण ३१ क्षपणा ३२ अनुशिष्टि ३३ सारणा ३४ कवच ३५ समता ३६ ध्यान ३७ लेश्या ३८ फल ३६ और अन्तिम है ४० आराधक त्याग ॥७२॥ विशेषार्थ - भक्त प्रत्याख्यान नामके मरणका वर्णन करने के लिये चालीस प्रकरण - अधिकार या विषय आते हैं, जिनका कि ऊपर नाम निर्देश किया, इन सबका आगे बहुत ही विस्तार पूर्वक कथन है । यहाँ प्रति संक्षेप से लक्षण मात्र बतलाते हैं १. अर्ह - भक्त प्रत्याख्यानमरण को धारण करने में जो मुनि योग्य है उसे को अर्ह कहते हैं अर्थात् रोग आदि के कारण जिसका मरण सन्निकट है, ऐसे साधु समाधि के योग्य होने से 'अहं' कहते हैं अर्थात् जिस अधिकार में इस प्रकार समाधि के योग्य कौन साधु है इसका वर्णन होता है वह अर्ह नामका अधिकार या प्रकरण है ? २. लिंग - दि० जैन मृतिका वेष लिंग किस प्रकार होता है इसका वर्णन इस प्रकरण में है अर्थात् पोछी धारण, नग्नता, तैलादिके संस्कार से रहितता इत्यादि का इसमें कथन है । में होगा । ३. शिक्षा - श्रुतज्ञान का अभ्यास । ४. विनय - गुरुजनों का सन्मान, ज्ञान विनय आदि का कथन इस अधिकार Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अह आदि अधिकार [ २७ ५. समाधि-मनका समाधान होना अथवा मनकी एकाग्रता । ६. अनियत विहार-साधुजन यत्र तत्र विहार करते हैं उससे जो लाभ होता है उसका वर्णन । ७. परिणाम-अपने को जो कार्य करना है उसका विचार करना । ८. उपधित्याग-परिग्रह त्याग । ९. श्रिति-शुभ परिणामों की उत्तरोत्तर वृद्धि । १०. भावना-संक्लिष्ट भावना का त्याग और शुद्ध भावना का ग्रहण । ११. सल्लेखना-फाय और कषायों का कृशीकरण । - १२. दिशा-समाधि के इच्छुक आचार्य अपने पद पर अन्य मुनिको प्रतिष्ठित करते हैं उस विधिका इसमें कथन होगा। १३. क्षमणा-समाधि के इच्छुक आचार्य अपने संघ से क्षमा याचना करते हैं, उसका कथन । १४. अनुशिष्टि-समाधि के वांच्छक आचार्य परमेष्ठी अपना पद अन्य शिष्य को देकर उसको तथा समस्त संघको पृथक् पृथक् उनके कर्तव्य का श्रेष्ठ उपदेश देते हैं, उसका कथन । १५. परगणचर्या-समाधि के लिये आचार्य अन्य संघ में जाने के लिये गमन करते हैं । १६. मार्गणा-समाधिमरण कराने में परम सहायक ऐमे आचार्य का अन्वेषण करना । १७. सुस्थित-अपने तथा परके उपकार करने में समर्थ आचार्य को सुस्थित कहते हैं ऐसे आचार्य के निकट जाना। १८. उपसर्पण-समाधिमरण कराने में समर्थ ऐसे आचार्य के चरणों में आत्म समर्पण । १६. निरुपण-उक्त समर्थ आचार्य द्वारा आगत क्षपक मुनिका निरीक्षणपरीक्षण करना। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ] मरकण्डिका २०. प्रतिलेख - समाधिमरण की सिद्धि कैसी होगी इत्यादि विषयों का शोधन करना निरीक्षण करना | २१. पृच्छा समाधि के लिये अपने संघ में साधु के आ जाने पर संघनायक संघ से पूछते हैं कि इनको ग्रहण करता है या नहीं ? अर्थात् यह साधु समाधि के योग्य है या नहीं आप इस कार्य में समर्थक हैं या नहीं इत्यादि आचार्य द्वारा पूछा जाना । २२. एक संग्रह - एक आचार्य एक ही क्षपक मुनिको समाधि हेतु संस्तरारूढ करते हैं, एक साथ अनेकों को नहीं । २३. आलोचना - जीवनपर्यंत साधु अवस्था में जो दोष लगे हैं उनको आचार्य के लिये निवेदन कर देना । २४. गुणदोष- आलोचना के गुण दोषों का कथन । २५. शय्या - जहां भक्त प्रतिज्ञा मरण ग्रहण करता है वह स्थान - वसतिका कैसी हो । २६. संस्तर - जिस पर क्षपक लेटता है वह भूमि तृण आदि कैसे हों । २७. निर्यापक - क्षपक की सेवा करने वाले मुनिगण कैसे हों । २८. प्रकाशन - क्षपक को यावज्जीव आहार का त्याग कराने के लिये उसको आहार को दिखाकर आहार से विरक्ति कराना २६. हानि - क्षपक से क्रमशः आहार पानी का त्याग कराना । ३०. प्रत्याख्यान - जीवन पर्यंत के लिये सर्वथा आहार त्याग | ३१. क्षामण-क्षपक द्वारा समस्त संघ से क्षमा याचना | ३२. क्षपणा - क्षपक द्वारा कर्मों की निर्जरा होना । उसका कथन । ३३. अनुशिष्टि-निर्यापक आचार्य द्वारा क्षपक के लिये महाव्रत आदि मूल गुण तथा उत्तर गुणों का उपदेश देना । इसमें सबसे अधिक श्लोक हैं सबसे बड़ा अधिकार है । ३४. सारणा - रत्नत्रय धर्म में क्षपक को प्रेरित करना । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अर्ह आदि अधिकार रोगो दुरुत्तरो यस्य, जरा श्रामण्य हारिणी । तिर्यग्भिर्मानवैर्देवं रूपसर्गा: प्रवर्तिताः ॥७३॥ अनुकूल होतो वा वैरिभिर्वृध हारिभिः । योsटव्यां पतितो घोरे, दुर्भिक्षे च दुरुतरे ॥७४॥ दुर्बलौ यस्य जायेते, श्रवण चक्षुषी तथा । वित्तु" न समर्थो यो, जङघाबल निर्वाजितः ॥ ७५ ॥ [ २९ ३५. कवच - क्षपक को धर्मोपदेश द्वारा वैराग्यरूप हढ़ कवच पहना देना इसमें घोर परीषद् विजयी सुकुमाल आदि मुनियों की कथायें हैं । ३६. समता -- समताभाव का वर्णन । ३७. ध्यान - धर्मध्यान आदि का सविस्तार कथन । ३८. लेश्या - छह लेश्या का कथन एवं मरते समय कौनसी लेश्या होवे तो क्षपक किस गति में जाता है इसका वर्णन | ३९. फल- चार आराधनाओं की आराधना करने से क्या फल मिलता है । ४०. आराधक के शरीर का त्याग क्षपक की मृत्यु होने के बाद संघका कर्तव्य क्या है क्षपक के शवका क्या करना इत्यादि विषय का कथन | उपर्युक्त चालीस अधिकारों में से प्रथम ग्रहं नामके अधिकार का प्रारम्भ करते हैं अर्थ- जिस मुनिके मुनिपने का नाश करने वाला बुढ़ापा आया है, या जिसको दूर करना अशक्य है ऐसा रोग आ गया है, अथवा तिर्यंच, मानव और देव द्वारा उपसर्ग प्राप्त हुआ है ||७३|| अर्थ- संयम को नष्ट करने वाले अनुकूल शत्रु द्वारा जो गृहीत है, भयंकर वनमें आ गया हो, भयंकर दुर्भिक्ष पड़ गया हो ||७४ || अर्थ -- जिसके नेत्र दुर्बल हो गये हों, अर्थात् नेत्रों से दिखना बिलकुल मंद हो गया हो । कर्ण दुर्बल हुए हों। जो विहार करने में असमर्थ हो चुका है, जंघाबल रहित हो गया हो ।।७५।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] मरणकण्डका जायतेऽन्यवपीदृशम् । संघतोऽसंयतोऽपि सः ॥७६॥ श्रामण्यमपदूषणम् दुर्वारं कारणं यस्य भक्तत्यागमृते योग्यः, प्रवर्तते सुखं यस्य दुभिक्षा भयं योग्या दुरापा न च सूरयः ॥७७॥ नासावर्हति संन्यासमहटे पुरतो भये । मरणं याचमानोऽसौ निविष्णो वृत्ततः परम् ॥७६॥ इति श्रही । तदत्सगिक लिंगानां, लिगमत्सगिकं परं । attafie लिगानामपीदं वयंते जिनैः ॥७६॥ अर्थ — इसीप्रकार अन्य कोई दुर्वार कारण उपस्थित हो गया है तब वह भक्त प्रत्याख्यानमरण के योग्य होता है। भक्त प्रत्याख्यानमरण के योग्य संयत मुनि है तथा असंयमी भी यथायोग्य इस मरण को कर सकता है [ संयतासंयत भी यथाशक्य इस मरण के योग्य हैं ] इसप्रकार भक्त प्रत्याख्यान नामके सन्यासमरण के योग्य कौन है इस बातको यह अहं नामका अधिकार बतलाता है ||७६ || कौनसे साधु सल्लेखना के योग्य नहीं हैं इस बात को बतलाते हैं अर्थ - जिस साधु के चारित्र निर्दोष पलता हो, व्रतों में दोष उपस्थित न हो, बिना परिश्रम के संयम का निर्वाह हो रहा है, दुर्भिक्ष के कारण अन्न पान का अभाव नहीं है तथा निर्यापक आचार्य की प्राप्ति आगे दुर्लभ नहीं हूं ऐसे समय में समाधि नहीं करनी चाहिये । ऐसे साधुजन समाधि के अर्ह ( योग्य ) नहीं हैं, अनई ( अयोग्य ) हैं ॥७७॥1 अर्थ - आगामो काल में रोग दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं है वे साधु समाधि के योग्य नहीं हैं । इसप्रकार समाधि का अवसर अभी प्राप्त नहीं है और फिर भी कोई साधु समाधिमरण चाहता है तो समझना चाहिये कि वह अपने चारित्र से विरक्त हुआ है ||७८ ॥ अहं अधिकार समाप्त | लिंग नामका दूसरा अधिकार - अर्थ - औत्सर्गिक लिंग वालों के औत्सर्गिक लिंग और अनोत्सर्गिक लिंग वालों के अनत्सर्गिक लिंग होता है, इसप्रकार लिंग के दो भेद हैं । औत्सर्गिक लिंग का Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार [३१ यस्य त्रिस्थानगो घोषो, दुनियारो विरागिणः । लिग मौत्सगिक तस्मै, संस्तरस्थाय दीयते ।।८०॥ उत्सर्ग लिंग भी नाम है तथा अनौगिक लिंगका अपवाद लिंग भी नाम है। उत्कृष्ट लिंग औत्सर्गिक है । जिनेन्द्र ने दोनों लिंगों का वर्णन किया है ।।७।। भावार्थ-संपूर्ण परिग्रह का यावज्जीव त्याग करना उत्सर्ग है और इसके साथ नग्न रूप धारण करना औत्सर्गिक अथवा उत्सर्ग लिंग कहलाता है। यह दिगम्बर जैन साधु के होता है भक्तप्रत्याख्यानमरण के अधिकारी उत्सर्ग लिंगधारी साधुजन होते हैं । अपवाद लिंग गृहस्थ के होता है, अन्त समय में गृहस्थ यदि समाधिमरण नका चाहता है और उसके सिर में ( पुरुषलिंग-अंडकोष ) दोष नहीं है तो वह औत्सर्गिक लिंग अर्थात् निग्रंथ नग्न वेष लेकर समाधिमरण कर सकता है । जिस गृहस्थ के पुरुषलिंग में दोष है, जो गृहस्थ अतिलज्जाशील है, जो मिध्यान्त्री परिवार वाला है, ऐसा गृहस्थ समाधिमरण करते समय कौनसा लिंग धारण करे, इस बातका वर्णन आगे को कारिकाओं में करेंगे । अर्थ-वैराग्यवान समाधिमरण करने का इच्छुक ऐसे गृहस्थ के पुरुष लिंग में यदि तीन स्थानों में दोष है तो उसके लिये संस्तर पर आरूढ़ होने पर अन्तसमय में उत्सर्गलिंग-नग्नवेष दिया जाता है ।।८।। विशेषार्थ-जो गृहस्थ अंतममय में दीक्षा ग्रहण कर समाधि करना चाहता है उसको मुनिदीक्षा देकर निर्यापकाचार्य भलोप्रकार से समाधिमरण में सहायक होते हैं, अब यदि उसके पुरुष लिंग में ( मेहन-अण्डकोष या लिंग में ) कोई दोष है तो उसको संस्तरारूढ़-आहार का क्रमशः त्याग करते हुए एवं वसतिका के बाहर के क्षेत्र का त्याग कराके अनंतर मुनि लिंग धारण कराते हैं | गृहस्थ के लिंग में त्रिस्थानगत दोष ये हैं-मेहन और दोनों वृषणों में दोष तथा लिग चमं से आच्छादित नहीं होना, अण्डकोष को वृद्धि होना, लिंग अधिक लम्बा होना आदि दोष हैं। कोई गृहस्थ ऐमा है कि उसके लिंग दोष तो नहीं है, किन्तु लज्जाशील अधिक है अथवा अन्य कुछ कारण है तो उसे मुनिलिग धारण नहीं कराना चाहिये । इसो बातको आगे कहते हैं। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका समृद्धस्य सलज्जस्य, योग्यं स्थानविदतः । मिथ्याहा प्रचुरजाते, रनौत्सर्गिकमिष्यते ।।१।। औत्सर्गिक मचेलत्वं, लोचो व्युन्सृष्टदेहता । प्रतिलेखनमित्येवं, लिंगमुक्तं चतुर्विध ।।८२॥ यातासारामा ल्य, निवेकास्थितिङ्गिया। परमोलोक विश्वासो, गुस्सालिंगमुपेयुषः ।।१३।। --... -- - . . .- -. - अर्थ-जो गृहस्थ समाधि का इच्छुक तो है किन्तु अधिक धनाढय है और अतिलज्जावान है अथवा जिसके परिवार के व्यक्ति मिथ्याइष्टि हैं ऐसे गृहस्थ को अपवाद लिंग हो योग्य है अर्थात् उसे वस्त्र का त्याग नहीं कराना चाहिये । वस्त्र सहित अवस्था में यथायोग्य समाधिमरण करना कराना युक्त है ॥८॥ ___ अर्थ-औत्सर्गिक लिंग चार प्रकार का है-अचेलकत्व-वस्त्र मात्रका त्याग । लोच-शिर, दाढ़ी एवं मूछके केशोंका हाथों से उखाड़ना (केशलोच) व्युत्सृष्ट देहताशरीर के ममत्व का त्याग । प्रतिलेखन-पिच्छी ग्रहण करना । मुनिवेष में ये चार महत्वपूर्ण चिह्न हैं । इन चार के बिना मुनि लिंग संभव नहीं है ।।८।। उत्सर्ग लिंग क्यों धारण किया जाता है इस बातको बतलाते हैं अर्थ-उत्सर्ग लिंग यात्रा का साधन है, गृहस्थ से विवेक अर्थात् पृथक् करण रूप है, आत्मस्थितिरूप है, शरीरस्थितिरूप है, श्रेष्ठ है, लोकों को विश्वास का कारण है इसप्रकार इतने गुण उत्सर्ग लिंग धारण करने में होते हैं ।।३।। भावार्थ-यहां पर उक्त गुणों का विवेचन करते हैं-यात्रा साधन गुणनग्न वेषको देखकर आहारादि दान गृहस्थजन दे सकेंगे। इस व्यक्ति में रलत्रय धर्म है ऐसी प्रतीति का कारण उत्सर्ग लिंग है यह मोक्षमार्ग की यात्रा में इस प्रकार साधनभत है। इस वेषसे गृहस्थ से साधु का पृथक्करण भली प्रकार से हो जाता है अतः इस लिंग में गार्हस्थ्य विवेक नामका गुण है। आत्मस्थिति गुण-उत्सर्ग लिंगधारी को सदा विचार रहेगा कि मैंने वस्त्रादिका त्याग संसार के नाना दुःखों से छुटने के लिये किया है, चतुर्गति भ्रमण न हो इसलिये किया है, इस बेष में यदि कोई कपट आदि करूगा तो दुर्गति का पात्र बनूगा । इसप्रकार विचार आने से सदा वह आत्म भावना Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार परिकम भयग्रन्थ, संसक्ति प्रतिलेखनाः । लोभमोहमवक्रोधाः, समस्ताः संति वजिताः ॥६४।। अङ्गाक्षार्थ सुख त्यागो, रूपं विश्वासकारणम् । परीषह सहिष्णुत्व, महवाकृतिधारणम् ॥८५॥ ...----. . . में स्थित रहता है, इसप्रकार उत्सर्गलिंग आत्मस्थिति का कारण है। यह सहज स्वाभाविक वेष है अत: परम या श्रेष्ठ है। लोक विश्वास गुण-इस उत्सर्गलिंग से जगत् को विश्वास एवं श्रद्धा होती है कि इस साधु के लोभ लालच नहीं है शरीर से कितना निःस्पृह है, यह हमारे धनादिका अपहर्ता नहीं हो सकता क्योंकि जिसके तन पर वस्त्र ही नहीं वह क्यों चोरी आदि करेगा इत्यादि । इसप्रकार उत्सर्ग लिंग में अनेक गुण पाये जाते हैं। अर्थ-परिकर्म, भय, ग्रंथ, संसक्ति, प्रतिलेखन, लोभ, मद, मोह, और क्रोध इन दोषों का त्याग उत्सर्ग लिंग में हो जाया करता है ।।८४॥ विशेषार्थ-निष्परिग्रही साधुको बस्त्र की याचना नहीं करनी पड़तो, धोना सुखाना आदि में समय नहीं जाता, वह समय स्वाध्याय ध्यान में लगता है । इसप्रकार परिकर्म वर्जन होता है। उत्सगं लिंगधारी को चौरादि का भय नहीं रहता, यह भय विवर्जना गुण हुआ । ग्रंथत्याग-इस लिंग में परिग्रह त्याग होता है। समस्त पदार्थ का त्याग हो जाने से आसक्ति का अभाव होता है। कोई पदार्थ जब पास में नहीं है तो उठाना रखना देखभाल आदि नहीं करना पड़ता इसको अप्रतिलेखन गुण कहते हैं। लोभ, मोह, मद और क्रोध परिग्रह के कारण होते हैं, यहाँ परिग्रह है नहीं अत: लोभादि का परिहार हो जाता है। अर्थ-उत्सर्ग लिंग धारण करने से शरीर सुख इंद्रिय सुख विषय सुखों का त्याग हो जाता है । यह लिंग विश्वास का हेतु है । इसमें परीषह सहिष्णता आती है। यह अर्हन्त को आकृति धारण करना रूप है अर्थात् अर्हन्त प्रभु भी इस उत्सर्ग लिंग वेष वाले होते हैं ।।८५।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] मररावागिद्धका स्ववशत्वमदोषत्यं धैर्यवीर्यप्रकाशनम् । नानाकारा भवत्येव, मचेलत्वे महागुणाः ।।६।। सम्यकप्रवृत्तनिःशेष, व्यापारः समितेन्द्रियः । इस्थमुत्तिष्ठते सिद्धौ, नाग्न्यगुप्तिमधिष्ठितः ।।८७॥ प्रापयादिलिगोऽपि, निवागह परायणः । जन्तुरच्छादकः शक्तेः संगत्यागी विशुद्धयति ॥१८॥ संस्कारा भावतः केशाः, संमृच्छन्ति निरन्तरम् । विशन्स्यागन्तवो जीवा, दूरक्षाः शयनादिषु ।।६।। अर्थ- इसमें स्ववशता आतो है अर्थात मुनि लिंग में स्वेच्छा पूर्वक उठना बैठना, विहार कर जाना आदि कार्य संभव है हर कार्य में स्वाधीनता है। रागादि दोष नहीं होते, इस नग्न वेष से व्यक्ति का धैर्य और वीर्य प्रगट होता है । इस प्रकार के और भी अनेक गुण मुनिलिंग में निवास करते हैं ।।८।। अर्थ-निन्थ लिंग के कारण संपूर्ण क्रियाओं में वह साधु सावधानी पूर्वक समीचीन प्रवृत्ति कर सकता है। इंद्रियाँ शांत हो जाती हैं अर्थात् इंद्रियरूपी अश्वों पर लगाम लग जाती है । गुप्तियों का पालन हो जाता है। इस प्रकार निःसंग हुआ वह साधु एक सिद्धि के लिये ही प्रयत्नशील हो जाता है ।। ८७।।। अर्थ—जो अपवाद लिंगधारी है वह भी अपनी निन्दा गहीं करता हुआ अर्थात् मैं उत्सर्ग लिंगको धारण नहीं कर सका, मुझ में ऐसा धैर्य होना चाहिए था इत्यादि रूप पश्चाताप करे, यथाशक्ति परिग्रह का त्याग करे। जीव दया, इंद्रिय निरोध मन का निरोध करे। अपवाद लिंगधारो आर्यिका या क्षुल्लक या श्रावक श्राविका यह विचार करे कि हम संपूर्ण परिग्रह त्याग में असमर्थ हैं, कव ऐसा अवसर मिले कि जिससे मनिलिंग के योग्य शरीर प्राप्त हो । हमने अवश्य ही पूर्व जन्म में पाप संचय किया है जिससे आज उत्सर्ग लिंग धारण नहीं कर सकते । इत्यादि निंदा गर्दा युक्त होकर विशुद्ध परिणाम द्वारा आत्मशोधन करता है ।।८।। इसप्रकार उत्सगलिंग अथवा अचेलगुण का वर्णन समाप्त हुआ। अर्थ-~-साधुजन केशलोच करते हैं, यदि केशलोच न करे तो संस्कार के प्रभाव में केशों में संमूर्छन जोव उत्पन्न होंगे। शयन आदि के समय केशों में आगंतुक जीव इधर उधर से आकर बैठ जायेंगे, उनका प्रतीकार करना कठिन होगा ।।८९॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. -..- .. -.-- भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार [ ३५ संक्लेशः पीज्यमानस्य, यूकालिक्षेण दुःसहः । पोड्यते तच्च कंडतो, यतो लोचस्ततो मतः ॥१०॥ मुडवं कुर्वतो लोचमस्स्यतो निर्विकारिता । प्रकृष्टा कुरते चेष्टा, वीतरागमनास्ततः ॥११॥ दम्यमानस्य लोचन, हृषीकार्थेऽस्य नाग्रहः । स्वाधीनत्वमदोषत्वं, निर्ममत्वं च विद्महे ॥१२॥ आत्मीया दशिता श्रद्धा, धर्मे लोचं वितन्वता।। भाषितं सकलं दुःखं, दुश्चरं चरितं तपः ॥१३॥ इति लोचः। अर्थ-संस्कार तो साधु करते नहीं अर्थात् केशों का धोना, सुखाना, तेल लगाना आदि क्रिया नहीं करते हैं तब उन केशों में जू आदि निरन्तर रहेंगे, उनसे पीड़ा होने पर संक्लेश होगा, अथवा खुजली आदि करने से उन जीवों को पीड़ा होगी इत्यादि दोष होंगे अत: जिनेन्द्र देव ने साधुजनों को केशलोच की आज्ञा दी है। इस प्रकार केशलोच नहीं करने पर क्या दोष आता है इस बातको बतलाया ।।६।। अर्थ--केशलोच करने से मस्तक का मुंडन होकर निर्विकारता आती है, उससे मुक्तिमार्ग की ध्यानादि शिया में प्रवृत्ति हो जाया करती है। वोतरागभाव आता है ।।९।। अर्थ--लोच द्वारा दमन हो जाने से इंद्रियों के विषयों में प्रवृत्ति कम हो जाती है। केशलोच के कारण स्वाधीनता बनी रहती है, अर्थात् केशों को काटने के लिये कैंची आदि को याचना नहीं करने से स्वाधीनता आती है। हिंसादि दोष दर होते हैं । शरीर में ममत्व नहीं रहता ।।९२।। अर्थ-अपनी आत्म दर्शिता एवं आत्म श्रद्धा लोच करने से प्रगट होती है। दुःख सहन का अभ्यास सहज ही हो जाता है, धर्म पर प्रगाढ़ श्रद्धा होती है, केशलोच करने में शरीर का कष्ट सहन होता है और उससे कठोर चारित्र पालन, घोर तपश्चरण आदि का अभ्यास होता है अर्थात कष्ट सहिष्णुता प्रा जाने से, उच्च निर्दोष चारित्र पालन और अनशन आदि तपों में सहज प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार केशलोच करने के गुण बताये हैं ।।६।। लोच प्रकरण समाप्त । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका न 5 दन्तोष्ठ कर्णाक्षि, नखकेशादि संस्कृतिम् । भजन्त्युद्वर्तनं स्नानं, नाभ्यण ब्रह्मचारिणः ।।६४॥ न स्कन्धकुट्टनं वासं, माल्यं धूपविलेपनम् । कराम्यां मलनं चूर्ण, चरणाभ्यां च मईनम् ॥६॥ या रूक्षा लोचबीभत्सा, सर्वांगीणमला तनुः । सा रक्षा ब्रह्मचर्यस्य, प्रख्दनललोमिका ।।६।। व्युत्सृष्टदेहता। प्रासने शयने स्थाने, गमने मोक्षणे आहे । भामर्शन परामर्श, प्रसारापुञ्चनादिषु ॥६॥ अब पुत्सृष्टदेहता गुण का प्रतिपादन तीन श्लोकों द्वारा करते हैं अर्थ--ब्रह्मचर्य व्रतधारी साधुजन अपने भौं, दांत, प्रोठ, कान, आंख, नख, केशादि के संस्कार को नहीं करते हैं । उबटन और अभ्यंग स्नान नहीं करते हैं ।।१४।। अर्थ-शरीर को दबाना, कूटना आदि नहीं करते, सुगंधित पदार्थ, पुष्पमाला, कालागरुधूप विलेपन आदि का त्याग करते हैं। हाथों से मलना, परों से रगड़ना, बाहूमर्दन इत्यादि क्रिया को नहीं करते हैं ॥१५॥ अर्थ-शरीर में रूक्षता, केशलोच से बीभत्सत्ता सर्वांग में मलका होना, नख लोमादि संस्कार नहीं करना इत्यादि से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। इन क्रियाओं से शरीर सौन्दर्थ समाप्त होता है और उससे ब्रह्मचर्य निर्दोष होता है । ।।६६।। इसप्रकार व्युस्सृष्टदेतागुरण का व्याख्यान समाप्त हुप्रा । प्रतिलेखन गुणको कहते हैं-- अर्थ-~-आसन, शयन, स्थान, गगन इन क्रियाओं में तथा किसी वस्तु को रखना और उठाना तथा शरीर मल का त्याग, शरीर का आमर्श ( स्पर्श ) परामर्श करने में एवं शरीर को फैलाना सिकोड़ना इन सब क्रियाओं में जीवों को रक्षा करने हेतु प्रतिलेखन अर्थात् पिच्छी का धारण अत्यन्त आवश्यक है, पिच्छी द्वारा भली प्रकार Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अर्ह अादि अधिकार [ ३७ स्वपक्षे चिह्न मालम्ब्यं, साधुना प्रतिलेखनम् । विश्वास संघमाधार, साधुलिग समयनम् ।।९।। लध्वस्वेदरजोग्राहि, सुकुमार मुदितम् ।। इति पंचगुणं योग्य, ग्रहीतु प्रतिलेखनम् ॥६६॥ इति प्रतिलेखन । इति लिगं । निपुणं विपुलं शुद्ध, निकाचितमनुत्तरम् । पापच्छेदि सदा ध्येयं, सार्वीय वाक्यमाहतम् ॥१००। गधं-सर्वभावहिताहितावबोध-परिणामसंवर-प्रत्यग्रसंवेग-रत्नत्रयस्थिरत्वतपो-भावना परदेशकत्वलक्षणगुणाः सप्त संपद्यन्ते जिनवचनशिक्षया ॥१०॥ से छोटे बड़े जोवों को रक्षा होती है। सोना है बैठना है वस्तु रखना उठाना है तो पिच्छी द्वारा जीवों को दूर कर उक्त क्रिया कर सकता है अत: साधुओं को पिच्छी ग्रहण आवश्यक है, तथा जैन साधुओं का यह चिह्न विशेष भी है. यह विश्वास और संयम का आधार है ।।६७-६८।। अर्थ-पिच्छो में पांच गुण बतलाये हैं-लघूत्व-यह हलकी होती है । अस्वेदत्व-पसीना ग्रहण नहीं करती। रजो अग्रहण-धूलि आदि को ग्रहण नहीं करती। सुकुमार है और कोमल है इसप्रकार मयूर पंखों की पिच्छी में ये गुण होते हैं ।१९९।। इसप्रकार यहां तक बालोस अधिकारों में से दूसरा लिंग नामा अधिकार पूर्ण हश्रा। लिंग के जो चार गुण बताये थे उनका कथन समाप्त हुआ। अब शिक्षा नामा तीसरा अधिकार प्रारम्भ करते हैं अर्थ-जिनेन्द्र देव के बाक्य निपुण हैं-प्रमाण नय से युक्त हैं । सूक्ष्म पदार्थ के विवेचन में समर्थ होने से विपुल और रागद्वेष रहित होने से शुद्ध हैं। अवमाढ अर्थ के प्रतिपादक प्रतिपक्ष रहित होने से अनुत्तर हैं । पापनाशक हैं, सदा ध्येयरूप और सब जीवों के हितकारक हैं ।।१०।। अर्थ--यहां गद्य द्वारा शिक्षा में जो सात गुण होते हैं उनको बतलाते हैंसम्पूर्ण पदार्थों में कौनसा हितरूप है कौनसा अहित रूप है इसका ज्ञान जिन वाक्यों से होता है इसप्रकार हेयका ज्ञान और उपादेय का ज्ञान होता है भावसंवर प्राप्ति । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ] मरणकण्डिका सर्वे जीवादयो भावा, जिनशासन शिक्षया । तत्वतोऽत्रावबुध्यन्ते, परलोके हिताहिते ।।१०२।। हिताहितमजानानो, जीयो मुह्यति सर्वथा । मूढो गृह्णाति कर्माणि, ततो भ्राम्यति संसती ॥१३॥ हितावानाहि-तत्त्यागौ, हिताहितविबोधने । यतस्ततः सदा कार्य, हिताहितवियोधनम् ।।१०४।। स्वाध्यायं पञ्चशः कुर्वस्त्रिगुप्तः पंचसंवृतः । एकानो जायते योगी विनयेन समाहितः ॥१०५॥ - - - - - - संसार शरीर भोगों से नवीन-नवीय संवेष ( ET, I होती है, इनाय में स्थिरता, तप करने की भावना और धर्मोपदेश देने की योग्यता ये गुण जिन शिक्षा द्वारा प्राप्त होते हैं ।।१०१॥ आगे इन्हीं को बताते हैं अर्थ-जिन शासन की शिक्षा द्वारा जीव अजीव आस्रव आदि सभी पदार्थों का वास्तविक बोध होता है। परलोक में हितरूप क्या है अहितरूप क्या है इसका ज्ञान होता है ।।१०२।। अर्थ-जब तक यह जीव हित और अहित को नहीं जानता है तब तक वह सर्वथा मोहित रहता है मोह के कारण मूढ़ हुआ प्राणी कर्मों का बंध करता है और उससे संसार भ्रमण करता है ।।१०३।। अर्थ-जब यह भव्य जीव हित अहित को जान लेता है तब भली प्रकार से हितका ग्रहण और अहित का त्याग करने में समर्थ होता है, इसलिये हमेशा अपने आत्मा का हित क्या है और अहित क्या है इसको जानना चाहिये ।।१०४।। अर्थ—जो पंच प्रकार के स्वाध्याय ( वाचना, पृच्छना, अनुप्रक्षा, आम्नाय और उपदेश ) को करता है, त्रिगुप्ति पालन और पंच इन्द्रियों का निरोध करता है वह विनय युक्त साधु एकाग्रचित्त होता है-ध्यान के योग्य होता है ।।१०।। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याध्यानमरण अहं आदि अधिकार प्रदृष्टपूर्वमुच्चार्य मभ्यस्यति जिनागमम । यथा यथा यतिधर्म, प्रहृष्यति तथा तथा ।।१०६॥ शुद्धधा निःकंपनो मूत्वा, हेयादेय विचक्षणः । रत्नत्रयात्मके मार्गे, यावज्जीवं प्रवर्तते ॥१०७॥ तपस्यभ्यन्तरे बाह्य, स्थिते द्वादशधा तपः । स्वाध्यायेन समं नास्ति, न भूतं न भविष्यति ।।१०।। बहीभिर्भवकोटिभिर्यदज्ञानेन हन्यते । हंति ज्ञानी त्रिभिगुप्तस्तत्कर्मान्तमुहूर्ततः ॥१०॥ षष्टादमादिभिः शुद्धिरजानस्यास्ति योगिनः। ज्ञानिनो वल्भमानस्य, प्रोक्ता बहुगुणास्ततः ॥११॥ स्वाध्यायेन यतः सर्वा, भाविताः संति गुप्तयः । भवत्याराधना मृत्यौ, गुप्तीना भावने सति ।।११।। अर्थ-जैसे जैसे विशिष्टरूप जिनागम का अभ्यास करता है जिसमें कि अदृष्टपूर्व-अपूर्व अपूर्व अर्थ भरा है श्रेष्ठ गूढ़ अर्थ भरा है, वैसे वैसे मूनिधर्म में महान हर्ष-विशिष्ट अनुराग होता है ।।१०६।। अर्थशास्त्राभ्यास द्वारा जिसे हेयोपादेय को जानने में विचक्षणता प्राप्त हुई है वह पुरुष रत्नत्रय मार्ग में जीवन पर्यंत प्रयत्नशील रहता है ।।१०।। अर्थ-बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से तप बारह प्रकार का है, उसमें स्वाध्याय नामके अभ्यन्तर तपके समान दूसरा तप नहीं है, न था और न आगे होगा। स्वाध्याय हो तोनों कालों में सर्व श्रेष्ठ तप है ।।१०।। ___ अर्थ-बहुत से करोड़ों भवों में अज्ञान पूर्वक किये आचरण से जो कर्म नष्ट होता है वह त्रिगुप्ति धारक ज्ञानी के अन्तर्मुहूर्त में नष्ट हो जाता है ॥१०९।। अर्थ-अज्ञामी योगी षष्ठोपवास (बेला) अष्टमोपवास ( तेला ) आदि तम द्वारा भी जिस शुद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता उस शुद्धिको ज्ञानो भोजन करते हुए भो प्राप्त कर लेता है । अत: स्वाध्याय ज्ञान में बहुत गुण बताये हैं ।।११०॥ अर्थ-स्वाध्याय के द्वारा सभी गुप्तियां भावित होती हैं और गुप्तियों के सिद्ध होने पर मरण काल में आराधना की प्राप्ति हो जाती है ।।११।। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] मरणकण्डिका जिनाज्ञा स्वपरोत्तारा, भक्तिर्वात्सल्यवर्द्धनी। तीर्थप्रयतिका साधोनितः परदेशना ॥११२।। इति शिक्षा। विनयो दर्शने झाने, चारित्रे तपसि स्थितः। उपचारे च कर्तव्यः, पंच धापि मनीषिभिः ॥११३॥ उपहावि तात्पर्य, भक्त्यादिकरणोद्यमः । सम्यक्त्वविनयोज्ञेयः, शंकादीनां च वर्जनम् ॥११४॥ अर्थ-स्वाध्याय के द्वारा जिनाज्ञा का पालन, स्व-पर उद्धार, भक्ति, वात्सल्यवृद्धि, तीर्थ प्रवर्तन, उपदेश इतने गुण प्राप्त होते हैं ।।११२।। भावार्थ-शास्त्र का स्वाध्याय करने से भगवान की आज्ञा क्या है इसका बोध होता है, स्वका उद्धार और परका उद्धार कैसे हो यह ज्ञान हो जाता है। स्वाध्याय से गुणों में प्रगाढ़ भक्ति जाग्रत होती है। साधर्मी में वात्सल्य बढ़ता है । ज्ञान होने से प्रभावना करने में समर्थ होता है। तीर्थंकर का तीर्थ रत्नत्रयधारी के रहने से होगा, श्रुतकी परिपाटी बनी रहने से होगा और रत्नत्रयधारी तथा श्रुतकी परिपाटी स्वाध्याय करने वाले होंगे तभी संभव है अतः स्वाध्याय तीर्थ प्रवर्तक है। परको धर्मोपदेश तो स्वाध्याय के बिना दे नहीं सकते। इसलिये स्वाध्याय में इतने गुण निवास करते हैं ऐसा जानकर उसको सदा करते रहना चाहिये 1 शिक्षा प्रकरण समाप्त (३) अब विनय नामका चौथा अधिकार प्रारम्भ होता है अर्थ- बुद्धिमानों को पांच प्रकार विनय करना चाहिये, सम्यग्दर्शन में, ज्ञान में, चारित्र में और उपचार में। रत्नत्रय और रत्नत्रय धारियों में आदर के भाव, भक्ति का होना, उनके प्रति झुकना, नम्रता होना बिनय कहलाता है । अथवा जो अशुभ कर्मों को दूर करता है उसे विनय कहते हैं---"विनयति-अपनयति अशुभं कर्म इति विनयः' इसप्रकार विनय शब्दकी निरुक्ति है ।।११३।। ज्ञान विनय पाठ प्रकार का है-काल, विनय, उपषान, बहुमान, प्रनिह्नव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय । अब यहां पर आठों का कथन करते हैं अर्थ–१ कालविनय-शास्त्र का स्वाध्याय योग्य काल में करना, संध्या समय पर्व काल आदि कालों में सूत्र ग्रंथों का अध्ययन नहीं करना इत्यादि कालविनय है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार जानीयो विनयः काले, विनयेऽवग्रहे मतः । बहुमानेऽनपह्न त्यां, व्यंजनेऽर्थे द्वयेऽष्टधा ।।११५॥ कुवंशः समिती गुप्ता, प्रणिधानस्य वर्जनम् । चारित्रविनयः साधो, र्जायते सिद्धिसाधकः ॥११॥ प्रणिधानं द्विधा प्रोक्त, मिद्रियानिद्रियाश्रयम् । शब्चादि विषयं पूर्व, परं मानादिगोचरम् ॥११७॥ २.विनय-श्रुत एवं श्र तज्ञानीका भक्ति आदर करना । ३. उपधान विशेष नियम धारण कर ग्रंथ पढ़ना अर्थात् अमुक शास्त्र का अध्ययन पूर्ण नहीं होगा तब तक इस वस्तुका मुझे त्याग है इत्यादिरूप नियम लेकर स्वाध्याय करना । ४. बहुमान-शुभ मनोयोग से पढ़ना, ग्रंथ को उच्चस्थान में विराजमान करके नमस्कार करके पढ़ना आदि । ५. अनिहुव-गुरु का नाम या ग्रन्थ का नाम नहीं छिपाना। ६. व्यञ्जन शुद्धि-ककारादि ध्यंजनों का शुद्ध उच्चारण । ७. अर्थ शुद्धि-जिस शब्द का जो अर्थ हो उसे वहां वैसे हो प्रकरण आदि के अनुसार करना । ८. उभय शुद्धि--व्यञ्जन शुद्धि और अर्थ शुद्धि पूर्वक ग्रंथ पढ़ना ॥११४॥ अर्थ-उपबृहण आदि पहले कहे गये जो गुण हैं वे तथा अरिहंत आदिमें भक्ति पूजा आदि करने में उद्यम शंका आदि दोषों का त्याग ये सब सम्पकल का विनय है ॥११॥ अर्थ--इन्द्रियों के विषयों का त्याग और कषायों का त्याग करना प्रणिधान का त्याग कहलाता है । समिति और गुप्तियों का पालन करना, साधुओं का यह सब आचरण चारित्र विनय कहलाता है जो सिद्धि का साधन भूत है ।।११६।। इन्द्रिय विषयों का त्याग इत्यादिरूप प्रणिधान का त्याग कहा था । यहां प्रणिधान का विशेष वर्णन करते हैं अर्थ-प्रणिधान दो प्रकार का है- इन्द्रिय प्रणिधान और अनिन्द्रिय [मन] प्रणिधान । शब्द रस आदि विषयों में होने वाला प्रणिधान इन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है, तथा मान मद आदि विषयक अनिन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है ॥११७।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] मरणकण्डिका उक्तं शम्दे रसे रूपे, स्पर्श गन्धे शुमेऽशुभे । रागद्वेषविधानं यत्रावाचं प्रणिधानकम् ॥११८।। मान माया मद क्रोध, लोभमोहादिकल्पनम् । अनिद्रिया श्रयं ज्ञेयं, प्रणिधानमनेकधा ॥११॥ तपस्तपोऽधिके भक्तिर्यच्छेषाणामहेलनं । स तपो विनयोऽवाचि, ग्रंथोक्तं चरतो यतेः ॥१२०॥ कायिको वाचिकश्चैतः, पंचमो विनयस्त्रिधा। सर्वोप्यसौ पुनधा, प्रत्यक्षेतर भेदतः ॥१२॥ संभ्रमो नमनं सूरेः, कृतिकाजलिक्रिया । सम्मुखं यानमायाति, यास्यनुवजनं पुनः ॥१२२॥ अर्थ-शुभ और अशुभ शब्द, रस, रूप, स्पर्श और गन्ध में जो राग द्वेष होता है उसे इन्द्रिय प्रणिधान जानना ।।११८।। अर्थ-मान, माया, मद, क्रोध, लोभ, मोह आदि भाव मन में उत्पन्न होना अनिन्द्रिय प्रणिधान है वह अनेक प्रकार का है ।।११।। [सब प्रकार के प्रणिधान का त्याग कर अपने चारित्र को उज्वल बनाना चारित्र का विनय है।] चौथे तप विनयका वर्णनअर्थ-बारह प्रकार के अनशन आदि तपमें और अपने से जो साधु अधिक तपस्वी हैं उसमें भक्ति का होना तप का विनय है । जो साधु जन तप में अपने से कम हैं उनका तिरस्कार नहीं करना यह भो तप बिनय है, शास्त्रोक्त आचरण करने वाले साधु के इसप्रकार तप का विनय होता है ॥१२०॥ ___ अब उपचार नामका पांचों विनय बतलाते हैं अर्थ---उपचार विनय तीन प्रकार का है-कायिक, वाचिक और मानसिक । पुनः उन तीनों विनयों के दो-दो भेद हैं.---प्रत्यक्ष और परोक्ष ।।१२१॥ कायिक विनय का वर्णन चार श्लोकों द्वारा करते हैं अर्थ-आचार्य आदि आने पर उठकर खड़े होना, नमन करना, अंजली बद्ध नमस्कार, आचार्य भक्ति आदि बोलकर नमस्कार रूप कृतिकर्म करना, आचार्य आदि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार नीचं यानमवस्थानं, नीचं शयनमासनं । प्रदानमवकाशस्थ, विष्टरस्योपकारिणः ॥ १२३ ॥ देशकालवयोभाव धर्म योग्य क्रियाकृतिः । प्रेषणादीनामुपधेः प्रतिलेखनम् ॥ १२४ ॥ । करणं किन कामादिकः । कायिको विनयोsवाचि साधूनां स यथोचितः ॥। १२५ ।। 1 [ ४३ बड़े साधुजन को आते देखकर उनके सम्मुख जाना, अन्यत्र विहार कर रहे हों तो उनके पोछे कुछ दूर तक जाना, अथवा खुद को भी साथ विहार करना हो तो मार्ग में उनके पीछे चलना ॥ १२२ ॥ अर्थ - पीछे गमन, नीचे स्थान पर खड़े रहना, उन आचार्यादि से नीचे स्थान पर शयन और आसन होना । उनके लिये निवास स्थान देना, सिंहासन देना, इस प्रकार गुरुजनों के प्रति प्रवृत्ति करना ।। १२३ । 1 अर्थ- गुरुजनों की सेवा देश, काल, उमर, भाव और धर्म के अनुसार करना चाहिये । रूक्ष प्रदेश है अथवा स्निग्ध है उसको देखकर सेवा करना, शीत ऋतु है अथवा अन्य है इसप्रकार काल के अनुकूल और उमर बाल वृद्ध आदि अवस्थाके अनुसार सेवा करें | धर्म के अनुसार अर्थात् व्रतादि में दूषण न आवे इस प्रकार सेवा करें। गुरु जन के भाव के अनुकूल वे जैसा चाहते हैं वैसे उनके शरीर को अपने पैर आदिका स्पर्श न हो इसप्रकार बैठकर सेवा करनी चाहिये। उनकी जैसी आज्ञा हो वैसे तथा उनका कुछ संदेश अन्यत्र भेजना हो तो उसे विनय पूर्वक स्वयं भेज देथे। आचार्य आदि के शास्त्र, पीछी कमण्डलु आदि उपकरणों का शोधन करे - उनमें जीव आदि का प्रवेश नहीं होने दे || १२४ ॥ अर्थ - इस प्रकार अपने शरीर द्वारा नित्य सेवा करना कायिक विनय कहा गया है, वह साधुजनों में यथा योग्य हुआ करता है ।। १२५ ।। बाचिक विनय का प्रतिपाद करते हैं Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] मरण कण्डिका पूजासम्पादकं वाक्यमनिष्ठुर मकर्कशम् । अक्रियावर्णकं श्रव्य, सत्यं सूत्रानुवीचिकं ॥१२६॥ उपान्तमाहिर हितमिनमहेलनम् । योगिनो भाषमागस्य, विनयोऽवाचि वाचिकः ।।१२७॥ हितप्रियपरिणामं, विवधानस्य मानसः । पापाव परिणाम, मुचतो बिनयोमतः ॥१२॥ इत्ययं बितयोऽध्यक्षः, परोक्षः स मतो गुरोः । अप्रत्यक्षेपि या वृत्ति, राज्ञानिर्देशचर्ययोः ॥१२६।। संयतानां गृहस्थानां, धायिकाणां यथायथम् । विनयः सर्ववा कार्यः, संसारान्तं यियासुना ॥१३०॥ - - - - - - - अर्थ--आदर सूचक वचन बोलना, निष्ठुरता से रहित, कठोरता से रहित पापारम्भ कारक वचन से रहित कर्णप्रिय, सत्य शास्त्र के अनुसार ही बचन बोलना ।।१२६।। अर्थ-उपशम भाव को करने वाले, गृहस्थ जैसे चकार मकार वाले न हो ऐसे वचन बोलना चाहिये । हितकर, मित-अल्प, तिरस्कार रहित ऐसे वचन योगी जन बोलते हैं यह वाचिक विनय कहा गया है ।। १२७।। मानस विनय का वर्णनअर्थ-मनमें हित रूप प्रियरूप कोमल परिणाम रखने वाले के एवं पापास्रवके कारणभूत परिणाम का त्याग करने वाले मुनि के मानस बिनय होता है। अर्थात् परिणाम निर्मल रखना, अशुभ भावको छोड़ देना मानसिक विनय कहलाता है ।।१२८॥ अर्थ-इसप्रकार कायिक आदि तीन प्रकार का विनय गुरुजनों के प्रत्यक्ष रहते हुए किया जाय तो वह प्रत्यक्ष विनय कहलाता है और उनके प्रत्यक्ष नहीं रहते हुए किया जाता है वह परोक्ष विनय है । तथा परोक्ष में भी आचार्य की आज्ञा का पालन करना, उनके निर्देश के अनुसार चलना ये सब परोक्ष विनय है ।।१२९।। अर्थ-- साधुओं को साधुओं का विनय करना चाहिये, गृहस्थ और आर्थिकाओं का भी उनके योग्य बिनय होता है । अपने से छोटे साधुजन हैं तो उनके साथ यथा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार [४५ विनयेन विना शिक्षा, निष्फला सकला यतेः । विनयो हि फलं तस्याः, कल्याणं तस्य चिन्तितम् ।।१३१॥ विमुक्तिः साध्यते येन, श्रामण्यं येन वद्ध चते। सुरिराराध्यते येन, पेन संघः प्रसाधते ॥१३२॥ विनयेन विना सेन, निर्वृति यो यियासति । तरडेन विना मन्थे, स तितोषति वारिधि ।।१३३॥ कल्पाचार परिज्ञानं, दोपनं मानभंजनम् । प्रात्मशुद्धिरवैचित्यं, मैत्री मार्दवमार्जवम् ॥१३४॥ योग्य प्रिय आचरण, गृहस्थ को, आर्यिका को आशीर्वाद आदि द्वारा सन्तुष्ट करना ये सब छोठे तथा बड़े के साथ होने वाले प्रिय व्यवहार विनय को कोटि में आ जाते हैं । इसप्रकार के विनय को संसार का नाश करने के इच्छुक व्यक्ति को सदा करते रहना चाहिये ।।१३०॥ ___ अर्थ-विनय के बिना साधु की सब शिक्षा निष्फल है क्योंकि शिक्षा का फल तो विनय करना है, बिनय करने से आत्म कल्याण होता है । विनय का फल सम्पूर्ण कल्याणों को प्राप्ति है ।। १३१।। अर्थ-जिसके द्वारा मुक्ति सिद्ध की जाती है, जिसके द्वारा साधुपना वृद्धिंगत होता है, जिसके द्वारा आचार्य को आराधना होती है, जिसके द्वारा संघ प्रसन्न किया जाता है वह विनय है, अर्थात् बिनय करने से ये सर्व कार्य अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं ।।१३२।। अर्थ---ऐसे विनय गुण के बिना जो मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, वह बिना जहाज के सागर को पार करना चाहता है, अर्थात् जिस प्रकार बिना जहाज के सागर तिरा नहीं जाता उसप्रकार विनय के बिना संसार से मुक्त नहीं हुआ जाता ।।१३३।। ___ अर्थ-कल्प प्रायश्चित्त को या प्रायश्चित्त ग्रंथ को कहते हैं, मुनिजनों के आचरण का जिसमें कथन हो वह आचार शास्त्र है, विनय करने से इन दोनों शास्त्रों का परिज्ञान वृद्धिंगत होता है । विनयसे मानकषाय घमण्ड का अभाव होता है, बात्मा को शुद्धि चित्त में स्थिरता, मैत्री भाव, मार्दव आर्जव भाव प्राप्त होते Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका भक्तिः प्रल्हादनं कोति, लाघवं गुरुगोरवं । जिनेंद्राज्ञा गुणश्रद्धा, गुणा वैयिका मताः ॥१३५॥ यिनयं न विना ज्ञानं, दर्शनं चरितं तपः । कारणेन विना कार्य, ज्ञायते कुत्र कथ्यताम् ॥१३६॥ समस्ताः संपरः सद्यो विधाय वशतिनीः । चितामणि रिवाभीष्ट, विनयः कुरुते न कि ॥१३७॥ समाहितं मनो यस्य, वश्यं त्यक्ताशुभास्रवम् । उह्यते तेन चारित्र, मश्रान्तेनापदूषणम् ॥१३८॥ अर्थ-जिनेन्द्र आदि में प्रगाढ़ भक्ति, प्रसन्नता, यश, लाघव [मनका भारी नहीं होना गुरुका गौरव बढ़ना, जिनेन्द्र को आज्ञा का पालन, गुणों में श्रद्धा भाव ये सबके सब गुण विनय करन से प्राप्त होते हैं ।।१३५॥ अर्थ-विनय के बिना तो ज्ञान, दर्शन चारित्र तप ये कुछ भी उपयोगी नहीं हैं अथवा विनय के अभाव में ये होते हो नहीं । कारण के बिना कार्य होना कहां सम्भव है ? अर्थात् जैसे कारण बिना कार्य नहीं होता वैसे विनय उक्त ज्ञान आदि नहीं होते हैं ॥१३६।। अर्थ-- इसप्रकार समस्त संपदाओं को शीघ्र वश वर्ती करने वाले, इस चिन्तामणि के समान अभीष्ट विनय को क्यों न किया जाय ? अवश्य ही किया जाना चाहिये ॥१३७॥ विनय सूत्र समाप्त समाधि नामका पांचवां अधिकार अर्थ-जिसका मन समाहित है [शान्त या स्थिर है] वशमें है अशुभ आम्रव के कारणभूत परिणाम जो मन में नहीं करता ऐसे मनवाले अविश्रोत साधु द्वारा ही निर्दोष चारित्र का वहन सम्भव है । यहां पर समाहित मन का यह भी अर्थ है कि जिस मनको जप, तप, स्वाध्याय, स्तोत्र आदि किसी भी कार्य में सहज ही लगा सके ।।१३८।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार तितयाविव पानीयं, चारित्रं चहचेतसः । वचसा वपुषा सम्यक्, कुर्वतोऽपि पलायते ॥१३६।। परितो धावते चेतश्चरण्युरिव चंचलम् । परमाणुरिव क्षिप्रं, दूरं यात्यनिधारितम् ॥१४०॥ घांच्छिताभिमुखं स्वान्तं, निषेद्ध, केन शक्यते । नगापगापयो निम्ने, प्राप्तं तद्रूध्यते कथं ॥१४॥ न मूको वघिरोऽन्धो वा, भू ते श्रृणोति पश्यति । यस्तु हेयमुपादेयं, विषयाकुलितं मनः ॥१४२।। अर्थ-जिस साधु का मन चंचल है उसके वचन और काया से भली प्रकार चारित्र का आचरण करते हुए भो वह चारित्र पलायमान हो जाता है, जैसे कि चलनी में पानी टिकता नहीं पलायमान होता है अर्थात् गिर जाता है ।।१३९।। अर्थ-यह मन चारों ओर दौड़ता रहता है, वायुवत्-चंचल है, बिना किसी रुकावट के शीघ्र ही परमाणु के समान अत्यन्त दूर पहुंच जाता है ।।१४०।। अर्थ-अपने इष्ट विषय के सन्मुख जाते हुए इस मनको किसके द्वारा रोका जाना शक्य है ! पर्वत से नीचे की ओर गिरते हुए नदीके जलको किस प्रकार रोक सकते हैं ? ॥१४१॥ भावार्थ-यह है कि जैसे पर्वत से गिरते हुए जल को रोका जाना अशक्य है वैसे इष्ट वस्तु में जाते हुए मनको रोकना अशक्य है । अर्थ-जिसप्रकार मूक व्यक्ति बोल नहीं सकता, बहिरा सुनता नहीं और अन्धा देखता नहीं, इसप्रकार विषयों में फंसा मन हेयोपादेय तत्त्व को जानता नहीं, अथवा विषयाकुलित मन मूक के समान हेय और उपादेय तत्त्व का कथन नहीं कर सकता। बहिरे के समान उस तत्त्व को दूसरे से सुन नहीं सकता । अन्धे के समान उस हेयोपादेय वस्तु को देख नहीं सकता है ॥१४२।। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] मरणकण्डिका विकल्पविविधैर्लोकं, पूयित्वा मलीमसः । मेघवन्दमिव स्वान्त, क्षणेनैव विनश्यति ॥१४३।। न प्रवर्तयितु मार्गे, दुष्टो बाजीय सामान : ग्रहीतु शक्यते चेतो, न मत्स्य इव बोलनः ॥१४४॥ यस्य दुःखसहस्राणि, भजते वशवतिनः । संसारसागरे घोरे, बंभ्रम्यन्ते शरीरिणः ॥१४५।। संसारकारिणो दोषा, रागषमदादयः । जीवानां यस्य रोधेन, नश्यंति क्षणमात्रतः ॥१४६।। तदुष्टं मानसं येन, निवार्याशुभवृत्तितः । प्रवृत्तशुभ संकल्पं, स्वाध्याये क्रियते स्थिरम् ॥१४७॥ अभितो धावमानं तद्विचारेण निवर्त्यते । निगह क्रियते चित्तं, दुर्वृत्त इव लज्जितम् ।।१४८॥ - - -. -. अर्थ-अशुभ मलोन ऐसे विविध संकल्प विकल्पों द्वारा सम्पूर्ण लोक को परित करके यह मन शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, जैसे मेघों का समुदाय अनेक आकर प्रकार द्वारा आकाश को पूरित करके क्षण भर में विनष्ट होता है ॥१४३।। अर्थ-जैसे दुष्ट अश्व को मार्ग पर चलाना शक्य नहीं है जैसे अति स्निग्ध दोलन मत्स्यको पकड़ना शक्य नहीं है वैसे ही मनको वश करना शक्य नहीं है ।११४४|| अर्थ-जिस मनके वश में हुए ये संसारी प्राणो गण सहस्रों दुःखों को सहते हैं तथा घोर संसार सागरमें परिभ्रमण करते हैं ।।१४५॥ ___ अर्थ-जिस मनके रोक देने से राग, द्वेष, मद आदि संसार के कारणभुत जीवों के समस्त दोष क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं, उस दुष्ट मनको अशुभवृत्ति से रोककर शुभ संकल्प में प्रवृत्त कर स्वाध्याय में स्थिर किया जाता है अर्थात् ऐसे चंचल और दुष्ट मनको स्वाध्याय स्थिर करना चाहिये ।।१४६-१४७।। अर्थ-चारों तरफ दौड़ते हुए इस मनको तत्त्व विचार द्वारा अपनी तरफ . लौटाया जाता है, जैसे खोटे आचरण करने वाले कुपुत्र आदि को उसके दुराचरण का ला फल दिखाकर लज्जित कर निगृहीत किया जाता है । अपने में बार-बार निन्दा गह Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार अवशं क्रियते वश्यं येनदास इस व्रतम् । श्रामण्यं निश्चलं तस्य, सर्वदाप्यवतिष्ठते ।।१४६।। इति समाधिः। दृष्टि शुद्धि स्पिरी कारौ, भावना शास्त्र कौशलम् । क्षेत्रस्य मार्गणा साधो, गुणा नित्यविहारिणः ॥१५०॥ विशुद्ध दर्शनं साधो, जायते पश्यतोऽहंताम् । जन्मनिष्क्रमणज्ञान तीर्य चिह्न निषिद्धिकाः ॥१५॥ करके अर्थात् हाय ! बड़ा कष्ट है कि मैं अतत्व श्रद्धा, विषय वासना आदि करता हूं तो मुझे ही उसका महान कर्म बन्ध होगा। मनको आत्मस्थ करने के लिये इसप्रकार विचार करे कि यदि मैं मुमुक्षु होकर भी असंयम मिथ्यात्व आदि रूप विचार करूंगा, आचरण करूंगा तो बड़े शरम की बात है, ये अशुभ विचार अनन्त संसार को बढ़ाने वाले हैं, इत्यादि विचार से साधुजन अपने मन की स्वर प्रवृत्ति को रोके ॥१४॥ ___ अर्थ-जो साधु अवश ऐसे अपने मनको वश में कर लेता है जैसे कि अवश हुए स्वैर दास को किसो उपाय से वश किया जाता है । इस प्रकार अपने मनको वश करने वाले मुनिके श्रामण्य निश्चल हुआ सदा अवस्थित ठहर जाता है, जैसे वशमें किया हुआ दास हमेशा के लिये टिक जाता है, नौकरी सेवा छोड़कर अन्यत्र नहीं जाता ।।१४९॥ इसप्रकार समाधि अर्थात् मनः समाधि मनको वश करना, श्रामण्य में स्थिर करना, इसका कथन करने वाला यह अधिकार पूर्ण हुआ। ६. अनियत बिहारअर्थ-अनियत बिहार करने से अर्थात एक जगह अधिक नहीं रहना विहार करते रहने से साधु के सम्यक्त्व में शुद्धि होती है, रत्नत्रय में स्थिरता पाती है, भावना अर्थात् परोषह सहन आदिका अभ्यास होता है । शास्त्र ज्ञान वृद्धिंगत होकर गूढार्थ करने में निपुणता प्राप्त होती है, कौनसा क्षेत्र साधु के निर्दोष आचरण में उपयुक्त है, इत्यादि रूप देश की खोज होती है । इसप्रकार बिहार से ये गुण प्राप्त होते हैं ।। १५०।। ___ इसीका आगे खुलासा करते हैं___ अर्थ-विहार करने वाले साधुजनों के तीर्थंकर भगवान के जन्मकल्याण के देन, दीक्षा कल्याणके स्थान, केवलज्ञानोत्पत्ति स्थान, तीर्थ चिह्न अर्थात् समवशरण और Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्डिका संविग्नोवृत्तसंपन्नः, शुद्धलेश्यस्तपोधनः । देशान्तरातिथिः साधुः, संवेजयति तद्वतः ॥१५२॥ प्रियधर्माशयः साधु रागमार्थविचक्षणः । भ्रमन्नववित्रस्तः संविग्नं कुरुते परम् ॥१५३।। अघद्यभीर संविग्ने, प्रियधर्मतरेक्षणे । अवधभीरः संविग्नः, प्रियधर्मतरोऽस्ति सः ॥१५४।। निर्वाण कल्याण भूमिका दर्शन हो जाता है, उन पवित्र स्थलों के दर्शन से सम्यक्त्व में निर्मलता आती है ।।१५१।। अर्थ-देश देशान्तर का अतिथि होने वाला साधु वैराग्य सम्पन्न हो जाता है, बत चारित्र को शुद्धि युक्त होता है, लेश्या को शुद्धि होती है अर्थात् पोत आदि शुभ लेश्या में शुद्धि बढ़ जाती है । तप बढ़ता है ॥१५२।। विशेषार्थ-देश देशमें बिहार करने से अनेक तपस्वी, महात्मा, दृढ़ चारित्री, समताधारी साधुजनों के आचरण देखने को मिलते हैं इससे अपने में विचार होता है कि अहो ! यह साधु कितना तपस्वी है समता रस में मानों मज्जन कर रहा है, हम लोग इसप्रकार निरतित्रार आचरण नहीं करते हैं हमको अवश्य ही ऐसी लेश्याविशुद्धि प्राप्त करनी चाहिये । ये साधुमण भी तो इसी वर्तमान कालमें निर्दोष चारित्र संपन्न हैं। इसप्रकार विशिष्ट साधुजनों के दर्शन से अपने में तप वैराग्य आदिको वृद्धि होती है अतः विहार करते रहना चाहिये । अर्थ-अनियत विहार करने वाला साधु प्रियधर्मा अर्यात् उत्तम क्षमा आदि धर्म में प्रीति युक्त होता है, आगम के अर्थ में कुशल होता है, विहार से अभ्यस्त होने से निरालस होता है, तथा प्रतिकूल देशादि से होने वाले त्रास को सहन करते रहने से कहीं व्याकुलचित्त नहीं होता और इसतरह अपने को अतिशय रूपसे वैराग्य शील करता है ।।१५३।। अर्थ-देशान्तर में विहार करते समय पापों से अत्यन्त भयभोत, वैराग्यवान जिसको दस लक्षण धर्म अतिशय प्रिय है ऐसे महान् साधु के दर्शन होते हैं, उस साध.. को देख कर यह साधु स्वयं भी पापभीरू, वैराग्य संपन्न और धर्म में प्रीति करने वाला बन जाता है ।।१५४।। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार । ५१ शीतातप क्षुधातृष्णा, निषद्याद्याः परीषहाः । यतिनाटाटयमानेन, समस्ताः सन्ति भाविताः ॥१५५॥ श्रृण्वतोभूरिसूरीणां, व्याख्यां नानाशिनीम् । देशांतरातिथेः साधो, रस्ति सूत्रार्शकौशलम् ॥१५६।। विनिष्क्रम प्रवेशादि, समाचार विचक्षणः । सुरीणां बहुभेदानां, जायते पादसेवया ॥१५७।। कर्तव्या यत्नतः शिक्षा, प्राणः कण्ठगतैरपि । आगमार्थ समाचार, प्रभृतीनां तपस्विना ॥१५॥ प्रासुके सुलभाहारं, संयतै गर्गोचरीकृतम् । सल्लेखनोचितं क्षेत्रं, पश्यत्यनियतस्थितिः ।।१५।। अर्थ-देश देशमें विहार करते हुए साधु द्वारा शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, निषद्या आदि समस्त परीषह सहन किये जाते हैं ॥१५५।। अर्थ-देश देशान्तर का अतिथि होता हुआ साधु अनेक आचार्यों के द्वारा की गयी शास्त्रों की नाना अर्थों की व्याख्या सुनता है और उससे सूत्रार्थ करने में उसको बड़ी कुशलता प्राप्त होती है ।।१५६।। अर्थ-विहार करते हुए साधुओं को बहुत प्रकारके आचार्यों को चरण सेवा करनेका अवसर मिलता है, उन विभिन्न आचार्य संघोंमें बसतिका से निकलना एवं प्रवेश करना, आहारार्थ गमन, उठना, बैठना, प्रश्न करना सामायिक प्रतिक्रमण आदि क्रियायें इन सब समाचार विधियों को अबलोकन करने का अवसर प्राप्त होता है, और उससे साधजन को जो दस प्रकार को समाचार विधि है उसमें कुशलता प्राप्त होती है ॥१५७।। अर्थ-कण्ठगत प्राण होने पर भी साधुओं को आगमार्थ समाचार आदि सम्बन्धी शिक्षा प्रयत्न पूर्वक ग्रहण करनी चाहिये ।।१५८।। अर्थ-अनियत विहार करने वाले साधुको संयतजनों के द्वारा गोचरी के योग्य प्रासुक आहार सुलभ कहाँ पर है इस बातका ज्ञान हो जाता है अर्थात् इस क्षेत्रदेशके मनुष्य साधुको निर्दोष आहार देते हैं साधुको चर्या का इस देश में ज्ञान है Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] मरण कण्डिका श्रावके नगरे ग्रामे, वसतावपधौ गणे । सर्वत्राप्रतिबद्धोऽस्ति, योगी देशान्तरातिथिः ॥१६०॥ इति अनियत विहारः । पर्याय रक्षितो दीर्घ, वितीर्णा याचना मया । शिष्या निष्पादिताः श्रेयो, विधातुमधुनोचितम् ॥१६॥ इत्यादि बातोंको जानकारी विहार करते रहने से मिलती है, तथा कौनसा क्षेत्र सल्लेखना के लिये उचित होगा इसका भी बोक हो जाता है । १५६।। अर्थ-देश देश में पक्षीवत् अनियत विहारी साधु किसी श्रावक विशेष में प्रतिबद्ध-मोहित स्नेहयुक्त नहीं हो पाता क्योंकि आज यहां और कल वहां जिसे रहना है उसे किसी व्यक्ति से लगाव नहीं रहता। तथा किसी नगर ग्राम आदि में एवं वसतिका उपकरण संघ आदि में अनियत विहारी मुनिका स्नेह-मोह नहीं होता वह तो सर्वत्र अप्रतिबद्ध-लमाव रहित ही गमनागमन करता है ।।१६०।। भावार्थ-एक जगह अधिक रहने से वहां के श्रावक बसति आदि में मोह हो जाया करता है । अत: साधुओं को आज्ञा है कि वे सर्वत्र धर्म योग्य देश में विहार करते रहे । इसप्रकार अनियत विहार नामका छठा अधिकार पूर्ण हुआ । ७. परिणाम अधिकार अर्थ-साधु विचार करता है कि मैंने दीर्घकाल तक अपने रत्नत्रय पर्याय की सुरक्षा को है स्वाध्याय वाचना धर्मोपदेश आदिका योग्य पात्र में वितरण किया। शिष्यों का संग्रह, उनका शिक्षा आदि द्वारा निष्पन्न करना आदि कर लिया, अब इस समय मुझे अपना हित विशेष रूपसे करना है ।।१६१।। भावार्थ-दिगम्बर साधु अपनी आत्मसाधना करते हुए अन्य भव्य जीवोंको मोक्ष मार्ग में लगाते हैं, शिष्यों का निर्माण करना, उन्हें सम्पूर्ण शास्त्रों में निपुण करना, इत्यादि धर्मोको बढ़ाने वाले कार्य करते हैं, जब आयु का अन्तिम भाग आता है तब वे विचार करते हैं कि अब परहित से हटकर हमें स्वहित में ही प्रवृत्ति करना है, हमने अपने जीवन में यथाशक्य मोक्षमार्ग को वृद्धि को। अब तो सल्लेखना करना Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५३ भलपत्याखयायमरगा पई आदि अधिकार किमालवं परीहारं, भक्तत्याग मुगिनों । पादोपगमनं कि कि, जिनकल्पं श्रयाम्यहम् ॥१२॥ है । अपने हितके विशेष रूपसे भाव होना "परिणाम" कहलाता है अर्थात यहां पर आत्महित के भाव सल्लेखना के सन्मुख होने के भाव को परिणाम शब्द से निहित किया है । इसोका आगे वर्णन है। अर्थ-समाधिमरण को निकट भविष्य में जो करना चाहता है वह साधु विचार करता है कि मैं आलन्द विधि का आश्रय लू अथवा परिहार का या भक्त प्रतिज्ञा का, इंगिनी अथवा प्रायोपगमन विधि का आश्रय लू? अथवा क्या मैं जिनकल्प विधिको अपनाऊँ १ ॥१६२।। विशेषार्थ-आलन्द विधि, परिहार विधि, भक्त त्याग, इंगिनी, प्रायोपगमन, जिनकल्प इसप्रकार यहां पर छह प्रकार के सन्यास विधि का उल्लेख है। इनमें से भक्त त्याग, भक्त प्रत्याख्यान, इंगिनी और प्रायोपगमन ये तीन प्रसिद्ध हैं और साक्षात् सल्लेखना स्वरूप हैं । आलन्द विधि, परिहार विधि और जिनकल्प विधि ये तीनों अतिशय रूपसे उच्चकोटिका साधु आचार है जो कि मुनिगणको सन्यासके निकट ले जाता है अथवा अलिश्रेष्ठ सल्लेखना के अभ्यास का साधकतम हेतु है । __ आलन्द विधिका विस्तृत वर्णन भगवतो आराधना-मूलाराधना को संस्कृत टोका में तथा उसके हिन्दी अनुवाद में भली प्रकार से किया गया है । यहां पर अति संक्षेप से बताते हैं---जो मुनि मूल गुण और उत्तर गुणों के पालन में सावधान हैं, महान बलवीर्य सम्पन्न परीषह और उपसर्ग के विजेता हैं, आगम का स्वरूप भली भांति जानते हैं। ऐसे महान योगी आचार्य को आज्ञा से आलन्द विधि का आचरण करते हैं | घोर परीषह उपसर्ग को सर्वथा महते हैं, रात्रि में निदा नहीं लेते भयंकर रोग आने पर भी उसका प्रतीकार (औषधि) नहीं करते, कोई कुछ पूछे तो उत्तर नहीं देते, केवल इतना उत्तर कदाचित् देते हैं कि मैं मुनि हूं। कोई उनसे बोले तो उस स्थानको छोड़ देते हैं । वाचना आदि स्वाध्याय नहीं करके ध्यान में हो लगे रहते हैं। किचित् भी अशुभ परिणाम होने पर तत्काल उसे दूर करते हैं इत्यादि । परिहार विधि-इस विधि का भी वर्णन भगवती आराधना में विस्तार पूर्वक किया है । इसमें भी आलन्द विधि के समान आचरण है विशेषता यह है कि इस विधि के पालक मुनि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] मरणकण्डिका सत्येव स्मृति माहालये, दिनाएँ गति जीविते । भक्तत्यागे मति धत्त, बलवीर्यानिगृहकः ॥१६३।। संन्यास कारणे जाते, पूर्वोक्तान्यतमे सति । करोति निश्चितं बुद्धि, भक्तत्यागे तथैव सः ॥१६४।। राज प्रतिदिन दो गव्यति (दो कोस) तक गमन करते हैं। पांवमें कांटा लगे तो निकालते नहीं । दुष्ट पशु आदि को देखकर पीछे नहीं हटते वहीं खड़े ध्यानस्थ हो जाते हैं । इसीप्रकार अन्य भी विशेषता है उसे भगवती आराधना ग्रंथ से जानना। जिनकल्प विधि-इसकी विधि आलन्द के समान है, विशेषता यह है कि ये रागद्वेष पर अतिशयरूपसे विजय प्राप्त करनेवाले होते हैं । सर्वथा एकाको सिंहवत् विहार करते हैं किसी अन्य मुनिको साथ नहीं रखते हैं, उत्तम संहननधारी होते हैं। इन्हें ऋद्धियां भी रहती हैं। इसकी विशेष विधि भी उक्त ग्रन्थ से ज्ञात कर लेना चाहिये । भक्त प्रत्याख्यान-जिसमें क्रमशः आहार का त्याग करते हुए सल्लेखना मरण किया जाता है इस ग्रन्थ में इसीका वर्णन चल रहा है । इंगिनी-जिस सन्यासमरण में परको सहायता की अपेक्षा नहीं रहती वह इंगिनी मरण विधि है । प्रायोपगमन-जिसमें स्वकी और परकी दोनों प्रकारको सहायता नहीं है, काष्टवत् शरीर को जिसमें छोड़ दिया जाता है वह प्रायोपगमन मरण विधि है। इसप्रकार आलन्द आदि विधि के विषय में विचार कर सन्यास का इच्छुक मुनि अपने को भक्त त्याग विधिमें समर्थ जान उसमें उत्साहित होता है । अर्थ- स्मृति के रहते समाधि करना चाहिये कुछ समय का जीवन भी शेष रहना चाहिये इसप्रकार स्मृति और जीवन काल का माहात्म्य समझकर बलवीर्य को नहीं छिपाने वाले मुनिराज भक्त-प्रत्याख्यान मरण में प्रयत्नशील हो जाते हैं ।।१६।। भावार्थ-मरणकालमें स्मरण नहीं रहेगा तो आत्म चिंतन, तत्व विचार आदि नहीं हो सकते इसप्रकार स्मृतिका महत्व जानकर तथा मरणका बिलकुल अन्त आ गया तो उस वक्त सल्लेखना विधि का पूर्ण क्रम कैसे सम्भव हो सकता है ? अतः जीवन का कुछ काल शेष रहते हुए क्रमशः आहारादि का त्याग करना चाहिये ऐसा जीवन का महत्व समझकर साधु यथा समय ही समाधि में प्रयत्न करते हैं । अर्थ-भक्त प्रतिज्ञामरण के चालीस अधिकार में पहला अर्ह नामके अधिकार का कथन हो चुका है, उसमें कौन सल्लेखना धारण करें इस विषय में नेत्रज्योति का Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण मह का अधिकार [ . योगा यावन्न होयंते, यावन्नश्यति न स्मृतिः । श्रद्धा प्रवर्तते याव, यावदिद्रिय पाटवम् ।।१६५॥ क्षेमं यावत्सुभिक्षं च, संति नष्टास्त्रिगारयाः । यावन्निर्यापका योग्या, रत्तत्रित्रय सुस्थिताः ॥१६६।। तावन्मेदेहनिक्षेपः कुत्तुं युक्तो बुधेहितः । भक्त त्यागो मतः सूत्रे, व्रतयज्ञो ध्वजग्रहः ।।१६७१। क्षीण होना आदि कारण बताये हैं । उन कारणों में से कोई कारण उपस्थित होने पर जैन साधु आहार के त्याग में नियम से अपनी बुद्धि लगाते हैं, अर्थात् उसी विधि के अनुसार भक्त प्रतिज्ञा को करते हैं ।। १६४।। अर्थ-जब तक आतपन आदि योग धारना कम नहीं होता, स्मृति जब तक नष्ट नहीं होती, श्रद्धा-रत्नत्रय में रुचि जब तक बनो है, इन्द्रियों में शिथिलता नहीं है, देश में क्षेम और सुभिक्ष है, ऋद्धि गारव आदि तीन गारव नहीं सताते, जब तक रत्नत्रय में स्थिर ऐसे योग्य निर्यापक आचार्य हैं तब तक ही मुझे देह त्याग करना युक्त है इसप्रकार मुनि विचार कर भक्त प्रतिज्ञा के सन्मुख होते हैं। सूत्र में इस भक्त प्रतिज्ञाको व्रतयज्ञ कहा है यह बुद्धिमान को अति इष्ट है, इस भक्त प्रतिज्ञा को ध्वज ग्रह कहते हैं, यहां आराधना ही ध्वजा है और उसको इस मरण में ग्रहण किया जाता है अतः यह ध्वज ग्रह कहलाता है ।।१६५॥१६६॥१६७।। विशेषार्थ-आतपन आदि योग धारण की शक्ति नष्ट न हो, स्मृति नष्ट न हो, रत्नत्रय में रुचि हो, नेत्र आदि इंद्रियां अपने कार्य में समर्थ हो, ऐसी स्थिति के रहते हुए समाधि में प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि योग की शक्ति समाप्त हुई, स्मृति नष्ट हुई, इंद्रियां बेकाम हुई तो उस वक्त साधु समाधिमरणको वेदना सहना, तत्त्वचिंतन करना इत्यादिमें समर्थ नहीं रहेगा । गारव गर्वको कहते हैं, ऋद्धि गारव, रस गारव, सात गारव ऐसे गारव के तीन भेद हैं, मैं ही ऋद्धि सम्पन्न हूं इत्यादि गर्व के रहने से समाधि ठीक नहीं हो सकती क्योंकि गर्व तो कषाय है और कषायको यहां कृश करना है । देशमें क्षेम और सुभिक्ष न होवे तो समाधि करने वाले क्षपक के और उनके सहायक निर्यापक और श्रावक आदि के चित्त क्षोभ आदि के कारण समाधि में बाधा उपस्थित हो सकती है । निर्यापक के बिना तो समाधिस्थ क्षपकरूपी नाव पार ही नहीं हो सकती है । अतः समाधि का इच्छुक मुनि इन सबका विचार करता है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरएकण्डिका एवं स्मृति परिणामो, निश्चितो यस्य विद्यते । तोयायामपि बाधायां, जोबिताशास्य नश्यति ॥१६॥ इति परिणामः । उपधिं मुचतेऽशेषं, मुक्त्वाऽसंयमसाधकम् । मुमुक्षु मृगयन्मुक्ति, शुद्धलेश्यो महामनाः ॥१६६।। साधुर्गवेषयन्मुक्ति, शुद्धलेश्यः महामनाः । विमुचत्यपषि सर्व, मल्पानल्पपरिक्रियम् ॥१७॥ अर्थ- सल्लेखना का महत्व उसको दुर्लभता आदि का जिसने भली प्रकार विचार कर मैं अवश्य ही शरीर का त्याग करूगा ऐसा दृढ़ परिणाम कर लिया है ऐसे निश्चित परिणाम बाले साधु के समाधि काल में तीन बाधा सताने पर भी जीवन की आशा नहीं रहतो। अतः स्मृति परिणाम में जीविताशाका नाश करने वाला यह 'परिणाम' नामके गुणका वर्णन किया है ॥१६८॥ सातवां परिणाम अधिकार समाप्त हुआ। उपधित्यागनामा आठवां अधिकारअर्थ-शुद्ध लेश्या वाला महामना साधु मुक्ति को मार्गणा करता हुआ संयम के साधक पिच्छी आदि को छोड़कर शेष उपधि-परिग्रह का त्याग करता है ।।१६९।। अर्थ-मुक्ति का अन्वेषण करनेवाला शुद्ध लेण्यायुक्त महामना साधु अल्प परिकर्म वाली उपधि और अधिक परिकर्म वाली उपधि ऐसे सर्व ही उपधि-परिग्रह का त्याग करता है ।।१७०॥ विशेषार्थ-उपधि परिग्रह को कहते हैं । जब साधु समाधि के सन्मुख होते हैं तब शास्त्र आदि योग्य वस्तु का भी त्याग कर देते हैं। अल्प परिकर्म का अर्थ यह है कि जिस वस्तु में शोधन, निरीक्षण आदि क्रिया थोड़ी करनी पड़ती है वह अल्प परिकर्म उपधि कहलाती है और जिसमें उक्त क्रिया अधिक करनी पड़ती है वह अनल्प या अधिक परिकर्म उपधि कहलाती है । समाधि के अवसर पर दोनों उपधि का त्याग करता होता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार [ ५७ प्रौत्सर्गिक पदान्वेषी, शय्यासंस्तरकादिकम् । पंचधा शुद्धिमप्राप्य, ये विवेकं च पंचधा ॥१७॥ विपद्यते समाधि ते, लभते न विमोहिनः । द्धि ये पंचधा प्राप्ता, ये विवेकं च पंचधा ॥१७२।। शुद्धिरालोचना शय्या संस्तरोपधि गामिनी । वयावृत्यकराहार पानजाता च पंचधा ॥१७३।। ज्ञान दर्शन चारित्रविनयावश्यकाश्रया । अथवा पंचधा शुद्विविधया शुद्धबुद्धिना ॥१७४।। अर्थ---जो औत्सगिक पदका अन्वेषक है किन्तु शय्या संस्तर आदि के विषय में पांच प्रकार की शुद्धि और पांच प्रकार के विवेक को प्राप्त नहीं करते वे मोहित मुनि समाधि को प्राप्त नहीं कर सकते ।। १७१।। अर्थ- जो सा पांच प्रकार की शुशि और पर प्रकार के विवेक प्राप्त कर लेते हैं वे सर्वत्र निश्चित चित्त वाले समाधि को प्राप्त करते हैं ।।१७२।। अर्थ-शुद्धि के पांच भेद बताते हैं-आलोचना शुद्धि, शय्या संस्तर शुद्धि, उपधि शुद्धि, वैयावृत्य शुद्धि और आहारपान शुद्धि ।।१७३॥ __विशेषार्थ-अपने व्रतादि में जो दोष लगे हों उन्हें गुरुको बताना आलोचना कहलाती है, आलोचना करते समय छल, असत्य भाषण आदि नहीं होना आलोचना शुद्धि है । शय्या संस्तर बसति आदि में उद्गम उत्पादन आदि दोष नहीं होना अर्थात जो वसति और संस्तर उद्दिष्ट दोष निर्मुक्त हो-अपने लिये उद्देश करके नहीं बनाया हो अपने लिये जिसके संस्कार आदि नहीं किये गये हों वह शय्या और संस्तर शुद्धि है। पीछी कमंडलु भी अपने लिये निर्मित नहीं होना उपधि या उपकरण शुद्धि है । इसमें भो उक्त उद्दिष्ट आदि दोष न हो । आहार पानी उद्दिष्ट उत्पादन एषणा आदि दोषों से रहित होना आहारपान शुद्धि है । वैय्यावृत्य करने वाले वैयावृत्यपद्धतिको जानते हों यह वयावृत्यकरण शुद्धि है । अर्थ-शद्ध बुद्धिवाले साधुको दर्शन शुद्धि, ज्ञान शुद्धि, चारित्र शुद्धि, विनय शुद्धि और आवश्यक शुद्धि ऐसी पांच प्रकार की शुद्धि करनी चाहिये ।। १७४।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५.] मरगकण्डिका विवेको भक्तपानांगकषायाक्षोपधिश्रितः । पंचधा साधुना कार्यो द्रव्यभाव गतो द्विधा ॥१७॥ सोऽथवा पंचधा शय्यासंस्तरोपधि गोचरः । यावस्था कराहारपारामिण संधयः ॥१७६।। - - - - --. -- ----- - - - ---.. - विशेषार्थ-नि:शंकित आदि आठ गुण युक्त होना अथवा शंकादि दोषका परिहार दर्शन शुद्धि है । योग्य कालमें अध्ययन, अनिह्नव आदि ज्ञान शुद्धि है । अहिंसा आदि व्रतों को उनकी पच्चीस भावना संयुक्त पालना चारित्र की शुद्धि है । कीर्ति, आदि की इच्छाबिना गुरुजन आदिका विनय करना विनय शुद्धि है । छह आवश्यक क्रियाओंका निर्दोष पालन आवश्यक शुद्धि है। अर्थ-विवेक पांच प्रकारका है-भक्त पान बिवेक, शरीरविवेक, कषाय विवेक, इन्द्रिय विवेक, उपधिविवेक । पुनः यह विवेक द्रव्य विवेक और भाव विवेक ऐसा दो प्रकार है । विबेक साधु द्वारा करने योग्य है ।।१७५।। भावार्थ-भोजन पान को शास्त्रोक्त विधि से ग्रहण करना अयोग्य भोजन पान को प्राण जाने पर भी ग्रहण नहीं करना भक्त पान विवेक है । यह तो द्रव्यरूप भक्त पान विवेक हुआ । अयोग्य भोजन पानका मनमें विचार नहीं करना, भावरूप भक्त पान विवेक है । शरीर को खोटो चेष्टा जैसे आंखें मटकाना, चुटकी बजाना, ओठ डसना मादि नहीं करना द्रव्यरूप शरीर विवेक है । और ऐसी चेष्टा करनेके भाव नहीं होना भावरूप शरीर विवेक है । क्रोधमान आदि के सूचक वचन नहीं बोलना शरीरमें क्रोधावेश आदि रूप प्रवृत्ति नहीं होने देना द्रव्यरूप कषाय विवेक कहलाता है । चित्त में क्रोध आदि कषाय भाव नहीं होने देना भावरूप कषाय विवेक कहलाता है। साधु के लिये अयोग्य ऐसे इन्द्रिय विषयों में इंद्रियों को प्रवृत्ति को रोकना द्रव्य रूप इन्द्रिय विवेक है और उक्त विषयोंमें मनके भाव ही नहीं होना भावरूप इन्द्रिय विवेक है । श्रामण्य के अयोग्य वस्तुको ग्रहण नहीं करना द्रव्यरूप उपधि विवेक कहलाता है। और ऐसो अयोग्य बस्तुके ग्रहणका चित्त में विचार नहीं होने देना भावरूप उपधि विवेक है। अर्थ-अथवा शय्यासंस्तर विवेक, उपधि विबेक, वैयावृत्यकर विवेक, आहार पान विवेक और शरीर विवेक ऐसा पांच प्रकार विवेक है ॥१७६।। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण हे यादि अधिकार समस्त द्रव्य पर्याय ममता संग यजितः । निःप्रेमस्नेह रागोऽस्ति सर्वत्र समदर्शन इति उपधि त्यागः । [ ५९ २७७॥ गाय उपर्युपरि शुद्ध ेषु गुणेष्वारुह्यते यया । भावाश्रितिर भाष्येषा विशुद्धा जोववासना ॥ १७८॥ मन्दसौर भावार्थ — दूसरे प्रकार से विवेक का कथन है- पूर्वकालमें जिस वसति और संस्तर में रहे थे उनका त्याग शय्यासंस्तर विवेक है। यहां पर उपधि शब्द से पीछी आदि उपकरणों को लेना उपकरणों के संस्कार आदि छोड़ देना उपकरण विवेक है । व्यावृत्य करने वाले का सहवास छोड़ना, अथवा उनकी अपेक्षा नहीं रखना वैयावृत्यकर विवेक है । आहार पान के पदार्थ छोड़ देना भक्त पान विवेक है । अथवा अमुक अमुक आहार पानकी वस्तुको मैं ग्रहम वहीं कल्पा ऐसा या, यह भक्त पान विवेक है | अपने शरीर को कुछ उपद्रव होने लग जाय तो उसे दूर नहीं करना, आते हुए उपसर्ग को दूर नहीं करना शरीर विवेक है । अर्थ - जीवादि समस्त द्रव्य उनकी पर्यायें इनमें ममत्व और आसक्ति छोड़ देना इष्ट पदार्थ अपने लिये उपयोगी पदार्थ में प्र ेम स्नेह राग भाव नहीं रखना सर्व देश काल भावादिमें समभाव होना यह सब परिग्रह त्याग का क्रम जानना चाहिये ।।१७७ ॥ भावार्थ — जीव पुद्गलादि द्रव्यों को पर्यायें अर्थात् योग्य शिष्यादि विशिष्ट संस्तर उपकरण आदि जीव और पुद्गल सम्बन्धी पर्याये हैं उनमें राग भाव और अयोग्य शिष्यादि तथा खराब संस्तर आदि जीव पुद्गल सम्बन्धी पर्यायों में द्वेष भाव नहीं करना चाहिये यही परिग्रह त्याग का क्रम यहां पर जानना । सम्पूर्ण पदार्थों में समभाव होना परिग्रह त्याग का मूल है । इसीसे सहज ही परिग्रह त्याग हो जाता है । इसप्रकार उपथित्याग नामका अधिकार पूर्ण हुआ । अर्थ -- अब श्रिति नामा नौवें अधिकार का कथन करते हैं-- सम्यक्त्व आदि गुणोंमें आगे-आगे प्रतिदिन शुद्धि का बढ़ते जाना। जिसके द्वारा उन्नत अवस्था-रत्नत्रय की उन्नति करते रहना । उन भावों को भाव श्रिति कहते हैं । जीव के जो रत्नत्रय में विशुद्ध संस्कार हैं वह भावश्रिति है ।। १७८ || Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० । मरणकाण्डिका मन्दिरादिषु तुगेषु सुखेनारुह्यसेयया । द्रव्यथितिर्मता प्राज्ञैः सा सोपानादिलक्षणा ॥१७६।। द्रव्यधिति परित्यज्य भावधिति मधिश्रितः । चारित्रे चेष्टतां शुद्ध त्यक्तुकामः कलेवरम् ॥१८०i द्रध्यभावश्रिति ज्ञानाः सन्त्युत्तर पदोद्यताः। नह्मधोऽध: प्रशंसंति पदमूर्य यियासवः ॥१५॥ गणिनैव समं जल्पः कार्याथ यतिभिः परः । कुदृष्टिभिः समं मौनं शांतः स्वैश्च विकल्पते ॥१८२॥ मर्थ–मन्दिर आनि स्थानों में जिसके द्वारा मुख पूर्वक चढ़ा जाता है वह सोपान रूप द्रव्य निति है ऐसा प्राज्ञ पुरुषोंने प्रतिपादन किया है ।।१७६।। अर्थ-शरीरका त्याग करनेमें समुत्सक मुनिराज को उपर्युक्त द्रव्यश्रितिका त्याग कर भावथितिका आश्रय लेना चाहिये और शुद्ध चारिश्रमें चेष्टा करनी चाहिये ||१८०॥ ___अर्थ-द्रव्य और भावरितिका जिन्हें ज्ञान है वे पुरुष ऊपर-ऊपर के पद-रत्नयकी आगे-आगे की उन्नति के लिये उद्यमशील होते हैं। क्योंकि ऊर्ध्व पदमें गमनके इच्छुक पुरुष नीचे-नीचे के पदको प्रशंसा नहीं करते हैं । अभिप्राय यह है कि भावोंकी विशुद्धि में आगे-आगे वृद्धि करना, अशुभ भाव का त्याग, शुभ परिणाम उत्तरोत्तर बढ़ना, शुद्ध परिणाम की प्राप्तिमें प्रयत्न भावश्रिति कहलाता है ।।१८१|| अर्थ-समाधि के इच्छुक साधुको आचार्य के साथ ही धर्म सम्बन्धी प्रश्नादि रूप वार्तालाप करना चाहिये अन्य मुनिके साथ कार्य हो तो बोले अन्यथा नहीं। मिथ्यादृष्टि के साथ मौन रहना चाहिये, और अन्य शान्त परिणामी स्वजनोंके साथ स्वेच्छासे बोलना चाहिये अर्थात् उनके साथ वार्तालाप करे अथवा न करे ।।१८२।। भावार्थ-प्राचार्य के साथ बोलनेसे शुभ परिणाम होते हैं, उनसे योग्यायोग्यका विवेक होता है सल्लेखना के निर्देशक तो वे हो हैं अतः उनसे संभाषण हितकर है। अन्य मुनिके साथ अधिक बोलेंगे तो प्रमाद वश अशभ भाव हो सकते हैं, मिथ्यावृष्टि के साथ तो मौन हो कार्यकारी है । हाँ यदि कोई मिध्यादृष्टि अत्यन्त भद्र है और अपने बोलनेसे मोक्षमार्ग में लग जाता है तो उससे किंचित् बोले। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार कार्याय स्वीकृतां शय्यां विमुच्याचार पंडितः। परिकर्मवती वृत्ते वर्तते देहनिस्पृहः ॥१८३।। दुश्चरं पश्चिमे काले भक्तत्याग मिषेविषः । धीरैः निषेवितं बाद चतुरंगे प्रवर्तते ॥१४॥ इति दितिसुत्रम् । समर्यानुदिशं सर्व गणं संक्लेश वजितः । कियंत काल मात्मानं गणी भावयते तराम् ॥१८॥ ___ अर्थ-आचारमें प्रदोण देह से निस्पृह समाधिके इच्छुक साधु पूर्व काल में वैयावत्ति, पठन पाठन आदि के लिये जो वसति आदि स्वीकार की थी, उपकरण शास्त्र आदि ग्रहण किये थे उन सबका त्याग करके चारित्र तपश्चरण आदि में संलग्न होता है । तथा अपने निमित्त से शोधित निर्मित ऐसो वसतकिा आदिको भी छोड़ देता है । यहां पर "शय्या" शब्द से वसतिका उपकरण संस्तर आदि को ग्रहण किया है तथा "परिकर्मवती" शब्द से स्वके उद्देश्य से वसति संस्तर आदि को ग्रहण किया है ।।१८३॥ अर्थ-अन्त समयमें आहार त्याग को करने का इच्छुक यति सम्यक्त्व आदि चार आराधनानों में प्रवृत्ति करता है । कैसा है आहार का त्याग करना ? दुष्कर-कठिन है, तथा वीर पुरुषोंद्वारा जिसको किया जाता है, अर्थात् धीर वीर पुरुष ही जिसका त्याग कर सकते हैं कायर नहीं कर सकते ।।१८४।। इस तरह श्रिति अधिकार समाप्त हुआ। (९) भावना नामका दसवां अधिकार अर्थ-समाधि के इच्छुक आचार्य अपने चतुर्विध संघको नूतन आचार्य के लिये समर्पित करता है, इस क्रियामें उनमें कोई संक्लेश नहीं होता, इसप्रकार संघ भार से मुक्त हुए ये आचार्य कुछ समय तक अतिशय रूप से अपने आत्मा की भावना करते हैं ।।१८५।। विशेषार्थ-जब कोई आचार्य समाधिमरण को करना चाहते हैं तो वे सर्व प्रथम मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका ऐसे चार प्रकारके अपने संघको एकत्र बुलाते Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] मरणकण्डिका कांदपों केल्विषी प्राज्ञे, राभियोग्यासुरी सदा । सम्मोही पंचमी या संक्लिष्टा भावना ध्रुवम् ॥ १८६॥ हास्य कांदपं कौत्कुच्य पर विस्मय फोविदः । कांदप भावनां दोनो भजते लोलमानसाः ।।१८७।। सर्वज्ञशासनज्ञानधर्माचार्य तपस्विनाम् । frer परायणो मायी फैल्विषों श्रयतेऽधमः ॥। १८८ ।। हैं आचार्य पदके योग्य शिष्यको अपना आचार्य पद अर्पित करते हैं तथा सम्पूर्ण मुनि आदि संघको शिक्षा उपदेश आदेश देते हैं कि आज से ग्राप सबके ये आचार्य बने हैं ये निर्दोष रत्नत्रयका पालन करते हैं । स्वयं का तथा तुम सब साधुओं का संसार से उद्धार करने में समर्थ हैं इत्यादि रूपसे संघको उपदेश देकर स्वयं निद्वंद्व होकर आत्मध्यान आत्मभावना में लीन हो जाते हैं । अर्थ- --प्राज्ञ यतियों को हमेशा निश्चयसे कांदर्पी, कंल्विषी, अभियोग्या, आसुरी और पांचवी सांमोही इन संक्लिष्ट भावनाओं का त्याग करना चाहिये || १८६ | | कांदप भावनाका निर्देश करते हैं अर्थ - निम्न श्रेणोकी हँसी को यहां हास्य कहा है, रागको उत्कटतासे हास्य मिश्रित अशिष्ट शब्द बोलना कन्दर्प कहलाता है, शरीर की कुचेष्टा के साथ मजाक करना कीत्कुच्य है, मन्त्रादि द्वारा लोगोंको विस्मय कराने में जो चतुरता है उसे पर विस्मय कोविद कहते हैं, इसतरह कन्दर्प आदि अशिष्ट कार्योंको जो चंचल चित्तवाले दोन मुनि करते हैं उन्हें कान्दर्पी भावनावाले समझना चाहिये ।।१८७।। किल्विष भावना - अर्थ- सर्वज्ञ भगवान् के शासनकी, आगमज्ञानकी, धर्मकी, आचार्यकी, तपस्वीकी निन्दा करने में परायण मायावी अधम मुनि किल्विष अथवा कॅल्विषी भावना को करते हैं । अथवा जो यति मायाचार के जिन शासन को मानता है अर्थात् ऊपर से दिखावा करता है अन्तरंग में जिन शासनमें श्रुत ज्ञानमें भक्ति नहीं है । चारित्र धर्म में बाहर से आचरण है किन्तु मनमें जरा भी आदर नहीं इसतरह आचार्य आदिके साथ मायाचार पूर्ण व्यवहार करता है केवल दिखावा करता है वह किल्विष भावना वाला समझना चाहिये ।। १८८ ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६३ भक्तप्रत्याख्यानमरण अह आदि अधिकार मंत्र कौतुक तात्पर्य भूति कौषधादिकम् । कुर्धारणो गौरवार्थामाभियोगो मुपैति ताम् ॥१८६॥ निष्कृपो निरनुक्रोशः प्रवृत्त क्रोध विग्रहः । निमित्त सेवको धत्ते भावनामासुरी यतिः ॥१६॥ उन्मार्ग वेशको मार्गदूषको मार्गनाशकः । मोहेन मोहाल्लोकं साम्मोही तां प्रपद्यते ॥११॥ - - आभियोग्य भावनाअर्थ मन्त्र, कौतुक, तात्पर्य, भूति कर्म, औषधि आदिको अपने गौरव या ऋद्धि गारव आदिके लिये करता है वह यति आभियोग्य भावना युक्त होता है ॥१८९।। विशेषार्थ-कुमारी आदिमें भूत का आवेश उत्पन्न करना इत्यादि मन्य है अर्थात् मन्त्र को सामर्थ्य से उक्त कार्य करना । अकाल में जलवृष्टि करके दिखाना इत्यादि कौतुक कहलाता है । बालकों के क्रीड़ा-रमाना आदि के लिये जो कार्य किया जाता है उसे भूतिकर्म कहते हैं । औषधि तो प्रसिद्ध ही है । इन सब कार्यों को मुनिलोग यदि अपनी ख्याति पूजा इष्ट' आहार प्राप्ति इत्यादि हेतु से करते हैं तो वे आभियोग्य नामकी नीच भावना वाले हो जाते हैं और यदि मन्त्रादि को धर्म प्रभावना के लिये, स्व परकी आयुके परिज्ञान के लिये प्रजन में जैन धर्म का सामर्थ्य दिखाने हेतु करते हैं तो दोष नहीं है । प्रासुरी भावनाअर्थ--जो मूनि दयारहित है, आक्रोश कलह आदिमें प्रवृत्त है, क्रोध युक्त है, निमित्त सेवक अर्थात् ज्योतिष सामुद्रिक आदि बताकर आहार की प्राप्ति करता है वह आसुरी भावना वाला जानना चाहिये ।।१९०1। संमोही भावनाअर्थ-खोछे मार्ग का उपदेश देने वाला, रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग में दोष लगाता है, मोक्ष मार्ग का नाश करता है, मोह अर्थात् अज्ञान से जीवोंको मोहित करता है वह मुनि संमोही भावना वाला है ।।१९१॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] मरणकण्डिका रत्नत्रयं विराध्याभिर्भावनाभिविवं गतः । भोषणे भवकान्तारे चिरं बंभ्रम्यते च्यतः ।।१६२॥ पंचेति भावनास्त्यक्त्वा संक्लिष्टः समितो यतिः। षष्टया प्रवर्तते गुप्तः संविग्नः संगजितः ॥१३॥ असंक्लिष्टतपः शास्त्र सत्वैकत्व धुतिश्रिता । पंचधा भावना भाव्या भवभ्रमण भीरुणा ॥१४॥ दांतान्यक्षाणि गच्छन्ति तपो भावनया वशं । विधानेनेन्द्रियाचार्यः समाधाने प्रवर्तते ॥१६॥ .-- - - - अर्थ---जो यति इन कांदी आदि खोटी भावना द्वारा रत्नत्रयकी विराधना करते हैं वे देवदुर्गति [भवनवासो, ज्योतिषी व्यन्तर] में उत्पन्न होते हैं और वहांसे च्युत होकर भीषण संसार अटवीमें बार-बार भ्रमण करते हैं ।।१६।। अर्थ-इसप्रकार इन भावनाओंका खोटा फल जानकर इन पांचोंका त्याग करता है और संक्लेश रहित, समिति का पालक, परिग्रहरहित, त्रिगुप्ति संयुक्त होता हुआ छठी भावनामें प्रवृत्त होता है ।।१९३।। अब उसी छठी ग्राह्य भावना को बताते हैंअर्थ-जो संक्लेश रहित है ऐसी ग्राह्य भावना पांच प्रकार की है, तपोभावना ज्ञान भावना, सत्त्व भावना, एकल भावना, धृतिभावना। संसार से भयभीत साधु को इन भावनाओं को भाना चाहिए ।।१६४॥ भावार्थ-बार-बार चितन या अभ्यास को भावना कहते हैं । तपश्चरण का अभ्यास तपोभावना है । ज्ञानश्र त का अभ्यास करना ज्ञान भावना है। निर्भयता का अभ्यास सत्वभावना है । मैं अकेला ही हूँ ऐसा एकत्व का अभ्यास एकत्व भावना है । कष्ट आदि में धैर्य रखने का अभ्यास धृतिबल भावना है। अर्थ-तपो भावना से दमित हुई इंद्रियाँ वश हो जाती हैं, इस तपभावना रूप विधान के द्वारा साधु इन्द्रियाचार्य अर्थात् इन्द्रियों का शिक्षा देने वाला होता है और वह समाधान-अर्थात् रत्नत्रय में प्रवृत्त हो जाता है ।।१६५॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण ग्रह आदि अधिकार [ ६५ इंद्रियार्थ सुखासक्तः परीषह पराजितः । जीवोऽकृतक्रियाः क्लीबो मुह्यत्याराधनाविधौ ॥१६॥ लालितः सर्वदा सौख्यरकारित परिक्रियः । कार्यकारी यथा ना श्वो बाह्यमानो रणांगणे ॥१९७॥ प्रकारित तपो योग्यश्चिरं विषय मूच्छितः।। न जीवो मृत्युकालेऽस्ति परोषहसहस्तथा ।।१९।। विधापितः क्रियां पाग्यां सर्वदा दुःख वासितः । बाह्यमानो यथा बाजी कार्यकारी रक्षितौ ॥१६६।। अर्थ-जो साधु उक्त तपो भावना रहित है अर्थात् अनशन आदि तपश्चर्या नहीं करता है वह इन्द्रिय सुखमें आसक्त होता है, परीषह उसे पराजित कर देती है अर्थात् वह परीषहोंपर विजय नहीं पाता, करने योग्य क्रिया को नहीं कर पाता और इसप्रकार शक्ति हीन नपुसक जैसा हुआ आराधना विधि-सन्यासमरण या सम्यक्त्वादि चार आराधना करने में असमर्थ होता है ।। १९६।। अर्थ-जिस प्रकार सदा जिसको सुखोंमें लालित किया है सवारी आदि परिक्रिया जिससे नहीं करायी है ऐसा अश्व युद्ध स्थल में कार्य में लगाने पर भी अपने कार्य करने में समर्थ नहीं होता ।।१९७।। अर्थ-उसी प्रकार जो विषयों में मच्छित है, योग्य तपको चिरकाल तक जिसने नहीं किया वह यति मरणकालमें परोषह वेदना आदि सहने में समर्थ नहीं हो सकता ॥१६॥ विशेषार्थ-शब्दों का अभिप्राय समझकर चलना, दौड़ना, कूदना इत्यादि कार्योंका जिसे अभ्यास नहीं कराया है केवल सुखसे पुष्ट किया है ऐसा घोड़ा युद्ध भूमि में युक्त कार्य नहीं कर पाता स्वामीको सहायता नहीं देकर उलटे वहांसे भाग जाता है। ठीक इसी तरह जिसने पूर्वकालमें तप नहीं किया है, क्षुधा आदि सहन नहीं किये हैं तो वह साधु मरणकालमें परोषह आदिके सहन करने में समर्थ नहीं होता। अर्थ-जिस अश्व द्वारा पहले कदना इशारे पर चलना शोत आदि सहना इत्यादि कार्यों को कराया गया है सदा दुःखों से वासित किया है ऐसे अश्वको रण भूमि में ले जाने पर वह स्वामो के इशारे पर चल कर युद्ध में कार्यकारी होता है ।।१९६il Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका विधापितस्तपो योग्यं हृषीकार्थ परांमुखः । जायते मृत्यु कालेंगी परोषह सहस्तथा ।।२००। चतुरंग परीणाम श्रुत भावनया परः । निव्यक्षिपः प्रतिज्ञातं स्वं निर्याहयते ततः ॥२०१॥ स्वन्यस्तजिनवाक्यस्यरचितो चित कर्मणः । पारी जहापदः शकः दगातु नमिलोणनम ।।२०२।। भीष्यमाणोऽप्यहोरात्रं भीमरूपः सुरासुरैः । सत्व भावनया साधु धुरि धारयतेऽखिलम् ।।२०३।। अर्थ-उसी प्रकार इन्द्रियों के विषयोंसे जो विरक्त है अनशन आदि योग्य तपको जिसने पूर्वकाल में भलो प्रकार कर लिया है वह साधु मरणकालमें परीषह सहने में समर्थ होता है ।।२००॥ तपोभावना समाप्त हुई। ज्ञान भावनाअर्थ-धृत भावना अर्थात् भली प्रकार से शास्त्रोंका अध्ययन जिसने कर लिया है वह अपनी श्रत भावना द्वारा चतुरंग परिणाम-सम्यक्त्व आदि चार आराधना में उपयुक्त होता है । निर्याक्षेप अर्थात् विक्षेपविकल्प या आकुलता रहित होकर अपने प्रतिज्ञात नियम को अच्छी तरह निभाता है ।।२०१॥ अर्थ-जिसने जिनेन्द्र प्रभुके वाक्य अर्थात आगमार्थ में अपने को लगाया है पठन मनन आदि उचित क्रियामें जो तत्पर है ऐसे साधु के मरणकाल में वेदना के समय भी परीषह उपसर्ग आदि स्मरण का नाश नहीं कर पाते । अर्थात् भलो प्रकार शास्त्र ज्ञान में लगे रहने से वह ज्ञान सदा जाग्रत रहता है मरण को वेदना से भी वह विस्मृत नहीं होता । अथवा शास्त्राभ्यासी साधुके स्मृतिका नाश नहीं होता। इसप्रकार ज्ञान या श्रत भावना का फल जानकर सदा ज्ञान में भावना करनी चाहिये ।।२०२।। श्रु तभावना पूर्ण हुई। सत्व भावनाअर्थ-भयंकर रूपवाले देव और असुरों द्वारा दिन रात डराने पर भी साधु सत्व भावना से अखिल संयम धुरा को धारण कर लेते हैं ।।२०३।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अर्ह आदि अधिकार [ ६७ विमुह्यत्युपसर्गे नो सत्व भावमया यतिः । यसभावनया युद्ध भीषणेऽपि भटो यथा ॥२०४॥ कामे भोगे गणे वेहे विवृद्ध कत्वभावनः । करोति निःस्पहीभूय साधुधर्ममनुत्तरम् ॥२०५॥ स्वसु विधर्मतां दृष्ट्वा जिनकल्पीय संयतः ।। एकत्वभावनाभ्यासो न मुह्यति कदाचन ।।२०६॥ इति एकात्वं । अर्थ--सत्त्व भावना के बलसे साधु उपसर्ग के समय मोहित नहीं होता अर्थात् उपसर्ग पर विजय पाता है। जैसे कि जिसने युद्ध का अभ्यास कर लिया है ऐसा सुभट उस युद्ध भावना के बलसे भीषण युद्ध में भी डरता नहीं विजय पाता है ।।२०४।। सत्त्व भावना समाप्त हुई। एकरव भावनाअर्थ-काममें, भोगमें संघमें और शरीर में जिसने एकत्वकी भावना को बढ़ाया है अर्थात ये काम भोग आदि मुझसे भिन्न हैं मैं सर्वथा अकेला हूं इत्यादि रूप एकत्व भावना युक्त जो साधु है वह निस्पृह होकर उत्कृष्ट धर्मको करता है ।।२०५।। अर्थ-जिनकल्पी नागदत्त नामके मुनिराज अपने बहिन के साथ अनेक अत्याचार को होते हुए देखकर भी एकत्व भावना का अभ्यास होने से मोहित नहीं हए उन मुनिराज के समान ही एकत्व भावना वाले साधु किसी भी पदार्थ में मोह को प्राप्त नहीं होते हैं ॥२०६॥ नागवत्स मुनि कथा-नागदत्त नामके एक राज पुत्र थे, वैराग्य युक्त होकर उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा लो और घोर तपश्चरण करते हुए जिनकल्पी मुनिराज बने एक समय के वनमें ध्यान के लिये प्रविष्ट हुए उस स्थान पर डाकुओं का अहा था, डाकुओं ने समझा कि यह व्यक्ति हमारा भेद पथिकों को बतायेगा ऐसा मानकर वे डाकु उन्हें श्रास देने के लिये उद्यत हुए किन्तु मुनिराज के स्वरूप को जानने वाले डाकू. ओंके सरदार ने त्रास देने से रोक दिया और कहा कि ये सब संसार माया से दूर हैं इन्हें किसी से ममत्व नहीं इत्यादि । मुनिराज कुछ काल तक वहीं ठहर गये । एक दिन Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] मरकण्डिका उपसर्ग महायोधां परीषहचमूं परं । कुर्वाणामपसत्वानां बुनिवाररयां भयम् ॥ २०७ ।। उन नागदत्त मुनिराज को माता जो कि नगर के राजा को प्रमुख रानी थी और अपनी कन्याको तथा योग्य वैभव एवं परिकर को लेकर दूसरे देश में जा रही थी, उसी वनमें पहुंची वह मुनिराज के दर्शन कर प्रश्न करती है कि हे साधो ! आप यहां वनमें निवास करते हो मुझे बताईये कि इस वनमें कुछ भय तो नहीं है ? मेरे साथ युवती कन्या अर्थात् आपकी बहिन है और वैभव है । एकत्व भावना से वासित है मन जिनका ऐसे वे श्रेष्ठ यति गोस्थ रहे उतर नहीं दिया जबकि वे जानते थे कि यहां चोरों का भय है । रानी वनमें आगे गमन कर जाती है और बीच में डाकुओं द्वारा पकड़ी जाती है | डाकु समस्त माल तथा रानी और सुन्दर नव यौवना राजकन्या को अपने सरदार के निकट ले जाते हैं । सरदार खुश होकर कहता है देखो | मैंने पहले कहा था ना कि मुनिराज किसी को कुछ नहीं बताते हैं । इस वाक्य को सुनकर रानी अत्यन्त कुपित होकर कहती है है सरदार ! मुझे छूरी दो जिस उदर में मैंने उस पापी मुनि को नव मास रखा उसको चीर डालती हूं उसने मेरे उदर को अपवित्र किया है इत्यादि । इस वाक्य को सुनकर सरदार को मालूम होता है कि यह मुनिराज की माता है और यह सुन्दर कन्या बहिन है । मुनिराज के इतने विशिष्ट निस्पृह भाव को ज्ञातकर सरदार एकदम विरक्ति को प्राप्त होता है और गद्गद् वाणी से कहता है कि है माता ! तुम धन्य हो तुम तो जगत्माता हो, तुम्हारी कुक्षि धन्य है वह कदापि अपवित्र नहीं जिससे ऐसे महान वैरागी आत्मा ने जन्म लिया । इत्यादि वाक्य से रानीको सांत्वना देकर रानी को अपनी माता और कन्या को बहिन सदृश आदर करके सम्पूर्ण वैभव के साथ उनके इष्ट देशमें पहुंचा देता है, तथा स्वयं सर्व चौर्य आदि पापों का त्याग करता है । इसप्रकार नागदत्त नामा मुनिराज का यह अत्यन्त वैराग्य प्रद कथानक है । एकत्व भावना समाप्त । धृति भावना- अर्थ--उपसर्ग रूपी महान् योद्धा जिसमें है ऐसी परोषहरूपी दुर्वारवेग वाली बड़ी भारी सेना जो अल्पशक्ति वाले जीवोंको भय उत्पन्न करती है, उसको धीर वीर Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६६ भक्तप्रत्याम्यानमरण अर्ह आदि अधिकार धीरतासेनया धीरो विवेकशर जालया । जायते योधयन्नाशु साधुः पूर्ण मनोरथः ॥२०८।। इति धति: । विधाय विधिना दृष्टिज्ञान चारित्रशोधनम् । चिरं विहरतां षष्टया यति भावनयाऽनया ॥२०६॥ इति भावनासूत्र। साधु अपनी धृति भावना रूपी सेना द्वारा जो कि विनेक बाग समूह से पूर्ण है, उसके द्वारा युद्ध करके शीघ्र ही पूर्ण मनोरथ होता है अर्थात् परीषह आदि पर विजय प्राप्त कर लेता है। साधु इस धुति भावना द्वारा विधि पूर्वक दर्शन ज्ञान और चारित्न का शोधन करके चिरकाल तक विहार करें। कांदी आदि अशुभ पांच भावनाओं का त्याग करके छठी तपोभावना आदि रूप भावना द्वारा रत्नत्रय का शोधन करें ।।२०७॥२०८।। ॥२०॥ (१०) भावना अधिकार समाप्त । ।। भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार समाप्त हुआ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार = साथुः सल्लेखनां कत्तु मित्थं भाषितमानसः । तपसा यतते सम्यक् बाह्य नाभ्यंतरेण च ॥२१०॥ सल्लेखना द्विधा साधोरन्तरानन्तरेष्यते । तनांतरा कषायस्था द्वितीया कायगोचरा ॥२११॥ अभक्तिरवमोवयं वृत्तिसंख्या रसोभनम् । कायक्लेशो विविक्ता च शय्या षोढा बहिस्तपः ॥२१२।। इसप्रकार तप आदि भावमा से वासित है मन जिसका ऐसा साधु सल्लेखना को करने के लिये बाह्य और अभ्यन्तर सम्यक तपोंमें प्रयत्नशील होता है ।।२१०॥ साधुके सल्लेखना दो प्रकार हुआ करती है अभ्यन्तर और बाह्म, इनमें कषाय सम्बन्धी अभ्यन्तर सल्लेखना है और शरीर सम्बन्धी बाह्य सल्लेखना है । कषायों को आत्म भावना द्वारा कम करना कषाय सल्लेखना कहलाती है और शरीर को अनशनादि तप द्वारा कम करना काय सल्लेखना कही जाती है ॥२११॥ बाह्य तप छह प्रकार का है-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस त्याग, कायक्लेश और विविक्त शय्यासन ।।२१२।। आगे इसका स्वरूप बता रहे हैं। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेबनादि अधिकार [७१ सार्यकालिकमन्यच्च धानशनमोरितम् । प्रथमं मृत्युकालेऽन्यद्वर्तमानस्य - कथ्यते ॥१३॥ एक द्वित्रि चतुः पंच षट् सप्ताष्टनवादयः । उपवासाः जिनस्तत्र षण्मासावधयो मताः ॥२१४॥ बहुदोषाकरे ग्रामे प्रवेशो विनिवारितः । संयमो वद्धितः पूतः कुर्वतानशनं तपः ॥२१५॥ आहारस्तृप्तये पुसा द्वात्रिशकवला जिनः । प्रष्टाविंशतिरादिष्टा योषितः प्रकृतिस्थितः ॥२१६॥ अनशन नामके तपके दो भेद हैं सार्वकालिक और असार्वकालिक । सार्वकालिक समाधिमरण के काल में होता है और असार्वकालिक इसके पहले होता है । जो यावज्जीव के लिये आहार का त्याग करता है उसको सार्वकालिक अनशन कहते हैं और जो दो चार दस आदि दिनों की मर्यादा लेकर किया जाता है वह असार्वकालिक अनशन है ।।२१३॥ असावकालिक उपवास अर्थात् दिनों की मर्यादा लेकर किये जानेवाले अनशन तपका वर्णन करते हैं-एक, दो, तीन, चार, पांच, छह, सात, आठ, नौ इत्यादि उपवास करना असार्वकालिक अनशन तप है इन उपवासों को लगातार करने की अंतिम अवधि-मर्यादा छह मासको है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है अर्थात् एक उपवास से लेकर दो तीन आदि छह मास तक करना असार्वकालिक उपवास कहलाता है ॥२१४।। इस अनशन तपको करने से पवित्र संयम वद्धिंगत होता है, तथा बहुत दोषों का आकर ऐसे ग्राम में प्रवेश रुक जाता है । अर्थात् उपवास करने से आहारार्थ ग्राममें जाना पड़ता था वह रुक जाता है, ग्रमादि में जाने से विविध दृश्य विविध जन सम्पर्क होता है उससे अनेक संकल्प विकल्पोंको उत्पत्ति होती है, कषाय वृद्धि के कारण भी मिलते हैं जैसे कोई दुष्ट गाली आदि देने लगता है अथवा राग की वृद्धि करने वाली मनोहर वस्तु देखने में आती है यदि उपवास है तो उक्त दोषों से भरे ग्राम में नहीं जाना पड़ता है और उससे सहज कषायभाव रागद्वेषभाव आदि दोष रोक दिये जाते हैं ॥२१५।। ___ अवमौदर्य तप-पुरुषका स्वाभाविक भोजन बत्तीस ग्रास प्रमाण है और स्त्रियोंका अट्ठावीस ग्रास प्रमाण है ऐसा जिनदेव ने कहा है । इतने आहार से तृप्ति Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] मरकण्डिका तस्मादेकोत्तर श्र ेण्या कवलः शिष्यते परः । मुच्यते यत्र तदिदम मौदर्यमुच्यते ।।२१७।। निद्राजयः समाधानं स्वाध्यायः संयमः परः । हृषीक निर्जयः साधोरवमोवर्यतो गुणाः ॥ २१६ ॥ चतस्रो गृध्नुतासक्ति वर्षा संयमकारिणोः । नवनीत सुरामांस मध्याख्या विकृतिविदुः ॥ २१६॥ हो जाती है || २१६ । । भावार्थ - हजार चावलों का एक ग्रास माना है ऐसे बत्तीस ग्रास वाला आहार पुरुष के लिये क्षुधा शांतिकारक है अट्ठाईस ग्रास प्रमाण आहार स्त्रियों के लिये तृप्तिकारक है । उक्त प्रमाणभूत आहार में से एक-एक ग्रास कम करते हुए एक ग्रास प्रमाण शेष तक घटाते जाना अवमौदर्य तप है । अर्थात् बतीस ग्रासों में से एक ग्रास कम बाहार लेना दो ग्रास कम लेना ऐसे करते-करते एक ग्रास ही प्रहार लेना इसप्रकार अवमौदर्य अनेक प्रकार का है । अपने स्वाभाविक आहार में से एक ग्रास कम लिया अथवा कभी दो ग्रास, कभी दस ग्राम कम पन्द्रह ग्रास इत्यादि अनेक प्रकार से आहार को कम करना ये सब ही अवमोदर्यं तप कहलाता है क्योंकि इन सब विधियों में भूख से कम खाया जाता है और भूख से कम खाना ही अवमौदर्य तपका लक्षण है ।।२१७।। इस मौदर्य तपको करनेसे साधुको निद्राविजय गुण प्राप्त होता है, समाधान होता है अर्थात् जितना और जैसा आहार मिला उसीमें सन्तुष्टता आती है, स्वाध्याय भली प्रकार से हो जाता है उसमें प्रमाद नहीं आता । संयम का अच्छी तरह पालन होता है और इन्द्रियविजय गुण भी प्राप्त होता है ।।२१८ || रस त्याग तपको कहते हैं-रस त्याग के कथन में सर्व प्रथम उन पदार्थों को बताते हैं कि जो महान अनर्थकारी हैं सर्वथा सर्वजन यति और श्रावक सबके लिये त्याज्य हैं । चार महा त्रिकृतियां हैं -- मक्खन, मांस, मधु और मद्य । मक्खन कांक्षागृद्धता को कराता है, मद्य अगम्यगमन का निमित्त है । मांस इन्द्रिय दर्पकारी है और Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार [७३ महाविकारकारिण्यो भव्येन भवभोरणा । जिनाज्ञाकाक्षिणात्याज्या यावजीवं पुरव ताः ॥२२०॥ गुड़तलवधिक्षीर सर्पिषां वर्जने पति । देशतः सर्वतः ज्ञेयं तपः साधो रसोझतम् ।।२२१॥ अशनं नीरसं शुद्ध शुकमस्वादु शीतलम् । भुजते समभावेन साधवो निजितेन्द्रियाः ॥२२२॥ येऽन्येऽपि केचनाहारा वृष्या विकृतिकारिणः । ते सर्वे शक्तितस्त्याज्या योगिना रसजिना ॥२२३।। सन्तोषो भावितः सम्यग ब्रह्मचर्य प्रपालितम् । दशितं स्वस्य वैराग्यं कुर्वाणेन रसोझनम् ॥२२४।। --.-- - -. . .--..---.-...---...- .-.-.-..-- -- - - - मधु असंयमकारी है । अथवा ये चारों ही निकृष्ट पदार्थ कांक्षा आदि सब दोषों को करते हैं अर्थात् एक मांस या एक मक्खन आदिमें एक एकमें सबके सब दोष भरे पड़े हैं । इसलिये जिनदेव की आज्ञा का पालन करने के इच्छुक संसार से भयभीत भव्य पुरुषको पहलेसे ही यावज्जीव तक ये पदार्थ सर्वथा त्याज्य हैं ॥२१९॥२२०।। रस परित्याग तप-गुड़, तेल, दधि, दूध, घो इन रसोंका पूर्णरूप से या एक दो आदि रसोंका त्याग करना साधु का रस त्याग तप कहलाता है ॥२२१।। इन्द्रियोंको जिन्होंने वश कर लिया है ऐसे साधुअन भोजन नीरस हो, रूखा हो, चाहे ठण्डा हो, स्वाद रहित हो किन्तु शुद्ध हो उसे समभाव से ग्रहण कर लेते हैं। उसमें किसी प्रकार द्वेष भाव नहीं करते ।। २२२ ॥ रस त्याग के इच्छुक योगीको गरिष्ठ आहार, विकार करने वाला आहार ऐसा अन्य कोई आहार हो उन सब प्रकार के आहारों को शक्ति अनुसार छोड़ देना चाहिये ॥२२३।। जो साधु इस रस त्याग को करता है वह अपने जीवन में सन्तोष प्राप्त कर लेता है, अच्छीप्रकारसे ब्रह्मचर्य का पालन तथा वैराग्य की वृद्धि को प्राप्त करता है । अर्थ यह है कि रसका त्याग करनेसे विकारी भोजन नहीं होता उससे ब्रह्मवर्य प्रादि सुरक्षित रहते हैं । जैसा मिला वैसा सन्तोष पूर्वक लेने में आता है क्योंकि रसोंको लालसा नहीं रही ।।२२४।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] मरगकण्डिका गृह्णाति प्रासुका भिक्षां गत्वा प्रत्यागतो यतः । शम्बूकावर्त गोमूत्र पुटेष शलभायनः ॥२२॥ पाटकायसथ द्वार वात् देयादि गोचरम् । संकल्पं विविधं कृत्वा वृत्तिसंख्या परो यतिः ॥२२६।। लना तृष्णालतारूढा चित्रसंकल्प पल्लवाः । कुर्यता वृत्तिसंख्यानं परेषां दुश्चरं तपः ॥२२७।। तिर्यगकमुपर्यर्क मन्वर्क प्रतिभास्करं । यतिग्रामान्तरं गत्वा प्रत्यागच्छति वा यतिः ॥२२॥ - - - .... ----- -- वत्तिपरिसंख्यान-आहार को जाते समय साधुजन विविध नियम लेते हैं कि अमुक आहार मिले, अमुकव्यक्ति पड़गाहन करे, अमुक गली में मिले तो लेवगा अन्यथा नहीं, यहां पर इसीका वर्णन करते हैं--आहार के लिये गमन कर जिस रास्ते से जागा वापिस लौटते समय विधिपूर्वक प्रासुक आहार मिलेगा तो ग्रहण करूगा अन्यथा नहीं, इस विधि को गतप्रत्यागत विधि कहते हैं । शंखमें जैसे आवर्त्त होते हैं वैसे ग्रामादि में आहार के लिये भ्रमण करते हुए आहार मिलेगा तो ग्रहण करूगा, अथबा गोमूत्रवत् भ्रमण करते हुए यदि भिक्षा मिलेगी तो लूगा, इषु-बाणके समान सोधी गली से जाते हए या पतंगवत् अर्थात् एक निश्चित अमुक घरमें मिलेगा तो ग्रहण करूगा, इसप्रकार नियम लेना ॥२२५।। अमुक मोहल्ले में, घरके द्वार पर, अमुक दाता के यहां इत्यादि प्रकार आहार मिलने का नियम लेना, आहार में दाल ही लूगा, मोठ हो लूगा अर्थात् ये पदार्थ मिले तो आहार करना अन्यथा नहीं इसतरह विविध प्रकार के संकल्प करके आहार लेना, ऐसे संकल्प पूर्ण नहीं हुए तो समाधान पूर्वक बसतिकामें लौट आना वृत्तिपरिसंख्यान तप है ।।२२६।। अन्य जनोंको दुष्कर ऐसे इस बृत्ति परिसंख्यान तपको करने वाले साधु द्वारा विचित्र संकल्परूप पत्तों वाली तृष्णारूपी लता काट दी जाती है अर्थात् उस साधुकी लालसा समाप्त होती है ॥२२७॥ कायक्लेश तप--जिस दिन कड़ी धूप हो उस दिन पश्चिम दिशा की तरफ गमन करना अनुअर्क गमन कहलाता है, सूर्यको तिरछे करके गमन, तिर्यक् अर्क गमन है । सूर्यके मस्तक पर रहते गमन उपरि अर्कगमन है। गर्मी के दिनों में इसप्रकार सूर्य के प्रति गमन-बिहार करना कायक्लेश तप है क्योंकि इस क्रिया द्वारा काय Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार ससंक्रममसंक्रमम् । सावष्टंभं तनूत्सगँ गुद्धोड्डीनमवस्थानं सम्पादक पादकम् ॥२२६॥ पर्यकम पर्यक वीर पद्मगवासनम् । श्रासनं हस्ति शुण्डं च गोदोहमकराननम् ||२३०|| समस्फिगं समस्फिक्कं कृत्यं कुक्कुटकासनम् । बहुधेत्यानं साधोः कायक्लेशविधायिनः ॥२३१॥ [ ७५ शरीर में क्लेश-कष्ट होता है तथा इस तपके इच्छुक यति किसी ग्राम में जाकर खड़े खड़े ही वापिस लोट आते हैं अर्थात् एक गांव से दूसरे गांवमें जाना और तत्काल लौट आना बीचमें कहीं भी नहीं बैठना यह उक्त मुनिका कायक्लेश तप है || २२८ || सहारा लेकर कायोत्सर्ग - खड़े होना, एक स्थान से दूसरे स्थान में जाकर वहां घन्टा दिन आदि काल तक खड़े होकर ध्यान करना संसंक्रम कायक्लेश है, उसी एक स्थानमें निश्चल होना असंक्रम है, गिद्ध पक्षी के समान अवस्थित होना अर्थात् गिद्ध जैसे दोनों पंखों को फैलाकर उड़ता है वैसे दोनों बाहुओं को फैलाकर खड़े रहना, दोनों पैरों को समान रखकर खड़े होना, एक पैर से खड़े रहना ये सब कायक्लेश हैं ॥२२६॥ यहां तक खड़े होकर किये जाने वाले कायक्लेश का वर्णन किया । पर्यंक आसन लगाना, अर्द्ध पर्यकासन, पद्मासन, गवासन, वोरासन, हस्तिशूण्डासन, गोदुह आसन, मकरासन || २३०॥ तथा समस्फिग, असमस्फिक्क आसन लगाना, कुक्कुट आसन ऐसे अनेक प्रकारके आसन कायक्लेश तप तपने वाले साधुके हुआ करते हैं ।। २३१।। यहां तक दो कारिकाओं में बैठने के आसन बताये हैं । विशेषार्थ --- दोनों पांवों को गोद में लेकर प्रतिमावत् बैठना पर्यंकासन कहलाता है, एक पैर को गोद रखकर बैठना अर्द्ध पर्यं कासन है, इसोको क्रमशः पद्मासन और अर्द्ध - पद्मासन कहते हैं । गयासन गोवत् बैठना स्त्रियां जिस तरह बैठकर जिनेन्द्र को नमस्कार करती हैं वैसा आसन । वोरासन दोनों जंघाएँ दूर अन्तर पर स्थापित कर बैठना । हाथी जैसे अपनी सूण्ड को पसारता है वैसे एक हाथको अथवा एक पांवको फैलाकर बैठना हस्तिणू डासन कहलाता है । गोदुह आसन - गायको दोहते समय जैसे बैठते हैं वैसा बैठना | मकरानन आसन- मगर के मुखके समान पांवों की आकृति बनाकर बैठना । समस्फिग का अर्थ संस्कृत टीका में "स्फिपिंड सम करणेनासनं " शब्दका प्रयोग Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका कोदंडलगडादण्ड शवशय्यापुरस्सरम् । कर्तव्या बहुधा शय्या शरीरक्लेशकारिणा ॥२३२॥ काष्टाश्मतण भूशय्या दिवानिद्रा विपर्ययः । दुर्धराभ्राधकाशादि योग त्रितयधारणम् ॥२३३॥ दन्तधावन कण्डति स्नान निष्ठीवनासनम् । यामिनीजागरो लोचः कायक्लेशोयमीरितः ॥२३४॥ सूत्रानुसारतः साधोः कायक्लेशं वितन्यतः । चितिताः सम्पदः सर्वाः सम्पद्यन्ते करस्थिताः ॥२३॥ किया है और हिन्दी में जंघा तथा कटि भाग को समान करके बैठना अर्थ किया है, इससे विपरीत अर्थात् जंपा और कटियाग सम न होबार निषम रहना असमस्फिक् आसन है। मुर्गेको तरह आकृति कर बैठना कुक्कुटिका आसन है । इन सब आसनों द्वारा काय में कष्ट होता है अत: इस तपको कायक्लेश तप कहते हैं । आगे लेटकर किये जाने वाले कायक्लेश का वर्णन करते हैं । धनुषवत् शयन दंड शयन कहलाता है, दण्ड के सदृश शयन लगड शयनअवयवों को संकुचित करके शयन करना, शवशय्या-शव-मुर्दे के समान चित सोना । इसी तरह अनेक प्रकार की शय्या से सोना कायक्लेशकारी शय्या को करना कायक्लेश तप है ।।२३२॥ काष्ठ पर गयन, पाषाण पर शयन, दिन में नहीं सोना, दुर्धर अभावकाश आदि तीन योगों को धारण करना कायक्लेश है ।।२३३।। भावार्थ-शीत ऋतुमें खुले मैदान में अथवा नदी किनारे आदि स्थानों पर ध्यानसे दिन मास आदि कालतक स्थित होना अभावकाश योग कहलाता है । ग्रीष्मकालमें पर्वतपर ध्यान करना ग्रीष्मयोग है । वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे स्थित होकर ध्यान करना वृक्षमुलयोग है। इन क्लेशोंको शान्त भाव से एवं स्वेच्छासे सहना कायक्लेश तप कहलाता है। दातोंन नहीं करना, खजली, स्नान तथा थूकने का त्याग, रातमें जागते रहना, और केशलोच ये सब कायक्लेश कहे गये हैं ॥२३४।। जो साधु सूत्र के अनुसार कायक्लेश करता है उसके सम्पूर्ण चिन्तित संपदायें हस्तगत होती हैं ।।२३५।। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार विविक्त वसति: सास्ति यस्यां रूपरसादिभिः । सम्पद्यते न संक्लेशो न ध्यानाध्ययने क्षतिः ॥ २३६ ॥ अन्तर्बहिर्भवां शय्यां त्रिकटों विषमां समाम् । वांच्छत्यविकटां सेव्यां रामाषंढ पशूज्झिताम् ॥ २३७॥ उद्गमोत्पादना वलभा दोषमुक्तामपक्रियां । प्रविविक्त जनागम्यां गृहशय्या विवर्जितां ||२३८ || शून्यवेश्म शिलावेश्म तरुमूलगुहादयः । विविक्ता भाषिताः शय्या स्वाध्यायध्यान वधिकाः ।।२३६ ॥ अयोग्यजन संसर्ग राटीकल कलादयः I विविक्त स्थितेः सन्ति समाधान निषूदिनः ॥ २४० ॥ [ ७७ अब यहां विविकशय्यासन तप का निरूपण करते हैं— जिस वसतिका में रूप रस स्पर्श आदि से संक्लेश नहीं होता और ध्यान अध्ययन में हानि होती है वह वसतिका विविक्त कहलाती है ॥२३६॥ वसतिका ग्राम आदिके बाहर में स्थित हो चाहे मध्य में स्थित हो विकट खुले द्वारवाली हो चाहे अविकट ढ़के द्वारवालो हो, समभूमियुक्त हो अथवा विषम भूमियुक्त हो किन्तु वह नियमसे स्त्री, नपुंसक और पशुओं रहित होनी चाहिये ।।२३७|| उद्गम, उत्पादना एवणा दोषोंसे मुक्त हो, संमार्जन आदि क्रिया विहीन हो, जनोंको अगम्य हो, गृहस्थों के संसर्ग से रहित हो ऐसी वसतिका चाहिये || २३८|| भावार्थ - वसतिका उद्दिष्ट आदि दोषोंसे रहित होनी चाहिये जैसे आहार के उद्गम उत्पादन आदि दोष होते हैं और उन दोषोंसे रहित आहार को साधुजन ग्रहण करते हैं । जो दोष गृहस्थ के आधीन है वह उद्गम दोष है, साधु द्वारा उत्पन्न कराया जाता है वह उत्पादन दोष है । एषणा आदि दोषोंका तथा इन दोषोंका सविस्तार वर्णन भगवती आराधना टीका में है, वहांसे जान लेना चाहिये । विविक्त वसतिका कौनसी है यह बताते हैं - शून्यगृह, शिलागृह, वृक्षके कोटर, गुफा आदि जो कि स्वाध्याय और ध्यानकी वृद्धिकारक हैं वह विविक्त वसतिका कहलाती हैं ||२३९ ॥ अयोग्य लोगोंका संसर्ग, राड़, कलकल शब्द, कलह आदि समाधान - शांति को नष्ट करने वाले दोष अविविक्त वसति में रहने से आते हैं ।। २४० ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] मरणकण्डिका प्रारभाराकृत्रिमाराम देवतादि गृहादिषु । जायते वसतः साधोः समाधानमखण्डितम् ॥२४१।। एवमैकाग्रयमापनो ध्यानः शुद्धप्रवृत्तिभिः । समितः पंचभिगुप्तस्त्रिभिरस्ति हितोद्यतः ॥२४२॥ तमिर्जरयते कर्म संवृत्तोऽन्तमुहूर्ततः । षष्टाष्टमादिभिः साधुस्तपसा यन्संवृतः ॥२४३॥ एवं भावयमानः संस्तपसा स्थिरमानसः । अप्रशस्तं परीणामं नाशयश्चेष्टते तरां ॥२४४।। तत्तपोऽभिमतं बाह्य मनो येन न दुष्यति । योगायेन न हीयंते येन श्रद्धा प्रवर्तते ॥२४॥ प्रारभार अकृत्रिम बाग, देवता गृह आदिमें निवास करने वाले साधु के अखंड समाधान-शान्ति होती है !!२४१॥ इसप्रकार विविक्त वसतिमें रहने से शुद्ध प्रवृत्ति द्वारा ध्यानमें एकाग्रता आती है तथा पांच समितियाँ पलती हैं, तीन गुप्तियां सिद्ध होती हैं, इस तरह वह साधु अपने हितमें उमद्यशील हो जाता है ।।२४२॥ - जो साधु अशुभ मन वचन कायसे संवत नहीं है अर्थात् गुप्तिका पालक नहीं है वह षष्ठोपवास-बेला अष्टमोपवास-तेला आदि तप द्वारा जितना कर्म नष्ट करता है उतना कर्म संवृत हुआ अर्थात् मनोगुप्ति आदि युक्त हुआ अन्तर्मुहूर्त में नष्ट कर देता है ॥२४३॥ इसप्रकार गुप्तिको भावना करता हुआ तप द्वारा जिसने मनको स्थिर कर लिया वह साधु अप्रशस्त परिणाम को नष्ट करता हुआ सतत चारित्र में प्रयत्नशील होता है ।।२४४|| वास्तव में बाह्म तप वह है जिससे मन दूषित नहीं होता अर्थात उतना बाह्य तप श्रेष्ठ है, जितना तप करने पर मन में क्लेश नहीं होता। वह तप श्रेष्ठ है जिससे योग- आतापनादि या ध्यान कम नहीं होता, जिससे श्रद्धा बनी रहती है ।।२४५।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार बाह्येन तपसा सर्वा निरस्ताः सुखवासनाः । सम्यक् तनूकृतो देहः स्वः संवेगेऽधिरोपितः ॥ २४६ ॥ संतोन्द्रियाणि दांतानि स्पृष्टा योग समाधयः । जोबिताशा परिद्धिना, बलवीर्यमगोपितम् ॥२४७॥ रसदेहसुखानास्था जायते दुःखभावना | प्रमद्दनं कषायाणामिन्द्रियार्थेष्वनावरः || २४६ || श्राहारखवंता दांति समस्ता त्यागयोग्यता | गोपनं ब्रह्मचर्यस्य लाभालाभसमानता ॥ २४६ ॥ निद्रागृद्धि मदस्नेहलोभ मोह पराजयः । ध्यानस्वाध्याययोर्वा द्धिः सुखदुःख समानता ॥ २५० ॥ ↑ श्रात्मा प्रवचनं संघः कुलं भवति शोभनं । समस्तं त्यक्त मालस्यं कल्मषं विनिवारितम् ।। २५१ ।। [ 3 बाह्य तप द्वारा सर्व सुखीपना निरस्त हो जाता है, शरीर भली प्रकार कृश हो जाता है और अपने आत्मा को संसार भीरुतारूप संवेग में स्थापित किया जाता है ।। २४६ ।। बाह्य तप द्वारा इन्द्रियाँ वश होती हैं योग और समाधि अर्थात् रत्नत्रय में एकाग्रता प्राप्त होती है, जीवन को आशा नष्ट होतो है और बलवीर्य प्रगट होता है। ॥२४७॥ मधुर श्रादि रसोंमें और शरीर सुखों में आस्था नहीं रहती, दुःख सहने की भावना होती है । कषायोंका मर्दन होता है, इन्द्रियोंके विषयों में अनादर हो जाता है || २४८|| तथा आहार की वांछा नष्ट होती है, सब प्रकार को इच्छा का दमन होता समस्त आहारों को हमेशा के लिये समाधि के समय त्याग करना पड़ता है उस समस्त आहार को यावज्जीव त्याग करने की योग्यता अनशन आदि तप से आती है, ब्रह्मचर्य को रक्षा होती है और लाभ तथा अलाभ दोनों में समभाव प्राप्त होता है ॥ २४९ ॥ निद्रा, लालसा, गर्व, स्नेह, लोभ, मोह इन सबका पराजय कर लेता है जो कि बाह्य तपको तपता है । ध्यान और स्वाध्याय में वृद्धि का होना और सुख दुःख दोनों में समान भाव बने रहना यह गुण भी तपश्चरण द्वारा हो प्राप्त होता है ।। २५० ।। अपनो आत्मा, अपना वंश, अपना संघ, और जिनमत इन सबकी शोभा का कारण तप है, तपस्वी के समस्त आलस छूट जाते हैं और पापका निरोध होता है ।। २५१ ।। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] मरकण्डिका मिथ्यादर्शनिनां सौम्यं संवेगो सूयसां सतां । मुक्तः प्रकाशितो मार्गो जिनाशापरिपालिता ।। २५२ ॥ संतोषः संयमो देहलाघवं शमवर्द्धनम् । तपसः क्रियमाणस्य गुणाः सन्ति यथायथम् ।। २५३ ॥ उद्गमोत्पादनाहार दोषभक्त मितं लघु । विरसं गृताहारं क्रियते विविधं तपः ।। ( पाठान्तरम् ) आहारमध्पयन्नेवं वृद्धो वृद्धेन संयतः । तपसा संलिखत्यंगं वृद्ध नैकांततोऽथवा ।। २५४ ।। मुनिराजों का उग्र तप देखकर मिथ्यादृष्टि जीव भी अपनी उग्रता छोड़कर सौम्य बन जाते हैं अर्थात् जैनोंका तप बड़ा दुर्धर है ऐसा देखकर प्रसन्न होते हैं, तपश्चरण में तत्पर इस मुनिको देखकर अन्य मुनिराजों को संसार से भय उत्पन्न होता है कि यह महात्मा संसारके कष्टसे भयभीत होकर मुक्ति के लिये कितना कठोर तप करता है ! हमें भी यह सांसारिक कष्ट भोगना न पड़े इसलिये अवश्य तप करना चाहिये इत्यादि । तपसे मुक्तिमार्ग का प्रकाशन होता है और जिन भगवान की आज्ञाका पालन होता है ||२५२ ।। तपस्वी के जीवन में सन्तोष आता है, संयम आता है, शरीर में लघुता होती है अर्थात् तपसे शरीर का भारीपन मोटापा नष्ट होता है । उपशम भाव वृद्धिंगत होता है । इसप्रकार तप करने वाले के ये गुण यथा सम्भव प्राप्त होते हैं अर्थात् छह प्रकारके सप हैं इनमें से अनशन द्वारा शरीर लघुता, रस त्याग से सन्तोष इत्यादि गुण भी प्रगट होते हैं । इसीप्रकार अन्य अन्य तपके गुण भी समझना चाहिये ।। २५३॥ मुनिराज उद्गम, उत्पादन और एषणा इन दोषों का त्याग करके मित लघु विरस ऐसे आहार को ग्रहण करते हुए विविध बाह्य तपको करते हैं अर्थात् निर्दोष आहार लेकर तप करना चाहिये, उद्दिष्ट आहार आदि छियालीस आहार सम्बन्धो दोष हैं उन दोषों से युक्त अशुद्ध ऐसा आहार करके कदापि तप नहीं करना चाहिये ( पाठान्तर की अपेक्षा ) । इसप्रकार यति आहार को अल्प करता हुआ वृद्धिगत तप द्वारा अर्थात् बेला तेला आदि क्रमसे आगे तपको बढ़ाता है और उससे शरीर कृश करता है, अथवा कभी हीयमान तपसे प्रवृत्ति करता है ।। २५४ || Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार क्रमेणसं लिखत्यंगमाहारं स्वयंयन्यतिः । प्रत्यहं वा गृहीतेन तपसा विधिकोविदः ॥२५५॥ आहारगोचरं नाकारैरवग्रहैः 1 मुमुक्षुः संलिखत्यंगं संयमस्याविरोधकम् ॥ २५६॥ या भिक्षु प्रतिमाश्चित्रा बले सति च जीविते । पीडयन्ति न ताः कायं संलिखं तं यथाबलं ॥ ( पाठान्तरं ) [ ८१ विशेषार्थ - बेला तेला चौला इत्यादि रूपसे अनशन करना अनशन तप को वृद्धि है, बत्तीस ग्रास प्रमाण आहार में से क्रमशः ग्रास कम करते रहना इत्यादि रूप अवमोदयं तपकी वृद्धि है, एक रसका, दो रसका त्याग करना, कभी छहों रसोंका त्याग करना, रसत्याग तपकी वृद्धि कहलाती है । आज इस गांव में आहार तो लूंगा, आज इस मोहल्ले में मिलेगा तो लूंगा, आज इस घर में मिलेगा तो लूंगा इत्यादि रूप वृत्तिपरिसंख्यान तपकी वृद्धि जानना । शून्य गृह निवास, पुनः ग्राम समीप वसति में निवास, पुनः गिरि गुफा में निवास इत्यादि रूप विविक्त शय्यासन तपकी वृद्धि होती है । और दिनमें आतपन योग लेकर रात्रिमें प्रतिमावत् निश्चल स्थित रहना इत्यादि रूप कायक्लेश तपकी वृद्धि जानना चाहिये । क्रमसे आहार को घटाते हुए शरीर को घटाता जाय अथवा प्रतिदिन विविधभिन्न-भिन्न प्रकार से तपको करते हुए विधिकोविद तप की विधिको जानने वाला साधु काया को कृश करता है || २५५ || संयम की विराधना न हो इसप्रकार से आहार सम्बन्धी उग्र उग्र ऐसे नाना अवग्रह-नियमों द्वारा मुमुक्षुजन शरीरको कृश करते हैं ।। २५६ ।। यथाशक्ति शरीर सल्लेखना करनेवाले साधुके बल और जोवन के रहने पर अनेक प्रकार की भिक्षु प्रतिमा का आचरण करने पर संक्लेश नहीं होता है और यदि शक्ति के अनुसार तप नहीं किया अधिक तीव्र गति से शरीर कृश किया तो महान् क्लेश होगा और उससे कर्मबन्ध होगा अतः यथाशक्ति तपमें प्रवृत्ति श्रेयस्कर है । ( पाठान्तरकी अपेक्षा ) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकटिका देहसल्लेखनाहेतु हया वरिणतं तपः । वदन्ति परमाचाम्लमहता यत्र योगिनः ॥२५७।। षष्टाष्ट्रमादिभिश्चित्ररुपवासरतन्द्रितः । गृह्णाति मितमाहारमाचाम्लं बहुशः पुनः ॥२५८।। विशेषार्थ-शरीर सल्लेखना का इच्छुक साधु यदि उत्तम संहनन वाला है धैर्य थ तज्ञान आदि गुणोंसे मण्डित है परोष उपसर्ग सहन किये हैं तो वह महासत्त्वशाली मनि इस भिक्षप्रतिमा विधिका अनुष्ठान कर सकता है, इस देश में रहते हुए एक मास के अन्दर अमुक-अमुक दुर्लभ आहार मिलेगा तो ग्रहण करूगा अन्यथा नहीं ऐसी प्रतिज्ञा करके उस मास के अन्तिम दिन प्रतिमायोग धारण करता है, यह एक प्रतिमा हुई। पूर्वोक्त आहार से शतगुणित उत्कृष्ट दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहारका व्रत ग्रहण करता है यह व्रत दोमासका तीनका, चार, पाँच, छह और सात मास तक क्रमशः चलता है, प्रत्येक महिने के अन्तिम दिन प्रतिमायोग धारण करता है, ये सात भिक्षु प्रतिमायें हैं। पुनश्च सात-सात दिनोंमें पूर्व आहारको अपेक्षा से शत गुणित उत्कृष्ट और दुर्लभ ऐसे भिन्न-भिन्न आहार तीन बार लेने की प्रतिज्ञा करता है. आहार को प्राप्ति होती है तो तोन, दो और एक ग्रास लेता है. ये तीन भिक्षु प्रतिमायें हैं। तदनन्तर रात्रि और दिन में प्रतिमायोग धारण करता है पुनः प्रतिमायोग से ध्यानस्थ होता है ये दो भिक्षु प्रतिमायें हैं । इससे पहले अवधि और मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त होते हैं, अनन्तर सूर्योदय होने पर उक्त महामना महाधर्यशालो मुनिराज केवलज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं। इस तरह ये बारह भिक्षु प्रतिमायें जिनागममें वर्णित हैं । शरीरकी सल्लेखना के लिये विविध तपोंका वर्णन अर्हन्त देवने किया है उन तपोंमें आचाम्ल तप उत्कृष्ट है ऐसा योगिजन कहते हैं ।।२५७।। बेला, तेला आदि विविध उपवासों द्वारा तप करता हुआ निष्प्रमादी यति ऋमशः अल्प आहार को करता है पुनश्च बहुत प्रकार से आचाम्ल को करता है । अर्थात दो तीन आदि उपवास करे मध्य-मध्य में अल्प आहार-अवमौदर्य करता रहे, फिर आचाम्ल विधि करे ।।२५८।। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३ सहलेखनादि अधिकार कालो द्वादशवर्षारिग काले सति महीयसि । भक्तत्यागस्य पूर्णानि प्रकृष्टः कथितो जिनः ॥२५॥ विचित्रः संलिखित्यंगं योगवर्ष चतुष्टयं । समस्त रस मोक्षेण परं वर्ष चतुष्टयं ॥२६०॥ आचाम्ल रसहानिभ्यां वर्षे द्वनयते यतिः । आचाम्लेन विशुद्ध'न वर्षमेकं महामनाः ॥२६१॥ षण्मासीमप्रकृष्टेन प्रकृतेन समाधये । षण्मासौं नयते धीरः कायक्लेशेन शुद्धधीः ।।२६२॥ द्रव्यं क्षेत्र सुधीः कालं धातु ज्ञात्वा तपस्यति । तथा न्यन्ति यो बाशु वातपित्तकफा यथा ॥२६३॥ भावार्थ--आचाम्ल को यहाँ पर कांजिका शब्दसे कहा जाता है, केवल मांड लेना अथवा कुछ भातके कण जिसमें हो ऐसा मांड हो लेना आचाम्ल या कांजिका आहार है ! कोई केवल भातके आहार को आचाम्ल कहते हैं, कोई भात और इमली का पानी लेने को आचाम्ल कहते हैं । सल्लेखना का जो भेद भक्तप्रत्याख्यान है उसीका अति विस्तारसे वर्णन चल रहा है, इस भक्तप्रत्याख्यान का काल उत्कृष्ट रूपसे बारह वर्ष प्रमाण जिनेन्द्र देवने कहा है ॥२५६।। बारह वर्ष किस प्रकार व्यतीत करे सो बताते हैं-विविध आतपन प्रादि योग धारण करके चार वर्ष व्यतीत करता है, पुनः समस्त रसोंका त्याग करते हुए चार वर्षोंको पूर्ण करता है ॥२६॥ आचाम्ल तप तथा रस त्याग द्वारा दो वर्ष पूर्ण करता है पुनः एक वर्ष केवल आचाम्ल तप द्वारा व्यतीत करता है ।।२६११। इसप्रकार चार वर्ष उपवास द्वारा, बार वर्ष रस त्याग द्वारा, दो वर्ष आचाम्ल और रस त्याग दोनों द्वारा और एक वर्ष केवल आचाम्ल द्वारा व्यतीत होने पर, शुद्ध बुद्धि वाले वे क्षपक मुनिराज अन्तिम बारहवें वर्ष के प्रथम छह मास तो मध्यम तप द्वारा और द्वितीय छह मास उत्कृष्ट कायक्लोशकारो तप द्वारा व्यतीत करते हैं ।।२६२।। द्रव्य क्षेत्र काल और धातु-शरीर प्रकृति को जानकर साधु उस प्रकार से तप करता है जिस प्रकार से कि वात पित्त कफ दोष क्षभित न हो ।।२६३।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] मररकण्डिका इत्थं सल्लेखनामागं कुर्वाणेनाप्यनेकधा । नव त्याज्यात्म संशुद्धिः क्षपकेण पटीयसा ।। २६४ ।। भावशुद्धधा विनोत्कृष्टमपि ये कुर्वते तपः । बहिर्लेश्या न सा तेषां शुद्धि भवति केवला ।। २६५ ।। कषायाकुलचित्तस्य भावशुद्धिः कुतस्तनी । यतस्ततो विधातव्या कषायाणां तनूकृतिः ॥ २६६ ॥ विशेषार्थ -- आहारको यहाँ पर द्रव्य शब्द से कहा है, कोई आहार शाक बहुल होता है, कोई रस बहुल, कोई कुलथो युक्त, निष्पाव चना आदिसे मिश्रित इत्यादि आहार को ज्ञात करना अर्थात् इस देश ग्राम आदिमें रस बहुल आहार प्राप्त होता है। अथवा नहीं, शाक बहुल है इत्यादिको देखकर उपवास आदि तप करें जिससे शरीर शुष्कता या बात आदि दोष कुपित न हो । यह देश जल बहुल है इसमें वर्षा बहुत है, तथा इस क्षेत्र में पानी नहीं है शुष्क प्रदेश है इत्यादि देखकर तप करना चाहिये क्योंकि अनूप देश अर्थात् जल बहुल देश में उपवास ठीक होते हैं । यह ग्रीष्मकाल है, यह शीतकाल है, ग्रीष्मकाल में तपश्चरण कठिन पड़ता इत्यादि काल को जानना । मेरी शरीर प्रकृति कैसी है ? बात प्रधान हैं या कफ प्रधान है इत्यादि विचार करना चाहिये उससे रोग नहीं आते हैं । कषाय सल्लेखना को कहते हैं— इस तरह अनेक प्रकार की तप विधि द्वारा सल्लेखना मार्ग को करते हुए चतुर क्षपक मुनि अपनी आत्म शुद्धि को कभी भी नहीं छोड़े । अर्थात् आरम श्रद्धा, आत्म भावना की सुरक्षा पूर्वक हो तप करना चाहिये ।।२६४।। भावशुद्धि के बिना जो साधुजन उत्कृष्ट भी तप करते हैं उनके आत्मशुद्धि नहीं होती है उनकी वह तपकी क्रिया केवल बाह्य लेश्या मात्र है । अर्थात् ख्याति पूजा और लाभ आदि को इच्छासे तप करना आत्माकी शुद्धिका कारण नहीं है और आत्मशुद्धि बिना कर्म निर्जरा नहीं होती अतः ऐसा तप मोक्षमार्ग में व्यर्थ है ।। २६५ ।। कषायसे आकुलित है चित्त जिसका ऐसे व्यक्ति के भावशुद्धि कहाँसे हो सकती है ? इसलिये कषायों को अवश्य ही कृश करना चाहिये || २६६ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार | ८५ जेतव्या क्षमया कोधो मानो मार्दव सम्पदा । आर्जवेन सदा माया लोभः सन्तोषयोगतः ॥२६७।। चतुर्णा स कषायाणां न वशं याति शुद्धधीः । उत्पत्तिस्त्यज्यते तेषां सर्वदा येन स तस्वत: 1२६॥ दं सर्वदा पत्र, पायग्नि रुवीयते । यत्र शाम्यत्यसौ वस्तु, तदादेयं पटोयसा ॥२६६।। यधुवेति कषायाग्नि, विध्यातव्यस्तदा लघु । शाम्यन्ति खिलादोषा, शमिते तत्र तत्त्वतः ॥२७०॥ रागद्वेषादिक साधोः, संगाभावे विनश्यति । कारणाभावतः कार्य, कि कुत्राप्यवतिष्ठते ।।२७१।। कषायोंको जीतने का उपाय दिखाते हैं साधुजनोंको क्षमा द्वारा तो क्रोधको जोतना चाहिये, मानको मार्दव संपत्ति द्वारा, मायाको सदा हो आर्जव धर्म द्वारा एवं संतोष योगसे लोभको जीतना चाहिये ॥२६७।। जो शुद्ध बुद्धिवाला साधु है वह चारों ही कषायोंके वश में नहीं आता, क्योंकि वह उन कषायोंको उत्पत्ति ही सर्वदा होने नहीं देता ॥२६॥ जहाँपर कषायरूपी अग्नि उत्पन्न होती है उस द्रव्य क्षेत्र आदिको सदा ही छोड़ देना चाहिये और जहाँ पर कषायोंका शमन होता है उस द्रव्यादिको चतुर साधु को ग्रहण करना चाहिये ।।२६६।। यदि कदाचित कषायरूप अग्नि उत्पन्न भी हो जाय तो शीघ्र ही उसे बुझा देनी चाहिये । क्योंकि कषायोंके शान्त होनेपर शेष दोष बास्तबमें शान्त हो ही जाते हैं ॥२७०।। परिग्रहके अभावमें साधुके रागद्वेष विनष्ट हो जाते हैं, क्या कारणके अभावमें कार्य होता हुआ कहीं देखा गया है ? नहीं ! मतलब जैसे मिट्टी या कपास रूप कारणके रहने पर घट और पट रूप कार्य उत्पन्न होता है अन्यथा नहीं । इसीप्रकार परिग्रहके अभावमें साधुके रागद्वेष नहीं होते हैं ॥२७॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] बताते हैं मरकण्डिका उदेति सहसा वाक्या सहिष्णुतावात्या प्रेरितः कोपपावकः । चण्डो, भूरिप्रत्युत्तरेन्धनः ॥ २७२ ॥ स दग्ध्वा ज्वलितः क्षिप्रं रत्नत्रितय काननम् । विवधाति महातपं संसारांगार संचयैः ।।२७३ ।। जायमानः कषायाग्निः, शमनोयो मनीषिणा । इच्छा मिथ्या तथाकारप्रणिपातादि वारिभिः ।।२७४ ।। अब यहाँपर क्रोधरूप अग्नि कब कैसे प्रज्ज्वलित होती है एवं बढ़ती है इसको खोटे वचन सहन नहीं होनेरूप वायुसे जो प्रेरित हुई है ऐसी क्रोधरूपी प्रचंड अग्नि सहसा उत्पन्न हो जाया करती है और वह अग्नि प्रत्युत्तर रूपी बड़े भारी ईन्धन द्वारा भयंकर रूप धारण करती है || २७२ ॥ विशेषार्थ - - यहाँ पर साधु आचार्य आदिके क्रोध कैसे उत्पन्न होता है किस कारण बढ़ता है इसको बतलाया है, शिष्यकी अयोग्य प्रवृत्ति रोकनेके लिये गुरु उपदेश देते हैं, परन्तु शिष्य जब प्रतिकूल वचन बोलता है तब गुरुको वह सहन नहीं होता, यह सहन नहीं होना ही एक तरह की बायु है, इससे गुरुके मनमें कोप अग्नि प्रज्ज्वलित होती है, गुरु पुनः शिष्य को समझानेका प्रयत्न करता है, शिष्य उत्तर प्रत्युत्तर करता है उससे कोपाग्नि बढ़ती है । अथवा गुरुके कठोर आज्ञा परक वचन शिष्यको सहन नहीं होनेसे उसके कोप उत्पन्न होता है । इस प्रकार कोप रूपी अग्निके प्रगट होनेपर उससे रत्नत्रयरूपी वन शीघ्रतया जलकर भस्मसात् हो जाता है । उससे संसार रूपी अंगारोंका समूह महा भयंकर संताप को करता है || २७३॥ इसप्रकार की कोपाग्निको कैसे शांत करें ! इसका उपाय बताते हैंजब क्रोधाग्नि उत्पन्न होती है तब उसे बुद्धिमानको इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार नमस्कार रूपी श्रेष्ठ जल द्वारा शान्त करना चाहिये || २७४ || भावार्थ - शिष्य द्वारा गुरुको क्रोध उत्पन्न हो जाय तो उसका उपाय यहाँ बताया है - हे गुरुदेव ! आपके शिक्षा बचनको मैं अब चाहता हूँ, इसप्रकार शिष्यके नम्र वचन इच्छाकार कहलाता है । हे पूज्य ! मैंने आपको प्रतिकूल वचन सुनाया प्रत्युत्तर दिया अथवा पहले जो अपराध किया है वह दोष मिथ्या हो इसप्रकार कहना Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार संलिख्यं गौरवं संज्ञा नोकषाया महाभटाः । समस्ता निविता लेश्या समाधानं यता सता ॥२७५।। धितायग्रहः साधु प्रकटास्थिसिरादिकः । तनकृतसमस्तांगो भवत्यध्यात्मनिष्ठितः ॥२७६।। बाह्यामाभ्यन्तरौं कृत्वा योगी सहलेखनामिति । संसारत्यजनाकांक्षी प्रकृष्टं कुरुते तपः ॥२७७।। ___ इति सल्लेखना सूत्रम् । मिथ्याकार है । भो भगवन् ! प्रसन्न होवो, मैं आपको नमरकार करता हूँ इत्यादि रूप वचन कहना, आपकी शिक्षा बिलकुल सत्य है इत्यादि रूप कहना तथा कार कहलाता है । समाधान-शान्तभावमें यत्नशील सज्जन द्वारा कषायोंके समान गारव, संज्ञा तथा नौ नोकषाय रूपी महासुभट भी कृश करने चाहिये, समस्त अशुभ, कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंको निन्दित करना चाहिये अर्थात् छोड़ देना चाहिये ।।२७५।। विशेषार्थ-गौरव या गारव तीन हैं-ऋद्धि गारव, रस गारव, सातागारव । अपने ऋद्धिका गर्व करना ऋद्धि गारव है। सरस भोजन प्राप्ति का मान करना रस गारव है और अपने सुखिया जीवनका मद करना साता गारव है । संज्ञाय आहार, भय मैथुन और परिग्रह रूप चार हैं । संजाका अर्थ यहाँपर वांच्छा लिया है आहारको वांच्छा आहार संज्ञा है ऐसे अन्य तीन संज्ञाके विषयमें लगाना । नोकषाय नौ हैंहास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद । ये सब महासुभट सदृश हैं क्योंकि इन पर विजय पाना अत्यन्त कठिन है। किन्तु मोक्षके इच्छुक जन इनपर परम उपशम भाव द्वारा विजय प्राप्त कर लेते हैं । जिसने अपने अवग्रह-यम नियमोंको वृद्धिंगत किया है समस्त शरीर कृश होनेसे नसा, जाल और अस्थियाँ जिनकी साफ-साफ दिखायी दे रही हैं ऐसे अंग उपांगों को कृश करनेवाला साधु अपने आत्मामें निष्ठ हो जाता है ।।२७६।। बाह्य सल्लेखना-शरीर कृश करना और अभ्यन्तर सल्लेखना-कषाय कृश करना इन दोनों सल्लेखनाको करके संसारका त्याग अर्थात् परि भ्रमणको छोड़ने के इच्छुक योगी प्रकृष्ट तपको करता है ।।२७७]। ॥ इति सल्लेखना सूत्र समाप्त ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] मरणकण्डिका न शक्नोम्य शुचि त्याज्यमिदं वोढु महत्क्षयि । विचिन्त्येति वपु स्त्यक्तु गणं पाति कृतक्रियः ॥२७८।। अपि संन्यस्यता चित्यं हितं संघाय सूरिणा । परोपकारिता सद्भिः प्राणान्तेऽपि न मुच्यते ।।२७६।। विज्ञाय काल माहूय समस्तंगणमात्मना । पालोच्य सदृशं भिक्ष समर्थ गणधारणे ॥२८॥ प्रदेशे पावनीमूते चारुलग्नादिके दिने । गणं निक्षिपते तत्र स्वल्पां कृत्वा कथां सुधीः ।।२८१।। - - - - दिशा नामका बारहवां अधिकार-समाधिके अवसरको प्राप्त हुए आचार्य ( अथवा साधु ) ऐसा विचार करते हैं कि यह शरीर मल मूत्र रूप अशुचि है, नष्ट होनेवाला है, त्याज्य है अब मैं इस शरीरको धारण करने में समर्थ नहीं हूँ। इस तरह शरोरत्याग का विचार करके जिसने समाधिको सामग्रीको प्राप्त किया है ऐसा वह साधू अपने संघके शिष्योंके निकट जाता है ।।२७८।। - सल्लेखमा करनेके इच्छुक आचार्यको संघके हितका विचार करना चाहिये अर्थात मेरे जाने के बाद मुनि आर्यिका आदि चतुर्विध संघका अहित न हो जाय, संघस्थ साधुओंका रत्नत्रय धर्म सुरक्षित रहे इस बातका विचार आचार्य परमेष्ठी समाधिमरण धारण करते समय करते हैं । ठीक ही है सज्जन महापुरुष प्राणान्त में भी परोपकार नहीं छोड़ते हैं ।।२७९।। समाधिकालको ज्ञात करके आचार्य अपने संघको बुलाते हैं तथा संघ धारण करने में समर्थ अपने सदृश साधुको देखते हैं-सोचते हैं ।।२८०।। पवित्र क्षेत्रमें वार तिथि नक्षत्र लग्न दिन आदि सोम्य हो उस दिन योग्य शिष्य पर अपना संघ समर्पित करते हैं अर्थात् मवीन आचार्य बनाते हैं। तथा उक्त नबोन आचार्य को एवं शिष्योंको थोड़े शब्दों में समझाते हैं ।।२८१॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहलेखनादि अधिकार उक्त च-क्षेपक:ज्ञान विज्ञान संपन्नः स्वगुरोरभिसंमतः । विनीतोधर्मशोलश्च यः सोऽहंति गुरोः पर्व ॥१॥ अविच्छेदाय तीर्थस्य, तं विज्ञाय गुणाकरं । अनुजानाति संबोध्य विगयं भवतामिति ॥२८२॥ इति विक सूत्रम् सकलं गण मामन्त्र कृरवा गणि निवेशनं । स त्रिधा क्षमयत्येवं बाल वृद्धाकुलं गणं ॥२३॥ यदीर्घकाल संवासममत्व स्तेन रागतः । अप्रिय भरिणतं किंचित्तत्सर्वक्षमयामि वः ॥२४॥ आचार्य पदके योग्य कौन है यह क्षेपक [मूलारा० दर्पणसे उद्धृत] कारिका द्वारा बताते हैं- जो ज्ञान विज्ञान संपन्न है, अपने गुरुका मान्य है, विनीत, रत्नत्रय धर्मका पालक है वह शिष्य आचार्य पदके योग्य है ।।१॥ रत्नत्रय धर्मरूप तीर्थका नाश न हो वह सदा प्रवर्तित रहे इस हेतुसे गुणोंके आकर स्वरूप नूतन-आचार्यको संबोधन करते हैं कि तुमको अब संघका अनुग्रह इसप्रकार करना चाहिये इत्यादि उस बाल आचार्यको दिशाबोध देना ही दिक् या दिशा कहलाती है अर्थात् नूतन आचार्यको पुराने भूतपूर्व आचार्य जो शिक्षा-उपदेश दिशा बोध देते हैं उसका वर्णन इस "दिशा" नामा बारहवें अधिकारमें होता है, और इसीलिये इसका दिक्-दिशा यह नाम है ।।२८२।। क्षमण नामका तेरहवां सूत्राधिकार--- ___ सकल गणको बुलाकर उसमें नूतन प्राचार्यको स्थापन कर वह भूतपूर्व आचार्य मन वचन कायसे बाल वृद्ध साधु युक्त संध से क्षमा मांगते हैं ।।२८३।। हे संघस्थ साधुगण ! इस संघमें दीर्घकालसे रहते हुए ममता, स्नेह और रागके कारण आप लोगोंको जो कुछ अप्रिय कहा है उस कठोर वचन की मैं क्षमा मांगता हूं ।।२८४॥ अपने आचार्य द्वारा इस तरह क्षमा मांगने पर संघको क्या करना चाहिये यह बताते हैं-~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] मरणाकण्डिका प्रणम्य पतितः संघस्त्रातारं वत्सलं यतिम् । धर्माचार्य निजं सर्वं सम्यक् क्षमयति त्रिधा ॥२८॥ स सूत्रार्थ रहस्यज्ञः स्वार्थ निष्ठोऽपि यत्नतः । संविग्नश्चितयत्येवं गणं धोरो जिनाज्ञया ॥२८६।। गंभीरां मधुरां स्निग्धां ग्राह्यामानंददायिनी। अनुशिष्टि ददात्येवं स गणस्य गणेशिनः ॥२८७॥ रत्नत्रये विधातव्यं, वर्तमान प्रवर्तनम् । फल्पाकल्प प्रवृत्तानां, सर्वेषामागमिष्यति ॥२८॥ रत्नत्रय धर्म आदिके रक्षक, वात्सल्यको मानो साक्षात् मत्ति ही हैं ऐसे धर्माचार्य यतिको नमस्कार कर चरणोंमें झुककर समस्त संघस्थ साधुजन अपने सर्व अपराधोंके प्रति भलीप्रकारसे मन वचन काय द्वारा क्षमा मांगते हैं ॥२८५।। इसप्रकार संघद्वारा क्षमा याचना होनेपर पूर्व आचार्यका कार्य क्या है ? सो बतलाते हैं सूत्रार्थ और रहस्य ग्रन्थके ज्ञाता अर्थात् आगम-सिद्धांत के अर्थ करनेमें निपुण तथा प्रायश्चित्त ग्रन्थके विद्वान् पूर्व आचार्य यद्यपि अब अपना स्वार्थ जो समाधि है उसमें निष्ठ हो चुके हैं तो भी संसारसे भययुक्त धीर ऐसे वे गणको चिंता करते हैं और उन्हें संबोधित करते हैं ॥२८६।। उनका संबोधन अर्थात् उपदेश वचन कैसा रहता है यह बताते हैं जो वचन गंभीर अर्थात् सारभूत है, मधुर है, स्नेह भरा है, ग्राह्य है और आनन्ददायक है ऐसे वचन संघ और नूतन आचार्यको कहकर इसतरह शिक्षा देते हैं कि ।।२८७।। कल्प योग्य अकल्प अयोग्य वस्तुओंमें यथायोग्य प्रवृत्ति करने वाले आप सभी को अब आगामी कालमें अनुष्ठेय ऐसे रत्नत्रय मार्ग में वृद्धिकारक प्रवर्तन करना चाहिये जिससे रत्नत्रय बढ़े वैसा करना चाहिये ।।२८८।। जो नवीन आचार्य हैं उनको शिक्षा वचन कहते हैं Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार संक्षिपृहादितोऽम्भोधि गच्छन्तीव महानी । विस्तरन्ती विधातागुणशील प्रवर्तना ॥२८॥ मा स्मकार्षी विहारं त्वं, मार्जारसितोपमम् । मा नोनशो गणं स्वं च, कवाचन कथंचन ।।२६०।। विध्यापयति यो वेश्म, नात्मीयमलसत्वतः । परमेश्मशमे तत्र, प्रतीतिः क्रियते कथम् ॥२६॥ जिसप्रकार नदी उद्गम स्थान में अल्प प्रमाण उत्पन्न होती है और सागरके तरफ जाती हुई महाप्रमाण होती है उसीप्रकार आपको भी प्रारम्भ में अल्प प्रमाणसे गुण, व्रत, शीलादि धारण कर उत्तरोत्तर उन प्रतादिमें बढ़ती हुई प्रवृत्ति करनी चाहिये अर्थात् अहिंसादि व्रत एवं शील आदि आगे आगे वृद्धिंगत हो ऐसा करना चाहिये ॥२८९॥ जैसे मार्जारका शब्द पहले प्रथम बड़ा और अन्त में अल्प रहता है वैसा तुम कदापि किसी तरह भी आचरण नहीं करना न संघसे कराना, ऐसा आचरण करके कभी भी अपना और संघका नाश नहीं करना अर्थात् प्रारम्भमें दुर्धर अति कठोर तप नियममें प्रवृत्ति करना और पीछे मंद आचरण (तप आदिमें प्रवृत्त ही नहीं होना उसमें अश्रद्धा हो जाना इत्यादि) करने लग जाना, ऐसा नहीं होना चाहिये तथा सर्वथा कठोर तप आदि आचरणसे अपना और संघका नाश नहीं करना ।।२९०॥ भावार्थ--सर्वदा कठोर आचरण करनेसे अकालमें समाधि या तीव्र रोगादि को संभावना हो जाती है अथवा पहलेसे अति कठोर तपश्चरण करनेसे आगे उनमें शिथिलता आकर वह उन चारित्र अंतमें मंद-मंद हो जाता है अथवा श्रद्धा घट जाती है । अतः प्रारम्भ में अल्प तप आदिसे प्रवृत्ति करना चाहिये जिससे आगे आगे श्रद्धा भावना बढ़े । जो आलसके कारण जलते हुए अपने घरको हो नहीं बुझाता उसमें कैसे विश्वास करें कि यह व्यक्ति जलते हुए पराये घरको बुझा देगा ! यहाँ भाव यह समझना कि जो साधु अपने प्रतोंको सुरक्षित नहीं रखेगा वह अन्यके व्रतोंको कैसे सुरक्षित रखेगा ? नहीं रख सकता ।।२९१।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] मरण कण्डिका 'चच्यवन कल्पं स्वं विरोधं स्वान्यपक्षयोः । असमाधिकरं वादं कषायानग्नि सन्निभान् ॥ २६२ ॥ | श्रुतसारेषु स्त्रिषु । न सः ॥ २६३ ॥ दर्शने चरणे ज्ञाने, निधातु गणमात्मानमसमर्थो गणी दर्शने चरणे ज्ञाने श्रुतसारेषु य स्त्रिषु । निधातु गणमात्मानं शक्तोऽसौगदितो गणी ॥ २६४ ॥ यः पिण्डमुपध शय्यां दूषणैरुद्गमादिभिः । गृहीते रहितां योगी संयतः स निगद्यते ॥२६५॥ समये गणोमर्यादा तेषामाचारचारिणाम् । स्वच्छंदेन प्रवर्तेत लोक सौख्यानुसारिणा ॥ २६६ ॥ नवीन प्राचार्य को समझा रहे हैं कि हे साधो ! व्रतोंसे च्युति करानेवाले अतिचारोंको तुम छोड़ देना | स्वपक्ष और परपक्ष में अर्थात् जैन धर्मी और विधर्मी इनमें विरोध हो ऐसा कार्य नहीं करना । अग्नि के समान अन्तर्बाह्यको जलाने वालो Territt छोड़ो और शांतिका भंग करनेवाला वाद-विवाद छोड़ो || २६२ ॥ आगम में सारभूत ऐसे सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रमें अपनेको और संघको जो स्थिर नहीं करता, अर्थात् रत्नत्रय धर्म में स्वपरको स्थापित करने में जो असमर्थ है यह आचार्य नहीं है—आचार्य पदके योग्य नहीं है ।। २६३ ॥ तो फिर कैसा आचार्य होता है ऐसा प्रश्न होनेपर बताते हैं श्रुतके सारभूत ऐसे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन तीनोंमें अपनेको और संघको स्थापित करने में जो समर्थ है वह आचार्य है- आचार्य पदके योग्य है ।। २९४ ।। जो साधु प्रहार, उपकरण और वसतिको उद्गम आदि छियालीस दोषोंसे रहित ग्रहण करता है जिस आहार आदिमें उक्त दोष होवे तो ग्रहण नहीं करता वह योगी संयत कहलाता है ।। २६५ ।। ज्ञानाचार आदि पंचाचारोंका जो पालन करते हैं उन आचार्योंकी मर्यादा आगम में पूर्वोक्त कही वैसी है, जो लौकिकसुखकी प्राप्ति जैसे हो वैसे स्वच्छन्द - मनचाहा प्रवर्तन करता है उसके वह मर्यादा नहीं है अर्थात् लौकिक सुखमें आसक्त मुनि आचार्य पदके योग्य नहीं है ।। २९६ || Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार [ ९३ ममत्व कुरुते हित्वा यो राज्यं नगरं कुलम् । तस्य, संयमहीनस्य केवलं लिंगधारणम् ॥२६७।। एवं संयम शैथिल्येवोषानुद्धाव्य गणिनं गणरक्षायां नियुक्त - त्वं कार्येष्वपरिस्रावी समदर्यखिलेष्वपि । भूत्त्वा विधानतो रक्ष बालवृद्धाकुलं गणम् । २६८।। प्रवज्प संयमध्वंसि दूराजमपराजकम् । न क्षेत्रमात्मनोनेन सेवनोयं कदाचन ॥२६॥ मावश्यके कृथा जातुप्रमादं वृत्तवर्धके ।। विज्ञाय दुर्लभां बोधि निःसारेमानुषे भवे ॥३०॥ भावार्थ-जो मुनि स्वयं पंचाचारोंका निर्दोषपालक है, लौकिकसुख में आसक्त नहीं है वह आचार्य बन सकता है अन्यथा नहीं । क्योंकि जो शिथिल आचार वाला है वह अन्य साधुओंको निर्दोष चारित्र पालन नहीं करा सकता । लौकिक सुखगृहस्थ जसा यथेष्ट भोजन करना, मृदुशय्या पर शयन, सुन्दर घरमें निवास इत्यादि में जो आसक्त है वह आचार्य पदके योग्य कदापि नहीं है । जो पूर्व में राज्य, नगर एवं कुलको छोड़कर त्यागकर दीक्षित हुआ है और पुनः उन्हीं नगरादिमें यह मेरा है, इत्यादि रूप ममत्व करता है वह संयमरहित है उसका मुनि बनना तो केवल वेष धारण करना है ।।२६७।। ___ इसप्रकार पुराने आचार्य नवीन आचार्यको चारित्रमें शिथिल होनेसे लगने. वाले दोषों को दिखाकर उन्हें संघरक्षामें नियुक्त करते हैं हे बालाचार्य ! यह गुरु अपरिस्रावो है ऐसा समझकर शिष्यगण तुम्हें अपना अपराध कहें तो उसको प्रगट मत करना । तुम सब कार्यों में समदर्शी होवो । बालबद्ध साधओंसे पूर्ण ऐसे संघकी तुम विधान पूर्वक रक्षा करना ॥२९८।। जिस क्षेत्रमें दीक्षा लेनेवाले न हो, संयमका नाश होता हो जिसमें दुष्ट राजा हो अथवा जो देश राजा रहित हो उस क्षेत्रमें हे आचार्य ! तुम कभी भी नहीं रहना ।।२९९।। ___ संघस्थ साधुको शिक्षा देते हैं-भो मुनिगण ! चारित्रवर्द्धक ऐसे आवश्यकमें कभी भी प्रमाद नहीं करना, इस निःसार मनुष्य भवमें रत्नत्रय स्वरूप बोधिको दुर्लभ जानकर संयममें जागृत रहना ।।३००। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] मरणकण्डिका संज्ञा गौरव रौद्रातं ध्यान कोपाषि वर्जिताः । समिता: पंचभा दिगतका ३०१॥ est दन्तिनो दुष्टान्विषयारण्य गामिनः t जिनवाक्यां कुशेनाशु वशे कुरुत यत्नतः ॥ ३०२ ॥ धन्यास्ते मानवा लोके मन्ये ये विषयाकुले । विचरंति तथाश्चतुरंगे निराकुलाः ||३०३ || विनीता गुरुशुश्रूषाकारिणश्चैस्य भक्तयः 1 वत्सला भवतध्याने, स्वाध्यायोधत चेतसः ||३०४ ॥ मास्म धर्मधुरं त्याक्षुरभिभूताः दुःसहै: कण्टकैस्तीक्ष्णं, प्रमियक परीषहः । वचोमयंः ॥ ३०५ ॥ सभी साधुयोंको आहार भय मैथुन परिग्रह इन चार संज्ञाओंसे रहित तीन गौरवोंसे एवं आर्त रौद्रध्यान तथा क्रोधादिसे रहित होना चाहिये । आप लोगोंको हमेशा ही तीन गुप्तियोंसे गुप्त और पंच समितियों युक्त होना चाहिये || ३०१ || हे साधुजन ! आप लोग प्रयत्नपूर्वक इन्द्रिय रूपी दुष्ट हाथी जो कि विषयरूपी वनमें घूमना चाहते हैं उन्हें जिनेन्द्रके वचनरूपी अंकुश द्वारा वश में करें ||३०२ ॥ पंचेन्द्रियोंके रूप शब्द आदि विषयोंसे संकुल इस जगत् में परिग्रहका त्याग करनेवाले साधुजन चार आराधनाओं में निराकुल होकर प्रवृत्ति करते हैं वे ही मानव धन्य हैं ऐसा मैं मानता हूँ ।। ३०३ || आप सभी साधुजन हमेशा अपनेसे रत्नत्रयधर्म अथवा दीक्षामें बड़े गुरुजनोंकी शुश्रूषा करनेवाले होवो | सदा जिनप्रतिमाओं की वंदना स्तुति भक्ति नमस्कार आदिमें उद्यत रहो। ध्यान में अनुराग करो अर्थात् प्रसन्न मनसे ध्यानका अभ्यास करो | स्वाध्यायमें मनको लगाओ ||३०४ ।। भो मुनिगण ! दुःसह परोषह द्वारा तीक्ष्ण कण्टक एवं ग्रामीण लोगों के कठोर वचनों द्वारा पीड़ित होकर घबराकर धर्मधुराको छोड़ नहीं देना || ३०५ ।। आबा सपश्चरण के लिये संघको प्रेरित करते हैं--जो तीर्थंकर प्रभु देवेन्द्र द्वारा गर्भकाल से पूजित होते हैं । दीक्षा लेते ही जिन्हें चार ज्ञान होते हैं अर्थात् गर्भसे Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार [ ९५ ध्र वसिद्धिश्चतु नस्तीर्थकृत त्रिदशाचितः । प्रनिगुह्य बलं वीर्यमुद्यतः कुरुते तपः ॥३०६॥ मुमुक्षूणां किमन्येषां, दुःखक्षपणकांक्षिणाम् । न फर्तव्यं तपो घोर, प्रत्यवायाकुले जने ॥३०७॥ शक्तितो भक्तितः संघ, वात्सलास्ते चतुर्विधे । वैयावृत्यकराः शचस्जिनाज्ञानिर्जराथिनः ॥३०८।। उपधीनां निषधायाः शय्यायाः प्रतिलेखनम् । उपकारोऽन्नभैषज्य मल त्यागादिगोचरः ॥३०६।। मार्गे घोरापगा राजदुभिक्ष मरकादिषु । वैयावृत्यं विधातव्यं, सरक्षासंग्रहं सदा ॥१०॥ मतिज्ञान श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान रहते हैं और संयमके धारते ही चौथा मनःपर्ययज्ञान प्रगट होता है ऐसा महापुरुष भो बल और वीर्य बिना छिपाये तपको उद्यमशील होकर करते हैं ।।३०६।। तो फिर दुःखोंका क्षय करनेके इच्छुक अन्य मुमुक्षु जनोंको बात ही क्या है ? विघ्नोंसे भरे हुए इस लोकमें सामान्य मुनियोंको क्यों तप नहीं करना चाहिये ? अवश्य ही करना चाहिये । अर्थ यह है कि नियमसे जिनको मुक्ति होती है ऐसे तीर्थकर देव भी जब तप करते हैं तब अन्य मुनिजनोंको तो वह तप अवश्य करने योग्य है ।।३०७॥ बालवृद्ध मुनियोंसे युक्त इस चतुर्विध संघमें हे मुनिराजों ! तुम सदा शक्ति और भक्तिसे वैयावृत्य करनेवाले बनो । यह वयावृत्य तप निर्जराका कारण है अत: जिनेन्द्र देवको आज्ञाका पालन और कर्म निर्जराको सिद्धि के लिये आप वात्सल्य युक्त हो सतत वैयावृत्य करना ।।३०८।। वैयावृत्य करनेको विधि आदिको बतलाते हैं---उपधि-पोछी कमंडलु, बैठने के स्थान आसन आदि, शय्या घास पट्ट इन सबका शोधन करके परस्पर साधुजनों में उपकार करना चाहिये । तथा उन मुनिश्वरोंको आहारको व्यवस्था रोगी मुनिके औषधको व्यवस्था, शौचादि सम्बन्धी व्यवस्था करना वेयावृत्य है ।।३०९।।। _ विहार करते समय मार्गमें चौर द्वारा, नदीके निमित्त से, तथा राजा, दुमिक्ष इत्यादि कारणोंसे वतियोंको पीड़ा कष्ट होनेपर सदा ही वैयावृत्य करना योग्य है अर्थात् उनकी रक्षा करना उन्हें आश्रय देना चाहिये ।।३१०॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरकांण्डका समर्पो न विषले यो, यावृत्त्यं जिनाज्ञया । प्रप्रच्छाद्य बल बीर्यमतो निधर्मक सकः ॥३११॥ आज्ञाकोपो जिनेन्द्राणां, श्रुतधर्मविराधना । अनाचारः कृतस्तेन, स्वपरागमवर्जनम् ॥३१२।। विशेषार्थ-मुनिराजोंके बैठनेके स्थान, उपकरण आदिका शोधन करना, मुनि के योग्य निर्दोष आहार औषधिसे उपकार करना, अशक्त रोगो मुनिका मल उठाना, साफ करना, धर्मका उपदेश देकर उनके परिणाम धर्ममें स्थिर करना, चलकर आनेपर परोंका दबाना, चौरसे, राजासे, नदीसे इत्यादि कारणोंसे उपद्रव आनेपर उन उपद्रवोंको विद्या आदिके बलसे दूर करना । दुभिक्ष देश से मुनिको सुभिक्ष देश में पहुंचा देना जिससे उन्हें आहार में बाधा नहीं आवे । पीडित मुनिको आप डरो मत ! हम सब आपके हैं इत्यादि प्रकारसे सांत्वना देना, सेवा करना, ऐसा उपदेश समाधिके इच्छुक आचार्य संघस्थ साधुओंको देते हैं । बैयाबृत्य नहीं करनेसे आने वाले दोष बताते हैं अपने बलवीर्यको न छिपाकर जिनेन्द्रकी आज्ञासे समर्थ होकर भी जो साधु तप नहीं करता है उससे अन्य कौन अधार्मिक हो सकता है ? ॥३१॥ जो येयावृत्य नहीं करता उसके इतने दोष प्राप्त होते हैं—जिनेन्द्र की आज्ञा का उल्लंघन, श्रुतमें कहे हुए धर्मका नाश, अनाचार और अपना परका और आगमका त्याग ||३१२।। विशेषार्थ-वैयावृत्य करना चाहिये ऐसी जिनेन्द्रको आज्ञा है अतः जो वैयावृत्य नहीं करता है उसको आज्ञा भंग नामका दूषण आता है वैयावृत्य करनेवाले नहीं होंगे तो मुनिजन मुनिधर्मका पालन नहीं कर सकते, इसतरह शास्त्रोक्त धर्मको विराधना होती है । धेयावृत्य रूप तप आचार बताया है जिसने इस कार्यको नहीं किया उसके अनाचार दोष भी हुआ । वैयावत्य नहीं किया जाय तो अपना तप नष्ट हा क्योंकि वयावृत्य तप ही है, उसको नहीं करनेसे संकटग्रस्त रोगी मुनिका त्याग ही हआ समझना चाहिये । आगममें वैयावृत्य करने की आज्ञा है उसको हमने नहीं किया अतः आगमका भी त्याग हुआ इसतरह अनेक दोष वैयावृत्य नहीं करनेसे आया करते हैं । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार [ ९७ गधे-गुणपरिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्रलाभ, संधान, तपःपूजा, तीर्थाविपिछत्ति, समाधि, जिनाज्ञा, संग्रम साहाय्य, दान, निधिचिकित्सा, प्रभावना, संघकार्याणि, वैयावृत्यगुणाः । . बहते सकलो लोको, महता मोहवलिना । धाधगित्येष कुर्वाणो, महावेदनया स्फुटम् ॥३१३॥ तत्र विध्यापिते सद्यो, मूयसा ज्ञानपाथसा । मग्ना वमपयोराशौ, सुखायंते तपोधनाः ॥३१४॥ निगृहीसेन्द्रियतारः सर्वचेष्टासमाहितः । धन्येस्तपः समोरेण धूयन्ते कर्मरेणवः ॥३१॥ इस्यं गुणपरीणामो, विद्यते यस्य निश्चितः । साधूनां भव्यबन्धूनां, वैयावृत्यं तनोतियः ॥३१६॥ वयावृत्यके अठारह गुण बताते हैं-गुणपरिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य, भक्ति, पात्र लाभ, संधान, तप, पूजा, तीर्थ अविच्छित्ति, समाधि, जिनाज्ञा, संयमसहाय, दान, निर्विचित्किसा, प्रभावना और संघकार्य ।. इनमें से गुणपरिणामको कहते हैं यह सम्पूर्ण विश्व धग धग करता हुआ महावेदनासे प्रगट हुई बड़ी भारी मोहरूपी अग्निद्वारा जल रहा है ।।३१३।। उस मोहरूपी अग्निको विशाल ज्ञानरूपी जल द्वारा तत्काल बुझा देनेपर दमइन्द्रियदमन रूपी महासागर में मग्न हुए तपोधन साधु सुखी हो जाते हैं ।।३१४।। ___ सब चेष्टायें जिनमें समाहित हैं ऐसे इन्द्रिय द्वारोंको रोकने वाले अन्य पुरुषों द्वारा तपरूपी वायुसे कर्मधूलि उड़ायी जाती है ।।३१५।। इसप्रकारके गुणके परिणाम उसके नियमसे होते हैं जो भव्यजीवोंके बंधुस्वरूप साधुजनोंको बयावृत्य करता है ॥३१६।। जैसे जैसे रात दिन साधुका गुण परिणाम बढ़ता है वैसे वैसे जिनेन्द्रदेवके शासनमें उत्कृष्ट श्रद्धा वृद्धिंगत होती है ।।३१७।। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका यथा यथाऽनिशं साधोवर्धते गुणवासना । जिनेशशासने श्रद्धा, परोदेति तथा तथा ॥३१७॥ विनागुणपरीणामं वयावत्यं करोति नो। यतस्ततो मुमुक्षणां, यावृत्यं व्यनक्ति सः ॥३१॥ प्रवद्धधर्मसंवेगः, श्रद्धया वर्धमानया । यतिः करोति वात्सल्यं, लोकद्वयसुखप्रयम् ।।३१६।। भक्तिरर्हत्सु सिद्धषु, धर्मसूरिष साधुषु । वैयावत्यकृतोत्कृष्टा, पूजा भवति सेविता ॥३२०॥ प्रहबूक्तिः परा यस्य, विभीते भवतो न सः । येनावमाहिता गंगा, स किं नश्यति वलितः ॥३२॥ श्रद्धाके बढ़नेपर सम्यक्त्वका वात्सल्य गुण होता है ऐसा कहते हैं जिस कारणसे गुणपरिणामके बिना मुमुक्षुओंके वैयावृत्यको नहीं करता उस कारणसे गुणपरिणाम वैयावृत्यको व्यक्त करता है ऐसा समझना चाहिये। बढ़ती हुई श्रद्धाके द्वारा वृद्धिंगत हुआ है संवेगभाव जिसके ऐसा साधु इस लोक और परलोक में सुखदायक ऐसे वात्सल्यको करता है ।।३१८॥३१९।। भावार्थ---यह विश्व मोह अग्निसे जल रहा है, दुःखी हो रहा है । उसका यह मोह संताप ज्ञानरूप जल द्वारा ही नष्ट हो सकता है इत्यादि रूप परिणाम गुण परिणाम कहलाते हैं । भक्ति --- जिसने वैयावृत्य किया है समझना चाहिये कि उसने समस्त अर्हन्त परमेष्ठी, सिद्ध परमेष्ठी तथा साधु परमेष्ठी इन सबमें परमोत्कृष्ट भक्ति की है उनकी पूजा की है ।।३२०।। जिस पुरुषके उत्कृष्ट जिनेन्द्रप्रभुकी भक्ति विद्यमान है उसको संसारका भय नहीं होता, अथवा जो जिनदेवकी भक्ति करता है उसका संसारभ्रमण नष्ट हो जाता है जिसने गंगानदीमें अवगाहन किया है क्या वह अग्निसंतापसे छूट नहीं जाता ? अवश्य छूटता है ।।३२१॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार संसार भोरतोत्पन्ना, निःशल्या मंदराचला । जिनभक्ति डा यस्य, नास्तितस्य भवाबूयं ॥३२२॥ निःकषायो यतिन्तिः पात्रभूतो गुरपाकरः । महावतधरो धीरो, लभते श्रुतसागरम् ॥३२३॥ दर्शनज्ञानचारित्र, संधानं क्रियते यतः । रत्नत्रयात्मके मार्ग, स्थाप्येते स्वपरौ ततः ॥३२४॥ जिस पुरुषके संसारके संवेगसे उत्पन्न हुई तथा माया आदि निदान से रहित मंदर मेरुवत् निश्चल ऐसी अर्हन्तको दृढ़ भक्ति मौजूद है उसके संसारभ्रमणके भयका अस्तित्व नहीं है अर्थात् भक्ति करनेवाला सम्यक्त्वो शीघ्र ही मुक्त हो जाता है ॥३२२॥ पात्र लाभ नामके गुणको कहते हैं कषाय रहित इन्द्रियको वश करनेवाला गुणोंका आकर महाव्रतधारी धोर ऐसा मुनि पात्रभूत हुआ श्रुतसागरको प्राप्त करता है ।।३२३॥ भावार्थ-पात्र लाभ एक वयावृत्यका गुण है इसके दो अर्थ संभव हैं एक तो जो वैयावृत्य करता है वह स्वयं पात्रभूत होता है अर्थात् जैसे पात्र अनेक वस्तुओंके रखनेका आधार होता है वैसे ही वैयावृत्य-सेवा करनेवाला कषायोंका शमन, इन्द्रियोंका दमन, धैर्य शास्त्रोंमें पारंगतपना इत्यादि गुणोंका स्वय पात्र होता है ये गुण उसका आश्रय लेते हैं। दूसरा अर्थ यह है कि जो वैयावृत्य करता है उस साधुको कषायोंका शमन करनेवाला, इन्द्रियोंका दमन करनेवाला महान शास्त्रज्ञानी ऐसा अन्य विशिष्ट साधु प्राप्त होता है । इसप्रकार पात्रलाभ गुणका कथन समझना चाहिये । संघान गुण जिससे दर्शन ज्ञान चारित्रका संधान किया जाता है रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग में अपनेको और परको स्थापित किया जाता है उसकारण इस गुणको संघान यह नाम दिया है अर्थात् किसी कारणवश सम्यग्दर्शन आदि छिन्न हुए हों उन्हें पुनः अपने और परके आत्मामें जोड़ा जाता है उसको संधान कहते हैं ॥३२४।। भावार्थ-संघान जोड़को कहते हैं । जो चीज टूट जाती है उसे किसी उपायसे जोड़ा जाता है यहाँपर रोग आदिसे रत्नत्रयमें शिथिलता आकर वह आत्मासे टूट जाता Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] मरणकण्डिका वैयावृत्यं तपोऽन्तस्थं, कुर्वतानुत्तरं मुगा । धेदनाश्चापदापारा, भिचंते कर्मभूधराः ॥३२५॥ श्रेषा विशुद्धचितेन, कालत्रितपवर्तिनः । सर्वतीर्थकृतः सिद्धाः, साधयः संति पूजिताः ॥३२६॥ है तो वैयावृत्य द्वारा रोग दूर कर उस रोगग्रस्त साधुका रत्नत्रय पुनः जोड़ा जाता है अतः वैयावृत्यमें "संधान" नामका गुण निवास करता है । तपगृण हर्षपूर्वक वैयावृत्य नामके अभ्यन्तर तपको करनेवाले साधुके आपत्तिकी आधारभूत वेदना समाप्त होती है तथा कर्मरूपी पर्वत भी छिन्न भिन्न हो जाते हैं। अर्थात् रोगजन्य वेदना समाप्त होती है और कर्मोकी महान् निर्जरा होती है ।।३२५॥ भावार्थ-तपश्चरणसे कर्मनिर्जरा होती है, वैयावृत्य स्वयं एक अंतरंग तप है, इस तपसे दो लाभ हैं एक तो जिसकी वैयावत्य की उसकी रोग वेदना शांत होती है और दूसरा लाभ स्वयं की कर्मनिर्जरा होती है । अन्य उपवास आदि तपसे तो केवल अपने कर्मोंकी निर्जरारूप एक ही लाभ है किन्तु वैयावृत्य करनेसे स्वका तथा परका लाभ है यह इस गुणका तात्पर्य है । पूजागुण जिसने वैयावृत्य किया उसने विशुद्ध चित्तसे तीनकालके सभी तीर्थंकर सभी सिद्ध एवं साधु परमेष्ठीको अर्चना की ऐसा समझना चाहिये ।।३२६।। भावार्थ-वैयावत्य करना चाहिये ऐसी तीर्थकर देव आदिकी आज्ञा है और जो आज्ञाका पालन करना है वही उनकी अर्चना है। यदि आज्ञाका पालन तो न करे और पूजा आरती उतारे तो बह पूजा नहीं है । लोक व्यवहारमें भी देखा जाता है कि जो व्यक्ति माता-पिता गुरुजनको आज्ञाका उल्लंघन करता है और केवल नमस्कारादि करता है तो उसे वास्तव में गुरुजनोंका आदर करनेवाला नहीं मानते हैं। वैसे ही तीर्थकर प्रभुकी आज्ञाका पालन ही उनकी पूजन है । आज्ञापालनके बिना वह पूजन अर्चन अधूरी है या व्यर्थ है। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकाय सूरिधारणया संघः, सर्वो भवति धारितः । न साधुभिविना संघो, भूरहेरिव काननम् ।।३२७॥ साधुधारणया संघः सर्वो भवति पारितः । न साधुभिविना संघो भूरुहरिव काननम् ॥३२॥ एवं गुणपरीणाम प्रमुखविविधः परः । प्राप्यते वर्तमानेन, समाधिः सिद्धि शर्मणा ॥३२६।। तीर्थकी अव्युच्छित्ति नामका गुण धर्मतीर्थको प्रवृत्ति आचार्य आदिके वैयावृत्य से होती है उसमें आचार्य परमेष्ठी के वैयावृत्यका माहात्म्य बताते हैं आचार्यके धारण करनेसे सर्व संघ धारण किया ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि साधुओंके बिना संघ नहीं होता जैसे वृक्षोंके बिना वन नहीं होता है ।।३२७।। भावार्थ—साधु समुदाय संध कहलाता है और संघका आधार आचार्य है। आचार्यको वैयावृत्य करने से संघका संधारण हो जाता है ऐसा समझना चाहिये । उपाध्याय आदि अन्य नव प्रकारके साधुओंके वैयावृत्यका माहात्म्य बतलाते हैं -- साधुजनोंके संधारणसे सर्व संघका संधारण होता है, क्योंकि साधुओंके बिना संघ नहीं होता जैसे वृक्षोंके बिना वन नहीं होता ॥३२८।। भावार्थ-"न धर्मो धार्मिकविना" इस सूक्तिके अनुसार रत्नत्रय धर्म आचार्य आदि साधुजनों के आधारसे रहता है और रत्नत्रयधारी सदा बने रहना उनका अभाव नहीं होना यही तीर्थकी अव्युच्छित्ति है। आचार्य आदिको वैयावृत्य-सेवा करनेसे वे रत्नत्रयमें स्थिर होते हैं और उससे आगे आगे अन्य व्यक्ति भी दीक्षा शिक्षा द्वारा रत्नत्रय धर्म धारण करते जाते हैं उनको धारा टूटती नहीं। यदि वैयावृत्य न किया जाय तो पुराना साधु सम्यक्त्वादिसे च्युत होगा साथमें नया कोई धर्मधारण नहीं करेगा । अर्थात् साधू जीवनके कष्ट और कोई सहायक नहीं इत्यादि बातोंको देखकर दूसरा कोई नबोन साधु नहीं बन सकेगा। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] मरणकण्डिका जिनाज्ञा पालिता सर्वा, विजित्य गुणहारिणः । कृतं संयमसाहाय्यं कषायेन्द्रियवैरिणः ॥३३०॥ वनं सातिप्रायं दानमचिकित्सा च दशिता । संघस्य कुर्वता कायं, वाक्यं भावयताहताम् ॥३३१॥ समाधि गुण उपर्युक्त क्रमसे कहे गये गुण परिणाम आदि विविध प्रमुख नव गुणोंके द्वारा सिद्धि सुख में प्रवर्तन रूप समाधि प्राप्त होती है ॥३२९।। विशेषार्थ-गुण परिणाम, वात्सल्य, श्रद्धा, संधान, भक्ति, पात्र लाभ, तप, पूजा और तीर्थ अव्युच्छित्ति इन नौ गुणोंसे समाधिको सहज सिद्धि हो जाती है। समाधिका अर्थ एकाग्रता है सिद्धिके सुख में एकाग्रता अर्थात् मोक्षसुखको प्राप्त करने में तत्परता होना यह भी वैयावृत्यका एक गुण है । जो कारणमें आदर किया जाता है वह कार्यके आदरका ही सूचक है । कारणोंका संग्रह करनेसे इष्ट कार्य संपन्न होता है। जैसे घट कार्य करना है तो दण्ड, चक्र, चीयर मिट्टी आदिका संग्रह आवश्यक है वैसे ही गुण परिणाम, श्रद्धा, वात्सल्य आदिका संग्रह मोक्षसुखमें एकाग्रता (केवल मोक्षके सुखमें भाव होना अन्य सुखोंमें नहीं) रूप समाधि या धर्मध्यान शुक्लध्यानरूप समाधिमें कारण हैं । इसप्रकार वैयावृत्य करनेसे समाधिगुण प्राप्त होता है । जिनाज्ञा गुण तथा संयम साहाय्य गुण जो वैयावृत्य करता है वह गुणको नष्ट करनेवाले कषाय और इन्द्रिय रूपी वैरियोंको जीतकर सर्व ही जिनेन्द्र देवकी आज्ञाका पालन करता है तथा संयममें सहायता करता है ऐसा समझना चाहिये ।।३३०॥ भावार्थ-यावृत्य करनेवाला जिनाज्ञाफा पालक इसलिये है कि जिनदेवकी आज्ञा है कि साधु परस्परमें सेवा यात्र त्य करे । तथा जिसकी तैयावृत्य की उस मुनि के संयमकी रक्षा होती है अतः संयम सहाय्य गुण प्रगट होता है । दान, निविचिकित्सा, प्रभावना और संघकार्य नामके शेष गुण एक ही कारिका द्वारा कहते हैं--- Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार एवं गुणाकरी भूतं, वैयावत्यं करोति यः । चलते लोकानाम गोभकारणम् ॥३३२।। लभमानो गुणानेवं यावत्यपरायणः । स्वस्थः संपद्यते साधुः स्वाध्यायोग्रतमानसः ॥३३३॥ ___ जो नयाव त्य करता है वह सातिशय दान देता है उसके निबिचिकित्सा होती है, प्रभावना होती है । अर्हन्तदेवके वाक्यको हृदय में भावना करता हुआ संघका कार्य करता है, अर्थात् संघ सम्बन्धी सब कार्य उसने किये जिसने कि बयावृत्य की ||३३१।। भावार्थ-रत्नत्रयका दान सर्वश्रेष्ठ दान कहलाता है । रुग्ण साधुका वैयावृत्य करनेसे वह रत्नत्रयमें स्थिर होता है अत: वयावृत्य करनेवाला दान देने वाला है । रुग्ण साधुकी सेवा करते समय उसके शरीरका मल दूर करना, फोड़ा फुसो आदि हुए हों उसकी सफाई करना इत्यादि क्रिया ग्लानि दूर किये बिना संभव नहीं अतः जो वयावृत्य करता है वह निविचिकित्साको प्राप्त होता है । संघका प्रमुख कार्य साधुजनों का धर्मपालन है और वह वयावत्य करनेसे होता है अतः संघ कार्य नामका गुण भी इसीसे प्राप्त होता है। इसप्रकार संपूर्ण गुणोंकी खान स्वरूप वैयावृत्यको जो साधु करता है वह तीन लोकमें क्षोभ करनेवाले तीर्थकर नाम कर्मको प्राप्त करता है अर्थात् उसके तीर्थकर प्रकृतिका बंध होता है जिससे तीसरे भव में तीर्थंकर बन धर्म तीर्थका दिव्य देशना द्वारा प्रवत्तंन करता है ॥३३२॥ जो वैयावृत्य करता है वह उपर्युक्त अठारह गुणोंको प्राप्त करता है और जो केवल स्वाध्यायमें उद्यमशील है वह मात्र अपना कार्य करता है ।।३३३।। भावार्थ-वैयावृत्य करनेसे मक्ति, वात्सल्य, संवेग आदि गुण इसलिये प्राप्त होते हैं कि अन्य संघस्य साधु समुदाय रत्नत्रय धारण प्रतिपालन उसका संवद्धन आदि में समर्थ तब होता है जब उसे पीड़ा कष्ट न हो । पोड़ाको दूर करने से सब सहज हो जाता है । जो केवल अपना ही स्वाध्याय आदि कार्य करता है उस साधुके अठारह गुण प्राप्त नहीं होते । तथा उस साधुके ऊपर जब आपत्ति आयेगी तब बयावत्य करने Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ } गगणका त्याज्याऽऽयसंगति, गरवह्निज्वालेव तापिका । दुर्भीतेरिव नियायाः, दुष्कीति लभते ततः ।।३३४।। स्थावरस्य प्रमाणस्य, शास्त्रज्ञस्य तपस्विनः । आर्यिका संगतेः साधोरपवादो दुरुत्तरः ।।३३५॥ न कि यूनोऽल्पविद्यस्य, मंदं विवधतस्तपः । कुर्वाणस्यायिका संगं जायते जनजल्पमम् ॥३३६॥ वालेका मुख देखना पड़ेगा तथा कहना पड़ेगा कि मेरी अमुक विपत्ति दूर करो । पर की वैयावृत्य में परायण साधुके तो सभी स्वतः सेवा वैयावृत्य करनेमें तत्पर हो जाते हैं । आर्याजन संगति त्याग वर्णन -- साधुजनों को आर्यिका की संगति छोड़ देनी चाहिये, यह नायिकाकी संगति विष समान प्राण नाशक है, अग्निके ज्वाला समान संतापकारी है । दुर्नीति अर्थात् अन्याय से और निदासे जैसे अपयश होता है वैसे ही आर्यिकाकी संगति करने से मुनिजनों के अपयश होता है ||३३४ || विशेषार्थ -- जो साधु आर्थिक के साथ सहवास करता है उनका अनुसरण करता है वह अवश्यमेव लोक निन्दित होता है । पाप और अपकीर्ति से तो असंयमी और मिथ्यादृष्टि भी डरते हैं फिर मुनियोंका क्या कहना ? वे सब योग्यायोग्य जानते हैं अतः उन्हें आर्यिकाका संग सर्वथा त्याज्य है | जो साधु स्थविर (वृद्ध) है, प्रमाणभूत है, आर्यिका की संगति से दुस्तर अपवादको प्राप्त होता है ।। ३३५|| शास्त्रज्ञ और तपस्वी है तो भी जब वृद्ध शास्त्रज्ञ आदि गुण विशिष्ट साधुकी यह बात है तो फिर जो युवा है अल्प बुद्धिवाला एवं तपस्वी नहीं है ऐसा साघु आर्यिका की संगति करता है उसके अपवाद - अपयश क्या नहीं होगा ? अवश्य होगा ||३३६ ॥ प्रायिकाका मानस परिणाम यतिके संगति से शीघ्र नष्ट हो जाता है । ठीक ही है । देखो ! घृतको अग्निके समीप रखनेपर क्या वह काठित्यपनेको नहीं छोड़ता Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार [१०५ आर्थिका मानसं सद्यो, यतिसंगे विनश्यति । सपिन्हेः समीपे हि, काठिन्यं किं न मुञ्चति ॥३३७॥ स्वयं साधोः स्थिरत्वेऽपि, संसर्गप्राप्तधृष्टता । क्षिप्रं विभावसोः संगे, सा लाक्षेत्र विलोयते ॥३३८॥ अविश्वस्तोंऽगनावर्ग, सर्वत्राप्यप्रमादकः । ब्रह्मचर्य यतिः शक्तो, रक्षितु न परः पुनः ॥३३६।। विमुक्तःसर्वतो जातः, सर्वत्र स्ववशो यतिः । प्रायिकानुचरीमूतो जायतेन्यवशः पुनः ॥३४०।। आयिकावचने योगी, वर्तमानो दुरुत्तरे । शक्तो मोचयितु न स्वयं, श्लेष्ममग्नेवमक्षिका ।।३४१।। ..... ...----- - -- -. . है ? छोड़सा ही है । अर्थात जमा हुआ कठोर घृत अग्निके समीप पिघल जाता है वैसे आर्यिका का मानस साधु के समीप पिघल जाता है, विकृत हो जाता है ।।३३७।। साधु स्वयं कितना भी स्थिर क्यों न हो किन्तु वह आर्यासंगसे धृष्टता को प्राप्त कर शीघ्र ही चंचल हो उठता है जैसे कि अग्नि के संग से लाख शीघ्र विलीन हो जाती है ।।३३८॥ जो साधु सब प्रकार की महिलायें-बालिका, युवती, वृद्धा, कुरूपा, सुरूपा में अप्रमादो रहता है सदा सावधान रहता है, इनमें विश्वास नहीं करता है, संगति नहीं करता वही अपने ब्रह्मचर्य की रक्षा करता है अन्य नहीं । अर्थात स्त्री समाज में विश्वास करनेवाला कभी भी ब्रह्मचर्य की सुरक्षा नहीं कर सकता ।।३३९।। __ जो संपूर्ण धन धान्यादि परिग्रहोंसे रहित स्ववश हुआ मुनि है वह आयिका का अनुसरण करके पुनः अन्यके वश अर्थात् स्त्री, धन आदि परिग्रहके वश हो जाता है ।।३४०॥ जिसका पार पाना कठिन है ऐसे आयिकाके बचनको जो साधु मानता है उसकी बात स्वीकार करता है वह उससे अब अपना छुटकारा नहीं पा सकता जैसे Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ] मरण कण्डिका नार्या बन्धेन बन्धोऽन्यस्तुल्यो वृत्तच्छिदा यतेः। वज्रलेपः स नो तुल्यो, यो याति सह चर्मणा ॥३४२॥ ब्रह्मव्रतं मुमुक्षूणां, स्त्रीसंसर्गेण निश्चितम् । मंडकः पन्नगेनेय भीषणेन विनाश्यते ॥३४३॥ चौराणामिव सांगत्यं, पुसा सर्वस्व हारिणा ।। योगिना योषितां त्याज्यं, ब्रह्मचर्य प्रपालिना ॥३४४।। इत्यासिंग त्यागः । कफ में पड़ी मक्खी उससे निकल नहीं सकती। वैसे ही आर्या में परिचय करके उसके स्नेह से छूटना शक्य नहीं है ।। ३४१।। साधु के आचरणका नाश करनेवाला ऐसा आयिका का बंधन संबंध अन्य बंधन के समान नहीं है। जो धर्म के साथ एकफ हो गया है ऐसा वज्रलेप भी उस बंधन की तुलना में कमजोर है । वह बंधन तो टूट सकता है किन्तु आर्या बंधन टूटता नहीं ॥३४२।। भावार्थ-साधु के लिये आर्यिका का सहवास ऐसा बंधन है उसका वर्णन करने के लिये जगत में दृश्यमान कोई भी बंधन उपमा रूप नहीं हो सकता, चर्म के साथ वत्रलेप भी उसके लिये उपमान नहीं, यह बंधन छूट सकता है परन्तु आपिका का परिचय ऐसा बंधन है कि उससे छुटकारा पाना अशक्य है । मुमुक्षु यतियोंका ब्रह्मचर्य स्त्रो संसर्ग द्वारा निश्चित हो विनष्ट हो जाता है, जैसे भोषण सर्प द्वारा मेंढ़क नष्ट होता है ।।३४३।। अतः साधुओं को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये सर्वथा स्त्रियों का सम्पर्क त्याज्य बताया है, जैसे सर्वस्व लूटने वाले चोरोंका सम्पर्क पुरुषों को सदा त्याज्य है । अभिप्राय यह है कि जो अपने ब्रह्मचर्य को सुरक्षित करना चाहते हैं उन साधु पुरुषों को बाल, वृद्ध, युवा, आर्थिका, श्राविका, गृहिणी इत्यादि हर प्रकार की स्त्री समुदाय का संसर्ग त्याग देना चाहिये, उनसे वार्तालाप, निवास, प्रतिक्रमण, चर्चा आदि सर्व क्रिया सर्वथा त्याग करने योग्य है ॥३४४।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार यद्यवयवपि व्रध्यं, ततस्त्रिधा निराकृत्य यतध्वं किखिबंधनकारणम् । दृढसंयमाः पार्श्वस्थासन्नसंसक्त कुशीलमृगचारिणः मलिनीक्रियते तश्वरुफलेनेव Te त्याज्यः, कषायाकुलचितानां पार्श्वस्थानां भुजंगानामिय ।। ३४५॥ I ॥६४॥ दुरात्मनां । संगश्छिद्रगवेषिणाम् ॥३४७॥ [ १०७ आर्या संग के समान अन्य जो कोई द्रव्य, क्षेत्र, पदार्थ स्नेह बंधन का एवं कर्म बंधन का कारण है वह सर्व ही मन वचन और कायसे छोड़कर संयममें दृढ़ चित्त मुनियों को सदा प्रयत्नशील रहना चाहिये अर्थात् संयम शीलव्रत आदिको दृढ़ता स्थिरता तभी होगी जब स्नेह मोह और विकार कारक स्त्री आदि का संपर्क सर्वथा छोड़ दिया जायगा ।। ३४५ ।। पार्श्वस्थ आदि भ्रष्ट मुनियोंके संसर्ग का त्याग - भ्रष्ट सुनियोंके पांच भेद हैं- पार्श्वस्थ, आसन्न, संसक्त, कुशील और मृगचारी | इनकी संगति सदा हो चारित्र आदि को मलिन करने वाली होती है ॥३४६॥ भावार्थ -इन पांच सुनियों का स्वरूप संक्षेपसे इसप्रकार है - मिथ्यामत जिसे इष्ट लगता है वह पार्श्वस्थ है, चारित्र में सर्वथा शिथिल अवसन या आसन्न है, अयोग्य अशिष्ट कार्य में प्रवृत्त मुनि संसक्त कहलाता है, स्वच्छन्द मनमानो प्रवृत्ति करनेवाला मृगचरित और प्रकट ही है कुशील जिसका ऐसा कुशील होता है । ये बाहर में केवल मुनिवेष में होते हैं किन्तु इनका आचरण मुनि जैसा नहीं होता । कषायसे आकुलित चित्तवाले, दुष्ट, जो सदा छिद्र - परदोषको ढूंढते रहते हैं ऐसे पाटस्थ मुनियोंका साथ छोड़ने योग्य है, जैसे सर्पों का साथ छोड़ने योग्य है । ।।३४७॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ ] मरण कण्डिका लज्जां जुगुप्सनं योगी, प्रारम्भं निविशंकताम् । प्रारोहन प्रियधर्मापि क्रमेणेस्थस्ति तन्मयः ।।३४८॥ तेषु संसर्गतः प्रीतिवित्रम्भः परमस्ततः । ततो रतिस्ततो व्यक्त संविग्नोऽप्यस्ति तन्मयः ॥३४६॥ शुभाशुभेन गंधेन, मृत्तिका यदि वास्यते । तवा नान्यगुणरत्र, कथ्यतां पुरुषः कथम् ॥३५०॥ जो मुनि पास्थि मुनिका संग करता है उसे प्रारम्भ में तो लज्जा और जुगुप्सा होती है किन्तु पीछे संगतिके कारण निविशंक होकर क्रम से उस पार्श्वस्थ मनि-रूप हो जाता है जो कि पहले धर्म में प्रगाढ़ प्रोति करने वाला था ॥३४८।। . विशेषार्थ -प्रथम तो पास्थि आदि भ्रष्ट मुनियों के साथ रहने में लज्जा और जुगुप्सा आतो है, अर्थात् इस मुनिके साथ रहकर मैं अपने व्रत कैसे नष्ट करू! व्रतभंग संसार भ्रमणका कारण है इत्यादि रूप लज्जा आतो है किन्तु पोछे चारित्र मोहका उदय के वश हुआ व्रतभंग कर आरम्भ आदि में प्रवृत्त होता है। यद्यपि यह मुनि पार्श्वस्थादिके सहवासके पूर्व दृढ़ चरित्र वाला था तो भी उक्त संसर्ग से पार्श्वस्थ जैसा बन जाता है। पार्श्वस्थादिके साथ संगति होनेपर वास्तविक मुनिके भी उनके प्रति प्रेम होता है फिर उस भ्रष्टोंमें विश्वास, उससे रति और अन्त में स्वयं वैसा भ्रष्ट हो जाता है। जो कि पहले संवेग-वैराग्य सम्पन्न था । अर्थात् पार्श्वस्थ का संग करके मनसे भ्रष्ट होकर अन्तमें वचन तथा कायसे भी भ्रष्ट हो जाता है ।।३४९।। यदि शुभ और अशुभ गंध द्वारा मिट्टी भी बासित की जातो है अर्थात सुगंधित पदार्थ के साथ मिट्टो रखो तो सुगंधित और दुर्गंधित पदार्थ के साथ रखो तो दुर्गन्धित हो जाती है, अन्य वस्तुके गुणोंसे इसप्रकार जड़ में भी परिवर्तन आता है तो परुष-चेतन आत्मामें कैसे नहीं आयेगा ? अवश्य आयेगा ॥३५०। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०९ सहलेखनादि अधिकार शिष्टोऽपि दुष्टसंगेन विजहाति निजं गुणं । नीरं किं नाग्नियोगेन, शीतलत्वं विमुचति ॥३५१॥ लाघवं दुष्टसंगेन, शिष्टोऽपि प्रतिपयते । किं न रत्नमपी माला, स्वल्पार्धाशयसंगता ॥३५२।। संयतोऽपि जनर्तुष्टो दुष्टानामिह संगतः । क्षीरपा ब्राह्मणः शोण्ड: शोण्डानामिव शंक्यते ॥३५३॥ परदोषपरीवावग्राही लोकोयतोऽखिलः । अपवावपवं दोषं मुचध्वं सर्वदा ततः ॥३५४॥ दुर्जनेन कृते दोष, वोषमाप्नोति सज्जनः । कादम्बः कौशिकेनेव, दोषिकेणापदूषणः ३५५।। शिष्ट पुरुष भी दुष्ट सङ्गति से निजगुण को छोड़ देता है । क्या अग्नि के संसर्गसे जल निज शीतलत्व गुणको नहीं छोड़ता है ? छोड़ता ही है ॥३५१।। दुष्टके सम्पर्कसे शिष्ट पुरुष भो लघुता को प्राप्त होता है। क्या रत्न निर्मित माला भी शव के संसर्ग से अल्प मूल्य बाली नहीं होती ? होती ही है ॥३५२।। संयमी मनि भी दुष्टोंके संगति में आया हुआ, लोगोंसे दुष्ट हो माना जाता है जैसे कि दुग्ध पीनेवाले ब्राह्मण मद्य पायीके सम्पर्कसे मद्यपायी रूप शंकित किये जाते हैं । अर्थात् ब्राह्मण यदि शराबोके निकट दूध भी पोवे तो इसने शराब पो है इसप्रकार लोग उसपर शंका करने लग जाते हैं, वैसे हो पार्श्वस्थ के साथ रहा संयमी भी पार्श्वस्थ माना जाता है ।।३५३॥ हे यतिगण ! यह सम्पूर्ण लोक परके दोष को कहने में सदा हो उत्सुफ रहता है, अतः अपवाद का स्थान ऐसा दोष तुम लोग सर्वथा छोड़ देना ।।३५४।। दुर्जन द्वारा दोष किया जानेपर यह सज्जन को प्राप्त होता है अर्थात दोष दुजंन करता है और सज्जन ने यह दोष किया ऐसा लोग समझते हैं । जैसे दोषी उल्लू के द्वारा किया गया दोष निर्दोष हंसपक्षी पर आ पड़ता है ।।३५५।। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] गगानापिका दुर्जनस्यापराधेन, पोड्यन्ते सज्जना जने । अपराधपराचीनाः पृवाकोरिव डुभाः ॥३५६।। -- ------ - घूक-हंसकथा पाटलीपुत्र नगरीके गोपुर द्वार पर ऊपरी भागमें एक चूक (उल्लू) रहता था । एक दिन वह पक्षी उड़कर हंस के पास चला गया, दोनों की मित्रता हो गयी । हंस उस घूक को बहुत बड़ा श्रेष्ठ पक्षो मानता था अतः किसो दिन उसके साथ उक्त गोपुर द्वार के स्थान में आकर बैठ गया। उस समय नगर के राजा प्रजापाल दिग् विजय करने के लिये चतुरंग सेना को लेकर उस गोपुर द्वार से निकल रहा था। उल्लू ने राजा के दक्षिण भाग में जाकर विरल शब्द किया जिससे राजा को क्रोध आया कि हम युद्ध के लिये प्रस्थान कर रहे हैं और यह दुष्ट पक्षो अपशकुन करता है उसने धनुष बाण लेकर निशाना बांधा किन्तु घूक बहुत चालाक था वह शीघ्र वहांसे उड़कर भाग गया बेचारे निर्दोष हंस को वह बाण लग गया और वह घायल होकर तत्काल मर गया। इसप्रकार नीच की संगति करने से निरपराधी हंस का प्राण नाश हुआ, उसे अकारण ही असमयमें मरना पड़ा अतः दुष्ट को संगति कभी नहीं करना चाहिये । कथा समाप्त । दुर्जन के अपराध से सज्जन पुरुष लोक में पीड़ा को प्राप्त होते हैं, जैसे अपराध रहित डुडुभ-विष रहित बड़ा सर्प पृदाकु-छोटे विषैले सर्पके काटने रूप अपराध से पोड़ा को प्राप्त होता है । भावार्थ यह है कि अपराध तो करता है दुर्जन और उसके संगति में आया हुआ सज्जन पुरुष है उसे उस अपराध का दण्ड भोगना पड़ता है क्योंकि दुर्जन तो अपराध करके भाग जाता है, छिप जाता है, झूठ बोलकर अपना बचाव कर लेता है । और सज्जन को इसने ही अपराध किया है ऐसा समझकर लोग दण्डित कर देते हैं । जैसे एक होता छोटा किन्तु जहरीला सर्प, और एक होता है निर्विष सर्प । विषेला छोटा सर्प किसीको काटकर कहीं छिप जाता है और लोग बड़े निर्विष सर्प को इसने ही काटा है ऐसा समझकर उसे मारते हैं ।।३५६॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १११ सल्लेखनादि अधिकार असंयतेन चारित्रं, संयतस्यापि लुप्यते । संगतेन समृद्धस्य, सर्वस्वमिव दस्युना ॥३५७।। दुष्टानां रमते मध्ये, दुष्टसंगेन शासितः । विदूरीकृत वैराग्यो, न शिष्टानां कदाचन ।।३५८॥ दुष्टोऽपि मुचते दोषं, स्वकीयं शिष्टसंगतः । कि मेरुमाश्रितः काको, न धत्ते कनकच्छविम् ॥३५॥ पूजां सज्जनसंगेन, दुर्जनोपि प्रपद्यते । देवशेषाविगंधापि, क्रियते किं न मस्तके ॥३६०।। • असंयत पुरुष द्वारा संयमीजन का भी चारित्र लुप्त हो जाता है, जैसे कि । समृद्धिशाली पुरुष का सर्वस्व-धन संपर्क में आये हुए चोर द्वारा लूट लिया जाता है ॥३५७॥ दुष्ट संगति से वासित हुआ व्यक्ति अब दुष्टों को गोष्ठी में रमता है जिसने कि अपने वैराग्य भाव को दूर कर दिया है-छोड़ दिया है । दुष्ट के संगति में आया पुरुष शिष्टों की गोष्ठी में कभी नहीं रमता ।।३५८।। भावार्थ-दुर्जन की संगति से दुष्ट बना हुआ मनुष्य सज्जन मनुष्योंमें रहना-उनका संगति करना पसंद नहीं करता है, वह तो वैराग्य को छोड़कर दुर्जनों के मध्यमें बड़े आनंदसे रहने लग जाता है। __ यहां तक दुर्जनको संगति में आनेसे होनेवाले दोष बतलाये, अब आगे सज्जनका आश्रय लेनेसे उनको संगति करनेसे गुण आते हैं ऐसा बताते हैं जिसने सज्जनकी संगति की है ऐसा दुष्ट पुरुष भी अपने दोषको छोड़ देता है, क्या मेरु का आश्रय लेनेवाला काक कनककान्तिको नहीं प्राप्त करता ? अवश्य करता है ॥३५९।। सज्जनके संगसे दुर्जन भी पूजा-आदरको प्राप्त कर लेता है। देवके शेषा स्वरूप माला गंधरहित होनेपर भी क्या मस्तकपर धारण नहीं की जाती ? अवश्य की जाती है ।।३६०॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] मरएकण्डिका कातरोऽप्रियधर्मापि, व्यक्तं संविग्नमध्यगः । • भौत्रपा भावनामान, श्चारित्रे यतते यतिः ॥३६॥ संविग्नः परमां कोटि, साधुः संविग्नमध्यगः । गंधयुक्तिरिवायाति, सुरभिद्रध्यकल्पिताम् ॥३६२॥ एकोऽपि संयतो योगी, वरं पार्यस्थलक्षतः । संगमेन तदोयेन, चतुरंग विधर्धते ॥३६३॥ वरं संयततः प्राप्ता, निवा संयमसाधनी । न त्व संयततः पूजा, शीलसंयमनाशिनी ।।३६४।। कोई साधु धर्ममें रुचि नहीं करता किन्तु संयमीके मध्य में रहने पर संयममें प्रयत्नशील होता है ऐसा कहते हैं संयमी जनोंके-वैराग्यशील पुरुषोंके मध्य में रहा हुआ कातर एवं धर्मको अप्रिय माननेवाला भी यति भय, लज्जा भावना द्वारा चारित्र में व्यक्त रूपसे प्रयत्नशील होता है ।।३६१॥ भावार्थ-किसी मुनिके रत्नत्रयमें रुचि नहीं रहती, बाहर ख्याति आदिमें रुचि रहती है किन्तु यह मुनि भी वैराग्यशील संयमी साधुके साथ रहने पर विचार करता है कि अहो ! यह मूनि धन्य है अपने चारित्रमें कितना उद्यमशील है इत्यादि इसतरह का विचार आनेसे तथा अपने निम्न आचरणकी लज्जा एवं भय आनेसे स्वयं चारित्रमें दृढ़ हो जाता है अत: मुनि को चाहिये कि वह वैराग्यशील उत्तम चारित्र वाले मुनिकी संगति करे । संवेग संपन्न मुनियोंके मध्य में निवास करनेवाला साधु उत्कृष्ट परम कोटिके वैराग्यको प्राप्त कर लेता है। जैसे सुगंधित द्रव्यके निकट रखी हुई वस्तु सुगंधीको प्राप्त होती है-सुगंधित बन जाती है ।।३६२।। लाखों पार्श्वस्थ मनियोंको अपेक्षा एक ही संयमी मुनि श्रेष्ठ माना गया है। उस एक के संगति से चतुरंग-सम्यक्त्व आदि चार आराधना वृद्धिको प्राप्त होती है संयमी जनसे संयमको साधनेवाली निन्दा प्राप्त होना श्रेष्ठ है किन्तु असंयमी. जनसे शील-संयमका नाश करनेवाली प्रशंसा श्रेष्ठ नहीं है ॥३६४।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार गुणवोषौ प्रजायेते, संसर्गवशतो यतः । संसर्गः पावनः कार्यो, विमुध्यापावनं ततः ॥३६॥ वाच्यो गणस्थितः पथ्यमनभीष्टमपि स्फुटम् । तत्तस्य कटकं पाके, भैषज्यामिव सौख्यवम् ।।३६६॥ स्वान्तानिष्टमपि ग्राह्य पथ्यं बुद्धिमता वचः । हवतः किं न बालस्य, दीयमानं घृतं हितं ।।३६७।। ॥ इति दुर्जन संग वर्जनम् ।। मा छेवयन्तु स्वयशो, मा कार्य स्वं प्रशंसनम् । लघवः स्वं प्रशंसन्तो, जायन्ते हि तृणावपि ॥३६८।। स्वस्तपन गुणा माति, म सोधुमि । स शोषः परमस्तेषां, कोपः संयमिनामिव ॥३६६।। गुण और दोष संसर्गके निमित्त से आया करते हैं इसलिये अपवित्र-दुष्टका संसर्ग त्याग करके पवित्र-सज्जनका संसर्ग करना चाहिये ।।३६५।। संघस्थ साधुओंको संघमें रहकर हमेशा पथ्यकारी वचन बोलना चाहिये भले ही वह इष्ट नहीं लगता हो क्योंकि जैसे कड़वो औषधि आगामीकालमें सुखप्रद होती है वैसे ही हित और पथ्यभूत वचन तत्काल कडुवा लगने पर भी उसका विपाक मधुर सुखदायक होता है । अतः साधुजन परस्परमें वचन व्यवहार करें वह आत्महितकारी करें ॥३६६॥ जो वचन मन को भले ही अच्छा नहीं लगता हो किन्तु पथ्यकारी हो उसको बुद्धिमान को अवश्य ग्रहण करना चाहिये, क्या बालक को जबरदस्ती घी देनेपर हितकारी नहीं होता ? अवश्य होता है ।।३६७॥ हे साधुजन ! तुम अपने यश को छिन्न भिन्न नहीं करना, अपनी प्रशंसा भत करना । क्योंकि जो व्यक्ति अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता है वह तृण से भी अति लघु-हीन हो जाता है ।।३६८।। जैसे मदिरा का उन्माद कांजी के पीने से नष्ट हो जाता है वैसे ही अपनी प्रशंसा करने से गुण नष्ट हो जाते हैं। जिस तरह संयमी के क्रोध आना बड़ा दोष है उसोतरह अपनी प्रशंसा करना बड़ा दोष है ॥३६९।। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] मरणकण्डिका अनुक्तोऽपि गुणो लोके विद्यमानः प्रकाशते । प्रकटीक्रियते केन विवस्थानुदितो जनः ॥३७०॥ कष्यमाना गुणा वाचा, नासंतः संति वेहिनः । षण्डका न हि जायन्ते, योषा वाक्यशतैरपि ॥३७१।। विद्यमानं पुणं स्वस्य, कीर्त्यमानं निशम्य यः । महारमा लज्जते चित्ते, भाषते स कचं स्वयं ॥३७२॥ निगुणोपि सतां मध्ये, सगुणोऽस्ति स्वमस्तुवन् । न श्लाघते यदात्मानं, गुणस्तस्य स एव हि ॥३७३॥ अपने गुण नहीं कहने पर भी विद्यमान रहते हैं । देखो ! सूर्य उदित हआ है ऐसा किन लोगों द्वारा प्रकट किया जाता है ? अर्थात् जैसे सूर्य उदित हुआ ऐसा नहीं कहने पर भी वह प्रसिद्ध होता है वैसे ही अपने गुण नहीं कहनेपर भी वे स्वतः प्रसिद्धि पाते हैं ।।३७०॥ जो गुण असत् हैं अपनेमें नहीं हैं उनको वचन द्वारा कहने मात्र से कोई सत्रूप नहीं हो जाते हैं, कोई नपुंसक है तो उसको सैकड़ों वचनों द्वारा यह स्त्री है यह स्त्री है ऐसा कहने से वह स्त्री नहीं बन जाता, वह तो नपुंसक का नपुसक ही रहता है ।।३७१॥ ___ जो महान होता है वह अपने मौजूद वास्तविक गुण को कोई कह देवे तो मन में लज्जित होता है ऐसा व्यक्ति स्वयं अपने मुख से उसको कैसे कह सकता है ? नहीं कह सकता ॥३७२।। यदि कोई पुरुष गुणयान नहीं है निर्गुण है किन्तु सज्जनों के मध्य में अपनी स्तुति-प्रशंसा नहीं करता तो वह गुणवान माना जाता है । उसका तो यही गुण है कि अपनी स्तुति नहीं करना ।।३७३।। अपने गुणों को अपने वचन से कहना गुणों का नाश करना है, और गुणों को अपने में धारण करना उनका प्रकाशन है । मतलब यह है कि व्यर्थ अपनी प्रशंसा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११५ सल्लेखनादि अधिकार गुणानां नाशनं वाचा, क्रियमाणं निवेदनम् । प्रकाशनं पुनस्तेषां, चेष्टयास्ति निवेवनम् ॥३७४॥ प्रजरुपन्तो गुणान वाण्या, जल्पन्तश्चेष्टया पुनः । भवन्ति पुरुषाः पुंसां, गुणिनामुपरि स्फुटम् ।।३७५।। निगुणो गुणिनां मध्ये, अवाणः स्वगुणं नरः । सगुणोप्यस्ति वाक्येन, निर्गुणानामिव ब्र बन ॥३७६।। सगुणो गुणिनां मध्ये, शोभते चरितगुणं । अवारणो वचनैः स्वस्य, निगुणानामियागुणः ॥३७७।। यूयमासादनां कृध्वं, मा जातु परमेष्ठिना । दुरन्ता संसृतिर्जन्तो, र्जायते कुर्वतो हि तां ! करने से कोई गुणवान नहीं होता गुणों का अनुष्ठान करने से गुणवान होता है ॥३७४॥ जो गणों को वाणी से नहीं बोलता, किन्तु क्रिया से बोलता है अर्थात गुणवान का कार्य करता है ऐसे पुरुष गुणी पुरुषों के भी ऊपर हो जाते हैं अर्थात गुणवान में श्रेष्ठ माने जाते हैं ।।३७५।। गुणीजनों के मध्य में अपने गुण को कहनेवाला पुरुष निर्गुण बन जाता है । गुणवान पुरुष है और वह निर्गुणी के समान वचन से गुण को कहता फिरता है वह सगुण होकर भी निर्गुण जैसा है ॥३७६।। गणीजनों के मध्य में गुण को आचरण द्वारा प्रगट करता हुआ गुणी साधु पुरुष शोभा को प्राप्त होता है, निर्गुणी पुरुषों के समान जो अपने गुण कहता है वह गुण रहित माना जाता है ।।३७७१। है यतिजनो ! आप लोग कभी भी पंच-परमेष्ठियोंकी आसादना नहीं करना । क्योंकि उस आसादना को करनेवाला जीव दुरन्त संसारी बन जाता है, अर्थात उसके संसार का जल्दी अन्त-किनारा नहीं आ पाता ॥३७८।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका त्यजतासंयम अंधा, मुक्तिलक्ष्मी जिघृक्षवः । सा दूरीक्रियते तेन, व्याधिनेव सुखासिका ॥३७६।। मा ग्रहीषः परीवाद, स्वसंघपरसंघयोः । संसारो वर्धतेऽनेन, सलिलेनेय पावपः ॥३८०॥ शोकषासुखायासबरदौर्भाग्य भीतयः । विशिष्टानिष्टया पुंसां, जन्यन्ते परनिवया ॥३१॥ उत्थापयिषुरात्मानं, परनिदा विधाय यः । अपरेणौषधे पीते, स नीरोगत्वमिच्छति ॥३८२॥ योऽन्यस्य दोषमाकर्ण्य, चित्ते जिह्रति सज्जनः । परापवादतो भीतः, स्वदोषमिव रक्षति ॥३३॥ भावार्थ-पंचपरमेष्ठोके आसादना करनेवाला मिथ्यादृष्टि हो जाता है और जो मिथ्यादृष्टि है वह अनंत संसारमें भ्रमण करता रहता है । मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करने के इच्छुक पुरुषों ! तुम मन वचन काय से असंयम का त्याग करो । क्योंकि असंयम से मुक्ति दूर को जाती है, जैसे कि व्याधि से सुख पूर्वक बैठना नष्ट हो जाता है ।।३७६।। भो ऋषिगण ! आप कभी भी स्वसंध तथा परसंघ का अपवाद मत करना। अपवाद करने से संसार भ्रमण बढ़ता है, जैसे कि जल से वृक्ष बढ़ता है ॥३८॥ विशिष्ट निष्ठा से की गयी परनिंदा से शोक, द्वष, दुःख, आयास, बैर, दर्भाग्य और भीति आदि उत्पन्न होते हैं ।।३८॥ जो पुरुष परनिंदा करके अपना उत्थान करना चाहता है वह पर के द्वारा औषधिपान कर निरोग होना चाहता है । अर्थात् जैसे पर के मौषधि पीने से खुद निरोग नहीं हो सकता वैसे ही पर की निन्दा करने से खुदका उत्थान हो नहीं सकता ॥३२॥ सज्जन पुरुष अन्य के दोष को सुनकर मन में लज्जित होता है, वह पर के अपवाद से भयभीत रहता है जैसे अपने दोष बाहर प्रगट न हो इस बात की रक्षा करता ' है वैसे हो पर के दोष की रक्षा करता है-पर के दोष न कहता है, न सुनता है ॥३८३।। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११७ सल्लेखनादि अधिकार स्वरूपोप्यन्यगुणो धन्यं, तलविदुरियोस्के । विवद्धते समासाद्य, परदोषं न वक्ति सः ॥३८४।। ग्राह्यस्तथोपरेशोऽयं सर्वोयुष्माकमंजसा । यथा गुणाकृता कोति. लॊके भ्राम्यति निर्मला ।। ३५ अनन्यतापकोऽखण्डब्रह्मचर्यो बहुश्रुतः । शांतो रढचरित्रोऽय, मेषा धन्यस्य घोषणा ॥३८६।। इदं नो मंगलं बाढमेव मुक्त्वा गणोप्यसौ । तोष्यमाणो गुणः सूरे, रानवाश्रु विमुचति ॥३८७।। सज्जन पुरुष अन्य का अल्पगुण हो तो उसको धन्य करता है अर्थात् जल में तेल का एक बिन्दु भी जैसे फैल जाता है वैसे सज्जन को प्राप्त पर का एक गुण भो वृद्धिंगत होता है-लोक प्रसिद्धि में आ जाता है, ऐसा वह सज्जन पराये दोष को कभी नहीं कहता है ।।३८४।। आचार्य परमेष्ठी अपने संघस्थ साधुओं को कह रहे हैं कि तुम सभी को भली प्रकार से यह उपयुक्त सर्व उपदेश उस तरह ग्रहण करना चाहिये जिस तरह कि गुणों के द्वारा की गयी निर्मल कोर्ति लोक में विस्तृत हो ॥३८५।। ___ उस कीति का फैलाव ऐसा होना चाहिये कि अहो ! इस संघ के साधुजन धन्य हैं, धन्य हैं, ये किसी को संताप नहीं देते, इनका अखण्ड ब्रह्मचर्य है, ये बड़े ही ज्ञानी पुरुष हैं, ये कभी कोप नहीं करते, चारित्र में दृढ़ हैं ।।३८६।। __ इसप्रकार यहाँ तक विस्तार पूर्वक समाधि के इच्छुक आत्रार्य ने संघस्थ साधु समाज को उपदेश दिया इस गुरु के उपदेश को सुनकर सम्पूर्ण उपदेश को जिन्होंने भलीभांति स्वीकृत किया है ऐसे में गुरु के प्रति एवं उनके उपदेश के प्रति जो कर्तव्य करते हैं उसे बतलाते हैं-यह सर्व ही उपदेश हम लोगों के लिये मंगलभूत हैं बहुत ग्राह्य हैं श्रेष्ठ हैं इत्यादि कहकर सर्व संघ आचार्य के गुणों से संतुष्ट होता हुआ आनंद के अथ छोड़ता है अर्थात् गुरु के इसतरह स्वपरोपकारक. अत्यन्त शुद्ध रत्नत्रय के वर्द्धन करने वाले वचनों को सुनकर सर्वसंघ के साधुओं के नेत्रों से हर्ष के अश्र निकल पड़ते हैं ॥३८७॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] मरणकण्डिका प्रयं नोऽनुग्रहोऽपूर्यो, यत्स्थांगमिव पालिताः । सारणावारणावेशा, लम्यन्ते पुण्यभागिभिः ॥३८८।। क्षमयामो वयं तन् यद् रागाज्ञानप्रमावतः । प्रादेशं वक्तामाजा भवतां प्रतिकलिता ॥३६॥ सन्धसिद्धिपथा जाताः, सचित्तश्रोत्रचक्षुषः । युष्मतियोगतो भूयो, भविष्यामस्तथाषिधाः ॥३६०।। सर्वजीवहिते बजे, सर्वलोक नायके । प्रोषिते वा विपन्ने वा, देशाः शून्या भवंति ते ॥६॥ तुष्टायमान शिष्य समुदाय कह रहा है कि अहो ! हम लोगों के ऊपर यह अपूर्व अनुग्रह है जो अपने शरीर के समान हमारा पालन किया था, 'सारणा-गुण में प्रेरणा' 'वारणा-ऐसा मत करो इस तरह समझाना', 'आदेश-यह तुम्हारा कर्तव्य है। इत्यादि गुरु की बातें पुण्यशालियों को हो सुनने को मिलती हैं ।।३८८।। हे आचार्य देव ! हम सभी आपसे क्षमा मांगते हैं कि जो हमने पहले राग, अज्ञान एवं प्रमाद से आदेश को देनेवाले आपको आज्ञा का पालन नहीं किया हो, प्रतिकुल आचरण किया हो ॥३८९।। हे प्रभो ! आपने हमें लब्ध सिद्धि पथ वाले कर दिया है अर्थात् मोक्ष का मार्ग प्राप्त कराया है, आपने हमें हृदय श्रोत्र और चक्षु दिये हैं अर्थात् हिताहित विवेक देकर हृदययुक्त किया, शास्त्र को पढ़ाया जिससे कर्ण युक्त हुए जो कर्ण गुरु के उपदेश को नहीं सुनते वे कर्ण कर्ण ही नहीं हैं अथवा उस व्यक्ति का कर्ण पाना व्यर्थ है। आपने हमें पागम चक्षु बनाया है, हम तो अज्ञानी थे पहले हृदय शून्य, कर्ण शून्य और चक्षु विहीन थे क्योंकि इन हृदयादि से होने वाले धर्म लाभ को नहीं जानते थे आप तो समाधि के सम्मुख हैं आपके वियोग से पुनः दिग् भ्रमित होकर वैसे ही हो जायेंगे ॥३६॥ भो भगवन् ! संपूर्ण जीवों के हित की वृद्धि करने वाले, संपूर्ण लोकों के एक नायक स्वरूप आपके समाधि के हेतु उपोषित हो जानेपर अथवा आपका समाधिमरण हो जानेपर सर्वदेश शून्य हो जायेंगे ।।३६१॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार [ ११९ अनन्यतापिभिः सर्वे, गुणशीलपयोधिभिः । होना बहुश्रुतर्देशाः, सान्धकारा भवंति ते ॥३६२॥ सर्वज्ञरिवयेई, जन्यन्ते तत्त्वनिश्चयाः । देहनाशे प्रवासे वा, तेषामंधा भवति ते ॥३६३॥ वाक्येराप्यायिता लोका, यर्मेधा इव पारिभिः । येभ्यस्ते निर्गता वृद्धास्ते देशाः संति खंडिताः ॥३६४।। बायकानामशेषस्य सूरिणामुपकारिणाम् । समानसुखदुःखानां, वियोगो दुःसहश्चिरं ॥३६५।। द वंशस्पवित्रविद्योद्यतवानपंडितस्तनुभृतां तापविषादनोदिभिः । गणाधिपैर्भाति विना न मेदिनी, निरस्तपंकः सरसीव वारिभिः।।३९६॥ अन्य को संताप नहीं देनेवाले सर्व गुण और शीलों के सागर, शास्त्रों में पारंगत ऐसे आपके समाधिस्थ होनेपर उक्त गुणों से विशिष्ट जनों से ये सर्व देश रहित हो जायेंगे, अधिकार मय हो जायेंगे ।।३९२।। सर्वज्ञ के समान ज्ञानवृद्ध आपके द्वारा जो लोगों को तत्त्वों का निश्चय कराया गया था अथवा लोग तत्त्वनिश्चय को प्राप्त हुए थे, अब आपके देह का नाश हो जाने पर अथवा इस संघ और देश को छोड़कर अन्यत्र चले जानेपर संघ और देश तत्त्वनिश्चय विहीन अंध जैसा हो जायेगा ।। ३९३॥ धर्म वाक्यों द्वारा हम लोग संतोष से परिपूर्ण हए थे जसे कि. जल द्वारा मेघ पूर्ण रहा करते हैं । जिन देशों से जलपूर्ण मेघ निकल जाते हैं वे देश घान्य विहीन खंडित-जन शून्य हो जाते हैं ऐसे ही आप वृद्ध पुरुषों के निकल जानेपर ये देश खंडित धर्म शून्य हो जायेंगे ।।३६४॥ अहो ! बड़ा कष्ट है कि सम्पूर्ण ज्ञानादि गुणों के प्रदाता, उपकार करने थाले, सुख और दुखों में जो समान भाव रखते हैं ऐसे आचार्यों का वियोग अत्यन्त दुःसह है, चिरकाल तक दुःसह है ।।३९५।। जीवों को पवित्र विद्यारूप श्रेष्ठ दान देने में पंहित, ताप और विषाद को दूर करने वाले ऐसे आचार्य देव के बिना यह पृथ्वी शोभित नहीं होती, जैसे कीचड़ रहित जल के बिना तालाब शोभता नहीं ।।३६६।। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्डिका छंद वंशस्थ:बुधैन शीलः रहिता नितम्बिनी, तपस्विदानः रहिता गृहस्थता । गुरूपदेशः रहिता तपस्विता, प्रशस्यते नित्यसुखप्रदायिनी ।।३६७।। ___ छंद वंशस्थ:मनोषितं वस्तु समस्तमंगिनां, सुरखुमाणामिव यच्छतां सदा । गुणगुरूणां विरहो गरीयसा, न शक्यते सोडुमपास्तरेफसाम् ॥३६॥ इति अनुशिष्टिसूत्रम् । प्रापृच्छयेति गणं सर्व चतुरंगमहोखमम् । करोस्याराधनाकांक्षी गंतु परगणं प्रति ॥३६।। प्राज्ञाकोपो गणेशस्य पुरुषः फलहोऽसुखं । निर्भय स्नेह कारुण्य ध्यान विघ्ना समाधयः ।।४००।। शीलों से रहित स्त्री, साधुजनों को दान दिये बिना गृहस्थपना तथा नित्य सुखप्रद गुरु के उपदेश बिना तपश्चरण बुद्धिमानों द्वारा प्रशंसनीय नहीं माना जाता है ॥३६७) कल्पवृक्षों के समान जीवों को समस्त मनोवांछित वस्तु को देनेवाले गुणों से गुरु ऐसे महान् पाप रहित गुरुओं का विरह सहन करना शक्य नहीं है ॥३९८|| इसप्रकार संपूर्ण संघ को पूछकर चार आराधना रूप महान उद्यम को आचार्य करते हैं जो कि आराधनाकांक्षी हैं और अन्य संघ के प्रति गमन करने में उत्सुक हैं ॥३६६॥ यदि अपने संघ में रहकर ही समाधि करें तो इतने दोष उपस्थित होते हैंआचार्य के आज्ञा का कोप, कठोर वचन, कलह, दुःख, निर्भयता, स्नेह, कारुण्य, ध्यान विघ्न और असमाधि ।।४००॥ इन सब दोषों को आगे क्रमसे बताते हैं। आज्ञाभंग दोष-- संघ में अनेक मुनि हैं उनमें स्थविर मुनि कभी पर का अपवाद करने में उद्यत हो जाते हैं कोई शिक्षाशील मुनि कठोर परिणामी कलह में तत्पर स्वच्छन्द हो। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार छंद उपजाति: परापवादोद्यतयो जयंतः शंक्ष्याः खरा युद्धपरानधीनाः । आज्ञाक्षत मंशु गणे स्वकीये कुर्वन्ति सूरेरसमाधिहेतुम् ॥४०१ ॥ छंद इन्द्रवज्रा व्यापारहीनस्य ममत्वहाने: संतिष्ठमानस्य गणेऽन्यदीये । नाज्ञाविघाते विहितेऽपि सूरे रेतंरशेषंरसमाधिरस्ति ॥ ४०२ ॥ छंद शालिनी [ १२१ बालवृद्धाकान्दुष्टचेष्टान् दृष्ट्यासूरि निष्ठुरं वक्ति वाक्यम् । किचिद्रागद्वेषमोहादियुक्तास्ते वा ब्रूयुः संस्तवप्राप्तधायः ॥ ४०३ ॥ जाते हैं, इसप्रकार के शिष्य अपने संघ में आचार्य की आज्ञा का शीघ्र ही भंग कर डालते हैं जो आज्ञा भंग आचार्य के असमाधि का कारण बन जाता है अर्थात् आशा नहीं मानने से आचार्य के परिणाम अशान्त होते हैं उससे उनको समाधि बिगड़ती है ।।४०१ ।। जब समाधि के इच्छुक आचार्य अन्य संघमें रहते हैं तब जिनका ममत्व होन हुआ, जो संघ का कुछ कार्य नहीं करते हैं ऐसे उन आचार्य के उपर्युक्त उद्दंड मुनियों द्वारा आज्ञा भंग कर दिये जाने पर भी असमाधि नहीं होती, अर्थात् पर संघ में रहते हैं वहां तो दूसरे आचार्य की आज्ञा का भंग कोई उदंड शिष्य कर लेवे तो भी समाधि के इच्छुक आचार्य कोप को प्राप्त नहीं होते उनकी शान्ति नष्ट नहीं होती । अतः समाधि के वक्त आचार्यं पराये संघ में जाते हैं ||४०२ ॥ परुष दोष -- दुष्ट चेष्टावाले बाल वृद्ध शैक्ष मुनियों को देखकर आचार्य उन शिष्यों के प्रति निष्ठुर बाक्य कहते हैं, अथवा अपनी प्रसिद्धि के कारण घोट हुए तथा रागद्वेष मोहादि से युक्त हुए वे मुनि आचार्यदेवके प्रति कठोर वाक्य बोलने लग जाते हैं ।।४०३ ।। इसप्रकार परुष वचन दोष उत्पन्न होता है । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] मरकण्डिकर छंद उपजाति वाक्याक्षमायामसमाधिकारी सूरेः समं तंः कलहो दुरन्तः । दोषास्ततो दुःखविषादखेदाः भवति सर्वेष्वनिवारणीयाः ॥ ४०४ ।। संत जगनाति गणेन साकं कलहाविदशेषं कुर्वत्सु बालादिषु दुर्धरेषु । गणाधिपस्य स्वगणप्रवृत्ते मंमत्वदोषादसमाधिरस्ति ॥४०५॥ छंद उपेन्द्रवज्रा परीष हैर्घोरतः स्वसंघ निरीक्ष्यमाणस्य निपीड्यमानं । गणे स्वकीये परमोsसमाधिः प्रवर्तते संघपतेरवार्यः || ४०६ ॥ समाधि के इच्छुक आचार्य स्व संघ में रहते हैं, वे कभी शिक्षा के वाक्य कह देवे और उसको कोई सहन न करे तो उन उद्दण्ड शिष्यों के साथ आचार्य का असमाधि करनेवाला महान कलह झगड़ा हो जावेगा, कलह से दुःख, विषाद, खेद ये दोष सबमें अनिवार्य रूप से होने लगते हैं ||४०४|| भावार्थ- जब शिष्य आज्ञा नहीं मानेंगे तो आचार्य शिष्य को कठोर वचन कहेंगे, कठोर वचन सुनकर, क्षुल्लक मुनि स्थविर आदि कलह करते हैं कि ये आचार्य हमेशा हो हमें डाटते हैं, आज्ञा देते हैं उपदेश देते रहते हैं, हमें क्या जानकारी नहीं है ? इत्यादि । सो ऐसे कलहकारी वचन से आचार्य के मन में दुःख, खेद आदि प्रादुर्भूत होवेंगे अथवा ये आचार्य हमें कष्ट देते हैं इत्यादि सोचकर शिष्य समुदाय दुःख, विषाद खेद करने लग जाते हैं । संघ के साथ परस्पर में कलह विवाद आदि करते हुए बाल वृद्ध आदि धीट मुनियों को देखकर अपने गण में रहने वाले आचार्य के ममत्वरूप दोष से असमाधिअशान्ति होतो है । अर्थात् संघ में कोई बाल आदि मुनि आपस में झगड़ा करते देखकर स्नेह वश आचार्य अशान्त हो जाते हैं अतः आचार्य को अन्तकाल में स्वसंध में नहीं रहना चाहिये ||४०५ ।। अथवा घोर परीषहों द्वारा अपने संघ को पीड़ित देखकर अपने संघ में रहने वाले आचार्य के अत्यन्त अशांति होना अनिवार्य है | १४०६ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार [ १२३ परीषहेषु विश्वस्तः स्वगणे निर्भयो भवन् । पात्रत किचनकिल्ल्धं सेवते भाषते स्फुटम् ॥४०७॥ बालाः स्वांकोचिता दृष्टा वृद्धचा विह्वल विग्रहाः । अनाथाश्चायिकाः स्नेहं जनयंति गुरोस्तवा ॥४०८।। प्रायिकाः क्षल्लिकाः क्षालाः कारुण्यं कुर्वते यसः । ध्यानविघ्नोऽसमाधिश्च जायते गणिनस्ततः ।।४०६॥ गणिनः प्रेष्यशुश्रुषाभक्तपानादिकल्पने । स्वगणेप्यसमाधानं शिष्यवर्ने प्रमाद्यति ॥४१०॥ समाधिस्थ आचार्य यदि अपने संघ में ही रहता है तो परोषहों के आनेपर स्वगण में विश्वस्त हुआ निर्भय होकर कुछ भी अयोग्य वस्तु को याचना कर सकता है एवं अयोग्य का सेवन तथा अयोग्य वचन स्पष्ट रूप से कह सकता है ।।४०७।। भावार्थ-समाधिस्थ आचार्य को भूख प्यास आदि जब सतायेगी तब संघ से परिचित होने से निर्भयता से आहार आदि मांगने लग जायेंगे, खुद ही खाने लग जायेंगे । इत्यादि दोष स्वस घमें रहने से आचार्य को होते हैं ।। जिन शिष्यों को बाल होने से गोदी के बालकों के समान माना था अर्थात् बालकवत उन्हें सम्हाला था तथा जो वृद्धावस्था के कारण विह्वल हो रहे हैं, जो अनाथ आर्यिकायें हैं वे सब समाधिके अवसरपर गुरुको स्नेह उत्पन्न करते हैं ॥४०८।। दुःखी आर्यिका, क्षुल्लिका, क्षुल्लक आचार्य को करुणा उत्पन्न कर सकते हैं उससे आचार्य के ध्यानमें विघ्न आता है और अशान्ति होती है ।।४०९।। अपने गण में समाधि को यदि करें तो आचार्य का जो कुछ कार्य-प्रष्य-कार्यहेतु अन्यत्र भेजना, सुश्रुषा-सेवा, हाथ पैर का मर्दन आदि, आहार पानादि हैं उनमें शिष्य प्रमाद करे अर्थात् प्रष्य आदि कार्य को ठीक से नहीं करे तो आचार्य को अशान्ति होगी ।।४१०॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] मरगाकण्डिका छंद शालिनी एते दोषाः संति संघे स्वकोये सूरेः साधोस्तादृशस्यापि यस्मात् । तस्मात त्यक्त्या स्वं समाधानकांक्षी धीरः संघं स प्रयात्यन्यदीयं ॥४११।। छंद- उपजाति भवंति दोषा न गणेऽन्यदीये संतिष्ठमानस्य ममत्वबीजं । गणाधिनाथस्य ममत्वहाने विना निमित्तेन कुतो निवृत्तिः ।।४१२॥ छंद-उपजाति गणे स्वकीयेऽपि गुणानुरागी सत्यस्मदीयं गणमागतोऽयम् । मत्वेति भक्त्या निजया च शक्त्या प्रवर्तते तस्यगणः स्वकृत्ये ॥४१३॥ महीतार्थो गणी प्रार्थ्यः क्षपकस्योपसेदुषः । निर्यापकश्चारित्राढयो जायते सर्वयत्नतः ॥४१४॥ ---- इसप्रकार इतने दोष अपने स घमें समाधि करने से आचार्य को प्राप्त होते हैं, तथा आचार्य सदृश अन्य प्रमुख मुनियोंके भी होते हैं, इसलिये समाधिका इच्छुक धीर आचार्य स्वसंघ को छोड़कर दूसरे संघमें जाता है ।।४११॥ दूसरे संघ में रहने वाले आचार्य के ममत्वका बीज अर्थात् कारण नहीं रहता अतः पूर्वोक्त दोष वहांपर नहीं होते, वहां तो ममत्व होन होता जाता है । बिना निमित्त के निवृत्ति कैस होवे । अर्थात् ममत्व का निमित्त निजसंघ वास है और ममत्व के अभाव का निमित्त परसघवास है इनके बिना ममताभाव और ममता का प्रभाव नहीं होता । अथवा निमित्त के बिना निवृत्ति-मोक्ष भो कहां से होवे ।।४१२।। पराये संघमें आचार्य के प्रविष्ट होनेपर बहांके मुनि विचार करते हैं कि अहो ! स्वगणके होने पर भी हमारे गुणोंमें अनुरागी होकर ये आचार्य हमारे गणमें आये हैं। इस तरह मानकर उस आचार्यके सेवामें मुनिसमुदाय भक्ति और निज शक्तिके अनुसार प्रवृत्त हो जाता है । अतः परगण प्रवेश हो श्रेष्ठ है ।।४१३॥ ___समाधिका इच्छुक क्षपक जिनके निकट पहुँचता है वह आचार्य जिसने शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को भलीप्रकार ग्रहण किया है ऐसा होना चाहिये । प्रार्य-प्रार्थना करने योग्य अथवा समाधिके लिये जिसकी अनेक मुनि प्रार्थना करते हैं ऐसा होना चाहिये । चारित्र से सम्पन्न होना चाहिये, इस तरह का निर्यापक आचार्य सर्व प्रयत्नसे प्राप्त करना चाहिये ।।४१४।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार [ १२५ संविग्नस्याघभीतस्य पावरले व्यवस्थितः । अहदागमसारस्य भवत्याराषको यतिः ॥४१५॥ ॥ इति परगणचर्यासूत्रम् ॥ पंच षट् सप्त वा गत्वा, योजनानां शतानि सः । निर्यायकमनुज्ञातं, समाधानाय मार्गति ॥४१६॥ एकद्वित्रीणि चत्वारि, वर्षाणि द्वादशापि च । निर्यापक मनुज्ञातं, स मार्गयति निःश्रमः ॥४१७।। एकरात्रतत्सर्गः, प्रश्नस्वाध्याय पंडितः । सर्वत्रेवाप्रतिबंधः, स्थाकिलः साधुसंयुतः ॥४१८।। जो संसार शरीर और भोगोंसे उदासीन है, पापभीरु है, अहंतदेवके आगमके सारका ज्ञाता है ऐसे आचार्य के पादमूलमें जानेवाला यति आराधक-समाधिका साधक होता है ।।४१५॥ इसप्रकार परगणचर्या मामा पन्द्रहवां सूत्र पूर्ण हुआ। मार्गणा सूत्र समाधि मरण करनेवाला आचार्य पांचसो अथवा छह सौ सातसौ योजन तक भी जाकर निर्यापक आचार्य ( समाधिमरणकी समस्त विधिको जाननेवाले ) को प्राप्त करनेके लिये, एवं मैंने भलीप्रकारसे निर्यापकका अन्वेषण कर लिया है, इसमें कोई त्रुटि नहीं को इसप्रकार अपने समाधान के लिये आचार्यका मार्गण करता है ।।४१६।। मार्गणका काल प्रमाण बतलाते हैं-एक वर्ष अथवा दो, तोन चार वर्ष पर्यंत निर्यापकका अन्वेषण करता है, अथवा बारह वर्ष तक भी करता है, वह आचार्य श्रम रहित हो मार्गण करता हो जाता है ।।४१७।। निर्यापक आचार्य की खोजके लिये गमन करनेवाला आचार्य किसप्रकार गमन करें यह बताते हैं. एक रात्रि प्रतिमायोग धारण करना१ प्रश्न और स्वाध्यायमें कुशलतार विहार पथमें सर्वत्र स्थानादि अप्रतिबद्ध रहना३ स्थंडिल शायो ४ और साधुओं से संयुक्त होना५ ये पांच विशिष्ट कर्तव्य हैं निर्यापक का अन्वेषण करने वाले आचार्यके ॥४१८॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विगाधर :यालया तर बंगाल १२६ ] सदसौर मरणकण्डिका यद्यपि प्रस्थितो मूले, सरेरालोचनापरः । संपद्यते सरां मूक, स्तथाप्याराधको मतः ॥४१॥ यद्यपि प्रस्थितो मूले, सरेरालोचनापरः । विपद्यतेऽन्तरालेऽपि, सयायाराषकोऽस्ति सः ।।४२०॥ विशेषार्थ-निर्यापकको खोज करने के लिये प्रस्थान करनेवाले आचार्य में जो विशेषतायें हैं उन्हें यहां कारिका में बताया है, पांच विशेषतायें हैं। इनका स्वरूप भगवती आराधना टोकानुसार बताते हैं-एक रात्रि प्रतिमा योग-तोन उपवास करके चौथो रातमें ग्राम नगरादिके बाहर श्मशान वनादि स्थानपर पूर्व या उत्तरमें मुख कर नासाग्र दृष्टि एवं शरीर स्थिर करके सूर्योदय होनेतक ध्यानस्थ रहना एक रात्रि प्रतिमायोग कहलाता है । प्रश्नकुशल-विहार करते हुए मार्ग में गृहस्थ, आर्यिका, वृद्ध आदि को पूछकर अर्थात् रास्ते आदिके विषयमें पूछकर कार्य करनेमें कुशलता होना, इसतरह की कुशलता नहीं होगी तो इष्ट नामादि के प्रति गमन करने में परेशानी होगी। स्वाध्याय कुशल-स्वाध्याय करके आहारार्थ ग्रामादिमें गमन करना स्वाध्याय कुशलता है । सर्वत्र अप्रतिबद्धता-विहार पथमें किसो विशिष्ट स्थानमें, विशिष्ट श्राधकमें यतियोंमें स्नेह युक्त नहीं होना, सर्वत्र अप्रतिबद्धता कहलाती है, यदि बीच में किसीके प्रति मोह होगा तो आगे विहार नहीं कर पायेगा अतः सर्वत्र अप्रतिबद्धता चाहिये । स्थंडिलशायी-शरीरकी क्रिया-मल त्याग आदिके लिये प्रासुक स्थान देखना स्थंडिलशायित्व गुण है । साधु संयुत--बिहार करते समय सहायता करनेवाले योग्य मुनिके साथ विहार करना । ये पांच विशेषतायें निर्यापकके अन्वेषणमें निकलनेवाले आचार्यकी हैं। गुरुके निकट मैं आलोचना करूगा ऐसो भावनासे कोई साधु विहार कर रहा है और देव वश मार्ग में रोगादि से मूक अवस्था को प्राप्त होता है तो भी वह आराधक है ऐसा कहते हैं--मैं निर्यापक आचार्य के समक्ष जाकर अपने व्रत-संबंधी सर्व ही दोष कहूँगा, अपने दोषोंकी अवश्य आलोचना करूगा इसप्रकार जिसके हृदय में दृढ़ भावना है और वह रास्ते में ही किसी कारण वश मूकावस्था को प्राप्त होवे तो भी अतिशय रूपसे आराधक ही माना जाता है ।।४१९।। ___तथा उक्त साधु गुरुके निकट शुद्ध आलोचना करने की इच्छा लेकर विहार करता है और बीच में उसकी मृत्यु हो जाती है तो भी वह चार प्रकार की आराधना करनेवाला-समाधिमरण करने वाला ही माना जाता है ।।४२०।। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लेखनादि अधिकार [ १२७ आलोचना प्रवृत्तस्य, गच्छतः सरि सन्निधि । यद्यम्यस्त्यमुखः सूरि, स्तथाप्याराधकोऽस्ति सः ॥४२१॥ पालोचना प्रवत्सस्य, गच्छतः सूरि सन्निधि । यद्यपि म्रियतेसरि, स्तथाप्याराधकोऽस्ति सः ॥४२२॥ संवेगोगसंपन्नः, शुद्धयं गच्छत्यसो यतः । मनःशल्यं निराक, भवत्याराधकस्ततः ॥४२३॥ - - - - भावार्थ-मन, वचन और काय के द्वारा रत्नश्रय में जो दोष लगे हैं उन सबकी आलोचना गुरु के निकट करूगा ऐसी भावना लेकर जा रहे साधु के यदि रास्ते में ही मकता आ जाय अथवा मरण ही हो जाय तो भी उसकी समाधि पूर्वक मृत्यु मानी जाती है, क्योंकि उसके परिणाम निर्मल हैं। आलोचना करने का संकल्प करके जो गुरु के पास जाने के लिये चला है । यदि आचार्य बोलने में असमर्थ हों तो भी वह आराधक है ।।४२१।। जो आलोचना करने के लिये गुरु के निकट जा रहा है और जिस गुरु के निकट जाना था वे प्राचार्य मर जाँय तो भी वह आराधक है ।।४२२।। आलोचना किये बिना मृत्यु को प्राप्त हुआ मुनि आराधक कैसे माना जाता है इस प्रश्न का उत्तर देते हैं जिसकारण रत्नत्रय की शुद्धि के लिये यह साधु गमन करता है तथा संवेग और उद्वेग संपन्न है अर्थात् संसार भीरुता के भाव और शरीर सुखादि तृष्णावर्द्धक भाव जिसके नहीं हैं, जो मन के शल्य को निराकरण करने के लिये गमन करता है अर्थात् दोषों की आलोचना करने में किसी प्रकार मायादि शल्य नहीं रखूगा ऐसी सुविशुद्ध भावना बाला उक्त साधु है उस कारण वह बीच में मृत्यु को प्राप्त होने पर भी आराषक माना जाता है ।।४२३।।। भावार्थ-~-अपराध करके भी जो आलोचना नहीं करता वह मुनि मायावी है, मायाशल्य होने से रत्नत्रय में निर्मलता नहीं होती ऐसा विचार कर शल्य का उद्धार करने का जिसने निश्चय किया है, जिसके मन में संसार से भय उत्पन्न हुआ है, शरीर अपवित्र निःसार और दुःखदायक है, इन्द्रिय सुख तृष्णाग्नि बढ़ाता है ऐसा विचार कर उम सुख से जो निवृत्त हुआ है, रत्नत्रय में तीव्र रुचि वाला है ऐसा मुनि निज अपराध Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ) मरकण्डिका आचार जोदकल्पानां जायते गुरणचोपना । गुणाः स्वशुद्धच संपलेशौ माईवार्जवचतुष्टयम् ।।४२४ ।। आलोक्य सहसा यान्तमभ्युत्तिष्ठन्ति संयताः । आज्ञासंग्रह वात्सल्य प्रणामकृतयोऽखिलाः ॥४२५॥ को निवेदन करने के लिये गुरु के निकट जा रहा है उसके मार्ग में मूकता आने पर या मृत्यु होने पर भी उसको आराधना करने वाला ही माना गया है । निर्यापक के अन्वेषण में गमन करने वाले साधु के जो नूतन गुण प्रगट होते हैं उन्हें कहते हैं- आचार शास्त्र, जीद शास्त्र और कल्प शास्त्रों के गुणों का प्रकाशन होता है, अपनी परिणाम की शुद्धि, संक्लेश का अभाव, मार्दव तथा आर्जव इन चार गुणों की प्राप्ति निर्यापक की खोज में निकले हुए साधु को होती है ||४२४|| विशेषार्थ - आचार शास्त्र, जीद शास्त्र और कल्प शास्त्र ये निरतिचार रत्नत्रय का स्वरूप बतलाने वाले हैं, नियंपिक का अन्वेषक इन रत्नत्रयों को निर्मलता के लिये अवश्य प्रयत्न करता है अतः इन शास्त्रोक्त आचरणों का प्रगटीकरण होता है । आत्मा की शुद्धि होती है । संक्लेश परिणाम नष्ट होते हैं, अथवा विहार करना क्लेश दायक है ऐसा समझेगा तो गुरु के अन्वेषण के लिये कष्ट क्यों सहेगा ! किन्तु जिनको आराधना सिद्धि की इच्छा है ये कष्ट सहन कर गुरु का अन्वेषण करते हैं इसमें संक्लेश नहीं करते | गुरु के अन्वेषणार्थ विहार करने से आर्जव गुण प्रगट होता है, क्योंकि गुरु के निकट कपट छोड़कर आलोचना करता है । पराये संघ में जाने से अभिमान का परिहार होता है इससे मार्दव भाव जागता है । इसतरह परगण में जाने वाले मुनि को ये गुण अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं । जब निर्यापक का अन्वेषक किसी एक संघ में प्रवेश करता है तब आते हुए उस साधु को देखकर शीघ्र ही राब संयत जन उठकर जिनदेव को आज्ञापालन वात्सल्य और प्रणाम हेतु खड़े हो जाते हैं ||४२५ || भावार्थ -- अतिथि मुनि को आता हुआ देखकर परगणस्थ यति सहसा खड़े हो जाते हैं, खड़े हो जाने से जिनाज्ञा का पालन होता है, आगत मुनि की स्वीकृति हो जाती है और उनके प्रति वात्सल्य प्रगट होता है । आगत मुनि का आचरण भी इस उपाय से जाना जाता है इसलिये आगत मुनि को देखकर शीघ्र खड़े होना चाहिये । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार वास्तव्यागंतुकाः सम्यक् विविधः प्रतिलेखनैः । क्रियाचारित्रबोधाय, परीक्षन्ते परस्परम् ।।४२६॥ आवश्यके ग्रहे क्षेपे, स्वाध्याये प्रतिलेखने । परीक्षन्ते यचोमार्गे विहाराहारयोरपि ॥४२७।। [ १२६ वास्तव्य मुनि और आगंतुक मुनि एक दूसरे की क्रिया और चारित्र का बो होने के लिये विविध प्रतिलेखनों द्वारा अच्छी तरह से परस्पर में परीक्षा करते हैं ।।४२६।। विशेषार्थ - आगंतुक मुनि और वास्तव्य मुनि परस्पर का आचरण देखते हैं । वास्तव्य मुनि परीक्षा करते हैं कि यह आया हुआ साधु समितियों का पालन करता है या नहीं। छह आवश्यक क्रियायें यथा समय होती हैं या असमय में होती हैं । आचार्यों हुआ करता है उसका परिज्ञान करने हेतु अन्योन्य की परीक्षा जानने के लिये भो में करते हैं । आगत मुनि अपने साथ रहने योग्य है अथवा नहीं यह परीक्षा करते हैं । छह आवश्यक क्रिया वास्तव्य मुनियों में है या नहीं आगत मुनि में हैं या नहीं, वस्तुओं का रखना और उठाना देखभाल पूर्वक है या नहीं, स्वाध्याय में तत्परता कमंडलु आदि का शोधन, वार्तालाप, विहार और आहार इन सब विषयों में वे दोनों परस्पर का निरीक्षण करते हैं ||४२७|| विशेषार्थं - संवर और निर्जरा के लिये मुनिजन सामायिक वंदना, स्तव, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यकों को करते हैं, अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक नाम वाले हैं । आगत मुनि यह देखता है कि वास्तव्य मुनि सामायिकादि को शास्त्रोक्त विधि से करते हैं अथवा नहीं, एवं वास्तव्य मुनि आगत मुनि की उक्त क्रियाओं का निरीक्षण करते हैं कि यह केवल द्रव्य सामायिक आवर्त भक्तिपाठ आदि ही करता है या भाव सामायिक- रागद्वेष के त्याग रूप शुद्ध भाववाली सामायिक करता है । एक तीर्थंकर की स्तुति वंदना में और चतुर्विंशति तोर्थंकर स्तुति में भक्तिभाव है या नहीं, प्रतिक्रमण केवल पाठ का उच्चारण तो नहीं कर रहा, त्याज्य पदार्थ में कहीं आसक्ति तो नहीं कर रहा है । कायोत्सर्ग में शरीर की निश्चलता पूर्वक मन की निश्चलता है अथवा नहीं इत्यादि रूप से देखते हैं । नेत्रों से देखकर पुनः Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] मरएकण्डिका देयः संघाटकोऽवश्यमागताय दिनत्रयम् । प्रसंस्तुतस्य यत्नेन, शय्यासंस्तरकावपि ॥४२८॥ संघाटको न दातव्यो, नियमेन ततः परम् । यते एक्तचरित्रस्य, शय्यासंस्तरकावपि ॥४२६।। गुलानस्य यतेः सूरे, रनिराकृतदूषणम् । उद्गमोत्पादनाहार वोषशुद्धिर्न जायते ॥४३०।। शोधन कर उपकरणादि को उठाता रखता है या नहीं इन क्रियाओं में जीवों की सुरक्षा करता है या इधर उधर फेंक देता है । वचन कसे बोलता है गृहस्थ जैसे या मिथ्यात्व वर्द्धक वचन तो नहीं बोलता इत्यादि रूपसे देखते हैं । अन्तमल का विसर्जन प्रासुक भूमि में गूढ़ स्थान पर करता है या नहीं, आहार को नव कोटि से परिशुद्ध करता है अथवा नहीं ! इसतरह परस्पर में परीक्षण करते हैं। आगत मुनि संघनायक का आश्रय कर निवेदन करता है कि हे गुरुदेव ! सहाय देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये | इसप्रकार कहने पर उक्त मुनि के लिये तीन दिवस तक अवश्य ही संघ में संमिलित कर लेना चाहिये, तथा अभी प्रयत्न से परीक्षण नहीं हुआ है तो भी शय्या संस्तर उसे देना चाहिये ।।४२८॥ किन्तु तीन दिनों के बाद उसे संघाटक (संघमें आश्रय) नियम से नहीं देना चाहिये भले ही युक्त चारित्र वाला मुनि हो, उसे तीन दिन के बाद शय्या संस्तर भी नहीं देना चाहिये ।।४२९।। भाव यह है कि आगंतुक मुनि का आचरण योग्य है किन्तु उसकी पूर्ण परीक्षा नहीं हो पायी है तो ऐसी स्थिति में उसे संघाटक शय्यासंस्तर नहीं देना चाहिये । यदि आगत मुनि को तीन दिन में ज्ञात कर लेते हैं कि यह गण में रहने योग्य नहीं है तो उसे सहायता होगी ही नहीं, किन्तु जो योग्य है किन्तु पूर्ण परीक्षा नहीं हुई तो उसे आगे संघाटक नहीं देते हैं । ___ यहां पर प्रश्न होता है कि इस तरह परीक्षा का प्रयत्न क्यों करते हैं ? विना परीक्षा के संघाटक क्यों नहीं करते ? आगे इसी को बताते हैं-आगत मुनि के दोषों को दूर कियो बिना ही उसे ग्रहण किया जाय तो आचार्य के उद्गम, उत्पादन और आहार संबंधी एषणा दोष इन दोषों को शुद्धि नहीं होती ।।४३०॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखनादि अधिकार छंद रथोद्धता स प्रणम्य गणनायकं श्रिथा, भाषते निशि विवाथ संश्रितः । आगमस्य विनयेन कारणं, सिद्धये न विनयं विना किया ||४३१॥ छंद शालिनी [ १३१ विश्राम्पास शल्यमुद्धतु कामः श्रान्तः स्थित्वा वासरं तं द्वितीये । तथाचार्य ढोकते वा तृतीये न प्रारब्धं साधयो विस्मरन्ति ॥ ४३२ ॥ ॥ इति मार्गरपासूत्रम् ॥ विशेषार्थं -- आगत मुनि आलोचना नहीं करता, उद्गम, उत्पादना एषणा दोषों से युक्त आहार लेता है तो उसके साथ आचार्य रहता है या अन्य मुनियों को रहने के लिये अनुमति देता है वह भी आगत मुनिके समान सदोष माना जायगा । आगत मुनि दोषों में अशुद्ध है तथा आलोच्ना द्वारा अपनी शुद्धि भी नहीं करता तो उसे संघ से अलग करना ही उचित है अन्यथा उसके साथ रहने से स्वयं आचार्य तथा संघ उसीप्रकार उद्गम आदि दोषों से युक्त आहार ग्रहण करने लग जायेंगे । आगत मुनि आचार्य को मन, वचन और काय से नमस्कार कर दिन अथवा रात में उनके आश्रय में रहकर विनयपूर्वक अपने आने का कारण बतलाता है, ठीक हो है, क्योंकि विनय के बिना की गयी क्रिया कार्य सिद्धि के लिये नहीं हुआ करती हैं ।। ४३१ ।। जो अपने शल्य को दूर करना चाहता है, बिहार से थका हुआ है ऐसा वह आगल मुनि पहले दिन विश्राम करता है पश्चात् दूसरे या तीसरे दिन वहां के आचार्य के समीप उपस्थित होता है । ठीक ही है, क्योंकि प्रारंभ किये हुए कार्य को साधुजन भूलते नहीं हैं अर्थात् जिस कार्य के लिये आये हैं उसका विस्मरण नहीं होने देते, यहां आगत मुनि का कार्य आचार्य निकट अपना अभिप्राय निवेदन करना एवं आलोचना करना है ||४३२|| ॥ मार्गणा सूत्र समाप्त (१६) ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र सुस्थितादि अधिकार प्राचारी सरिराधारी, व्यवहारी प्रकारकः । पायापायगुत्पीडित सुखकार्यपरिस्रवः ॥४३३॥ एभिनियपिकः सूरि, गुणरष्टभिरन्वितः । वातुमाराधनामोशः, पृथुकोतिरुपेयुषे ॥४३४।। प्राचारी स मतः सूरि, रतिचारनिराकृतः । चर्यते चार्यते येन, पंचाचारोऽनुमन्यते ॥४३५॥ -' - - -- -- - सुस्थित नामका सतरहवां अधिकार जिस आचार्यका आगंतुक मुनि आश्रय लेता है उसमें कोन कौनसे गुण रहते हैं ऐसा प्रश्न होनेपर उनके आठ गुणोंको बताते हैं आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान् प्रकारक (कर्ता) आयापायहम्, उत्पीड़क, सुखकारी और अपरिस्रावी ।।४३३।। __इन आठ गुणोंसे समग्वित आचार्य निर्यापक होता है वह विशाल कीत्ति संयुक्त होता है अपने निकट आगत साधुको आराधना-समाधिमरणको देने के लिये ऐसा निर्यापक ही समर्थ होता है ।।४३४।। आचारवान् जो अतिचार रहित पत्राचार को स्वयं पालन करता है और दूसरोंसे पालन कराता है वह आचार्य आचारवान् कहा जाता है ।।४३५।। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३३ सुस्थितादि अधिकार दशधा स्थितिकल्पे वा, सुस्थितो गतदूषणे । आचारी कथ्यते युक्तः सूरिरागममातृभिः ॥४३६ । अचेलकत्वमुद्दिष्ट, शय्यशाहारवर्जने । राजपिडविवजित्वं, कृतिकर्म प्रवर्तनम् ॥४३७॥ व्रतप्ररोहणाहत्त्वं, ज्येष्ठत्वं च प्रतिक्रमः । मासकास्थितिः पर्यास्थितिकल्पा दशेरिताः ॥४३८।। प्रथवा दोष रहित दश प्रकारके स्थितिकल्पमें जो स्थित रहता है तथा तीन भूप्ति और पांच समिति रूप अष्ट प्रवचन मातासे युक्त होता है वह आचार्य आचारवान कहा जाता है ।।४३६।। दश प्रकारका स्थितिकल्प बतलाते हैं अचेलकत्व१ उद्दिष्ट शय्यात्याग२ उद्दिष्ट आहार त्याग३ राजपिंड त्याग४ कृतिकर्म प्रवृत्त५ व्रतारोपण अर्हत्व६ जेष्ठत्व७ प्रतिक्रम मासैक वासिता और पर्या१० ये दश स्थितिकल्प हैं ।।४३७॥४३॥ विशेषार्थ-अचेलकत्व-वस्त्रका अभाव चेल वस्त्रको कहते हैं यह उपलक्षण है इससे संपूर्ण पदार्थोंका त्याग यह अर्थ फलित होता है, विशमो, सूती, ऊनी वृक्षके वष्कल अजिन-चर्म इत्यादि शरीरके आच्छादनके कारणभूत पदार्थ मात्रका त्याग अचेलक शब्दसे लिया जाता है । मुनिके इस गुणसे चौरका भय नहीं होता, वस्त्रको धोना सुखाना, फटने पर सोना, नये वस्त्र की याचना इत्यादि आरंभ हिंसा दोनता को करने वाले दोष उत्पन्न नहीं होते । वस्त्र रहित होनेसे वायुवत् निःसंग सर्वत्र अप्रतिहत विहार होता है, ध्यानमें स्थिरता वस्त्र त्यागसे होगी यदि वस्त्र रहेगा तो वायु आदिसे उसको सम्हालने में चित्त चंचल हो उठेगा । यह मेरा वस्त्र बहुत सुंदर है इत्यादि रूप अभिमान वस्त्रके त्यागी मुनिको नहीं होता । ऐसे और भी बहुत से गुण वस्त्र त्यागसे प्राप्त होते हैं । यह अचेलकत्व स्थितिकल्प है । उद्दिष्ट शय्या त्याग-अपमे निमित्तसे बनायी गयो वसतिका का त्याग करना उद्दिष्ट शय्यात्याग स्थितिकल्प है । उद्दिष्ट आहार त्याग-अपने निमित्तसे बनाया गया पाहार ग्रहण नहीं करना उद्दिष्ट आहार त्याग नामा तीसरा स्थितिकल्प है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] मरण कण्डिका प्रचभीरुको नित्यं दशस्वेतेषु यः स्थितः । क्षपकस्य समर्थोऽसौ वक्तुं चर्यामदूषणाम् ||४३६॥ राजपिंड त्याग-राजाके यहापर आहार ग्रहण नहीं करना राजपिंड त्याग कहलाता है, राजा यहां आहारार्थं मुनि प्रवेश करनेपर वहां कोई उन्मत्त दास-दासी उपहास कर सकते हैं, रत्नोंके बहुमूल्य पदार्थ वहां रहते हैं उनका कोई अन्य अपहरण करें और दोषारोपण मुनि पर आवे कि यही राजमहल में आया था इसीने रत्नहार चुराया इत्यादि वहां अत्यंत गरिष्ठ आहार ग्रहण करनेपर गृद्धता आयेगी -विकार आयेगा इत्यादि अनेक दोष राजपिंड ग्रहणसे हो सकते हैं अतः इसका त्याग बताया है यदि ये दोष नहीं आते हों तो राजपिंड ग्रहण कर सकता है । कृतिकर्म प्रवृत्त -- छह प्रावश्यक क्रियायें आवर्त, शिरोनति दण्डक, कायोत्सर्ग आदिसे युक्त होती हैं उन सबको यथाविधि करना कृतिकर्म प्रवृत्त है, अथवा चारित्र संपन्न मुनिका, गुरुका, अपने से बड़े मुनिका विनय करना कृतिकर्म प्रवृत्तत्व स्थितिकल्प है । व्रतारोपण अर्हत्व - पांच महाव्रत, समिति आदि व्रतोंको योग्य मुमुक्षु जीवोंको देना अर्थात् योग्य शिष्योंको व्रतोंसे संपन्न करना । अमुक शिष्य व्रत धारणके योग्य है, अमुक नहीं इत्यादि जाननेको बुद्धिका होना । दीक्षाके योग्य मुमुक्षुको दीक्षा देना आदि व्रतारोपण अर्हत्व है | जेष्ठत्व - आर्यिका ऐलक आदि सबमें जेष्ठता मृनिमें होती है, अथवा मुनि समुदाय में चारित्र आदिसे विशिष्टता होना आचार्यका जेष्ठत्व स्थितिकल्प है । प्रतिक्रम - देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि प्रतिक्रमणोंमें तत्परता प्रतिक्रम स्थितिकल्प है । मासैकवासिता चातुर्माससे अन्य दिनोंमें एक स्थानपर एक मास से अधिक नहीं रहना मासैक वासिता है । पर्या-पाद्य चातुर्मास में बिहार नहीं करना पर्या अथवा पाद्म नामका अंतिम दसवां स्थितिकल्प है । चातुर्मास में विहार करने से हरितकाय आदि जीवोंको विराधना होती है उससे असंयम होता है अत: साधुजन वर्षाकालमें विहार नहीं करते । इसप्रकार दश स्थितिकल्पों का वर्णन किया । इन दश स्थितिकल्पोंमें जो आचार्य स्थित है, नित्य हो पाप भीरु है, ऐसा आचार्य ही क्षपकको निर्दोष चर्याका प्रतिपादन करने में समर्थ होता है ||४३६|| Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १३५ उधतः पंचधाचारं या कत्तु समितक्रियः । क्षपकः पंचधाचारे प्रेयंते तेन सर्वदा ॥४४०॥ अशुखमुधिं शय्यां भक्तं पानं च संस्तरम् । सहायानप्यसंविग्नान् विधत्ते च्यवनस्थितिः ॥४४१॥ छंद उपजाति-- सल्लेखनायाः कुरुते प्रकाशनां कथामयोग्यां क्षपकस्य भाषते । स्वरं पुरस्तस्य करोति मंत्रणं गंध प्रसनादि विधि च मन्यते ॥४४२।। सारणां वारणा नास्य कुरुते च्यवनस्थितः । क्षपकस्य महारंभं कंचित्कारयते गणी ॥४४३॥ जो आचार्य पांच प्रकारके आचारके पालनमें उद्यमशील है समिति क्रिया में । तत्पर है उस आचार्य द्वारा हमेशा क्षपक पंचाचारमें प्रेरित किया जाता है। अर्थात् स्वयं आचार संपन्न होनेपर ही क्षपकको उसमें प्रेरित कर सकते हैं अतः आचार्य आचारवान् होना चाहिये ।।४४०।। जो आचार्य अशुद्ध उपधि, अशुद्ध आहार पानी, अशुद्ध वसतिका, अशुद्ध संस्तर को ग्रहण करता है वह क्षपकके लिये वैराग्य रहित अर्थात् अशुद्ध आहार आदिको ग्रहण करने वाले मुनियोंको संहायी बनायेगा । क्षपककी सेवा वैयावृत्यमें ऐसे मुनियोंको नियुक्त करता है और उससे क्षपक अपने व्रत समाधि आदिसे ज्युत हो जाता है। यह स्थिति न हो एतदर्थ आचार्य को आचारवान् होना जरूरी है ।।४४१।।। अयोग्य, आचार विहीन आचार्य असमयमें गृहस्थोंके समक्ष सल्लेखनाको प्रगट कर देता है । क्षपकको अयोग्य राजकथा आदि कथायें सुनाने लग जाता है। मनचाहा योग्य, अयोग्य विचार क्षपकके आगे कहने लग जाता है, लोगोंको गंध पुष्प आदि लाने को कहता है इत्यादि क्षपकके परिणाम बिगड़ने वाले कार्य अयोग्य निर्यापक करता है ॥४४२।। जो निर्यापक च्यवनस्थित भ्रष्ट है वह क्षपकको सारणा-रत्नत्रयमें लगाना, और वारणा-दोषोंसे रोकना नहीं कर पाता, क्षपकके लिये महारंभ आदि दोष जन्य कार्य जैसे महारंभ करके वसतिका बनवाना प्रादि आरंभ हिंसा रूप कुछ भी कार्य को करायेगा ।।४४३।। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] मरणकण्डिका प्राचारस्थः पुनर्दोषान्यतः सर्वान्विमुचति । निर्यापकस्ततः सरिराचारस्थोऽभिधीयते ॥४४४॥ ।इति आचारी। धोरोऽखिलांगपूर्वजो यः कालव्यवहारवित् । प्राधारी स महाप्रज्ञो गंभीरो मंदर स्थिरः ॥४४॥ चतुरंगमगीतार्थो नाशयेल्लोकपूजितम् । संसृतौ लप्स्यते भूयो नाशितं तच्च दुःखतः ॥४४६॥ संसारसागरे घोरे दुःखनक्रकुलाकुले । दुःखतोऽटाट्यमानेन प्राप्यते जन्म मानुषम् ।।४४७।। देशोजाति कुलं रूपं कल्पता जीवितं मतिः । श्रवणं ग्रहणं श्रद्धा संयमो दुर्लभो भवेत् ॥४४८।। जिसकारणसे आचार स्थित आचार्य उक्त दोषोंको नियमसे छोड़ देता है, उस कारणसे निर्यापक प्राचारवान् होना चाहिये ऐसा कहा है ।।४४४।। आधारवान ___ जो प्राचार्य धीर है, संपूर्ण अंग और पूर्वका ज्ञाता है समय और व्यवहार को जाननेवाला, महाप्रज्ञ, सुमेरु सदृश स्थिर मनवाला और गंभीर है बह आधारी या आधारवान् कहा जाता है ।।४४५।। आचार्य आधारवान् नहीं है अर्थात् शास्त्रका ज्ञाता नहीं है तो क्या हानि है इस बातको बताते हैं शास्त्रके गूढ़ सिद्धान्तका जो निर्यापक मर्मज्ञ नहीं है वह क्षपकके लोकपूजित चतुरंग अर्थात् चार आराधनाको नष्ट कर देता है। एक बार आराधनाके नष्ट हो जानेपर संसारमें बह पुनः प्राप्त होना अत्यंत कठिन है ।।४४६।। • दुःख रूपी नोंके समुदायसे जो भरपूर है ऐसे घोर संसार सागरमें भ्रमण करते हुए बड़ी कठिनाईसे मनुष्य जन्म प्राप्त होता है ।।४४७।। मनुष्यभव प्राप्त होने पर भी योग्य देश अर्थात् जहां धर्माराधना है ऐसे देश में जन्म होना दुर्लभ है, उसमें भी सज्जाति ( जाति संकर, वीर्यसंकर आदि जिस जाति में नहीं होते वह सज्जाति कहलाती Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार महूदुर्लभसंतस्था साधुवापि संयमम् । लभते नाशसानिध्ये वेशनां धृतिवद्ध नीम् ॥४४६ || [ १३७ है अर्थात् जिस जाति में स्त्रियोंके एकबार ही विवाह होता है, पतिके मरनेपर या जीवित रहने पर किसी भी स्थिति में दूसरा नहीं होता है, जो व्यभिचारी स्त्री की संतान परंपरा नहीं है, एवं गुण विशिष्ट सज्जातित्व होता है ] और कुलका होना, नीरोगता, दीर्घायु, हेयोपादेय बुद्धि, जैन धर्मका श्रवण, ग्रहण और श्रद्धाका होना महान् दुर्लभ है, इन सबके होने पर भी सकल संयमको प्राप्त होना तो अत्यंत दुष्कर है ।।४४८ || विशेषार्थ-संसार परिभ्रमण पांच प्रकारका है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव । इन पंच परावर्तनोंका वर्णन बहुत विस्तृत है । यहां अति संक्षिप्त नाम मात्र बताते हैं- द्रव्य परिवर्तन-नारकादि चारों गतियोंके शारीरोंका बार-बार ग्रहण और विसर्जन एक विशिष्ट तरीके से होते रहा । क्षेत्र परिवर्तदोषा काणके संपूर्ण प्रदेशों में विशिष्ट क्रमसे जन्म मरण होना । काल परिवर्तन - उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के प्रत्येक समयों में क्रमशः जन्म-मरणकी पुनः पुनः आवृत्ति होना । भव परिवर्तन- प्रत्येक गति संबंधी जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक सब तरह की आयुको क्रमसे प्राप्त करते रहना । भाव परिवर्तन कषाय अध्यवसान, योग स्थान आदि विशिष्ट तरीकेसे परावर्तन-परिवर्तन होते रहना । इसप्रकार परिवर्तनों में क्रमसे भ्रमण करते हुए इस जीवको मनुष्य भव मिलना दुर्लभ है, कैसे सो बताते हैं--तीन सौ तैतालीस घन राजू प्रमाण इस विशाल विश्व में केवल ढाई द्वीपमें मनुष्य रहते हैं अतः सर्वत्र भ्रमण करते हुए यह स्थान दुर्लभता से बहुत काल - अनंतकाल व्यतीत होनेपर प्राप्त होता । इसकी दुर्लभता वैसी है जैसे साधुके मुख से कठोर वचन निकलना दुर्लभ, या सूर्यमें अंत्रकार, क्रोधी में दया, लोभी में सत्यवचन, मानी में परगुणकथन, स्त्रियोंमें सरलता, दुष्ट में उपकार मानना, जैनमतों में वास्तविक तत्त्वबोध जैसे ये सब दुर्लभ हैं वैसे ही मनुष्यभव मिलना दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय मिलनेपर भी आर्यक्षेत्र, लोकपूजित जाति एवं कुल, प्रशस्त रूप, बालकालमें नहीं मरना, हेयोपादेय बुद्धि, नीरोगोपना, जैनधर्मके उपदेशका सुनना उसे ग्रहण करना और उसपर श्रद्धा होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है अर्थात् इन सबमें से एक मिलता है तो दूसरा नहीं मिलता, दूसरा मिलता है तो तीसरा नहीं । सबका सब मिलना अति दुष्कर है, इनके मिलनेपर भी संयम प्राप्त होना दुर्लभ है । इसतरह बहुत कठिनाईसे क्षपक मुनिराजने संयमको प्राप्त किया है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] मराकण्डिका प्रपाल्यापि चिरं वृत्तमश्रुताधारसन्निधौ । अलब्धवेशनो मृत्युकाले प्रशते ततः ॥४५०॥ दोषेभ्यो वार्यते दुःखं, संन्यस्तः क्रियते सुखम् ।। छिद्यते सुखनो वंशः, कृष्यते दुःखतस्ततः ॥४५१॥ अयमन्नमयो जीप, स्त्याज्यमानस्त्वसौ कदा । प्रात्तंरौद्राकुलीभूत, चतुरंगे न वर्तते ॥४५२॥ शिक्षान्मश्रतिपानाम्यां, साधाप्यायितः पुनः । धातृणाभिभूतोऽपि, शुद्धथ्याने प्रवर्तते ॥४५३।। ऐसे बहु दुर्लभ संतति-परंपरासे प्राप्त संयमको क्षपक साधु प्राप्त करके भी अज्ञानी निर्यापकके सानिध्य में धैर्यको बढ़ानेवाले उपदेशामृतको प्राप्त नहीं कर सकता ॥४४९।। और जिसको धर्मका उपदेश नहीं मिला है ऐसा वह क्षपक श्रुतज्ञानसे रहित उक्त निर्यापकके निकट अपने चिरकाल तक पाले हुए चारित्रको मृत्युकालमें नष्ट कर डालता है ।।४५०।। समाधिमें उद्यत उस क्षपकको उपदेश के द्वारा ही दोषोंसे रोका जाता है, उपदेशसे ही उसका दुःख भुलाया जाता है और सुखी कराया जाता है । जैसे बांस जब तक अति छोटा अंकुर रूप है तब तक उसको सुखसे उखाड़ा जा सकता है किन्तु बड़ा हो जानेपर कठिनाईसे उखाड़ा जाता है, वैसे ही इन्द्रिय विषय भोजन पान आदिमें मया हुआ क्षपकका मन बड़ी कठिनाईसे रोका जा सकता है उसके लिये कर्ण प्रिय मधुर वाणोसे धर्मोपदेश देना अति आवश्यक है और ऐसा उपदेश अज्ञामी निर्यापक दे नहीं सकता ।।४५१।। यह संसारी जीव अन्नमय है अर्थात् मनुष्य अन्न बिना रह नहीं सकता ऐसे अन्नका क्षपक त्याग कर रहा है उस समय कदाचित् अन्न के अभावमें आरौिद्र भावसे आकुलित हुआ क्षपक चार आराधनाओं में प्रवृत्ति करना छोड़ देता है ।।४५२।। हितको शिक्षा रूप उत्कृष्ट अन्न और शास्त्र श्रवण रूप पान के द्वारा क्षपक साधुको संतुष्ट तृप्त कराया जाता है उससे वह भूख प्याससे पीड़ित होनेपर भो पुनः शृद्ध ध्यान में प्रवृत्त हो जाता है ॥४५३॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार साधोर्वाधितस्य ददाति न । समाधिजननक्षमं ।।४५४। + ताभ्यां प्रपीडितो बाढं भिन्नभावस्तनुश्रुतः । रोधनं याचनं दैन्यं, करुणं विदधाति सः ।।४५५ ।। पूत्कुर्यादसमाधानपानं पिबति पीडितः I मिथ्यात्वं क्षपको गच्छेद्विपद्येता समाधिना ।। ४५६ ॥ हित्वा निर्भर्त्स्यमानोऽसौ संस्तरं गन्तुमिच्छति । प्रत्कुर्वत्यय शस्तत्र त्याज्यमाने घ जायते ।।४५७॥ क्षुषया तृष्णया उपदेशमशास्त्रज्ञः, [ १३६ ज्ञास्त्रज्ञान से रहित निर्यापक भूख और प्याससे पीड़ित क्षपक साधुको समाधिशांतभावको उत्पन्न करने में समर्थ से विशिष्ट उपदेशको के नहीं सकता । अतः निर्यापक शास्त्रज्ञ होना आवश्यक है ||४५४ || क्षुधा और तृपासे अधिक पोड़ित हुआ क्षपक शुभ परिणामको छोड़ देता है, तथा यह होनबुद्धि सुनने वालोंको करुणा दया उत्पन्न करनेवाला रुदन करने लग जाता है, भोजन की याचना करता है तथा दीनता करता है ||४५५ ।। असमाधान पानगृहस्थ द्वारा प्रदत्त भूख प्यास से पीड़ित क्षपक जोरसे चिल्लाने लगता है, अर्थात् अकालमें पानी पीने लगता है । स्वयं खड़े होकर हाथसे पानी योग्य समयपर पीना समाधिपान है और इससे विपरीत पान बैठकर पानी पीना इत्यादि अयुक्त कार्य करता है । सदुपदेशके भावको प्राप्त हो जाता है अर्थात् सम्यक्त्व रत्नसे रहित होता है, और इस तरह असमासे मृत्युको प्राप्त होता है ||४५६ || करना - विना दिये अभाव में मिथ्यात्व क्षपक उपर्युक्त अयुक्त कार्य करता है उस समय यदि उसका तिरस्कार किया जाय तो वह संस्तर छोड़कर भागना चाहेगा । रोने चिल्लाने वाले क्षपक को यदि संघ छोड़ देगा तो धर्मका महान् अपयश होगा। इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्रज्ञानसे रहित निर्यापक क्षपकका नाश कर देता है ।।४५७ ।। यहां तक नियपिक शास्त्रज्ञ न हो तो क्या क्या दोष आते हैं यह बताया । अब निर्याणक शास्त्रज्ञ होनेपर जो लाभ होता है उसको कहते हैं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] मरणकण्डिका समाधानविधि तस्य, विधत्ते शास्त्रपारगः । वीप्यते दीपितः कर्णाहुतिभियानपावकः ॥४५॥ भपकेच्छाविधानेन, शरीरप्रतिकर्मणा । समाधि कुरुते सम्यगुपायरपरैरपि ॥४५६।। वैघ्यावृत्यकरस्त्यक्तं, मा भषोरिति भाषते । निषिध्य संसृति तस्य, समाधानं करोति सः ॥४६०॥ शास्त्रों में पारंगत निर्यापक क्षपकके समाधानविधिको करता है अर्थात् जिस तरह क्षपकका मन शान्त हो वेदनानुभव कम हो उसतरह प्रवृत्ति करता है, उस भपकको दीपित ध्यान रूपी अग्निको उपदेश रूपी आहुति द्वारा पुनः दीप्त करता है, अर्थात् क्षपक धर्मध्यानमें लोन हो ऐसा उपदेश देता है ।।४५८॥ शास्त्रज्ञ निर्यापक क्षपककी इच्छा पूर्ण कर उसे रत्नत्रयमें स्थिर करता है, शरीरकी बाधायें-पीड़ा दर्द कमजोरी को मिटा देता है, तथा अन्य अन्य भले उपाय जैसे मधुर भाषण, सुदर उपकरण, प्राचीन सल्लेखना करनेवाले महापुरुषोंकी श्रेष्ठ कथायें सुनाना आदिसे भी क्षपकको समाधि करता है ।।४५९।। वैयावृत्य करनेवाले मुनिजनोंने क्षपकको छोड़ दिया हो तो निर्यापक उसे दिलासा देता है कि तुम डरना नहीं, हम तुम्हारो सेवा करेंगे इत्यादि धैर्य वचन कहता है। जिससे संसार बढ़ता है ऐसे कार्य या परिणामका निषेध करके निर्यापक क्षपकका समाधान करता है ।।४६०।। भावार्थ--सुश्रुषा सेवा करने वाले मनि क्षपक की भर्त्सना करते हैं कि तुम परोषह सहन नहीं करते हो, बहुत रोते चिल्लाते हो, तुम्हारेसे हम कुछ प्रयोजन नहीं रखते, तुम बहुत चंचल मन वाले हो इत्यादि । इसतरह क्षपकको तिरस्कृत होते देख निर्यापक शीघ्र उसको सांत्वना देता है भोक्षपक ! तुम अभय रहो ! तुम्हारा वैयावृत्य हम स्वतः करेंगे । ऐसा आश्वासन देकर क्षपकको रत्नत्रयमें स्थिर करना तथा जिन्होंने क्षपक्रको डाटा था उन्हें समझाना कि अहो ! यह क्षपक महापुरुष है, इस महान् सन्यासविधिको कौन कर सकता है । आपको इनके प्रति कटुवचन नहीं कहना चाहिये। इसतरह योग्य निर्यापक दोनोंको क्षपक और वैयावृत्य कारकोंको समझाता है । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १४१ जानाति प्रासुकं द्रव्यं गीतार्थो व्याधिनाशनम् । श्लेष्ममारुतपित्तानां विकृतानां च निग्रहम् ।।४६१।। श्रतपानं यतस्तस्मै बत्त शिक्षण भोजनम । सुत्तमानाकुमानित... तो ध्याने प्रवर्तते ॥४६२।। छंद उपजातिगुणाः स्थितस्येति बहुप्रकारा गीतार्थमूले क्षपकस्य संति । संपद्यते काचन नो विपत्तिः संक्लेशजालं न च किंचनापि ॥४६३।। आधारी। जानाति व्यवहारं यः, पंचमेदं सविस्तरम् । दत्तालोकितशुद्धिश्च, व्यवहारी स भण्यते ॥४६४।। शास्त्रका ज्ञाता निर्यापक व्याधिनाशक शुद्ध प्रासुक आहारको जानता है कि अमुक बस्तु रोगनाशक है तथा जो कफ, वायु और पित्त विकृत हुए हैं उनका निराकरण करना भी अच्छी तरह जानता है ।।४६१॥ निर्यापक क्षपकके लिये श्रुतरूपी पान और हितकारी शिक्षारूप भोजन देता है जिससे वह भूखप्याससे आकुल चित्त होने पर भी ध्यानमें प्रवृत्ति करता है ॥४६२॥ इसप्रकार शास्त्रके ज्ञाता निर्यापकके चरणमूल में समाधि करनेवाले क्षपक साधुके बहुत से गुण होते हैं। उस क्षपकको योग्य निर्यापकके निकट न कोई विपत्ति आती है और न कुछ संक्लेश भाव हाता है । वह शान्तभावसे समाधिमरण में अग्रसर होता है ।।४६३।। इसप्रकार आधारी का कथन हुआ। व्यवहारीका कथन जो सविस्तर पाच भेववाले व्यवहारको जानता है तथा जिसने बहुत बार शिष्यमण्डलीको प्रायश्चित्त दिया है, अपने गुरुका प्रायश्चित्त देनेका क्रम भी जिसने भलीभांति देखा है वह निर्यापक आचार्य व्यवहारी कहा जाता है ।।४६४॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] मरणण्डिका व्यवहारोमतो जीद, एतेषां सूत्रनिर्दिष्टा द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय, सम्यक् संहननमुत्साहं, श्रुतज्ञागमधारणा । ज्ञेया विस्तरवरांना भाषकृतोद्यमम् । पुरुषं श्रुतम् ॥४६६ ॥ कालं पर्यायं ।।४६५।। आगे व्यवहारके पांचभेद बताते हैं यहां पर व्यवहार शब्दका अर्थ प्रायश्चित्त समझना चाहिये, उस प्रायश्चित्तके पांच भेद ये हैं-जीद, श्रुत, प्राज्ञा, आगम और धारणा । इन पांचों प्रायश्चित्तोंका सविस्तर वर्णन सूत्रों में निर्दिष्ट है, उन्हें वहीं से जानना चाहिये ||४६५।। विशेषार्थ — मूलाराधना दर्पण में इन प्रायश्चित्तोंका किंचित् उल्लेख किया हैबहतर पुरुषोंके द्वारा जो प्रायश्चित्त विधि प्रवर्तित हो रही है अथवा बहत्तर आचार्यों द्वारा जिसका विधान किया है उसको वर्त्तमानके आचार्य कहते हैं ऐसे प्राचीन प्रायश्चित्तविधिको "जीद प्रायश्चित्त" कहते हैं। चौदह पूर्वोमें जिसका वर्णन है वह श्रुत प्रायश्चित्त है । ग्यारह अंगोंमें जो वर्णित है वह आगम प्रायश्चित विधि है । अन्य किसी स्थान में रहनेवाले आचार्य अपने बड़े प्रमुख शिष्यको दोष बतलाकर उसको किसी दूसरे स्थान में स्थित आचार्यके पास भेज देते हैं, और वे आचार्य दोषानुसार प्रायश्चित्तविधि बतलाकर उक्त शिष्यको वापिस लौटाते हैं वह "आज्ञा प्रायश्चित्त" है । अर्थात् आचार्यको प्रायश्चित्त लेनेका अवसर आया है उनको अन्य आचार्य के समीप जानेकी शक्ति या समय नहीं है ऐसी स्थिति में अपने जेष्ठ शिष्यको दोषोंका विवरण देकर अन्य आचार्य के निकट भेज देते हैं वहां वह अपने गुरुकै अभिप्राय एवं आलोचना के अनुसार सब बात कह देता है और उन्होंने जो भी प्रायश्चित्त दिया उसको लोटकर गुरुके लिये निवेदन कर देता है इसतरह की विधिको आज्ञा प्रायश्चित्त कहते हैं । कोई साधु या आचार्य किसी कारणवश अकेला है और उसके जंघाबल समाप्त हो चुका है अन्यत्र जा नहीं सकता, तब वह पहले प्रायश्चित्त विधिको जैसा सुना और देखा था वैसा अपने दोषानुसार ग्रहण करता है यह धारणा नामका प्रायश्चित्त कहलाता है । प्रायश्चित्त देने की विधि -- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, उद्यमशीलता, संहनन, उत्साह, दीक्षाकाल और श्रुतज्ञान ये सब किस पुरुषमें किसप्रकारके हैं अर्थात् इस शिष्यमे किस द्रव्यका आश्रय Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार रागद्दोषावपाकृत्य, व्यवहारविशारदः 1 व्यवहारी वदारयस्मै, प्रायश्चित्तं विधानतः ||४६७॥ व्यवहारापरिच्छेद, व्यवहारं ददाति यः । अवाध्यासौ यशो धोरं संसारमवगाहते ॥ ४६८ ॥ J [ १४३ लेकर कौनसा दोष किया है, कौनसा क्षेत्र है, निषिद्ध क्षेत्र में गया है इत्यादि बातोंका विचार प्रायश्चित्त देनेवाले आचार्य करते हैं ||४६६ || व्यवहार में विशारद ऐसा आचार्य रागभाव और द्वेषभावको दूरकर विधिपूर्वक प्रायश्चित्त देता है || ४६७ ।। विशेषार्थं — यतिजन अपने महाव्रत आदिमें अतीचार लगनेपर प्रत्याश्चित्त लेते हैं । अतीचार या दोष द्रव्य क्षेत्र आदिक आश्रवसे हुआ करते हैं। सचित्त वस्तुका उपयोग करने से द्रव्य प्रतिसेवना अर्थात् द्रव्य अतीचार होता है । वर्षायोग में दो कोससे अधिक गमन करना, अथवा साधुके लिये सदा हो जो क्षेत्र निषिद्ध है उसमें यदि चला जाय तो क्षेत्र प्रतिसेवता होती है। आवश्यक क्रियाके कालका उल्लंघन होना आदि रूपकाल प्रतिसेवना है । प्रमादभाव, दर्पभय इत्यादि भाव प्रतिसेवना कहलाती है । इन सब कारणोंको आचार्य देखते हैं कि इस शिष्यने द्रव्य प्रतिसेवना को है या क्षेत्र प्रति सेवना । तथा आचार्य यह भी देखते हैं कि यह यति प्रायश्चित्त लेने में किस भाव से प्रवृत्त हुआ है । साथ रहना चाहता है इसलिये, अथवा यशके लिये या केवल कर्म निर्जराके लिये | आचार्य यह भी देखें कि प्रायश्चित्तके लिये कितना उत्साह है। इस शिष्यका दीक्षाकाल कितना हो चुका है ? श्रुतज्ञान कम है या अधिक, वैराग्यशील है या नहीं । संहनन कैसा है । इन सब विषयोंको ज्ञातकर यथायोग्य तद् तद् दोषानुसार आचार्य प्रायश्चित्त देते हैं । यह योग्यता व्यवहार ग्रंथ प्रायश्चित्त ग्रंथों में निपुणता होने पर होती है, अतः आचार्यको व्यवहारी होना चाहिये । जो व्यवहार शास्त्र - प्रायश्चित शास्त्रको नहीं जानता वह आचार्य यदि प्रायश्चित्त देता है तो वह अपयश को प्राप्त कर अन्त में घोर संसार में डूबता है ।।४६८।। भावार्थ - शास्त्रज्ञान विना आचार्य प्रायश्चित्त देगा तो लोग कहेंगे कि यह मुखमें जो आया वह दण्ड देता है किस अपराधका कौनसा प्रायश्चित्त है यह इसे ज्ञात Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] मरगाकण्डिका व्यवहाराबुधः शक्तो, न बिशोधयितु परम् । कि चिकित्सामजानानो, रोगग्रस्तं चिकित्सति ॥४६९।। छन्द वंशस्थततः समीपे व्यवहारवेदिनः, स्थितिविधेया भपकेण धीमता। सिसिक्षणा बोधिसमाधिपादपो, मनीषितानेक फलप्रदायिनी ॥४७०॥ प्रवेशे निर्गमे स्थाने, संस्तरोपधिशोधने । अदम परावर्ते, शय्यायामुपवेशने ॥४७१॥ उत्थापने मलत्यागे, सर्वत्र घिषिकोविदः । परिचर्या विधानाय, शक्तितो भक्तितो रतः ॥४७२।। प्रात्मश्रममनालोच्य, क्षएकस्योपकारकः । प्रकारको मतः सूरिः, स सर्वावरसंयुतः ॥४७३॥ ही नहीं । यह मुनिको शुद्धि क्या करेगा। यह व्यर्थ ही मुनियोंको कष्ट देता है। इत्यादि रूप अपकीसि अज्ञानी आचार्य प्रायश्चित्त देवे तो होती है। अयोग्य कार्य करनेसे उसका संसार भ्रमण भी बढ़ता है । व्यवहारको नहीं जाननेवाला आचार्य अन्य को प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता। चिकित्साको नहीं जाननेवाला पुरुष क्या रोगग्रस्तकी चिकित्साइलाज कर सकता है ? नहीं कर सकता ।।४६९।। इस कारणसे बुद्धिमान् क्षपकको व्यवहारके ज्ञाता निर्यापकके समीप ही रहना चाहिये, कैसा है क्षपक मनोवांछित अनेक फल देनेवाले बोधि और समाधिरूप वृक्षोंको जो सिंचना-वृद्धिंगत करना चाहता है। अर्थात् जिसे अपने बोधि समाधिको बढ़ाना है उस क्षपकको चाहिये कि वह व्यवहारी निर्यापकका आश्रय ले ।।४७०।। प्रकारकत्व ___ जो निर्यापक क्षपकको वसति आदिमें प्रवेश कराने में, वसति मादि स्थानोंसे बाहर निकालने में प्रवीण है, खड़े करना, संस्तर और उपधिका शोधन करना, कमजोर क्षपकको कर्वट दिलाना, सीधेसे उलटा और उलटेसे सीधा सुलाना, बिठाना इन क्रियाओंमें जो निपुण है । तथा उठाकर खड़ा कर देना, मल-मूत्रका त्याग कराना इन Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १४५ छंद वंशस्थनिपीडपमानः अपकः परीषदः, सुखासिको याति सहायकौशलः। यतस्ततस्तेन समाधिमिछता, निषेवणीया गुरवः प्रकारकाः ॥४७४॥ अस्ति तीरं गतस्यापि, रामद षोदयः परः । परिणामश्च संक्लिष्टः, क्षुत्तृष्णाधि परीषहैः ॥४७५।। आलोचनां प्रतिज्ञाय, पुनविप्रतिपद्यते । लज्जते गौरवाकांक्षी, स तो कतुमपास्तधीः ॥४७६॥ ततः स्थापनाकारी, त्यागावज्ञानभोलुकः । क्षपको गुणदोषो नो, पूजाकामो विवक्षति ॥४७७'। सबमें चतुर है, सेवा-वैयावृत्य विधिमें शक्ति और भक्तिस सदा लगा रहता है। अपने को कितना श्रम हुआ है इसका विचार न करके सदा क्षपकका उपकार करता रहता है, ऐसा गुणवाला आचार्य प्रकारक कहा जाता है ।।४७१॥४७२।।४७३।। परीषहों द्वारा पीड़ित हुआ क्षपक सहायता करनेमें कुशल ऐसे आचार्यादि द्वारा सुखशांतिको प्राप्त होता है, इसलिये समाधिमरणके इच्छुक क्षपकको प्रकारक गुण विशिष्ट आचार्यको सेवा करना चाहिये, अर्थात् प्रकारक आचार्यके निकट समाधि करना चाहिये ॥४७४।। || प्रकारक वर्णन समाप्त ।। आयोपाय दशित्व जिसके संसार सागरका तीर आ चुका है अथवा मनुष्य पर्यायका तीर-अन्त आ चुका है, ऐसे क्षपकके भी रागद्वेषका उदय तीव्र आ सकता है तथा क्षुधा तषा आदि परीषह द्वारा संक्लेश युक्त परिणाम भी होते हैं ।।४७५। कोई क्षपक प्रथम तो मैं निर्दोष आलोचना करूगा ऐसी प्रतिज्ञा करता है किन्तु फिर उस प्रतिज्ञाको छोड़ देता है । गौरवका आकांक्षो नष्ट बुद्धि ऐसा वह क्षपक आलोचना करने में लज्जित होने लग जाता है ।।४७६॥ क्षपकके मन में विचार आता है कि यदि मैं अपराधका निवेदन करूगा तो यह संघ मेरा त्याग कर देगा अर्थात् मुझे संघमें नहीं रहने देंगे, अथवा मेरा तिरस्कार करेंगे । इसतरह वह क्षपक पालोचना करने में भयभीत होता है । अथवा क्षपक मेरा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] मरण कण्डिका श्रायापायविधिर्येन विश्यते क्षपकस्या ततो वक्रमतेस्तस्य श्रायापायविशा वाच्यौ लब्ध्या सारं दुःखतः संयमं सशल्य मृत्युना हेयोपादेयवेदिना t सावायापायविशुच्यते ॥ ४७८ ।। सामान्यालोचनाकृते । गुणदोषों गणेशिना ॥ ४७६ ॥ शरीरी भवसागरे । नाशयत्यपचेतनः ॥४८०॥ आचरण शुद्ध है ऐसा सिद्ध करने हेतु स्वदोषोंको गुरु समक्ष नहीं कहना चाहता है, अपना महत्व स्थापित करना चाहता है । इसतरह पूजा प्रतिष्ठा ख्यातिका इच्छुक वह क्षपक गुण और दोषको नहीं देखता अर्थात् आलोचनामें महान् गुण है और आलोचना नहीं करनेमें बड़ा भारी दोष है ऐसा वह नहीं सोच पाता ||४७७॥ क्षपकके द्वारा इसतरह लज्जा आदिके निमित्त शुद्ध आलोचना नहीं करनेपर निपुण निर्यापक जो कि हेय क्या है, उपादेय क्या है इसको अच्छी तरह जानते हैं वे उक्त क्षपकको प्राय और उपायको विधिका उपदेश देते हैं । इसतरहके आचार्यको प्रायोपाय दर्शी कहते हैं । आय - रत्नत्रयकी वृद्धिको कहते हैं और अपाय - रत्नत्रयके नाश को कहते हैं ||४७८ || आलोचना में मायाभाव रखनेवाले वक्रबुद्धि क्षपक द्वारा, यदि सामान्य रूपसे आलोचना को है अर्थात् सामान्य २ अपराध बताता है विशेषको छिपाता है तो आयोपाय दर्शी आचार्य उसे आलोचनाके गुण दोष कहते हैं || ४७९।। भावार्थ- - क्षपक आलोचना न करे अथवा केवल अपने सामान्य दोषोंको आलोचना करे तो आचार्य उसे समझाते हैं कि आप यदि आलोचना नहीं करेंगे तो आपके रत्नत्रयका नाश होगा और सभी दोषों का निवेदन रूप आलोचना करोगे तो रत्नत्रयधर्म प्राप्त होगा, उसमें निर्मलता आयेगी । जो कपट भावसे आलोचना करेगा उसका चारित्र नष्ट होगा इत्यादि । आचार्य क्षपकको उपदेश देते हैं कि संसारी प्राणी इस भवसागर में बड़ी कठिनता से संयमको प्राप्त कर पाता है, संयममें सार ऐसी समाधिको अज्ञानी शल्य युक्त मरण करके नष्ट कर डालता है अर्थात् जो मायाशल्यको नहीं छोड़ता, कपटपूर्वक आलोचना करता है वह सारभूत समाधि सहित संयमका भी नाश कर देता है ॥४८०।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार द्रव्यशल्ये यथा दुःखं सर्वांगीण व्यथोवयः । भावशल्ये तथा जन्तोविज्ञातव्य मनुद्धते ॥ ४८१ ॥ कंटकेऽनुद्धते प्राप्तो यथा स्वकील नालिकां । पूर्ति वल्मीकराणि प्राप्यानि सटति स्फुटम् ॥४८२ ।। विविधं दोषमापन्नः संयमोऽनुद्धते तथा । भयगौरवलज्जाभिः भावशल्ये विनश्यति ||४८३ ॥ प्रभ्रष्टबोधिलाभोतश्चिरकालं भवार्णवे t जन्ममृत्युजरायतें जीवो भ्रमति भीषणे ।।४६४। [ १४७ जिसतरह द्रव्यशल्य- काँटा आदिके लग जानेपर सर्वांगीण पीड़ा और दुःख होता है उसी तरह भावशल्य-माया कपटको निकाल नहीं देंगे तो जीवोंको संसार भ्रमणरूप महान् दुःख होता है ||४८१|| जैसे कांटेको नहीं निकाला तो वह पहले चर्ममें घुसता है उससे पांवमें छिद्र होता है अनंतर पांवमें अंकुरवत् मांस वृद्धि होती है पुनः वह कोटा नाड़ी तक घुसने से वहांका मांस सड़ता है पुनः बहुतसे छिद्र होकर वह पांव निरुपयोगी बन जाता है। ११४८२।। उक्त पैरके समान ही भय, गौरव और लज्जासे भावशल्य-मायाकपट को नहीं निकाल दिया तो विविध दोष युक्त हुआ संयम नष्ट हो जायगा ॥४८३ ॥ भावार्थ -- क्षपक भयसे दोष छिपाता है कि यह मुझे बड़ा प्रायश्चित्त देंगे । लज्जासे - यह आचार्य मेरा तिरस्कार करेंगे, अथवा अपना बड़प्पन दिखाने हेतु क्षपक आलोचना नहीं करता अतः आचार्य उसे कांटेका उदाहरण देकर समझाते हैं कि कांटा नहीं निकाला तो पैर सड़कर नष्ट हो जाता है, बेकाम हो जाता है ऐसे ही मनका मायाभाव नहीं निकाला तो संयम और समाधि नष्ट होती हैं । अहो क्षपकराज ! आलोचना नहीं करनेसे समाधि नहीं होती । जिसका बोधि समाधि लाभ नष्ट हो चुका है ऐसा जीव चिरकाल तक जन्म जरा और मरणरूपो भयंकर आवर्त जिसमें उठ रहे हैं ऐसे घोर संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है ||४८४।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] मरण कण्डिका तोवव्यथासु योनीषु पच्यमानः स संततं । तत्र दुःखसहस्राणि दोनो वेदयते चिरम् ॥४८५।। मुहर्तमप्यतः स्थातु सशल्येन न शक्यते । प्राचार्यपादयोम ले तबुद्धर्तव्यमंजसा ॥४८६।। जिनेंद्रवचनश्रद्धा जरामरणभीरवः । निराकृत भयवीडाः संपन्नावमावाः ॥४६७।। पुनर्भवलतामूलमुत्पाटय निखिलं बुधाः । संवेगोत्पन्नवैराग्यास्तरन्ति भववारिधिम् ॥४८॥ यतः प्रसूचने दोषं वोषाणां सूचने गुरणं । (एवं) न तु वर्शयते सूरिरायापाय प्रवर्शकः ॥४८६।। सदानी क्षपको नूनं हेयादेयविमूढधीः ।। निवर्तते न दोषेभ्यो न गुणेषु प्रवर्तते ॥४०॥ उस संसारमें तीन पीड़ावालो चौरासी लाख योनियों में समाधिको नष्ट करने । वाला वह क्षपकका जीव सतत् सहस्रों दुःखोंको दोन हुआ भोगता है, अर्थात् संपूर्ण योनियों में भ्रमण करते हुए वहांके सर्व दुखोंका उसे सामना करना पड़ता है ।।४८५।। इसीलिये हे क्षपक ! तुम्हारे लिये एक मुहूर्त भी शल्य युक्त रहना ठीक नहीं है । उस शल्यको तो आचार्य देयके चरण कमलोंमें भलोप्रकारसे निकाल ही देना चाहिये ।।४८६।। ___ जी जिनेन्द्रदेवको वाणोमें श्रद्धावान हैं, जरामरणसे भयभीत हैं, भय और लज्जाको दूर करनेवाले हैं, मार्दव आर्जवयुक्त हैं । संसार स्वरूपके चिंतनसे संवेग और वैराग्यको प्राप्त हुए हैं ऐसे बुद्धिमान् क्षपक आलोचना करके पुनर्भवरूपी लताकी जड़ को उखाड़कर फेंक देते हैं और संसार सागरसे पार हो जाते हैं। अर्थात् भावशल्य जो माया छल कपट है उसके छोड़ने में शुद्ध आलोचना पूर्वक समाधिमरण होता है उससे संसार भ्रमण समाप्त हो जाता है ॥४८७।।४८८।। ___ आलोचना द्वारा गुरुको अपने अपराध नहीं बतानेमें बड़ा भारी दोष है और अपराधोंको बता देने में विशेष गुण है, ऐसा आचार्य यदि नहीं समझाते तो वे आयापायदर्शी नहीं हैं [यह श्लोक अशुद्ध प्रतीत होता है] ॥४८६ ।। निर्यापक आचार्य द्वारा इसतरह आलोचनाके गुण नहीं बतानेपर वह क्षपक नियमसे हेय और उपादेय में मूढ़बुद्धि होवेगा अर्थात् अपराधका निवेदन गुरुके समक्ष नहीं बताना तो हेय है, त्याज्य Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १४६ मुस्थितादि अधिकार प्रायाः शिस्तु रोपे रक्षेमं बुनिता पोल: तत्राराधयते चतुरंग नूनं विघ्नमशेषमपास्य ॥४६१॥ ॥ इति पायापादिक् ।। कश्चनाकथने दोषे दोषाणां मथने गुणे । धक्रात्मा कथ्यमानेऽपि नालोचयति तत्त्ववित् ॥४६२।। एकान्ते मधुरं स्निग्धं गंभीरं हृदयंगमम् । स वाख्यः सूरिणा वाक्यं प्रांजलीकुर्वता मनः ॥४६३॥ • - - -- है और अपराध निवेदन करना उपादेय-ग्रहण करने योग्य । ऐसा वह क्षपक नहीं समझ पायेगा अतः दोषोंसे दूर नहीं होगा और गुणों में प्रवृत्ति नहीं करेगा ॥४६॥ अतः बुद्धिमान् क्षपक मुनिको चाहिये कि वह भाय अपाय दर्शक आचार्यके निकट रहे । उनके निकट में ही निश्चयसे चार माराधना सर्व विघ्नरहित संपन्न होती है ।।४६१।। || आयापायदर्शी वर्णन समाप्त ।। आचार्यके अवपीड़क या उत्पीड़ी गुणका वर्णन निर्यापक आचार्य द्वारा आलोचनासे होनेवाले गुण और आलोचनाके अभाव में होनेवाले दोष क्षपकको दिखा देनेपर अर्थात् अपने अपराध कहोगे तो गुण है और नहीं कहोगे तो दोष है इसतरह समझाने पर भी कोई कुटिल बुद्धिवाला क्षपक आलोचना नहीं करता ।।४६२।। इस तरह क्षपकके आलोचना नहीं करनेपर आचार्य उसे पुन: एकान्तमें ले जाकर मिष्ट स्नेह भरे, गंभीर हृदयको हरनेवाले ऐसे सुदर वचन कहकर समझाते हैं, उसके मनको सरल निर्मल करते हैं ।।४६३।। विशेषार्थ-क्षपक आलोचना नहीं करे तो प्राचार्य उसे किसी रम्य प्रदेश में लेजाकर अत्यंत मधुर वाणीसे समझाते हैं कि हे आयुष्मन् ! रत्नत्रयमें दोष न हो ऐसा आप सदा ही प्रयत्न करते आये हो ! आप भय और लज्जाको छोड़ दीजिये, गुरुजन तो माता पिता सदृश होते हैं उनको अपने दोष बताने में क्या भय ! क्या बालक अपनी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरगाकण्डिका कथायामकथायां च, दोषाणां गुणदोषयोः । कथायामपि नो करिच, बालोचयति बक्रधीः ॥४६४॥ दोषमुद्गाल्यते तत्स्थ, मुत्पोड्योत्पीडनो यतिः । मांसं कंठीरवेणेव शृगालः कुर्वता भयम् ॥४६५|| मातासे सब बात नहीं कहता ? गुरु कभी भी शिष्यके दोषको प्रगट नहीं करते । परके दोष गुरुजन तो क्या अन्य भी प्रगट नहीं करते क्योंकि उससे नीच गोत्रका बंध होता है । तुम अपने धर्मको मलिन मत करो, आलोचना द्वारा उसे सुविशुद्ध बनाओ अपने दोष बिलकुल निःशंक होकर कहो, हम तुम्हारे दोष किसीके भी सामने प्रगट नहीं करेंगे । कोई भी विद्वान् पराये दोष बाहर नहीं कहता । इत्यादि वाक्यसे क्षपकका मन आलोचनाको ओर उद्यत करता है । ___ कोई कुटिल बुद्धिवाला क्षपक ऐसा होता है कि उसको आलोचनाके नहीं करनेसे क्या दोष होता है इस बातको समझाया है अथवा नहीं समझाया तथा आलोचनाके गुण और दोष अर्थात् आलोचना करनेमें बहुत लाभ या गुण प्राप्त होते हैं और नहीं करने में बहुत दोष या हानि होती है ऐसे दोनों ही विषयोंको आचार्य समझा चुके हैं फिर भी वह आलोचना नहीं करता ।।४६४॥ जब क्षपक समझाने पर भी आलोचना नहीं करता तब उत्पोड़ी या अवपीड़क गुणधारी आचार्य उस क्षपक में स्थित जो दोष हैं उनको तिरस्कार डाँट फटकार द्वारा क्षपकसे उगलवा देते हैं, जैसे कि शृगालको डर दिखाकर सिंह उससे मांस उगलवा लेता है ॥४९॥ विशेषार्थ---आलोचना नहीं करने वाले क्षपकको आचार्य डाटकर डर दिखाकर कठोर बाणीसे उसका दोष निकलवा लेते हैं। वे कहते हैं-हे क्षपक ! रत्नत्रय धर्ममें तुमको बिलकुल आदर नहीं है, हे अपराधी ! तुम हमारे यहां से निकल जावो तुमको हमारेसे क्या प्रयोजन है । जब तुम अपना दोष रूप रोग दूर नहीं करना चाहते । केवल आहार का त्याग करनेसे सल्लेखना नहीं होती। यह क्या क्षपकत्व पदको विडंबना करते हो । जब तुम कपट भाव नहीं छोड़ते तो तुमको अन्य यतिजन नमस्कार नहीं करेंगे इत्यादि । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थिताधिकार ॥४६६ ।। कंठीरम इवौजस्वी तेजस्वी भानुमानिव । चक्रवर्ती वर्चस्वी, सूरिरुत्पीडकोकfथ विदार्य वदनं घृतम् । रटन्तं हितकारिणी ||४६७ || हितारोपपरायणः । वर्ष त्याजयतेऽखिलं ॥। ४६८ || न लिहन्नपि जिह्वया । सारणया युतः ॥४६६॥ यथावष्टभ्य हस्ताभ्यां बालं पाययते माता, प्रोड्य सथोत्पीडी अनृजुं क्षपकं सुरि, भद्रः सारगया होनो, ताडयन्नपि पादेन, भद्रः परकार्यपराचीनाः, सुलभाः स्वार्थकारिणः । श्रात्मार्थमिव कुर्वाणाः परार्थमपि दुर्लभाः ॥ ५०० ॥ परार्थमपि कुर्वते । संति दुर्लभाः ।। ५०१ ॥ " ये स्वायं कर्तुं मुद्युक्ताः, कटुकै: परdari, स् तरां [ १५१ अवपीड़क गुणधारी आचार्य सिंहके समान ओजस्वी, सूर्यके समान तेजस्वी, चक्रवर्ती के समान वर्चस्वी होता है || ४६६ ॥ जिसप्रकार हितकारिणी माता रोते हुए बालकको पकड़कर दोनों हाथोंसे मुखको फाड़कर घृतको पिलाती है || ४९७|| उसी प्रकार क्षपकके हित करनेमें तत्पर उत्पीड़क आचार्य पीड़ित करके जबरदस्ती उस कुटिल क्षपकसे सब दोषोंको छुड़ाता है ।।४९८ ।। जो आचार्य जिह्वासे मधुर बोलते हुए भी सारणासे हीन है— क्षपकको गुणमें प्रेरित नहीं करते वे श्रेष्ठ नहीं हैं किन्तु दोष निकालने हेतु क्षपक को पैर से ताड़ित भी करे तो वह श्रेष्ठ है क्योंकि सारणायुक्त है ॥। ४९९ ।। जो परके कार्योंसे विमुख हैं केवल स्व कार्य में ही लगे हैं ऐसे पुरुष तो सुलभ हैं, किन्तु अपने कार्य के समान पराये कार्यों को करते हैं ऐसे पुरुष सुलभ नहीं अति दुर्लभ हैं ।। ५००।। जो स्वकार्यको करने में उद्यमशील होकर साथमें पराये कार्यको भी करते हैं । पराये कार्योंको संपन्न कराने के लिये कठोर एवं कड़वे वाक्य बोलने वालें पुरुष तो अत्यंत दुर्लभ हैं ।। ५०१ ।। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] मरण काण्डिका निवर्तनं न वोषेभ्यो न गुणेषु प्रवर्तनम् । विधत्ते क्षपकः सर्थवोषमत्याजितो यतः ॥५०२॥ छंद शालिनीनित्योत्पीडी पोयित्वा समस्तांस्तस्माद् दोषस्त्यिाजयेत्तं हितार्थी। व्याधिध्वंसं कि विषत्त न वैखः, तन्वन्बाधा व्याधितस्येष्टकारी ॥५०३॥ ॥ इति उत्पीडो ।। बोषो निवेशितो यत्र, तप्ते तोयमिवायसि । न निर्याति महासारे, स ज्ञातव्योऽपरिस्रवः ।।५०४॥ यदि आचार्य क्षपकको जबरदस्ती दोषोंसे दूर नहीं करता एवं गुणोंमें प्रवृत्त नहीं करता है तो वह क्षपक बादर सूक्ष्म सब प्रकारके दोषोंको करेगा क्योंकि उसने दोष छुड़ाये नहीं-दोषोंका निष्कासन नहीं किया है ।।५०२।। , क्ष पकके हितका इच्छुक उत्पीड़ी आचार्य क्षपकको कठोर वचन आदिसे पीड़ा पहुँचाकर उससे समस्त दोष हटाता है । ठीक ही है। क्योंकि रोगीका हितचिंतक वंद्यराज रोगीको कड़वी औषधिका सेवन पथ्यपालन आदि द्वारा बाधा पहुंचाकर च्याधिका नाश क्या नहीं करता है ? अवश्य करता है ।।५०३॥ उत्पीडक वर्णन समाप्त । अपरिस्रावोगुण- क्षपक द्वारा दोषोंका निवेदन आचार्यके निकट करनेपर उस आचार्य में बे दोष ऐसे गुप्त या समाप्त होते हैं जैसे कि तपे लोहेपर गिरा हुआ जल गुप्त-समाप्त-लीन हो जाता है । महासार भूत उन आचार्य से बाहर कभी भी नहीं निकलते हैं एवं गुण विशिष्ट आचार्य अपरिस्रावी विशेषण युक्त माने जाते हैं ।।५०४॥ भावार्थ-जैसे तपा हुआ लोहेका गोला चारों तरफसे पानीका शोषण कर लेता है शोषणके बाद वह जल कभी भी लोहेसे बाहर नहीं निकलता से ही क्षपकने अपने छोटे बड़े गुप्त प्रगट सब तरह के दोष आचार्यको कह दिये हैं उनको सुनकर आचार्य उन्हें अपने मनमें ही रख लेते हैं अन्य यति श्रावक आदि किसोके समक्ष उन दोषोंको कभी भी नहीं बतलाते हैं वे आचार्य अपरिस्रावी हैं ऐसा समझना चाहिये। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार अतिचारास्तपोवृत्त ज्ञानसम्यक्त्वगोचराः । मनोवाक्काययोगेन, जायन्ते त्रिविधा यतेः ॥५०५।। मुनिजनोंको सम्यक् ज्ञान चारित्र और तपमें मन वचन और काय द्वारा प्रतीचार लगा करते हैं, इसतरह मन द्वारा, वचन द्वारा तथा काय द्वारा तीन प्रकारसे अतीचार उत्पन्न होते हैं ||५.!! विशेषार्थ-मूलाराधना टीकामें सम्यग्दर्शन आदिके अतीचारोंका सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है । तदनुसार यहां किंचित् बताते हैं. सम्यक्त्वके अतोचार शंकाकांक्षा आदि पांच या पच्चीस हैं ये सर्व विदित हैं । सम्यग्ज्ञानके अतीचार-अकाल में सिद्धान्त ग्रन्थका पढ़ना, गुरु का, शास्त्रका नाम छिपाना आदि रूप है इसका भी वर्णन हो चका है। चारित्रके अतीचार-पंच महाव्रतोंके अतीचार चारित्रके अतीचार कहलाते हैं । प्रत्येक महावतको पांच पांच भावनायें आगममें बतलायी हैं जैसे प्रथम अहिंसा महावतको वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान-निक्षेपण समिति, और आलोकित पान भोजन ये पांच भावनायें हैं । इन भावनामोंसे रहित व्रतपालन चारित्रके अतीचार हैं। तपके अतीचार-तप बारह प्रकारका है। प्रथम अनशन तपके अतोचार-स्वयंको उपवास है और दूसरोंको भोजन कराता है अनुमोदना करता है इत्यादि अनशन तपके अतीचार है । अवौदर्य तपके अतीचार-भूखसे कम खाना रूप अवमौदर्य तपका अनुष्ठान करता है किन्तु मन में भरपेट भोजनकी इच्छा है । तुम खूब खाओ इत्यादि कहना ये अवमौदर्य के अतीचार जानने । वृत्ति परिसंख्यान तपके अतिचार-सात घर तक जागा अमुक वातासे अमुक वस्तु हो लूगा इत्यादि नियम लेकर उसमें किसो कारणवश कमी करना इत्यादि । रसत्याग तपके अतीचार-रसका त्यागकर उसमें मनमें लालसा बनो रहना, दूसरोंको रसवाला आहार कराना इत्यादि । विविक्त शय्यासन तपके अतीचार-अमुक वसतिमें इतने काल तक एकान्तमें रहूँगा ऐसा नियम लेना और उस वसतिमें रहते हुए अरतिके भाव होना कि यह स्थान कष्टदायक है मैंने व्यर्थ ही यहां का नियम लिया इत्यादि । कायक्लेश तपके अतीचार-अमुक आसन या अमुक प्रतिमायोग आदिका पहले नियम लेना पुनः उसमें अरतिभाव होना या उष्णसे पीड़ित होनेपर शीतलताको इच्छा करना इत्यादि । प्रायश्चित्त तपके अतीचार-आलोचना करने में आगममें कहे गये आकपित आदि दोष लगाना । प्रतिक्रमणके अतीचार-किये गये अपराधोंके प्रति त्याग Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] मरगवण्डिका विश्वस्तो भाषते सर्वानाचार्याणामसौ न सः । प्राचार्यों भाषतेऽन्येभ्यस्ता, स्तुवन् स्विदधार्मिकः ॥५०६।। रहस्यभेदिना सेन, त्यक्ताः, कल्मषकारिणा । साधुरात्मा गणः संघो, मिथ्यात्वाराधना कृता ॥५०७॥ रहस्यस्य कृते भेदे, पृथग्भूयोवतिष्ठते । कोपतो मुचते वृत्तं, मिथ्यात्वं या प्रपद्यते ॥५०८।। बुद्धि नहीं होना इत्यादि । ऐसे ही विनयतप आदिमें अतीचार होते हैं उन्हें प्रागमसे जान लेना चाहिये । क्षपक मुनि यह आचार्य विश्वस्त है शिष्यके दोषको अन्यको नहीं कहता ऐसा विश्वास करता है यदि ऐसा विश्वास पात्र आचार्य क्षपकके आलोचित दोषोंको अन्य जनों के समक्ष कहता है तो वह आचार्य जिनधर्मविहीन है, क्योंकि क्षपकके दोषोंका प्रगट करना जैनधर्मसे बाह्य है-निषिद्ध है ॥५०६।। क्षपकके मुप्त दोषोंका प्रकाशन करने वाले पापकारो उस आचार्यने चार आराधना नष्ट कर दो ऐसा समझना चाहिये, इतना ही नहीं उसने क्षपक साधुका त्याग किया, संघका त्याग, अपने आत्माका भो त्याग कर दिया और मिथ्यात्वको आराधना की ऐसा समझना ।।५०७।। भावार्थ-क्षपकके आलोचित दोष प्रगट करना योग्य नहीं है, यदि प्रगट करेगा तो उसने क्षपकका उसोसमय त्याग किया ऐसा समझना, क्योंकि अपने दोष जन जन के प्रत्यक्ष हुए हैं यह देखकर क्षपक भय एवं लज्जासे अपना घात कर सकता है अथवा रत्नत्रय धर्मको छोड़ देगा, क्रोधित होकर संघका त्यागकर बाहर संघ और संघ नायकको निंदा करेगा, अतः क्षपकके दोषोंको प्रकट करने वालेको क्षपकत्याग, संघत्याग, मिथ्यात्वकी आराधनादि रूप दोष उपस्थित होते हैं । ___ अपने रहस्य प्रकट हुआ देख क्षपक मुनि संघसे पृथक् होगा या क्रोधसे दीक्षा चारित्र छोड़ देता है, अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है ॥५०८।। भावार्थ-क्षपक अपने दोषको प्रगट हुआ जान संघको छोड़ देता है, उसके मनमें विचार आता है कि अहो ! मैंने तो इन आचार्यों को प्राणवत् माना था, आज Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार मारयत्यथवा सूरि, साधुर्मान ग्रहाकुलः । संसारकाननति, न मन्यते हि मानिनः ॥ ५०६ ।। विश्वस्तो भाषते शिष्यः सूरेरग्रे स्वदूषणम् । सदाचार बहिर्भवः ॥५१० ॥ पुनख परस्याथ दूषयिष्यति न स्तथा । यथायं दूषितोऽनेन इति क्रुद्धो गणः सर्वः पृथक्त्वं प्रतिपद्यते ॥ ५११॥ एतस्याचार्यकं संघो विच्छिनति चतुविषः | निर्घाटयति वा रुष्टो रोषतः क्रियते न किं । । ५१२ । [ १५५ वह मानना निर्मूल हुआ है ऐसे आचार्य संघ एवं चारित्रसे बस हो । मिथ्यादृष्टि लोग ही अच्छे हैं इत्यादि परिणाम द्वारा क्षपक अपने श्रद्धा और चारित्रसे च्युत हो जाता है अतः आचार्यका अपरिस्रावी होना अति आवश्यक है । अथवा अपने दोष प्रगट होते देख क्षपक मानरूपी पिशाचसे आकुलित होकर आचार्यको मार देता है । क्योंकि मानी व्यक्ति संसार भ्रमणको नहीं देखते, नहीं मानते ।। ५०९ ।। क्षपकके दोष आचार्य द्वारा प्रगट किये जानेपर संघ के साधु विचार करते हैं कि अहो ! शिष्य तो आचार्य समक्ष विश्वस्त होकर अपने दोष प्रगट करता है और ये आचार्य उस दोषको दूसरोंको कह देते हैं, ये सदाचारसे रहित हैं ।।५१०|| इस आचार्यने जैसे इस क्षपकको दूषित किया वैसे आगे हम लोगों को भी दूषित कर डालेंगे । इस तरह विचार कर कुपित हुआ सर्व संघ उस आचार्यको छोड़ देता है ।। ५११ ।। क्षपकके दोष प्रकट करने वाले आचार्यका चतुविध संघ नष्ट हो जाता है अर्थात् संघस्थ साधु उन्हें छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं । अथवा क्रोधावेश में आचार्यको ही संघसे निकाल देते हैं । क्रोधसे क्या नहीं किया जाता ? अर्थात् क्रोघसे सब कुछ अयुक्त कार्य किये जा सकते हैं ||५१२ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.६ ] मरकण्टका प्राचार्यो यत्र शिष्यस्य विदधाति विडंबनां । धिक् तान्निर्धर्मकान्साधूनिति वक्तिजनोऽखिलः ।। ५१३।। विश्वासघातका एव दुष्टाः संति दिगंबराः । ईशीं कुर्वते निदां मिथ्यात्वाकुलिता जनाः ।। ५१४ ।। पृष्टोऽपृष्टोऽपि यो ब्रूते न रहस्यं कदाचन । इत्यादयो न विधन्ले दोषास्तस्य गणेशिनः ।। ५१५।। छंद द्रुतविलंबित- इति विमुच्य रहस्य विभेदकं भजत गुह्यनिगूहकमंजसा । न हि विशुद्ध हिताहितयस्तवो हितं प्रपो भजत्यहितं जनाः ।। ५१६ ।। क्षपकके दोष प्रकट करने से अखिल लोग कहने लग जाते हैं कि देखो ! इस धर्म में आचार्य हो अपने शिष्यके दोष बतलाकर विडंबना कर रहे हैं, धिक् धिक् ऐसे धर्मविहीन साधुओं को। ये जैन साधु ऐसे ही होते हैं ।।५१३|| ये दिगम्बर दुष्ट हैं ये जैन साधु इसतरह विश्वासघात करते हैं । मिथ्यादृष्टि लोग क्षपकके दोष प्रकट करनेपर इसतरह जैनधर्मकी निंदा करते हैं ||५१४॥ जो आचार्य किसीके द्वारा क्षपकके दोषोंके बारेमें पूछनेपर अथवा नहीं पूछने पर कभी भी उसके दोष नहीं बताता, उस श्रेष्ठ निर्यापक आचार्यके ऊपर कहे संघत्याग, आमात्याग आदि दोष नहीं लगते हैं ।। ५१५ || I ग्रंथकार निर्यापकाचार्यको उपदेश देते हैं कि उपर्युक्त अपरिस्रावी गुणको जानकर तुम क्षपकके दोषका भेदन प्रगटोकरण कभी नहीं करना । तुम गुप्त दोषको प्रकट करना छोड़ दो, क्षपकके दोष छिपाओ । क्योंकि हित और अहितको जिन्होंने भली प्रकारसे ज्ञात कर लिया है वे पुरुष कभी भी हितको छोड़कर अहित में प्रवृत्त नहीं होते हैं । अर्थात् हित अहितके ज्ञाता पुरुष हितको करते हैं अहितको नहीं, वैसे ही क्षपकका अपराध प्रगट करना दोष है और उसे प्रकट नहीं करना गुण है ऐसा जानने वाले गुणको करते हैं दोप को नहीं ||५१६ || || अपरिस्रावी वर्णन समाप्त || Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५७ सुस्थितादि अधिकार शुश्रषकप्रमादेन शय्यायामासनादिके । संपन्ने वानवाक्येन शिष्यकारणामसंवृते ॥५१७॥ वेदनाया मसह्यायां क्षुत्तष्पाहिमादिभिः । क्षपकः कोपमासाद्य मर्यादां विविभित्सति ॥५१॥ निर्यापण शांतेन शमनीयः स सूरिणा । क्षमापरेण धीरेण कुर्वता चित्तनिवति ॥५१६।। बहुप्रकार पूर्वांग श्रुतरत्नकरंडकः । सर्वानुयोगनिष्णातो वक्ता कर्ता महामतिः ॥२०॥ सुख कारीगुण क्षपकको सेवा-वयावृत्य करनेवाले यतिजन सेवामें प्रमाद करके क्षपकको शय्याको समय पर ठीकसे न लगानसे, आसन बिछाने में देर करनेसे, अथवा सुदर रीति से नहीं बिछानेसे, आहार पानीको व्यवस्थामें देरी करनेसे, अपमानजनक वचन बोलनेसे, असंयमी गृहस्थ के निमित्त इत्यादि हेतुओंसे क्षपकको कोप उत्पन्न होता है । भूख, प्यास, गरमी, सर्दी आदि निमित्तोंसे तीव्र वेदना होनेपर भी क्षपक कुपित होता है और संयमकी मर्यादा तोड़नेकी इच्छा करने लग जाता है समाधिमरणके नियमोंका भंग करने लग जाता है उससमय निर्यापक प्राचार्य अत्यंत शांतभावसे धीरतापूर्वक क्षपकके चिसको प्रसन्न करते हैं । आचार्य यदि शांतपरिणामी नहीं होगा तो वह भी क्षपकके समान कुपितहोकर क्षपकको डाटने लगेगा, या अभिमानी होगा तो क्षपकको प्रसन्न करनेका प्रयास ही नहीं करेगा। क्षमाभावयुक्त बीर-तेजस्वी नहीं होगा तो वह क्षपकके अयुक्त वचन एवं कार्य से शांत नहीं रह पायेगा अर्थात् क्षपकके ऊपर क्षमाभाव नहीं रख सकेगा तेजस्विताके अभाव में क्षपकके ऊपर अपने वचनोंका प्रभाव नहीं डाल सकेगा अतः निर्यापक आचार्यको शांत, क्षमाशील, निरभिमानी एवं धैर्यशाली होना चाहिये । एवं गुण विशिष्ट आचार्य क्षपकके उत्पन्न हुए चित्त कलुषताको शांत कर देते हैं 11५१७।।५१८।।५१९।। निर्यापक आचार्य बहुत प्रकारके अंग और पूर्व संबंधी ज्ञानरत्नों को मंजूषा-पेटी सहश हुआ करते हैं अर्थात् जैसे पेटी तिजोरो या आलमारी में सुर्वण रत्न भरे रहते हैं वैसे आचार्य में आचारांग आदि अंगोंका ज्ञान तथा पूर्वोका ज्ञान भरा रहता है, वे Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] मरणकण्डिका कथानां कथने दक्षो हेयादेय विशारदः । कुख' शास्ति यति/रः प्रकृतप्रतिपादकः ॥५२१॥ गंभीरा मधुरा श्रध्यां शिष्यचित्तप्रसादिनी । सुखकारी दवात्यस्मै स्मत्यानयनकारिणीम् ॥५२२॥ सुखकारी बधास्येनं मजन्तं दुस्तरे भवे । प्रतरत्नभूतं पोतं कर्णधार इयार्णवे ॥५२३।। शीलसंयमरत्नाढ्यं यतिनावं भवार्णवे । निमज्जती महाप्राज्ञो विति सूरिनाविकः ॥५२४॥ कर्णाहुति न चेदत्ते पतिस्थामकरी गणी ।। प्राराषना सुखाहों जहाति क्षपकस्तदा ॥५२५॥ प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगोंके कथनमें निष्णात होते हैं, अनुयोग रचना करने में प्रवीण, महाबुद्धिशाली हुआ करते हैं ।।५२०।। माराधना तथा दैताग्य संबंधो कथालोंके कहने में दक्ष, हेय क्या है उपादेय क्या है इसका भलीभांति प्रतिपादन करनेमें निपुण, प्रकृत समाधिके विषयको समझाने में प्रयत्नशील ऐसे धीर निर्यापक ही कुपित हुए क्षपकको शांत एवं प्रसन्न कर सकते हैं ।।५२१॥ वे निर्यापक बड़ी ही गंभीर, मधुर, कर्णप्रिय, शिष्यके चित्तको तत्काल प्रसन्न करनेवाली, सुखदायक क्षपकके विस्मृत हुए चित्तमें पुनः स्मरण कराने में समर्थ ऐसी श्रेष्ठ बाणी द्वारा क्षपकके लिये दिव्य देशना-उपदेश देते हैं ।।५२२।।। एवं गुण विशिष्ट सुखकारी महान निर्यापक आचार्य दुस्तर भव समुद्र में डूबनेके सन्मुख हुए क्षपकको सहारा देते हैं ! जिसप्रकार श्रेष्ठ रत्नोंसे भरी समुद्र में डूबती हुई नौकाका सहारा कर्णधार ( खेवटिया ) हुआ करता है, ठोक इसीप्रकार अठारह हजार शील और अनेक प्रकारके संयम रूपो रत्नोंसे युक्त यति रूपी नौकाको जो कि भव समुद्र में डूबनेके सन्मुख हो चुकी है उसको महाप्राज्ञ आचार्य रूपी कर्णधारनाविक धारण करते हैं अर्थात् उस यतिनौका को डूबने नहीं देते ।।५२३ ।। ५२४॥ यदि आचार्य जो कणोंके लिये संतोष कारक होनेसे आहुति सदृश हैं, धैर्य और स्थैर्य को करने वाली ऐसी श्रेष्ठ वाणी क्षपकको नहीं देते अर्थात् नहीं सुनाते हैं तो वह क्षपक सुखावह आराधनाको छोड़ देता है ।।५२५।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १५९ क्षपकस्य सुखं दत्ते कुर्वन्यो हितवेशनाम् । निर्यापकं महाप्राज्ञं तमाहुः सुखकारणम् ॥५२६।। ववाति शर्म आपकस्य सूरिनिर्यापकः सर्वमपास्यदुःखम् । यतस्ततोऽसौ क्षपकरण सेन्यः सर्वे भजन्ते सुख कारिणं हि ॥५२७॥ ॥ इति सुखकारी॥ छंद शशिकलाशिवसुखमनुपममपरुजममलं तवति शमयति हितकृति सकलं । वितरति यतिपतिरिति गुणकलितः शमयमदममयमुनिजन महितः ।।५२८॥ .. - ..--. .. - -- - --- भावार्थ-निर्यापकके वचन कानों में मधुर लगने वाले हुआ करते हैं आचार्य के वचन को सुनकर क्षपकको धैर्य आता है । लोक व्यवहारमें भी देखा जाता है कि कोई व्यक्ति आपत्ति या रोग आदिसे घबराया हो और उसे कोई मिष्ट वचन द्वारा दिलासा देता है तो वह पुरुष कुछ धैर्यको प्राप्त होता है । यदि क्षपकके वेदना आदिसे पीड़ित होनेपर उसे उपदेश-रूप अमृत नहीं पिलायेंगे तो क्षपक मुक्ति सुखको कारणभूत ऐसी आराधनाको त्याग देगा । जो महाप्राज्ञ निर्यापक हितका उपदेश करते हुए क्षपक को सुख देते हैं अतः उस आचार्यको "सुखकारी' इस नामसे कहते हैं ।।५२६।। जिस कारण से निर्यापक आचार्य क्षपकके सर्व दुःखको दूर करके सुख देते हैं उस कारणसे यह आचार्य क्षपकके द्वारा सेवनीय होते हैं । ठोक हो है क्योंकि सब हो जीव सुखकारी पदार्थका आश्रय लेते हैं ।।५२७॥ निर्यापकके सुखकारी विशेषणका वर्णन समाप्त । शम-शान्ति, यम-वत नियम और दम-इन्द्रिय दमन स्वरूप जो मुनिजन हैं उनके द्वारा पूजित और गुणोंसे संयुक्त जो निर्यापक आचार्य है वह अनुपम, रोग रहित, निर्दोष हिसकारी ऐसे सकल शिव सुखको महावतधारो प्रशमभाववाले क्षपकके लिये अर्पित करता है ।।५२८॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] मरकण्डिका छंद वंशस्थ -- गुरमीभिः कलितोष्टभिर्जनैः समेत्यकीति शशिरश्मिनिर्मलां । श्राराधनासिद्धिवरांगना सखों दबाति सूरिः क्षपकाय निश्चितम् ।।५२६ ॥ इति सुस्थितः । I निर्वाचक गुणोपेतं उपसर्पत्यसौ कृतिकर्म विधायासौ आचार्य वृषभं वक्ति तीर्णपयोधीनां युष्माकमीश पावान्ते मार्गयित्वातियत्नतः सूरज्ञानचरित्रमार्गकः परिपूर्ण त्रिशुद्धितः । मस्तकारोपितांजलि: समाधानविधाथिनाम् । खोतयिष्यामि संयमम् ।। ५३२ || ।।५३० ।। ।। ५३१० आचारवान् आदि आठ गुणोंसे मण्डित निर्यापक आचार्य चन्द्र किरण के समान निर्मल ऐसो आराधना की सिद्धि रूपी श्रेष्ठ स्त्रीकी सखो नियमसे क्षपक के लिये देते हैं ।। ५२९ ।। [ इस श्लोक में "समेत्य जनैः” इन दो पदों का अर्थ संदर्भ नहीं बैठा अतः छोड़ दिया है ] इसप्रकार अर्ह आदि चालीस अधिकारोंमेंसे सुस्थित नामका सतरहवां अधिकार समाप्त हुआ । उत्सर्पण नामका अठारहवां अधिकार ज्ञान चारित्र मार्ग पर चलने वाला, यह क्षपक साधु आचारत्व आदि आचार्य के गुणों से युक्त ऐसे निर्यापक आचार्य का बड़े प्रयत्न से अन्वेषण करके उनके निकट जाता है ||५३०|| मन वचन कायकी शुद्धि पूर्वक आवर्त शिरोनति कायोत्सर्ग सहित सिद्धभक्ति, भक्ति और आचार्य भक्तिरूप कृतिकर्म को परिपूर्ण करके अभ्यागत मुनि मस्तकपर अंजलिको रखकर आचार्य श्रेष्ठ को कहता है ।। ५३१|| हे ईश ! श्रुतरूपी सागरके पारगामी, समाधान करनेवाले ऐसे आपके चरणों के सानिध्य में मैं अपने संयमको प्रकाशित - उज्ज्वल करूंगा ।।५३२॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार दीक्षा प्रभृति निःशेषं विधायालोचनामहम् । विजिहीर्षामि निःशल्यश्चतुरंगे निराकुलः ११५३३ । एवं कृते स्वनिक्षेपे ततो ब्रूते गणेश्वरः । निर्विघ्नमुत्तमार्थ त्वं साधयस्व महामते ।। ५३४।। छंद शालिनी - धन्यः स त्वं वंदनीयो बुधानां साधो ? बुद्धिनिश्चिता चास्तमोह | यस्यासन्नाराधनसिद्धि दूतों तीक्ष्णां जन्मारामशस्त्रों गृहीतुम ।।५३५ ।। छद उपेन्द्रवज्जा महामते तिष्ठ निराकुलः स्वं प्रयोजनं यावदिदं स्वदीयं । समं सहायैरवधारयामस्तत्वेन कृत्यं हि परोक्ष्य सद्भिः || ५३६ ॥ । इति उपसर्पण सूत्रम् । | १६१ — भावार्थ - - समाधिका इच्छुक क्षपक निर्यापक आचार्यको निवेदन करता है कि हे प्रभो ! मैं आपके पावन चरणों के आश्रय में संयमका प्रकाशन करना चाहता हूँ, अर्थात् आलोचना आदिसे अपनेको शुद्ध करना चाहता हूँ । इसप्रकार क्षपक द्वारा निर्यापक आचार्य उससे कहते हैं सल्लेखना है उसकी साधना करो दीक्षा के दिन से लेकर आजतक जो मेरे महाद्वैत आदिमें दोष लगे हैं उन सबकी पूर्णतया आलोचना करके शल्य रहित होना चाहता हूँ निराकुल हुआ मैं अब चार आराधनाओं में प्रवृत्ति करना चाहता हूँ ।।५३३ ।। विनयपूर्वक प्रार्थना करनेपर एवं समर्पित होनेपर कि है महामते ! तुम निर्विघ्नतासे उत्तमार्थ-जो ||५.३४ ।। निर्यापक आचार्य क्षपकसे कह रहे हैं कि सिद्धि रूपी स्त्रीकी दूतो के समान, जन्मरूपी उद्यान को नष्ट करनेके लिये तोक्ष्ण शस्त्र के समान आराधना को ग्रहण करने के लिये जिसकी बुद्धि निश्चित हो चुकी है ऐसे तुम धन्य हो । हे साधो ! तुम ज्ञानी पुरुषोंको वंदनीय हुए हो । अहो ! तुम मोहरहित हो ।। ५३५ ।। आचार्यं क्षपको कह रहे हैं कि हे महामते ! तुम निराकुल होकर संघ में ठहरो, जब तक कि अपना प्रयोजन है, तब तक तुम्हारे इस विषयको परिचारक मुनि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] मरणकण्डिका प्राचार्यः करणोत्साहं विज्ञातु तं परीक्षते । जिघृक्षाऽविचिकित्साभ्यामुत्तमार्थे समाधये ॥५३७।। इति परीक्षणम् प्राराधनागतं क्षमं क्षपकस्य समोयुषः । दिव्येन निःप्रमावोऽसौ निमित्तेन परीक्षते ॥५३८।। जनों के साथ भलीप्रकारसे अवधारण करते हैं, क्योंकि सज्जनोंको परीक्षा करके-विमर्श करके कार्य करना चाहिये ।।५३६।। भावार्थ- आचार्य आगत मनिको आश्वासन देते हैं कि हे यते ! आप धन्य हैं । जो आराधना करने का निश्चय किया है। हम संघस्थ सेवाभावी परिचारक मनियों के साथ इस विषयमें विमर्श करते हैं। आप तबतक सुखपूर्वक संघमें विश्राम करें । कोई कार्य परीक्षण करके करना चाहिये यह सर्वसंमत बात है, अतः हम मुनियों के साथ विचार करते हैं। इस तरह उपसर्पण अधिकार पूर्ण हुआ (१८)। परीक्षा नामका उन्नीसवां अधिकार-- निर्यापक आचार्य आगत मुनिके आराधना क्रियाका कितना उत्साह है इस बातको परीक्षा करते हैं । आचार्य यह भी देखते हैं कि इस साधुके मनोज्ञ आहार में अभिलाषा आसक्ति और अमनोज्ञ आहार में ग्लानि है क्या ? अर्थात् इसके मिष्टाहार में लंपटता तो नहीं है । उत्तमार्थ जो चार आराधनायें हैं उनमें कितना उत्साह है। निर्विघ्न समाधि होने के लिये इन सब विषयोंका आचार्य परीक्षण करते हैं ।।५३७।। आराधना संपन्न कराने हेतु निकटमें आगत क्षपककी आराधनाके समय क्षेमसुख शांति होगो या नहीं इसकी आचार्य निःप्रमादो होकर दिव्य निमित्त ज्ञान द्वारा परीक्षा करते हैं ।।५३८।। विशेषार्थ-इस क्षपककी समाधि निर्विघ्न होगी या नहीं ? समाधिके लिये संस्तरमें आरूढ़ होनेपर इसके परिणाम शिथिल तो नहीं होंगे ? देश में शुभ होगा या नहीं इत्यादि आगामी विषयकी जानकारी आचार्य किसी देवके द्वारा या निमित्तज्ञान आदिसे कर लेते हैं इसतरह क्षपकके भविष्यको परीक्षा करते हैं । परीक्षा अधिकार समाप्त (१९) । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १६३ छंद शालिनी-- तं गृहीते मार्गवेदी गणं स्वं राज्य क्षेत्रं भूमिपालं निरूप्य । साधुसूरे गृह्णतो निःपरीक्षं चित्रा दोषा दुनिवारा भवति ।।५३९ ।। ॥ इति निरूपणम् ॥ आपृच्छय क्षपकं सूरिावाति प्रतिचारकः । अनुज्ञातमपृच्छायां त्रयाणां मनसः क्षतिः ॥५४०।। इति पच्छा ॥ निरूपण नामका बीसवां अधिकार रत्नत्रय मार्गके ज्ञाता आचार्य अपने स्वयंका और संघका भाव देखकर राज्य एवं राजा कैसा है ? समाधिमें बाधक तो नहीं है ? यह क्षेत्र या देश समाधिके योग्य है या नहीं इन सबको देखकर फिर समाधि के हेतु आये हुए क्षपकको ग्रहण करते हैंसमाधि करने के लिये आज्ञा देते हैं । यदि बिना परीक्षा किये समाधिके लिये साधुको स्वीकृति देते हैं तो दुनिबार विचित्र दोष आते हैं ।।५३६।। विशेषार्थ-राज्य, राजा, संघ, शुभाशुभ विषयोंका विचार कर तथा स्वत: के और क्षपकके उत्साह आदिको देखकर आचार्य समाधिके लिये आज्ञा देते हैं। आचार्य सर्व प्रथम क्षपकको आहारमें लंपटता है या नहीं यह देखते हैं। यदि वह आहारमें लंपट है तो सदा आहारका चिंतन करेगा फिर आराधक कैसे होगा? भूख आदिसे पीड़ित हुआ रोना चिल्लाना प्रारंभ कर देगा। और इससे धर्मको दुषण प्राप्त होगा। क्षपककी आराधनामें विघ्न आयेगा या नहीं इसका निर्णय यदि नहीं किया जाय तो विघ्न आनेपर क्षपकका त्याग करनेसे उसके कार्य की सिद्धि नहीं होगो और उससे आचार्य की निंदा हो जायगी । इस क्षपकके समाधिकार्यसे राज्यमें शुभ होगा या अशुभ, इसका परीक्षण आचार्य करते हैं । राज्यादिमें अशुभ होगा ऐसा ज्ञात होता है तो उस राज्यको छोड़कर अन्य राज्यका आश्रय लेना पड़ता है, क्योंकि राज्य का नाश हुआ तो क्षपकको क्लेश होगा और आचार्यको भी संक्लेश होगा । गणको समाधि कार्यसे उपद्रव होगा ऐसा ज्ञात होनेपर समाधिकार्यको हाथमें नहीं लेते हैं। निरूपण अधिकार समाप्त (२०) । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] मरणकण्डिका एकः संस्तरकस्थोऽस्तो यजतेंऽगं जिनाज्ञया । दुःकरैः संल्लिखत्यन्यस्तपोभिविविधैर्यति ॥५४॥ - - पृच्छा नामका इक्कीसवां अधिकार--- समाधिके हेतु साधुके संघमें आनेपर आचार्य परिचारक-वैयावृत्य करनेमें कुशल मुनिजनोंमे पहले पूछते हैं फिर क्षरकको ग्रहण करते हैं । यदि संघस्थ मनियोंको न पूछा जाय तो अपने संघके और क्षपक के मनकी हानि होगी अर्थात् तीनों को क्लेश होगा ।।५४०॥ भावार्थ-आचार्य संघको पूछते हैं कि रत्नत्रयको आराधना करनेमें यह आगत मुनि अपनो महायता चाहता है साधुके तपश्चरणमें आगत विघ्नको दूर करनेसे तोथंकर गोत्रका बंध होता है । जगत्में लौकिकजन भी परोपकार करते हैं। हम तो मुनि हैं । भव्योंका संसाररूपो कोचड़से निकलना बड़ा कठिन है समाधिके बिना इससे निकला नहीं जाता । यह मुनि अपने सहारे आत्महित करना चाहता है, यह एक तरह से अपना सौभाग्य है । आपकी अनुमोदना होवे तो इस अपकको संरक्षण दिया जाय । यदि ऐसा न पूछे तो आचार्य क्षपक और संघस्थ मुनि इन सबको ही संक्लेश भाव उपजेंगे । हमको तो आचार्य ने पूछा हो नहीं । हम सेवा क्यों करें । ऐसा सोचकर मनि क्षपकको सेवा नहीं करेंगे । इससे आचार्य को दुःख होगा कि मैंने समाधिके लिये रख लिया ये मनि तो सेवासे परांमुख है इत्यादि । क्षपकके वेदनाका प्रतीकार भादि नहीं होने से तथा सहारा नहीं देखकर क्लेश होगा । अतः आचार्य परिचारक मुनियोंको पूछकर क्षपकको स्वोकृत करते हैं। पृच्छा अधिकार समाप्त (२१) एक संग्रह नामा बाईसवां अधिकार संघमें आचार्य एक ही क्षपकको संस्तरारूढ होने की आज्ञा प्रदान करते हैं ऐसा बताते हैं संस्तरमें स्थित होकर एक क्षपक जिनाज्ञा प्रमाण तपरूपी अग्निमें शरीरका दान करता है अर्थात् आहारत्यागादि द्वारा शरीर सल्लेखना करता है अर्थात यावज्जीव पाहारका त्याग कर शरीरकी पूर्णाहुति तप अग्निमें करता है । तथा अन्य Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार यजमानक्षते नानुमन्यते 1 जनस्तृतीयो द्वित्रिश्रितपात्रेषु समाधियते तराम् ।। ५४२।। छंद रथोद्धता एकमेव विधिनार्यातिततः स्वीकरोति स्वसहायसम्मतम् । गृह्यते हि कवलः स एव यः पंडितेन वदने [ १६५ प्रशस्यते || १४३ || इति एक संग्रहः । कोई एक यति उग्र उग्र विविध तपश्चरण द्वारा शरीरको कृ करता है भाव यह है कि एक में एक साथ दो गुट आहार का यावज्जीव त्याग कर संस्तरारूढ़ न होवे, एक संस्तरारूढ होवे और एक समाधि हेतु उग्र तप करे दूसरा यावज्जीव आहारका त्याग अभी नहीं करे || ५४१ | शरीरको सल्लेखना करनेमें उद्यत मुनिके हानि होती है इसलिये जैन आचार्य तीसरे क्षपक को आज्ञा नहीं देते हैं । यदि एक संघ में एक निर्यापकके निर्देशन में दो तोन मुनियों को संस्तरारूढ़ कर लेते हैं तो उनको समाधि अतिशय रूपसे नष्ट होती है ।।५४२|| भावार्थ - तीर्थंकर देवको आज्ञा है कि एक निर्यापक आचार्य एक ही क्षपक को संस्तरारूढ़ करता है, अर्थात् आहारका त्याग करनेकी आज्ञा देता है । हां यदि दूसरा तपश्चरण द्वारा समाधिकी तैयारी करे तो कर सकता है इसतरह एक क्षपक सर्वथा आहारका त्याग कर समाधि में उद्यत होता है। दूसरा क्षपक केवल उग्रतप करता रहता है, तीसरा मुनि उस समय सल्लेखना सन्मुख नहीं होता । क्योकि एक साथ दो तीन यति यावज्जोव आहारका त्याग करते हैं तो उन सभो के चित्तका समाधान करना अर्थात् धर्मोपदेशना द्वारा उनके घबराये हुए मनको शांत करना, शरीर मर्दन, मलत्याग आदि वैयावृत्य करना आदि कार्योंको एक निर्यापक कैसे करे ? नहीं कर सकता । तथा संघस्थ परिचारक मुनि भी इन सबके कार्योंको एक साथ निभा नहीं सकते हैं सब पर सेवा वैयावृत्य द्वारा अनुग्रह नहीं किया जा सकता । एतदर्थं एक क्षपकका ही संस्तरारूढ़ होने की आज्ञा है ! इसप्रकार जिनाज़ासे विर्यापक एक ही क्षपकको विधिपूर्वक स्वसहायकी संगति देकर स्वीकार करता है । ठोक ही है क्योंकि वही ग्रास ग्रहण किया जाता है जो पंडित Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ । मरण कण्डिका मध्ये गणस्य सर्वस्य क्षएक भाषते हितम् । इस्थं कारयितु शुद्धां विधिनालोचनां गणी ॥५४४॥ समस्तं स्पश चारित्रं निरस्य सुखशीलताम् । परोषहचम् घोरां सहमानो निराकुलः ॥५४५।। रूपगंधरसस्पर्शशब्बानां मा स्म मूवंशः । कषायाणां विहि त्वं शत्रूणामिध निग्रहम् ॥५४६॥ द्वारा मुख में प्रशंसनीय माना जाता है, अर्थात् मुखमें उतना बड़ा हो ग्रास लिया जाता है जो भलोप्रकार चवाकर गले में उतारा जा सके और ऐसा नास लेना ही प्रशंसा योग्य होता है । यदि बड़ा ग्रास था दो तोन ग्रास एक साथ मुखमें भर लिये जांय तो ठसका आना, मुखसे बाहर निकल जाना, चबा नहीं सकना आदि परेशानियां हो जाती हैं ऐसा खाना बुद्धिमान ठीक भी नहीं मानते । इसोप्रकार एक क्षपकको ही निर्यापक समाधि हेतु स्वीकार करता है ॥५४३।। एक संग्रह अधिकार समाप्त (२२) क्षपक को आचार्य का उपदेश सर्व संघके मध्य में शुद्ध आलोचना को विधिपूर्वक कराने हेतु निर्यापक क्षपकको इसप्रकार हितकारी वचन कहता है ॥५४४।। भावार्थ-संघके मध्यमें क्षपकको उपदेश इसलिये देता है कि संघको भी समाधि का स्वरूप ज्ञात हो एवं संघ वैधावृत्य में तत्पर हो । किस समय क्या प्रवृत्ति होनी चाहिये इत्यादि विषयको जानकारी होवे । आचार्य क्षपकको दिव्यदेशना देते हैं कि भो मुने ! संपूर्ण महाव्रत आदि चारित्रका तुम स्पर्श करो अर्थात् निर्दोष रीत्या व्रताचरण में तत्पर हो । अब तुम्हें सुखियापन छोड़ देना चाहिये । घोर परीषह रूपी सेनाको सहन करते हुए तुम निराकुल रहना अर्थात् परीषह आनेपर घबराना-आकुलता आदिको नहीं करना ।।५४५।। भावार्थ-हे क्षपक ! तुम सुख स्वभावका त्यागकर परीषह सहन करने में तत्पर हो जावो। क्योंकि सुख स्वभावी मुनि प्राहार वसति आदिको शुद्धि नहीं करता-उद्गम आदि दोष युक्त आहारादि ग्रहण करता है उससे चारित्र की शुद्धि नहीं होती। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १६७ रागत षकषायाक्ष संज्ञाभिगौरवादिकम् । विहायालोचनां शुद्धां त्वं विधेहि विशुद्धधीः ।।५४७॥ स पत्रिंशद् गणेनापि व्यवहार पटोयसा ।। कर्तव्यैषा महाशुद्धिरवश्यं परसाक्षिका ॥५४८।। अष्टाचारावयो ज्ञेयाः स्थितिकल्पागुणा देश । तपो द्वादशधा बोढावश्यकं षट्पडाहतम् ॥५४६॥ हे क्षपकराज ! रूप, गंध, रस, स्पर्श और शब्द इन पांच इन्द्रियोंके विषयों के वशमें तुम कभी नहीं होना । जैसे शत्रुओंका निग्रह करते हैं वैसे कषायों का निग्रह भी तुम भलोत्रकारसे करो ।।५४६।। आलोचना नामका तेवीसवां अधिकार (२३) । निर्यापक उपदेश दे रहे हैं कि हे साधो ! राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रिय और संज्ञासे रहित होकर तथा ऋद्धि गारव, सात गारव और रस गारव को छोड़कर विशद्धबुद्धिवाले तुम शुद्ध आलोचना को करो ।।५४७।। जो क्षपक व्यवहार चतुर है और छत्तीस गुण समन्वित है उसको भी गुरु की साक्षी पूर्वक महाशुद्धि कारक यह आलोचना अवश्य करनी चाहिये ।।५४८।।। छत्तीस गुण बताते हैं आचारी, आधारी आदि आठ गुण तथा अचेलकत्व आदि दश, स्थिति कल्प बारह प्रकारका तप और छह आवश्यक ये छह गुणित छह अर्थात् छत्तोस गुण हैं ॥५४९॥ भावार्थ-निर्यापक क्षपकको समझा रहे हैं कि जो स्वयं आचार्य हैं आचारी आदि गुणोंसे मण्डित हैं तो भी अन्य आचार्य के समक्ष अपने व्रत संबंधी अपराधों को आलोचना अवश्य करता है। यहांपर आचारी आदि छत्तीस गुण आचार्य परमेष्ठीके बताये हैं वैसे अन्य प्रकारसे भी छत्तीस गुण होते हैं। जैसे-आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पांच समिति और तोन गुप्ति ये छत्तीस गुण हैं। ऐसे अन्य प्रकारसे भी हैं । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ | मरण कण्डिका सर्वे तीर्थकृतोऽनंत जिनाः केवलिनो यतः । छद्मस्थस्य महाशुद्धि वदन्ति गुरु सन्निधौ ॥५५०॥ कुशलोऽपि यथा वैद्यः स्वं निगद्यातुरो गवम् । मेहास्य परतोऽजात्या विदधाति परिक्रियाम् ॥५५१।। जानतापि तथा दोषं स्वमुक्त्वा परके गुरौ। परिज्ञाय विधातव्या महाशुद्धीः पटीयसा ॥५५२।। -... -.. जितने अतीतकाल में तीर्थंकर हुए हैं अनंत केवलो जिन हुए हैं वे सर्व ही छद्मस्थ जीवोंकी महाशुद्धि गुरुके निकट होती है ऐसा बतलाते हैं ।।५५०॥ विशेषार्थ- गर्भावतरण आदि पांच कल्याणक धारी तीर्थंकर कहलाते हैं। संपूर्ण ज्ञानावरण का जिनके क्षय हो चुका है और केवलज्ञान युक्त हैं उन्हें केबलो कहते हैं । कर्म शत्रुओं को जीतने वाले जिन हैं इन सभी महापुरुषोंने उपदेश दिया है कि जो जीव छद्मस्थ है अर्थात् जबतक उसे केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है सब तक महामुनि आदि भी क्यों न हो किन्तु उसको अपने दोषोंकी आलोचना गुरु की साक्षीसे अवश्य करनी चाहिये । इसतरह शास्त्रोक्त विधि क्षपकको निर्यापक प्राचार्य समझाते हैं । निर्यापक कह रहे हैं कि हे क्षपक ! देखों चतुर वैद्य भी रोग युक्त होनेपर अपने रोग को दूसरे वैद्यको बतलाकर उससे रोग दूर करने की विधि को ज्ञातकर रोग का प्रतीकार करता है । अर्थात वैद्य स्वयं अपनी चिकित्सा नहीं करता, परवंद्यसे कराता है, वैसे ज्ञानो हो, आचार्यादि हो उन्हें भी अन्य आचार्यको साक्षीसे आलोचना कर अपना भव-रोग दूर करना चाहिये ।।५५१।। क्षपक स्वयं आचार्य है चतुर है दोष निवृत्तिको विधि को स्वयं जानता है तो भी अन्य आचार्य के निकट स्वदोषों को कहकर विधिको जानकर अपनी महाशुद्धि कर लेनी चाहिये ।।५५२।। भावार्थ---परके साक्षी पूर्वक अपराध निवेदन करके आत्मशुद्धिका विधान इसलिये भी है कि एक महान् क्षपक आचार्य को भी अन्य गुरु के निकट अपने दोषोंकी आलोचना करते देखकर सभी यतिजन उसी तरह प्रवृत्ति करेंगे, अर्थात् आत्माके शुद्धि का यही क्रम है ऐसा समझकर वे भी पर साक्षीसे शुद्धिकरण करेंगे । अन्यथा सर्व लोक स्वसाक्षीसे शुद्धि करेंगे, क्योंकि लोक प्रायः गतानुगतिक होते हैं। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार ततः सम्यक्त्व चारित्रज्ञान दूषणमादितः । एकाग्र मानसः सर्व, स्वमालोचय यत्नतः ॥५५३॥ विद्यते यद्यतीचारो मनोवाक्काय संभवः । आलोचय तदा सर्च निःशल्योभूतमानसः ॥५५४॥ कालेऽमुकत्र देशे वा जातो भावनयानया । दोषो ममेति विज्ञाय त्वमालोचय सर्वथा ॥५५५।। आलोचना द्विधा साधोरोघी पदविभागिका । प्रथमा मूलयातस्य परस्थ गविता परा ।।५५६।। इसलिये सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्रमें जो दोष हुआ हो उसकी हे क्षपक ! तुम एकाग्र मन पूर्वक आलोचना करो ।।५५३।। यदि मन वचन और कायसे अतीचार हुआ है तो उस सबकी नि:शल्य मन होफर आलोचना करो ॥५५४।। इस समय पर अमुक देश में इस भावना द्वारा यह दोष मेरेसे हआ था, इस तरह सब द्रव्य क्षेत्र आदि को ज्ञातकर हे यते ! तुम सब प्रकारसे आलोचना करो ॥५५५।। साधुकी आलोचना दो प्रकारकी बतायो है औघी और पद विभागी। इनमें से मलको ( मूल नामके प्रायश्चित्तको ) प्राप्त हुए यतिके तो पहली औघी आलोचना कही गयो है तथा मूलको छोड़ अन्य विषयक आलोचना पविभागी कही जाती है ॥५५६।। विशेषार्थ--आलोचनाके दो भेद हैं औघी और पदविभागी औघीको सामान्यालोचना और पदविभागीको विशेषालोचना भी कहते हैं। जिस साधुको दोक्षा महा अपराधसे नष्ट हो चकी है उसको औधी आलोचना करनी चाहिये अर्थात उसे तो इतना कहना होगा कि मेरे सर्व ही व्रत समाप्त हुए हैं मैं मूलस्थानको प्राप्त हूँपूनर्दीक्षाके योग्य हूँ । जिस साधुके ऐसा महा अपराध नहीं हुआ है उसको पविभागी आलोचना करना चाहिये अर्थात् इस महाव्रतमें अमुक दोष मुझसे हुआ है इत्यादि रूप कहना चाहिये । इसोको आगे कहते हैं । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] मरण कण्डिका प्रोघेन भाषतेऽनपदोषो वा सर्वघातकः । इतः प्रभृति वांच्छामि त्वत्तोऽहं संयमं गुरो ! ।।५५७॥ अपराधोऽस्ति यः कश्चिज्जातो यत्र यथा यदा । ब्रूते पदविभागों तां सूरौ तत्र तथा तदा ।। ५५८ ॥ कंटकेन यथा विद्ध सर्वांगव्यापि वेदना | जायते निर्वृतस्तस्मिन्नुद्धृते शल्यवर्जितः २२५५६ ॥ दुःखव्याकुलित स्वान्तस्तथा शल्येन शल्पितः । निःशल्यो जायते यः स लभते निर्वृतिं पराम् ॥ ५६० ।। मायानिदानमिथ्यात्व भेदेन त्रिविधं मतम् । अथवा द्विविधं शल्यं द्रव्यभावात्मकं मतम् ॥ ३५६१।। जिसके महादोष हुआ है या व्रतोंका सर्वनाश हुआ है वह सामान्य से कहता है कि हे गुरुदेव ! मेरे सर्व व्रत नष्ट हो चुके हैं मैं आजसे आपके द्वारा संयमको प्राप्त करना चाहता हूँ । इसतरह ओघो आलोचना होती है || १५७ || जिस काल में जिस देशमें, जिस प्रकारसे जो अपराध हुआ है उसकाल में उसदेश में उसप्रकार से उसदोषको आचार्यके समक्ष कहता है, यह पद विभागी आलोचना कहलाती है ।। ५५८ ।। आलोचना माया शल्यको छोड़कर करनो चाहिये ऐसा कहते हैं जिसप्रकार कांटेके लग जानेपर सर्वांग व्यापी वेदना होती है और उसके निकाल देनेपर शल्यरहित सुख होता है । उसीप्रकार माया मिथ्या और निदान शल्यसे युक्त मुनि दुःख से व्याकुलित मनवाला हो जाता है और जब माया आदि शल्यसे रहित होता है अर्थात् अपने दोषोंकी आलोचना करता है तब परम सुखको प्राप्त होता है ।।५५६।। ५६० ।। शल्यके तीन भेद हैं- माया, निदान और मिथ्यात्व अथवा शल्यके दो भेद हैं, एक द्रव्य शल्य और दूसरा भाव गल्य । छल या कपट को माया शल्य कहते हैं । परभव में भोगोंकी वांछा करना निदान शल्य है । विपरीत श्रद्धाको मिथ्यात्व कहते हैं । द्रव्य और भावशत्यका स्वरूप आगे कह रहे हैं । १५६१ ।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार भावशल्यं त्रिषा तत्र ज्ञानादि त्रयगोचरम् 1 सचित्ताचित्तमिश्रकम् ॥ ५६२ ॥ द्रव्यशल्यमपि त्रेधा अनुद्ध, ते प्रमादेन लभंते दारुणं दुःखं भावशल्य मनुद्ध त्य भयप्रमादलज्जाभिः दुःसहवेदनेक भावशल्ये पुन: सास्ति भावशल्ये शरोरिणः । ब्रध्यशल्यमिवानिशम् ।। ५६३ ।। ये म्रियन्ते विमोहिनः । कस्याप्याराधका न ते ॥५६४ ।। द्रव्येत्यनुद्ध से I जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ॥ ५६५॥ [ १७९ उसमें भावशल्यके तीन भेद होते हैं ज्ञानका शल्य, दर्शनका शल्य और चारित्रका शल्य | द्रव्य शल्यके भी तीन भेद हैं सचित्त द्रव्यशल्य, अचित्त द्रव्यशल्य और मिश्र द्रव्यशल्य ।। ५६२ ।। विशेषार्थ - अकाल पठन आदि ज्ञानका शल्य है, शंका आदि दर्शनका शल्य है, समिति आदिमें अनादर करना चारित्रका शल्य । ये भाव शल्यके भेद हुए । दास आदि सचित्त द्रव्य शल्य है, सुवर्णादि अचित्त द्रव्य शल्य और ग्रामादि मिश्र द्रव्य शल्य है । भाव यह है कि साधु इन सबका त्याग किये हुए होते हैं किन्तु कदाचित् मनमें इन वस्तुओंके प्रति ममत्व हो तो वह द्रव्य शल्य है, क्योंकि यह मोह भाव भी कांटेकी तरह क्लेश कारक है | अकाल अध्ययन आदि तो साधु जीवनमें लगने वाले अतोचार हैं । यदि प्रमादवश भावशल्यको नहीं निकाला जाय तो संसारी जीव द्रव्य शल्यके द्वारा जैसे दारुण दुःख को प्राप्त होते हैं वैसे साधुजन भो इस भाव शल्यसे सतत् दारुण दुःखको प्राप्त होते हैं || ५६३ ॥ भय प्रमाद और लज्जाके कारण जो मोही क्षपक भावशल्य का त्याग किये बिना मरण करते हैं वे दर्शन आराधना आदि बार आराधनाओं में से किसीके भी आराधक नहीं होते हैं || ५६४ || यदि द्रव्य शल्यका निष्कासन नहीं किया जाय तो एक भवमें दुःसह वेदना होती है, किन्तु भावशल्य को दूर न किया जाय तो इस जीवको जन्म जन्ममें दुःसह वेदना भोगनी पड़ती है ।।५६५।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] मररएकण्डिका चारित्रं शोधयिष्यामि काले श्व प्रभूता वहम् । शेभुषोमिति कुर्धाणा गतं काल न जानते ॥५६६।। रागद्वेषादिभिर्भग्ना ये म्रियन्ते सशल्यकाः । दुःखशल्याकुलेभीमे भवारण्ये भ्रमति ते ॥५६७।। उद्ध त्य कुर्वते कालं भावशल्यं त्रिधापि ये । प्राराधन प्रपद्यते ते कल्याण वितारिणी ॥५६८॥ कोई क्षपक ऐसा बुद्धि या विचार करे कि मैं कल या परसों अपने चारित्रका शोधन [ आलोचना ] करूगा वह क्षपक गये हुए काल को नहीं जानता है ।।५६६॥ भावार्थ-जो मनि ऐसा विचार करता है कि मैं अभी आलोचना नहीं करता, फिर कभी करूगा, कल परसों करूगा, सो ऐसा सोचने वाला कालको नहीं जानता कि कब मृत्यु आयेगो और मैं बिना आलोचना किये ही मर जागा । तथा अधिक दिन व्यतीत होनेपर अतीचार विस्मृत भी हो जाते हैं। अतः साधुको तो हमेशा हो जब अतोचार लगे तभी गुरुके समक्ष आलोचना करके शुद्धि करनी चाहिये और क्षपकको संन्यासके अवसर पर तो सर्व आलोचना शोध हो कर लेनी चाहिये। आयुका कोई निश्चय नहीं कि कब पूर्ण हो जाय । जो राग द्वेष आदिसे भग्न हुए शल्य सहित मरण करते हैं वे दुःखरूपी कांटोंसे मरे भयंकर भव रूपो अरण्य में भ्रमण करते हैं ।।५६७॥ जो तीन प्रकारके भावशल्यको निकालकर मृत्युको करते हैं वे कल्याण को देनेवाली आराधनाको प्राप्त करते हैं ।।५६८।। विशेषार्थ---भाव शल्योंका स्वरूप पहले बता दिया है, इन शल्योंको हृदयसे निकाल कर अतीचारोंको आलोचना गुरुके समक्ष करके प्रायश्चित्तसे जो अपने आत्मा को निर्मल बनाते हैं और सल्लेखना करते हैं उन क्षपक साधुओंके आराधना सिद्ध होती है । दीक्षासे लेकर मृत्यु तक जो तपश्चरण किया जाता है उसकी सफलता आराधना की प्राप्तिसे होती है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १७३ सम्यक्त्यवृत्तनिःशल्या दूरोत्सारित गौरवाः । विहरंतिविसंगा ये कर्म सर्व धुनंति ते ॥५६६।। इति ज्ञात्वा महालाभं निःशल्यीभूतचेतसां । शुद्धदर्शनचारित्रो विहरस्वाप शल्यकः ॥५७०।। सम्यगालोचयेत्सर्वमनुद्विग्नमविस्मृतम् । अनिगूढमनिर्मोहं निर्मूलमपगौरवम् ॥५७१।। भयमानमृषामाया मुश्तेन प्रांजलात्मना । बालेनेवाभिधेयानि कृत्याकृत्यानि धीमता ॥५७२।। सम्यक् स्वज्ञानवृत्तेषु विधायालोचनां यते । कुरु सल्लेखनां सम्यक् क्रमेणापास्तकल्मषः ॥५७३॥ . --- जो सम्यक्त्व और चारित्र संबंधी शल्यसे रहित हैं गौरव-गारवको दूरसे ही जिन्होंने त्याग दिया है निःसंग अर्थात् परिग्रह रहित हुए वायुवत् विहार करते हैं वे साधुजन सर्व कर्मका नाश करते हैं ।।५६९।। आचार्य क्षपकको उपदेश द्वारा समझा रहे हैं कि हे क्षपक ! इसप्रकार जिनका शल्य रहित चित्त है ऐसे निःशल्य चित्तवाले साधुओंके आराधना प्राप्ति रूप महालाभ होता है ऐसा जानकर तुम शुद्ध दर्शन और शुद्ध चारित्र रूप तथा शल्य रहित हो विहार-आचरण करो ।।५७०।। हे क्षपक ! तुम खेद रहित सम्यक आलोचना करो वह आलोचना ऐसो होवे कि जो दोष विस्मृत हुए हों उन्हें स्मरण करके आलोचना करो। किसी भी दोष को बिना छिपाये आलोचना करो, गौरव रहित और मोहरहित हो दीक्षासे लेकर आजतक जितने अतिचार लगे हों वे निर्मूलतया-पूर्णरूपसे गुरुके समक्ष निवेदन कर दो ॥५७१।। भय, मान, असत्यसे रहित, सरल मनसे बालकके समान सभी कार्य और अकार्योका निवेदन बुद्धिमान् क्षपक द्वारा होना चाहिये । अर्थात् सरल स्वभाबसे जैसे बालक अपने योग्य अयोग्य कार्यों को बता देता है वैसे क्षपकको अपने द्वारा किये गये कार्य अकार्य को निर्यापक से निवेदन कर देना चाहिये ।।५७२।। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्डिका इत्युक्त सरिणोत्कृष्टां चिकीर्षः क्षपकोमृति । जात सर्वांग रोमांचः प्रमोद भर विह्वलः ।।५७४।। चैत्यस्य सम्मुखः प्राच्यामदीच्यां वा दिशः स्थितः । कायोत्सर्गस्थितो धीरो भूत्वा कापेऽपि निस्पृहः ।।५७५।। मुक्तशल्य ममत्वोऽसावेकत्वं प्रतिपद्यते । शल्यमत्पाटयिष्यामि पावमूलेगशिनः ॥५७६।। हे यते ! सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रमें जो अतीचार हुए हैं उनकी । आलोचना करके सम्यक क्रम पूर्वक जिसका पाप नष्ट हुआ है ऐसे तुम सल्लेखना को करो ॥५७३।। इसप्रकार आचार्य द्वारा क्षपकको उपदेश दिये जानेपर उत्कृष्ट समाधिमरण को करने का इच्छक क्षपक सर्वांगमें रोमांचित हो जाता है। अत्यंत प्रसन्नता से हर्ष विभोर होता है ।।१७४।। विशेषार्थ-निर्यापक द्वारा कल्याणकारी अत्यंत वैराग्य वर्द्धक तथा धर्म में गाढ अनुराग को उत्पन्न करनेवाला उपदेश सुनते हो क्षपकके सारे शरीरमें आनंदसे रोमांच आ जाते हैं । वह क्षपक विचार करता है कि अहो ! ये गुरुवर्य हमारे अकारण बंधु हैं, कितनी हृदयस्पर्शी वाणीसे मुझे समझा रहे । अहो ! इन्हें सचमुच में रत्नत्रय मार्ग में महान् भक्ति है जिससे इतना प्रयत्नशील होकर मुझे आलोचनामें उद्यत कर रहे हैं । ये धन्य हैं, यही कर्णधार हैं ये ही मुझे संसार समुद्रसे पार करेंगे, इत्यादि । शुद्ध आलोचनाको मैं करता हूँ ऐसी गुरुको स्वीकृति देकर उक्त क्षपक जिन प्रतिमा के सम्मुख या पूर्व अथवा उत्तर दिशाके तरफ मुख करके खड़ा हो जाता है और शरीर में भी निःस्पृह वह धोर कायोत्सर्ग करता है ॥५७५।। विशेषार्थ--गुरुको दोषोंका निवेदन करनेके पहले विधिपूर्वक-सामायिक दण्डक, योस्यामि दण्डक आवर्त शिरोनति युक्त सिद्ध भक्ति करके कायोत्सर्ग में लीन होता है । इससे दोषोंका स्मरण हो जाता है । शल्य और ममत्व को जिसने छोड़ दिया है ऐसा यह क्षपक एकत्य भावको प्राप्त होता है। मैं आचार्यके चरण मूलमें शल्यको उखाड़कर फेंक दूंगा ऐसा विचार करता है ।।५७६।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १७५ इत्य के त्वगतः कृत्स्नं दोष स्मरति यत्नतः । इत्थं स प्रांजलीभूय सर्व संस्मृत्य दूषणं ॥५७७॥ एति शल्यं निराकतुं सर्व संस्मृत्य दूषणं । आलोचनादिकं कत्तुं युज्यते शुद्धचेतसः ॥५७८ ।। आलोचनादिकं तस्य संभवेच्छुछ भावतः ।। अपराण्हेऽथ पूर्वाण्हे शुभलग्नादिके दिने ।।५७६।। निःपन्नः काकः शुष्कपादपः कंटकाचितः । विच्छायः पतितः शीणों ववदग्धस्तडिद्धत: ॥५८०।। - - - - इसतरह एकस्वभावको प्राप्त हुआ क्षपका समस्त दोषको स्मरण करता है, अत: इसप्रकार प्रांजल होकर सर्व दोष स्मरण में लाता है ।। ५७७।। भावार्थ-जब क्षपक एकत्व भावमय होता है तब मैं अतीचार रहित हैं मैं तो केवलज्ञान दर्शन स्वभाववाला हूँ। मुझसे शरीर, रागद्वेष शल्य, गारव आदि सब विकार भिन्न हैं, शरीरके नाशसे इसके मान अपमानसे मेरा कुछ भी बिगड़ता नहीं। मैं अब मायाको छोड़कर अतीचारोंको दूर करूंगा । ऐसा विचार कर क्षपक दोषोंको स्मरण करता है कि मुझसे कौन कौनसे दोष हुए हैं ? कब हुए हैं इत्यादि । सर्व दोषोंका स्मरण करके शल्यका निराकरण करने के लिये गुरुके निकट आता है। क्योंकि शुद्ध मनवालेके हो आलोचना आदि करना योग्य होता है ।।५७८।। आलोचनाके लिये उचित काल आदिका निर्देश करते हैं उस क्षपकको शुद्ध भाबसे आलोचना आदि संभव है अर्थात् आलोचनाके समय भाव शुद्ध होना चाहिये, पूर्वाह्न या अपराह्नके समय में, शुभ दिन, शुभ तिथि और शभ लग्न में आलोचना करनी चाहिये । यहा भाव और काल आलोचनाके लिये कैसा हो यह बताया है ।।५७९।। आलोचनाके लिये योग्य स्थान जिस स्थान पर पत्तोंसे रहित वृक्ष हो, सूखा वृक्ष, कांटेदार वृक्ष, कडुआ निब आदिका वृक्ष, छाया रहित या गिरा हुआ, जोणं, अग्निसे या बिजलीसे जला हुआ वक्ष हो वह स्थान आलोचनाके योग्य नहीं है ॥५८० ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ । मरकण्डिका तृणपाषाण क्षुद्राणामरूप सस्यानां देवतानां निकेतनम् । काष्ठास्थिपत्रांस्वादि संचयाः ।। ५८१ ॥ शून्यवेश्म रजो भस्म वर्चः प्रभृति बूषिता 1 यद्रदेवकुलं त्याज्यं निद्यमन्यदपीदृशम् चिकारयिषतां शुद्धां साधुमालोचनां स्फुटम् । सूरीणां सर्वथा स्थानमसमाधान कारणम् ।।५८३ ॥ ।।५८२ ।। सर: जिनेन्द्र यक्ष नागादि मंदिरं चारुतोरणम् । स्वच्छ पयः पूर्ण पद्मिनीखंडमंडितम् ।।५८४ ।। पादपैरुन्नतः सेव्यं सर्व सत्वोपकारिभिः । आरामे मंदिरे नम्रः सज्जनैरिव भूषिते ।।५६५॥ तोरमक्ष मनोहरम् । समुद्रनिम्नगादीनां सच्छायं सरसं वृक्षं पवित्रफलपल्लवं ।। ५६६ ।। क्षुद्र अल्पशक्ति वाले देवोंका स्थान जहांपर घास, पत्थर, काष्ट, हड्डी, पत्ते और मिट्टी धूलिके ढेर लगे हों, धूलि, राख, मल आदि से भरा हुआ सूना घर या कोई स्थान हो, या रुद्र आदिका देवालय हो ये सब स्थान आलोचनाके योग्य नहीं हैं, तथा इन्ही के समान अन्य कोई निदनीय स्थान भी योग्य नहीं है त्याज्य है ।।५८१ ।।५८२ ।। जो निर्यापकाचार्य क्षपक द्वारा परिशुद्ध आलोचना करवाना चाहते हैं उन्हें उक्त असमाधान - अशांति कारक स्थान सर्वेथा छोड़ देने चाहिये || ५८३ ।। आलोचना के अयोग्य स्थानोंको कहकर अब योग्य स्थानोंका निर्देश करते हैं--- श्री देवाधिदेव जिनेन्द्र प्रभुका मंदिर हो अथवा सुंदर तोरणसे युक्त यक्ष नागादिका मंदिर हो । कमलवनोंसे सुशोभित स्वच्छ जलसे पूर्ण सरोबर हो । सब जीवोंके लिये उपकारक ऐसे उन्नत वृक्षोंसे मंडित स्थान हो, नम्र सज्जनोंके द्वारा भूषित मंदिर में अथवा सज्जनोंके समान वृक्षोंसे भूषित उद्यान आलोचना योग्य स्थान होता है । इन्द्रियोंके लिये मनोहर ऐसे समुद्र और नदीके किनारे, छायादार, पवित्र पत्र पुष्पोंसे फलोंसे युक्त रसोले वृक्षोंसे युक्त स्थान आलोचना के लिये श्रेष्ठ कहा जाता है ।। ५८४ ।। ५८५ । । ५६६ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७७ सुस्थितादि अधिकार शस्तमन्यदपि स्थानमुपेत्य गणनायकः । आलोचनामसंक्लेशां क्षपकस्य प्रतोच्छति ॥५८७॥ जिना या दिशः प्राच्या कौर्या वा स सन्मुखं । शृणोत्यालोचनां सूरिरेकस्यको निषण्णवान् ॥५८८।। उपयुक्त स्थानोंके समान अन्य भी कोई प्रशस्त स्थान हो उस स्थान में जाकर निर्यापक आचार्य क्षपकको संक्लेशरहित शुद्ध पालोचनाको सुनते हैं ॥५८७।। ___ आलोचनाको सुनते समय आचार्य को किस तरह बैठना चाहिये यह बताते हैं जिनप्रतिमाके सन्मुख बैठकर या पूर्व दिशामें अपना मुखकर क्षपकका मुख स्तर में करे अपना जनर अपना और क्षपकका पूर्व दिशामें मुख कराके बैठकर एकाकी आचार्य एक क्षपकको आलोचनाका श्रवण करता है ।।५८८।। । विशेषार्थ-समाधिके इच्छुक क्षपकको आलोचना किस स्थानपर किसकाल में कैसे स्थित होकर किस भावपूर्वक होती है इन विषयोंका बहुत ही सुदर वर्णन है । शुभ महत्त, शुभ लग्न, शुभ नक्षत्र आदिके रहनेपर आलोचना योग्य काल है। जिन मंदिर, मनोहर उद्यान, कमलोंसे परिपूर्ण स्वच्छ सरोवर, नदो आदिका तट अथवा ऐमे अन्य काई प्रशस्त स्थान हों वे सब आलोचनाके योग्य माने जाते हैं। पूर्वाभिमुख वैठना इसलिये प्रशस्त है कि पूर्व में सूर्यका उदय होता है सूर्योदय के समान अाराधना प्रकाशमान उन्नत होतो जाय इस अभिप्रायसे पूर्वाभिमुख होकर बैठता है उत्तर में विदेहमें सोमंघर आदि तीर्थकर सदा हो विद्यमान रहते हैं अत: उत्तराभिमुख होना प्रशस्त है । जिनप्रतिमा संमुख बैठना तो साक्षात् शुभ परिणामका कारण होने से प्रशस्त है । एक आचार्य एक ही क्षपककी आलोचना सुनते हैं अनेक क्षपककी नहीं । यदि अनेक गुरु पालोचना सुननेको बैठे तो क्षपकको लज्जा आना संभव है लज्जासे वह अपने दोष ठोकसे नहीं कहेगा । अनेक क्षपकोंके दोष एक साथ एक आचार्य अवधारण नहीं कर सकेगा। अत: एक क्षपक और एक हो आचार्य रहे । हां यदि कोई आर्यिकादि आलोचनामें उद्यत है तो आचार्य के निकट एक मुनि उपस्थित हो या अन्य आर्यिकाके साथ आलोचक आर्यिका होवे तब आचार्य उसको आलोचना सुनते हैं । क्षएक जब आलोचना कर रहा है तब आचार्य उसे तत्परतासे सुने, अन्यथा क्षपक आलोचना करने में निरत्साह हो जायगा Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] मरणकण्डिका छंद उपजाति--- कृत्वा त्रिशुद्धि प्रतिलिख्य सूरि प्रणम्य भूर्धस्थित पाणिपमः। आलोचना मेष करोति मुक्त्वा दोषानशेषानपशल्यदोषः ॥५८६।। (२३) इति पालोचना। कि ये गुरु मुझ जैसे क्षपकको अन्तिम आलोचना भी ठीकसे नहीं सुनते, इन्हें क्या सुनाया जाय ? और आलोचक क्षपक उस समय माया, भय रागद्वेष आदि परिणामोंको छोड़कर मालोचना करे यह भाव शुद्धि है । इसप्रकार शुभकाल, प्रशस्त स्थान में प्रसन्न मन युक्त हो आचार्य निर्मल परिणाम युक्त हुए क्षपकको आलोचना सुनते हैं । उक्त आलोचनाके स्थान पर नेत्र से तथा पीछांस शोधनकर शांत भावसे क्षपक को बैठ जाना चाहिये, मन, वचन, कायकी शुद्धि करके कृतिकर्म सहित आचार्यको नमस्कार करे, कैसा है क्ष पक ? जिसने शल्प दोषका त्याग कर दिया है तथा जिसने पीछी से युक्त दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर रखे हैं । ऐसा क्षपक संपूर्ण दोषोंको कहकर आलोचना करता है ।।५८६॥ विशेषार्थ-देव वंदना प्रतिक्रमण आदि कार्योको यतिजन कृतिकर्म सहित करते हैं। प्रत्येक कार्यमें पृथक् पृथक् भक्तिपाठ होता है, जैसे देववंदनामें चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्तिका पाठ करते हैं । भक्ति पाठ करते समय सर्वप्रथम विज्ञप्ति करके मैं अमुक भक्ति करता हूँ ऐसी प्रतिज्ञा करके-"नमोस्तु देववंदना क्रियायां भावपूजा वंदनास्तवसमेतं चैत्यभक्ति कायोत्सर्ग कुह" इसतरह प्रतिज्ञा करके तीन आवत ( हाथ जोड़ कर तीन बार विशिष्ट रोतिसे घुमाना ) एक शिरोनमन करके सामायिक दण्डक करके तीन आवर्त्त एक शिरोनमन सहित कायोत्सर्ग करे, पुनः तीन आवादि सहित थोस्सामि दण्डक करके पुनः आवर्तादि कर जो भक्तिपाठ है उसे करे । इसतरह क्रियामें जितने भक्तिपाठ आगममें बताये हैं उनमें यही आवतं आदिकी पुनः पुनः विधि होती है । अर्थात् एक भक्तिमें बारह आवर्त, चार शिरोनमन तथा दो प्रणाम होते हैं। यहां क्षपकको आचार्य सानिध्य में आलोचना करना है अत: आचार्य वंदना क्रियाको विधि होगी, इसमें सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और आचार्य भक्तिका पाठ होगा, इन भक्तियों को उक्त प्राव दि पूर्वक करके आचार्यको पंचांग नमस्कार करना चाहिये । पुनश्च Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार अनुकंप्यानुमान्यं हि यदुष्टं स्थूलमन्यथा । छन्नं शब्दाकुलं सूरि सूर्य व्यक्त च तत्समं ।। ५६० ।। सूरि भक्तेन पानेन प्रदानेनोपकारिणा । विनयेनानुकम्प्य स्वं दोषं वदति कश्चन ॥५६१ ॥ [ १७९ अपनी आराधना सिद्धि हो एतदर्थं योगभक्ति करनी चाहिये । इसप्रकार कृतिकर्म करके विनयपूर्वक आलोचना करें । आलोचना अधिकार समाप्त ( २३ ) गुण दोष नामा चौबीसवां अधिकार अब आलोचना करते वक्त जो दोष संभव हैं उन्हें क्रमसे बताते हैंआलोचनाके दश दोष हैं- अनुकंपित, अनुमानित, यद्दृष्ट, स्थूल सूक्ष्म, छत, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवो ।। ५९० ।। इन दोषोंका विवरण इसप्रकार है— गुरुके मनमें अपने विषयमें दया उत्पन्न करके आलोचना करना अनुकंपित दोष है । गुरुके अभिप्रायको किसी उपायसे जानकर आलोचना करना अनुमानित दोष है । जो दोष किसीने देखे हैं केवल वही कहना यद् हृष्ट दोष है। छोटे दोष छिपाकर केवल बड़े दोष कहना स्थूल दोष है, और बड़े अपराध छिपाकर सूक्ष्मको कह देना सूक्ष्म दोष है 1 जहां सामूहिक प्रतिक्रमण आदिके कारण कोलाहल हो रहा है उस वक्त आलोचना करना शब्दाकुलित दोष है । एक आचार्यको दोषोंका निवेदन कर पुनः अन्य आचार्य के निकट दोष निवेदन करना बहुजन दोष है | अज्ञानी गुरुको दोष बताना अव्यक्त दोष है और जिस दोष की आलोचना करना हो वह दोष जो गुरु करता है उसके पास आलोचना करना तत् सेवो दोष है । इसका विस्तृत कथन कारिकाओं द्वारा आगे और भी कर रहे हैं । अनुकंपित दोष आचार्य के लिये आहार पानी उपकरण प्रदान करके, तथा विनय द्वारा अनुकंपा उत्पन्न करके कोई क्षपक आलोचना करता है ।।५९१|| Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ] मरणकण्डिका आलोचितं मया सवं भविष्यत्येष में गुणं । करिष्यतीति मन्तव्यं पूर्व पालोचनामलः ॥५६२।। कश्चित क्रीत्वा विषं भुक्ते नरो मत्वाहितं हितं । जीवितार्थी यथा मूर्खस्तथेयं शुद्धिरिष्यते ॥५६३॥ मधुरालोचनषादौ विपाके सेविता सती । तीव' करोति किपाक फल भुक्तिरिवासुखं ॥५६४॥ भावार्थ---स्वतः भिक्षा लब्धि संपन्न होनेसे आचार्यको प्रासुक, उद्गम आदि दोषोंसे रहित आहार पानीसे वैयावृत्य करके, पोछी कमंडलु प्रदान करके आचार्यके मनमें अपने प्रति दया भाव उत्पन्न कराके कोई क्षपक आलोचना करता है। यह अनुकंपित दोष है। ___आचार्यको आहार आदिसे संतुष्ट एवं दयायुक्त करनेपर मेरे द्वारा सर्व आलोचना हो जायगी, इससे मुझे बड़ा लाभ होगा अर्थात् आहारादिसे संतुष्ट हुए आचार्य मुझे अल्प प्रायश्चित्त देंगे इस तरह विचार वह क्षपक करता है । यह आलोचना का पहला दोष है ।।५९२।। भावार्थ-क्षपक अपने मनमें गुरुके प्रति इसतरह तुच्छ विचार करता है कि मेरे उपकरण प्रदानसे ये गुरुजन संतुष्ट होवेंगे और उससे कम प्रायश्चित्त देंगे । सो गुरुके प्रति यह मानसिक अविनय है अतः इसतरह की आलोचना सदोष मानी जातो है। जैसे कोई जीवनको चाहनेवाला पुरुष विष को खरीदकर खाता है और उस अहित को ही हित मानता है तो वह मूर्ख कहलाता है । उसोप्रकार आत्मशुद्धि-रत्नत्रय शालिके लिये क्षपक आलोचना करता है और उससे गुरु को उपकरण दानादिके छलसे पुनः माया शल्यको पुष्टि करता है, अत: विषको खरीदकर खाने वालेके समान ही यह क्षपक है, उसकी शुद्धि वैसी ही है अर्थात् ऐसी आलोचनासे कदापि शुद्धि नहीं होतो ।।५९३।। अनुकंपित दोष युक्त की गयी यह आलोचना प्रारंभमें मधुर लगती है। [ क्योंकि इससे कम प्रायश्चित्त मिलनेकी आशा है ] किन्तु विपाककालमें-आगामी Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १८१ रक्तस्य कृमिरागेण शुसिलक्षिारसेन वा । वस्त्रस्य जायते जातु नैषा शुद्धिःपुनध्र बम् ।।५६५॥ घोरराधारितं धन्याः कुर्वते दुश्वरं तपः । दुःखाम्भसो भवाम्भोधे? स्तरात्तारकं परम् ॥५६६।। क्लमापहारपार्श्वस्थ सुखशीलतया तपः । न प्रकृष्ट मलं कर्तुं वदत्येवमधार्मिकः ॥५६७।। पार्यस्थस्वमनारोग्यं दौर्बल्यं वह्निमंदता । भगवस्तव विज्ञाता मदीयाः सकलाः स्फुटम् ॥५६८।। -. -- - .. कालमें [सदोष आलोचनासे-भवभ्रमण होनेसे ] तीव्र दुःखको उत्पन्न करती है। जैसे किपाक फल देखने में सुदर और खाने में मधुर होने पर भी विपाक काल में मरणका दुःख उत्पन्न करता है ॥५९४।। कृमिरंग से रंगे हए वस्त्रको अथवा लाक्षा रसके रंगसे रंगे हुए बस्त्रकी शुद्धि कदाचित् (सफेद साफ होना) हो सकती है किन्तु अनुकंपित दोष युक्त की गयी आलोचनासे निश्चयसे शुद्धि नहीं हो सकती ।।५९५।। भावार्थ-जैसे कृमि रंगादिसे रंगा वस्त्र सफेद नहीं होता बसे मायाचारसे की गयो आलोचनासे रत्नत्रयको शुद्धि नहीं होतो है । । (२) अनुमानित दोष क्षपक आचार्य समक्ष मानो अपनो धार्मिकता दिखाता हुआ कहता है कि जिसे धीर पुरुषोंने किया है जो दुःस्वरूप जल वाले दुस्तर ऐसे भवसागरसे पार उतारने वाला है ऐसे कठोर तपको जो मुनिजन करते हैं वे धन्य हैं ।।५९६।। मैं इसप्रकारके उग्र तपको करने में समर्थ नहीं हूँ। इसप्रकार वह अधार्मिक क्षपक अपना बल छिपाकर एवं पार्श्वस्थ होनेसे सुख में आसक्त हुआ गुरुसे कहता है। अर्थात् गुरुसे मैं कमजोर हूँ, मेरेमें उपवासको सामर्थ्य नहीं ऐसा कहता है ।।५६७।। उक्त क्षपक कह रहा है कि हे भगवन् ! मेरे पाश्वस्थत्व, रोगीपन, दुर्बलता, मंदाग्नि रूप सब कमियोंको आप स्पष्ट रूपसे जानते ही हैं ॥५९८।। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ ] मरकण्डका यालोचयामि निःशेषं कुरुषे प्रसादेन विशुद्धिमम त्वदीपेन यद्यनुग्रहम् । जायताम् ॥५६॥ हरिमालोचनां यतेः । कुर्तामाि भवत्यानोचनादोषो द्वितीयः शस्यगोपकः ॥ ६००॥ सेव्यमानो यथाहारो विपाके दुःखदायकः । श्रपथ्यः पथ्यशेमुष्या तथेयं शुद्धिरीरिता ॥ ६०१ ॥ परैः सूचयते दृष्टमदृष्टं या निग्रहति । महादुःखफला तेन मायायल्ली प्ररोप्यते ।।६०२ || यदि दृष्टम दृष्ट च नालोचयति दूषणं । तदात्यालोचनादोषस्तृतीयो दोषवर्धकः ।।६०३॥ आप मुझपर यदि अनुग्रह करें तो समस्त आलोचना को करता हूँ । आपके प्रसादसे मेरी शुद्धि हो जाय ।। ५९९|| इसप्रकार आचार्यको कहकर उनके निकट आलोचना करने वाले क्षपक मुनि के शल्यका गोपन करने वाला दूसरा अनुमानित नामका दोष होता है || ६०० || जिसप्रकार अपथ्य भोजनका यह पथ्यकारक है ऐसी बुद्धिसे सेवन किया जाता है तो वह विपाक में दुःखदायक होता है । उस प्रकार गुरु को अपनी कमजोरी बताकर कम प्रायश्चित्त का आश्वासन लेकर आलोचना करनेवालेकी आलोचना विपाक कालमै दुःखदायक होती है। उससे शुद्धि नहीं होती ।। ६०१ ।। (३) यद् दृष्ट दोष — जो क्षपक परके द्वारा देखे दोषों को गुरुके समक्ष कहता है और जो दोष नहीं देखा हो उसको छिपा देता है, ऐसे उस क्षपक द्वारा महादुःखरूप फलवाली मायाबेल रोपी जाती है, अर्थात् देखे दोष बताना और नहीं देखे हुए को छिपाना यही माया है। इससे क्षपकको महान् कष्ट उठाना पड़ता है ॥ ३६०२॥ यदि दृष्ट और अदृष्ट-परके द्वारा देखे हुए और के दोषोंकी आलोचना क्षपक नहीं करता है तो उसका वह आलोचना का तीसरा दोष होता है ||६०३ ॥ नहीं देखे हुए दोनों प्रकार अपराध को बढ़ाने वाला Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार छंद रथोद्धता - दोषशुद्धिरपचेतसा पुनः कल्मषेरिति कृता निधीयते । वालुकासु संवतोऽवटः पुनरहित ॥। ६०४ ॥ स्थूलं व्रतातिचारं यः सूक्ष्मं प्रच्छाद्य जल्पति । पुरतो गणनाथस्य सोऽहंद्वाच्य बहिर्भवः ||६०५|| न चेद्दोषं गुरोरने स्थूलं सूक्ष्मं च भाषते । विनयेन तदा दोषश्चतुर्थ: कथनाश्रयः ।।६०६॥ छंद शालिनी [ १८३ बाह्या प्राकारेणातिशुद्धोऽपि साधुनतः शुद्धि याति मायाविशल्यः । भूगारी वा कांसिकः शोध्यमानो बाह्य शुद्धि कश्मलांतः प्रयाति ।। ६०७ ।। मैं दोषकी शुद्धि करता हूं ऐसा सोचकर क्षपक आलोचना में उद्यत हुआ था किन्तु बिना देखे दोषको छिपाने को मायारूप कल्मष द्वारा उसी दोषको वह नष्टबुद्धि करता है । जैसे कोई बालमें खड्डा खोदता है तो वह खड्डा खोदते समय हो पुनः बालसे भर जाता है । अर्थात् बालुमें खड्डा खोदना जैसे व्यर्थ है वैसे दृष्ट दोष को छिपाकर शेष की आलोचना करना व्यर्थ हूँ || ६०४ || (४) बादर दोष -- जो क्षपक सूक्ष्म दोषको छिपाकर व्रतोंके स्थूल अतोचार को आचार्य के समक्ष कहता है वह क्षपक अर्हन्त देवकी वाणीसे वहिर्भूत है । उसको आलोचना सदोष है ।।६०५।। गुरुके आगे सूक्ष्म और बादर दोनों दोषोंको विनयपूर्वक नहीं कहता है तो वह उसकी आलोचनाका चौथा दोष है ||६०६ ॥ छलपूर्वक आलोचना करनेवाला क्षपक बाह्य आकारसे अति शुद्ध प्रतीत होता है, किन्तु भावादि शल्यवाला वह साधु अंतरंगको शुद्धिको प्राप्त नहीं होता । जैसे कांसेका कमंडलु या झारी साफ करते हुए भी बाहरसे साफ स्वच्छ होती है अंदर में मैली-हरी नोली रहती है ||६०७ ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] मरणकण्डिका प्रासने शयने स्थाने संस्तरे गमने तथा। आगाअपरामर्श गभिण्या बालवत्सया ॥६०८।। परिविष्टेऽभवद् दोषो यः सूक्ष्मः स निगधते । हर प्रच्छा या मिनतालाउ दुखः ॥६०६॥ स्थलं सूक्ष्मं च वेदोषं भाषते न गुरोःपुरः । मायावोडामदाविष्टः सदा दोषोऽस्ति पंचमः ॥६१०॥ छद उपजातिरसेन पोतं जतुना प्रपूर्ण फूटं विपाके कटकं गृहीतं । यथा तत्थं विहितं विधत्ते दिशोधनं तापमपारमुग्रम् ॥६११॥ (५) सूक्ष्म दोष जो क्षपक अपने सूक्ष्म दोषों को बताता है कि मैंने आसन पर बैठते समय शोधन नहीं किया, शयनमें, खड़े होने में पोछोसे मार्जन नहीं किया। गमन करते समय हिमाच्छादित भूमिपर गमन किया, वर्षा आदिके कारण अप्रासुक जलसे गीले हुए शरीर को सूखे बिना ही हाथोंसे पोंछ डाला । आहार करते समय जो स्त्री पांच माहसे अधिक गर्भभार को धारण कर रही है उससे आहार लिया । गोदीके बालकको स्तनपान कराके आयी हुई स्त्रोसे दिया हुआ आहार लिया है । इसप्रकारके सूक्ष्म-छोटे छोटे दोष बड़े दोषोंको छिपाकर जिसके द्वारा कहे जाते हैं वह क्षपक जिनवाक्यसे परांमुख है, सदोष है ॥६०८॥६०६।। सूक्ष्म और बादर दोषोंको यदि गुरुके आगे नहीं कहता है तो उस क्षपकके सदा माया लज्जा और गर्वसे भरा हुआ पंचम दोष है इस दोष को करने वाले क्षपकका यह अभिप्राय रहता है कि यदि मैं बड़े दोष कहूँगा तो आचार्य बड़ा प्रायश्चित्त देंगे या मुझे त्याग देंगे । अथवा इतने छोटे दोष हो बता रहा है तो बड़े क्यों नहीं कहेगा । ऐसा विश्वास आचार्यको दिलाने हेतु छोटें दोषका कथन करता है ।।६१०।। जिसप्रकार नकली कड़ा ( हाथका कंगन पाटला आदि ) बाहरसे सुवर्णसे मढा रहता है और अन्दर लाखसे पूरित होता है, उस कड़ेको खरीद लेवे तो आगे वह Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १८५ आये ते द्वितीये वा दोषः संपद्यते यदि । सूरे ! कस्यापि कम्यस्व विशुद्धचति तदा कथम् ॥६१२॥ इत्यन्यव्याजतश्छन्नं पृच्छयते देत्स्वशुद्धये । तवानी जायते दोषः षष्ठः संसारवर्द्ध कः ॥६१३॥ भोजने च कृतेऽन्येन तृप्तिरन्यस्य जायते । अपरस्य तदाशुद्धिविहिता परभर्मणा ॥६१४॥ आत्मशुद्धि विधत्ते यः प्रपृच्छय परभर्मणा । अपरेणौषधे पोते स्वस्यारोग्यं करोति सः ॥६१५।। - - - --- -- तापकारी होता है। उसप्रकार सूक्ष्मदोष को बताकर बड़े दोषको छिपाने वाली आलोचना करे तो दोष शुद्धि नहीं होती, बल्कि अपार और उग्र ऐसा संताप ही होता है ।।६१।। भावार्थ-~-बड़े बड़े दोष छिपाकर छोटे दोष गुरुको कहना उसतरह निःसार है जिसतरह अंदरसे लाख भरे कड़े के ऊपर सुवर्ण चढ़ाना है । ऐसा कड़ा कोई खरीदे तो उसे कुछ लाभ नहीं है क्योंकि आगे उसका कुछ भी मूल्य नहीं रहता । ऐसे ही बड़े दोष या पापको छिपाकर छोटे छोटे बताने से गुरु समझेगा कि पापसे अत्यंत डरनेसे यह छोटे भी दोष कह रहा है यह बहुत ही पापभीरु है इत्यादि । गुरुको ऐसी प्रतीति कराने हेतु क्षपक मायाचार करता है, ऐसा क्षपक सुवर्णका झोल चढ़े कड़ेके समान भीतर निःसार और बाहर चमकोला जैसा है । (६) छन्म दोष क्षपक छलसे आचार्यको पूछता है कि हे गुरुवर्य ! किसीको प्रथम अहिंसा महानतमें अथवा दूसरे सत्य महाव्रतमें दोष लगता है तो वह किसप्रकार शुद्ध होता है इस बातको मुझे समझाओ ।।६१२।। इसप्रकार अन्य मुनिके बहाने अपनी शुद्धि के लिये प्रच्छन्न रोत्या गुरुसे पूछा जाता है तब संसार बढ़ाने वाला छठा छन्न नामा दोष आता है ।।६१३।। यदि अन्यके भोजन करनेपर अन्यको तृप्ति होती हो तो अन्यके द्वारा आलोचना शुद्धि करनेपर किसी अन्यकी शुद्धि होना संभव है । अन्य मुनिके बहाने पूछकर जो Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] मरणकण्डिका संयमें चेत्कृतेऽन्येन विमुक्ति लभते परः । परव्याजकृता शुद्धिस्तदा शोधयते परम् ॥६१६॥ छंद-उपजातिगरोनिजं वोषमभाषमाणो दोषस्य यः कांक्षति शुद्धिमज्ञः। मन्ये स तोयं मृगतृष्णकातो जिघृक्षतेऽन्न शशिबिमतो वा ।। ६१७॥ शब्दाफुले चतुर्मासपक्षवर्षक्रियारिने । यथेच्छ पुरतः सूरेरालोचति योऽधमः ॥६१८॥ अव्यक्त यवतः स्वस्य दोषान्संक्लिष्ट चेतसः । पालोचनागतो दोषः सप्तमः कथितः जिनः ॥६१६।। क्षपक अपनी शृद्धि करना चाहता है वह किसी अन्य पुरुष द्वारा औषध पीनेपर अपना आरोग्य करना चाहता है ।।६१४।।६१५।। ।। परके छल से अपनी आलोचनाको शुद्धि तब संभव है जब अन्य मुनि द्वारा संयम पालन करनेपर किसी अन्य मुनिराजको मुक्तिका लाभ होता हो ॥६१६।। जो अज्ञ क्षपक अपने दोषको गुरुके समक्ष बिना कहे ही दोषको शद्धि करना चाहता है, वह मरीचिकासे जलको चाहता है अथवा चन्द्र बिबसे अन्न चाहता है ऐसा मैं मानता हूँ ।।६१७॥ (७) शब्दाकुलित दोष-- चातुर्मासिक, पाक्षिक, वार्षिक प्रतिक्रमण आदि क्रियाके दिन हैं उससे कोलाहल शब्द हो रहा है, उस वक्त जो अधमक्षपक अपनी इच्छानुसार आचार्य के आगे आलोचना करता है । अपने दोषोंको अव्यक्त रीत्या संक्लिष्ट मनसे कहनेवाले क्षपकके आलोचनामें होने वाला सातवां शब्दाकुलित दोष होता है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ।।६१८।। शद्धिको जाननेवाले महान् गणधरादि ऐसी शुद्धिको घटीयंत्रमें होने वाले घटके समान मानते हैं अथवा फूटे घड़े के समान या चुदरज्जु सदृश मानते हैं ।।६१९।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८७ सुस्थितादि अधिकार अरगर्तघटीयंत्रं समां भिन्नघटोपमा । चुबरज्जुनिभामेनां शुटि शुद्धिविदो विदुः ।।६२०॥ भूरिभक्तिभरानम्रः सूरिपादाम्बुजद्वयम् । प्रणम्य भाषते कश्चिद् दोषं सर्व विधानतः ॥६२१॥ तस्य सत्रार्थवक्षेण रस्नत्रितय शालिना । व्यवहारविदा दस प्रायश्चित्तं यथोचितम् ॥६२२।। यत्करूप व्यवहारांग पूर्वाविश्रतभाषितम् । तदालोच्य विधानेन दत्तं सूत्रपटोयसा ॥६२३।। विशेषार्थ-अरघट यंत्रमें सकोरे जैसे लगे रहते हैं और वे एक तरफसे भरकर आते हैं और एक तरफसे खाली होते जाते हैं । अथवा भग्न घट में पानी ऊपरसे तो डाला जाता है और नोचेसे निकल जाता है ! इसीप्रकार जब शब्दो कोलाहल हो रहा है उस वक्त गुरुजनके पास आलोचना करना शब्दाकुलित दोष है । फटे घटमें पानी नहीं टिकता वैसे शब्दाकुलित दोष आत्मशुद्धि को नहीं होने देता । चुदरज्जू काष्ठ में छेद करने वाले बर्माको घमाते समय उसमें बँधी रस्सो एक तरफसे खुलती है और एक तरफसे बँधती जाती है वैसेही शब्दाकूलित दोष युक्त आलोचना करनेवाले के मुखसे दोष कहा जा रहा है— अपराध खुल रहा है किन्तु आचार्य ठीकसे नहीं सुन पाये ऐसी माया मनमें होने से माया अपराधसे पुन: कर्म बंध कर रहा है । (८) बहुजन दोष कोई क्षपक अत्यंत भक्तिके भारसे नम्र हुआ आचार्यके चरणकमल युगलको प्रणाम करके सभी दोषोंको विधिपूर्वक कहता है ॥६२०।। और सूत्रार्थ में निपुण रत्नत्रयधारी व्यवहार के वेत्ता आचार्य द्वारा उस अपराधका यथोचित प्रायश्चित्त किया जाता है ।। ६२१।। जो कि प्रायश्चित्त ग्रंथ, अंग प्रविष्ट ग्रंथ और पूर्व ग्रंथोंमें कहा गया है उसको आलोचनाके अनुसार सूत्र में विशारद आचार्य द्वारा दिया गया है ।।६२२।। उस योग्य आचार्यके वचनपर श्रद्धा-विश्वास नहीं करके उक्त क्षपक पुनः दूसरे आचार्यको पूछता है सो वह आलोचना विषयक आठवां दोष कहा है 11६२३॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] मरणकण्डिका अश्रद्धाय बचस्तस्य स यथा पृच्छते परं । अष्टमः कथितो दोषस्तवालोचन गोचरः ।।६२४॥ छेद-उपासिदोषाबतीर्णोऽपि दवाति पीडां परप्रकारेण विशोध्यमानः। व्रणो हि शुष्कोऽपि करोति बाधा प्रचाल्यमानः किमुताविषह्यः॥६२५॥ प्रागमेन चरित्रेण बालो भवति यो यतिः। तस्यालोचयतो दोषं स्वं दोषो नवमो मतः ॥६२६।। निवेवितं मया सर्वं नासो जानाति दूषणम् । विश्राणयति मे शुद्धि प्रणिधायेति मानसे ॥२७॥ एक आचार्य द्वारा प्रायश्चित्त कार दोष दूर करने पर भी पुन: अन्य काचार्य अन्य प्रकारसे उस दोषका शोधन करते हैं इसतरह पुनः विशुद्धमान दोष क्षपकको पीड़ा उत्पन्न करता है, जैसे कि प्रण-घाव शुष्क हुआ है किन्तु उसको पुनः पुनः छेड़ोमसलदो तो वह असह्य बाधा को करता है ॥६२४।। (९) अव्यक्त दोष जो आचार्य आगमज्ञान तथा चारित्रसे बाल है अर्थात् आगमज्ञान और चारित्र विहीन है, ज्ञान चारित्र जिसका कमजोर है ऐसे आचार्य के निकट अपने दोषको आलोचना करन। उसका यह अव्यक्त नामका नौवां दोष है ।।६२५।। गुरुके निकट आलोचना करनेवाला क्षपक मन में यह सोचता है कि मैंने सर्व दोष मन बचन कायकी एकाग्रता करके शुद्धिपूर्वक कह दिये, ये मेरे लिये शुद्धि प्रदान करेंगे, किन्तु आगमज्ञान विहीन वह गुरु दोषको नहीं जानता है ।।६२६।। यह अव्यक्त दोष युक्तको गयो आलोचना बड़े भारी पश्चात्तापको देती है, जैसेकि दुष्टोंकी संगति या नकली सुवर्ण खरीदना पश्चात्तापको देता है ।।६२७।। दृष्टोंकी संगति समय समय पर पश्चात्ताप कराती है कि हाय ! मैंने ऐसे पुरुषको संगति क्यों को ? यह बहुत दुःख देता है इत्यादि 1 तथा अज्ञानतावश मकली सुवर्ण खरीदे तो जब उसके अलंकार आदि बनायेंगे तो वह नहीं बन पायेंगे तब Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८६ सुस्थिसादि अधिकार इदमालोचनं दत्ते पश्चात्तापं दुरुसरं । दुष्टानामिव सांगत्यं कूटं स्वर्णमिवाथवा ॥६२८।। पार्श्वस्थानां निजं दोषं पार्श्वस्थो भाषते कुधीः । निचितो निचितैर्दोषरेषोऽपि सदृशो मया ॥६२६।। जानीते मे यतः सर्वां सर्वदा सुखशीलताम् । प्रायश्चित्तं ततो नैष महद् दास्यति निश्चितम् ॥६३०॥ एतस्य कथने शुद्धिः सुखतो मे भविष्यति । अयमालोचनादोषो दशमो गदितो जिनः ॥६३१॥ जो दोषः सहोषार सदोषेण गश्यते । रक्तरक्तं कुतो वस्त्रं रक्तेनंब विशोध्यते ॥६३२।। पश्चात्ताप होता है कि हाय ! मैंने नकलो सुवर्ण कैसे खरीदा इत्यादि । ठीक इसी प्रकार अज्ञानी गुरुके निकट अल्पज्ञानो क्षपक मुनि आलोचना करे तो उसे आगे पश्चात्ताप होता है क्योंकि उस अज्ञानी गुरुके प्रायश्चित्त से उसके रत्नत्रयको शद्धि नहीं होती है ।।६२८॥ (१०) तत्सेवो दोण--- कोई दुर्बुद्धि पार्श्वस्थ क्षपक पार्श्वस्थ आचार्य के निकट दोष कहता है, वह सोचता है कि यह आचार्य दोषोंसे संयुक्त है और मैं भी दोण युक्त हूँ, यह मेरे समान है ॥६२६।। यह मेरे सर्व सुखिया स्वभावको जानता है, अतः निश्चित ही बड़ा प्रायश्चित्त मुझे नहीं देगा ।।६३०।। ऐसे आचार्यके निकट दोषको कहनेपर मेरो शुद्धि सुखपूर्वक होवेगी । इसतरह करनेवाले क्षपकके यह दशवां तत्सेवी नामका आलोचना दोष होता है ऐसा जिनेन्द्र द्वारा कहा गया है ।।६३१॥ सदोष आचार्य के निकट कहा गया सदोष क्षपकका दोष नष्ट नहीं हो सकता है, जैसे कि लाल रंगसे रंगा हुआ वस्त्र लाल रंग द्वारा शुद्ध-सफेद नहीं होता है ११६३२।। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०१ मरणकण्डिका छंद उपेन्द्रवज्राजिनेशवाक्यप्रतिकूलचित्ता यया विमुक्ति दवर्यात पूताम् । तथा विशुद्धि कुधियो वदन्तो वोषाकुलानां निजदूषणानि ॥६३३॥ हित्वा दोषान्दशापीति त्यक्तमायामदाविकः । स विनीतमनाः सूरेरालोचयति यत्नतः ॥६३४॥ गृहस्थवचनं मुक्त्वा मौनं च करनर्तनम् । सम्यक् सुस्पष्टया वाचा यक्ति दोषान्गुरोः पुरः ।।६३५।। उक्त चमक संज्ञांग बलने भ्र क्षेपं हस्त नर्तनं । गृहिणां वचनं चैव तथा शम्दं च घर्घरं ॥१॥ विमुञ्चाभिमुखं स्थित्वा गुरूणां गुणधारिणां । स्वापराचं समाचष्टे विनयेन समन्वितः ॥२॥ जिसप्तकार जिनेन्द्र देवको वाणीसे प्रतिकूल चित्त बाले जीव अर्थात् मिथ्याष्टि जीव पवित्र मुक्तिको अपनेसे दूर करते हैं, उसप्रकार दुर्बुद्धि क्षपक दोषोंसे युक्त आचार्य को निज दोषोंको कहता हुआ शुद्धिको अपनेसे दूर करता है ।।६३३।। भावार्थ-जसे मिध्यादृष्टि जीव जिनेन्द्र वचनमें श्रद्धा नहीं करता अतः उसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती । अश्रद्धाके कारण उलटे मुक्ति दूर होती है अर्थात् संसार भ्रमण बढ़ता ही जाता है । वैसे दोष युक्त आचार्यके निकट पालोचना करना शद्धिको प्रदान न करके उलटे शुद्धिसे दूर करता है। इसप्रकार आलोचनाके दस दोषोंका वर्णन पूर्ण हुआ । पूर्वोक्त दस दोषोंको छोड़कर मायामद आदिका त्यागी विनीत भाववाला क्षपक मुनि प्राचार्य के निकट प्रयत्नसे आलोचना करता है ।।६३४।। गृहस्थके बचन मौन और हाथोंका मटकाना आदिको छोड़कर भलोप्रकार स्पष्ट वाणीसे गुरुके आगे दोषोंको कहता है ।।६३५।। इस विषयमें अन्य ग्रन्थमें भी कहा है कि मकत्व, संज्ञा, अंगोंको मोड़ना, कटाक्ष छोड़ना, हाथका मचाना, गृहस्थ वचन, घर्घर शब्द इन सब विकारोंका त्यागकर, गुणवान् गुरुके सन्मुख बैठकर, विनयपूर्वक अपने अपराधको क्षपक कहता है ।।१।१२।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अघिजार [ १९१ एक वि त्रि चतुः पंचहषीकांगि विराधने । असूनृतवचस्तेय मैथुन ग्रन्थसेवने ॥६३६॥ दर्शनज्ञानचारित्र तपसां प्रतिकूलने । उदगमोत्पादनाहार दुषणानां निषेवणे ॥६३७।। भिक्षे मरके मार्गे वैरिचौरादिरोधने । योऽपराधो भवेकश्चिन् मनोवाक्कायकर्मभिः ॥६३८।। सर्वदोषक्षयाकांक्षी संसारश्रमभोलुकः । पालोचयति तं सर्व क्रमतः पुरतो गुरोः ॥६३६।। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंको विराधना मैंने को है । असत्य वचन, चोरी, मैथुन, परिग्रह इन पापोंमें प्रवृत्ति हुई है ।।६३६।। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपको नष्ट करनेवाला प्रतिकूल आचरण किया हो, उद्गम, उत्पादना और एषणा संबंधी छियालीस दोषोंका सेवन किया गया हो ।।६३७।। दुभिक्षके समय, रोग आनेपर, मार्गमें चोर वैरी आदिके द्वारा निरोध-रुकावट हो जानेपर मनवचन काय द्वारा जो कोई अपराध हुआ है। उन सभी अपराधोंको क्रमश: गरुके आगे क्षपक आलोचना करता है, कैसा है क्षपक ? जो समस्त दोषोंका नाश करना चाहता है तया संसारके कष्टोंसे भयभीत है ।।६३८।।६३६।। विशेषार्थ-अहिंसा महाव्रत आदिमें अतिचार लगना जैसे पृथिवोकायिक जीवको विराधना जमीन को कूटने आदिसे होती है, वस्त्रादिसे हवा करनेपर वायुकायिक को, ओस बर्फ वर्षाके पानी आदिमें गमन करनेसं जलकायिक को, अग्निसे सेक करना आदिसे अग्निकायिककी, तृण आदि पर गमन करनेसे वनस्पति कायिक को विराधना साधु द्वारा संभव है । ऐसे हो द्वीन्द्रिय आदिको विराधनाके विषयमें लगाना । सत्यमहावतके अतिचार जैसे कठोर वचन, असभ्य वचन आदि बोलना । प्रचौर्य महाव्रतके अतिचार जैसे---किसीको गिरी हुई-पड़ी हुई वस्तु उठानेको अन्य जनसे कहना आदि। ब्रह्मचर्य महाव्रतके अतिचार जैसे-सुदर स्त्रीका अवलोकन, उसके साथ रागभावसे संभाषण आदि । परिग्रहत्याग महाव्रतके अतिचार जैसे-गृहस्थोचित वस्तुका ग्रहण, उसका शोधन आदि करना । सम्यक्त्वके अतिचार शंका कांक्षा आदि हैं 1 ज्ञानके अतिचार अकाल Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] मरण कण्डिका स सामान्यविशेषाभ्यामभिधाय स्थदूषणम् । विधत्ते गुरुणा दत्तां विद्धि शुद्धमानसः ॥६४०॥ मनुष्यः कृतपापोऽपि कृतालोचननिदनः । संपद्यते लघुः सद्यो विमारोभारवानिव ॥६४१॥ भावशुद्धि न कुर्वन्ति भवन्तोऽपिबहुश्रुताः । चतुरंगे विमूढा ये दुःखपीड्या भवन्ति ते ॥६४२।। अध्ययनादि हैं । चारित्रके अतिचार-समिति आदिके पालनमें शिथिलता, चारित्रका कुछ फल नहीं है ऐसे भाव होना आदि । तपके अतिचार-- उपवास आदि तप करते समय असंयम रूप प्रवृत्ति करना आदि | मुनिके आहार देनेमें गृहस्थ द्वारा जो दोष होते हैं वे उद्गम दोष हैं । मुनिके द्वारा जो उत्पन्न कराये जाते हैं वे उत्पादन दोष हैं । आहार ग्रहण करते समय दाता द्वारा जो दोण प्रवृत्त होते हैं ये एषणा दोष हैं । ये कुल छियालीस हैं । देशमें दुभिक्ष होनेपर अयोग्य आहार करना, रोग होनेपर औषधि को याचना करना, विहार करते समय चोरादिके द्वारा बाधित होनेपर छिपना भागना आदि से मुनियोंको दोण लगते हैं । इन सब ही दोनों का गुरुके समक्ष विनयभावसे निवेदन करना आलोचना कहलाती है। अहिंसा आदि व्रत, समिति, तप आदिमें बहुत प्रकारके अतिचार लगते हैं इस विषयका सुविस्तृत विवेचन मूलाराधना ग्रंथमें बहुत ही सुदर रीतिसे किया है। वह शुद्ध मनवाला क्षपक सामान्य आलोचना और विशेष आलोचना द्वारा अपने दोषोंको गुरुके समक्ष कहकर गुरु द्वारा दी गयी विशुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्तको ग्रहण करता है ।। ६४०।। भावार्थ-गृरुने जो भी प्रायश्चित्त दिया हो उसमें फिर राग द्वेष नहीं करता कि अधिक प्रायश्चित्त दिया है, कैसे इतने उपवास आदि करू ? ऐसा वह शिष्य नहीं सोचता है, प्रायश्चित्त का पूरा पालन करता है । पापी मनुष्य भो यदि निन्दा गर्दा आलोचना करता है तो वह शोत्र ही पाप भारसे हल्का हो जाता है, जैसे बहुतसा भार-बोझा ढ़ोनेवाला पुरुष भारको उतारकर हल्का हो जाता है ॥६४१।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १९३ त्रि:कृत्वालोचनां शुद्धां भिक्षोविज्ञाय तत्त्वतः । स मध्यस्थो रहस्यज्ञो दत्ते शुद्धि यथोचितां ॥६४३।। राजकार्यातुरा सत्य सशल्यानामिध त्रिधा । बोषाणां पृच्छना कार्या सूरिणागमयेविना ॥६४४॥ दोषान्न प्रांजलीभूय भाषसे यद्यशेषतः । न कुर्वन्ति तदा शुद्धि प्रायश्चित्त विचक्षणाः ।।६४५।। जो मुनि महाज्ञानी होकर भी चारित्र आदिमें भावोंकी शुद्धिको नहीं करते हैं, ये चार आराधनाओंमें विमूढ हुए दुःखोंसे पीड़ित होते हैं अर्थात् सम्यक्त्व आदिके दोषों की सरल मनसे आलोचना द्वारा शुद्धि नहीं करते हैं वे आराधना को प्राप्त नहीं करते, और इससे चतुर्गतिके दुःखोंको भोगते हैं ।।६४२।। क्षपक साधुकी तोन बार की गयी शुद्धि-आलोचना को भलीप्रकार जानकर प्रायश्चित्त ग्रंथके ज्ञाता मध्यस्थ ( रागद्वेषके उद्रेकसे रहित ) आचार्य दोषानुसार उचित शुद्धिको-प्रायश्चित्तको देते हैं ॥६४३।।। जिसप्रकार राजकार्य, रोगी, असत्य और शल्यके विषय में तोन बार पूछा जाता है उसीप्रकार आगमके ज्ञाता आचार्यको क्षपकसे दोषोंके विषयमें तीन बार पूछना चाहिये ॥६४४।। भावार्थ-राजाके द्वारा कहे हुए कार्यको राजासे तीन बार यथावसर पूछा जाता है कि क्या यह कार्य इसप्रकार करू ? रोगीको तीन बार वैद्य पूछता है कि तुमने क्या खाया था इत्यादि ? असत्यभाषीसे तीन बार पूछ कर वास्तविक बात जानो जाती है । शल्य-काटा या घाव होनेपर तीन बार देखा पूछा जाता है। इसी तरह क्षपक्रको उसके अपराधों को तीन बार पूछा जाता है-तोन बार उससे आलोचना करते हैं। इस तरह करनेसे पता चलता है कि यह वास्तविक रूपसे दोष को कह रहा है या नहीं ? यदि तीनों बार एक तरहसे हो दोषोंका निवेदन करता है तो समझना चाहिये कि यह सरल भावसे आलोचना कर रहा है। और यदि तीनों बार पृथक् पृथक् रूपसे दोष कथन करता है तो आचार्यको समझना चाहिये कि यह क्षपक कुटिल भावसे आलोचना कर रहा है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका निःशेषं भाषते दोषं यदि प्रांजलमानसः । तदानी कुसे शुद्धि व्यवहारविशारदाः ॥६४६।। सम्यगालोचते सेन सूत्रं मीमांसते गणी । प्रनालोचे न कुर्वति महान्तः कांचन क्रिया ॥६४७।। जास्वा बक्रामवक्रां वा सूरिरालोचनां यतेः । विदधाति प्रतीकारं शुद्धिरस्ति कुतोऽन्यया ॥६४८॥ आतस्य प्रतिसेवातो हानि विश्च देहिनाम् । पापस्य परिणामेन तीव्रामंदा च जायते ॥६४६॥ -- --- ------....- - - यदि क्षपक मुनि सरल भावसे संपूर्ण दोषोंको नहीं कहता है तो प्रायश्चित्त में कुशल आचार्य उसको शुद्धि नहीं करते हैं अर्थात् उसको प्रायश्चित्त नहीं देते हैं ॥६४५।। यदि क्षपक सरल मनवाला होकर समस्त दोष कहता है तो व्यवहार शास्त्र-प्रायश्चित्त शास्त्र में विशारद आचार्य उसकी शुद्धि करते हैं, उसे प्रायश्चित्त देते हैं ।।६४६।। क्षपक द्वारा सम्यक आलोचना करनेपर आचार्य प्रायश्चित्त ग्रंथका अवलोकन करते हैं अर्थात् अमूक अपराध इससे हुआ है इसके लिये कौनसा प्रायश्चित्त उचित है इत्यादि रूपसे ग्रंथावलोकन द्वारा विचार करते हैं क्योंकि महापुरुष बिना विचार किये किसी भी कार्यको नहीं करते हैं ।।६४७।। आचार्य क्षपक यतिको सरल या कुटिल आलोचना अच्छी तरह जान करके उसका प्रतीकार करते हैं--प्रायश्चित्त द्वारा दोषोंकी शुद्धि करते हैं। अन्यथा अर्थात आलोचनाके बिना जाने शुद्धि किसतरह संभव है ।।६४८।। जीबोंके जो अपराध या दोष हुए हैं उनमें हानि और वृद्धि हो जाया करती है। पापके परिणामसे तीव्रता और मंदता होती है आशय यह है कि जिससमय अपराध किया उससमय तीव्र अशुभ परिणाम था तो तो पापबंध हुआ तदनंतर शुभ परिणाम हुआ तो उस पापबंध में हानि हो जाती है यदि पीछे भी तीव्र अशुभ परिणाम हुए तो उक्त पापबंध में और अधिक वृद्धि होती है यह एक बात है । तथा जब उस अपराधकी आलोचना गुरु समक्ष करते हैं उसमें भी अनेक तरहके परिणाम होते हैं यदि आलोचना के समय परिणाम अति निर्मल है तो पापबंधमें बहुत हानि या पापकर्मका संक्रमण द्वारा Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९५ सुस्थितादि अधिकार स्थिरत्वं नयते पूर्व संसारासुखकारणं । एतेषां चिनुते पापं संक्लिष्टः क्षिपते गुणम् ॥६५०।। कृस्थापि कल्मषं कश्चित् पश्चात्ताप कृशानुना । दह्यमानमना देशं सर्व वा हंति निश्चितम् ॥६५१।। नालिकाधमज्जावा प्रमाणं कुरते सुधीः । ततः शुध्यति यावत्या वायतों स परिनियां ॥६५२।। उल्लाघीकुरुते वैद्यो वैद्यशास्त्रविशारदः । यथातुरं कृताभ्यासो रोगातका दिपीडितम् ॥६५३॥ - ---- नाश हो जाता है । यदि आलोचनाके समय परिणाम में अल्प निर्मलता है तो बँधे पाप फी कम हानि होगी ।।६४६।। संक्लेश परिणाम संसार दुःखके कारण रूप ऐसे पहलेके बँधे हुए पापकर्मको दृढ़-अधिक तीव्र शक्तिवाला कर देता है तथा नया कर्म संचय भी कर देता है और सम्यक्त्वादि गुणका नाश करता है ।। ६५०।। कोई मनि पापको करके भी पीछे-पश्चात्ताप रूपी अग्निके द्वारा जिसका मन जल रहा है ऐसा हुआ उस पापको एक देशरूप या पूर्णतया नियमसे नष्ट कर डालता है अर्थात् अपराध द्वारा पापका बंध पहले हुआ किन्तु पीछे पश्चात्ताप हआ कि हाय ! हाय ! मैंने बहुत गलत कार्य किया है इस कार्यसे संसार भ्रमण होता है अब ऐसा कभी नहीं करूगा । ऐसे पश्चातापसे बँधा हुआ कर्म आंशिक या पूर्ण रूपसे नष्ट होता है । जितनी परिणाम में निर्मलता होगी उतना कर्मनाश होगा ।।६५१|| बुद्धिमान, प्रायश्चित्त ग्रंथके ज्ञाता आचार्य सुनार के समान क्षपकके परिणाम जानकर जितने प्रायश्चित्तसे क्षपक शुद्ध होगा उतना प्रायश्चित्त उसे देते हैं अर्थात सूनार जसे जितने तापसे यह सुवर्ण शुद्ध होगा ऐसा जानकर उतना ताव देकर सुवर्णको शुद्ध करता है । वैसे ही आचार्य क्षपक जितने प्रायश्चित्तसे शुद्ध होगा उतना प्रायश्चित्त देते हैं ।।६५२॥ जैसे वैद्यक ग्रंथमें विशारद तथा जिसने बहुतबार रोगीकी चिकित्सा करके अभ्यास किया है ऐसा वंद्य रोग आतंक अदिसे पीड़ित रोगी को रोग रहित करता है Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकगिद्धका गणाधिपः कृताभ्यासो व्यवहारविचक्षणः । जग माहीत लिहलो कुरुते तथा ॥६५४॥ गणस्थिते सतीदृशे स्थविरेऽध्यापके तथा । अस्ति प्रवर्तको वृद्धो बालाचार्योऽथ यत्नतः ।।६५५।। स चारित्रगुणाकांक्षी कृत्वा शुद्धि विधानतः । गुरोरते समाचारी विशुद्ध चेष्टते तराम् ॥६५६।। प्रसन्न सुखी करता है । वैसेही प्रायश्चित्त ग्रंथ में विशारद तथा जिसने बहुतबार प्रायश्चित्त । देकर मूनिको शुद्ध करनेका अभ्यास किया है अर्थात् जिसने बहुत बार शिष्योंको प्रायश्चित्त दिया है ऐसा आचार्य दोषोंसे मलिन हुए क्षपकको प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धनिर्मल करता है ।।६५३।।६५४।। आचारी आधारी आदि गुणोंसे समन्वित आचार्य संघमें कदाचित नहीं हैं स्थविर और उपाध्याय भी नहीं हैं तो ऐसे अवसर पर वृद्ध प्रवर्तक मुनि अथवा जो अभी नया आचार्य बना ऐसे बालाचार्यको प्रयत्न पूर्वक निर्यापक गुरु बनाया जाता है अर्थात मुनिको सल्लेखना करनी है और संघमें आचार्य विद्यमान नहीं हैं तो जो वृद्ध प्रवर्तक आदि श्रेष्ठ मुनि हैं उनको निर्यापक गुरु मानकर उनसे सल्लेखना संपन्न करायो जाती है ।।६५५॥ विशेषार्थ-संघमें किसीकी समाधिका अवसर प्राप्त है और आचारवान पादि गुणोंके धारक आचार्य नहीं हैं तो उन जैसे स्थधिर मुनि निर्यापक बनाये जाते हैं, जो रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के ज्ञाता हैं एवं चिरकालसे दीक्षित हैं उसे स्थविर मुनि कहते हैं । स्थविर मुनिका अभाव हो तो आचार्य सदृश गुणोंके धारक उपाध्याय को निर्यापकका कार्य सौंपा जाता है, उसका भी अभाव हो तो वृद्ध प्रवर्तक मुनि इस कार्य को करते हैं–निर्यापक बनाये जाते हैं। अल्पश्रुतज्ञानी होकर भी जो सर्व संघकी मर्यादा एवं चारित्रका जानकार हो उसे प्रवर्तक मुनि कहते हैं । चारित्र गणों का जो प्राकांक्षी है ऐसा क्षपक विधि विधान से गुरुके समीप आलोचना शुद्धिको करके समाचारी अर्थात् अपने योग्य आचरण को जिसने कर लिया है ऐसा होकर अतिशय आत्म विशुद्धि के लिये सदा प्रयत्नशील रहता है ।।६५६।। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार [ १६७ वर्षासु विविधं स्पृष्ट्वा तपःकर्म विधानतः । सुखवृत्तौ स हेमन्ते संस्तरं प्रतिपद्यते ॥६५७।। छंद उपजातिनिस्पर्शवग्निश्चतुरंग दोषं गुरुपदेशेन विशुद्धचेताः । प्रवर्तते शुद्धगुणाधिरूढः संसार कान्तार विलंघनाय ।। ६५८।। । इति गुणदोषौ। छंद स्रग्विणीगाथका वादका नर्तकाश्चाधिका: शालिका मालिका: कोलिका वांशिकाः । काष्ठिका लोहिका मात्सिकाः पात्रिकाः कांडिका दांडिकाश्चामिकाश्छिम्पकाः॥६५६ ।। --. .- ... ........ .-- -. भावार्थ-निर्मल परिणाम, निर्मल चारित्र प्राप्तिको जो तोव इच्छा रखता है अर्थात मेरा चारित्र उज्ज्वल हो मैं सदा मोक्षपुरुषार्थ में उद्यत होऊ । ऐसी जिसकी श्रेष्ठ भावना है वह क्षपक निर्दोष आलोचना को गुरुके समीप करता है । प्रायश्चित्तको ग्रहण कर पालनकर रत्नत्रयमें प्रवृत्ति करता है तथा समाधिके लिये गुरुके निर्देशानुसार सदा जाग्रत रहता है। वह क्षपक वर्षाकाल में अनेक प्रकारके तपश्चरणको विधिपूर्वक करता है, पुनः सुखपूर्वक उपवास आदि जिसमें संपन्न होते हैं ऐसे हेमन्त ऋतुमें संस्तर ग्रहण करता है ।।६५७। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं के दोषोंको दूरकर गरुके उपदेशसे विशुद्ध चित्तवाला क्षपक शुद्ध गुणों में आरूढ़ हुआ संसार रूप वनका उल्लंघन करने के लिये प्रयत्न करता है । अर्थात् गुण और दोषोंको जानकर गणोंमें प्रवृत्ति और दोषोंसे निवृत्ति करता है ॥६५८।। इसप्रकार गुणदोषनामा चौबीसा अधिकार पूर्ण हुआ। (२५) शय्या अधिकार क्षपकके लिये सन्यास में कौनसी वसतिका अयोग्य है इस बातको बतलाते हैं गायक, वादक, नर्तक, चाक्रिक, शालिक ( हाथी घोड़े आदिको झालामें नियुक्त पुरुष ) मालाकार, कोलिक (कोलो) वांशिक (बाँसुरी बजाने वाले या बांस Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] मरणकण्डिका छंद त्रग्विणीचारणा वारणा वाजिनो मेषका मद्यपाः पंडकाः साथिका सेवकाः । ग्राविकाः कोट्टपालाः कुलाला भटाः पण्यनारीजनायूतकारा विटाः ॥६६॥ सहिगी.... संति यस्याः समीपे निकृष्टक्रिया सा न शय्या निषेव्या कदाचिद् बुधैः । पालयद्धिः समाधानरलं सवारूढसंसारकान्तारबिच्छेदकम् ॥६६१।। पञ्चाक्षप्रसरो यस्यां विधते न कदाचन । त्रिगुप्तो वसतो तस्यां शुभध्यानोऽवतिष्ठते ॥६६२॥ उदगमाविमलापोदा सप्रकाशागतक्रिया । संस्कारकरणायोग्या सम्मूच्र्छन विजिता ॥६६३॥ - - -. - - - - - - ५९ पढ़कर लेस पिलाने वाले) काठिक-बदर्द, लोहिक, लुहार, मात्सिक-मछलीमार, पात्रिक (बर्तन बेचनेवाले) कांडिक दौडिक (दंडा खेलनेवाले या बेचनेवाले) चामिकचमार, छिपका-रंगरेज ||६५९।। चारण-भाट, बारण, धुड़सवार, मेंढेको पालन करनेवाले, मद्यपायी, पंडे, साथिक, सेवक, ग्राविक----पत्थरका काम करनेवाले, कोटपाल, कुम्हार, सुभट, वेश्या, जुआरी, बदमाश ॥६६०॥ ऐसे ऐसे निकृष्ट कार्य करनेवाले लोग जिस वसतिकाके समीप रहते हैं वह वसतिका उत्पन्न हुए संसाररूपी वनका नाश करने वाले समाधान रत्नका जो पालन कर रहे हैं ऐसे बुद्धिमान मुनिजनों द्वारा कभी भी सेव्य-रहने योग्य नहीं होती है ।।६६१।। जिस वसतिमें पांचों इन्द्रियोंका प्रसर कभी नहीं होता अर्थात् स्पर्शन आदि इन्द्रियां अपने स्पर्शादि विषयोंके तरफ नहीं दौड़ती हैं-जहां इन विषयोंका अभाव है। जो मन बचन कायका रक्षक है ऐसा वसतिमें शुभ ब्यान करता हुआ अपक निवास करता है ॥६६॥ वसति उद्गम आदि दोषोंसे रहित, प्रकाश युक्त, लेपन मार्जन आदि क्रियासे रहित अथवा अपने लिये नहीं बनायो हो, संस्कार रहित और संमूच्छंन जीवोंसे रहित होना चाहिये ।।६६३।। वसति मिथ्यादृष्टि के लिये अगम्य हो अर्थात् अजैन जिसमें प्रवेश Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार मिथ्याष्टिजनागम्या गहिणाय्याविजिताः । द्वित्रा वसतयो ग्राह्याः सेव्या विध्यस्ततामसाः ॥६६४॥ निबिडाः संवतद्वाराः सुप्रवेशविनिष्क्रमाः । सकवाटा लसत्कुछया बालमनोविता: ।६।। उद्यानमंदिरे हृद्ये गुहायां शून्यवेश्मनि । प्रागंतुक निवासे वा स्थितिः कृत्या समाधये ।।६६६॥ क्षपकाध्यषिते धिष्ण्ये धर्मश्रवणमंडपः । जनानंदकरः श्रेयः कर्तव्य: कटकादिभिः ॥६६७॥ इति शय्या नहीं करते ऐसी हो । गृहस्थोंको वसतिसे दूर हो या जिसमें गृहस्थ नहीं रहते हों, अंधकार रहित हो ऐसो दो तीन वसतिकायें ग्रहण करनी चाहिये, यही वसति सेवनीय है ।।६६४॥ वसति मजबूत होना चाहिये, द्वारोंसे ढकी हुई, जिसमें जाना आना सरल रोतिसे हो सके ऐसी हो, कबाटयुक्त दृढ़ दिवालवाली, बाल वृद्ध लोगोंको योग्य होना चाहिये ।।६६५॥ वसति के लिये सुदर उद्यान का मंदिर योग्य है अथवा गुफा, शन्य घर, धर्मशाला इत्यादिमें समाधि के लिये निवास करना चाहिये ।।६६६।। क्षपकके द्वारा जहां निवास किया गया है उस श्रेष्ठ स्थान पर धर्म श्रवणके लिये मंडप चटाई आदि द्वारा बनाना चाहिये जो लोगोंको आनंददायक और श्रेयस्कर हो ॥६६७।। भावार्थ----गायक आदि निकृष्ट लोगोंके गहोंसे जित सुदृढ योग्य वसति में क्षपकको आचार्य निवास कराते हैं । वह स्थान अपने उद्देश्य से बना हुआ नहीं हो यदि ऐसी वसति न हो तो चटाई बांस आदिसे वसति करानी चाहिये । क्षपककी सल्लेखना देखने के लिये भव्य जोष आते हैं उनको धर्म श्रवण अन्य मुनिजन कराते हैं एतदर्थ धर्म श्रवण मंडप भी बसतिके पास होना चाहिये । इसप्रकार वाय्या अथवा वसति नामा पच्चीसवां अधिकार पूर्ण हुआ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्नुिका उत्तराशाशिराः क्षोणीशिलाकाष्ठतृणास्मकः । संस्तरो विधिना कार्यः पूर्वाशामस्तकोऽथवा ॥६६॥ नि:स्निग्धत्व सुखस्पर्शः प्रासुको निबिलोधनः । संस्तरः क्रियते क्षोणीप्रमाणरचितः समः ॥६६६॥ विध्वस्तोऽस्फुटितोऽकम्पः समपृष्ठो विजंतुकः । उद्योते मसणः कार्यः संस्तरोऽस्ति शिलामयः ।।६७०॥ लघभूमिसमो रुन्द्रो निःशब्दः स्वप्रमाणकः । एकांगः संस्मशेऽछिद्रः प्रतक्ष्णः काष्ठमयो मतः ।।६७१॥ (२६) संस्तर अधिकार पूर्वोक्त गुणवाली वसतिमें पृथ्वीरूप, शिलारूप, काष्ठरूप या तृणरूप संस्तर विधिपर्थक करना चाहिये जिसमें क्षपकका मस्तक उत्तर दिशामें होवे या पूर्व दिशामें होवे ऐसी संस्तरको रचना होनी चाहिये ।।६६८।। भावार्थ-क्षपकको जिसपर शयन करना है बह जमीन भूमिरूप होता है, अथवा पत्थर-शिलारूप होता है, या घासका होता है अथवा लकड़ीका होता है उसमें उत्तर दिशामें मस्तक करके या पूर्व दिशामें मस्तक करके क्षपक शयन करे क्योंकि विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थकर उत्तर दिशामें हैं और पूर्व दिशा प्रकाशमान सूर्य के उदयका कारण है अत: ये दिशाएं प्रशस्त मानी हैं। भूमि संस्तर कैसा हो सो बताते हैं ___ आर्द्रता-गोलेपनेसे रहित, सुखस्पर्श वाली, निर्जन्तुक बिल रहित, ठोस, क्षपके शरीर प्रमाण रचित ऐसी समभूमिरूप संस्तर किया जाता है ।।६६९।। शिलामय संस्तर दाह घर्षण आदिसे विश्वस्त हुआ, टूटा हुआ नहीं हो, स्थिर, समतल, जन्तु-रहित, चिकना, ऐसा शिलामय संस्तर प्रकाशयुक्त स्थानमें करना चाहिये।।६७०।। काष्ठमय संस्तर ___ काष्ठ-लकड़ीका बनाया हुआ संस्तर हल्का हो, भूमि बराबर हो अर्थात् फड जैसी होतो है वैसा हो अथवा चार पांच अंगुल भूमिसे ऊँचा हो, इससे अधिक ऊँचा होनेसे क्षपकको गिरने आदिसे अपाय होने की संभावना रहती है । विस्तीर्ण खटखट शब्द Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुस्थितादि अधिकार कृत्यस्तृणमयोऽसंधिः संस्तरो निरुपद्रवः । मृदुः सुप्रतिलेखनः ॥६७२॥ निःसम्मूर्च्छरपच्छिद्रो प्रमाणरचितो योग्यः कालद्वितय शोधनः | आरोढव्यस्त्रिगुप्तेन संस्तरोऽयं समाधये ॥ ६७३ || निर्याण के समयं स्वं समस्तगुणशालिनि । प्रवर्तते विधानेन क्षपकः सस्तरे स्थितः ॥६७४॥ छंद भुजंगप्रयात [ २०१ तृणक्षोणिपाषाणकाष्ठप्रशस्ते स्थितः संस्तरेधर्ममार्गप्रवीणः । धुनीते समस्तानि कर्माणियोगी रणेयोधवर्गीबलानीव धीरः ।। ६७५ ।। ॥ इति संस्तरः || नहीं करता हो, क्षपकके शरीर प्रमाण हो, एक लकड़ीसे रचित हो, छिद्ररहित, चिकना ऐसा काष्ठमय संस्तर होता है ।।६७१|| तृणमय संस्तर--- संधिरहित, निरुपद्रव अर्थात् गांठ रहित, संमूर्च्छन जीवोंसे रहित, छेद रहित, कोमल, जिसका शोधन भली प्रकार से हो सके ऐसा तृणमय घासका संस्तर करना चाहिये ||६७२ || अपने शरीर प्रमाण रचा गया, योग्य, दोनों संध्याओं में जिसका शोधन किया जाता है ऐसा यह संस्तर होता है उस संस्तरमें समाधिके लिये अपकको अशुभ मन वचन काया गोपन करके आरोहन करना चाहिये ॥१६७३ || संस्तर पर आरूढ़ हुआ क्षपक समस्त गुणोंसे युक्त निर्यापकमें अपनेको समर्पित करके विधिपूर्वक प्रवृत्ति करता है । अर्थात् निर्वापकको शरण मानकर तदनुसार आचरण करता है ॥१६७४॥ तृण, काष्ठ, पृथ्वी और शिलामय प्रशस्त संस्तर में आरूढ रत्नत्रयरूप धर्मं मार्ग में प्रवीण होता हुआ वह क्षपक योगी समस्त कर्मोंका नाश करता है । जैसे कि धीर योद्धा वर्ग रणांगण में पर सेनाको नष्ट कर डालता है ।।६७५ ।। ॥ इति संस्तर | Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि अधिकार स्थेयांसः प्रियधर्माणः संविग्नाः पापभोरवः । ख्याताश्छंबानुगमनाः कल्पाकल्प विचक्षणाः ॥६७६॥ प्रत्याख्यानविवो धीराः समाधानक्रियोद्यताः । षट्तारिताष्ट संख्याना ग्राह्या निर्यापकाः पराः ।।६७७॥ प्रामर्शनपरामर्श गमस्थानशयादिषु । • उद्वर्तनपरावर्त प्रसाराकुचनादिष ॥६७८।। (२७) निर्यापक अधिकार आलोचना आदि परिकर को जिसने कर लिया है उक्त लक्षणवालो वसति में विधिपूर्वक किये गये संस्तर पर जो आरूढ़ है ऐसे उस क्षपक मुनिके समाधिमें सहायक अड़तालोस मुनि होते हैं वे मुनि कैसे हों यह बताते हैं जो मुनि चारित्रमें स्थिर हैं, रत्नत्रयधर्म जिन्हें प्रिय है संसारसे उदासीन हैं, पापभीरु हैं, प्रसिद्ध हैं, क्षपकके इशारेको, अभिप्रायको बिना कहे जानते हैं, योग्य अयोग्यको जानने में कुशल हैं । त्यागकी विधिमें निपुण, परीषह सहन में धोर, क्षपकको समाधान कराने वाले, ऐसे गुणवाले अड़तालीस निर्यापक-परिचारक मुनि समाधिमें ग्रहण करने चाहिये ।।६७६।१६७७।।। उक्त अड़तालीस मुनियों में चार परिचारक मुनि क्षपकके शरीरके एकदेश में द्वाथ फेरना, सर्वांगमें हाथ फेरना, गमन कराना, क्षपकको खड़ा करना, सुला देना, करवट दिलाना, उलटा सुलाना, हाथ पैर को फैलाना और सिकोड़ना इत्यादि शरीरका Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि अधिकार बेहकर्मसु वेष्टन्ते क्षपकस्य समाधिदा: 1 चत्वारो यतयो भवत्या परिचर्या परायणाः ।। ६७६ ॥ ब्रध्यदेशादिगोचराः । स्त्रीराजमन्मथाहार विमुच्य विकथाः सर्वाः समाधाननिषुवनीः ||६६० || श्रनाकुलमनुद्विग्नमन्पाक्षेपमनुद्धतं J अनर्थहीन मश्लिष्टमविचलित मद्भुतम् ।।६८१।। ।।६६२ ।। नर्क द थु हृदयंगमं । धर्मं वदन्ति चत्वारो हृधचित्रकथोद्यता: क्षपकस्य कथाकच्या सायां श्रुत्वा विमुञ्चते सर्वथा दिपरीणामं याति संवेग निर्विव भवत्याक्षेप निर्वग निर्वेबजनिका : कथा: L क्षपकस्योचितास्तिस्रो विक्षेपजनिका तु नो ॥। ६८४|| ।।६८३।। | २०३ कार्य करनेमें प्रयत्नशील रहते हैं । कैसे हैं वे मुनि ? क्षपकको समाधान देनेवाले हैं, भक्ति से सेवा करने में तत्पर है ।।६७८ ।। ६७६ ॥ अन्य चार मुनि क्षपकके धर्मोपदेश में नियुक्त होते हैं, ये मुनि शांतिको नष्ट करनेवाली ऐसो स्त्रीकथा, राजकथा, काम, आहार, द्रव्य देश आदि से संबद्ध सर्व विक्रथाओंको छोड़कर धर्मका उपदेश देते हैं ।। ६८० || उपदेश सुनाते समय, आकुलता उत्पन्न न हो ऐसे वचन बोलते हैं तथा उद्वेग रहित विक्षेप-क्षोभ रहित, उद्दंडता रहित, अर्थहीन शब्दोंको छोड़कर, कठिनता से रहित, शीघ्रता और मंदता से रहित ऐसे वचन बोलते हैं ||६८१|| जो वचन क्षपकको आनंद उत्पन्न करते हैं, हितकर मधुर मनोहर हैं ऐसे वचनोंसे अनेक अनेक सुंदर कथा कहने में निपुण वे मुनि धर्मको कहते हैं ।।६८२ ।। क्षपको ऐसी कथा कहनी चाहिये जिसको सुनकर सर्वथा विपरिणामअशुभ परिणामको वह छोड़ दे और संवेग निर्वेदको प्राप्त हो । संसारसे भय होना संवेग है और शरीर भोगसे विरक्त होता निर्वेद है || ६८३ || क्षपकको आक्षेप जनिका निर्वेद अनिका और निर्वेग जनिका ऐसी तीन कथायें कहनी चाहिये, विक्षेप जनिका कथाको नहीं कहना चाहिये || ६८४ | Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] मरगा कागिरका कथा साऽक्षेपणी व ते या विद्याचरणादिकम् । विक्षेपणीकथावक्ति परात्मसमयो पुनः ॥६८५॥ संवेजनी कथा ते ज्ञानचारित्रभवा । निवेदनी कथा वक्ति भोगांगावे रसारताम् ।।६८६।। विक्षेपणीरतस्यास्य मीलितं गनि गछति । तदानीमसमाधानमल्पशास्त्रस्य जायते ॥६८७।। जिसमें सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रका वर्णन हो वह आक्षेप जनिकाआक्षेपणी कथा है और जिसमें जनमत तथा परमत का निरूपण हो वह विक्षेपणो कथा है अर्थात जिसमें परमतका खण्डन हो और जैनमतका भण्डन हो ऐसी न्याय रूप विक्षेपणी कथा है ।।६८५।। ___ सम्यक्त्वज्ञान और चारित्र द्वारा आत्मामें कैसा वैभव उत्पन्न होता है, तपश्चरण द्वारा ऋद्धि किस प्रकार प्रगट होती है इत्यादिका वर्णन करनेवाली संवेजनो कथा है । पंचेन्द्रियोंके भोग और शरीर किस प्रकार निःसार है इसका वर्णन निवेदनी कथामें होता है ।।६८६।।। विशेषार्थ-धर्मकथाके चार भेद हैं आक्षेपणी, विक्षेपणो, संवेजनी और निर्वेदनो । रत्नत्रय धर्मका अर्थात् सम्यक्त्वका, मतिश्रुत आदि पांचों ज्ञानोंका, सामायिक आदि चारित्रोंका वर्णन करनेवाली आक्षेपणो कथा है | वस्तु सर्वथा नित्य ही है अथवा सर्वथा अनित्य है इत्यादि रूप मिथ्याइष्टिके मतका पहले पक्ष उपस्थित करके पुन: उसका निरसन कर जैनमतको स्थापित कर देना इत्यादि न्याय ग्रंथरूप विक्षेपणी कथा हुआ करतो है । रत्नत्रय धर्म का आराधन करनेसे कैसे वैभव प्राप्त होते हैं उसी भवमें ऋद्धियां, परभवमें देवेन्द्र, चक्रवर्तीत्व, बलदेव आदिका सुख प्राप्त होता है ऐसी धर्मके फल में हर्ष बढाने वाली संवेजनी कथा है । यह शरीर अशुचि सप्त धातुमय है शुद्ध भी भोजन आदिको तत्काल अशुद्ध करता है । यह भोग महाभयानक कष्ट उत्पन्न करते हैं, नरक आदि कुगतियोंमें भ्रमण कराते हैं इत्यादिरूप शरीर और भोगोंका वास्तविक स्वरूप बतलाने वाली निर्वेदनी कथा है । इन चार प्रकारको कथाओं में से विक्षेपणी कथाको छोड़कर शेष तीन कथायें क्षपकको सुनानी चाहिये । इस क्षपकके यदि विक्षेपणी कथा सुनते हुए जीवन समाप्त हो जाय तो उस वक्त क्षपकके लिये वह कथा अशांतिकारक होती है । क्योंकि इसमें परमतका वर्णन है Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्याणकादि अधिकार कथ्या बहुश्रुतस्यापि नासन्ने मरणे सति । अनाचारं न कुर्वन्ति महतो हि कदाचन ॥६॥ विक्षेपिणीं विख्यातः, समाधान विधायिनः । कथयन्ति कथास्तिस्रो, निस्त्रिदंडत्रिगौरवाः ||६८६ ॥ नियुक्तस्य, तपोभाव ते वदंति तथा तस्य प्रत्यासन्न मृतेर्यतेः । भवत्याराधको यथा ।। ६६०। योग्यमाहारमश्रमाः । लस्या नयन्ति चत्वारो निर्माना लब्धिसंपन्ना, स्तदिष्टं गतदूषणं ।। ६६१ || [ २०५ उसको सुनते समय मरण हो जाय तो अल्प ज्ञानी क्षपक परमतको सत्य मानकर उसमें श्रद्धान करते हुए मरण करनेसे सम्यग्दर्शनादिसे च्युत होगा । इसलिये क्षपकको विक्षेपणी कथा नहीं सुनाते हैं ||६८७ || दिपक बहुत है बहुत से परमत स्वमत के शास्त्रोंका ज्ञाता है तो भी उसे मरणके निकट होनेपर विक्षेपणी कथा नहीं सुनानी चाहिये, क्योंकि महापुरुष कदाचित् भी अनाचार नहीं करते हैं । आशय यह है कि आगमज्ञानी क्षपकके लिये भो विक्षेपण कथा समाधिमें सहायक नहीं होती, विक्षेप ही कराती है अतः बहुश्रुत क्षपकको भी यह कथा त्याज्य है ।। ६८८ ।। अतः विक्षेपणो कथाको छोड़कर समाधान करनेवाले परिचारक मन, बचन, काय अशुभ परिणति तथा तीन गारवोंको नष्ट करनेवाली आक्षेपणी आदि तीन कथाओं को ही कहते हैं ।। ६८९ ।। मृत्युके निकट होनेसे जो अतिशयरूप से श्रेष्ठ उप तप भावना में तत्पर है ऐसे उस क्षपकको उसप्रकार का धर्मोपदेश देते हैं जिसप्रकारसे कि वह आराधनाओंका उत्तम आराधक हो ।।६६०।। इसप्रकार चार मुनि क्षपकको धर्मकथा सुनाने में कैसे तत्पर होते हैं यह बताया । अब चार मुनि क्षपकके आहारचर्या में तत्पर रहते हैं यह बताते हैं जो मुनि ऋद्धि संपन्न हैं, श्रम रहित हैं, मान रहित हैं, ऐसे चार मुनि क्षपक के लिये इष्ट, उद्दिष्ट आदि दोषसे रहित, योग्य ऐसे आहारको लाते हैं- आहारकी व्यवस्था कराते हैं ।।६९१।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ मश्रण कण्डिका पानं नयंसि चत्वारो द्रव्यं तदुपकल्पितं । अप्रमत्ताः समाधानमिच्छन्तस्तस्य विश्रमाः ॥६६२॥ विशेषार्थ-क्षपकके लिये आहारकी व्यवस्था ऐसे मुनि करें कि जो अश्रम, निर्मान और लब्धि संपन्न हैं । आहारको व्यवस्था करने में जो श्रमका अनुभव नहीं करते अर्थात् हम कबतक आहारकी व्यवस्था करें? हम तो थक गये हैं ऐसे भावसे जो रहित हैं वे अनम हैं । हमें ऐसा काम करना पड़ता है इत्यादि मानके भाव नहीं करने वाले निर्मान मुनि हैं । लब्धि संपन्न विशेषण तो बहुत महत्वपूर्ण है, जिन मुनियों के आहार संबंधो ऋद्धि प्राप्त हैं वे क्षपकके आहारको व्यवस्था निर्दोष संपन्न कर सकते हैं। परिचारक मुनि द्वारा व्यवस्थित किया गया आहार उद्दिष्ट आदि दोष और वात पित्तादि दोषसे रहित होना चाहिये तथा प्रासुक होना चाहिये । यहां पर कोई का करे कि श्राहारको लाना आदि मनिजन कैसे कर सकते हैं ? सो उसका समाधान यह है कि समाधिस्थ साधुके शक्ति क्षीण होनेपर वह स्वयं आहारको जा नहीं सकता प्रतः प्राचीन काल में अन्य मुनि श्रावकोंके वसतिमें जाकर वहांसे प्रासुक निर्दोष आहार ले आते थे । इस विषयमें गुरुजनोंके मुखसे इसप्रकार सुना है कि जब कोई मुनि भक्त प्रत्याख्यान मरणको धारण करता था तब उसको वैयावृत्यमें अन्य मुनिजन जुट जाते थे। उन मुनियोंमेंसे जिन्हें लाभांतराय आदिका तोव उदय नहीं है, जिन्हें आहारको प्राप्ति अत्यन्त सुलभतासे हुआ करती है ऐसे मुनि आहारार्थ श्रावकोंके यहां जात हैं वहां पड़गाहन आदि होनेपर आहारकी थाली सामने आजानेपर तपद्या भक्तिके अनंतर स्वयं आहार नहीं करते और मौनको छोड़कर श्रावकोंके द्वारा उस आहारको जहां क्षपक मुनि स्थित है वहां साथमें ले आते हैं और उस क्षपक मुनि का आहार करवाते हैं और स्वयं उस दिन उपवास करते हैं । वर्तमान में मुनिगण श्रावकोंके निकट धर्मशाला आदिमें निवास करते हैं अतः सल्लेखना विधिमें हरप्रकारसे श्रावकों द्वारा सहायता मिलती है इसलिये क्षीणकाय क्षपक मुनिके योग्य आहारको व्यवस्था श्रावक कर लेते हैं । आगे और भी क्षपकके वैयावृत्यमें तत्पर होनेवाले मुनियोंका कर्तव्य बतला Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि प्रधिकार [२०७ मलं क्षपन्ति चत्वारो वर्चः प्रस्रवणाविकम । शय्यासंस्तरको कालद्वये प्रतिलिखन्ति च ॥६६३।। क्षपकासमथदारं, नत्वारः पाति यत्नतः । धर्मश्रुतिगृहबार, चत्वारः पालयन्ति ते ॥६६४।। निशिमाग्रति चत्वारो, जितनिद्रामहोद्यमाः । वार्ता मार्गन्ति चत्वारो, यत्नाद् देशादि गोचरां ॥६६॥ बहिर्वन्ति चत्वारः, स्वपरागमकोविदाः । अनन्तः शब्दपातं ते जनानां निखिलाः कथाः ॥६६६।। क्षपकके समाधानको चाहने वाले, अप्रमत्त श्रमरहित ऐसे चार मुनि क्षपकके लिये योग्य और इष्ट ऐसे पानक द्रव्यको लाते हैं--पानक द्रव्यकी व्यवस्था करते हैं ।।६९२।। ___ चार मुनि क्षपकके मल मूत्र कफ आदिका क्षेपण करते हैं, दोनों संध्याओं में वसति और संस्तरका शोधन भी करते हैं ।।६९३।। चार मुनि क्षपकके बसतिके द्वारको रक्षा करते हैं अर्थात् मिथ्याष्टि, क्षपक को अशांति करने वाले व्यक्ति क्षपकके निकट नहीं आपायें इत्यादि कार्यके हेतु चार मनि वसतिके दरवाजे पर नियुक्त होते हैं । अन्य चार मुनिधर्म श्रवण मंडपके द्वारकी रक्षा करते हैं ।।६६४॥ जिन्होंने निद्राको जीत लिया है महान् उद्यमशील हैं वे मुनि रात्रिमें क्षपक के निकट जागरण करते हैं अर्थात् राथिमें शयन नहीं करते । चार चतुर मुनि अपने निवासभूत इस देशमें क्या स्थिति चल रही है ? इस नगरमें शुभ अशुभ कौनसी वार्ता है ? इत्यादि बातोंका निरीक्षण करते रहते हैं ।।६९५।। स्वपर आगम ज्ञान में कुशल ऐसे चार मुनि क्षपकके दर्शनार्थ आगत लोगोंको धर्म कथायें सूनाते हैं अर्थात् आक्षेपणी आदि कथायें धर्मोपदेश, सिद्धांतोंका कथन इत्यादि रूप उपदेश श्रावक आदिको देते हैं, कहाँपर देते हैं ? वसतिके बाहर देते है क्षपकके निकट शब्द नहीं पहुंच सके इतने दूर रहकर अन्य जनोंको उपदेश देते हैं ।।६९६।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] चत्वारो वादिनोऽक्षोभ्याः सर्वशास्त्रविशारदाः । धर्मवेशन रक्षार्थं, विचरन्ति समन्ततः १६६७।। एवमेकाग्र चेतस्काः, कर्मनिर्जरणोद्यताः । निर्यापिका महाभागाः सर्वे निर्यापयन्ति तं ।। ६६८ ।। कालानुसारतो प्राह्यश्चत्वारिंशच्चतुयुं ताः । भाविनो मुनिपुङ्गवाः ||६६६ ॥ चत्वारश्चश्या रस्ता व वंजसा । घरवारः काले संक्लेशसंकुले ॥७०० ।। भरत रावत क्षेत्र हेयाः क्रमेण मरकण्डिका यावसिष्ठन्ति कालानुसारिणौ भरतंरावतक्षेत्र ग्राह्यौ द्वौ जघन्येन योगिनौ । भवौ निर्यापको यती ||७०१ ॥ सर्व शास्त्रों में निपुण, क्षोभरहित - किसी भी कारणसे जिन्हें उत्तेजना नहीं आती, जो बाद में कुशल हैं ऐसे चारवादी मुनिराज धर्मकथा को कहने वालेकी रक्षा हेतु धर्मं श्रवण मंडप के चारों ओर विचरण करते हैं ।। ६९७ ।। इसप्रकार ये अड़तालीस महाभाग, कर्मनिर्जरण में उद्यत एकाग्रचित्त हुए सभी निर्वाक उस क्षपकको संसारबंधन से निकालनेके लिये प्रयत्नशील रहते हैं ।।६९८ ।। काल परिवर्तन के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्र में होनेवाले मुनिपुंगव चवालीस ग्रहण करने चाहिये ||६६६ || भावार्थ - भरत ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी आदि कालोंका परिवर्तन हुआ करता है तदनुसार वहांके मनुष्यों में गुणोंकी होनाधिकता होती है अतः सदा इतने उत्कृष्ट गुणवाले मूनि नहीं मिलते इसलिये मध्यम रीत्या चवालीस मध्यम गुणवाले मुनि निर्यापक रूपसे ग्रहण किये जाते हैं । . तथा संक्लेश बहुत कालमें जैसे जैसे हीन काल स्थिति होवे तदनुसार चार चार निर्यापकों की संख्या क्रमशः कम करना, ऐसे चार संख्या शेष रहने तक कर सकते हैं अर्थात् चार मुनियोंको भी निर्यापक बनाया जाता है । अत्यंत निकृष्ट कालमें भरत ऐरावत क्षेत्र में जघन्य रूपसे दो योगो निर्यापक पदरूपसे ग्रहण करने योग्य हैं ||७००||७०१ ।। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निर्यापकादि अधिकार [ २०९ आत्मा त्यक्तः परं शास्त्रं, एकोनिर्यापको यदि । असमाधेमृतिय॑क्त, यमसो दुर्गतिः परा ॥७०२॥ भिक्षाविषधानेन, क्षपकप्रतिकर्मणा । अनारतं प्रसक्तन, स्वस्त्यतोऽन्यो विपर्ययः ॥७०३।। स्वस्यापरस्य वा त्यागे, यतिधर्मो निराकृतः । ततः प्रवचनत्यागो, ज्ञानविच्छेदको मत: ॥७०४।। . -. .- .- . . ..- - समाधिमें उद्यत क्षपकको परिचर्यामें दो से कम निर्यापक होवे तो स्वयं निर्यापकको आत्माका क्षपकका और प्रवचनका त्याग हो जाता है। अकेला निर्यापक क्षपकको समाधान शांति नहीं करा सकेगा और उससे उसको असधिो मन हो जाती है, यह तो प्रत्यक्ष हो हो जाता है और असमाधिसे मरा क्षपक दुर्गति में जाता है।।७०२।। अकेला निर्यापक यदि क्षपकको सेवा, आहार, मल, त्याग आदि कार्यों में सतत लगा रहेगा तो अपने आहार ग्रहण करना, विश्राम लेना आदिको नहीं कर सकेगा अतः स्वयंका त्याग हुआ अर्थात् स्वयं वेदनासे पोड़ित होगा और यदि निर्यापक अपने आहार आदिमें लगेगा तो क्षपकको सेवा नहीं होने से उसका त्याग होगा ।।७०३।। __इस तरह अपना अथवा क्षपकका त्याग होनेसे मुनिधर्मका नाश हआ क्योंकि जब निर्यापक और क्षपकका अशांतिसे मरण होगा तो मुनिधर्मका नाश हआ है और उससे प्रवचन का भी नाश हुआ, क्योंकि मुनिके अभावमें शास्त्रज्ञान कहां रहेगा ? समाप्त ही होगा ।।७०४।। भावार्थ--क्षपकको सेवामें हानि होनेसे वह संक्लेश परिणामसे मरेगा उमसे उसको कुगति हुई सो क्षपकका नाश हुआ, क्षपकके अशांतिसे मरण होनेसे निर्यापक को महान् क्लेश होगा । यदि निर्यापक अपने आहारादिमें लगा रहेगा तो वैयावत्य धर्म का निर्यापक द्वारा त्याग हो जाता है। यदि वैयावत्यमें ही सदा लगा रहता है तो निर्यापक आहारादिके अभाव में मृत्युको प्राप्त होता है, निर्यापक आगमका महान् ज्ञाता होता है उसकी मृत्यु होनेसे शास्त्रोंका ज्ञान लुप्त हुआ, उपदेश का भी अभाव होगा इसतरह प्रक्वनका अभाव हो जाता है । अतः कभी भी एक निर्यापक क्षपक के समाधिके लिये ग्रहण नहीं किये जाते, कमसे कम दो ग्रहण किये जाते हैं जिससे एक निर्यापक Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ मरणण्डिका ।।७०६ ॥ क्षपकस्यात्मनो वास्ति त्यागतो व्यसनं परम् । भवेत्ततोऽसमाधानं, क्षपकस्यात्मनोऽपि वा ॥७०५॥ क्षुधादिपीडितः शून्ये, सेवते याचते यतः । क्षपकः फिचनाकल्पं, दुर्मोचम- यशस्ततः यतोsसमाधिनामृत्युं याति निर्यापकं विना । क्षपको दुर्गति भीमां, दुःखदां लभते ततः ॥ ७०७ ।। संघस्य, कञ्चन प्रेषयेत्ततः । निर्यापकगणेशिना ॥७०८ ॥ 1 संन्यास सूचकाचार्यो, यदि सेवामें तत्पर है तो दूसरा अपने आहारादि कार्योंको कर लेगा और दूसरा क्षपकके निकट सेवामें संलग्न है तो पहला आहारादि अपनी क्रिया कर लेगा इससे क्षपक निर्यापक और प्रवचन तीनोंकी सुरक्षा होती है । क्षपत्रके अथवा अपने त्यागसे क्षपकको अथवा अपनेको महाकष्ट होता है और उससे क्षपक अथवा निजको अशांति पैदा होती है ।। ७०५ ।। जब क्षपकका त्याग होगा अर्थात् निर्यापक अपने आहारादि कार्य में लगेगा अकेला क्षपक भूख प्याससे पीड़ित हुआ कुछ भी अयोग्य महारादि को मांगने लगता है और उससे महान् अपयश होगा ।।७०६ ।। भावार्थ - यदि क्षपकको छोड़ निर्यापक आहारार्थं बाहर जायेगा तो अकेला क्षपक कुछ भी अयोग्य कार्य वेदना के वशीभूत हुआ करेगा अथवा मिथ्यादृष्टि के पास जाकर आहारादिकी याचना करेगा इससे धर्मकी और क्षपकको महान अपकीर्ति होती है । frared बिना क्षपक अशांति से मृत्युको प्राप्त होता है और अशांति से मरण करने से भयानक दुःखदायक दुर्गति में जाता है ।। ७०७ ।। क्षपके समाधिमरणकी सूचना देनेवाला कोई आचार्य चतुविध संघके निकट समाधिकी सूचना भेजता है तब निरतिचार रत्नत्रयका पालन करनेवाले निर्यापक आचार्य द्वारा क्षपक की समाधि की जा रही है ऐसा सुनकर सभी मुनियोंको वहां आना चाहिये और यदि मंद चारित्रवाला समाधि कराता है ऐसा ज्ञात होता है तो अन्य साधु aure निकट आते हैं अथवा नहीं आते हैं । भाव यह है कि निर्दोष आचार्य द्वारा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि अधिकार श्रुत्वा सल्लेखनां सर्वे, रागन्तव्यं तपोषनः । कारितां शुद्धवृत्तेन, भजनोयमतोऽन्यथा ॥७०६॥ एति सल्लेखनामूलं, भक्तितो यो महामनाः । स निस्यमानुते स्थानं, भुक्त्वा भोग परंपराः ।।७१०॥ एक हानि होगी, जियते अः समाधिना । अकल्मषः स निर्वाणं, सप्ताष्टलभते भवः ॥७११॥ यो नैति परया भक्त्या, श्रुत्वोत्तमार्थ साधनम् । उत्तमार्थमृतौ तस्य, जन्तोभक्तिः कुतस्तनो ॥७१२॥ उत्तमार्थमृतौ यस्य, भक्तिस्ति शरीरिणः । उसमार्थमृतिस्तस्य, मृतौ संपद्यते कुतः ७१३॥ -..--. -------- समाधि कार्य संपन्न होता है तो सर्व मुनि अवश्य आते हैं और शिथिलाचारी द्वारा समाधि सम्पन्न हो रही है तो भजनीय है, जावे अथवा नहीं जावे ।।७०८॥७०६।। ___ योग्य आचार्य द्वारा क्षपककी सल्लेखना हो रही सुनकर जो महामना भक्तिसे क्षपकके निकट आता है वह स्वर्गकी भोग परंपराको भोगकर शाश्वत मोक्ष स्थानको प्राप्त कर लेता है ।।७१०।। जो जोव एक जन्ममें समाधि द्वारा मरण करता है वह निर्दोष क्षपक सात पाठ भवों द्वारा निर्वाणको प्राप्त करता है ।।७११।। जो पुरुष किसी क्षपक द्वारा उत्तमार्थ साधन-समाधिमरण किया जा रहा सुनकर परम भक्तिसे क्षपकके समीप नहीं जाता (उनको सेवा भक्ति दर्शन नहीं करता) उस जीवके समाधिमरणमें भक्ति कैसो कहाँसे होगी ? अर्थात नहीं होगी ॥७१२॥ जिस जीवके उत्तमार्थ मरण में भक्ति नहीं है उस जोवके उत्तमार्थ मरण मरणकालमें कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । अर्थात् जो क्षपकके सल्लेखनाको देखता है, हापसे सेवा करता है, भक्ति पूर्वक क्षपकको वंदना करता है उसका सल्लेखना मरण अवश्य होता है। जो ऐसा नहीं करता उसका समाधि पूर्वक मरण नहीं होता ।।७१३॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ ] मरणकण्डिका तस्यासंवृतवाक्यानां, न पावें देयमासितु । घचनरसमाधानं, तबीयर्जायते यतः ॥७१४॥ गीतार्थैरपि नो कृत्या, स्त्रोसक्तार्थायिका कथा । पालोचनादिकं काय, तत्राति मधुराक्षरम् ॥७१५॥ प्रत्याख्यानोपदेशादौ, सर्वत्रापि प्रयोजने । क्षपकेण विधातव्यः, प्रमारणं सूरिराश्रितः ॥७१६।। तेन तैलाविना कार्या, गण्डूषाः सन्त्यनेकशः । जिह्वावदनकर्णादे, नर्मल्यं जायते ततः ॥७१७॥ --- --.-. -- - क्षपकके निकट कल कल बचन, लोक विरुद्ध वचन. निरर्गल वचन आदिको बोलने वाले लोगोंको ठहरने नहीं देना चाहिये क्योंकि उन वचनों द्वारा क्षपकको अशांति होती है ।।७१४।। आगमार्थके ज्ञाता मुनियोंको भी क्षपक के समीप स्त्रोमें आसक्तिकारक कथा प्रर्थकथा आदि कुकथाएँ नहीं करनी चाहिये। उसके पास तो अति मधुर वाणीसे आलोचना आदिकी कथा करनी चाहिये अर्थात् अमुक अमुक मुनिने इसतरह शुद्ध आलोचना की है इत्यादि रूप धर्मबर्द्धक कथा करना योग्य है ॥७१५।। प्रत्याख्यान, उपदेश आदि सभी प्रयोजनमें क्षपकको आचार्यको प्रमाण मानना होता है ।।७१६॥ भावार्थ---क्षपक मुनि प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, उपदेश सुनना आदि कार्यों को निर्यापक आचार्यके आज्ञाके अनुसार करता है, तीन प्रकारके आहारका त्याग आदि भी उनको प्राज्ञानुसार करता है। आहारका त्याग करनेपर कृश हुए क्षपकको तैल त्रिफला आदिसे अनेक बार कुल्ला कराना चाहिये, जिससे उसके जीभ, मुख, कान आदिको निर्मलता होतो है अर्थात अनेक तरह की औषधि या तैलसे कुल्ला करानेसे जीभ साफ होती है, बोलने की शक्ति आती है ! कान में तेल डालनेस सुननेको शक्ति बनो रहती है ॥७१७।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि अधिकार [ २१३ छंद उपजातिभवन्ति येषां गुणिनः सहाया, विघ्न विना ते बवते समाधि । समाधिदानोद्यतमानसंस्ते, ग्राह्याः प्रयत्नेन ततो गणेन्द्राः ।।७१८।। इति निर्यापकः । अप्रकाश्य विषाहारं, त्याज्यते क्षपको यदि । तदोत्सुफः स कुत्रापि, विशिष्टे जायतेऽशने ॥७१६।। ततः कृत्या मनोज्ञानामाहाराणां प्रकाशना । सर्वथा कारयिष्याति त्रिविधाहारमोचनम् ॥७२०।। करिषद् दृष्ट्वा तदेतेन, तीरं प्राप्तस्य किं मप । इति वैराग्यमापन्नः, संवेगमबगाहते ॥२१॥ आस्वाध कश्चिदेतेन तीरं प्राप्तस्य कि मम । इति वैराग्यमापन्नः संवेगमवगाहते ॥२२॥ जिनके गुणवान् मनि सहायक होते हैं, वे सहायक क्षपकको विघ्न बाधाके बिना समाधि देते हैं । अतः समाधिदान में उद्यत मनबाले मुनियों द्वारा प्रयत्नसे निर्यापक आचार्य ग्रहण करने चाहिये ।।७१८॥ (२७) इति निर्यापक अधिकार समाप्त (२८) प्रकाशन अधिकार ___ यदि क्षपकसे तीन प्रकारके आहारको (अन्न, स्वाद्य, लेह्य) बिना दिखाये त्याग कराया जाता है तो उस समाधिस्थ क्षपककी किसी विशिष्ट भोजन में उत्सुकता बनी रह सकती है ।।७१९।। इसलिये निर्यापक आचार्य द्वारा सुदर सुदर आहारों को क्षपकके लिये दिखाना चाहिये, फिर सर्वथा यावज्जीव तीन प्रकार के आहारका त्याग कराना चाहिये ।।७२०।। निर्यापक द्वारा मनोहर आहार दिखा देनेपर कोई क्षपक विचार करता है कि अहो ! आयुका किनारा जिसके आ चुका है ऐसे मुझे अब इस आहारसे क्या प्रयोजन है ? मुझे इसका त्याग करना चाहिये । इसतरह वैराग्य भाव वाला क्षपक संवेग को, संसार भीरुताको प्राप्त होता है ।।७२१॥ ____कोई क्षपक दिखाये गये उक्त आहार का स्वाद लेकर पुनः विचार करता है कि आयुके तटपर पहुँचे हुए मुझे इस आहारसे क्या मतलब है इसतरह सोचकर वैराग्य Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ } मरणकण्डिका अशित्वा कश्चिदंशेन तीरं प्राप्तस्य किं मम । इति वैराग्यमापन्नः संवेगमवगाहते ॥२३॥ बल्भित्वा सर्वमेतेन तोरं प्राप्तस्य किं मम । इति बैराग्यमापन्नः संवेगमवगाहते ॥२४॥ बल्भित्वा सुन्दराहारं रसास्वादनलालसः । कश्चित्तमनुबध्नाति सर्वे देश च गृद्धिसः । ७२५॥ इति प्रकाशना । कुरुते देशनां सूरिरायापाविशारदः । निराकतुं मनःशल्यं सूक्ष्मं निर्यापयन्नमम् ॥७२६।। युक्त हो संवेगका अवगाहन करता है अर्थात् आहारका त्याग यावज्जीवके लिये कर लेता है ।।७२२।। कोई क्षपक उक्त आहार को किंचित् ग्रहण कर सोचता है कि जोवनके तीर को प्राप्त हुए मुझे इस आहारसे क्या प्रयोजन है ! इसतरह विचारकर वैराग्य युक्त हो संवेगका अवगाहन करता है ।।७२३।। कोई क्षपक उक्त मनोहर आहारको पूर्णतया खाकर सोचता है कि अहो ! धिग धिग् आहार यांछाको । आयुके तट को प्राप्त हुए मुझे आहारसे क्या मतलब है ? इसतरह सोचकर वैराग्ययुक्त संवेगको प्राप्त होता है ।।७२४।। कोई क्षपक मुनि दिखाये गये सुदर मिष्ट आहारको पूर्णरूपसे खा लेता है, रसके आस्वादन में आसक्त ऐसा वह उक्त आहारको एक देश या पूर्ण रूपसे गद्धिके कारण पुनः पुनः चाहता है अर्थात् आहारको अभिलाषा करता है त्याग नहीं करता ।।७२५॥ ॥ प्रकाशन नामका अट्ठावीसवां अधिकार समाप्त ।। (२६) हानि अधिकार जब क्षयक मनोज्ञ आहारमें आसक्त होता है तब आचार्य उस आसक्तिसे होने वाली हानिको बताते हैं प्राय और अपाय अर्थात् इन्द्रिय संयमका विनाश और असंयमकी प्राप्ति को जानने और क्षपकको दिखलाने में जो विशारद हैं ऐसे आचार्य क्षपकके उस आसक्ति Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि अधिकार कश्चिदुद्धरते शत्यं क्षिप्रमाकर्ण्य देशनां । करोति संसृतित्रस्तः सूरीणां वचसा न कि ।।७२७॥ समाधानीयतो गुनोः संस्याज्य सकलं गरणी । एकैकं हापयन्नैवं प्रकृते वधते शनैः ।।७२६ ।। [ २१५ रूप सूक्ष्म मनके शल्यको दूर करने के लिये दिव्य उपदेश देते हैं। किसतरह देते हैं ? क्षपकको प्रसन्न करते हुए उसको शांति उपजाते हुए उपदेश देते हैं ।। ७२६ ।। गुरुके द्वारा उपदेश पर कोई अपदेशनाको सुनकर शीघ्र ही उस शल्य - आहारवांछा को त्याग देता है और संसार से भयभीत होता है अर्थात् भोग आहार संसार आदिसे वैराग्य उपजानेवाला उपदेश सुनने से क्षपकको संसारसे भोरुता आती है कि अहो ! इस आहार के कारण मैंने अतीत में अनंत दुःख उठाये हैं अब भी आसक्तिको नहीं छोडूंगा तो पुनः वही दुःख उठाने पड़ेंगे इसतरह जाग्रत हुआ क्षपक संसारसे भयभीत होता है । ठीक ही है ! आचार्यके वचन द्वारा क्या क्या हित नहीं होता ? सब ही हित होता है ।।७२७|| समाधिका इच्छुक व सरस आहारकी गृद्धता से युक्त उस क्षपकके सकल आहार में से एक एक आहारका त्याग कराते हुए वे आचार्य क्रमशः प्रकृत आहार में उसे धीरे धीरे स्थापित करते हैं । ७२८ || विशेषार्थ - क्षपकको समाधिके लिये तीन प्रकारके आहारका त्याग कराते हैं । त्याग कराते समय उसको इष्ट मिष्ट ऐसा आहार दिखाते हैं तब कोई क्षपक देखने मात्र से, कोई चखने मात्र से कोई आंशिक मिष्ठान खाकर के और कोई पूर्ण आहार लेकर उस सरस भोजनसे विरक्त हो जाता है किन्तु कोई क्षपक पूरा सरस आहार करने के बाद भी मिष्ट आहारकी लालसा नहीं छोड़ता तब आचार्य आहारकी असारता रूप विराग भरा उपदेश देकर त्याग कराते हैं । कोई मिष्टाहार एवं देशना सुनकर भी विरक्त नहीं होता तब आचार्य संपूर्ण सरस आहार में से एक एक प्रकारका आहार स्थान कराते रहते हैं । पुनः सर्व सरस आहारका त्याग कराके प्रकृतमें जैसा आहार पूर्व चल रहा था नीरस आदि रूप, उसमें क्षपकको स्थापित करते हैं । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणकण्डिका छद उपजातिक्रमेण वैराग्यविधौ नियुक्तो निरस्य सर्व क्षपकस्ततोऽन्न । आराधनाध्यानविधानदः स पानकर्भावयते श्र तोक्तौ ॥७२६।। इति हानि । लेपालेपघनस्वच्छ सिक्यासिविकल्पतः । पानकर्मोचितं पानं षोडे कथितं जिनैः ॥७३०।। प्राचाम्लेन क्षयं यातिश्लेष्मा पित्तं प्रशाम्यति । परं समोररक्षार्थ प्रयत्नोऽस्य विधीयताम् ॥७३१॥ पुनः वैराग्यविधिमें स्थापित किया गया क्षपक क्रमशः सर्व हो प्रन्न आहार का त्याग करता है उस क्षपकको आचार्य आराधना तथा ध्यानके विधानमें प्रवीण शास्त्रमें जैसा कथन है वैसे पेय पदार्थों द्वारा भावित करते हैं अर्थात् सादे नीरस अन्न का भो सर्वथा त्याग कराके क्षपकको केबल जल आदि पेय पदार्थ दिया जाता है ॥७२९॥ हानि नामा उनतीसवां अधिकार समाप्त । (३०) प्रत्याख्यान अधिकार लेप-हाथको चिपकने वाला पान, अलेप अर्थात् नहीं चिपकनेवाला पान, गाढ़ा पान, केवल जल, कणयुक्त पान और कण रहित पान इसप्रकार पानक आहार छह प्रकारका है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ।।७३०।। भावार्थ-इमलो आदिका पानक लेप है, मांड वगैरह अलेप है, चावल के कणों से युक्त मांड मिक्थ है और जिसमें कण नहीं हो वह असिक्थ पान है। इनमें से यथायोग्य पानक क्षपकके लिये दिया जाता है । आचामलसे कफ नष्ट होता है और पित्त शांत हो जाता है । वायु रक्षाके लिये भी आचाम्ल ठीक है अतः इसका प्रयोग करना चाहिये ।।७३१|| भावार्थ-निकट है मृत्यु जिसके ऐसे क्षपकके वातपित्त कुपित न होवे ऐसा पानक उसे देना चाहिये । आचाम्लसे प्राय: कफ आदि नष्ट होते हैं अत: इस पानकका प्रयोग यथायोग्य क्षपकको प्रकृति देखकर करना चाहिये । भाव यह है कि आयुर्वेदानुसार जिससे बात कफादि न हो या उनमें वृद्धि न हो ऐसा पानक क्षपकको दिया जाता है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि अधिकार ततोऽसौ भावितः पानैर्जाठरस्य विशुद्धये । मलस्य मधुरं मंद पायनोयो विरेचनम् ॥७३२॥ प्रमुवासादिभिस्तस्य शोध्यो वा जाठरोमलः । अनिरस्तो यतः पोडां महतीं विदधाति सः ॥७३३॥ प्राराधस्त्रिधाहारं यावज्जीवं निषेधमिति संघस्य निर्यायक क्षपको वाऽखिलांस्त्रेधा भान्तः क्षमयते भक्ताः ! विमोक्षति । गणेशिना ।।७३४|| निःशल्पी भूतमानसः । क्षमागुण विचक्षणः ॥७३५॥ | [ २१७ तदनंतर जिसको पानक आहार दिया जा रहा है ऐसे क्षपकके पेटकी विशुद्धि के लिये तथा मलका विरेचन करनेके लिये मंद मधुर पानक पिलाना चाहिये || ७३२ ॥ कांजी में भोगे हुए बिल्व पत्तों क्षपकके पेटको सेकना, नमक आदिको बत्ती गुदाद्वार में लगाना इत्यादि क्रियासे क्षपकके मलको चाहिये क्योंकि यदि उदरका मल न निकाला जाय तो महान पीड़ा होती है ||७३३|| यह आराधक अब तीन प्रकारके आहारोंका यावज्जीव त्याग करेगा ऐसा संघको निर्यापक आचार्य निवेदन करते हैं ||७३४ || शल्य रहित हो गया है मन जिसका ऐसा तथा क्षमागुण युक्त विचक्षण यह क्षपक आप सभी लोगों से मन, वचन, कायद्वारा क्षमा मांगता है, आप भक्त हैं इसप्रकार शति स्वभाव आचार्य संघको निवेदन करते हैं ||७३५|| भावार्थ — क्षपकके द्वारा यावज्जीवके लिये तीन प्रकारके आहारका त्याग करने के सम्मुख होनेपर इस बातकी सूचना आचार्य सर्व संघको देते हैं तथा क्षमा कराने हेतु ब्रह्मचारी के हाथ में क्षपककी पीछी देकर आचार्य सर्व संघके पास जाकर कहते हैं। कि क्षपक आप सबसे प्रार्थना कर रहा है कि मैं आपसे मन, वचन, कायकी शुद्धिपूर्वक क्षमा मांगता हूँ, मेरा किसीसे वैर नहीं है । इसतरह सर्व संघ को निवेदन करते हैं । क्षपक अशक्त होने के कारण सबके निकट जा नहीं सकता, अतः पीछो दिखाकर आचार्य क्षमाभावको प्रतीति संघको कराते हैं । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] मरणकण्डिका आराधनास्य निविघ्ना सम्यक् संपद्यतामिति । स याति सकल: संघस्तनत्सर्गमसंभ्रमम् १७३६॥ तं चतुविध माहारमाचार्यो विधिकोधिवः । मध्ये सर्वस्य संघस्य स प्रत्याख्यापयेत्ततः ॥७३७।। त्रिविधं वा परित्याज्यं पानं देयं समाधये । अनत्याने पुनः पनं ताजनीयं पटोयसा ॥७३८।। छंद शालिनीयत्रिविष्टं पान कर्माधिकारे दात्तुं शक्तं तत्समाधानरत्नम् । षोढा पानं युज्यते तस्य पातु धाहारं स्यागकालेपवित्रम् ॥७३६॥ इति प्रत्याख्यानं । प्राचार्येऽध्यापके शिष्ये संघे सामके कुले । योऽपराधो भवेत्त्रेधा सर्व क्षमयते स तं ॥७४०।। _इसतरह क्षमा याचना करनेपर इस क्षपककी आराधना निर्विघ्न समोचोनतया संपन्न होवो इस भावनासे संपूर्ण संघ शांतिपूर्वक कायोत्सर्ग करता है ।।७३६।। क्षमा याचनाके अनंतर सर्व संघके मध्य में विधिमें कुशल ऐसे आचार्य क्षपकके द्वारा चतुर्विध आहारका त्याग कराते हैं ।।७३७।। अथवा क्षपकके भावनानुसार संघके समक्ष पहले तीन प्रकारके आहारका त्याग कराना चाहिये तथा शांति के लिये पानक पेय देना चाहिये, फिर अन्त में कुशल आचार्य क्षपकको पानकका भी त्याग करा देते हैं ।।७३८।। __ पान किया अधिकारमें जो छह प्रकारका पानक बतलाया है, जो कि क्षपकको समाधान रूपी रत्नको देने में समर्थ है अर्थात् जो पानक क्षपकको शांति कराता है व्याकुलताको कम करता है उस पवित्र पानकको तीन प्रकारके आहारके त्याग करानेपर पिलाना चाहिये ।।७३६॥ प्रत्याख्यान नामका तीसवां अधिकार समाप्त । (३१) क्षामण अधिकार प्रत्याख्यानके अनंतर आचार्य, उपाध्याय, शिष्य संघ, सामिक कुल इन मनियों के विषयमें मन, वचन और काय द्वारा जो अपराध हुमा है कषाय भाव हुआ है उन सब अपराध एवं कषाय भावको क्षपक क्षमा मांगता है ।।७४०।। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि अधिकार मूर्धन्यस्तकराम्भोजो रोमांचचितविग्रहः 1 त्रिधा क्षमते सर्व संवेगं जनयन्नसौ ।। ७४१॥ योsपराधोमयाकारि मनसा वपुषा गिरा । क्षमये तमहं सर्व निःशल्यीभूतमानसः छंद मंदाकिनी - मम पितृजननीसदृशः शश्वस्त्रिभवन महितः सुयशाः संघः । प्रियहितजनकः परमां क्षांति रचयतकृतवानहमक्षान्ति ।।७४३|| इति क्षामणा । मस्तक पर रखा है हस्तकमल जिसने ऐसा यह क्षपक संवेगभावको प्रगट करता हुआ सर्व क्षमा मांगता है ||७४१॥ ।।७४२ ॥ [ २१९ रोमांचयुक्त हो रहा है शरीर जिसका संघसे मन, वचन, कायकी शुद्धि पूर्वक भावार्थ - मुमनुके जो भी कर्त्तव्य होते हैं उन सबको मैंने कर लिया है इस विचारसे जिसके हृदय में प्रसन्नता हो रही है और इसीलिये हर्षके रोमांच जिसके गात्र में फूट पड़े हैं ऐसा वह क्षपक अपने मस्तकपर दोनों हाथ जोड़कर रखता है और सर्व संघको नमस्कार करता है तथा सर्व साधर्मी मुनियों में अनुराग उत्पन्न करता हुआ क्षमा ग्रहण कराता है । क्षपक कहता है कि भो मुनिगण ! मेरे द्वारा मनसे, वचनसे, कायसे जो भी अपराध किया गया है उस अपराधको निःशल्य मानस युक्त हो में सबसे क्षमा मांगता हूँ॥ ७४२ ॥ इकतीसवां क्षामण अधिकार समाप्त । अहो ! यह संघ मेरे पिता माता तुल्य है, सदा हो त्रिभुवन में पूज्य है, यशस्वी है, प्रिय और हितको उत्पन्न करनेवाला है, ऐसे आप सभोको मैंने शांति भंग की है, सो अब आप परम क्षमा-शांतिको करें अर्थात् मैं सब संघसे क्षमा याचना करता हूँ सर्व संघ मेरे को क्षमा प्रदान करे। मैं भी आपके अपराधको भूल जाता हूँ इसप्रकार क्षपक द्वारा महान विशुद्धि को करने वाली क्षमा की जाती हैं, क्षमा याचना की आती है ।१७४३|| Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] मरणशण्डिका क्षपयित्वेति वैराग्यमेष स्पृशन्ननुत्तमम् । सपः समाधिमास्वश्वेष्टते क्षपयन्नघं ॥७४४।। अप्रमतागुणाधाराः कुर्वन्तः कर्मनिर्जराम् । अनारतं प्रवर्तते, ज्यावृत्तीपरिचारकाः ॥७४५॥ यज्जन्मलक्षकोटीभि, रसंख्याभी रजोऽजितम् । तत्सम्यग्दर्शनोत्पादे, क्षणेनकेन हन्यते ॥७४६।। (३२) क्षपण अधिकार इसप्रकार क्षमाको करके यह क्षपक उत्कृष्ट वैराग्य का स्पर्श करता हुआ, तप और समाधिमें आरूढ़ होकर पापका नाश करते हुए प्रयत्नशील-जाग्रत रहता है ॥७४४॥ समाधिमें उद्यत क्षमा युक्त इस क्षपककी वैयावृत्त्यमें परिचारक मुनि सतत् लगे रहते हैं, कैसे हैं वे मुनि ? प्रमाद रहित हैं गुणोंको खानि हैं और कर्म निर्जराको कर रहे हैं अर्थात् वयावृत्त्य नामके इस तप द्वारा जो कर्मोको बड़ी भारी निर्जरा कर रहे हैं ।।७४५।। आशय यह है कि गणकी रत्नत्रय धर्ममें स्थिर करने वाले आचार्य और परिचारक मुनि ये सब ही दिन रात क्षपकको सुश्रुषामें तत्पर रहते हैं अतः उनके कर्मों की निर्जरा होती है । जो असंख्यात लक्ष कोटी जन्मों द्वारा कर्म अजित हुआ है वह सब सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होनेपर एक क्षण में नष्ट हो जाता है ।।७४६।। विशेषार्थ----समाधिमरण एक महायज्ञ है जिसमें बिना किसी खेद, जोश, मोहके प्रसन्नता से रत्नत्रय का पालन करते हुए क्षपक अपने प्राणों की आहुति देता है, ऐसे महान् धर्ममय मुनिराजके दर्शन वंदन भक्ति सेवा आदि जो भी व्यक्ति करता है उसके अनेक भवों के पापोंका नाश तो होता ही है इसमें तो कोई शंका हो नहीं है । विशेष तो यह है कि यदि किसीके कालादि लब्धि निकट आ चुकी है तो उसे उस वक्त क्षपकके दर्शन एवं उनकी महान तपस्याके देखनेसे अत्यधिक धार्मिक स्नेह वश रोमांच आ जाते हैं, परिणाम की विशुद्धि बढ़तो जाती है और इस तरह वह कुछ ही क्षणमें क्षयोपशम विशुद्धि आदि लब्धिसे समन्वित हुआ सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त कर लेता है। क्षपकके परिचारक मुनि आदिके भी कदाचित् सम्यक्त्व नहीं है या होकर नष्ट हो चुका है तो उन्हें भी क्षपक को हृदय की प्रसन्नता पूर्वक को गयी सेवा आदि से उस वक्त सम्यक्त्व Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्यापकादि अधिकार [ २२१ धुनौते क्षणतः कर्म, संचितं बहुभिर्भवः । ध्यावृत्तोऽन्यतमेयोगे प्रत्याख्याने विशेषतः ॥७४७।। प्रतिक्रान्तौ तनुत्सर्गे स्वाध्याये बिनये रतः । अनुप्रेक्षासु कर्मेति धुनीते संस्तरस्थितः ।।७४८।। छंद प्रहरणकलिता-- अनशननिरते तनुभूति सकलं, भवभयजनक विगलति कलिलं । अनुहिमकिरणे ह्य दयति तरणी, कमलविकसने च घनमिव तमः।७४६।। ___ इति क्षपणं । प्राप्त हो सकता है । क्षपक के स्वयके भी सम्यक्त्व नहीं है, होकर छूट गया है तो उस वक्त रत्नत्रय धर्मका सतत् उपदेश आचार्य द्वारा मिलता रहनेसे सम्यक्त्व प्राप्त हो जाता है । सम्यग्दर्शन होते ही असंख्यात भवों में उपाजित कर्म राशि चूर-चूर हो जाती है अर्थात् पाप प्रकृतियोंका अनुभाग खण्डन, स्थिति खण्डन आदि होते हैं। नया कर्म भी बहत अल्प' स्थिति वाला बंधता है । अत: क्षपकका वयावृत्य उसका दर्शन, भक्ति आदि सभी मुमुक्षुको सर्वथा उपादेय है । बारह प्रकार के तपश्चरण, वृक्ष मूल आदि योग इत्यादि को करने में तत्पर हुए जीव बहुत-बहुन भवों द्वारा संचय को प्राप्त हुए कर्मों को क्षणमात्रमें नष्ट कर डालते हैं, अर्थात् तपस्या द्वारा अनेक भवोंके कर्म निर्जीर्ण कर देते हैं और सल्लेखनामें यावज्जीव चतुराहार का त्याग करने पर तो विशेष रूपसे कौको निर्जरा होती है ।।७४७।। संस्तर स्थित क्षपक प्रतिक्रमणमें तत्पर है चाहे कायोत्सर्गमें लीन है अथवा स्वाध्याय और विनय में प्रवृत्त है, अनुप्रेक्षाओंके चिन्तन में लगा हुआ है इनमें से जो कोई कार्य कर रहा हो सब में ही उसके कर्मको निर्जरा होती है ।।७४८।। जीवके अनशन तपमें उद्यत होनेपर संसार के भय को उत्पन्न करनेवाला समस्त पापकर्म नष्ट होता है, जैसे कि चन्द्रमाके पोछे कमलोंके विकासका कारण ऐसे सूर्य के उदित होनेपर गाढ अंधकार नष्ट हो जाता है ॥७४६।। क्षपणनामा बत्तीसवां अधिकार समाप्त । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Force 221170 ធំប៉ុង * अनुशिष्टि महाधिकार निर्यापको गणो शिक्षा, संस्तरस्थाय यच्छति । कुर्वन्संवेग निवौ, कर्णे जपमथानिशम् ॥७५०।। अनुशिष्टं न चैव वत्त, क्षपकाय गणाप्रणीः । त्यजेदाराधनावेवों, तवानों सिद्धि संफलीम् ।।७५२॥ शोषयित्वोपधि शयां, वैयावत्यकरानपि । निःशल्यीभूय सर्वत्र, साधो ! सल्लेखनां कुरु ॥७५२॥ निर्यापक आचार्य संस्तरमें स्थित क्षपकके लिए शिक्षा उपदेश प्रदान करते हैं । तदनंतर क्षपक को संवेग निर्वेदको कराते हुए कानमें सतत जाप सुनाते हैं । अर्थात् जब क्षपक अत्यंत क्षीण शक्तिक हो जाता है तब निकटमें बैठकर कानमें बहुत मधुर वाक्य या पंच परमेष्ठी का जप सुनाते हैं ॥७५०॥ क्षपकके लिये यदि आचार्य शिक्षा उपदेश नहीं देते तो सिद्धि जिसका फल है सो आराधना देवीको क्षपक छोड़ देगा अर्थात् बिना शिक्षाके क्षपक समाधिसे च्युत हो जायगा ।।७५१॥ आचार्य क्षपकके लिये यह शिक्षा देते हैं कि हे साधो ! तुम उपधि-पीछी आदि भारया वसति और वैयावृत्य करनेथाले की भी भलीप्रकार परीक्षा करो शोधन करो कि यह उपधि निर्दोष निर्जन्तुक देखी हुई है या नहीं ? यह पीछी कमंडलु आसन निर्दोष अनादिष्ट है या नहीं ? यह वसति उद्दिष्ट दोष रहित निर्जन्तुक है क्या ? वैयावृत्य Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार मिध्यात्ववमनं दृष्टि, भावना रति भावनमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे भक्तिमुत्तमां । कुरूद्यमम् ।। ७५३ ।। मुने! महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपाविनिग्रहम् । हृषीक निर्जयं द्व ेषा, तपोमार्ग कुरूश्चमम् ॥७५४।। भवद्रुम महामूलं मिध्यात्वं सुच सर्वथा । मोह्यते सगुण बुद्धि, मद्येनेव सुने ! लघु ।। ७५५ ।। [ २२३ करनेवाले वैयावृत्य में असंयम तो नहीं करते ? इसप्रकार पहलेसे हो देखो परीक्षण करो ! परोक्षण करके सर्वत्र निःशल्य होकर सल्लेखना करो ।।७५२ ।। हे क्षपकराज ! तुम मिथ्यात्वा नमन करो सम्यक्त्व की भावनाको तथा परमेष्ठी में उत्तम भक्ति को करो । परिणाम शुद्धि रूप भाव पंचनमस्कार में रति और ज्ञानाभ्यास में उद्यम करो ।। ७५३ ।। भावार्थ -- यह श्लोक सूत्ररूप है । इसमें मिथ्यात्व व मनका उपदेश ग्यारह श्लोकों में है । सम्यक्त्व भावनाके वर्णन में नौ, भक्तिके वर्णनमें नौ, पंच नमस्कार वर्णनमें सात और शानाभ्यास के वर्णन में सत्तरह श्लोक हैं । हे मुने! महाव्रत की रक्षा करो, क्रोधमान आदि कषायोंका निग्रह और इन्द्रियों पर विजय करो। दो प्रकारके बाह्य अभ्यंतर तपमार्ग में उद्यम करो ।।७५४।। भावार्थ – यह श्लोक भी सूत्ररूप है । ऊपरके श्लोक में कहे हुए मिथ्यात्व TET आदि पाँच विषयोंके वर्णन के त्रेपन श्लोकोंके अनंतर इस श्लोक में कथित महाव्रत को रक्षा आदि चार विषयोंका वर्णन है ८०५ श्लोकसे लेकर १४२१ श्लोक तक महाव्रत रक्षा इस विषयका वर्णन होगा । कषाय निग्रह और इन्द्रिय विजयका वर्णन सम्मिलित रूपसे है वह १४२२ से लेकर १५१८ तक है । तपके उद्यम का वर्णन १५१६ से लेकर १५४६ श्लोक तक है । हे मुने ! संसार रूपी महावृक्षके मूलस्वरूप मिथ्यात्वको सर्वथा छोड़ दो । क्योंकि मिथ्यात्व गुणवाली बुद्धिको शीघ्र हो मोहित करता है, जैसेकि मद्य द्वारा बुद्धि मोहित होती है ।।७५५ ।। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] मरण कण्डिका पिन सम्यक्त्व पीयूषं, मिथ्यात्वविष मुत्सृज । निधेहि भक्तितश्चित्ते, नमस्कारमनारतम् ।।७५६।। मिथ्यात्व मोहिताः सत्यमसत्यं जानते जनाः । कुरंगा इस नणात्ताः, सलिलं मृगतृष्णिकाम् ॥७५७॥ मिथ्यात्व मोहतो जन्तो, वरं कनकमोहनम् । वत्तेमृत्युसहस्राणि, प्रथमं न परं पुनः ।।७५८।। अनादिकालमिथ्यात्व भावितो न प्रवर्तते । सम्यक्त्वेऽयं यतस्तेन, प्रयत्नोऽत्र विधीयते ।।७५६।। ---- .-. ..- . - भावार्थ-गुणवाली बुद्धि आठ प्रकारको है सुश्रुषा, श्रवण, ग्रहण, धारण, विज्ञान, ऊहा, अपोह और तत्त्वाभिनिवेश । सुश्रुषा-धर्मको सुननेको, सात तत्त्वोंको सुननेको इच्छा होना । श्रवण-धर्मगुरुके निकट जाकर धर्मको सुनना । उपदिष्ट तत्व को हृदयमें धारण करना । विज्ञान-जाने हुए तत्वको विशेष जानना । ऊहा-तत्त्व की परीक्षा । अपोह-अतस्वसे अथवा हेय तत्वसे हटना | तत्त्वाभिनिवेश-तत्त्वों पर विश्वास । इसप्रकारकी बुद्धि को मिथ्यात्व नष्ट कर देता है । आचार्य उपदेश दे रहे हैं कि हे यते ! मिथ्यात्वरूपी विषको छोड़कर सम्यक्त्व रूपी अमृतका पान करो । तुम अपने मन में सदा हो नमस्कार मंत्रको धारण करो ।।७५६।। ___ जो जीव मिथ्यात्वसे मोहित होते हैं वे असत्य को ही सत्य समझ बैठते हैं, जैसे प्याससे पीड़ित हिरण मरीचिका को ही जल मान बैठते हैं ।।७५७।। इस जीव के लिये मिथ्यात्व कारणसे होने वाले मोह परिणामसे तो धतूरेसे होने वाला मोह परिणाम अच्छा है, क्योंकि धतूरा पीने से होनेवाला मोहभाव तो केवल एकबार मृत्यु देता है किन्तु पहला मिथ्यात्व मोह तो हजारों बार मृत्युको देता है ।।७५८॥ जिसकारणसे अनादिकाल से चले आये मिथ्यात्वसे भावित हआ यह जीव सम्यक्त्व में प्रवत्ति नहीं करता, सम्यक्त्व में रत नहीं होता उस कारण से हे क्षपक ! इस सम्यक्त्व में प्रयत्न किया जाता है, सम्यक्त्वको प्राप्तिके लिये प्रयत्न करते हैं ।।७५९।। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२५ अनुशिष्टि महाधिकार विषाग्निकृष्णसर्पाद्याः, कुर्वन्स्येकत्र जन्मनि । मिथ्यात्वमावहेद् दोषं, भवानां कोटिकोटिषु ॥७६०॥ विद्धो मिथ्यात्वशल्येन, तीवां प्राप्नोति धेदनां । कांडेनेव विषाक्तन, कानने निःप्रतिक्रियः ॥७६१।। मिथ्यास्वोत्कर्षतः संघश्रीसंज्ञस्य विलोचने । गलिते प्राप्तकालोऽपि, यातोऽसौ दीर्घसंसतिम् ॥७६२२॥ विष, अग्नि, कृष्णसर्प आदि एक जन्ममें दोष उत्पन्न करते हैं मृत्युको करते हैं । किन्तु मिथ्यात्व करोड़ों-करोड़ों भवोंमें दोष करता है ।।७६०।। मिथ्यात्व शल्यसे विद्ध हुआ जीव तीब्र वेदनाको प्राप्त होता है, जिसप्रकार कि जंगलमें जिसके पास प्रतीकार करनेका कोई साधन नहीं है ऐसे जीवके विषले कांटेसे विद्ध होनेपर तीव्र वेदना होती है ॥७६१।। संघश्री नामके व्यक्तिके मिथ्यात्व भावकी तीव्रताके कारण दोनों नेत्रोंको ज्योति नष्ट हो गयी थी और अन्त में मरण कर वह दीर्घ संसारी हो गया था ।।७६२।। __ संघश्री मन्त्री को कथा आन्ध्र देश के कनकपुर नगर में सम्यक्त्व' गुण से विभूषित राजा धनदत्त राज्य करते थे । उनका सङ्घश्रो नामका मन्त्री बौद्धधर्मावलम्बो था । एक दिन राजा और मन्त्री दोनों महल की छत पर स्थित थे। वहां उन्होंने चारण ऋद्धि धारी युगल मुनिराजोंको जाते हुये देखा । राजा ने उसी समय उठकर उन्हें नमस्कार किया और वहीं विराजमान होकर धर्मोपदेश देने को प्रार्थना को। मुनिगणों ने राजा की विनय स्वीकार कर धर्मोपदेश दिया, जिससे प्रभावित होकर मन्त्री ने श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिये और बौद्ध गुरुओंके पास जाना छोड़ दिया । किसी एक दिन बौद्ध गुरु ने मन्त्री को बुलाया । मन्त्रो गया, किन्तु बिना नमस्कार किये ही बैठ गया। भिक्षु ने इसका कारण पूछा, सब संघश्री ने श्रावक के व्रत आदि लेने की सम्पूर्ण घटना सुना दी। बौद्धगुरु जनधर्मके प्रति ईर्षासे जल उठा और बोला-मन्त्री ! तुम गाये गये, भला आप स्वयं विचार करो कि मनुष्य आकाश में कैसे चल सकता है ? ज्ञात होता है कि राजा ने कोई षडयन्त्र रचकर तुम्हें जैनधर्म स्वीकार कराया है। भिक्षुक की बात सुनकर अस्थिर बुद्धि पापात्मा मन्त्री ने जैनधर्म छोड़ दिया । एक दिन राजा ने अपने Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] मरगा कण्डिका कटुकेला बुनि क्षीरं, यथा नश्यत्यशोधिते | शोधिते जायते हृद्यं मधुरं पुष्टिकारणम् ॥७६३ ॥ तपोज्ञानचरित्राणि, समिध्यात्वे तथांगिनि । नयंति वान्तमिथ्यात्वे जायन्ते फलवन्ति च ॥७६४|| तविलंबित दवणकर व कुत्रवियोत्तमाः । सकलधर्मविषाय सुदर्शनं, सुविभजन्ति सुमित्रमिवाशनम् ।।७६५ ।। इति मिथ्यात्वापोहनम् । दरबार में जैनधर्म को महानता और चारणऋद्धिधारी मुनिराजों के चमत्कार सुनाये, और उस घटना को सुनानेका अनुरोध मन्त्रीसे भी किया । मन्त्री बोला - "महाराज ! असम्भव है, न मैंने अपनी आँखोंसे देखा है और न इस प्रकार को बात सम्भव है ।" मन्त्री की असत्य बात सुनकर राजा को बहुत विस्मय हुआ किन्तु उसी क्षण मन्त्री के दोनों नेत्र फूट गये और वह दुर्गंति का पात्र बना । "जैसी करनी वैसी भरनी" के अनुसार ही उसने फल प्राप्त किया । संघश्री की कथा समाप्त । जिसका अंदरका गूदा साफ नहीं किया है ऐसे कड़वी तू बड़ीमें रखा हुआ दूध जैसे नष्ट हो जाता है और उसी तू बड़ी को अंदरसे साफ करनेपर उसमें दूध रखने पर वह मधुर मनोहर दूध पुष्टिकारक हो जाता है ।।७६३।। ठीक इसीप्रकार मिध्यात्व युक्त जीव में तप, ज्ञान और चारित्र नष्ट हो जाते हैं और मिथ्यात्व को जिसने वमन कर डाला है ऐसे जोब में तपज्ञानादि फलदायक होते हैं ।।७६४|| जिसप्रकार विविध दोषोंको करने वाले खोटे मित्र को शीघ्र ही छोड़ दिया जाता है उसीप्रकार भव्य जोव विविध दोष-कुगतिगमनादिको करने वाले इस मिथ्यात्व को शीघ्र हो छोड़कर, समस्त धर्मको करनेवाले सुमित्र के समान इस सम्यक्त्व का सेवन करते हैं ||७६५|| विशेषार्थ - यहां पर बारह श्लोकों द्वारा मिथ्यात्व परिणाम का कितना कष्टदायक फल होता है यह बताया है जो अत्यंत हृदयग्राही है । सचमुच में इस जीवका Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२७ अनुशिष्टि महाधिकार मा स्म कार्षीः प्रमादं त्वं सम्यक्त्वे भद्रवर्धके । तपोज्ञानचरित्राणां, सस्थानामिष पुष्करं ।।७६६।। सारं द्वार पुरस्व पत्रस्यध विलोचनम् । मूलं महोरहस्येष, संज्ञानावेः सुदर्शनम् ॥७६७॥ बलानि नायकेनेव, शरीराणीव जंतुना । जानादीनि प्रवर्तते, सम्यक्त्वेन विना कुतः ॥७६८।। भ्रष्टोऽस्ति वर्शनभ्रष्टो, तभ्रष्टोऽपि नो पुनः । पतनं ह्यस्ति संसारे, न वर्शनममुचतः ॥७६६॥ यदि कोई वैरी है तो मिथ्यात्व ही है । अनादिकालसे आजतक जो संसार परिभ्रमण हुआ है वह एक मिथ्यात्व के कारण हो हुआ है । ऐसे कष्टप्रद मिथ्यात्वका त्याग करने की श्रेष्ठ प्रेरणा आचार्य देवने क्षपकको दी है। सम्यक्त्व भावना हे क्षपक ! कल्याण की बुद्धि करनेवाले सम्यक्त्व में तुम जरा भी प्रमाद मत करना । यह सम्यक्त्व तो तपस्या, ज्ञान और चारित्रका आश्रय है या इन तोनोंकी वृद्धि करनेवाला है, जैसे धान्योंका आश्रय मेध है । अर्थात् मेघ जैसे धान्योंको वृद्धि करते हैं वैसे हो सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र तथा तपकी वृद्धि करता है । अथवा यों कहिये सम्यक्त्व के बिना इन ज्ञानादि को उत्पत्ति हो नहीं होती है। ऐसे सम्यक्त्वमें कभी भी प्रमाद नहीं करना-सम्यक्त्व नष्ट नहीं होने देना ।।७६६।। जिसप्रकार नगरका सार गोपुर द्वार है, मुखका सार नेत्र है, वृक्षका सार जड़-मूल है उसप्रकार ज्ञान आदिका सार सम्यग्दर्शन है ।।७६७।। जिसतरह सेनानोके बिना सेना अपने कार्यमें प्रवृत्त नहीं हो पाती, जीवके बिना शरीर प्रवर्तन नहीं कर पाता उसतरह सम्यक्त्वके बिना ज्ञानादि स्वकार्यमें प्रवृत्त फहांसे हो ? नहीं हो सकते ।।७६८।। ___सम्यग्दर्शनसे जो भ्रष्ट है वह वास्तव में भ्रष्ट है किन्तु व्रतभ्रष्ट नहीं है क्योंकि दर्शनसे भ्रष्ट होनेपर संसारमें चिरकाल तक भ्रमण होता है किन्तु दर्शनको नहीं छोड़ा है तो चिरकाल तक भ्रमण नहीं होता है ।।७६९।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८, मरएकण्डिक ये धर्मभावमज्जावि प्रेमरामानुरंजिताः । जैने संति मते तेषां, न किंचितस्तु दुर्लभम् ।।७७०॥ श्रेणिको व्रतहीनोऽपि निर्मलीकृतदर्शनः । पाहत्यपदमासाद्य सिद्धिसौषं गमिष्यति ॥७७१॥ धर्मानुराग, भावानुराग, मज्जानुराग और प्रमानुराग इन रागोंमें जो रंजायमान हैं उनके लिये जैनमत में कुछ भी वस्तु दुर्लभ नहीं है ।।७७०।। विशेषार्थ-कोई लोग भावानुरागी होते हैं, जैसे श्रेष्ठी जिनदत्त । अर्थात् जो जिनेश्वरने वस्तुस्वरूप कहा है वह सत्य हो है ऐसा दृढ़ श्रद्धान करनेवाला मनुष्य तत्त्व का स्वरूप मालम नहीं हो तो भी जिनेश्वरका कहा हुआ तत्त्व कभी असत्य नहीं होता ऐसी श्रद्धा भावानुराग है । मज्जानुराग-जैसे पांडवोंमें जन्मसे लेकर ही अतिशय स्नेह था वह मज्जानुराग है। प्रेमानुराग--जसे मणिचूल नामके देवने अपने मित्र सगर चक्रवर्ती को बार बार समझाकर भोगोंसे विरक्त किया था, जिसके ऊपर प्रेम है उसे बारंबार समझाकर सन्मार्गमें लगाया जाता है वह प्रमानुराग है। धर्मानुराग-रत्नत्रय धर्ममें दृढ़-गाढ़ अनुराग, रुचि प्रतीति होना धर्मानुराग है । ये सब अनुराग जैनधर्मसे संबद्ध होनेसे उपयोगी हैं। ऐसे अनुराग करनेवाले के सब वस्तु सुलभतासे प्राप्त होती है, उन्हें कुछ भी दुर्लभ नहीं है अर्थात् ये अनुराग सम्यक्त्व युक्त होनेसे महान् हैं। ऐसे तो अनुराग हेय है किन्तु सम्यक्त्व युक्त जीवों में प्रारंभमें ये होते हैं । यहां विशेष यह दिखाना है कि अनुराग हेय होनेपर भी सम्यक्त्वके कारण श्रेष्ठ माने गये हैं। यह सम्यक्त्व की महिमा है । इसप्रकार सम्यग्दर्शन को श्रेष्ठता आचार्य देव क्षपक को बता रहे हैं। देखो ! सम्यक्त्वका माहात्म्य । निर्मल कर लिया है सम्यक्त्वको जिसने ऐसा श्रेणिक राजा प्रतोंसे होन होनेपर भी आर्हन्त्य पदको कारणभूत तीर्थकर प्रकृतिको प्राप्त करके आगे सिद्धिके सौत्रको-निर्वाणको प्राप्त करेगा ।।७७१।। राजा श्रोतिककी कथा भगवान महावीरके समयकी बात है, राजगृही नगरीमें राजा श्रेणिक राज्य करता था । उसको अनेक रानियां थी, उनमें प्रमुख चेलना थी। वह अत्यंत धर्मात्मा, सम्यक्त्व रत्नसे अलंकृत थी। राजाको पहले बोद्धधर्म में श्रद्धा थो। चेलना का और Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्ट महाधिकार अच्छिन्ना लभ्यते येन कल्याणानां परंपरा । मूल्यं सम्यक्स्वरस्नस्य न लोके तस्य विद्यते ।। ७७२ ।। [ २२९ उसका इस विषय में सदा विवाद चलता था । एक दिन राजा वन विहार में गया वहांपर एक मुनिराज ध्यान में बैठे थे, उन्हें देखकर धर्म छोपसे मुनिराज के गले में मरा सर्प डाल दिया । राजाने बातचीत करते हुए चेलनाको यह वृत्तांत सुनाया । चेलना अत्यंत दुःखी हुई उसने कहा- हा ! प्राणनाथ ! आपने यह अत्यंत निंदनीय पापकर्म करके अपनेको दुर्गतिका पात्र बनाया है। बड़े खेदकी बात है कि मेरे रहते हुए ऐसा कुकृत्य करके आप आगामी भवमें चिरकाल तक कष्ट भोगेंगे ? इत्यादि विलाप करती हुई चलना श्रोणिकके साथ वनमें आयी मुनिराजका उपसर्ग दूर किया । ध्यान को विसर्जित करके चरणोंमें प्रणाम करते हुये दोनों राजा रानोको मुनिराजने समान हो सद्धर्भवृद्धि - रस्तु आशीर्वाद दिया। महाराजके उत्तमक्षमा भावको देखकर श्रेणिकको मिथ्या मान्यता चूर चूर हो गयो । उसका हृदय अपने कुकृत्यके कारण पश्चात्तापसे भर आया । उसने बहुत देर तक मुनिराजसे क्षमायाचना की तथा उनसे धर्मोपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया। श्रेणिकने भगवान महावीरके समवशरण में जाकर प्रभुको स्तुति वंदना पूजा की तथा उनकी दिव्य वाणी सुनी । जब जब प्रभुका समवशरण राजगृहीके विपुलाचल पर आता तब तब राजा दर्शनार्थ जाता । भगवानके निकट श्रोणिकने साठ हजार प्रश्न किये एवं तत्व सिद्धांत आदि संबंधी समस्त जिज्ञासायें शांत कीं । परिणामोंकी अत्यंत विशुद्धि द्वारा क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया तथा परमात्य पदका कारण ऐसे तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया । अष्टांग सम्यक्त्व रत्नोंसे अलंकृत वह श्रेणिक आगामी काल में पदम नामका तीर्थंकर होगा | इसप्रकार सम्यक्त्वके माहात्म्यसे श्रेणिकने अपने अनंत संसार परिभ्रमण का नाशकर मुक्तिको सन्निकट कर लिया है । कथा समाप्त जिस सम्यत्व द्वारा निरंतर अभ्युदय आदिको कल्याण परंपरा प्राप्त होतो है उस सम्यक्त्व रत्नका मूल्य लोक में नहीं हैं अर्थात् वह तो अमूल्य है, उसका मूल्यांकन हो नहीं सकता ||७७२ ।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] मरणकण्डिका सम्यक्त्वस्य च यो लाभस्त्रलोकस्य च यस्तयोः । सम्यक्त्वस्य मतो लाभः प्रकृष्टः सारवेविभिः १७७३।। श्रलोक्यमुपलभ्यापि ततः पतति निश्चितम् । अक्षयां लभते लक्ष्मीमुपलभ्य सुदर्शनम् ॥७७४।। छंद उपेन्द्रवजादवाति सौख्यं विधुनोति दुःखं भवं लुनीते नयते विमुक्ति । निहन्ति निदां कुरुते सपर्या सम्यक्त्वरत्नं विवाति किन ॥७७५॥ (इति सम्यक्त्व) भक्तिमहत्सु सिद्धष चंत्येष्वाचायंसाधुषु । विधेहि परमां साधो ! निश्चयस्थितमानसः ॥७७६।। विशेषार्थ- सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद यदि नहीं छूटता है तो नियमसे यह देव और मनुष्यमें ही जन्म लेता है । देवोंमें भी इन्द्र, प्रतीन्द्र, अहमिन्द्र, सामानिक आदि श्रेष्ठ वैमानिक देबोंमें ही जन्म लेमा । अभियोग्य, व्यंतर फिल्विषिक आदि होन देवों में कदापि जन्म नहीं लेगा । मनुष्योंमें चक्रवर्ती, बलदेव, कामदेव, मंडलीक महामंडलीक प्रादि श्रेष्ठ मनष्योंमें जन्म लेगा । दरिद्री, नीचकुली, होनशक्तिक, विकलांग बेरूप आदि मनुष्य कदापि नहीं बनेगा । इसतरह कुछ भव लेकर मुक्त होगा । अतः यही कहा है कि सम्यक्त्व धारा प्रवाह रूपसे कल्याण परंपराको देता है। सम्यक्त्व का लाभ और तीन लोकका लाभ ये दो लाभ हैं, इनमें जो सम्यक्त्व का लाभ है वह लाभ सर्वश्रेष्ठ है, उत्कृष्ट है ऐसा सारभूत रत्नत्रयके ज्ञाता गणधरादि देव कहते हैं |७७३।। क्योंकि त्रैलोक्य को प्राप्त करके भी यह जीव उससे नियमसे गिर जाता है और सम्यक्त्वको प्राप्त करके नियमसे यह जीव अक्षय मुक्ति लक्ष्मी को हमेशाके लिये प्राप्त कर लेता है ।।७७४।। यह सम्यक्त्व रत्न सौख्यको देता है, दुःखको नष्ट करता है, संसारको काटता है, मोक्षमें ले जाता है, निन्दा-अपयशको नष्ट करता है, पूजा-आदरको प्राप्त कराता है, सम्यक्त्व क्या नहीं करता ? सब कुछ करता है ।।७७५। सम्यक्त्व भावना समाप्त । भक्ति --- हे माधो ! निश्चित स्थिर मन वाले तुम अरहंतोंमें परम भक्ति करो, सिद्धोंमें, जिन प्रतिमाओंमें, आचार्य और साधुओंमें उत्कृष्ट भक्तिको करो ।।७७६॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३१ अनुशिष्टि महाधिकार जिनेंद्रभक्तिरेकापि निषेद्ध दुर्गति क्षमा । प्रासिद्धिलब्धितो दातु सारां सौख्यपरंपराम् ।।७७७॥ सिवचस्यश्रुताचार्यसर्वसाधुगता परा । विच्छिनति भवं भक्तिः कुठारीव महोरहम् ।।७७८॥ नेह सिध्यति विद्यापि सफला न हि जायते । कि पुननि तेर्बीजं भक्तिहीनस्य सिध्यति ॥७७६॥ भक्तिमाराधनेशानां योऽकारणस्तपस्यति । स वपत्यूषरे शालीननालोच्य समं ध्रुवम् ॥७॥ ते बीजेन विना सस्यं वारिदेन विना जलम । कांक्षन्ति ये बिना भक्ति कक्षित्याराधनां नराः ।।७८१॥ अकेली जिनेन्द्र भगवानकी भक्ति भी दुर्गतिको रोकने के लिये समर्थ है तथा मोक्ष प्राप्ति होनेतक सारभूत अभ्युदयसुख परंपराको देनेके लिये समर्थ है ।।७७७।। सिद्धोंकी भक्ति तथा जिन प्रतिमा, शास्त्र, प्राचार्य एवं सर्व साधु परमेष्ठियों में की गयी श्रेष्ठ भक्ति संसारका नाश कर देती है, जैसे कि वृक्षको कुल्हाड़ी नष्ट कर देती है ।।७७८॥ जो भक्तिसे रहित है उसके विद्या भी सिद्ध नहीं होती, पहलेको प्राप्त हुई विद्या भक्तिहीन पुरुषके फलदायक नहीं होती तो फिर मोक्ष के बीज स्वहर रत्नत्रय भक्तिविहीनके क्या सिद्ध हो सकता है ? नहीं हो सकता ।।७७९।। जो पुरुष आराधनाके स्वामी स्वरूप अरहंत आदिकी भक्तिको नहीं करते हुए तपस्या करता है वह ऊसर भूमिमें चावलको बोता है अर्थात् ऊसर भूमिमें चावलोंको बोना जैसे व्यर्थ है वैसे ही अरंहृतादिको भक्ति बिना तपस्या करना व्यर्थ है ॥७८०।। जो पुरुष जिनेन्द्रको भक्तिके बिना आराधनाको करना चाहते हैं वे बीजके बिना धान्यको चाहते हैं और मेघके बिना जलको चाहते हैं अर्थात् बीज विना धान्य प्राप्त नहीं होता, मेघ बिना जल नहीं मिलता वैसे ही जिनेन्द्र भक्ति विना आराधनाकी प्राप्ति नहीं होती ।।७८१।। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] मरणकण्डिका विधिनोप्तस्य सस्यस्य वृष्टिनिष्पादिका यथा । तवाराधनाभक्तिश्चतुरंगस्य जायते ॥७८२॥ वंदनाभक्तिमात्रेण पनको मिथिलाधिपः ।। देवेंद्रपूजितो भूत्वा बभूव गणनायकः ॥७८३।। जैसे विधिपूर्वक धान्य के बोनेपर वर्षाको सफलता होती है अर्थात फसल आ जाती है, वैसे अरहंत आदिको आराधना करने रूप भक्तिके होनेपर चार आराधनाकी सिद्धि होती है ।।७८२॥ भावार्थ- हल जोतना आदि सब विधि करके अनाजको बोया जाय फिर उसमें मेघ बरसे तब फसल आती है वैसे आराधनाको जिन्होंने पहले प्राप्त किया है ऐसे अरहतादिकी भक्ति करने पर चार आराधनाको सिद्धि होती है, बीज बोनेरूप जिनेन्द्र भक्ति है और आराधनापूर्वक समाधिमरण फसल रूप है । मिथिला नगरीका राजा पद्मरथ जिनेन्द्र की वंदना करू इस भावरूप भक्ति मात्रसे ही देवेन्द्र पूजित होकर गणवर हुआ था ।।७८३।। राजा पमरथको कथा मगधदेश के अन्तर्गत मिथिलानगरी में परमोपकारी, दयाल और नीतिज्ञ राजा पद्मरथ राज्य करते थे । वे एक दिन शिकार खेलने गये। वहां उनका घोड़ा दौड़ता हुआ कालगुफाके समीप जा पहुँचा । गुफा में सुधर्म भुनिराज विराजमान थे । मुनिराज के शुभ-दर्शनोंसे महाराज पद्म अति प्रसन्न हुए । घोड़े से उतरकर उन्होंने भक्ति भावसे मुनिराजको नमस्कार किया। महाराज ने राजा को धर्मोपदेश दिया जिससे वे अति प्रसन्न हुए और विनीत शब्दों में बोले-गुरुराज ! आपके सदृश और कोई मुनिराज इस पृथ्वी पर है या नहीं ? यदि है तो कहाँ पर है ? मुनिराज बोले-राजन ! इस समय इस देश में साक्षात् १२ वें तीर्थकर वासुपूज्य स्वामी विद्यमान हैं, उनके सामने मैं तो अति नगण्य हूँ। मुनिराजके बचन सुनकर राजाके मनमें भगवान के दर्शन करने की प्रबल इच्छा जागृत हो गई और वह अपने परिजन-पुरजनोंके साथ भगवानके दर्शनार्थ चल पड़ा । उसो समय धन्वन्तरि चरदेव अपने मित्र विश्वानुलोम चर ज्योतिषी देव को धर्म परीक्षाके द्वारा जैनधर्मको श्रद्धा कराने के लिये वहाँ आया, उसने भगवानके दर्शनार्थ जाते हुए राजा पर घोर उपसर्ग किया, किन्तु भक्तिरससे भरा हुआ राजा Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३३ अनुशिष्टि महाधिकार छंद-समानिकारोगमारिचौरवरि भूपभूत पूर्वकाणि । भक्तिराशु दुःखदा निहन्ति सेविताऽखिलानि ॥७८४॥ इति भक्तिः । आराधनापुरोयानं मा स्मैकाग्रमना मुख । शुद्धलेख्यो नमस्कारं संसारक्षयकारकम् ॥७८५॥ एकोप्यहनमस्कारो मृत्युकाले निषेविता । विध्वंसति संसारं भास्थानिय तमश्चयम् ॥७८६॥ संसारं न विना शक्तं नमस्कारेण सूदितु। चतुरंगगुणोपेतं नायकेनेव विद्विषम् ॥७॥७॥ मंत्रियों के द्वारा समझाए जाने पर भी नहीं रुक सका तथा "ॐ नमः यासपज्याय" कहता हुवा बढ़ता ही गया । समवसरण में पहुँचकर राजा ने जन्मजन्मान्तरों के मिथ्याभावोंको नाश करने वाले भगवान वासुपूज्यके दर्शन किये, दीक्षा ली और चार ज्ञानोंसे युक्त होते हुवे गणधर हो गये। __ कथा समाप्त । रोग, मारी, चौर, वैरी, राजा और भूत इनके द्वारा होनेवाले समस्त दुःखों को सेवित की गयी जिनेन्द्र भक्ति शीघ्र ही नष्ट कर देती है ॥७८४॥ इसप्रकार भक्तिका वर्णन किया । एकान मनवाले और शुद्ध है लेश्या जिसकी ऐसे हे क्षपक ! संसारका क्षय करने वाला और आराधनाका पुरोयान-मुख्य वाहन सदृश इस णमोकारको तुम मत छोड़ना ॥७८५॥ मृत्युकाल में एक अर्हन्तका नमस्कार भी सेवन किया जाय तो वह संसारका नाश कर देता है, जैसे सूर्य अंधकार समूहका नाश करता है ।।७८६।। पंच नमस्कारके विना संसारका विच्छेद करना शक्य नहीं है, जैसे हाथी, घोड़ा, रथ और पदाति रूप चतुरंग सेना वाले शत्रु राजाका नाश सेनानायकके विना शक्य नहीं है ॥७८७।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका विद्विषो नायकनेव चतुरंग बलीयसा । संसारस्य विघाताय नमस्कारेण योज्यते ॥७८८।। नमस्कारेण गृह्णाति देवोमाराधनां यतिः । पताकामिव हस्तेन मल्लो निश्चितमानसः ॥७८६।। अज्ञानोऽपिमृतो गोपो नमस्कारपरायणः । चम्पात्रेष्ठिकुले भूत्वा प्रपेदे संयमं परम् ॥७६०।। - बलवान् सेना नायक या राजा द्वारा जिसप्रकार शत्रुका चतुरंग सेन्य नष्ट किया जाता है उसप्रकार संसारका नाश करने के लिये नमस्कार मंत्र प्रयुक्त किया जाता है, नमस्कार द्वारा संसारका घात किया जाता है ।।७८८।। यति नमस्कार द्वारा आराधना रूपी देवीको ग्रहण करता है जैसे निश्चित मनवाला मल्ल हाथ द्वारा पताका को ग्रहण करता है ।।७८६।। एक ग्वाला अज्ञानी था किन्तु नमस्कारमें तत्पर-णमोकार मंत्रके उच्चारण करने में तत्पर होता हुआ मरा पौर चंपानगरीके श्रेष्ठी कुल में उत्पन्न होकर परम संयमको प्राप्त हुआ था ।।७९०।। सुभग ग्वालेको कथा __ अङ्गदेशान्तर्गत चम्पापुरी नगरीका राजा धात्रीवाहन था । उसको रानीका नाम अभयमती था। उसो नगरीमें वृषभदास नामका एक सेठ रहता था, जिसकी स्त्री का नाम जिनमती था । इस सेठके यहाँ सुभग नामका ग्वाला था. जो सेटकी गाय वराया करता था 1 शीतकाल में एक दिन जब वह गायें चराकर घर लौट रहा था तब उसने एक मुनिराजको ध्यानारूढ़ देखा । "इस भोषण शीतमें ये कैसे बचेंगे" इस विकल्प से वह अधीर हो उठा । वह रात्रि भर आग जलाकर मुनिराजको शीत वेदना दूर करता रहा । प्रात: मुनिराज ने अपना मौन विसर्जित किया और धर्मोपदेशके साथ साथ उस ग्वाल बालकको "णमो अरिहंताणं" यह मंत्र भी दिया । वे स्वयं भी यह पद बोलते हा आकाशमार्ग से चले गये । मन्त्र उच्चारणके साथ ही मुनिराजका आकाश में गमन देखकर ग्वालेको इस मंत्र पर अटल श्रद्धा हो गयी और वह निरन्तर भोजनादि सम्पूर्ण क्रियाओं के पूर्व महामन्त्रका उच्चारण करने लगा। एक दिन उसको गायें गंगापार Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २३५ छंद भुजंगप्रयातसमस्तानि दुःखानि विच्छिद्य सद्यः । सुखानि प्रभूतानि साराणि दत्वा ।। मुवा सेव्यमानं विधानेन मोक्षे। विद्याधानि दत्ते नमस्कारमित्रम् ॥७६१॥ इति नमस्कारः। न शक्यते बशोक विना ज्ञानेन भानस । अंकुशेन बिना कुन क्रियते कुजरो वशे ॥७६२॥ स्वभ्यस्तं कुरते ज्ञानं नानानर्थपरं मनः । पुरुषस्य वशे विद्या पिशाचमिव दुर्गहम ॥७६३।। चली गई, उन्हें वापस लाने के लिये यह गंगामें कूदा । कूदते ही उसका पेट एक तीक्ष्ण काष्ठके घुसनेसे फट गया । उस समय उसने महामन्त्र का उच्चारण करके अपने ही सेठ के पुत्र होनेका निदान कर लिया। निदानके फलानुसार वह सेठके यहां पुत्र रूप में उत्पन्न हुवा । बालकका नाम सुदर्शन रखा गया । काल पाकर सेठ सुदर्शनने राज्यवैभवका भोग किया । अन्तमें दीक्षा धारण की और स्त्रियों एवं देवियोंके द्वारा घोर उपसर्गको प्राप्त होते हुए वे मोक्षगामी हुए। कथा समाप्त। प्रसन्नतासे सेवन करनेपर यह नमस्कार मंत्ररूपी मित्र शीघ्र ही समस्त दुःखों का नाशकर सारभूत प्रभूत सुखोंको देकर पुनः मोक्षमें अन्याबाध सुखोंको देता है ।।७६१॥ नमस्कार वर्णन समाप्त। ज्ञानाभ्यास-- ज्ञानके विना मनको वश करना शक्य नहीं है, अंकुशके विना हाथी क्या कहीं पर वशमें किया जाता है ? नहीं किया जाता ! उसप्रकार ज्ञानके बिना मन वश में नहीं किया जाता ।।७६२।। नाना अनर्थोको करने में लगे हुए इस मनको ज्ञान अपने वशमें कर लेता है, जैसे विद्या दुष्ट दुराग्रही पिशाचको पुरुषके वश में कर देतो है ।।७९३।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ । मरणकण्डिका ज्ञानेन शम्यते दुष्टं नित्याभ्यस्तेन मानसम् । मंत्रण शम्यते कि न सुप्रयुक्तेन पन्नगः ॥७६४।। नियम्यते मनोहस्ती मत्तो ज्ञानवरनया। हस्ती धारण्यकः सद्यो भयदायी वरत्रया ॥७६५।। मध्यस्थो न कपिः शक्यः क्षणमायासितु यथा । मनस्तथा भवेन्नव मध्यस्थं विषयेविना ॥७६६॥ सवा रयितव्योऽसी जिनवाक्यवने ततः । रागद्वेषादिकं दोषं करिष्यति ततो न सः ।।७६७ । ज्ञानाभ्यासस्ततो युक्तः क्षयकस्य विशेषतः । विवेध्यं कुर्वतस्तस्य चंद्रकव्यधन यथा ॥७९॥ .-.- -.-. - -- -- --- - - - नित्य अम्यस्त हुए ज्ञानके द्वारा दुष्ट-अशुभ खराब विचार याला मन शांत हो जाता है, ठीक ही है भलोप्रकारसे जिसका प्रयोग किया गया है ऐसे मंत्र द्वारा क्या कृष्ण सर्प शान्त नहीं होता ? होता ही है ॥७६४।। मत्त ऐसा मन रूपी हाथो ज्ञान रूपी सांकलसे बाँधा जाता है अर्थात खोटे विचार करने वाले मनको ज्ञानके द्वारा नियंत्रित करते हैं । जैसे जंगली हाथी भयप्रद कठोर सांकल द्वारा शीघ्र ही बाँधा जाता है ।।७९५।। जिसप्रकार बंदर मध्यस्थ होकर-चुपचाप एक क्षण के लिये भी बैठने में समर्थ नहीं होता है, उसप्रकार मन विषयोंके बिना नहीं रहता है, रूप, रस, शब्द आदि विषयोंमें विचरण करता है, मध्यस्थ नहीं रहता ।।७९६।। अत: चतुर पुरुषको चाहिये कि वह इस मनरूपो बंदरको जिन वाक्य रूपी-शास्त्ररूपी सुंदर वन में रमाता रहे । जिससे वह रागद्वेष आदि दोषों को नहीं करे ।।७६७।। जिसप्रकार लक्ष्यवेधका अभ्यास करनेवाला. पुरुष एक दिन अवश्य ही चन्द्र वेध कर लेता है, उसीप्रकार क्षपकको अपने मन को नित्य ज्ञानाभ्यासमें विशेष रूपसे लगाना चाहिये ।।७९८॥ भावार्थ-धनुर्विद्याको सोखनेवाला प्रतिदिन बाण चलाकर ठीकसे लक्ष्यतक बाण पहुँचे और लक्ष्यको वेध देवे ऐसा अभ्यास करता रहता है । जव भलोप्रकार लक्ष्य Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रनुशिष्टि महाधिकार शुद्धलेश्यस्य यस्यान्ते दीप्यते ज्ञानदीपिका । तस्य नाशभयं नास्ति मोक्षमार्गे जिनोदिते ।।७६६॥ ज्ञानोद्योतो महोथोतो व्याघातो नास्य विद्यते । क्षेत्रं द्योतयते सूर्यः स्वस्थं सर्वमसौ पुनः ८०० [ २३७ वेधका अभ्यास हो जाता है तब वह वीर चन्द्रक वेध करनेमें समर्थ हो जाता है । चन्द्रक वेध महल आदि छतपर एक तीव्र वेग से घूमनेवाला चक्र रहता है उसमें एक विशिष्ट चिह्न रहता है जो कि तीव्र गति से चक्र के साथ घूमता है, उस चन्द्रकके ठीक नोचे जलकु'ड जलसे भरा रहता है उस जलमें ऊपरका फिरता हुआ चक्र दिखायी देता है, धनुविद्यावाला वीर पुरुष जलकुडमें चके चिह्नको देखकर हाथोंसे बाण चलाकर उस लक्ष्यको वेध देता है, इसमें देखना नीचे और बाण चलाना ऊपर होता है ऐसी विशिष्ट बाणकी क्रियाको चन्द्रवेध कहते हैं । इस कठिनतर कार्यको बाण विद्याके सतत् अभ्यास से ही संपन्न किया जाता है। ऐसे ही यह तत् सतत् भरणा करनेवाला मन है इसको एकाग्र करना चन्द्रक वेधसे भी कठिन है क्योंकि चन्द्रक वेष दृश्य है और मन और मनके विचार अदृश्य हैं केवल अनुभव गम्य हैं । विषयोंमें भ्रमण करते हुए इस मनके कारण संसारमें अनंत दुःख उठाने पड़ते हैं । अतः क्षपकको आचार्य उपदेश दे रहे हैं कि तुम्हें इस मनको ज्ञानाभ्यास में लगाकर वश कर लेना चाहिये । शुद्ध लेश्या ( पोत, पद्म, शुक्ल) वाले जिस पुरुष के ( क्षपकके) निकट सदाज्ञानरूपी दीपक प्रज्ज्वलित रहता है, उसके जिनोपदिष्ट मोक्षमार्गमें नष्ट होने का कोई भय नहीं होता है ।।७१९ ॥ भावार्थ - जिनागमका सतत् अभ्यास करनेसे कहीं स्खलन होना, विपरीत श्रद्धा होना, तत्त्वोंमें शक्ति होना, आवरण में अज्ञानता आदि मार्गसे च्युत करनेवाले प्रसंग नहीं आते, जैसे जिसके हाथमें दीपक जल रहा है उसको अंधेरे मार्ग में कहीं गिरना, चोट आना, विपरीत दिशा में चले जाना आदिका प्रसंग नहीं आता । ज्ञानका प्रकाश ही महाप्रकाश है, इसका व्याघात नहीं होता, सूर्य तो स्वल्प क्षेत्रको प्रकाशित करता है, किन्तु ज्ञान सर्व क्षेत्र को प्रकाशित करता है । अर्थात् संपूर्ण farasi ( लोकालोको ) जानता है || ८००ll Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३८ ] मरणकण्डिका ज्ञानं प्रकाशकं वृत्तं गोपर्क साधकं तपः । त्रयाणां कषिता योगे निर्वतिजिनशासने ॥८०१।। करणेन विना ज्ञानं संयमेन बिना तपः । सम्यक्त्वेन विना लिग क्रियमाणमनर्थकम् ॥८.२॥ ज्ञानोद्योतं विना योऽत्र मोक्षमार्गे प्रयास्यति । प्रयास्यति बने दुर्गे सोधोऽन्धतमसे सति ।।८०३॥ संयम श्लोकखंडेन निवार्य मरणं यमः । यदि नीतस्तवा कि न जिनसूत्रेण साध्यते ।।०४॥ - - .. - .. -...-. . . - -.. -..-..- ..जिनशासनमें ज्ञानको प्रकाशक माना है और चारित्रको गोपक (रक्षक) तथा तपको साधक माना है इन तीनोंका योग (एकता) होनेपर मोक्ष होता है ।।८०१॥ विशेषार्थ-जो वस्तुको देखने के लिये सहायक हो. वह-प्रकाशक कहलाता है, ज्ञान हेय उपादेय आदि तत्वोंको साक्षात दिखाता है अतः प्रकाशक है । जो आपत्ति कष्ट हिंसा मादिसे आत्माको रक्षा करता है वह गोपक कहलाता है चारित्र भी पाप अशुभ शुभ भाव आनिसे रक्षा करता है अतः गोपक है, जो कार्य का साधन करे उसे साधक कहते हैं, तप मोक्षमार्गकी सिद्धि करता है, कर्माका नाश करता है अतः साधक है । करण-आचरणके बिना ज्ञान, संयमके बिना तप और सम्यक्त्वके बिना दीक्षा ग्रहण करना व्यर्थ होता है ।।८०२॥ जो पुरुष ज्ञानरूपी प्रकाशके बिना मोक्षमार्गमें गमन करेगा वह उसके समान है जो कि अंध है और रात्रिके अंधकारमें गहन वनमें गमन करता है ।।८०३।। यदि यम नामके मुनि आधे श्लोकका स्मरण उच्चारण स्वाध्याय करते हुए मरणरूप आपत्तिको रोककर उत्तम संयमको भी प्राप्त हुआ था तो जिनसूत्र द्वारा क्या नहीं सिद्ध हो सकता है ? सब सिद्ध हो सकता है ।।८०४।। __ यम मुनिकी कथा उड देशान्तर्गत धर्म नगर में राजा यम राज्य करते थे । उनको रानीका नाम धनवती, पुत्रका नाम गर्दभ और पुत्रीका नाम कोणिका था। किसी ज्योतिषीने कोणिका Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३१ अनुशिष्टि महाधिकार दृढसूर्योऽथ शूलस्थो मातो वेषो महद्धिकः । नमस्कारश्रुताभ्यासं कुर्वाणो भक्तितो मृतः ॥८०५॥ की जन्मपत्रिका देखकर राजासे कहा कि इस कन्याका जिसके साथ विवाह होगा वह संसारका सम्राट होगा। यह बात सुनकर राजाने अन्य क्षुद्र राजाओंकी दृष्टि से बचाने के लिये कन्याको बड़े यत्नसे रखना शुरु कर दिया। एक समय धर्म नगरमें सुधर्माचार्य ५०० मुनिराजोंके साथ आये और नगर के बाहर उद्यानमें ठहर गये । अपनो विद्वत्ताके गर्वसे गर्वित राजा यम समस्त परिजन और पुरजनों के साथ मुनियोंकी निन्दा करता हुआ संघके दर्शनार्थ जा रहा था, किन्तु गुरु निन्दा और ज्ञान मदके कारण मार्ग में ही उसका सम्पूर्ण ज्ञान लोप हो गया और वह महामूर्ख बन गया । इस अनहोनी घटनासे राजा अत्यन्त दुःखो हुआ और उसने पुत्र गर्दभको राज्य भार देकर अपने अन्य ५०० पुत्रोंके साथ दीक्षा लेलो । दीक्षा लेने के बाद भी वे मूर्ख हो रहे अर्थात् पंचनमस्कारका उच्चारण भी वे नहीं कर सकते थे । इस दुःखसे दुखित होकर यम मुनिराज गुरुसे आशा कर तीर्थ यात्राको चल दिये । मार्गमें उन्होंने गर्दभ युक्त रथ, गेंद खेलते हुये बालक और मेंढ़क एवं सर्पके निमित्तसे होने वाली घटनाओंसे प्रेरित होकर तीन खण्डश्लोकों की रचना को। यम मुनिराज, साधु सम्बन्धी प्रतिक्रमण, स्वाध्याय एवं कृति कर्म आदि सभी क्रियाएँ इन तीन खण्ड श्लोकों द्वारा ही किया करते थे, इसीके बलसे उन्हें सात ऋद्धियाँ प्राप्त हो गई थीं। यममुनिकी कथा समाप्त । दृढ़ सूर्य चोर चोरीके अपराधके कारण शूलीपर चढ़ा हुआ था, वहांपर स्थित होकर ही वह भक्तिसे नमस्कार मंत्ररूपी श्रुत के अभ्यासको करता हुआ मरा और स्वर्ग में महद्धिक देव हुआ । ८०५।। हढ़ सूर्य चोरकी कथा हल सूर्य नामका चोर था । वह एक दिन अपनी प्रेमिका वेश्याके कहनेसे राज्यमें चोरी करने गया। वह सीधा राजमहल पहुँचा । भाग्यसे हार उसके हाथ पड़ गया । वह उसे लिये हुए राजमहल से निकला । उसे निकलते ही पहरेदारों ने पकड़ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० मरणकण्डिका मृत्युकाले श्रुतस्कंधः समस्तो द्वादशांगकः । बलिनाशक्तचिसेन यतो ध्यातुं न शक्यते ॥८०६॥ एकत्रापि पदे यत्र संवेगं जिनभाषिते । संयतो भजते तन्न त्यजनीयं ततस्तदा ॥८०७॥ छंद प्रहरण कलिताजिनपतिवचनं भवभयमथनं शशिकरधवलं कृत बुधकमलं । धृतमिति हरये हतमलनिचये वितरति कुशलं विदलति कलिलम् ॥८०८।। ॥ इति ज्ञानम् ॥ लिया । सवेरा होते ही वह राजसभामें पहुंचाया गया। राजाने उसे शूलीकी आज्ञा दी। वह शूली पर चढ़ाया गया । इसी समय धनदत्त नामके एक सेठ दर्शन करनेको जिन मन्दिर जा रहे थे । दृढ़ सूर्यने उनके चेहरे और चालढालसे उन्हें दयाल समझकर उनसे कहा-सेठजी, आप बड़े जिनभक्त और दयावान हैं, इसलिये आपसे प्रार्थना है कि मैं इस समय बड़ा प्यासा हूँ, सो आप कहींसे थोड़ासा जल लाकर मुझे पिलादें तो आपका बड़ा उपकार हो। ___ परोपकारी धनदत्त स्वर्ग मोक्षका सुख देनेवाला पंच नमस्कार मंत्र उसे सिखाकर आप जल लेनेको चला मया । वह जल लेकर वापिस लोटा, इतने में दृढ़ सूर्य मर गया। पर वह मरा नमस्कार मंत्रका ध्यान करते हुए। उसे सेठके इस कहने पर पूर्ण विश्वास हो गया था कि यह विद्या महाफलको देनेवाली है । नमस्कार मंत्र प्रभाव से वह सौधर्म-स्वर्गमें जाकर देव हुआ । सच है-पंच नमस्कार मंत्रके प्रभावसे मनुष्यको क्या प्राप्त नहीं होता? दृढ़सूर्य चोरकी कथा समाप्त । मरणकालमें समर्थ मनवाले बलवान् पुरुष द्वारा भी समस्त द्वादशांग आगमका स्मरण ध्यान करना शक्य नहीं होता । अतः जिनेन्द्र प्रतिपादित उक्त आगममें से जिसमें क्षपकको प्रसन्नता हो संवेगभाव जगे उस एक पदको उस मरण समयमें नहीं छोड़ना चाहिये ।।८०६।।८०७॥ जिनेन्द्र के वचन [आगम] संसारके भयका मथन करनेवाले हैं, चन्द्रमाको किरणोंके समान धवल हैं, बुद्धिमान रूप कमलको विकसित करने वाले हैं, ऐसे वचनको मल Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार यावज्जीवं विमुचस्व यते ! षड्जीवहिंसनम् । हरित मोवितैः ।।८०६॥ यथा न ते प्रियं दुःखं सर्वेषां देहिनां तथा । इति ज्ञात्वा सदारक्ष तान्स्वस्वमिय यत्नतः ||१०|| क्षुधा तृष्णाभिभूतोऽपि विधाय प्राणिपीडनम् । मा कार्षीरपकारं त्वं वपुर्वचनमानसः ॥६११॥ [ २४१ दोषोंका समुदाय अर्थात् राग मत्सर, अहंकार आदि जिसमें नहीं है ऐसे हृदय में धारण करो, वह वचन पापका दलन करता है और पुण्यको देता है । अर्थात् जिनेन्द्र कथित आगमके ज्ञानसे संसारका भय नष्ट होता है क्योंकि आगमाभ्यासी पुरुष सतत् मोक्ष पुरुषार्थ में जागरूक रहते हैं अतः पापका नाश एवं पुण्यका लाभ होता हो है । इसप्रकार ज्ञानाभ्यासकी प्रेरणा आचार्य ने दी है ||८०८ || इसतरह सातसो इक्कावन नंबर के सूत्ररूप लोक में कथित मिथ्यात्वका वमन, सम्यक्त्वकी भावना, भक्ति, नमस्कार और ज्ञानाभ्यास इन पांच विषयोंका विवेचन यहां तक हुआ । आगे सातसौ बावन श्लोक में निर्दिष्ट महाव्रत रक्षा, कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय, तपमें उद्यम इन चारोंका कथन चलेगा। इनमें महाव्रतका बहुत विस्तृत वर्णन है । अहिंसा महाव्रत— हे यते ! तुम यावज्जीव तक षटुकाय जीवोंकी [पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और स कायिक] हिंसाका मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करो ||८०६ || जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे सभी प्राणियों को नहीं है, ऐसा जानकर अपने समान ही उन सबकी यत्न से सदा रक्षा करो ||८१०॥ हे साधो ! तुम क्षुधा तृषासे पीड़ित होनेपर भी काय, वचन, मनसे प्राणियों को पीड़ा देकर अपना अपकार मत करना ।।६११॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] मरणकण्डिका हस्सुकत्वदीनत्वरत्यरत्यादिसंयुतः त्वं भोगपरिभोगार्थ मा कार्षीजीवबाधनम् ॥८१२।। माक्षिकं मक्षिकाभिर्वा स्तोकस्तोकेन संचितं । मा नोनशो जपत्सारं संयमं चेन पूरयः ।।१३।। नृत्वं जाति: कुलं रूपमिद्रियं जोवितं बलम् । श्रयणं ग्रहणं वोधिः संसारे संति दुर्लभाः ॥८१४।। हर्प, उत्सुकता, दोनपना, रति, अरति आदि खोटे भावोंसे युक्त होकर तुम भोग और उपभोगके लिये जोवोंको बाधा मत देना ।१८१२।। __ जैसे मधु मक्खियों द्वारा थोड़ा थोड़ा करके मधुका संचय किया जाता है वैसे है यते ! तुम्हारे द्वारा थोड़ा थोड़ा करके ो संबन सचित किया गया है उस जगत में सारभूत संयमको यदि पूरित पूर्ण न कर सको तो नष्ट मत करना ।।१३।। इस संसार में मनुष्य भव मिलमा दुर्लभ है उसमें उच्च जाति, कुल उससे दुर्लभ है। पून: रूप, इन्द्रियोंको पूर्णता, दीर्घायु, बल, धर्मश्रवण, धर्मग्रहण दुर्लभ है सबसे अधिक दुर्लभ बोधिका मिलना है ॥८१४।। विशेषार्थ-यहाँपर मनुष्यभव, जाति कुल आदिकी उत्तरोत्तर दुर्लभताको बतलाया गया है । चारों गतियोंके जीवों मेसे मनुष्यगतिके जीवोंकी संख्या अल्प है। यह संसारी जीव सबसे अधिक तिर्यंचगतिमें जन्म लेता है। देव नारकीके अपेक्षा भी मनुष्य गति में बहुत कम बार जन्म लेनेका अवसर मिलता है । मनुष्यों में उच्चकुल और उच्चजातिवाले मनुत्र्य अल्पसंख्यक हैं यह प्रत्यक्षसे हो दिखाई देता है। अनेक मनुष्य होनांग अधिकांग अंधे मूक बहिरे भी हैं अत: इन्द्रियोंकी पूर्णता सबको प्राप्त नहीं है। बहुत से जीव माताके गर्भ में ही मर जाते हैं कोई महिना, वर्ष आदि अल्पकालही जोकर मर जाते हैं दीर्घायुका होना कठिन है । पुनश्च बलवान् शरोर होना सुलभ नहीं है । इन सबके होते हुए समोचीन धर्मको सुननेको इच्छा होना और उस धर्मका उपदेश देनेवाले मिलना दुर्लभ है। वर्तमान में करोड़ों अरबों मनुष्योंमें कितने ऐसे मनुष्य हैं जिन्हें जिनधर्म सुनने को मिलता है ? सुनने पर उसे ग्रहण करना अतिदुर्लभ है क्योंकि प्राय: श्रोताओंको प्रवृत्ति होती है कि इस कानसे सुनना और उस कानसे निकाल देना । सुने हुए विषयके अनुसार आचरण अत्यंत कठिन है। सबसे अधिक Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २४३ अनुशिष्टि महाधिकार वैरेकं वृणीष्ध त्वं त्रैलोक्य जीवितव्ययोः । इत्युक्तो जीवितं मुषत्वा अलोक्यं वृणुतेऽत्र कः ॥१५॥ श्रलोक्येन यतो मूल्यं जीवितव्यस्य जायते । जोवजीवितघातोऽतस्त्रलोक्यहननोपमः ॥१६॥ प्राप्यदुर्लभसंतत्या श्रामण्यं सुखसाधकम् । एकाग्रमानसो रक्ष निधानमिव सर्वदा ॥१७॥ अल्पं यथाणुतो नास्ति महवाकाशतो यथा । अहिसाबततो नास्ति तथा परमुस्वतम् ॥१८॥ पर्वतेषु यथा मेरुश्चक्रवर्ती यथा नः । जीवरक्षावत सारं सर्वस्मिन्नपि वते तथा ॥१६॥ दुर्लभ रत्नत्रयकी प्राप्ति रूप बोधि है क्योंकि ऊपर कहे अनुसार कदाचित् धर्मश्रवण और धर्मग्रहण हो गया तो भी विशुद्धि आदि लब्धियोंके बिना सम्यक्त्व आदिकी प्राप्ति नहीं होती है। जीवोंको अपना जीवन कितना प्रिय है यह दिखाते हैं देवों द्वारा प्रसन्न होकर वरदान मिले कि हे मानव ! तुम तीन लोक और अपना जीवन इन दोनों में से एकको मांगो ! इसप्रकार कहने पर जोवनको छोड़कर तीनलोकको कौन स्वीकार करेगा ? कोई भी स्वीकार नहीं करेगा ।।१५।। इससे ज्ञात होता है कि तीनलोकके मूल्यसे अधिक मल्य जोवनका है अत: किसी जोवके जीवनका धात-हिंसा करना तीन लोकके घातके समान है ।।१६।। पूर्वोक्त प्रकार मनुष्यादि पर्याय और उसमें भी दुर्लभ बोधि है जो कि श्रामण्यरूप है, उस दुर्लभ परंपरासे मिले हुए सुखके साधनभूत श्रामण्य-मूनिपने को प्राप्त करके हे क्षपक ! एकानमन होकर निधिके समान इसकी तुम सदा हो रक्षा करना ।।८१७।। जैसे इस विश्व में अणसे छोटा कोई अन्य पदार्थ नहीं हैं और आकाशके समान अन्य कोई महान्-बड़ा पदार्थ नहीं है अर्थात् अणु सबसे छोटा और आकाश सबसे बड़ा है । वैसे ही अहिंसा व्रतसे अन्य कोई बड़ा व्रत नहीं है ।।८१८।। जिस प्रकार पर्वतोंमें सारभूत श्रेष्ठ पर्वत सुमेरु है, मनुष्योंमें महान् चक्रवर्ती है, उसोप्रकार सर्व व्रतोंमें श्रेष्ठत जीवरक्षा व्रत-अहिंसावत है ।।१९।। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] मरएक पिडका पथाऽकाशे स्थितो लोको धरण्यां द्वीपसागराः । सर्ववतानि तिष्ठन्ति जोषत्राणवते तथा ॥२०॥ यथा तिष्ठति चक्रस्य न तुबेन विनारकाः । एतविना न तिष्ठन्ति यथा चक्रस्य नेमयः ॥२१॥ तथा शोलानि तिष्ठन्ति न विना जीवरक्षया । तस्याः शोलानि रक्षार्थ सस्यादीनां यथा वृतिः ॥८२२।। व्रतं शोलं तपो दानं नर्ग्रन्थ्यं नियमो गुणः । सर्वे निरर्थकाः सन्ति कुर्वतो जीवहिंसनम् ॥२३॥ ग्राश्रमाणां मतो गर्भः शास्त्राणां हृदयं परम । पिडं नियमशीलानां समतानामहिंसनम् ॥२४॥ असूनतादिभिदु:खं जीवानां जायते यतः । परिहारस्ततस्तेषां अहिंसाया गुणोऽखिलः ॥२५॥ जैसे यह जगत् आकाशके आधारपर स्थित है, द्वीप सागर पृथिवीके आधार पर स्थित हैं, वैसे अहिंसा-व्रतके आधार पर सर्वव्रत स्थित हैं ।।२०।। जैसे चक्रके तुबीके बिना आरोंको स्थिति नहीं है और आरोंके बिना चक्रके नेमि [धुरा] की स्थिति नहीं होती है। वैसे अहिंसाके बिना शोल नहीं ठहरते । अहिंसाको रक्षाके हेतु ही शोलोंका पालन बताया है। जैसेकि धान्यों की रक्षाके हेतु खेतोंमें बाड़ होती है ।।८२१।।२२।। __ जीवकी हिंसा करनेवालेके व्रत, शील, तप, दान, मुनिपद नियम और गुण ये सब ही निरर्थक हुआ करते हैं ।।८२३॥ यह अहिंसा सब आश्रमोंका गर्भ है, शास्त्रोंका हृदय है और नियम शील तथा समताका पिंड है 11८२४॥ असत्य, चोरी आदि पापोंसे जीवोंको दुःख होता है अत: उनका परिहार त्याग करते हैं, उन पापोंका परिहार करने से जो गुण होता है वह सर्व ही अहिंसाका गुण है ।।८२५ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २४५ गोस्त्रीब्राह्मणबालानां धर्मो यस्त्यहिंसनम् । न तवा परमो धर्मः सर्वजोवदया कथम् ।।८२६॥ सर्वेः सर्वे समं प्राप्ताः संबंधा जंतुभिर्यतः । संबंधिनो निहन्यते ततस्तानिघ्नता ध्र वम् ।।८२७॥ अात्मघातोऽङ्गिनां घातो नया तात्यात्मनो दया । विषकांड इव त्याज्या हिंसातो दुःखभीरुणां ॥२८॥ उद्धगं कुरुते हिंस्रो जीवानां राक्षसो यथा । संबंधिनोऽपि नो तस्य विश्वासं जातु कुर्वते ॥२६॥ इह बंधं वघं रोधं यातनां देशधाटनम् । हिंस्रो बैरमभोग्यत्वं लम्ध्या गच्छति दुर्गतिम् ।।८३०॥ गाय, स्त्री, ब्राह्मण और बालकका घात नहीं करना यदि धर्म माना जाता है तो सर्व ही जीवोंपर दया करना परमधर्म कैसे नहीं माना जायगा ? अर्थात माना ही जायगा ।।८२६।। जब इस संसार में अनादिकालसे परिभ्रमण करते हुए सब जोव सभी जीवों के साथ संबंधको प्राप्त हो चुके हैं तब उन जीवोंको मारनेवाला नियमसे अपने संबंधियों को मारता है ऐसा ही सिद्ध होता है ।।८२७।। पर जीवका घात करना अपना घात कहलाता है और पर जीवको दया अपनी दया कहलाती है । इसलिये हिंसासे होनेवाले दुःखोंसे जो डरते हैं उन्हें विषकांडके समान हिंसाको छोड़ देना चाहिये ।।८२८॥ हिंसक व्यक्ति समस्त जीवोंको उवेग-भय उत्पन्न करता है जैसे राक्षस सबको भय उत्पन्न करता है। हिंसकके ऊपर उसके संबंधी जन भी विश्वास नहीं करते हैं ।।८२६॥ पर जीवोंकी हिंसा करनेवाला व्यक्ति इस लोक में बंधन, वध, कारागह, अनेक शारीरिक, मानसिक यातनाको प्राप्त करके तथा देश निकाला, वैर और जातिसे च्युति को प्राप्तकर अंतमें दुर्गतिमें जाता है ।।८३०।। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] मरणकण्डिका यतो रुष्टः परं हत्वा कालेन म्रियते स्वयम् । हतहंत्रीस्ततो नास्ति विशेषस्तं क्षरणं विना ॥८३१॥ अल्पायुटुबलो रोगी विरूपो विकलेन्द्रियः । दुष्टगंधरसस्पर्को जायतेऽमुत्र निसकः ॥३२॥ एकोऽपि हन्यते येन शरीरोभवकोटिषु । म्रियते मार्यमाणोऽङ्गी विधानविविधरसौ ॥८३३॥ दुर्गतौ यानि दुःखानि दुःसहानि शरीरिणाम् । हिसाफलानि सर्वाणि कथ्यन्ते तानि सूरिभिः ॥८३४॥ हिंसातोऽविरतिहिंसा यदि वा वचिंतनम् । यतः प्रमसतायोगस्ततः प्रागवियोजकः ॥३५॥ षिकी कापिकी प्राणघातिको पारितापिकी । क्रियाधिकरणी चेति पंच हिसाप्रसाधिकाः ॥३६॥ जिसकारण हष्ट-क्रोधी पुरुष परको मारकर यथासमय स्वयं मर जाता है, अतः कहना चाहिये कि मारा गया और मारनेवाला इन दोनोंमें कुछ विशेषता नहीं है, केवल कालकी विशेषता है अर्थात् हिंसकने जिसे मारा वह पहले मरा और खद हिंसक पोछे मरा और कुछ नहीं ।।८३१॥ हिंसक व्यक्ति मरकर मरलोकमें अल्पायु, दुर्बल, रोगो, कुरूप, विकल-इन्द्रिय, नेत्र प्रादिसे विहीन ऐसा होता है तथा खोटे रस, गंध, स्पशंवाला होता है ।।८३२।। जो व्यक्ति एक भी जीवको मारता है तो वह जीव करोड़ों भवोंमें विविध प्रकारोंसे मारा जाकर अंतमें मरणको प्राप्त हो जाता है ॥३३॥ इन संसारी प्राणियोंको नरक आदि दुर्गतियोंमें जो दुःसह दुःख भोगने पड़ते हैं वे सब भी हिंसाके कटक फल हैं ऐसा आचार्योंने कहा है ।।८३४॥ हिंसासे विरत नहीं होना हिंसा है अथवा किसीको मारनेका चितवन करना हिंसा है क्योंकि अविरति आदि प्रमत्तयोग है और प्रमत्तयोगसे प्राणोंका वियोग होता है ।।८३५॥ द्वेषिको त्रिया-पर द्वारा हरण आदिसे जो द्वेष होता है उस द्वष युक्त क्रिया कोषिकी क्रिया कहते हैं । दुष्टतासे शरीरको क्रिया करना कायिकी क्रिया है, प्राण Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार हिंसा त्रिभिश्चतुभिश्च पंचभिः साधयन्ति ताः । क्रिया बंधः समानेन द्वेषिकी कायिकी क्रिये ।।८३७ | जीवाजीवविकल्पेन तत्राधिकरणं द्विधा [ शतमष्टोत्तरं पूर्व द्वितीयं च चतुविधम् ||८३८ || विधिना योगकोपादिसंरंभादिकृतादयः I भिवा भवंति पूर्वस्य गुण्यमानाः परस्परम् ||६३६॥ [ २४७ घातक क्रिया प्राणघातिको क्रिया कहलाती है 1 परको संताप देनेवाली पारितापिकी क्रिया है और हिंसा के उपकरण ग्रहण करना क्रियाधिकरणी क्रिया है, ये पांच हिंसाकी प्रसाधक क्रियायें हैं । । ८३६|| उपर्युक्त द्वेषिकी आदि क्रियायें मन, वचन, काय द्वारा क्रोत्रादि चार कषाय और स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों द्वारा हिंसाको सिद्ध कराती हैं और इस हिंसा से होनेवाला कर्मबंध समान और असमान दो तरहसे होता है । द्वेषिकी ओर कायिकी क्रिया समान है तो समान बंध होगा अन्यथा नहीं ||८३७॥ हिसाके अधिकरण दो हैं जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण, उनमें जीवाधिकरण एक्सो आठ भेदवाला है और दूसरा अजीवाधिकरण चार प्रकारका है || ८३८ || जोवाधिकरणके एकसौ आठ भेद मनोयोग, वचनयोग, काययोग ये तीन योग। क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय, संरंभ, समारंभ, आरंभ ये तोन तथा कृत, कारित और अनुमोदित ये तीन इस प्रकार इनका परस्पर गुणा करनेपर पहले जीवाधिकरणके एकसी आठ भेद हो जाते हैं ||८३९ ।। भावार्थं तीन योग, चार कषायें ये तो प्रसिद्ध हैं कृत- खुद करना, कारितअन्यसे कराना, अनुमोदित करते हुएको भला मानना अनुमोदित है। संरंभ आदि तीन का स्वरूप आगेकी कारिका द्वारा बताते हैं । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] मरणकण्डिका संरंभोऽकथि संकल्पः समारंभो वितापकः । शुद्धबुद्धिभिरारंभः प्राणानां व्यपरोपकः ॥८४०॥ निर्वर्तना सनिक्षेपा संयोगः सनिसर्गकः । विचतुर्वित्रिभेदाः स्युवितीयस्य यथाक्रमम् ॥८४१।। निर्वर्तनोपषिर्देहो दुःप्रयुक्तोऽभिधीयते । निक्षेपः सहसादृष्ट दुईष्टाप्रत्यवेक्षणौ ॥८४२॥ -- - -- शुद्ध बुद्धिवाले गणधर आदिने सरंभ आदिका लक्षण इसप्रकार बताया हैकिसी कार्यका संकल्प करना संरंभ कहलाता है। कार्यके उपकरण एकत्रित करना संमारंभ है जो कि जीबोंके लिये तापकारक है, कार्य प्रारंभ कर देना है आरंभ, यह प्राणोंका घातक रूप है ।।८४०।। दूसरे अजीवाधिकरण के निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग ऐसे मलमें चार भेद हैं, पुनः निर्वर्तनाके दो, निक्षेपके चार, संयोगके दो और निसर्गके तोन भेद हैं ।।८४१।। निर्वर्तनाके दो भेद बताते हैं---शरीर द्वारा खोटी प्रवृत्ति अथवा शरीरको खोटे कार्य में लगाना शरीर निर्वर्तना कहलाती है। उपधिनिर्वर्तना-उपकरणोंका निर्माण, जिनके द्वारा जीवोंको बाधा हो अथवा जिनके निर्माण में हो जोव घात होता है उसे उपधि निर्वर्तना कहते हैं । निक्षपके चार भेद हैं-सहसानिक्षेप-किसी भी वस्तुको शोघ्रता से रखना । अदृष्टनिक्षेप-बिना देखे और शोघ्रतासे बस्तुको रखना । दुईष्टनिक्षेप असावधानीसे वस्तुको रखना । अप्रत्यवेक्षणनिक्षेप बिना देखे सीधे हो वस्तुको रखना ।।८४२।। विशेषार्थ-- निर्वर्तनाके दो भेद हैं शरीर निर्वर्तना, उपधि निर्वर्तना । शरीर की दष्ट कार्य में प्रवृत्ति होना शरीर निर्वर्तना है और उपधि उपकरणों के निर्माण और प्रयोगमें हिंसा होना उपधि निर्वर्तना है । तत्वार्थ सूत्र ग्रन्थमें छठे अध्यायके नौवें सूत्र में आगत निर्वर्तना शब्दके टोकाकार ने मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना ऐसे दो भेद किये हैं । शरीर मन, वचन, श्वासोच्छ्वासको रचना मूलगुण निर्वर्तना है और काष्ठ, मिट्री आदिसे चित्रादिको रचना उत्तर गुण निर्वर्तना है। निक्षेपके चार भेद Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २४९ आहारोपधिभेदेन द्विधा संयोजनं मतम् । चुःसृष्टाः स्वान्तवाफ्काया निसर्गस्त्रिविधो मतः ।।८४३।। और उनके लक्षण इस मरणकडिकामें और तत्त्वार्थसूत्रकी टीका दोनोंमें समान हैं। संयोग तथा निसर्गके भेद इन ग्रंथों में समान पाये जाते हैं । संयोगके दो भेद हैं भक्तपान संयोग और उपकरण संयोग । तत्त्वार्थ सूत्र में आहार और पानीका मिलाना भक्तपान संयोग है और कमंडलु आदिका अन्यके उपकरणसे शोधन करना उपकरण संयोग ऐसा कहा है, भगवतो आराधनाकी टीका इसका अच्छा खलासा किया है कि आहार और पानीफा ऐसा संयोजन कि जिस संयोजनसे सम्मूर्छन जीवोंको उत्पत्ति हो । इसीप्रकार उपकरण संयोगमें उपकरणका परस्परमें मिलाना मात्र नहीं किन्तु इसतरह मिलाना कि जिससे जीव पीड़ा संभव है, जैसे शीत स्थान में रखे हुए कमंडलु आदिको धूप आदिसे तप्त हुई पोछीसे मार्जन करना, पुस्तकका मार्जन करना इत्यादि । इससे शीतस्थान और उष्णस्थानके सम्मूर्च्छन जीवों का व्याघात संभव है । निसर्गके तीन भेद हैं मनको दुष्ट प्रवृत्ति मनःनिसर्ग है, वचनको दुष्ट प्रवृत्ति वचननिसर्ग है और कायको दुष्ट प्रवृत्ति कायनिसर्ग है । तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थ सिद्धि आदि टोकामें निर्वर्तनाके जो भेद और लक्षण किये हैं एवं संयोगके भेद तथा लक्षण किये हैं उनमें यह स्पष्ट नहीं होता कि निर्वर्तना आदि मानवके अधिकरण किस प्रकार हैं। किन्तु इस ग्रंथ में स्पष्ट हो जाता है । आस्रवके आधार या अधिकरण दो हैं, जोवाधिकरण और अजोवाधिकरण, जोव या जीवके भाव एवं क्रियाके आधारसे जो आस्रव होता है वह जीवाधिकरण है और अजीवको क्रियाक आधारसे जो आस्रव हो वह अजोबाधिकरण है । जोषाधिकरणके संरंभ आदि भेद किये वे इसतरह हैं कि पुण्यास्रव और पापास्रब दोनोंके लिये हेतु हैं। किन्तु अजीवाधिकरणके निर्बतना आदि भेद बताये हैं उन भेदोंका वर्णन जो तत्त्वार्थ सूत्रकी टीकामें है उससे स्पष्ट नहीं होता है कि वे आस्रवके आधार किसप्रकार हैं। इस ग्रंथ में निर्वर्तनादिका वर्णन इसतरह है कि ये पापास्रवके आधार किसप्रकार होते हैं यह स्पष्ट हो जाता है । जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण दोनोंमें हिसारूप प्रवृत्ति बतायी है । संरंभ आदि प्रायः हिंसाके हेतुरूप हैं । निर्वर्तना आदि भी इसोरूप है। यह ठीक भी है क्योंकि पापोंमें प्रमुख पाप हिंसा है, अन्य पाप इसमें गर्भित हो सकते हैं। अजीवाधिकरण के निर्वर्तना और निक्षेपके भेद तथा लक्षण बताकर अब संयोग और निसर्गके भेद एवं लक्षण कहते हैं-पाहार और पानका परस्पर इसतरह मिलाना Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] मरणकण्डिका नास्तीन्द्रियसुखं किंचिज्जीवहिसां विना यतः । निरपेक्षस्ततस्तस्मिन्न हिसां पाति पावनीम् ।।८४४॥ कषायकलषो यस्माज्जीवानां कुरुते वधम । निःकषायो यतिस्तस्मादहिंसारक्षणक्षमः ॥८४५।। शयनासननिक्षेप ग्रहचंक्रमणाविषु । सयंत्राप्यप्रमत्तस्य जीवत्राणं व्रतं यतेः ॥४६॥ विवेक नियताचारप्रासुकाहारसेविनि । मनोवाक्काय गुप्तेऽस्ति दयानतमखंडितम् ।।८४७।। प्रारंभेऽङ्गिवध जन्तुरप्रासुकनिषेवणे । प्रवर्ततेऽनुमोदे च शश्वज्ज्ञानरति बिना ॥८४८।। जिससे जीव बाधा हो बह आहार पान संयोग है और पीछी कमंडल पुस्तक आदि उपधि या उपकरणोंका परस्पर में इसतरह मिलाना जिससे जीव बाधा हो वह उपधि संयोग है। निसर्गके तीन भेद हैं मनकी दुष्प्रवृत्ति, वचनकी दुष्प्रवृत्ति और कायकी दुष्प्रवृत्ति ।।८४३।। जिस कारण से इन्द्रिय सुख जोब हिंसाके बिना प्राप्त नहीं होता उस कारण से जो इन्द्रिय सुखकी अपेक्षा नहीं करता वह पवित्र अहिंसाका पालन करता है अर्थात् अहिंसाका पालन करने के लिये इन्द्रियके सुखोंका त्याग आवश्यक है। जिस कारणसे कषायसे कलुषित चित्तवाला व्यक्ति जीवोंका वध करता है उसकारणसे कषाय रहित मुनि अहिंसा के पालने में समर्थ माना जाता है ।।८४४।।८४५॥ शयन, आसन, किसी वस्तुका रखना, उठाना, भ्रमण इत्यादि सभी क्रियाओंमें अप्रमत्त मुनिका जीव रक्षावत है अर्थात इन सब क्रियाओंको करते समय प्रमादको छोड़कर जोवोंको रक्षा करना यही मुनिका व्रत (अहिंसा व्रत) है ।।८४६।। जो मुनि विवेक पूर्वक आचरण करता है प्रासुक आहारका सेवन करता है, मन, वचन, कायको गुप्त-वश में रखता है उस मुनिराज में व्याप्रत अर्थात् अहिंसावत अखंडित माना जाता है ।।८४७।।। ___ यह जीव सतत् ज्ञानमें रति अर्थात् लगन नहीं होनेके कारण प्राणिवधमें, आरंभ में, अप्रामुक आहारमें प्रवृत्ति करता है तथा इनमें प्रवृत्त हुए अन्य जीवोंकी अनुमोदना करता है अर्थात् ज्ञानाभ्यासमें यदि लगन-रुचि नहीं है तो व्यर्थ के आरंभ आदिमें मन जाता है वचनादिसे भी प्रवृत्ति करता है ।।४।। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २५१ मुनिनानिच्छता लोके दुःखानि धृतये सदा । उपयोगो विधातव्यो जोवत्राणवते परः ॥८४६।। छंद-शालिनीअप्येकाहव्यापकेन प्रकृष्टःप्राप्तः पाणः प्रातिहार्य सुरेभ्यः। एकेनव प्राणिरक्षाव्रतेन क्षिप्तः करोऽनेकनकौघमध्ये ॥५०॥ जो इसलोकमें दुःखोंको नहीं चाहता है उस मुनिको धैर्य पूर्वक सदा ही अहिंसा प्रतमें उपयोग लगाना चाहिये ।।८४९।। एक दिनके प्राणिरक्षा तसे चंडाल देवोंके द्वारा प्रातिहार्यको प्राप्त हुआ था और एक ही हिंगामे क्रूर राजपत्र अनेक नकोसे युक्त जलाशयमें फेंका गया था ।।५०॥ यमपाल चंडालकी कथा पोदनपुरमें राजा महाबल रहता था एक बार उसने नंदीश्वर पर्व में आठ दिन के लिये जोव घात एवं मांस निषेध समस्त नगरमें घोषित किया। एक दिन राजाके पुत्रने ही मेंढ़ेको मारकर खा लिया क्योंकि वह मांसलोलपो था। उसके कृत्यका जब राजाको पता चला तब उसने उन्हें कठोर प्राण दण्डको सजा दो। न्यायप्रिय राजाका न्याय सचमुच में सबके लिये समान होता है । कुमारको वध स्थान पर ले जानेको कहा और चंडालको मारनेके लिये बुलाया गया, वह दिन चतुर्दशी तिथिका था, यमपालने एक मुनिसे चतुर्दशीके दिन हिंसा नहीं करनेका नियम लिया था । उसने अपने नियमपर अडिग रहते हुए फांसो देने को मना करते हुए कहा कि मेरा आज अहिंसावत है मैं यह काम नहीं कर सकता । राजाको क्रोध आया । राजाने कहा कि इन दोनोंको ले जाकर शिशुमार तालाबमें पोटली बांधकर फेंक दो । राजाज्ञाके अनुसार कर्मचारियोंने दोनोंकी पृथक् पृथक् पोटली बांधकर तालाब में डाल दी । यमपालके अहिंसावतके प्रभावसे उसको देवोंने जलसे निकालकर सिंहासन पर बिठाया और उसके अहिंसा व्रतमें दृढ़ रहने की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जो पापो मांसलोलुपी राजकुमार था, उसको तो सब मगरमच्छ खा गये । इस प्रकार एक दिनके अहिंसावतसे चंडाल बड़ी भारी विभूति और आदरको प्राप्त हुआ तो जो विधिपूर्वक पूर्ण Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] मरणकण्टिका छंद-बंशस्थपरी सपर्या ददंती निरत्यये निवेशयन्ती अधयाचिते पवे । करोत्यहिंसा जननीव पालिता सुखानि सर्वाणि रजांसि धुन्धती ॥८५१॥ ॥ इति अहिंसा महाव्रतं । मुचासत्यं वचः साधो ! चतुर्भेदमपि विधा । संयमं विवधानोऽपि भाषादोषेण बाध्यते ॥८५२।। प्रथमं तद्वचोऽसत्यं यत् सतः प्रतिषेधनम् । अकाले मरणं नास्ति नसणामिति यद्वचः ।।८५३॥ अहिंसा महानतका पालन करेगा उस मुनिके विषयमें क्या कहना ? वह तो निर्वाणको प्राप्त करता है। अहिंसावतके वर्णनका उपसंहार __ यह अहिंसा रूप जननी श्रेष्ठ पूजाको देती है, बुधजनोंके द्वारा याचित ऐसे अविनाशी पदमें प्रवेश कराती है। पापोंका नाश कराती हुई सर्व सुखोंको करती है इसतरह अहिंसाका पालन करनेपर इच्छित फल मिलते हैं ।।८५१।। सत्य महातका वर्णन हे साधो ! तुम मन, वचन, कायसे चार प्रकारके असत्यका त्याग करो, संयम को धारण करते हुए भी यह जीव भाषादोष-असत्य रूप दोषसे कर्मद्वारा बाधित होता है अर्थात् संयम पालन-अहिंसाका पालन करनेपर भी यदि असत्य बोलता है तो उसके कर्मबंध अवश्य होता है ।। ८५२।। चार प्रकारका असत्य कौन है सो बताते हैं पहला असत्य वह है जो सत् मौजूद वस्तुका निषेध करता है, जैसे मनुष्योंके अकालमें मरण नहीं होता ऐसा कहना प्रथम कोटिका असत्य है क्योंकि आगम (तथा तर्कसे) में मनुष्यके अकाल मरण होनेका कथन है और यह वचन उस सत् का अपलाप करता है अतः असत्य है ।।८५३।। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५३ अनुगिष्टि महाधिकार कलशोऽस्तीति यभूते द्रव्यादीनां चतुष्टयम । अपर्यालोच्य यत्प्रोक्तमभूतोद्भावकं जिनः ॥५४॥ द्वितीयं तद्वचोऽसत्यमभूतोद्भावनं मतम् । अस्त्यकाले सुराणां च मृत्युरित्येवमादि यत् ॥८५५।। तृतीयं तदयोऽसत्यं यवनालोच्य भाषते । पदार्थमन्यजातीयं गौर्वाजीत्येवमादिकम् ॥८५६॥ सावधं गहितं बाक्यमप्रियं च मनोषिभिः । त्रिप्रकारमिति प्रोक्त तुरीयकमसूनृतम् ॥८५७।। ---- --- अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयकी अपेक्षाओंका विचार न करके जो घट पहले था उसको वर्तमानमें है ऐसा कहना अभूत उद्भावक असत्य वचन है ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।।८५४॥ भावार्थ--घट पहले था उसको अभी है ऐसा कहना कालको अपेक्षा किये बिना कहा गया अतः यह असत्य है, अमुक क्षेत्रमें है और अमुक क्षेत्रमें नहीं है इसका कछ विचार नहीं करना विपरोत बोलना क्षेत्रको अपेक्षा असत्य है, इसीप्रकार कृष्ण वर्णका घट है तो भी उसका सर्वथा निषेध करना कि घट है ही नहीं इत्यादि रूपसे पहले असत्यके विकल्प संभव है । अभूतके उद्भावन रूप दूसरा असत्य वह है कि देवोंके अकालमें मरण होता है ऐसा कहना । आगममें देवोंक अकालमरणका निषेध है अतः उसका अस्तित्व कहना असत्य वचन है इसीप्रकार अन्य उदाहरण भी समझना ।।८५५।। पदार्थ अन्य जातिका है और उसको अन्य जातिका कहना तोसरा बिना सोचे कहा गया असत्य है । जैसे बैल है उसे यह घोड़ा है ऐसा कहना इसोतरह अन्य उदाहरणमें लगा लेना ॥८५६।। चौथे असत्यके मनीषियोंने तीन भेद बताये हैं, सावध वचन, गहित वचन और अप्रिय वचन ।।८५७।। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] मराकण्डिका कर्कशं निष्ठुरं हास्यं परुषं पिशुनं वचः । ईर्ष्यापरमसंबद्ध हितं सकलं मतम् ॥८५८॥ प्राणिघातादयो धोषाः प्रवर्तते यतोऽखिलाः ।। सावधं तद्वचो ज्ञेयं विधारंभवर्गकम् ॥५६॥ अवज्ञाकारणं बरं कलहं त्रासवर्द्ध कम । प्रश्रव्यं कटकं ज्ञेयमप्रियं वचनं बुधः ॥८६०॥ रागद्वष मद क्रोध लोभमोहादिसंभवं । वितथं वचनं हेयं संयतेन विशेषतः ॥८६१॥ विपरीतं ततः सत्यं काले कार्ये मितं हितम् । निर्भक्ताविकथं महि तदेव वचनं शृणु ॥८६२।। नरस्य चंदन चंद्रचंद्रकांतमणिर्जलम् । न तथा कुरुते सौख्यं वचनं मधुरं यथा ॥८६३।। कर्कश, निष्टुर, हास्यमिश्रित, परुष, चुगली, ईर्षापरक और असंबद्ध ये सब वचन गहित कहे जाते हैं ॥८५८।। जिस वचनसे प्राणी वध आदि अखिल दोष उत्पन्न होते हैं वह सावध वचन है जो कि षट्काय जीवोंके आरंभका कथन करता है ।।८५६।। अवज्ञाके कारण रूप वचन, वैर, कलह, त्रासको बढ़ानेवाले वचन, नहीं सनने योग्य वचन, कटक वचन ये सब अप्रिय वचन हैं, ऐसा बुद्धिमान् कहते हैं ।।८६०॥ राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोहादिसे उत्पन्न हुआ असत्य, वचन, संयत द्वारा विशेष रूपसे त्याज्य है ।।६।। ऊपर कहे गये सब प्रकारके असत्य वचनसे विपरीत जो सत्य है ऐसे सत्य वचनको यथा समय कार्यवश हित और मितरूप बोलना चाहिये तथा जो भोजन कथा आदि विकथासे रहित है ऐसा वचन हे मुने ! तुम बोलना और ऐसे ही वचनको सुनना ।।८६२।। इस मनुष्यको चंदन, चन्द्रमा और चन्द्रकांत मणिसे उत्पन्न हुआ जल वैसा सुख (शीतलता) नहीं करता है जैसा मधुर वचन सुख शांति करता है, शीतलता प्रदान करता है ।।८६३।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [२५५ स्थकोये परकीये वा धर्मकृत्ये विनश्यति । त्वमपृष्टो वदान्यत्र पृष्ट एव सदा धर' ।।८६४॥ गर्वति ऋषयः सत्यं यविद्या निखिलाः कृताः। तम्लेच्छस्यापि सिध्यन्ति सर्वका सस्यवादिनः ॥६॥ वह्यते न हुताशेन न निमज्जति वारिणि । धन्यः सत्यबलोपेतो नरो नद्यापि नोह्यते ।।८६६।। बश्या भवंति सत्त्येन देवताः प्रणमान्ति च । विमोचयन्ति सत्येन ग्रहतः पांति च स्फुटम् ॥६॥ नरो मासव विश्वास्यः पूज्यो गुरुरिवाखिले । सत्यवावी प्रियो मित्यं स्वबंधुरिव जायते ।।८६८ । भाषमाणो नरः सत्यं लभते प्रोतिमत्तमाम । बुधानंदकरी कीति शशांककरसुदराम् ।६।। - .....-..- ...... ... . हे यते ! स्वकीय या परकीय धर्मकार्यका यदि नाश हो रहा हो तो उस समय तुम बिना पूछे, बिना कहे बोलना और अन्य समयमें पूछने पर ही बोलना ।।८६४।। ऋषीजन सत्य हो बोलते हैं उनके द्वारा निखिल विद्यायें को गयो हैं, वे विद्यायें सत्यवादी म्लेच्छको भी सिद्ध होती हैं अर्थात् यदि मानव म्लेच्छ है किन्तु सत्यभाषी है तो उसको भी विद्या सिद्ध हो जाती है फिर अन्यकी बात क्या? ।।८६५॥ सत्य वचन रूप बल जिसके पास है वह धन्य मनुष्य अग्नि द्वारा नहीं जलता है, पानी में नहीं बता, बड़े बेगसे बहनेवाली नदो उसे बहाके नहीं ले जा सकती।।८६६।। सत्यसे देवता वश हो जाते हैं नमस्कार करते हैं, सत्यके कारण देवता ग्रहपिशाचसे छुड़वा देते हैं और रक्षा करते हैं ।।८६७।। सत्यवादी मनुष्य माताके समान सबके द्वारा विश्वसनीय होता है, गुरुके समान पूज्य होता है और नित्य ही बंधुके समान प्रिय होता है ॥८६८।। सत्य बोलने वाला मनुष्य उत्तम प्रीतिको प्राप्त करता है और विद्वान् को आनंद करनेवाली चन्द्र किरणके समान सुदर कीर्तिको सत्यवादी ही प्राप्त करता है ॥८६॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] मरणकण्डिका गुणानामालयः सत्यं मस्यामामय गाधिः । प्रमाणमस्ति सत्येन जितोऽपि गुणः परः ॥८७०।। संपयंते गुणाः सत्ये संयमो नियमस्तपः । संयतोऽपि मृषावावी जायते तृणतो लघः ॥८७१॥ मुडो जदी शिलो नग्नश्चीवरी जायतां नरः । विडंबनाखिला सास्य वितथं यदि भाषते ।।८७२।। कालकटं यथान्नस्य यौवनस्य घथा जरा । गुणानां विद्धि सर्वेषां नाशकं विप्तथं तथा 11८७३॥ स्वमातुरप्यविश्वास्यो मृषाभाषणलालमः । शेषाणां किमु लोकानां न शरिव जायते ॥८७४॥ एकनासत्यघाक्येन सत्यं बलपि हन्यते । सर्वत्र जायते नित्यं शंकितोऽसत्यभाषकः ॥८७५॥ - - -- . सत्य गुणोंका आलय है, जैसे मछलियोंका पालय-स्थान समुद्र है, अन्य गुणोंसे रहित होनेपर भी एक सत्यसे मनुष्य प्रमाणभूत माना जाता है ।।८७०॥ सत्य के होनेपर सर्वगुण प्राप्त होते हैं संयम, नियम और तपकी सिद्धि होती है, संयत भी यदि मुषावादी है तो वह तृणसे हीन हो जाता है ||८७१।। यह मनुष्य चाहे मुडन कर लेवे, जटा धारण करे, नग्न हो जाय, गेरूआ आदि वस्त्र पहने, किन्तु यदि वह असत्य बोलता है तो उसका मुंडन आदि सब ही कार्य विडंबना मात्र हो जाता है ।।८७२।। जैसे अन्नका नाशक कालकूट विष है, यौवनकी नाशक जरा है, वैसे सर्व गुणों का नाशक असत्य भाषण है ।।८७३।। झूठ बोलनेकी जिसकी आदत है ऐसे मनष्यपर स्वयंकी माता भी विश्वास नहीं करतो तो फिर शेष लोगोंका वह शत्रुके समान क्या नहीं होगा ? होगा हो ।1८७४।। एक असत्य वाक्य द्वारा बहुतसा सत्य भी नष्ट हो जाता है। असत्यभाषी मानव सर्वत्र सदा शंकित बना रहता है अर्थात असत्यवादीको सदा शंका रहती है कि मेरा असत्य प्रकट न हो जाय ।।८७५।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार प्रयो भयं वैश्मकीतिर्मरणं कलिः । विवादो मत्सरः शोकः सर्वेऽसत्यस्य बांधवाः ||८७६ ॥ श्रायास रसना छेद सर्वस्वहरणादयः 1 सत्येन लभ्यंते परन नरकावनिः ।।८७७।। कलिलस्यास्रवद्वारं वितथं कथितं जिनः । निष्पापो हि वसुस्तेन श्रितेन नरकं गतः ॥८७८ [ २५७ अविश्वास, भय, बेर, अकोत्ति, मरण, विवाद, विषाद, मत्सर और शोक ये सब असत्यके बंधुजन हैं ।। ६७६ ।। असत्य बोलनेसे इस लोक में महाभयानक कष्ट जिह्वा छेद और सर्वस्व हरण हो जाता है और परलोकमें नरकगतिकी प्राप्ति होती है ||८७७|| असत्य पापोंका अस्त्र द्वार है ऐसा जिनेन्द्र देखने कहा है, क्योंकि इसका आश्रय लेनेसे निष्पाप वसु राजा नरकमें गया ||८७८|| राजा वसुकी कथा स्वस्तिकावती नगरीमें राजा विश्वावसु राज्य करता था उसके पुत्रका नाम वसु था । वसु राजपुत्र एक ब्राह्मण पुत्र नारद ये क्षीरकदंब उपाध्यायके पास पढ़े थे, उपाध्यायका पुत्र पर्वत भी उन दोनोंके साथ पढ़ा, समय पर क्षीरकदंबने दीक्षा ली, राजा विश्वावसु ने भी दोक्षा ली। अब वसु राजा बन गया। एक दिन पर्वत और नारद में "अर्जेर्यष्टव्यं" इस शास्त्र वाक्य पर विवाद हुआ, पापी पर्वतने इस वाक्यका अर्थ बकरोंसे हवन करना अर्थात् पशुयज्ञ करना ऐसा किया और दयालु नारदने पुराने धान्यों से हवन करना ऐसा किया । नारदका अर्थ करना बिलकुल सत्य था । पर्वतका कहना झूठा था । दोनों विवाद करते हुए राजा वसुके पास पहुँचे दोनोंने अपनी बात रखो । यद्यपि राजा जान रहा था कि नारदका कहना सत्य है तो भी उसने पर्वतकी पक्ष ली क्योंकि वह पर्वतकी मातासे वचनबद्ध हुआ था कि मैं पर्वतको पक्षमें बोलूँगा । जब राजसिंहासन पर बैठे हुए पर्वतको पक्ष लेकर वसु झूठ बोलता है तो उस महापापरूप असत्य भाषणसे उसका सिंहासन पृथ्वी में धस गया और वसु वहाँपर घुटकर तत्काल मरा और नरक में चला गया। इसतरह असत्य के कारण घोर यातना वसुको भोगनी पड़ी। 1 वसुराजाको कथा समाप्त | Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] मरण कण्डिका प्रसत्यवादिनो दोषाः परत्रापि भवन्ति ते । मुंचतोऽपि प्रयत्नेन मषाभाषादिदूषणम् ॥७॥ ये संति वचनेऽलोके दोषा दुःखविधायिनः । त एव कथिता जैनः सकलाः कर्कशाविकाः ॥८८०॥ असत्यमोचिनो दोषा मुचंति सकला इमे ।। तद्विपक्षा गुणाः सर्वे लभ्यन्ते बुधपूजिताः ॥८८१।। छंद :भवभयविचयनवितथविमोची निरुपमसुखकरजिनमतरोची । परमं स्वयति कलिलमशेषं चशयति मुनिनुतवचनविशेषम् ।।८८२॥ इति सत्यमहावतं । इस लोक में जो असत्यवादी हैं उसके अविश्वास आदि जो दोष बताये हैं वे परलोक में भी होते हैं भले ही वहाँ परलोकमें असत्य आदि को प्रयत्नसे छोड़ने वाला हो अर्थात् यहां असत्य भाषण किया और परलोकमें नहीं किया तो भी उसपर आरोप होता है कि इसने झूठ बोला था, इसपर कोई विश्वास नहीं करता था इत्यादि ११८७९।। असत्य वचनमें जो दुःखदायी दोष होते हैं वे ही सब दोष कर्कश, कलह आदि रूप वचनों में होते हैं ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है ।।८८०॥ जो असत्यका त्यागी है उसके पूर्वोक्त अविश्वास आदि सब दोष छूट जाते हैं और उन दोषोंसे विपरीत विश्वासपात्र होना, विरोध नहीं होना, सर्वप्रिय होना इत्यादि ज्ञानी पुरुषोंके द्वारा पूजित रूप सर्वगुण प्राप्त होते हैं ।।८८१।। संसारके भय समूहका कारण जो असत्य है उस असत्यका जो त्यागी है और निरुपम सुखकर ऐसे जिनमतको जो रुचि करता है ऐसा वह महापुरुष-मुनि सर्व पापोंको दूर करता है अथवा पापको नष्ट करने के लिये बह दव-अग्नि के समान है, तथा मुनि द्वारा स्तुत्य ऐसे वचन विशेषको वह सत्यवादी बश करता है ।।८८२।। सत्य महावतका वर्णन समाप्त । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५६ अनुशिष्टि महाधिकार बह्वल्पं च परद्रव्यमहत्तं मा ग्रहीस्त्रिया । प्रतस्य ध्वंसने शक्त' बंतानामपि शोषनम् ॥८५३॥ दूरस्थितं फलं रक्त यथा तृप्तोऽपि मर्कटः । ग्रहीतु धावते एष्ट्वा भूयो यद्यपि मोक्ष्यति ।।८८४।। सथा निरीक्षते द्रव्यं यद्यत्तत्तज्जिघृक्षति । जीवस्त्रिलोकलामेऽपि लोभग्नस्तो न तृष्यति ॥८॥ यथा विवर्तते वातः क्षणेन प्रथते यथा । प्रयते क्षणतो लोभस्तथा मंदोऽपि देहिनः ॥८८६॥ प्रवद्ध च सातो सोने कृयाकृत्यविचारकः । स्वस्य मृत्युमजानानः साहसं कुरुते परं ॥७॥ सर्वोप्यथ हृते द्रव्ये पुरुषो गतचेतनः । शक्तिविद्ध इव स्थान्ते सदा दुःखायते तराम् ।।८।। हे साधो ! तुम बहुत हो या अल्प किसी भी परद्रव्यको मन, वचन, कायसे बिना दिये ग्रहण मत करना, दांतोंका शोषन करने वालो वस्तु भी यदि बिना दिये ली जाय तो वह व्रतका नाश करने में समर्थ है ।।८८३।। जैसे तृप्त हुआ भी बंदर है किन्तु वह दूर में स्थित लाल फलको देखकर ग्रहण करनेके लिये दौड़ता है भले ही पोछे छोड़ देगा । वैसे लोभ ग्रस्त जीव जो जो वस्तु देखता है उसी उसीको ग्रहण करना चाहता है, वह तो तीन लोकका लाभ होनेपर भी तृप्त नहीं होता है ।।८८४८८५! जैसे वायु क्षणमें बढ़ती है विस्तीर्ण होती है वैसे जीवका मंदभी लोभ क्षण मात्र में बढ़ता है तीन होता है !।८८६।। इसतरह लोभके वृद्धिंगत हो जानेपर कृत्य और अकृत्यको विचारने वाला पुरुष अपनो मृत्युको नहीं जानता हुआ अति साहस करता है ।।८८७।। द्रव्य के चुराये जानेपर सर्व ही पुरुष मृत्यु जसो अवस्थाको प्राप्त होता है, वह सदा मन में अत्यंत दुःखका वेदन करता है, जैसे शक्ति नामके शस्त्रसे विद्ध हुआ पुरुष अत्यंत दुःखी होता है ।।८८८॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ] मरणकण्डिका द्रविणे ग्रहिलीभूय म्रियतेऽथ हृते नरः । हाकारमुखरः क्षिप्रं नृणामों हि जीवितम् ६॥ विशंसि पर्वसेऽम्भोधौ युद्धदुर्गवनाविषु । त्यजति प्रध्यलोभेन जीवितं बांधवानपि ॥६॥ विद्यमाने धने लोका जीवन्ति सहबंधुभिः । तस्मिन्नपहृते तेषां सर्वेषां जीवितं हृतम् ॥८६१॥ न विश्वासो दया लज्जा संति चौरस्य मानसे । नाकृत्यं धनलुब्धस्य तस्य किचन विद्यते ॥२॥ अपरारे कृतेऽपाल पो कोणि जापते । बंधवोऽपि न चौरस्य पक्षे संति कदाचन ॥१३॥ धन के चूराये जाने पर यह मनुष्य पागल होकर हा हा कार करता हुआ शीघ्र ही मर जाता है, क्योंकि मनुष्योंका जीवन धन है ।।८८६।। घनके लोभसे ये संसारी प्राणी पर्वत पर चढ़ जाते हैं, समुद्र में प्रवेश करते हैं, युद्ध भूमि, दुर्ग, वनादिमें प्रवेश कर जाते हैं और जीवन तथा बंधुजनोंको भी छोड़ देते हैं ।।८६०) परके धन चुरानेपर इसप्रकार वह जीव कष्ट उठाता है जिसका कि धन चोरोमें गया है, इसतरह आचार्य देव चोरीसे होनेवाली महान् हानिको दिखला रहे हैं । आगे और भी कहते हैं कि यह संसारी लोक धन होनेपर बंधुजनोंके साथ सुखपूर्वक जीवित रहते हैं, ऐसे उस धनके अपहरण करनेपर सभी बंधुजनोंका जीवन ही अपहरण किया ऐसा समझना चाहिये अर्थात् जिसने किसीको चोरी को उसने उसका और उसके समस्त परिवारके जीवन का नाश किया ऐसा समझना चाहिये ।।८९१।। चोरके मनमें विश्वास दया और लज्जा नहीं रहती है, उस धन लोभीके तो कोई अकार्य ही नहीं रहता जिसको कि वह नहीं करे ।।८९२।। यदि कोई हिंसा आदि अन्य अपराध करे तो उसके पक्ष में लोक कदाचित हो जाते हैं किन्तु चोरके पक्षमें बांधव भी नहीं होते हैं ।।८९३।। अन्य कोई दोष करने पर Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २६१ वितरंति जनाः स्थानं दोऽन्यत्र कृते सति । स्तेये पुनर्न मातापि पुष्पातकदायिनि ॥८६४॥ व्रध्यापहरणं द्वारं पापस्य परमिष्यते । सर्वेभ्यः पापकारिभ्यः पापीयांस्तस्करो मतः ।।८६५।। प्राश्रयं स्वजनं मित्रं दुराचारो मलिम्लुचः । सर्व पातयते दोघे दुष्षमे दुर्यशस्यपि ॥८६६।। षधं बंधं भयं रोचं सर्वस्वहरणं मतिम् । विषादं यातना लोके तस्करो लभते स्वयम् ।।८६७॥ शंकमानमना निद्रां तस्करो जातु नाश्नुते । कुरंग इव वित्रस्तो वीक्षते सकला दिशः ॥१९॥ प्राकर्ण्य भूषिकस्यापि शब्दं शंकित मानसः । धावते सर्वतः सद्यः स्खलन्स्वमरणाकुलः ||६|| -- -. . . - - --. -.... -... ..लोक उस सदोष को रहने हेतु स्थान देते हैं किन्तु अत्यंत पापदायक चोरीके करनेपर उस चोरको माता भी रहने के लिये स्थान नहीं देती है ।।८९४॥ __ पापका सर्वोत्कृष्ट द्वार पराये धनको चुराना है । समस्त पापी जीवों में अधिक पापी चोर है ऐसा माना गया है ।।८६५।। चौरका दुराचार अर्थात् चोरो रूप जो पाप है वह उसके सर्व हो आश्रयभत स्वजनको और मित्रको भी भयंकर दोष-कष्ट और अपयशमें डाल देता है ।।८६६ इस लोक में चोर स्वयं बघ, बंध, भय, रोध, सर्वस्वहरण, मरण, विषाद और यातनाको प्राप्त होता है ।।८९७॥ चोर शंकित मनयुक्त हुआ कदाचित् भी निद्राको नहीं ले पाता । वह हिरणके समान भयभीत हुआ संपूर्ण दिशाओंको देखता रहता है (कि कहींसे कोई पकड़नेको न आजाय) ।।१८।। चोर सदा ही शंकित मनयुक्त हुआ चूहेके शब्दको सुनकर तत्काल मरणको शंकासे आकुल हो स्खलित हुआ चारों तरफ दौड़ने लग जाता है ॥८९९॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] मरणकण्डिका प्रवत्ते तृणमात्रेऽपि गृहोते संयतोऽपि ना । अप्रत्येयो यथा स्तेनस्तुणतो जायते लघुः ||६००॥ विधाय पुरुषः स्तेयं नारकी वसति गतः । सहते वेदनास्तत्र चिरकालं सुदुःसहाः ॥६०१।। लभते वारुणं दुःखं स्तेनस्तिर्यग्गतावपि । प्राप्नोति प्रायशः पापो योनों नीचामसौ चिरम् ॥६०२।। नुस्वेऽहता हृता वार्थाः पलायतेऽखिलाः स्वयम् । न चीयंते प्रयत्नेऽपि स्वयं यास्यति वा ततः ॥६०३॥ श्रीभूतिमहतीं पु पितानाम् । परद्रव्यरतो दीनः प्रपेदे वीर्घसंसतिम् ॥६०४॥ कोई संयमी मुनि है और वह बिना दिये तिनके मात्रको भी ग्रहण करता है तो चोरके समान अविश्वस्त हो जाता है तथा तृणसे भी हीन हो जाता है ॥१०॥ जो पुरुष चोरी करता है वह नरक में जाता है और वापर चिरकाल तक घोर वेदनाको सहता है ॥६०१॥ चोर तियंचतिमें भी दारुण दुःख उठाता है । यह पापी प्रायः नीच योनिको ही चिरकाल तक प्राप्त करता है ।।९०२।। चौर्य पाप करनेवाला व्यक्ति कदाचित् मरकर पुनः मनुष्य भी हो जाय अथवा अनेक गति में भ्रमण कर कदाचित् पुनः मनुष्य हो जाय तो उसका धन चोरी में चला जाता है अथवा बिना चोरीके संपूर्ण धन अपने आप नष्ट हो जाता है। कितना भी प्रयत्न करो किन्तु उसका धन बढ़ता नहीं, जो है वह स्वयं चला जाता है ।।१०३।। पराये घनमें आसक्त हुआ श्रीभूति नामका ब्राह्मण नगरमें बड़ी भारी विडंबना तिरस्कारको प्राप्त करके दीन हुमा अंतमें दीर्घ संसारको प्राप्त हुआ अर्थात् बहुत कालतक संसारमें भ्रमण करता रहा ।।६०४॥ श्रोभूतिको कथाभरतक्षेत्रके सिंहपुर नगरमें सिंहसेन राजा रहता था, उसकी रानीका नाम रामदसा और पुरोहितका नाम श्रीभूति था। श्रीभूति जनेऊमें कैंची बांधकर घुमा Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६३ अनुशिष्टि महाधिकार एते दोषा न जाने पर निगरले । तविपक्षा गुणाः सन्ति सुबरा दत्त भोजिनः ।।६०५।। इंद्रराज गृहस्वामि देवतासमर्मिभिः । वितोणं विधिना ग्राह्य रत्नत्रितयवर्धकम् ॥६०६॥ - - - करता और कहता था कि यदि मैं असत्य बोल जाऊँ तो इस कैचोसे अपनी जीभ काट दूगा । इससे उसकी सत्यवादीसे सत्यघोष है ऐसा नाम प्रसिद्ध हुआ । एक दिन एक समुद्रदत्त सेठ उसके पास बहुमूल्य पांच रत्न रखकर कमाने के लिये विदेश गया, कमाकर जहाज में बैठकर आरहा था कि जहाज डब गया, किसी लकड़ीके सहारे सेठ किनारे पहुँचा । वह अपने रत्न लेनेके लिये सत्यघोषके पास गया किन्तु उसने कहा तुम्हारे कोई भो रत्न मेरे पास नहीं है, इसप्रकार कहकर श्रीभूति-सत्यघोषने बिचारेको घरसे निकाल दिया । वह रोता हुआ नगरमें घूमने लगा, वह एक बात कहता जाता था कि इस सत्यघोषने मेरे पांच रत्न लिये हैं, वह प्रतिदिन राजमहलके पासके वृक्षपर बैठकर यही बात कहता । एक समय रानी रामदत्ताने सोचा कि यह पागल नहीं है, रोज एक ही बात करता है, इसकी परीक्षा करनी चाहिये, रामदत्ताने सत्यघोषको जुआमें हराकर उसकी जनेऊ घर में भेजकर चुपकेसे रत्न मंगा लिये। राजाने उनको और रत्नोंमें मिलाकर समुद्रदत्त को दिखाये, उसने अपने हो रत्न लिये उससे राजाको निश्चय हुआ कि यह सत्य कह रहा है । फिर राजाको श्रीभूति पर बड़ा क्रोध आया। उसके लिये तीन थाल गोबर खाना, पहलवानोंके तीन मुक्के खाना या समस्त धन देना ये तीन दण्डोंमेंसे एक दण्ड स्वीकार करने को कहा । वह पापो पहलवानके मुक्के खाते हुए मर गया और नरकमें चला गया । कथा समाप्त । दत्तभोजी अर्थात् श्रावक द्वारा दिये हुए भोजनको करनेवाले मुनिके परद्रव्य का त्याग कर देनेसे ऊपर कहे सर्व दोष नहीं होते हैं किन्तु उन दोषोंके विपक्षी जो गुण हैं वे सब प्राप्त होते हैं ।।१०।। साधुओंको इन्द्र, राजा, गृहस्थ, देवता और साधर्मीजनोंके द्वारा विधिपूर्वक दिया गया एवं रत्नत्रयको वृद्धि करनेवाला ऐसा पदार्थ ही ग्राह्य बताया है ॥९०६।। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] मरणकण्डिका छेद-बंशस्थविमुचते यः परवित्तमंजसा निरीक्ष्यमाणं सहरा मृदा सदा । अनन्यसाधारणमूतिभूषितः स याति निर्वाणमपास्तकल्मषः ।।६०७।। इति अचौर्य महावतं । अब्रह्म दशधा त्यक्त्वा रामावैराग्यपंचके । निष्ट सर चाहि लचर्यमनारतम् ॥६०८॥ निरस्तांगांगरागस्य स्ववेहेऽपि विरागिणः । जोवे ब्रह्मरिण या चर्या ब्रह्मचर्य तदीयंते ॥१०॥ गद्य-स्त्रीरूपाचभिलाषस्तिमोक्षणवृष्याहार सेवनतत्संसक्तद्रव्यानुरागतद्वारांगनिरीक्षण सस्कार संस्कारावरतातीतरतस्मरणानागताभिलषणेष्टविषयनिषेवणस्वरूपं देशविधमब्रह्म मंतव्यम् ।।११०॥ - - ---- --. . -..- -. - . -- जो पुरुष परके धनको मिट्टी के समान देखता हुआ सदा ही भलीप्रकारसे छोड़ देता है वह अन्यमें नहीं पाये जाने वाली ऐसी विभूतिसे भूषित हुआ तथा पाप जिसका नष्ट हो चुका है ऐसा होकर निर्वाणको जाता है अर्थात् अचौयं व्रतके प्रभावसे मुक्तिको प्राप्त करता है ।।६०७। इति चौर्य वर्णन समाप्त । अथ ब्रह्मचर्य वर्णन है क्षपक ! तुम दशप्रकारके अब्रह्मका त्याग करके पांच प्रकारके स्त्री संबंधी वैराग्य में मन को लगाकर सतत् ब्रह्मचर्य व्रतकी रक्षा करो ।।६०८।। अपने और स्त्रीके शरीरके रागको जिसने नष्ट कर दिया है ऐसे विरागी मुनि के अपने आत्मारूप ब्रह्म में जो चर्या होती है उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं ॥६०६।। अब दस प्रकारका अब्रह्म गद्यसे बताते हैं-स्त्रीके मनोहर रूप देखनेको अभिलाषा होना यह अब्रह्मका पहला भेद है, बस्तिमोक्षण-लिंगमें विकार होना, वृष्याहार सेवन, गरिष्ठ आहारका सेवन, स्त्रोके द्वारा संसक्त हुए शय्या आदिमें Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २६५ आपाते मधुरं रम्यमब्रह्म वशधाप्यवः । बिपाके कटुकं ज्ञेयं किपाकमिव सर्वदा ॥११॥ दोषाः कामस्य नारीणामाशौचं वलसंपतिः।। संगदोषाश्च कुर्वति स्त्रीवैराग्यं तपस्विनः ।।१२।। दृश्यते भवने दोषा यावन्तो दुःखदायिनः । पुरुषस्य क्रियन्ते ते सर्वे मधुनसंजया ॥१३॥ छंद-मोटकध्यायति शोचति सीवति रोदिति, वल्गति भ्राम्यति नृत्यति गायति । क्लाम्यति माद्यति रुष्यति तुष्पति, जल्पति कामवशो विमना बहु ।।११४। __ - - - - अनुराग होना, स्त्रीके सुन्दर अंगोंका निरीक्षण, स्त्री का सत्कार करना, स्त्रोका वस्त्रादिसे संस्कार करने में आदरभाष होना, प्रतीत में भोगे हुएका स्मरण, आगामीकालमें भोगनेकी अभिलाषा और अपनेको इष्ट लगनेवाले विषयोंका सेवन करना ये दस अब्रह्म हैं ॥९१०।। ये दस ही प्रकारका अब्रह्म तत्काल तो मधुर और रम्य मालूम होता है किन्तु उदयकालमें सर्वदा कटक फलदायी होता है, जैसे किपाक फल तत्काल मधुर लगता है किन्तु विपाकमें अत्यंत कटक-प्राणोंका घातक होता है ।।६११॥ कामके दोष, स्त्रियोंके दोष, शरीरके दोष, वृद्ध संगति और संग-संगतिके दोष इसप्रकार ये पांच बातें मुनिको स्त्रियोंसे वैराग्य भावको कराने वाली हैं ।।९१२।। आगे सर्वप्रथम कामके दोषोंका विस्तार पूर्वक वर्णन करते हैं इस संसारमें जितने दुःखदायी दोष दिखायो देते हैं वे सब पुरुषके मैथुन संज्ञासे किये जाते हैं ॥६१३।। कामके वश में हुआ विक्षिप्त पुरुष अपनी इष्ट स्त्री का ध्यान करता है, वह न मिले तो शोच करता है, पोड़ित होता है, रोता है, बकता है, भ्रमित होता है, नाचता है, गाता है, खिन्न होता है, मत्त होता है, कुपित होता है, कभो मिलनेको आशा हो जाय तो संतुष्ट होता है, व्यर्थ ही बोलने लगता है तथा उसको कभी पसीना आता है, Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ मरण कण्डिका छंद-स्रग्विणीस्विद्यते खिद्यते तप्यते मुह्यते, याचते सेवते मोक्ते धावते । मुंचते गौरवं गाहते लाघवं, कि न मयों विधत्तं मनोजातुरः ।।६१५॥ पासने शयने स्थाने मगरे भवने वने । स्वजनेऽन्यजने कामी रमते नास्तचेतनः ॥१६॥ न रात्रौ न दिया शेते न भुक्ते न सुखायते । दष्टः कामभुजंगेन न जानाति हिताहिते ॥६१७॥ कामाकुलितचित्तस्य मुहर्ता वत्सरायते । सर्वदोत्कंठमानस्य भवन काननायते ॥१८॥ हस्तन्यस्तकपोलोऽसौ दोनो ध्यायति संततम् । प्रस्विधति तुषारेऽपि कंपते कारणं विना ॥१६॥ खेदित होता है, संताप करता है, मोहित होता है, याचना करता है, सेवा करता है, इष्ट स्त्रीके दिखनेपर हर्षित होता है, दौड़ता है, अपने जाति कुलादिके गौरवको छोड़ देता है, हीनताको प्राप्त होता है कामातुर हुआ मानव क्या-क्या नहीं करता ? सब कुछ अयोग्य कर डालता है ॥६१४६६१५।। कामके द्वारा नष्ट हो गयी चेतना जिसकी ऐसा कामी पुरुष आसनमें, शयन में, स्थानमें, नगरमें, भवनमें, वन में, स्वजनमें और परजन में कहीं भी नहीं रमता है ।।९१६।। न रातमें सोता है और न दिन में भोजन करता है न कहीं सुखका अनुभव करता है, कामरूपी सर्प द्वारा काटा गया पुरुष हित अहितको नहीं जानता है । काम वासनासे आकुलित चित्तवाले मनुष्यको एक मुहर्तकाल वर्ष जैसा लगता है सर्वदा उत्कंठित मनवाले उस पुरुषको सुदर महल बनके समान प्रतीत होता है ।।६१७।६१८।। यह कामी पुरुष सतत् अपनी इष्ट स्त्रीके हाथको कोलमें रखकर ध्यान करता है, उसे तुषार पड़नेपर भी अर्थात् शीतके समय भी पसीना आने लगता है और वह कारणके विना ही कांपने लगता है ।।९१९।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६७ अनुशिष्टि महाधिकार परत्यग्निशिखाजालेवद्भिरनिवारितः । सोन्तविदह्यते पीतस्तप्तस्ताम्ररिव ॥२०॥ मंदायते मतिर्याति सद्यो वचनकौशलं । मयनेन ज्वरेणेव बाधितस्य वितापिना ॥२१॥ काम्यमानं जनं कामी यवा न लभते कुधीः । मुमूर्षति तदोद्विग्नो नगप्रपतनादिभिः ॥२२॥ संकल्पडिक जातेन विषयच्छिद्र वासिना । राग विजिह्वन वृद्धचितामहाकुधा ॥२३॥ दष्टकामभुजगेन लज्जानिर्मोकमोचिना । वर्षवंष्ट्राकरालेन रतिवक्त्रेण नश्यति ॥२४॥ कामी पुरुष जिसका निवारण अशक्य है ऐसे जाज्वल्यमान अरतिरूप अग्निके शिखाजाल द्वारा अन्तरमें जलता रहता है, मानो उसने तपाया हुआ तांबेका पिघला हुआ रस ही पो लिया हो । अर्थात् जैसे तांबेके पिघले खोलते हुए रसको पीनेसे अंदर में भयंकर दाह होती है वैसे कामरूपी अग्नि द्वारा पुरुषको अंदरमें भयंकर दाह होती है ।।२०।। कामीकी बुद्धि मंद हो जाती है, तत्काल ही बचन कौशल नष्ट हो जाता है, संतापकारक मदनके ज्वरसे पीड़ित हुए पुरुषको यह स्थिति होती है ॥४२१।। यह खोटी बुद्धिवाला कामी जब इच्छित स्त्री जनको प्राप्त नहीं कर पाता तब दुःखी हुआ पर्वतसे गिरना आदि क्रिया द्वारा मरना चाहता है ।।६२२।। जो संकल्प रूप अंडेसे पैदा हुआ है, विषयरूप वामीमें बिल में रहता है और बढती हई चितासे जो महाक्रोधित है ऐसे रागद्वेष रूप दो जीभवाले कामरूप सर्पद्वारा जो काटा जा चुका है, कैसा है यह कामसर्प ? लज्जारूपी कांचुली जिसने छोड़ दी है, दर्परूपी भयंकर जिसकी दाढ़ है और रतिरूप मुख है ऐसे कामवासना रूप कराल सर्पसे काटा हुआ पुरुष शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।।२३।६२४।। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] मरकण्डिका ॥२५॥ श्राशीविषेण दष्टस्य सप्तवेगाः शरीरिणः । दष्टस्य स्मरसर्पेण जायंते दश दु:सहा शोचति प्रथमे देगे द्वितीये तां दिक्षते । तृतीये निश्वसित्युचैवंरस्तुयें प्रवर्तते बह्यते पंचमे गात्रं भक्त पठे न रोचते । प्रयाति सप्तमे मूर्च्छामुन्मत्तो जायतेऽष्टमे ।। ६२७ ।। ।।६२६॥ आशीविष सर्प द्वारा काटे हुए प्राणी के तो सात ही वेग होते हैं किन्तु कामरूपी सर्प द्वारा काटे हुए पुरुष के दश भयंकर वेंग हुआ करते हैं || २५ | १ भावार्थ - भयंकर विषैले सर्प या आशीविष नामके सर्पके काटनेपर उस विषाक्त पुरुषके शरीर पिके उदेक रूप वेगसन्दचाते हैं प्रथम वेगमें उस पुरुषका रक्त काला पीला हो जाता है, नेत्र मुख आदिमें कीड़े चल रहे हों ऐसा लगता है । दूसरे वेगमें शरीर में गांठें पड़ गयी हों ऐसा लगता है। तीसरे वेगमें मस्तक भारी होता है तथा नेत्र बंद करता है । चौथे वेग में थूकता है तथा उल्टी करता है, नींद आती है । पांचवें में दाह पैदा होती है, हिचकी आती है । छठे वेगमें हृदय पीड़ा होने लगती है शरीर भारी होता है मूर्च्छा आती है और सातवें वेग में पीठ कमर आदि भग्न होते हैं तथा शरीरको सर्वं चेष्टायें समाप्त हो जाती हैं । अब यहां पर कामके दश वेग बतलाते हैं- किसी स्त्रीको देखकर पुरुष के मनमें काम वासना उत्पन्न होती है उसमें दश अवस्थायें होती हैं दश प्रकारको वेष्टायें वह कामी करने लग जाता है उन्हींको कामके दश वेग कहते हैं । पहले वेग में कामी शोकयुक्त होता है, दूसरे वेगमें उस इष्ट स्त्रोको देखनेकी इच्छा करता है । तोसरे वेगमें जोर-जोर से श्वास लेने लगता है। चौथे वेगमें ज्वर आ जाता है ।।९२६ ।। पांचवें बेगमें शरीर जलने लगता है । छठे वेगमें भोजन नहीं रुचता । सातवेंमें मूर्च्छा आती है । आठदेंमें पागल होता है ।। ६२७ ॥ नौवें वेगमें कुछ जान नहीं पाता है और दसवें में प्राणोंको छोड़ देता है । ये वेग संकल्प-वासना के अनुसार तीव्र या मंद हुआ करते हैं आशय यह है कि किसी कामो को मंद रूप किसी कामीको तीव्ररूप वेग होते हैं तथा किसोको एक या दो या तीन Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६९ अनुशिष्टि महाधिकार न वेत्ति नवमे किचिद्दशमे मुच्यत सुभिः । संकल्पतस्ततो वेगास्तीवा मंदा भवति वा ॥२८॥ ज्येष्ठे सूर्यः सित पक्षे मध्याह्न विमलेऽम्बरे । मरं बहति नो तर्धमानो यथा स्मरः ।।६२६॥ विवसे प्लोषत सूर्यो मनोवासो दिवा निशम् । अस्ति प्रच्छादनं सूर्ये मनोवासिनि नो पुनः ॥६३०।। वह्निविध्याप्यते नोरमन्मथो न कदाचन । प्रप्लोषत बहिर्वह्निर्बहिरन्तश्च मन्मथः ॥६३१॥ बंधु जाति फुलं धर्म संवासं मदनातुरः । अवमन्य नरः सर्वं कुरुते कर्म निदितम् ।।९३२।। पिशाचेनेव कामेन व्याकुलीकृतमानसः । हिताहित न जानाति निविवेकीकृतोऽधमः ॥६३३॥ .. - - वेग आकर रुक जाते हैं, गुरुजनोंसे शिक्षाको प्राप्त कर वह कामी सँभल भो जाता है ॥९२८॥ जेष्ठका मास हो, शुक्ल पक्ष हो, मध्याह्नका समय हो तथा आकाश मेघ रहित हो, उस समयका सूर्य भी मानव को वैसा संतापकारी नहीं होता है जैसा बढ़ता हुआ काम संतापकारी होता है ।।९२९।। सूर्य तो दिन में ही सुखाता है किन्तु काम रात-दिन सुखाता है-कष्ट देता है। सूर्य के संतापका प्रच्छादन तो है (छाता वगैरह) किन्तु कामके संतापका प्रच्छादन नहीं है ॥६३०॥ ___ अग्निको जलद्वारा बुझाया जाता है किन्तु कामाग्नि किसी के द्वारा नहीं बुझतो। अग्नि तो बाहर हो अर्थात् शरीरको ही जलाती है किन्तु कामाग्नि अंदर और बाहर आत्मा और शरीर दोनोंको जलाती है ।।९३१|| कामी पूरुष अपने बंधुजन जाति, कुल, धर्म और संवास इन सबका तिरस्कार करके निंद्य कर्मको करता है ।।६३२।। पिशाचके समान कामद्वारा व्याकुल कर दिया है मानस जिसका ऐसा तथा जिसको विवेक रहित कर दिया है ऐसा अधम कामासक्त पुरुष हित और अहितको नहीं Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] मरण कण्डिका नोपकारं कुलीनोऽपि कृतघ्न इष मन्यते । लज्जालुरपि निर्लज्जो जायते मदनातुरः ॥६३४॥ स्त नो या जागरूकेभ्यः संयत भ्यः प्रकुप्यति । हितोपदेशिनं कामी द्विषन्तमिव पश्यति ॥३॥ सूर्योपाध्यायसंघानां जायत प्रतिकूलिकः । धार्मिकत्वं परित्यज्य प्रेर्यमाणो मनोभुवा ॥३६॥ महात्म्यं भुवनस्याति श्रुतलाभं च मुचप्ति । सतृणायज्ञया सारं मोहाच्छादित चेतनः ॥६३७॥ जोणं तृणमिथ मुख्यं चतुरंग बिमचतः । नाकृत्यं विद्यते किंधिभिवृक्षोविषयामिषम् ॥३८॥ गृह्णात्यवर्णवावं यः पूज्यानां परमेष्ठिनाम् । अकृत्यं कुर्वतस्तस्य मर्यादा कामिनः कुतः । ६३६॥ जान पाता है ।।६३३॥ कामी कुलोन होनेपर भी कृतघ्नी पुरुष के समान अपने उपकारी का उपकार नहीं मानता तथा लज्जायुक्त होनेपर भी कामसे निर्लज्ज हो जाता है ।।६३४।। . जसे चोर जागनेवाले व्यक्ति पर कुपित होता है वैसे कामी पुरुष संयमी मुनिजनोंपर कुपित होता है । अपने लिये हितकर बात कहने वाले को यह कामी शत्रके समान देखता है ।।६३५।। कामसे प्रेरित हुआ पुरुष-[मुनि] धार्मिकपनेको [व्रताचरण आदिको] छोड़कर आचार्य उपाध्याय और संघके प्रतिकूल हो जाता है ।।९३६॥ मोहसे आच्छादित हो गयी है चेतना जिसको ऐसा कामी अपना माहात्म्य लोक प्रसिद्धि और सारभूत श्रुतलाभ-शास्त्रज्ञान इन सबकी तृणके समान अवज्ञा करके इन्हें छोड़ देता है ॥९३७।। सम्यक्त्व आराधना आदि चार आराधना जो कि मोक्ष मार्गमें प्रमुख है, उसको भी जीर्ण तृणके समान कामो छोड़ देता है, ठीक है, विषयामिषको चाहनेवाले के लिये कुछ भी अकृत्य नहीं रहता अर्थात् वह नहीं करने योग्य कार्यको करता हो है Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २७१ स दुःखमयशोऽनर्थ कल्मषं द्रविणक्षयम् । संसारसागरेऽनते भ्रमणं च न मन्यते ॥६४०॥ उच्चोऽपि सेवते नोच विषयामिषकांक्षया । स्मरातः सहतेऽवज्ञां मानवानपि मानवः ।।६४१॥ कुलीनो निदितं कर्म कुरुते विषयाशया। जिघृक्षनर्तकों वृत्तं चारित्रं त्यक्तवान कि ॥४२॥ १९३८॥ जो कामी पूज्य पंचपरमेष्ठियोंके अवर्णवादको करता है उस कामीके अकार्य करते हुए मर्यादा कहाँसे होगो ? कामो तो सब मर्यादाओंको भंग कर डालता है ।।६३६॥ भावार्थ-कामीपुरुष परहंत आदि पंचपरमेष्ठियोंकी निंदा करता है, यदि स्वयं मूनि है तो कामके वश होकर मुनिपने का त्याग भी कर देता है । इसतरह कामी सब कुछ अकृत्यको करने लग जाता है ।। __ कामी पुरुष विषयासक्त हुआ अपने दुःखको अपयशको, अनर्थको, पापको, धननाशको नहीं मानता है तथा अनंत संसार सागर में भ्रमण होगा यह नहीं मानता है भाव यह है कि मैं काम वासनासे अपने ब्रह्मचर्य व्रतका (अणुव्रत या महाव्रतरूप ब्रह्मचर्यका) कुलोन आचरणका नाश करूगा तो मुझे दुर्गतिमें महान दुःख भोगना पड़ेगा। इस लोकमें धनका नाश अपकीति आदि होंगे, अंतमें संसारमें चिरकाल तक घूमना पड़ेगा, ऐसा कामीको विचार नहीं आता है ।।९४०।। विषयसेवनके लिये उच्चकुलीन भी कामो नीच-जाति कुलादिसे होन पुरुषको सेवा करता है, मानो होकर भी अवमानको सहता है ।।९४१।। कुलीन भी कामो पुरुष विषय सेवनकी इच्छासे निन्छ कर्म करता है क्या नर्तकीको प्राप्त करने की इच्छावाले साधुने अपना सुदर आचरणवाला चारित्र छोड़ नहीं दिया था ? ॥९४२।। ___ वारत्रिक नामके भ्रष्ट मुनिको कथा करुजांगल देशमें दत्तपुर नगर में शिवभूति ब्राह्मणके दो पुत्र थे, सोमशर्मा और शिवशर्मा । दोनोंको विप्रने वेद पढ़ाया । किसो दिन छोटा भाई शिवशर्मा वेदके सूत्रोंका अशुद्ध उच्चारण कर रहा था । बड़े भाई सोमशर्माने उसको शुद्ध पढ़ने को कहा किन्तु Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] मरण कण्डिका कामी शूरोऽपि तीक्ष्णोऽपि मुख्योपि भवति स्फुटम् । विगर्षः श्रीमतो वश्यो वैद्यस्य गवानिव ॥६४३॥ विधत्ते चाट नीचस्य कुलीनो मानवानपि । मातरं पितरं याचा दासं कुर्वन्नपत्रपः ॥६४४॥ - ..... - - - - - वह पुनः पुनः अशुद्ध बोलता रहा तब बड़े भाईने उसको तीन बार चाँटे लगाये उस दिनसे सब लोग उसको वारविक कहने लगे "त्रिक मायने तीन और वार मायने बार" तीन बार मारनेसे वारत्रिक नाम प्रसिद्ध हुआ । आगे बह बालक वेद वेदांगमें पारंगत हुआ। किन्तु लोगों द्वारा वारविक नामसे पुकारे जानेसे उसे दुःख होता रहता, किसी दिन जनमुनिसे धर्मोपदेश सुनकर उसको वैराग्य हुआ दीक्षा लेकर बह वारत्रिक देशदेशमें विहार करने लगा। एक दिन आहारार्थ नगर में आ रहा था, मार्ग में एक कन्याकी बरातमें वेश्याका सुदर नृत्य हो रहा था, उस नत्यकारिणी पर वारत्रिक मनि मोहित हो गये । नर्तकी और वारत्रिक अब साथ रहने लगे। घूमते हुए दोनों राजगृह नगरोमें राजा श्रेणिकके समीप अपनी सुदर नृत्यकला दिखा रहे थे । राज सभामें एक विद्याधर उपस्थित था उसको नृत्य देखते हुए जातिस्मरण हो गया और उसने नर्तको आदिके पूर्वभव बताये जिससे धारत्रिक नर्तकी तथा और भी अनेक प्रेक्षक लोगोंको वैराग्य हो गया, वारत्रिकने पुन: मुनि दीक्षा ग्रहण की । नर्तकीने अपने योग्य श्राविकाके नत स्वीकार किये । इसप्रकार वारत्रिक मुनि स्त्रोके रूपको देखने मात्रसे दीक्षासे भ्रष्ट हो गया था । कथा समाप्त । कामी शूर भी है, तीक्ष्ण और मुख्य है तो भो विषयके आधीन होता हुआ मानरहित होकर धनवान के बश हो जाता है जैसेकि रोगो पुरुष वैद्यके वश हो जाता है ॥९४३।। कामी स्वयं कुलीन और मानयुक्त होने पर भी नीच की चाटुकारी करता है, तथा वचन द्वारा माता पिताको दास करता हुआ निर्लज्ज होता है ।।९४४।। भावार्थ-कामांध विषय सेवनके लिये, इच्छित स्त्रो के लिये आप स्वयं कलवान हैं तो भी हीन जाति के पुरुष के पैरको दबाना आदिरूप खुशामद करता है तथा मेरी मां तुम्हारी दासो है मेरे पिता तुम्हारे दास हैं ऐसा निर्लज्ज होकर कहता है । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रनुशिष्टि महाधिकार न पश्यति सनेत्रोपि श्रोत्रोऽपि शृणोति न । कामार्त्तः प्रमदाकांक्षी वंतीय हतचेतनः ।।६४५।। सलिलेनेव कामेन सद्यो जाडयविधायिना | दक्षोऽपि जायते मंदो नीयमानः समंततः ॥६४६ ।। वर्षद्वावशकं येrयां निषेव्यापि स्मरातुरः । नाजासीदगोरसंदीव: पदांगुष्ठमशोभनम् १६४७ ।। [ २७३ कामांध पुरुष नेवार होकर भी देवता नहीं, गर्म होकर भी सुनता नहीं, इसतरह काम से पीड़ित स्त्रीका अभिलाषी वनहाथी के समान संमूढ हो जाता है अर्थात् . जैसे वन हाथी हथिनीके वश हुआ कुछ भी देखता सुनता नहीं वैसे ही कामी पुरुष होता है ।। ४५ ।। जैसे जलप्रवाह में डूबता हुआ पुरुष जड़ता युक्त मूच्छित हो जाता है वैसे काम द्वारा चतुर भी पुरुष शीघ्र ही चारों ओरसे मंद हो जाता है अर्थात् उसको कार्य कुशलता नष्ट होती है— मूच्छितसा हो जाता है || २४६ || कोई गोरसंदोव नामा मुनि कामार्त्त होकर बारह वर्ष तक वेश्या का सेवन करता हुआ भी उसके अशोभन जीर्ण नष्ट पैरके Sairat नहीं जान सका था ।।१४७।। गोरसंदीव नामके भ्रष्ट मुनिको कथा श्रावस्ती नगरीका राजा द्वीपायन था उसका दूसरा नाम गोरसंदोव या गोचर संदीव था । एक दिन वह राजा वनक्रीड़ाके लिये जा रहा था मार्ग में एक आम्रवृक्ष मंजरीसे भरा हुआ देखकर राजाने एक मंजरीको कोतुकवश तोड़ लिया राजा आगे निकल गया । पोछेसे आनेवाले जनसमुदायने राजाका अनुकरण किया अर्थात् सभीने एक एक करके उस आम्रवृक्षकी मंजरी तोड़ ली पुनः पत्ते तथा डालियां भी नष्ट कर दी । राजा वनक्रीडा करके वापिस लौटा तो वृक्षको न देखकर पूछा । लोगों से वृक्ष नष्ट होनेका वृत्तांत सुना तथा उस वृक्षको केवल टूटमा खड़ा देखकर अकस्मात् राजाको वैराग्य हुआ और उसने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की। अब वे मुनि होकर विहार करते हुए उज्जयिनों में आहारार्थ पहुँचे । किसी एक घर के आंगन में वे प्रविष्ट हुए वह गृह कामसुंदरी वेश्या का था । वेश्याको देखकर मुनि मोहित होगये और वहीं रहने लगे । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] मरणकण्डिका शोतमुष्णं क्षुषां तृष्णां दुराहारं पथि श्रमम् । दुःशप सहते कामी बहते भारमुल्बरणम् ।।६४८।। छंद-सग्विणीक्षुप्यते कृष्यते लूयते पूयते प्राप्यते पाद्यते सीव्यते चिच्यते । छिद्यते भियते कोयते दीर्यते खन्यते रज्यत्ते सज्यते कामिना ।।६४६॥ छंद-दोधकगोमहिषोयरासभरक्षी काष्ठतृणोषकगोमयवाहो । प्रेषणकंडणमार्जनकारी कामनरेन्द्रवशोस्ति मनुष्यः ।।६५०॥ आयुधयिविधः कोर्णा रणक्षोणी विगाहते । लेखनं कुरुते दीनः पुस्तकानामनारतम् ॥६५॥ बारह वर्ष व्यतीत होगये किसी दिन वेश्याके परके अंगूठेपर दृष्टि गयी तो देखा कि इसके अंगुष्ठमें कुष्ठ है उससे पुनः वैराग्य भाव जाग्रत होनेसे उस द्वोपायन या गोर संदीवने पुनः दीक्षा ग्रहण की। इसप्रकार गोरसंदीव मुनि स्त्री के रूप देखने में आसक्त होनेसे अपने चारित्रसे भ्रष्ट हो गये थे । कथा समाप्त । कामांध व्यक्ति शीत उष्ण की बाधा को, भूख प्यास को, खोटे भोजनको, सहन करता है, मार्गके श्रमको, खोटी शय्याको सहता है तथा बड़े भारी बोझको ढोता है ॥९४८।। कामी क्षोभित होता है, खेती करता है, फसलको काटता है, खलियान साफ करता है, धान्य आदिको प्राप्त करता है, कपड़े सीने लगता है, चित्रकारी करता है. छेदन भेदन करता है, खरीदता है, काष्ठका विदारण करता है, छीलता है, वस्त्रादिको रंगाता है, बुनता है ।।६४६॥ कामरूपो राजाके आधीन हुआ मनुष्य, गाय, भैंस, घोड़े और गधोंकी रक्षा करने लगता है, काष्ठ, घास, जल, गोबर को ढोता है, स्वामी द्वारा जहां भेजा जाय वहां जानेरूप प्रेषण कार्यको करता है । मसलसे कटना और माडसे गह आदि साफ करना आदि नोच कामको करता है ।।९५०।। कामात विविध आयुधोंसे युक्त रणभूमि में प्रवेश करता है-युद्ध करता है, दोन होकर सतत् पुस्तकोंका लेखन करता है अर्थात स्त्री की अभिलाषासे उसकी प्राप्ति के लिये कोई उसे पुस्तकोंके लेखन में लगावे तो उसको करने लगता है 1१९५१।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २७५ संयुक्तां कषंति क्षोणी मभिणोमिव योषितम् । अधोत्य बहुराः शास्त्रं कुरुत शिशुपाठनम् ॥६५२।। शिल्पानि बहुभवानि तनुते परतुष्टये । विधत्ते वंचनां चित्रां वाणिज्यकरणोधतः ॥६५३।। प्रवमन्य भवाम्भोधौ पतनं बलवीचिके । किं कि करोति नो कर्म मयों मदनलंधितः ॥५४॥ दुर्मोर्चः कामिनीपाशः कामी वेष्टयत कुषीः । लालापारिवात्मानं कोशकारकृमिः स्वयम् ॥९५५।। रागो द्वषो मदोऽसूया पेशून्यं कलहो रतिः । बचना पराभूतिदोषाः सन्ति स्मरातुरे ॥६५६।। सिलनाल्यामिव क्षिप्रं, तप्तलोह प्रवेशने । तिलानां देहिनां पीडा, योन्या लिंग प्रवेशने ॥९५७॥ -- -- .. -- -- - गभिणी स्त्रीके समान संयुक्त पृथिवीका कर्षण करता है अर्थात् जमीनमें हल चलाता है, बहुतसे शास्त्रोंको पढ़ कर बालकों को पढ़ाने लगता है ।।६५२।। परको संतुष्ट करने के लिये कि यह मुझे यांछित स्त्रीको देगा, बहुत भेदवाले शिल्पोंको करता है । व्यापार पेशामें उद्यत हुआ विविध प्रकारकी ठगायी करता है ।।९५३।। बहुत दुःख रूपी लहरें जिसमें उठ रही है ऐसे भव समुद्र में गिरना पड़ेगा इस बातका विचार किये बिना मदनातुर मानव क्या क्या कार्य नहीं करता ? सब कुछ कर हालता है ।।९५४।। खोटी बुद्धिवाला कामी जिसका छुड़ाना कठिन है ऐसे कामपाशोंसे स्वयं अपनेको वेष्टित करता है, जैसे रेशमका कोड़ा अपने हो मुख की लाररूपी पाशसे स्वयं को वेष्टित करता है ।।६५५।। कामो पुरुष में राग, द्वेष, मद, असूया, पशून्य, कलह, रति, ईर्षाके वचन, परका तिरस्कार इतने दोष होते हैं ।१९५६॥ कामातुर पुरुष जब काम सेवन करता है उस समय कितना जीवघात होता है यह बताते हैं जैसे तिलोंसे भरे नाली में तपाया हुमा लोहा डाला जाय तो तिल पीड़ित होते हैं अर्थात् चद-चट करते हुए जल भुन जाते हैं वैसेही स्त्रीको योनि में लिंग प्रविष्ट होनेपर वहांके सम्मुर्छन जीव नष्ट हो जाते हैं ।।६५७।। कामातुर पुरुष चाहती हुई स्त्रो हो अथवा बिना चाहती Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्डिका इच्छावती मनिच्छां वा, दुर्बलां दुर्लभां कुधीः । अज्ञात्वा याचत कामी, सर्वाचार बहिर्भवः ।।६५८॥ परकीयां स्त्रियं दृष्ट्वा कि कांक्षति विमूढधीः । न हि तो लभते जातु पापमर्जयते' परम् ।।६५६॥ अभिलष्य चिरं लाध्या परनारी कथंचन । अनित्तमविश्वस्त सेवने तामेव सः ॥६॥ यत्र तत्र प्रदेशे तामंधकारे कथंचन । अवाप्य त्वरितो भोतो रतिसौख्यं किमश्नुत ।।६६१।। सर्वस्वहरणं रोचं वधं बंधं भयं कलिम् । तज्ज्ञातिपार्थिवादिभ्यो लभत पारदारिकः ।।६६२।। अनर्थकारणं पुसां कलत्रे स्वेपि मैथने । करोति कल्मषं घोरं परकीये न कि पुनः ।।६६३॥ हो-दुर्बल हो, दुर्लभ हो, कैसी भी हो उस बात को बिना जाने ही मांगता है-चाहता है सेवन करता है वह तो सर्व सदाचारसे बहिर्भूत हो जाता है ।।९५८।। बड़ा अफसोस है कि विमढ़ बुद्धि कामी पुरुष परायी स्त्रीको देखकर उसको क्यों चाहता है ? क्योंकि अन्य पुरुष को स्त्रीको प्राप्त तो कर नहीं सकता है किन्तु व्यर्थ ही पापोंका संचय कर लेता है ।।९५६॥ चिरकाल तक अभिलाषा करके जैसे तैसे कदाचित् परायो स्त्री मिल भी जाय तो उसका सेवन करने में अतृप्ति और अविश्वास होने के कारण वह कामी पहले के समान ही रह जाता है अर्थात् जब परनारी नहीं मिली थी तब अतृप्त था और मिलनेपर कोई देख न लेवे इत्यादि भावरूप आकुलताके कारण अतृप्त हो रहता है ।।९६०।। जहां-तहां किसी स्थानपर उस नारीको किसी प्रकार प्राप्त करके भी वह भयभीत पुरुष शीघ्रतासे रतिसुखको किसतरह पा सकता है ? नहीं पा सकता ॥६६१।। परायी नारीका सेवन करनेवाला पुरुष उस परायी नारीके जाति या कट'बके लोगों द्वारा एवं राजादिके द्वारा सर्वस्वहरण विरोध, वध, बंधन, भय और कलहको प्राप्त होता है अर्थात् जिसकी वह स्त्री है उसके पति, भाई, मामा आदि इस परस्त्रीसेवीको मारना, धन लूटना आदि महान कष्ट देते हैं ।।९६२।। अपनी स्त्रीके साथ मैथन सेवन करनेपर भी यदि पुरुषोंके अनर्थका कारण होता है तो फिर परायी Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २७७ यथाभिद्यमाणासु स्वसमातसुतादिषु । दुःखं संपद्यते स्वस्य परस्यापि तथा न किम् ॥९६४।। इत्थमर्जयते परपोडाटोमा ! स्त्रीनपुसकवेवं च नीचगोत्रं दुरुत्तरम् ॥९६५।। भुज्यते यनिच्छतो क्लिश्यमानांगनावशा । तदेतस्याः पुरातन्याः परदाररतेः फलम् ॥६६६॥ योषावेषधरः कर्म कुर्वाणो न यवश्नुते । कांक्षितं शर्म तत्तस्य परवाररतेः फलम् ॥१७॥ नारीके साथ मैथुन सेवन करनेपर घोर पाप क्या नहीं होगा? होगा हो ॥९६३।। अपनो बहिन, माता और पुत्री आदिके साथ कोई दुराचार करे तो जैसे अपनेको दुःख होता है वैसे परायी नारी, बहिन आदिके साथ स्वयं दुराचार करनेपर परको दुःख क्या नहीं होगा ? अवश्य होगा ।।९६४।। इसप्रकार कामी पुरुष परायी नारीके सेवन से परको पीड़ा करने में उद्यमी हुआ पापका संचय करता है तथा स्त्रीवेद, नपुसकवेद, नीचगोत्र इन दुरुत्तर कर्मों का बंध करता है ।।६६५।। जो नहीं चाहती है ऐसी परायी नारी जो कि परपुरुषके वश में आनेसे अत्यंत दुःखी हो रही है उसको कोई कामुक हठात् भोगता है तो इस विषय में उस स्त्रीका पूर्व जन्मका पापका फल है जो पहले भव में परस्त्री सेवन से अजित किया गया था ।।६६६।। भावार्थ-किसो परायी नारोका कोई पुरुष जबरदस्ती उसे दुःखी करके सेवन करता है तो समझना चाहिये कि उक्त स्त्रीने पूर्व जन्ममें पुरुष अवस्था में परस्त्रीका जबरम सेवन किया था । वह पहले भवमें परनारीमें प्रेम करता था । स्त्रीका वेष धारनेवाला व्यक्ति अर्थात् जो नपुसक है और ऊपरसे स्त्रीका वेष पहनता है वह कामक्रीड़ाको करता हुआ भी इच्छित काम सुख नहीं पाता है, सो यह उसके पूर्व भवके परस्त्री सेवनका फल है ।।६६७।। भावार्थ-जो पूर्वभव में परस्त्री सेवन करता है वह आगामी भवमें नमक होता है, नपुसकको देखकर समझना चाहिये कि इसने पूर्वभवमें परनारीका सेवन किया था । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] मरणकण्डिका जननी भगिनी भार्या बेहजा बहजन्मसु । प्रायासाकीर्तिकारिण्यस्तस्य संति विशीलिकाः ॥६६८।। विशोलो दुर्भगोऽमुत्र जायते पारवारिकः । निर्दोषोऽप्यश्नुते बंधं संक्लेशं कलहं वधम् ॥६६६।। महान्तं दोषमासाद्य भवेत्र स्मरमोहितः । मृत्वा कडारपिंगोऽगाच्छवभ्र दुःसहदेवनम् ॥१७॥ परस्त्रीका सेवन करनेसे कामो पुरुषको बहुत जन्मों तक कुशीला माताको प्राप्ति होती है तथा उसकी भगिनी, पत्नी, पुत्री भी कष्ट तथा अपकीति करनेवाली दुराचारिणी होती है । आशय यह है कि जो पराया नारोका शील बिगाड़ देता है उसके भव भवमें माता बहिन भार्या आदि कुशीला होती हैं जैसे उसने किसी परायी पुत्री पत्नी आदिका शील नष्ट कर दिया उसे कुशीला बनाया वैसे ही उसके पुत्री पत्नी आदिका दूसरा कोई पुरुष शील बिगाड़ देगा ॥९६८॥ जो परनारीका सेवन करता है वह अगले भवमें कुरूप और दुराचारी बनता है। वह कदाचित् निर्दोष भी हुआ तो उसे अकारण ही बंध, संक्लेश, कलह, वधको भोगना पड़ता है अर्थात् खोटा काम नहीं करनेपर भो उसपर दोषारोपण आता है और उससे उसको बांध देना, मार देना आदिका कष्ट अकारण हो भोगना पड़ता है ।।९६६॥ कामसे मोहित हुआ कडारपिंग इस भव में महान दोषको प्राप्त कर मरा और दुःसह वेदनाबाले नरक में चला गया ।।९७०।। कडारपिंगकी कथा कांपिलय नगरमें राजा नरसिंह था उसका मंत्री सुमति नामका था। उसके एक कडारपिंग नामका पुत्र हुआ वह अत्यंत कामासक्त था। एक दिन उसने कुबेरदत्त सेठको सर्वांगसुदरी प्रियंगुसुदरो पत्नी को देखा । देखकर वह उसपर आसक्त हुआ। समति मंत्रीने पत्रका हाल जानकर पहले तो कामवासनाको मन में धिक्कारा किन्तु पुत्र के मोहमें आकर प्रियंगुसुदरो को हस्तगत करने के लिये उसके पति कुबेरदत्तको द्वीपांतर में भेजना चाहा किन्तु प्रियंगुसुदरी बुद्धिमती थो उसने ताड़ लिया कि यह कामी कडार Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २७६ भवंति सकला दोषा नवामी ब्रह्मचारिणः । संपर्धते गुणाश्चित्रास्तद्विपक्षा विरागिणः ॥९७१॥ छंद-वसंततिलकाकामावना कुचफलानि निषेवमाणा रम्ये नितंबविषये ललनामदीनाम् । विधम्य चारुववनाम्बु निपीयमानाः सौख्येन नारकपुरीं प्रविशति नीचा:।१७२। - .- -... पिंगकी करतूत है । उसने पतिको समझाया कि द्वीपांतर जानेका केवल दिखावा करो आगे की बात मैं सम्हाल लगी । कडारपिंग कुबेरदतको द्वीपांतर गया समझकर प्रियंगुसुदरोके पास मालक सामान दरोने माझाने के कमरेको साफ सुथरा कराफे उसमें एक बिना निवारके पलंगपर एक चादर बिछा दिया था, प्रियंगुसुदरो ने आये हुए कहारपिंगको उक्त पलंगपर बैठने को कहा। जैसे ही वह पापी बैठने लगा वैसे ही धड़ामसे अत्यंत दुगंधमय पाखानेके मैल में जा पड़ा । अब कडारपिंगको बहुत पश्चात्ताप हुआ उसने निकालने के लिये सुदरोसे बहुत प्रार्थना की किन्तु पापका फल भोगने के लिये उसने उसको नहीं निकाला। छह मास व्यतीत होनेपर कुबेरदत्तने द्वीपांतरसे आनेका बहाना किया। राजा और मंत्रीने उसे जो किंजल्क पक्षी लानेको कहा था, सेठने पाखाने से कडारपिंगको निकालकर उसको पक्षियोंके पंख लगाकर मुख काला कर हाथपैर बांध पोंजड़े में डालकर राजाके समक्ष उपस्थित किया तथा वास्तविक सब वृत्तांत कह सुनाया । राजाको कडारपिंगके ऊपर कोप पाया और उसने उस कामो पापीको प्राणदंड दिया, कडारपिंग मरकर नरक गया । इसप्रकार परायी नारीके सेवन का भाव करनेसे तथा साक्षात् सेवन करने से महाभयानक दुःख उठाना पड़ता है ऐसा जानकर इस पापसे विरक्त होना चाहिये। कडारपिंगकी कथा समाप्त । ऊपर कहे गये समस्त दोष ब्रह्मचारी के नहीं होते हैं, उस विरागीके तो उन दोषोंसे विपक्षभूत अनेक अनेक मनोहर गुण ही हुआ करते हैं ।।९७१।। कामुक नोच पुरुष स्त्री रूपो नदियों के रम्य नितंबविषय में कामरूपी रास्तेसे आकर कुचरूपो फलोंका सेवन कर वहां विश्राम करके स्त्रोके मुखका जल (लार) पोता हुआ सुखपूर्वक नरकपुरीमें प्रवेश कर जाता है ।।६७२।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] मरणकण्डिका छंद-वंशस्थनरो विरागो बुधव दवंदितो जिनेंद्रवद्ध्वस्त समस्त कल्मषः । विवामानं ज्वलता विवानिशं स्मराग्निना लोकमवेक्षसेऽखिलम् ।।६७३।। जननी जनकं कांतं तनयं सहवासिनं । पातयंति नितंबिन्यः कामार्ता दुःखसागरे ।।६७४।। स्त्रीनिःश्रेण्योन्नतस्यापि दुरारोहस्य लीलया । भस्तकं नरवक्षस्य नीचोऽप्यारोहति दूतम् ।।७।। --- भावार्थ-जैसे कोई पथिक मार्ग में आनेवाली नदीके किनारेपर विश्राम कर वहांके फलोंका भक्षण कर नदीका मिष्ट जल पीकर सुखपूर्वक अपने इष्ट नगरको चला जाता है, वैसेही कामी पुरुष कामरूप मार्गसे स्त्रीरूपी नदीके नितंबरूपी किनारे पर कूचरूपी फलोंको खाकर मुखका जल पीता हुआ नरकमें चला जाता है अर्थात् स्त्रीका सेवन करनेवाला नरकगतिमें जाता है । जो पुरुष विरागसंपन्न है अर्थात् स्त्रीमें राग नहीं करता है-वह ज्ञानी पुरुषों द्वारा बंदित होता है, जिनेन्द्र देवके समान समस्त पापोंका नाश करनेवाला होता है अर्थात् वह विरागी क्रमशः अणुव्रत महाव्रत ग्रहणकर जिनेन्द्र बन जाता है, अब वह केवलज्ञानी (अथवा श्रुतज्ञानी) कामरूपी अग्निसे दिनरात अतिशय रूपसे जलते हुए अखिल लोकको देखता है ।।९७३।। कामदोष वर्णन समाप्त। कामसे पीडित हई नारी अपने माता, पिता, पति, पुत्र और कटब परिवारको ६ःख सागर में डाल देती है । भाव यह है कि कामांध स्त्री अपने इष्ट यारको पाने के लिये पति माता आदिको कष्ट में डाल देती है यदि उसे ऐसे गलत कार्य के लिये मना किया जाय तो मानती नहीं । उसके स्वेराचारसे अपकीत्ति होने के कारण पति पिता परिवार दुःखो होने लगता है ।।९७४।। स्त्री रूपी नसनी जिसमें है जो उन्नत है और कठिनाईसे चढ़ा जाता है ऐसे पुरुष रूपी वृक्षके मस्तक पर नीच व्यक्ति भी शीघ्रतासे चढ़ जाता है ॥१७॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकाय { २८१ मान्या ये संति मरयानामक्षोभ्या अलिनामपि । सर्वत्र जगति ख्याता महांतो मंदरा इव ॥६७६॥ शठस्ते स्त्रीजनस्तीक्ष्ण म्यन्ते क्षणमात्रतः । नितांतकुटिलीभूतरंकुशंरिव वंतिमः ॥९७७॥ आसन्रामायणादोनि स्त्रीम्यो पुखान्यनेकशः । मलिनाभ्योऽवमालाभ्यः सलिलानोव विष्टपे ॥६७८॥ थिधभसंस्तवस्नोहा जातु संति न योषितः । त्यजन्ति वा परासक्ताः कुलं तृणमिव द्रुतम् ।।९७६॥ वित्र भयन्ति ता मत्यं प्रकारविविधलंघु । वित्र भः शक्यते कर्तु मेतासां न कथंचन ॥६॥ - -- भावार्थ-वृक्ष ऊंचा है किन्तु उसके पास नसैनी होवे तो छोटा कदवाला आदमी भी उसपर चढ़ जाता है वैसे पुरुष बलवान और उच्च कुलोन है किन्तु उसकी स्त्री यदि कुशीला है तो उसकी अवहेलना नीच भी करने लग जाता है। अर्थात् दुराचारिणी स्त्रीके पतिकी लोग हँसी करते हैं अपमान करते हैं । इस संसारमें मनुष्योंमें जो मान्य हैं, बलवान् पुरुष द्वारा भी जो क्षोभित नहीं होते, जगत में सब जगह प्रसिद्ध हैं महान् सुमेरु पर्वतके समान हैं। ऐसे महापुरुष भी मूर्ख तथा कठोर स्त्रियों द्वारा क्षण मात्र में निम्नकोटिके किये जाते हैं अर्थात् उनकी पूजा, आदर आदि क्षणभरमें नष्ट किये जाते हैं, जैसे अतिशय कुटिल अंकुश द्वारा हाथी झुकाये जाते हैं नम्र किये जाते हैं ।।९७६।१९७७।। इस जगत में स्त्रियोंके हेतु ही रामायण आदिके महायुद्ध अनेकों बार हुए थे । जैसे कालो मेघमालाओंसे जल निसृत होता है ।।१७८।। स्त्रियों में विश्वास, प्रशंसा और स्नेहगुण कभी भी नहीं होते । कामात पराये पुरुषोंमें आसक्त नारी तृण के समान अपने कुलको गिनकर शीघ्र ही छोड़ देती है। अर्थात् पर-पुरुषमें आसक्त हुई स्त्री अपने कुल को तिनके बराबर भी नहीं गिनती ।।९७९।। ये महिलायें विविध हाव-भाव छल कपट प्रयोगोंसे शीघ्र ही पुरुषको विश्वास उत्पन्न Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] मरणण्डिका दोषे स्वल्पेऽपि विहिते कृतदोषसहस्रशः । उपकारमवज्ञाय स्वं विघ्नन्ति पांत कुलम् ॥६८१ ॥ आशीविषा इव त्याज्या दूरतो नीतिहेतवः । दुष्टा नृपा इव क्रुद्धास्ताः कुर्यन्ति कुलक्षयम् ।।६८२ ॥ प्रकृतेप्यपराधे ता नीचाः स्वच्छंदवृत्तयः । निघ्नंति निर्घुणाः पुत्रं श्वशुरं पितरंपतिम् ॥६८३॥ उपकारं गुणं स्नेहं सत्कारं सुखलालनम् । न मन्यते परासक्ता मधुरं वचनं स्त्रियः ॥ ६८४|| साकेताधिपतिर्देवर तिः प्रच्याव्य राज्यतः । वेच्या नदीहृदे क्षिप्तो रक्तया पंगुरक्तया ॥ ६८५।। कराती है किन्तु पुरुष इन महिलाओं को किसी प्रकार भी विश्वास उत्पन्न नहीं करा सकता है ।।९८० ।। खुदने हजारों बार दोष किये हों तो कोई बात नहीं किन्तु पति द्वारा थोड़ासा भी दोष हो जाय तो कुलटा नारी पतिके उपकारको अवज्ञा करके उसको मारती है खुदका और कुलका भी नाश कर डालती है ।।६८१|| हितकर यह है कि महिलायें तो आशीविष सर्पके समान दूरसे ही छोड़ने योग्य हैं, यदि ये कुपित हो जाय तो कुलका क्षय कर देती है, जैसे दुष्ट राजा लोग कुपित होनेपर कुलका क्षय कर डालते हैं ।। ६८२ ।। स्वैराचारिणो नोच स्त्रियाँ अपराधके नहीं करनेपर भी निर्दयी होकर अपने पुत्र, पिता और पतिको मार डालती हैं ।। ९६३॥ पर पुरुषोंमें आसक्त हुई स्त्रियाँ अपने पतियोंके उपकारको, गुणको, स्नेहको सत्कारको, सुख लालनको, मिष्ट वचनको कुछ भी नहीं गिनती ( अर्थात् मेरा पति कितना उपकारक है मुझे कितने सुखमें रखता है मेरे से कितना अच्छा व्यवहार करता है इत्यादि सब ही बातोंको भूल जाती है और पतिकी अवहेलना करती है अन्य पुरुष जो कि कुछ भी लायक नहीं है दोषयुक्त बेरूप है उस पर प्रेम करने लग जाती है ) ||६८४|| अयोध्याके नरेश देवरति नामके राजाको राज्यसे च्युत कराके रक्ता नामको उसकी ही रानीने एक पंगु कुरूप दुष्ट पुरुष पर आसक्त होकर नदोके गहरे प्रवाह में डाल दिया था ।। ९८५ ॥ । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- अनुशिष्टि महाधिकार [ २८३ गोपनत्या क्रुधा छित्वा ग्रामकूट सुताशिरः । राजा सिंह बलः कुक्षौ शक्त्येष्यापरया हतः ।।६८६॥ रक्ता रानीकी कथा परपुरुष आसक्त रक्ता नामकी रानी थो उसका संक्षिप्त दुश्चरित्र इसतरह है कि अयोध्या नगरीका देवरति नामका राजा था उसकी रक्ता रानो उसे प्राणोंसे भी अधिक प्यारी थी। उसके अत्यधिक प्रेमके कारण राज्यका त्यागकर राजा सदा अंतःपूरमें रहने लगा अतः मंत्रियोंने उसे राज्यसे च्युत कर दिया । राजा रानोको लेकर अन्यत्र चला गया। वहाँ किसी पंगुके मधुर गानको सुनकर रक्ता उसपर आसक्त हो गयो और अपने पति देवरति राजाको किसी बहाने नदीमें डालकर खुद उस पंगु पुरुषके साथ रहने लगी । पंगुको एक टोकरीमें रखकर अपने मस्तक पर लेकर जगहजगह भ्रमण करती रही, पंगु मधुर गान सुनाता, जिससे दोनोंकी आजीविका होती थी। इधर राजा नदीके प्रवाहसे किसीतरह निकल आया और पुण्योदयसे मंगलपुरीका शासक-राजा बन गया । घूमती हुई रक्ता वहां पहुंचो ! राजाने पहिचान लिया और इस स्त्री चरित्रसे विरक्त होकर उसने दीक्षा ग्रहण को । इसप्रकार पर पुरुष पर आसक्त हुई नारोको दुष्ट चेष्टायें हुआ करती हैं। कथा समाप्त । गोपवतीने क्रोधसे नामकटकी पुत्रीका मस्तक काट दिया था और अपने पति सिंहबलके पेट में ईष्यावश भालाको धोंपकर उसे मार डाला था ।।९८६।। गोपवतीको कथा राजा सिंहबलकी रानी गोपवती थी यह अत्यन्त दुष्ट स्वभाव वाली थी। एक दिन राजाने ग्रामकूट नामके नगरके शासकको सुभद्रा नामकी पुत्रीसे विवाह कर लिया । इससे गोपवती क्रोधित हुई, उसने उस सुभद्राको मार डाला और उसका कटा हआ मस्तक राजाको दिखाया, राजाको इससे महान् दुःख हुआ, जैसे ही वह उसको दण्डित करने में उद्यत हुआ वैसे उस दुष्टाने उसको भी भाले द्वारा मार डाला। दुष्ट स्त्रीके लिये क्या कोई कुकृत्य शेष रहता है जिसे कि वह न कर सके ? वह तो सब कुछ कुकृत्य कर डालती है । कथा समाप्त । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] मरणकण्डिका बोरयत्यापि शूलस्थस्तेन छिन्नोष्ठया निजः । ओष्ठश्च्छिन्नो ममानेन पापयेत्युदितं मृषा ॥९८७॥ म्याघ्र विषे जले सर्प शत्रौ स्तेनेऽनले गजे । स विश्वसिति नारोगां यो विश्वसिति दुर्मनाः ॥१८॥ शूलोपर स्थित यारके द्वारा जिसका ओठ छिन्न हुआ ऐसी पापी दुराचारिणी वोरवतीने राजाके पास जाकर झूठ कहा कि मेरे पति ने मेरा ओठ काट दिया है ।।९८७॥ वीरवतीको कथादत्त नामके वेश्यको पत्नीका नाम बीरवती था यह एक चोरके प्रेममें फंसी थी । एक दिन चोरी करते हुए रंगे हाथ वह चोर पकड़ा गया 1 उसे राजाने शलीपर चढ़ानेको सजा दी। चंडालने उसे श्मशानमें ले जाकर शूलीपर चढ़ा दिया। वीरवती दुःखी हई । रातके समय उससे अंतिमबार मिलने के लिये श्मशान में पहुंची, ऊंचे स्थान शूलीपर चढ़े हुए चोरका आलिंगन करने के लिये उसने अधजली लकड़ियाँ और शव इक किये और उसपर चढ़कर उससे मिलने लगी इतने में लकड़ियां खिसक गयी और वह अकस्मात् नीचे गिर पड़ी उससे उसका ओठ चोरके मुहमें रह गया-दांतोंसे कट गया । वह दुष्टा दौड़ कर छुपके से घर लौटी । वहां शोर मचाया कि पतिने मेरा ओठ काट डाला है। राजाके पास शिकायत गयी उसने पतिको दण्डित करना चाहा किन्त इतने में किसीसे रहस्यका पता चला । तब राजाने निरपराध दत्त पतिको छोड़ दिया और दुराचारिणो वीरवतीका मुख काला कर शिरके केषोंका मुउन करवाके गधेपर बैठाकर उसको अपने देश के बाहर निकाल दिया। कथा समाप्त । जो पुरुष नारियों पर विश्वास करता है वह समझ लेना चाहिये कि व्याघ्र पर, विषपर, गहरे जलाशय पर, शत्रुपर, चोर पर, अग्नि और हाथी पर विश्वास करता है। भाव यह है कि व्यान आदिमें विश्वास करना जैसे घातक है वैसे स्त्रीके ऊपर विश्वास करना घातक है । क्योंकि कदाचित् व्याघ्र आदि उस महादोषको नहीं करते Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८५ अनूशिष्टि महाधिकार व्याघ्रादयो महादोषं कदाचित्तं न कुर्वते । लोकस्यबिघातिन्यो यं स्त्रियो वनमानसाः ॥६॥ सकश्मलाशया रामाः प्रावृषेण्या इयापगाः । स्तेनवत्स्वार्थतनिष्ठाः सर्वस्वहरणोद्यताः ॥१०॥ दारिद्रय विलसा व्याधि यावन्नाप्नोति मानवः । जायते ताववेवास्याः कुलपुल्या अपि प्रियः ॥६६॥ प्रसूनमिय निर्गधं यो भवति निधनः । म्लानमालेव वषिष्ठो रोगीक्षुरिव नीरसः ।।६६२।। हैं जिस महादोषको कुटिल मनवाली इस लोक और परलोकका नाश करनेवाली स्त्रियां करती हैं, अर्थात् व्याघ्रादि केवल प्राण हो ले सकते हैं किन्तु कुटिल कुशीला स्त्रियां तो प्राणोंके साथ यश, सन्मान, धन आदिको भी हर लेती हैं, इन सबका नाश कर डालती हैं ॥९८८||६८६।। जैसे वर्षाऋतुमें नदियां मैले जलोंसे युक्त होती हैं वैसे स्त्रियां मलिन आशयमन युक्त होती हैं, नदी में वर्षाकालमें कूड़ा कचरा मिट्टी आदि होनेसे उसका जल मलिन होता है और स्त्रियोंमें मोह ईर्ष्या असूयादि होने से उनका चित मलिन होता है । जैसे चोर अपने स्वार्थ, जो चोर कर्म हैं उनमें सदानिष्ठ होते हैं सर्वस्व हरण करनेमें लगे रहते हैं, वैसे स्त्रियां मधुर वचन कटाक्ष आदिसे पुरुषके सर्वस्व हरण करने में लगी रहती है ।।६६011 कुलवंती नारीको भो पति तब तक प्रिय लगता है जब तक उसके दरिद्रता नहीं आती या बुढ़ापा और रोगको बह पुरुष प्राप्त नहीं होता है । बुढ़ापा रोग दारिद्र आनेपर उच्चकुलोन स्त्रियां भी पतिको चाहना छोड़ देती है ।।९६१|| निर्धन पुरुष स्त्रीके लिये सुगंध रहित पुष्पके समान अच्छा नहीं लगता उसके लिये द्वेषका कारण हो जाता है । वृद्ध पुरुष मुरझाई हुई मालाके समान अप्रिय होता है और रोगो पुरुष जिसका रस निकाला गया है ऐसे नीरस इक्षु-गन्नेके समान अनिष्ट लगता है । अभिप्राय यह है कि घनयुक्त पुरुष तो स्त्रियोंको सुगधयुक्त पुष्पके समान Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] मरणकण्डिका पंचयन्ति नरान्नार्यः समस्तानपि हेलया । जानंति वचनं पोस्नं तदीयं न नराः पुनः ॥६६३॥ छंद-वंशस्थयथा यथा स्त्री पुरुषेण मन्यते तथा तथा सा कुरते पराभवं । यथा यथा कामवशेन मन्यते तथा तथा सा कुरुते विटंबनाम् ॥६६४|| भवति सर्वदा योषा मत्तास्तंबेरमा इव । स्वं दासमिव मन्यते पुरुषं मूढमानसाः ॥६५॥ छंद-रथोद्धताशीलसंयम तपोबहिर्भवास्ता नरांतरनिविष्टमानसाः । चितयन्ति पुरुषस्य सर्वदा दुःखमुग्रमपकारिणो यथा ॥६६६।। प्रिय होता है और धनहीन निगंध फूलके समान अप्रिय होता है । युबक ताजी मालाके सदृश प्रिय और वृद्ध मुरझाई माला सदृश अप्रिय होता है । निरोग पुरुष रसीले गन्नेके समान प्रिय और रोगी नीरस गन्ने के समान अप्रिय होता है ।।९९२।। नारिया समस्त पुरुषोंको लीला मात्रसे ठग लेती हैं अर्थात् हास्य, शपथ, मधुर किन्तु झूठे वचन आदिसे पुरुषको अपने में फसाती हैं, पूरुषका वचन किस अभिप्राय का है, कपट युक्त है या नहीं इत्यादि बातोंको नारी तत्काल जान लेती है किन्तु उस नारीके कपट प्रयोगको पुरुष नहीं जान पाते ॥१३॥ पुरुष जैसे-जैसे स्त्रीकी बात मानता है वैसे-वैसे वह स्त्री पुरुषका तिरस्कार करती है । जैसे-जैसे कामवश पुरुष द्वारा उसकी मान्यता होती है वैसे वह नारी पुरुषका अपमान करती है ।।९९४।। मढ स्त्रियां अपने पति को दासके समान मानती हैं, महिलायें सर्वदा हो हाथियोंके सदृश मदोन्मत्त रहती हैं ॥६६॥ जिनका मन पर पुरुषोंमें लगा हुआ है, जो शील, संयम, तपसे बहिभूत-रहित हैं ऐसी महिलायें सदा ही अपने पतिके लिये भयंकर दुःख देनेको सोचती हैं, जैसे कि अपकारी व्यक्ति दुःख देनेकी सोचते हैं ||६६६॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २८७ कुर्वन्ति दारुणां पीडामामिषाशनलालसाः । अपराध विनाप्येताः पुसा ज्याना इवाधमाः ॥६६७।। शंपेव चंचला नारी संध्येव क्षणरागिणी । छिद्रार्थिनां भुजंगीव शर्वरीव तमोमयी ॥६६८।। सिकतातृणकल्लोलरोमाणि भुवनत्रये । यावन्ति सन्ति तावन्ति मानसानि मृगौशाम् ॥६EET नगभूमिनभोऽम्भोधिसलिलक्षनभः स्वताम् । शक्यते परिमा कतुं स्त्री चित्तानां न सर्वथा ॥१०००॥ यथा समीरणोल्कांभोबुद् खुदाश्चिररोचिषः । एकत्र नावतिष्ठते तथैताश्चत्तवृत्तयः ।।१००१॥ - -. .. - - जिसप्रकार मांसके भोजनके इच्छुक व्यान बिना अपराधके भी जीवोंको दारुण पीड़ा देते हैं-मार देते हैं उसप्रकार ये अधम कामात स्त्रियां पुरुषोंको बिना अपराधके दारुण पीड़ा देती हैं ।।६६७।। यह नारो विद्युत्के समान चंचल, संध्याके समान क्षणभरके लिये रागी, छिद्रकी इच्छुक भुजंगीके समान और रात्रिके समान अंधकारमय होती है ।।६६ भावार्थ-विद्य त आकाश में चमककर नष्ट होती है वैसी नारीकी बद्धि चपल होती है । संध्याके समय आकाशमें लालिमा क्षणभर टिकती है पैसे नारोको प्रीति अल्पकालीन होती है, सपिणी जैसे छिद्र-बिलको चाहती है वैसे नारी पराये छिद्-दोष देखना चाहती है और जैसे रात्रि अंधकारमय होती है वैसे स्त्रियोंका मन वासना देष आदि रूप अंधकार युक्त हुआ करता है । तीन लोकमें जितने बालुके कण हैं, जितने तृणके तिनके हैं, समुद्र में जितनी लहरें हैं मनुष्योंके शरीरों पर जितने रोम हैं उतने मानस विकार मनके अभिप्राय या मनके भाव स्त्रियोंके हुआ करते हैं || REEIN संसारमें पर्वत, भूमि, नभ, सागरका जल, आकाशके नक्षत्र इन सबको गणना करना शक्य है किन्तु स्त्रियों के चित्तोंकी गणना करना सर्वथा शक्य नहीं है ।।१०००।। जैसे वायु, उलका, जलके बुलबुले, विद्य तु ये पदार्थ एक जगह टिकते नहीं वैसे ये स्त्रियाँ एक पुरुषसे अधिक समय तक प्रीति नहीं करती Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] मरणकण्डिका गृहीतु शक्यते जातु परमाणुरपि ध्रु बम् । न सूक्ष्म योषितां स्वान्तं दुष्टानामिव चंचलम् ॥१००२॥ कुखः कंठीरवः सर्पः स्वोकतुं जातु शक्यते । न चित्तं दुष्टवृत्तीनामेतासामति भोषणम् ॥१००३।। रूपं संतमसि द्रष्ट विद्युद्योतेन पार्यते । चेतश्चलस्वभावानां योषाणां न कथंचन ॥१००४।। हरंति मानसं रामा नराणामनुवर्सनः । तावद्यावन्न जानंति रक्त कुटिलचेतसः ॥१००५॥ हसितः रोदनेर्वाक्यैः शपथविविधैः शठाः । अलीकर्मानसं पुंसां गृह्णन्ति कुटिलाशयाः ॥१००६॥ हरंति पुरुषं वाचा चेतसा प्रहरंति ताः । वाचि तिष्ठति पीयूषं विष चेतसि योषिताम् ॥१००७।। हैं ।।१००१॥ कदाचित् परमाणुको ग्रहण कर सकते हैं-पकड़ सकते हैं किन्तु स्त्रियोंके सूक्ष्म मनको-सूक्ष्म अभिप्रायको ग्रहण नहीं कर सकते हैं । जैसे दुष्ट व्यक्तियों के चंचल मनको ग्रहण नहीं कर सकते वैसे नारीके चंचल मन को पकड़ नहीं सकते हैं ।।१००२।। कदाचित क्रोधित सिंह और सर्पको पकड़ सकते हैं किन्तु दुष्ट दुराचारिणी इन स्त्रियोंके अति भयंकर मनको पकड़ नहीं सकते हैं ॥१००३।। विद्य त् प्रकाश द्वारा अंधकारमें रूप देखना शक्य है किन्तु चंचल स्वभाववालो युवतियोंके चित्तको देखना किसी प्रकार भो शक्य नहीं है ।।१००४।। कुटिल चित्त वालो स्त्रियां पुरुषों के चित्तको अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा तब तक हरण करती हैं जब तक कि उस पुरुषको अपने में अनुराग युक्त हुआ नहीं जानती अर्थात् अपने में पुरुषको आसक्त होनेतक उसके मनके अनुसार स्त्रियां चलती हैं परुषको अपने में आसक्त बनाके ही छोड़तो हैं ।।१००५॥ कुटिल मनवाली शठ स्त्रियां हँसी द्वारा रुदन द्वारा, विविध वाक्य और शपथ द्वारा एवं झूठ संभाषणों द्वारा पुरुषों के चित्तको ग्रहण करती है अर्थात् पुरुषको अपने वश में कर लेती हैं ।।१००६॥ दुष्ट स्त्रियां अपने वचनसे पुरुषको हर लेतो हैं तथा मनसे उसपर प्रहार करती हैं अर्थात् वाणो तो मीठी बोलती हैं और मन में उस पुरुषको नष्ट करनेका सोचती हैं। सच है स्त्रियोंके वचनमें तो अमृत है और मनमें विष भरा रहता है ।।१००७॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुधिषि महाविक र [ २८६ पाषाणोऽपि तरेत्तोये न बहेवपि पावकः । न चित्तं पुरुष स्त्रीणां प्रांजलं जातु जायते ॥१००८।। प्रांजलत्वं बिना स्त्रीषु विस्र भो जायते कथम् । विस्र मेण विना तासु जायते कीरशी रतिः ॥१००६।। बाहुभ्यां जलधेः पार ती| याति परं ध्र बम् । न मायाजलधेः स्त्रीणां बहुविभ्रमधारिणः ॥१०१०।। सव्याने व गुहा रत्नबहुभेदेविराजते । रमणीया सघोषा च जायते महिला सदा ।।१०१।। न दृष्टमयि सद्भावं कधीः प्रतिपद्यते । गोधान्तद्धि विधत्ते सा पुरुष कुलपुज्यपि ॥१०१२॥ कदाचित् जल में पाषाण तैरने लग जाय, अग्नि किसीको न जलावे ऐसा संभव है किन्तु पुरुषपर स्त्रियोंका चित्त सरल भावरूप नहीं हो सकता ।।१००८।। जब स्त्रियों में सरलता नहीं है तो उनमें विश्वास किसप्रकार कर सकते हैं ? और विश्वासके बिना उन स्त्रियोंमें रति किस तरह हो सकती है ? ।।१००९।। कदाचित् दोनों बाहु द्वारा तैरकर सागरका किनारा पा सकते हैं किन्तु स्त्रियोंके बहुत से विभ्रमरूपी भंवरवाले मायारूपो सागरका किनारा पाना नियमसे शक्य नहीं है ।।१०१०॥ जिसप्रकार कोई गुफा बहुत प्रकारके रत्नोंसे शोभायमान है किन्तु सिंह व्यान युक्त है, उसप्रकार महिला सुंदर और दोषयुक्त है ।।१०११॥ भावार्थ-पर्वतकी गुफा रत्नोंसे मनोहर लगती है, किन्तु उसके भीतर सिंहादि क्रूर जन्तु होनेसे भयावह होती है, वैसे स्त्री सुदर रूपवाली है किन्तु मनमें कुटिलता वासना, छल, ईर्षा आदि दोष भरे होनेसे भयावह है । कुटिल बुद्धिवाली स्त्री कुलवान् हो तो भी किसीके द्वारा दोषके देखने पर भी उस दोषको स्वीकार नहीं करती, जैसे गोह नामका जानवर किसी स्थान पर चिपक जानेपर उसे छोड़ता नहीं, वैसे स्त्री पुरुषके द्वारा उसका दोष बतानेपर भी उस दोषको न स्वीकार करती है और न छोड़ती है ।। १०१२।। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] मरणकण्डिका दोषाच्छादनतः सा स्त्री बर्वधविधानतः । प्रमदागविता प्राज्ञः प्रमावबहुलत्वतः ॥१०१३॥ नारिय॑तः परोस्त्यस्यास्ततो नारी निगद्यते । यतो विलीयते दृष्ट्वा पुरुषं बिलया ततः ॥१०१४।। कुत्सिता नुयंतो मारी कुमारी गदिता ततः । बिभेति धर्मकर्मभ्यो यतो भीरुस्ततोमता ॥१०१५।। यतो लाति महादोषं महिलाभिहिता ततः । अबला भण्यते तेन न येनास्ति बलं हृदि ।।१०१६।। जुषते प्रीतितः पापं यतो योषा ततो मता । पसो समय सुते ललाना भणिता ततः ।।१०१७।। भावार्थ-स्त्री अपने दोषको छिपाती ही है भले ही उसको प्रत्यक्ष देख लिया हो, कुलवंती नारी भी दोषको स्वीकार नहीं करेगी कि मैंने यह दोष किया है। उलठे यह दोष मुझमें है नहीं मैंने किया ही नहीं ऐसा कहती है जैसे गोह प्राणी किसी स्थानका आश्रय लेकर उसको इतना चिपक जाता है कि उसको कितना भी छुड़ाया जाय किन्तु उस स्थानको छोड़ ता नहीं । अथवा गोह पुरुषको देखकर अपनेको छिपानेकी कोशिश करता है वैसे ही स्त्री मुझे कोई देख न लेवे ऐसी कोशिश करती है । सैंकड़ों प्रयत्न करनेपर भो स्त्रो अपने हठको नहीं छोड़ती। अब यहां स्त्रीवाचक जो जो नाम हैं उनका निरुक्ति अर्थ बतलाते हैं दोषोंका आच्छदन करने से यह नारी 'स्त्री' कहलाती है वध करनेसे वध कहलातो है तथा प्रमादकी बहुलताके कारण उसे प्राज्ञपुरुष 'प्रमदा' कहते हैं ।।१०१३॥ पुरुष के लिये इससे बढ़कर अन्य कोई शत्रु नहीं है अतः "नारी" कही जाती है (न अरिः इति नारी) पुरुष को देखकर विलोन होती है-छिप जाती है अतः विलया है ।।१०१४।। पुरषके कृत्सित मरणका उपाय करनेसे "कुमारी" कहलाती है जिसकारणसे धर्म कार्यसे डरती है उस कारणसे "भोरु" नामवाली है ।।१०१५।। जिसकारणसे महादोष लाती है उस कारणसे महिला कहलाती है । जिसकारणसे हृदय बल नहीं रखती उस कारणसे "अबला" नामसे कही जाती है ॥१०१६।। प्रीतिपूर्वक पाप सेवन करनेसे "योषा" मानी जाती है, खोटे आचरण में लगी रहती है अत: "ललना" कही जाती है ॥१०१७।। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २६१ नामान्यपि दुरर्थानि जायते योषितामिति । समस्तं जायते प्रायो निषितं पापचेतसाम् ॥१०१८।। मत्सराधिनयायासक्रोधशोकायशोभियाम् । सर्वासां कारणं रामा विषाणामिव सपिणी ॥१०१६॥ कुलजातियशोधर्मशरीरार्थशमादयः । नाश्यते पोषया सर्वे वात्यया तोयदा इव ।।१०२०॥ पायकः सुखदारूणां आवासो दुःखपाथसाम् । प्रध्ययो व्रतरत्नानामनर्थानां निकेतनम् ॥१०२१॥ असत्यानां गृहं योषा वंचनानां वसुधरा । कुठारी धर्मवृक्षाणां सिद्धिसौधमहागला ॥१०२२॥ दोषाणामालयो रामा मोनानामिव वाहिनी । गुणानां नाशिका माया बतानामिव जायते ॥१०२३।। पापिनी स्त्रियों के नाम भी खोटे अर्थवाले हुआ करते हैं । ठीक ही है, क्योंकि पापी चित्तबालोंके समस्त मन वचन आदि प्रायः निंदित हुआ करते हैं ॥१०१८।। मत्सर, अविनय, कष्ट, क्रोध, शोक, अयश, भय इन सभोका कारण स्त्री है जैसे विषका कारण सर्पिणो है ।।१०१९।। स्त्री द्वारा कुल, जाति, यश, धर्म, शरीर, धन और प्रशभभाव आदि समस्त प्रशस्त पदार्थ नष्ट किये जाते हैं जैसे आंधी द्वारा मेघ नष्ट किये जाते हैं, ।। १०२० ।। सुखरूपो लकड़ियोंके लिये नारो पावक-अग्नि है, दुःखरूपी जलका मानो निवास स्थल है, व्रतरूपी रत्तोंके नाशका कारण है और सर्व अनर्थोका निकेतन ( घर ) नारी हो है ॥१०२१॥ स्त्री असत्य भाषणोंका गृह है, ठगाईको भूमि है, धर्मरूपी वृक्षोंको काटने वाली कुठारी नारी हो है, सिद्धि रूपो महलको यह महा अर्गल है ।।१०२२।। दोषोंका स्थान स्त्री है जैसे मछलियोंका स्थान नदी है गुणोंको नष्ट करनेवाली स्त्री है जैसे कि माया-छलकपट व्रतोंको नष्ट करनेवाली है ।।१०२३।। पुरुष प्रादिको बांधने के लिये स्त्री पाशके सहश है, उन पुरुषों को काटने के लिये तलवार समान है, छेदने के लिये पैना भाला है और इबने के लिये फँसनेके लिये, अगाध कीचड़ सदृश है ।।१०२४॥ यह नारी पुरुषोंका Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] मरणकण्डिका बंधने महिला पाशः खड्गः पुंसां निकर्तने । छेक्ने निशितः कुतः पंकोऽगायो निमज्जने ॥१०२४।। नराणां भेदने शूलं वहने नगवाहिनी । भारणे दारुणो मृत्युमंलिनीकरणे मषी ॥१०२५॥ प्रनलो दहने पुंसां मुबगरश्चूर्णने परः । ज्वलंती पहने फंडूः महिनाको १२॥ उष्णश्चंद्रो रविः शोतो जायते गगनं घनम् । नादोषा प्रायशो रामा कुलपुश्यपि जातु चित् ।।१०२७।। छंद रथोद्धतासपिणीव कुटिला बिभीषणा वैरिणीव बहुदोषकारिणी। मंडलीय मलिना नितंबिनो चाटुकर्म वितनोति यच्छतम् ।।१०२८॥ नारीम्यः पश्यतो दोषानेतानन्यांश्च सर्वथा । चित्तमुद्धिजते पुंसो राक्षसीभ्य इव स्फुटम् ॥१०२६॥ भेदन करने के लिये शूलके सदृश है, बहाकर ले जाने हेतु पर्वतकी नदी है, मारणमें दारुण मृत्युवत् है और मलिन करनेके लिये स्याही सदृश है ।।१०२५॥ पुरुषोंको जलाने के लिये मानो अग्नि ही है, चूर्ण कराने में मुद्गर समान है, वासना रूप अग्निको बढ़ाने के लिये पवन है और पुरुष का हृदय विदारण करने के लिये करोंत है ॥१०२६।। कदाचित चन्द्रमा उष्ण हो सकता है, सूर्य शीतल हो सकता है, गगन धनोभूत हो सकता है किंतु कलवंती स्त्रियां भी प्रायः दोष रहित नहीं देखो जाती हैं ।।१०२७॥ यह स्त्री सर्पिणीके समान कटिला, वैरीके समान भयंकर बहुत दोषोंको फरनेवाली होती है. मंडलोके समान मलिन यह नारी सैंकड़ों चाटुकर्मको करती रहती है अर्थात पूरुषको वश करने हेतु उसको चाटुकारी करती है ॥१०२८।। नारी द्वारा होनेवाले इन दोषोंको तथा अन्य भी बहुतसे दोषोंको देखकर पुरुषका चित्त सर्वथा उनसे उदविग्न हो जाता है अर्थात् ऐसे दोष युक्त नारियोंसे फिर पुरुष प्रेम नहीं करते उनसे डरते हैं जैसे राक्षसीसे अतिशय डर लगता है ।।१०२९।। स्त्री विषयक इन दोषोंको जानकर विद्वान पुरुष Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - अनुशिष्टि महाधिकार [२६३ योषास्त्यजति विद्वांसो दोषाज्ञात्वेति दूरसः । व्याघ्रीरिव कृपाहीमाः परामिष परायणाः ॥१०३०।। दोषा ये संसि. नारीणां नराणां ते विशेषतः । द्रष्टव्या दुष्ट शीलानां प्रकृष्टबलतेजसाम् ।।१०३१।। व्याघ्राइस परित्याज्या नरा दूरं कुचेतसः । रामाभिः शुद्धशीलाभी रक्षतीभिनिजं व्रतम् ।।१०३२।। यथा नरा विमुंचते बनिता ब्रह्मचारिणः । त्याज्यास्ताभिर्नरा ब्रह्मचारिणीभिस्तथा सदा ।।१०३३॥ न रामा निखिलाः संति दोषवन्त्यः कदाचन । देवता इव श्यंते वंदिता बहवः स्त्रियः ॥१०३४।। मातरस्तीर्थकतणां भवनोयोतकारिणां । जायंते बनिता धन्याः शक्रवंयक्रमांबुजाः ॥१०३५।। ------ ... ... . ..- . -- इनको दरसे ही छोड़ देते हैं, जैसे निर्दयी, परके मांस में आसक्त ऐसी ब्याघ्रियों को दरसे ही छोड़ देते हैं ॥१०३०।। इसप्रकार यहांतक पुरुषोंको स्त्री संबंधी दोषोंको बतलाकर उनसे विरक्त रहनेका उपदेश दिया, अब आगे स्त्रियोंको मोक्षमार्ग में स्थिर कराने हेतु उपदेश देते हैं... जो दोष नारियोंमें कहे हैं वे दोष दुष्ट स्वभाववाले और उत्कृष्ट बल तेज वाले पुरुषों में भी विशेषतया देखने चाहिये अर्थात् पुरुषसे अपने मोहको हटाने के लिये पुरुषके दोषों को देखते सोचते रहना चाहिये ॥१०३१।। शुद्ध शीलवंती अपने ब्रह्मचर्य व्रतकी रक्षा करनेवाली स्त्रियों द्वारा खोटो बुद्धिवाले पुरुषों को दूरसे ही छोड़ देना चाहिये, जैसे कि व्याघ्रको दूरसे छोड़ देते हैं ।।१०३२।। जैसे ब्रह्मचारी पुरुषों द्वारा स्त्रियां त्याग दो जातो हैं वैसे ब्रह्मचारिणो स्त्रियों द्वारा पुरुष सदा त्याज्य होते हैं ॥१०३३।। सभी स्त्रियां दोष युक्त कभी भी नहीं होती, बहुतसी स्त्रियां देवताओं के समान वंदनीय भी देखी जाती हैं |११०३४।। तीनों लोकों में प्रकाश करनेवाले तीर्थकर प्रभूको मातायें इन्द्र द्वारा वंदनीय हैं चरण कमल जिनके ऐसी श्रेष्ठ धन्य महिलायें भी होती ही हैं ।। १०३५।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ] मरणकण्डिका शलाकापुरुषास्ताभिर्जन्यंते भुवनाचिताः । धात्रीभिरिव शुद्धाभिर्मणयः पुरुतेजसः ॥१०३६॥ पुरत्नानि न जायते शुद्धसोलाः स्त्रियो विना। विना नीरबमालाभिः पानीयानां क्व संभवः ॥१०३७॥ प्राजन्म विषयाः काश्चिष्ब्रह्मचर्यमखंडितम् । धरंति दुर्धरं धन्या ज्वलद्दीपमिबोज्ज्वलम् ॥१०३८॥ कन्याभिरायिकाभिरच घीयते दुश्चरं तपः । विच्छिद्य शमशस्त्रेण मन्मथप्रतिबन्धकम् ॥१०३६॥ ध्रियते शुद्धशोलाभिर्यावजीवमदूषितम् । पतिब्रह्मन्नतं स्त्रीभिः पराभिः पूजितं सताम् ॥१०४०।। देवेभ्यः प्रातिहार्याणि प्राप्ता विख्यातकीर्तयः । योषाः शोलप्रसादेन श्रूयंते बहवो भुवि ।।१०४१॥ ऐसी धन्य माताओं द्वारा तीन भुवनोंमें पूजित शलाका महापुरुष उत्पन्न किये जाते हैं, जैसेकि शुद्ध पृथ्वो द्वारा उत्कृष्ट तेजवाले रत्न उत्पन्न किये जाते हैं ।।१०३६।। शुद्ध शीलवाली महिलाओं के बिना तीर्थकर, बलदेव जैसे नररत्न उत्पन्न नहीं हो सकते, जैसे मेघ मालाओंके बिना जलकी उत्पत्ति कहांसे हो सकती है ? नहीं हो सकती ११०३७।। इस धरातल पर विधवा स्त्रियां विवाह होते ही तत्काल पतिदेवके मृत्यु होनेसे ब्रह्मचर्यको अखंड रखतो हैं अथवा पतिके मृत्यूके पश्चात् सदा ब्रह्मचर्यकी रक्षा करती हैं। अनेक धन्य स्त्रियां प्रारंभसे जलते हुए दीपकके समान उज्ज्वल दुर्धर ऐसे ब्रह्मचर्यको धारण करती हैं ।।१०३८।। कुमारी कन्याओं द्वारा, आयिकाओं द्वारा प्रशमभावरूप शस्त्रसे मन्मथ प्रतिबंधको छेदकर घोर तप तपा जाता है अर्थात कन्या आदि काम वासनाका त्यागकर उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य पालन करती हैं, आर्यिकायें ब्रह्मचर्यके साथ उन-उन तप करती हैं ऐसी नारियां धन्य हैं निर्दोष हैं ।।१०३९।। अनेक अनेक शुद्ध स्वभाव वाली श्रेष्ठ स्त्रियां सज्जन पुरुषों द्वारा पूजित निर्दोष पति ब्रह्मवत अर्थात् अपने एक पतिको छोड़कर अन्य सभी पुरुषोंके त्याग रूप व्रतको यावज्जीव तक पालन करती हैं ॥१०४०।। विख्यात है कीत्ति जिनकी ऐसी बहुतसो महिलायें इस पृथिवोपर Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्ट महाधिकार शीलवंत्यो विलोक्यते ता धन्या बुधवंदिताः । समर्था: शोतलोकतु या ज्वलंतं हुताशनम् ।११०४२ ॥ सर्वशास्त्रसमुद्राणां वंदितानां जगत्त्रये । सवित्र्यः सन्ति शीलाढयाः साधूनां चरमांगिनाम् ॥ १०४३ ॥ निमज्ज्यंते न पानीयनियंते न नदीजलं । सत्यो व्यालेर्न भक्ष्यन्ते न दह्यन्ते हुताशनः ।। १०४४।। मोहोदयेन लायंते ही सामनुभाः शुभाः । परिणामा इति ज्ञात्वा मोहो निद्यो न जन्तवः ।। १०४५। [ २९५ सुनी जाती हैं जिन्होंने अपने शील प्रसादसे देवेन्द्रों द्वारा प्रातिहार्य प्राप्त किये थे ।। १०४१ ।। भावार्थ-सीता, अंजना, द्रौपदी, अनंतमती, चंदना आदि अनेक श्रेष्ठ स्त्रियाँ इस पृथिवीमें प्रसिद्ध हैं कि जिन्होंने अपने पावन शीलव्रत द्वारा देवोंका भी आसन कंपायमान किया या देवोंके द्वारा जिन्होंने सिंहासन, छत्र चामर आदि विभूतिको प्राप्त किया था । जैसे सोता जब अपने शीलको परीक्षा दे रही थी उस वक्त देवने अग्निका जल करके उसको सिंहासन पर बिठाकर जयकार, दुंदुभिनाद, पुष्पवृष्टि आदि अतिशय किये थे । जब अंजना भयानक बनमें गुफा में रही थी तब उसके पास आते हुए सिंहको देवने हो भगा दिया था ऐसे अन्य अन्य नारियोंका उज्ज्वल ब्रह्मचर्यका प्रताप शास्त्रों में पढ़ने को मिलता है | अतः सब स्त्रियां दुष्टा कुलटा है ऐसा नहीं समझना न सब पुरुष ही दुष्ट कुलटे हैं न सब स्त्रियां कुलटा हैं । बुद्धिमान द्वारा वंदित शीलवान् नारियां देखी जाती हैं वे नारियां इस संसार मैं धन्य हैं जो कि जलती हुई अग्निको ठंडा करने में समर्थ हैं ||१०४२ ।। जो समस्त शास्त्र समुद्रोंके पारगामी हैं, तीन लोक में वंदित हैं, चरम शरीरी हैं ऐसे साधुओं की शील संपन्न मातायें भी होती ही हैं ।। १०४३।। जो सत्य है वह जल द्वारा डुबाया नहीं जा सकता, नदी जल द्वारा बहाया नहीं जा सकता, जंगली पशुओं द्वारा भक्षण नहीं किया जा सकता और अग्नि द्वारा जलाया नहीं जासकता है ।। १०४४।। इस संसार में स्त्री और पुरुष दोनोंके ही मोहके उदयमे शुभ और अशुभ दोनों तरह के परिणाम हुआ करते हैं ऐसा जानकर मोहकी निंदा करना चाहिये, जीवोंकी नहीं ।। १०४५ ।। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] मरण कण्डिका साधारणेऽत्र सर्वेषां जीवानामनिवारिते । तुष्टाः सन्ति परिणामास्तत: कार्योऽस्य निग्रहः ॥१०४६॥ श्लाघ्या भवति नार्योऽपि शुद्धशीला महीयसा । स्त्री पुमानिति कुर्वन्ति शेमुषी मंवमेधसः ।।१०४७।। सामान्येन ततो नेह निदिताः सन्ति योषितः । शुसशीला न गच्छति दूषणं हि कदाचन ॥१०४८।। छंद रथोद्धतागुखशोलकलितासु जायते नांगताय मागितमलोपस । प्रास्पदं हि विदधाति तामसं हंसरश्मिषु कदाचनापि कि ॥१०४६॥ इतिस्त्री दोषाः। इस विचित्र विश्व में सभी जीवोंके बिना किसी रुकावटके सब तरहके-भले बरे कशील और सुशील परिणाम होते हैं इसलिये जो दुष्ट परिणाम हैं उनका कारण जो मोह है उसका निग्रह करना चाहिये ॥१०४६।। संसारमें शुद्ध शीलयुक्त नारियां भी महापुरुषों द्वारा प्रशंसनीय होती हैं, जो मंद बद्धि हैं वे ही यह स्त्री है यह पुरुष है ऐसी भेद बुद्धि करते हैं । आशय यह है कि स्त्री हो चाहे पुरुष। यदि दुष्ट कुशीली है तो दोनों ही निंदनीय हैं और यदि शोलवान सक्षाचारी हैं तो दोनों प्रशंसनीय हैं इस दृष्टि से दोनोंमें भेद नहीं है ।।१०४७।। इसीलिये तो सामान्यतया स्त्रियां ही निंदित नहीं की गयी हैं अर्थात् कोई यह न समझे कि स्त्रियों की ही केवल निंदा की है । स्त्री हो चाहे पुरुष यदि कुशील दुराचारी हैं तो दोनों निंदित हैं। शुद्ध शील स्वभाववाली स्त्रियां कभी भी दूषणको प्राप्त नहीं होती हैं ।।१०४८॥ शुद्ध शीलवान स्त्रियोंमें चारित्र मलिन नहीं होता, क्या कभी हंस रश्मियोंमें तामस स्थान पाता है ? नहीं पाता अर्थात हंस सदृश उज्ज्वल किरणोंमें जैसे मलिन अंधकारका रहना संभव नहीं वैसे शुद्ध शीलवतो नारियों में मलीन आचरण संभव नहीं है ।।१०४९॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ २६७ वेहस्य बीजनिष्पत्तिक्षेत्रांधोजन्मवृद्धयः । अंसाश्च निर्गमोऽशौचं ज्ञेयं व्याधिरनित्यता ॥१०५०।। विशेषार्थ---आचार्य अमितगतिने इस ग्रंथमें पुरुषों को विशेषतया मुनिजनोंको स्त्रियोंसे विरक्ति कराने हेतु स्त्रियोंमें दोष बताये हैं। पुनश्च स्त्रियोंको पुरुषोंसे बिरक्ति कराने हेतु पुरुषों में दोष बतायें हैं, किन्तु स्त्रियोंके दोष वर्णनमें बहुत विस्तार किया है। सर्वत्र ब्रह्मचर्य के वर्णनमें यहो तरीका देखा जाता है कि प्रथम सविस्तर स्त्रियों के दोष दिखाये जाते हैं और अंत में पुरुषोंके दोष बहुत थोड़े वाक्यों द्वारा बताये जाते हैं। अधिक वर्णन होने से स्त्री संबंधी दोषोंपर तो पाठक या श्रोताजनोंकी दृष्टि जाती है किन्तु पुरुष संबंधी दोषोंपर नहीं जाती। किन्तु यह उनकी बद्धिको ही कमी समझनी चाहिये । आचार्योंने कभी भी सर्वथा नारीकी निदाकी हो ऐसा नहीं है । स्त्री हो चाहे पुरुष खोटे आचरण करे तो दोनों निंद्य हैं। बहतसे लोग कूतकं किया करते हैं कि आचार्य ग्रंथ रचना करते हैं और वे पुरुष हैं ही, अत: स्त्रियों के दोषोंको बतलाते हैं । यदि स्त्रिया ग्रंथ रचना करे तो ऐसा नहीं होता या नहीं होगा ? किन्तु यह सर्वथा असत्य है । जो तत्त्वज्ञ है वह ऐसा न समझता है न प्रतिपादन हो करता है। शास्त्रोंमें सर्वत्र ब्रह्मचर्यके वर्णन में मुख्यतया स्त्री संबंधी दोषोंका वर्णन करने में तीन हेतु हैं प्रथम तो मोक्षमार्ग में निर्बाधगतिसे गमन पुरुषही कर सकता है अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति पुरुषके ही होती है, स्त्रियां मोक्ष मार्गपर चलती हैं किन्तु उनका गंतव्य तक निर्वाध गमन नहीं है । जो मार्गपर तो चले किन्तु मंजिल तक नहीं पहुंच पावे उनको मार्ग संबंधी कथन में मुख्यता कंसे हो सकती है ? दूसरा हेतु-चारों पुरुषार्थोंमें पूर्ण सफलता पुरुषोंको मिलतो है अर्थात् धर्म आदि पुरुषार्थको पूर्ण रूपेण करनेके लिये पुरुष ही सक्षम है । तोसरा हेतू-जो व्यक्ति जिस कार्यको प्रारंभसे अंततक पूर्ण कर सके उसी व्यक्तिको उस कार्य संबंधी उपदेश दिया जाता है । लौकिक कार्य में भी यही बात है। अंतमें निश्चित रूपसे यही समझना चाहिये कि यदि पुरुषोंको अपने ब्रह्मचर्य को निर्मल रूपसे पालन करना है तो उन्हें स्त्रियोंका संपर्क, उनमें अनुराग अवश्य छोड़ना पड़ेगा ऐसा नहीं होता कि उनसे अनुराग तथा संपर्फ करते रहें और ब्रह्मचर्य Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ] मरण कण्डिका देहस्थाशुचिनिर्बीजं यतो लोहितरेतसी । ततोऽसावशुचि यो यथा गूथाज्यपुरकः ॥१०५१॥ द्रष्टु घृणायते देहो व!राशिरिष स्फुटम् । स्प्रष्टुमालिगितु भोक्तु तखोजो भुज्यते कथम् ॥१०५२।। निर्दोष बना रहे । जब किसी भी वस्तुका अनुराग तोड़ना है तो उस वस्तु के दोष देखने से ही अनुराग टूट सकता है अन्यथा नहीं । इसलिये पुरुषोंको सर्वोत्कृष्ट व्रत परिपालनार्थ स्त्री संबंधी दोष अवलोकन कर उनसे विरक्ति करनी चाहिये और स्त्रियोंको सर्वोत्कृष्ट व्रत परिपालनार्थ पुरुष संबंधी दोष अवलोकन करके उनसे विरक्ति करनी चाहिये क्योंकि स्त्री और पुरुष दोनोंका एक दूसरेके प्रति आकर्षण होता है, उस आकर्षणको समाप्त करने के लिये एक दूसरेकी संगति वार्तालाप आदि त्याज्य होते हैं । "अंगार सदृशी नारी, नरः घृतोपमो मतः । अस्तु ! शास्त्रके हादको समझकर विवाद छोड़ देना चाहिये और तात्त्विक पैनी दृष्टि अपनाकर स्त्री और पुरुष दोनोंको ही अपने ब्रह्मचर्य का निर्दोष परिपालन करना चाहिये इसी में कल्याण है। स्त्री संबंधी दोषोंका कथन कर उनसे मुनिजनोंकी विरक्ति करायी अब शरीर संबंधी दोषोंको प्रतिपादन उससे वैराग्य कराने हेतु करते हैं-- शरीरके वर्णन करने में ये बारह प्रकरण हैं शरीरका बोज, उसकी निष्पत्ति क्षेत्र, आहार, जन्म, वृद्धि-जन्मक्षणसे लेकर आगे शरीरको वृद्धि होना, अवयव, निर्गम-कर्ण आदिसे मलका निकलना, अशुचित्य, असारता, व्याधि, अनित्यता इनके द्वारा शरीरका वर्णन करेंगे ॥१०५०।। ____ क्रमशः देहके बीजका वर्णन तीन कारिकाओं द्वारा करते हैं-जिसकारणसे शरीरका बीज माताका रक्त और पिताका वीर्य है उस कारणसे वह अशुचि है, जैसे कि मलसे निर्मित घृतपूरक-घेवर ॥१०५१॥ यह शरीर मलोंकी राशि सदृश है उसको देखना भी घृणा कराता है तो स्पर्शन करनेके लिये आलिंगन करने के लिये और भोगनेके लिये किसप्रकार शक्य है ? अर्थात रक्त वीर्यरूप बीजवाले इस घृणित शरीरको कैसे भोग सकते हैं-मैथून सेवन कैसे कर सकते हैं ? ॥१०५२।। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्ट महाधिकार शुद्धः कणिकाघृतपूरक: कणिकाशुद्धितः वर्चोबीजः कथं वेहो विशुद्धयति कदाचन ।। १०५३ ॥ ॥ इति बीजं ॥ दशाहं कलिलोभूतं दशाहं कलुषीकृतं । दशाहं च स्थिरीभूतं बीजं गर्भेऽवतिष्ठते ।। १०५४ ।। मासेन बुटी तरीकृत मांसपेशी च मासेन जायते गर्भपंजरे मासेन पुलकाः पंच मासेनांगानि षष्ठके । उपांगानि च जायंते गर्भवासनिवासिनः ।। १०५५।। ।। १०५६।। [ २९६ गेंहू आर्टसे बना घृतपूरक इसलिये शुद्ध है कि वह शुद्ध आसे बना है किन्तु मलरूप बीजयाला देह कैसे शुद्ध हो सकता है ? अर्थात् घेवरका उपादान शुद्ध है अतः घेवर शुद्ध है और शरीरका उपादान श्रशुद्ध रक्त वीर्य है अतः शरीर अशुद्ध है, वह कदापि शुद्ध नहीं हो सकता ।। १०५३ ।। शरीर के बीजका वर्णन समाप्त । मानव के शरीर के निर्माणका क्रम पांच श्लोकों द्वारा कहते हैं--माता पिताका रजोवीर्यं माताके उदरमें मिश्रित होकर दश दिन तक कलल अवस्थारूप अर्थात् तांबा और चांदीको गलाकर जैसे विलीन किया जाता है वैसे रजोवीर्यका होना कलल अवस्था है । उस रूप दस दिन तक रहता है । पुनः दश दिन तक वह कलुषित रूप रहता है । फिर दस दिन तक स्थिर रूप होकर रहता है ।। १०५४ । । इसप्रकार एक मास पूर्ण होने पर एक मास तक बबूलेको अवस्थाको प्राप्त होता है, पुनः एक मासमें घनीभूत होता है और पुनः गर्भपंजर में उक्त गर्भ मांसपेशी रूप एक महिने में बनता है ।1१०५५ ।। पुनः पांचवें महिने में उस गर्भ में पांच पुलक अर्थात् दो हाथ दो पैर और एक शिर इस रूप पांच अंकुर उक्त मांस पिंडमें निकलते हैं । छठे मासमें अंग और उपांगों की रचना होती है अर्थात् दो हाथ, दो पैर, नितंब, उर, पीठ और मस्तक ये आठ अंग एवं कान, नाक, ओठ, अंगुलो आदि उपांग इनकी रचना छठे मास में होती है ।। १०५६ । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] मरण कण्डिका चर्मरोमाणि जायते मासे तस्यात्र सप्तमे । स्पंदोऽष्टमे विनिर्माण नवमे वशमे ततः ।।१०५७॥ यतोऽशुचीनि सर्वाणि कललादीनि कारणम् । वर्गमीय ततो देहो जगुप्स्यो महतां सदा ॥१०५८।। इति निष्पत्तिः । तिष्ठत्यामाशयस्यात्र ऊर्ध्व पक्वाशयस्य सः । जरायुर्वेष्टितो मासानवालामेध्यमध्यगः ॥१०५६॥ मासमेकं स्थितोऽध्यक्षं वर्चीमध्ये जुगुप्स्यते । निजोऽपि न कथं गर्भ धांते नववश स्थितः ॥१०६०।। इति क्षेत्रम्। सातवें मास में चर्म और रोम पाते हैं । आठवें मास में उस गर्भ में हलन चलन होने लगता है और नवमें या दसवें मासमें उदरसे निकलना होता है अर्थात् प्रसूति होतो है ।।१०५७।। ___ इसप्रकार कलल आदि सभी अवस्थायें अशुचि हैं इसीलिये महापुरुषों द्वारा सदा ही यह देह मलराशिके समान जुगुप्सा-ग्लानि करने योग्य है ।।१०५८॥ शरीर निष्पत्तिका वर्णन समाप्त । शरीर निर्माण जहां होता है उस गर्भाशय रूप क्षेत्रको अशुचिताको बताते हैं----माताके उदरमें गर्भकी स्थिति-उसके रहनेका क्षेत्र आमाशय-खाये हुए अन्नका पाचन होनेके पूर्व जो स्थान रहता है वह आमाशय है और पक्वाशय अर्थात् जठरपेटको अग्नि द्वारा जो पक-पच चुका है ऐसे अन्नके रहनेका स्थान पक्वाशय कहलाता है । उस आमाशयके नोचे और पक्वाशयके ऊपर इसतरह बीच में जरायसे वेष्टित वह गर्भ नव मास तक रहता है जो कि अमेध्य मध्यग कहलाता है अर्थात् आमाशय और पक्वाशयके बीच में होनेसे अमेध्य मध्यग कहा जाता है ।।१०५९॥ ___ मल स्थानपर एक महिने तक कोई व्यक्ति रहता हुआ भपनेको दिखता है तो वह भले ही अपना हो तो भी ग्लिानि करने योग्य हो जाता है तो फिर नव मास पर्यंत बमन स्थानीय माताके गर्भ में रहा हुआ यह अपना शरीर कैसे ग्लानि करने योग्य नहीं होगा? होगा ही ।।१०६०।। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार पिच्छिलं चवितं दन्तमिश्रितं श्लेष्मणा च यत् । अन मात्रशितं युक्तं पित्तेन कटुकात्मना ।। १०६१।। अमेष्यसदृशं यांत समीरेण पृथक्कृतम् । ऊर्ध्वं कटुकमश्नाति विगलंतमसौ रसम् ॥ १०६२ ॥ ततोऽस्ति सप्तमे मासे नाभी ह्युत्पलनालवत् । ततो नाभ्या तथा वान्तं तदादते स गर्भगः ।। १०६३ ।। श्रमेध्यं भक्षयन्नेकं मासं दृष्टो जुगुप्स्यते । निजोपि न कथं गर्भे मासान्नवदशानसौ ॥१०६४।। इति श्राहार । [ ३०१ भावार्थ — कोई अपना निजो व्यक्ति भी है और मल मूत्रके स्थानपर थोड़े कालतक रहता है तो हम उस व्यक्तिकी ग्लानि निंदा आदि करने लग जाते हैं किन्तु अपना निज र नौ महिने तक माताओं द्वारा भुक्त उच्छिष्ट अन्नके मध्य रहता है तो यह कैसे ग्लानिकारक नहीं होगा ? फिर भी मूढ जन इस शरीर पर स्नेह करते हैं । माता के उदर में शरीर के लिये कैसा आहार मिलता है यह बताते हैं दांतोंके द्वारा चबाया हुआ कफसे गीला एवं मिश्रित कड़वे पित्तसे युक्त ऐसा माता द्वारा भुक्त अन होता है तथा जो मलके समान है वांत है खल भाग जिसका वायु द्वारा पृथक किया गया है ऐसे आहारका ऊपरसे रस गलता है तब उस रसकी एक एक कड़वी बूंदको गर्भस्थ जीवयुक्त शरीर ग्रहण करता है अर्थात् जब हम माता के उदर में रहते हैं तो माताके खाये हुए झूठे अन्नके रसको ही अपना आहार बनाते हैं ।। १०६१ ।। ॥१०६२।। छह मास तक तो इसतरह बीतते हैं । सातवें मासमें कमलकी नालकी तरह नाभि स्थानपर नाभि सहित एक नाल उत्पन्न होती है तब वह गर्भस्थ जीवसहित शरीर उस नाभिनाल द्वारा माता द्वारा वांत आहारको ग्रहण करता है ।। १०६३॥ किसीको एक माहतक अशुचिको खाते हुए देखा जाय तो उसकी ग्लानि आती है, भले Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] मरणकण्डिका शोणितप्रस्त्रवद्वारं दुर्गंधं जठराननं । श्रयाच्यजन्मभूतस्य लज्जनीयमशौचकम् ॥ १०६५॥ परो वस्तिमुखस्पर्शी महद्भिनिद्यते यदि उदरद्वारसंस्पर्शी विनिधो न तवा कथम् ।। १०६६। इति जन्म । निधानि लज्जनीयानि कर्माणि कुरुते शिशुः । कृत्याकृत्यभामानो नूढधीः ॥ १०६७॥ व्यासव्यं ही वह व्यक्ति अपना ही हो। तो फिर जो नच या दस मासतक गर्भ में प्रमेध्य भक्षण करता है ऐसा यह शरीर कैसे ग्लानिकारक नहीं होगा ? अर्थात् ऐसे शरीर से ग्लानि आना चाहिये || १०६४॥ गर्भस्थ शरीर के आहारका वर्णन समाप्त | शरीरका जन्म - मनुष्यका जन्म जिससे होता है वह रक्त और मूत्र निकलनेका द्वार है, दुर्गंध युक्त है, जहर - उदरका मुख है शब्द द्वारा कहने योग्य नहीं है, लज्जाकारक और अशुचि है ऐसा माताका योनि स्थान है उससे मानवका या शरीरका जन्म होता है ।। १०६५।। यदि उरका स्पर्श करनेवाला महान् पुरुषों द्वारा निंदनीय होता है तो उदरद्वार स्पर्शी - योनि स्थानका स्पर्श करनेवाला निंदनीय कैसे नहीं होगा ? होगा ही ||१०६६ ।। जन्म वर्णन समाप्त | जन्मवृद्धिका कथन करते हैं- गोदीका बालक - शिशु निंद्य और लज्जाकारक कामोंको करता रहता है वह मूढ़ बुद्धि कार्य और अकार्य तथा सेव्य और असेव्यको नहीं जानता है अर्थात् छोटेसे बालकको यह काम करना योग्य है यह पदार्थ खाने योग्य है ऐसा विचार नहीं रहता है ।। १०६७।। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [३० स चर्मपूयमांसास्थिवर्चीमूत्रककादिकं । स्वस्यापरस्य का वक्त्रे क्षिपते विगतत्रपः ॥१०६८।। यत्किचिकुरुते ब्रूते बालः खादत्यलज्जितः । हवते विगतज्ञानः प्रदेशे यत्र तत्र वा ॥१०६६।। घाले यदि कृतं कोऽपि कृत्यं संस्मरति स्वयम् । तदात्मन्यपि निर्वेदं पात्यन्यत्र न किं पुनः ॥१०७०।। अमेध्यस्य कुटो गात्रमध्ये नव पूरिता । प्रमेध्यं सवते छिद्र अमेध्यमिव भाजनम् ॥१०७१॥ इति वृद्धि । शतानि त्रीणि संत्यस्थना मज्जापूर्णानि विग्रहे । संधीनामपि तावन्ति सन्ति सर्वत्र मानुषे ॥१०७२।। वह निर्लज्ज शिशू अपने या परके मुख में चर्म, हड्डी, पीप, मांस, मल, मूत्र और कफ आदिको डालता है, उसे कुछ ज्ञान या समझ नहीं रहती है ।।१०६८॥ वह शिशु जो कुछ भी कार्यको करता है जो चाहे कुछ भी बोलता है। निर्लज्ज हुआ कुछ भी खाता है । जिसको ज्ञान नहीं है ऐसा यह बालक जहां तहां मलको कर डालता है ॥१०६६।। बाल अवस्था में स्वयं जो अयोग्य कार्य किया था उस कृत्यको यदि कोई स्मरण कर लेवे अथवा उसको कदाचित् प्रयुक्त कृत्य की याद मा जाय तो वैराग्य होता है फिर अन्य स्त्री आदिके विषयमें क्या निर्वेद नहीं होगा? होगा हो । आशय यह है कि हमने स्वयंने बचपन में जो जो गलत कार्य किये उनकी याद आवे तो ग्लानि से मन भर जाता है और उससे किसीको वैराग्य भी हो जाता है । जब स्वयं के बचपन की यह वाता है तो अन्य स्त्री आदिके शरीरसे ग्लानि क्यों नहीं होगी ।।१०७०।। यह शरीर अमेध्य-अशुचिकी कुटी-झोंपड़ी है वह अमेध्यसे ही भरी है और अमेध्यको झरातो है, जैसे अमेध्यसे भरा पात्र यदि छिद्र सहित हो तो अमेध्यको झराता है ।।१०७१।। शरीर वृद्धि वर्णन समाप्त । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ } मरण मांसपेशीशिरास्नायुशतान्यंगे पंच सप्त नव प्राज्ञाः शिराजालानि चत्वारि शिरामूलानि षट् चंद यथाक्रमम् 1 सर्वदापि प्रचक्षते ।। १०७३। कंडराणि च षोडश । मांसरज्जुद्वयं तथा ॥ १०७४ ।। कालेयकानि सप्तांगे त्वचः सप्त निवेदिताः । सर्वत्र कोटि लक्षाणामशीती रोमगोचरा ।। १०७५।। आमपक्वाशयस्थानं षोडशैत्रष्टयः 1 कुथितस्याश्रयाः सप्त शरीरे संति मानुषे || १०७६ ॥ नव संति व्रणास्यानि मुच्यमानानि कश्मलम् । तिस्रः स्थूणाशतं देहे मर्म सप्तसंयुतं ।। १०७७।। शुक्रमस्तिष्कमेदांसि प्रत्येकं सूरयो विदुः । स्वकीयांजलिमानानि मनुष्याणां कलेवरे ॥१०७८६ ॥ अलिमितं पित्तं सांज लित्रयप्रमा श्लेष्मा पित्तसमो रक्तमर्द्धादकमितं मतम् ॥१०७६॥ I शरोरके अवयवोंका वर्णन इस मानव के शरीर में तीनसो हड्डियां हैं जो कि मज्जा नामकी दुर्गंध धातुसे युक्त हैं तथा संधियां भी तोनसी हैं ।। १०७२ || शरीर में मांस पेशियां पांच सौ शिरायें सातसी और स्नायु नौसी हैं ऐसा प्राज्ञ कहते हैं ।। १०७३|| तथा शिराओंके जाल चार, सोलह कंडरा, छह शिराओंके मूल और मांस रज्जु दो हैं ।। १०७४ ।। शरीर में कालेयक सात हैं, सात त्वचा हैं और अस्सी लाख कोटि रोम हैं ।। १०७५ || आमाशय और पक्वाशय में सोलह आंतें हैं तथा दुर्गंधके आशय सात हैं ।। १०७६ ।। इस देह में व्रण मुख नी हैं जो दुर्गंधिको झराते हैं। तीन स्थूणा वात पित्त कफ हैं और मर्मस्थान एक सो सात हैं ।। १०७७ ।। मानवोंके शरीर में शुक्र, मस्तक और भेद ये तीनों अपने अपने हाथसे अजुली प्रमाण है ऐसा आचार्य कहते हैं ।। १०७८ || शरीर में छह अंजुली प्रमाण पित्त हैं, तीन अंजुली प्रमाण वसा नामा धातु है । कफ पित्त के समान छह अंजुली है, रक्त आधा आढक [बत्तीस पल प्रमाण ] है ।। १०७६|| मल छह प्रस्थ प्रमाण है मूत्र आधा Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार सूत्रमर्द्धाढकप्रभम् । प्रस्थप्रमितं वर्चा नखानां विशतिदन्ताद्वात्रिशस्त्रकृता मता: ||१०८०॥ काय: कृमिकुलाकीर्णः कृमिणो वा व्रणोऽखिलः । तं सर्वं सर्वतो व्याप्य स्थिताः पंचचरण्यवः ||१०८१॥ इत्यंऽवयवाः सन्ति सर्वे कुथितपुद्गलाः । नेकोsयवयवस्तत्र पवित्रो विद्यते शुचिः ॥। १०८२ ॥ दग्धनिःशेषचर्माणं पांडुरंगों गलस 1 feerasपि नो कोऽपि वल्लभामपि वल्लभः ।। १०८३ ॥ अभविष्यन्न चेद्गात्रं विहितं सूक्ष्मया त्वचा | को नामेदं तारप्रक्ष्यन्मक्षिका पत्रतुल्यया कर्णयोः कर्णगूथोऽस्ति तथाक्ष्णोर्मलमश्रु च सिंघाणकादयो मिद्या नासिकापुटयोर्मलाः ।। १०८४|| 1 [ ३०५ ||१०८५ ॥ आढक है, नख बोस हैं, दांत बत्तीस हैं सब अवयवोंका यह जो प्रमाण बताया वह स्वाभाविक रूप है ( विकृत अवयव होनाधिक भो हुआ करते हैं एवं मल आदिक भी विकृत होनेपर हीनाधिक हो जाते हैं) ||१०८०|| यह शरीर कृमिकुलोंसे भरा है, जैसे व्रण घाव कृमियोंसे भरा रहता । ऐसे इस शरीरको सब ओरसे व्याप्त करके पांच वायुयें स्थित हैं || १०८१ ।। इस शरीर में सर्व ही अवयव कुथित - सड़े पुद्गल स्वरूप हैं । उसमें एक भी अवयव पवित्र शुचि नहीं है ||१०८२ । जिसका समस्त चर्म जल गया है जिससे सफेद अंगवाला हो गया है एवं सड़ा रक्त जिससे झर रहा है ऐसा यह शरीर बन जाय तो वह भले ही प्रिय था किन्तु ऐसा होनेपर अपना प्रिय व्यक्ति भी उसे देखने की इच्छा भी नहीं करता है ।। १०८३ ।। मक्खी के पंख के समान पतले चर्मसे यह शरीर यदि ढका हुआ नहीं होता तो उसको कौन व्यक्ति स्पर्श करता ? कोई भी नहीं करता ।। १०८४ ।। शरोर अवयव वर्णन समाप्त | निर्गमका वर्णन अब इस शरीर से क्या निकलता है शरीर में क्या-क्या पैदा होता है यह बताते हैं Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - - - . - लालानिष्ठोवनश्लेष्म पुरोगा विविधा मलाः । जायते सर्वदा वक्त्रे दंतकीटाकुलवणे ॥१०८६॥ ये मेनगुदयोः सन्ति बर्बोमूत्रादयो मलाः । न वक्तुमपि शक्यंते वीक्षितु ते कथं पुनः ॥१०८७।। चिक्कणो रोमकूपेष स्वेदः सर्वेषु सर्वतः । यकाः षट्पदिका लिक्षाजायंते सर्वदा ततः ।।१०८८।। गात्रेमुचति व सि विग्रहो निखिलरपि । गूथपूर्णो घटो गूथं छिद्रितो विवररिव ॥१०८६॥ गुह्यं रवयवैः स्त्रीणां निचित विविधर्मलेः । सारासारप्रष्टानां मानसं हियते कथम् ॥१०६०॥ लज्जनीयेऽतिबीभत्से मूढधी रमते कथम् । योनौ क्लिन्न स्रवद्रक्ते निचे कृमिरिवत्रणे ॥१०६१।। कों में कर्णों का मल रहता है तथा आंखोंमें उसका मैल और अश्रु निकलते हैं । नाकके पुटोमें सिंघान आदि निंद्य मल हुआ करते हैं ।। १०८५।। मुख में लार, थूक, कफ आदि विविध मल सदा हो रहते हैं, कैसा है यह मुख ? जिसमें दातोंके मसूड़ोंमें कीडोंका कूल और व्रण रहते हैं ।। १०८६।। मेदन और गुदामें क्रमशः मूत्र और मल आदि रहते हैं जिनको कहने के लिये भी शक्य नहीं उनका देखना किसतरह शक्य है ? अर्थात ये मेदन आदि पदार्थ निंदनीय होनेसे देखने कहने योग्य नहीं हैं ।।१०८७।। संपूर्ण रोम कूपों में चिकणा पसीना होता है, जिससे कि सदा जू लोक अर्थात् चर्मकी यूका जू उत्पन्न होती हैं ।।१०८८।। सारे ही शरीर अवयवोंसे मैल निकलता है, जैसे मैलसे भरे छिद्र वाले घटके छिद्रोंसे सतत् मैल झराता है ।। १०८६।। स्त्रियोंके विविध मलोंसे भरे गुह्य अवयवोंसे सार असारको देखने वाले मनुष्योंका मन कैसे लज्जित नहीं होता ? ||१०६०।। अति लज्जाका कारण, धिनावने, आद्र, रक्त झराते हुए निद्य ऐसे स्त्रीके योनिमें मुढ बुद्धि कैसे रमता है ? वह तो वैसा है जैसे व्रणमें कीड़े रमते हैं ||१०६१।। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार अंगारस्येव कायस्य बहिरंतश्च दृश्यते I कोण्यrययः शुद्धः सर्वथा मलिनात्मनः ।। १०६२॥ कायो जलः पयोधानां धाव्यमानोऽखिलंरपि । स्वभावमलिनो जातु नांगार इव शुध्यति ।। १०६३।। अभ्यंगस्नानमुखवंताक्षिभावनः । शश्वद्विशोध्यमानोऽपि दुर्गंधं वाति विग्रहः ॥ १०६४।। 1 मृतिकांजनवाश्राणधातु भूलवल्लिभिः के शास्यवासतांबूलधूपपुरुष दलादिभिः प्रच्छाय निवितं गंधं भुज्यतेऽन्यकलेवरम् । हिंग्वादिभिरिव द्रव्ये पिशितं विघृणात्मभिः ।। १०६६ ।। ।।१०६५।। [ ३०७ जिसप्रकार कोयले का अंदरका और बाहरका एक भी अवयव शुद्ध ( शुक्ल ) नहीं होता सर्वथा मैला (काला) ही होता है, उसप्रकार शरीरका एक भी अवयव शुद्ध दिखायी नहीं देता ।। १०६२।। निर्गम वर्णन समाप्त | शरीर अशुचि वर्णन - सागरोंके संपूर्ण जल से धोने पर भी यह स्वभावसे मैला शरीर कदाचित् भी शुद्ध नहीं होता, जैसे कोयला शुद्ध नहीं होता है ।। १०६३ || अभ्यंग, उद्वर्तन स्नान द्वारा तथा मुख प्रक्षालन, दांत धोवन, आंख प्रक्षालन आदि द्वारा यह शरीर सतत् शुद्ध करने पर भी दुर्गंधमय पदार्थों को उगलता रहता है ।। १०९४ || मुलतानी आदि मिट्टी द्वारा, अंजन, पाषाण स्वरूप अनेक प्रकारके रत्न, सुवर्ण आदि धातु या जल, छाल, जड़, बेल आदि पदार्थों द्वारा केश और मुख आदिका संस्कार तथा तांबूल, धूप, पुष्प, पत्र आदिसे निदित भौर दुर्गंधित शरीरको प्रच्छादित कर और सुगंधित करके उस स्त्री अथवा पुरुष के शरीरको भोगा जाता है अर्थात् घिनावने भागोंको ढककर दुर्गंधित भागों को जबरदस्ती सुगंधित करके कामुक स्त्री पुरुष उस शरीरका भोग करते हैं जैसे कि घिनावने दुर्गंधित मांसको हिंग आदि द्रव्योंसे संस्कारित कर दुष्ट निंदनीय पुरुष खाते हैं ।। १०६५।। १०६६।। यदि यह शरोर मयूरके समान स्वभावसे मनोहर होता तो Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] मरणकपिठका मयूरदेहबद्द हो यद्यभास्यनिसर्गतः अभविष्यत्तवा शोभा तस्मिन्नीक्षणतोषिणी ॥१०६७।। प्रात्मनः पसिप्तो खेलो यदि स्प्रष्ट घुणायते । तवा रामामुखांभो हि पोयते कथितं कथम् ॥१०६८।। थोक्ष्यमाणो मनुष्याणां बहिरंतश्च वीक्ष्यते । एरंउदंडवहेहो न सारोऽत्र कदाचन ॥१०६६॥ चमरीणां कचं क्षीरं गवां शृङ्गाणि खङ्गिनां । भुजंगानां मणिः पिच्छं बहिणां करिणा रदः ।।११००॥ कस्तूरिका कुरंगाणामित्थं सारो विलोक्यते । शरीरे न पुनर्न णां कोऽपि क्यापि कदाचन ।।११०१॥ छंद-ब त विसंवितकुथित सनि वा कुथितः कृते मिफुलयिषिधरभितो भुते। शुचि नणां सकलाशुचिमविरे भवति किंचन नात्र कलेवरे ॥११०२॥ उसको शोभा नेत्रको प्रसन्न करती अर्थात् स्वभावसे सुदर वस्तुको देखने में संतोष होता है, यह शरीर तो ऊपरसे जबरन मनोहरसा किया गया है स्वतः सुदर नहीं है | १०६७।। अपने स्वयं के मुखसे गिरा हुआ थूक यदि स्पर्श करने के लिये घृणा करता है तो स्त्रीके मुखका सड़ा जल अर्थात् लार किस प्रकार पो जाती है ? यह बड़ा आश्चर्य है ।।१०६८।। अशुचिका वर्णन समाप्त । असारता वर्णन प्रारंभ मनुष्योंके शरीरको अंदरसे बाहरसे देखते हैं तो वह एरंड दंडके समान असार ही नजर आता है इसमें कदाचित् भी सार दृष्टिगोचर नहीं होता है ॥१०६६।। चमरी गायके केश, गायोंका दूध, हिरण के सींग, सौकी मणि, मयूरोंके पंख, हाथियोंके दांत और हिरणोंकी कस्तूरी इतने पदार्थ तिर्यंचके शरीरसे कदाचित् कथंचित् सारभूत देखे जाते हैं किन्तु मानवोंके शरीरमें कहींपर कदाचित् भी कोई पदार्थ सारभूत दृष्टिगोचर नहीं होता है ॥११००।१११०१।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाषिकाय यदि षण्णवतिरोगाः संभवति विलोचने । किस्से तदा नृणां सर्वत्रापि कलेवरे ॥। ११०३॥ कोटयः पंचाष्टषष्टीरच लक्षाः सह सहस्रकः । नवभिर्नवतिः पंचशत्याशीतिश्चतुर्युता ।। ११०४ ॥ ५ पीनस्तनीन्दुमत्रा या तारुण्ये हरते मनः । श्रनिष्टा जायते जीर्णा सेक्षुयष्टिरिवारसा ।।११०५ ।। या यौवने प्रिया कांता सर्वावयवसु बरी । दुर्गंधा कुथितासास्ति बीभत्सा विरसा मृता ॥ ११०६ ।। [ ३०६ यह मानव शरीर सड़े पदार्थों का मानो घर है, सड़े पदार्थोंसे ही निर्मित है, विविध कीड़ों के समुदायसे चारों ओरसे भरा है, संपूर्ण अशुचिका स्थान है, ऐसे इस कलेवर में कुछ भी शुचि और सार वस्तु नहीं है | ११०२ ।। असारता वर्णन समाप्त | रोग वर्णन -- मानवके इस शरीर में यदि एक नेत्रमें छ्यानवे रोग संभव हैं तो सारे शरीर में कितने रोग होंगे ? सारे शरीर में तो पांच करोड, अड़सठ लाख, निन्यानवे हजार, पांच सो चौरासी रोग संभव हैं ।। ११०३ । ।११०४॥ रोग वर्णन समाप्त | अ- अनित्यता वर्णन - सुंदरी पीनस्तनी चन्द्र सदृश मुखवाली नारी तरुण अवस्था में मनको हरती है वही नारी वृद्धावस्था में अनिष्ट बुरी हो जाती है जैसे नीरस इक्षु-मन्ना अनिष्ट हो जाता है ।।११०५ ।। जो कांता यौवनमें सर्वांग सुंदरी और अत्यंत प्यारी थी वह मर जानेपर दुर्गंधित, बीभत्स, सड़ी, विरस हो जाती है अर्थात् स्त्रीका मृतक शरीर घिनावना होता है जो पहले सुह्वना लगता था ।। ११०६ ।। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] मरएकण्डिका म्रियते वल्लभा पूर्व स्वयं था म्रियतपुर। । जीवंती जोधतो चाहियते बलिभिर्बलात् ॥११०७॥ विरज्यते स्वयं तस्याः सा वा तस्य विरज्यते । परेण वा समायाति तिष्ठंती वा विरुष्यते ॥११०८।। चिरं तिष्ठति संस्कारे काष्ठग्रावाविरूपकम् । कलेवरं मनुष्याणां न संस्कारे महत्यपि ॥११०६॥ यौवनेंद्रियलावण्यतेजोरूप बलादयः । गुणाः क्षणेन नश्यति शारदा इव नीरदाः॥१११०॥ पतस्याहारवानार्थ सुरतस्य तपस्विनः । क्षणान्न कि महादेव्या नष्टः कुष्ठेन विग्रहः ॥११११॥ दांपत्य जीवनकी अघ्र वता--- कभी किसीकी पहले पत्नी मर जाती है तो कभी किसीका पति मर जाता है, कभी तो बलवान् अन्य पुरुष जीवित पतिके पस्नोको जबरन हरके ले जाता है ।।११०७।। अथवा पति पत्नी जीवित तो हैं किन्तु पति अपनी पत्नीसे किसी कारणवश विरक्त उदासीन हो जाता है या पत्नी अपने पतिसे नाराज उदास या विरक्त हो जाती है अथवा पत्नो अपने पतिको छोड़ कर अन्य पुरुषके साथ चली जाती है या पुरुष अपनी पत्नीको छोड़कर परायी नारीके साथ कहीं चला जाता है, कभी पति पत्नी साथ रहते हैं किन्तु परस्पर में विरुद्ध रहते हैं ।।११०८।। इस तरह दांपत्य जीवन दुःखरूप होता है। शरीर अध्र वता-- काष्ठ, पाषाण आदिके स्त्री या पुरुष, आदिके बने हए चित्र-प्रतिमा स्टेच आदिका संस्कार करते रहो तो वे पदार्थ चिरकाल तक ठहरते हैं-नष्ट नहीं होते किन्तु मनुष्योंके शरीरमें स्नान, व्यायाम, आहार आदि बहुतसे संस्कार करने पर भी वह ठहरता नहीं नष्ट हो जाता है ।।११०९।। शरीरका यौवन, इन्द्रियां, लावण्य, तेज, रूप, बल आदि गुण क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं, जैसे शरदकालीन मेघ क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं ।।१११०।। सुरत नामका राजा मुनिको आहार देनेके लिये गया इतने में ही उसको पट्टानीका शरीर क्षणमात्रमें कुष्ठ रोगसे क्या नष्ट-व्याप्त नहीं हुआ था ? हुआ ही था ॥११११।। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३११ हंतुमने कृतो मूढो दुनिधारेण मृत्युना । सेवते विषयं वध्यः पाणेनेव सुरादिकम् ॥१११२॥ व्याघ्र गाग्रे कृतो हेतु बिले साऽजगरे गतः । छिद्यमाने सुई लग्नो मूले विविधमूषिकः ॥१११३॥ सुरत राजाको कथाअयोध्याका नरेश सुरत नामका था पांच सौ रानियोंकी शिरोमणि सती नामकी प्रमुख रानी पर अत्यधिक स्नेह होने से सदा उसके निकट रहता था। राजाके मन में मुनिदानका तो बहुत भाव रहता था उसने सब राजकार्य छोड दिये थे किन्तु मुनियों को आहार देनेका कार्य हमेशा करता रहता, अन्य कार्य सब मंत्रियों पर छोड़ा था। एक दिन अपनी प्राण प्रियाके कपोल पर तिलक रचना कर रहा था इतनेमें आहारार्थ अनिका आगमन हुआ ; सजा रामोका श्रृंगार करना छोड़कर आहार देनेको चला गया । रानीको इससे क्रोध आया उस पापिनोने बहुत अपशब्द गाली अपवाद आदिसे मुनिकी महान निंदा की सब सखी दास दासियोंके समक्ष बहुत कुछ दुष्ट निंद्य वाक्य कहती हो रही इससे मुनि निदारूप भयंकर पापसे उसके शरीरमें तत्काल गलित कुष्ठ हो गया ! दुगंध आने लगी । राजा आहार देकर लौटता है और रानीको दशा देखकर स्तंभित हो जाता है । उसको वैराग्य होता है सर्व राज्यपाट छोड़कर जिनदोक्षा ग्रहण करता है । रानी कुछ समय बाद मरकर दुर्गतिमें चली जाती है । इसप्रकार यौवनका जोश, रूपका गर्व करनेसे रानीकी दुर्दशा हुई । कथा समाप्त । जैसे कोई चांडाल आदि नीच पुरुष है उसको अपराधके वश मृत्यु दण्ड मिल चुका है उस वक्त भी वह सुरापान आदि करता है (आयी हुई मृत्युका सोच नहीं करता है) वैसे मूर्ख पुरुष दुनिवार मृत्यु द्वारा मारने के लिये आगे करने पर भी अर्थात मत्यु निकट आ जानेपर भी विषयका सेवन करता है ॥१११२।। जिसको मारने के लिये आगे ब्याघ्र खड़ा है ऐसा कोई पथिक जिसमें अजगर है ऐसे कूपके वृक्षकी डालको दृढ़तासे पकड़ लेता है, वृक्षको जिस डालको पकड़ा है वह विविध चुहों द्वारा काटा जारहा है, ऐसी भयानक स्थिति में पड़ा वह मूढबुद्धि आगेकी Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] मरणकण्डिका अपश्यन्नग्रतो मृत्यु यथा कश्चन मदधीः । पतन्मधुकणास्वादे विधत्ते परमां रतिम् ॥१११४।। मत्यन्यानोभितो दुःखसर्प जन्मबिले गतः । लयमानस्तथा मूढो बहुभिविनमूषकः ॥१११५॥ आशामूले दृढं लग्नो विषयास्वादने रतिम् । महतों कुरुते नाशमपश्यन्नग्रतः स्थितः ॥१११६॥ मृत्युको नहीं देखता गिरते हुए मधुके बिंदुओंके स्वादमें परम रति करता है। जैसे यह पुरुष महामूढ माना जाता है वैसे मृत्युरूपी व्याघ्र जिसके आगे खड़ा देख रहा है ऐसा मोही प्राणी-मनुष्य दुःख रूपी सर्प जिसमें हैं ऐसे जन्म रूपी कूपमें लगा हुआ संसार वृक्ष जिसको कि आशारूपी डाल बहुत से विघ्नरूपी चूहों द्वारा काटी जा रही है उसको दृढ़तासे पकड़कर लटका है और उस भयावह स्थिति में आगेको मृत्युको नहीं देखता हुआ स्त्री आदि विषयके स्वाद में बड़ी भारी प्रीति करता है वह पुरुष महामूढ है ।।१११३॥ ॥१११४।।१११५।११११६॥ भावार्थ-यहांपर संसारो प्राणियों के मोहको विडंबनाका आचार्यने दिग्दर्शन किया है। यह एक रूपक है इस रूपकको "संसार वृक्ष" नामसे हम लोग जानते हैं। कोई पथिक सघन वन में रास्ता भूल गया है, इधर उधर मार्गको खोज करता है कि अस्मात सामने व्याघ्र दिखाई देता है यद्यपि भटकते हुए बहुत समय हो जानेसे उसके पैरों में शक्ति नहीं है, भूखा प्यासा है तो भी जान लेकर भागता है पुनः पीछे एक जंगली हाथी लग जाता है बिचारा घबराकर दौड़ते हुए एक अंध कूपके किनारमें स्थित वट वृक्षको जटाको पकड़कर कूपमें लटक जाता है, इधर उक्त हाथी क्रोधित हुआ वृक्षको उखाड़ने का प्रयत्न कर रहा है, जिस जटाको पथिकने पकड़ा है वह दो चूहों द्वारा खाया जा रहा है और अल्पकाल में हो कटकर नीचे गिरेगा, उसी जटाके ऊपरी भागमें मधु-मक्खियोंका छत्ता है. वृक्षके हिलनेसे उसपर बैठो मक्खियां उड़ उड़कर पथिकको बरी तरहसे काटने लगती हैं, किन्तु उस मधु छत्तेसे मधुको कुछ बिंदु पथिकके मखमें पड़ती है, अब वह पथिक इतनी भयावह स्थिति में गुजर रहा है फिर भी मधुके स्वादमें सब कष्ट भयको भूला हुआ है तत्काल होनेवाली मृत्युको भी बह भूल चुका है। यह एक रोमांचकारी बोध कथा है । इस रूपकको हर मुमुक्षुजनोंको अपने पर घटित Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ গ্নিতি সাৰিক্ষাৰ छंद-शालिनीरामाव!मध्यवर्ती मनुष्यः कोडरयेषोऽमेध्यरूपः शिशुर्वा । ब!लिप्तोऽमेध्यमध्यं प्रपत्तो कोरपसारं निवनीय स्वभावं ॥१११७॥ छंद-उपजातिअमेध्यनिर्माणममेध्यपूर्ण निषेवमाणवनिता शरीरम् । यमन्यते स्वं शुचिरस्तबोधेहास्यास्पदं कस्य न ते भवंति ॥१११८।। छंद-उपजातिबोजादयो येन शरीरधर्माश्चित्ते क्रियन्ते बुनिंदनीयाः । निषेव्यते मेध्यमयी न नारी कवाचनामेध्यकटोव तेन ॥१११६॥ --- कर चितन करना चाहिये कि यह चतुर्गतिरूप संसारमें मानव देहरूप वृक्ष है, मार्ग भूला हमा पथिक मैं स्वयं हूं। मृत्यु रूपी व्याघ्र मेरे आगे आया मैं डरसे भागा जा रहा था कि आकस्मिक कष्ट रूप जंगली हाथीने मेरा पीछा किया, मैं दौड़कर मित्ररूपी वक्षको डाल पकड़कर लटक गया उस डालको शुक्लपक्ष कृष्णपक्षरूपी चूहे काट रहे हैं अर्थात समय व्यतीत हो रहा है मृत्यूके क्षण निकट आ रहे हैं । डालीके ऊपरी भागमें गहरूपी छत्ता है और उसमें पंचेन्द्रियके विषय, भोजन, वस्त्र, काम सेवनादि रूप मधु एकत्रित है। मक्खियां विघ्न, रोग, चिता परिवार आदि हैं जो मुझे चारों ओरसे घेरकर काटे जा रहे हैं। ऐसो भयंकर परिस्थिति में गुजरता हुआ भी मैं उस विषय सेवनरूप मधु की बिंदुओंके स्वादमें प्रेम कर रहा हूं। अहो बड़ा आश्चर्य है ! 'धिक् धिक् मां" "किमान्धर्प मतः परम्" । अध्र व वर्णन समाप्त । यह अपवित्र कामो मनुष्य स्त्रीरूपी विष्ठाके मध्यवर्ती हुआ क्रीड़ा करता है अर्थात स्त्रियोंके घिनावने अवयवमें रतिपूर्वक क्रीड़ा करता है, जैसे विष्टासे लिप्त बालक विष्टाके बीच में खेलता है । अहो यह निंदनीय स्वभाव कसे सार हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥१११७॥ अशुचिसे निर्मित, अशुचिसे भरा हुआ स्त्रियों के शरीरका, जिन नष्ट बुद्धिवाले पुरुषों द्वारा सेवन किया जाता है और उसके सेवनसे जो अपने आपको पवित्र मानते हैं Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] मरणकण्डिका छ५-उपजाति-- निरीक्षते यो वपुषः स्वभावं वर्षोनियासस्य विनश्वरस्य । हे स्वकीयेऽपि विरज्यतेऽसौ दोषास्पदायाः किमु नांगनायाः ॥११२०॥ बलवा नराः शोलेस्तरुणस्तरुणा यतः । आयंते तरुणा वृद्धास्ततः शीलं बुधः स्तुतम् ॥११२१॥ यथा यथा क्योहानिः पुरुषस्य तथा तथा। मंदाः कामरतिक्रीडादर्परूप बलावयः ॥११२२॥ वे पुरुष किसके हँसीके पात्र नहीं होते ? होते ही हैं ।।१११८।। बुद्धिमानों द्वारा निंदनीय ऐसे बोज, निष्पत्ति, क्षेत्र, पाहार आदि शरीरके धर्म जिस पुरुष द्वारा विचारमें लाये जाते हैं, उस पुरुष द्वारा कभी भी अशुचिकी कुटीके समान अशुचिरूप नारी सेवित नहीं होती है ।।१११९॥ जो मलका घर, विनश्वर ऐसे शरीरके स्वभावको जानता देखता है वह पुरुष अपने शरीरसे भी विरक्त रहता है तो दोष के स्थान स्वरूप स्त्रीके शरीरसे क्या विरक्त नहीं होगा ? अवश्य होगा ।।११२०१॥ ब्रह्मचर्य व्रतके परिपालन में पुरुषोंके लिये स्त्रियोंसे वैराग्य होना आवश्यक है, स्त्री वैराग्यके निमित्त तीन हैं, कामदोषका विचार स्त्री दोषका विचार और देहकी अशचित्य । इनका वर्णन क्रमशः यहां तक कर दिया है । अब ब्रह्मचर्य में सहायक जो वृद्ध सेवा है उसको बतला रहे हैं जिनका शोल अर्थात् ब्रह्मचर्य, क्षमा आदि धर्म बढे हुए हैं वे वद्ध हैं और जिनके उक्त शील तरुण है अर्थात् अल्प है या वृद्धिंगत नहीं है, अथवा है नहीं वे पुरुष तरुण हैं क्योंकि यहां जो शीलवान नर है उसे तो वृद्ध कहा है और जो शीलवान नहीं है वह तरुण है, वयसे तरुण और वृद्धकी बात यहां विवक्षित नहीं है, इसीलिये बुद्धिमानों द्वारा शील ही स्तुत्य होता है ।।११२१।। जैसे जैसे पुरुषके वयकी हानि होती है, वैसे वैसे उसके कामेच्छा रतिक्रीडा, गर्व, रूप और बल आदि मंद मंद होते हैं ।।११२२।। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनुशिष्टि महाधिकार [३१५ शांतोऽपि क्षोभ्यते मोहो युवसंगेन देहिनः । कर्दमः पतता क्षिप्रं प्रस्तरेणेव वारिणः ॥११२३।। उदोर्णोऽप्यंगिनो मोहो वृद्धसंगेननिश्चितम् । पंक: कतकयोगेन सलिलस्येव शाम्यति ॥११२४।। शांतोप्यूदीयते मोहः पुंसस्तरुणसंगतः । लोनः किं मृत्तिकागंधो नोदेति जलयोगतः ।।११२५ । रहितो युवसंगत्या मोहः सन्नपि लोयते । जीवस्य जलसंगत्यापुष्पगंधइवस्फुट ॥११२६।। .---. ... ... . . भावार्थ-मनुष्य की आयु जैसे जैसे कम होती है अर्थात् वृद्धत्व पाता है सेवैसे उसका विषयों में प्रेम कम होता है, रति कोड़ा मंद होती है, खोटे भाव, काम सेवन की इच्छा कम होती है, सरुण अवस्था में ये काम आदिक विकार दुनिवार होते हैं। युद्धत्व आनेपर सब विकार शांत होने लगते हैं इसीलिये वृद्ध पुरुषोंकी सेवा उनका सहवास ब्रह्मचर्य में महान् उपयोगी होता है। __ जीवोंका मोह शांत भी हुआ हो किन्तु वह तरुणके संसर्गसे क्षुभित हो जाता है, जैसे जल में पत्थरके गिरने से शांत भी कर्दम कीषड शीघ्र ही क्षुभित-उछल जाता है उससे जल मलिन बन जाता है । भाव यह है कि किसी पुरुषका मन शांत है काम विकार शोत है तो भी उसे तरुणका संसर्ग नहीं करना चाहिये क्योंकि उसके संसर्ग से मनविकार युक्त होता है ॥११२३।। इस जीवका मोह बढ़ा हुआ भी हो तो वह भी वृद्धजनोंके संपर्क से निश्चित ही शांत हो जाता है, जैसेकि जलका कर्दम कतक द्रव्य-फिटकरी आदिसे शांत हो जाता है । अर्थात् जलका कीचड़ फिटकरीसे नीचे बैठ जाता है वैसे वृद्धको संगतिसे बढ़ा हुआ भी कामविकार शांत होता है ॥११२४।। किसी पुरुषका मोह शांत हुआ है किन्तु यदि उसने तरुण पुरुषको संगतिको है तो उसका मोह प्रगट हो जाता है बढ़ जाता है । ठीक हो है ! मिट्टीकी गंध यद्यपि स्वयं शांत अर्थात् अप्रकट है उसमें कोई गंध नहीं आरही है तो भी उस मिट्टीकी गंध जलके संयोगसे क्या प्रगट नहीं होती ? होतो हो है ।।११२५।। मोह मौजूद है किन्तु वह पुरुष तरुणको संगति से रहित है तो उसका मोह Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] मरपकण्डिका युवापि वृद्धशीलोऽस्ति नरो हि बद्धसंगतः । मानापमान भीशंकाधर्मबुनिपाविभिः ॥११२७।। बद्धस्तरणशोलोऽस्ति नरस्तरुणसंगतः । विभूभनिविशंकरदा प्रकृतियोगतः ।। इंद्रियार्थरति वो युवगोष्टया विमूढधीः । शौण्डगोष्टया यथा शौण्डः सुरां कांक्षति सर्वदा ।।११२६।। विश्रन्धाचपलाक्षो यः स्वैरी तरुणसंगतः । महिलाविषयं घोषं स शीघ्र लभते नरः ॥११३०॥ ध्वांतकांतकुशोलेहवर्शनैः करणस्त्रिभिः । कुत्सितो जायते भावः स्त्रीपुंसानामसंशयम् ॥११३१॥ शांत अप्रगट हो जाता है । जैसे पुष्पमें सुगंध है किन्तु उसमें जलका संयोग होनेसे वह सुगंध लोन मष्ट अप्रकट हो जाता है ।।११२६।। युवक पुरुष भी वृद्ध संगरो युद्ध जैसे स्वभाव शीलबाला या शांत हो जाता है । वह वृद्धका समागम करनेवाला तरुण, मान, अपमानके भयसे, शंकासे और धर्म बुद्धि तथा लज्जासे वृद्ध जैसा प्राचरण करता है ॥११२७।। कोई पुरुष वृद्ध है किन्तु तरुण की संगति की है तो वह भी तरुणके शीलस्वभाव जैसा बन जाता है जैसे तरुण पुरुष स्त्रियोंपर विश्वास कर भय रहित निःशंक होता है, स्वभावसे मोहयुक्त होता है वैसे उसकी संगतिमें वृद्ध हो जाता है ।।११२८।। तरुणकी गोष्ठी में बैठने से जीव विमूढ बुद्धिवाला हुआ इन्द्रियों के विषयोंमें प्रेम करनेवाला हो जाता है शराबीको गोष्ठी में बैठने से शराबी हुआ शराबको इच्छा करता है ।।११२९।। जो मनष्य तरुणकी संगतिमें आया है बह स्त्रियों पर विश्वस्त होता है, उसकी इन्द्रियां चंचल होती हैं, स्वच्छंद होता है वह शीघ्र ही महिलाके संबंधसे होनेवाले दोषको प्राप्त होता है ।।११३०।। स्त्री और पुरुषों के इन तीन कारणोंसे कुत्सित भाव होते हैंअंधकार एकान्त और काम सेवन करते हुए स्त्री पुरुषको देखना ।।११३१।। भावार्थ-स्त्री और पुरुषके एकान्तमें अकस्मात् मिलनेसे अथवा अंधकार होनेसे अथवा काम सेवन करते हुए स्त्री पुरुषको देखनेसे, इन तीन कारणोंसे स्त्री पुरुषों के मन में काम वासना जाग्रत होती है । भारतीय परंपरामें इसीलिये प्राचीन काल में Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार निसर्गमोहितस्वान्सो दृष्ट्वा श्रुत्वाभिलष्यति । विषयं सेवित जोयो मधिरामिबमधपः ॥११३२॥ घायद सो शिमला वासः संवर्ग कोपतः । वेश्यामांससुरासक्तः कुलदूषणकारकः . ॥११३३॥ कुमार अवस्थासे ही स्त्री पुरुषों को एकत्र सहवासका निषेध है । कुमार कुमारियोंका एक साथ अध्ययन, यत्र तत्र घूमना इत्यादिका निषेत्र था । वर्तमानमें स्त्री पुरुषोंकी सह शिक्षा, स्त्री पुरुषोंका एक स्थान पर नौकरी आदि करना यह सब कामको उत्तेजनाका कारण है, नाटक सिनेमा आदि देखने में तो पूर्वोक्त तीनों कारण एक साथ मिल जाते हैं एकान्त, अंधकार और अश्लील दृश्य ( कामसेवन करते हुएके पांशिक दृश्य ) यहो कारण है कि अध्यात्म प्रधान भारत देशमें कुशील व्यसनकी वृद्धिका कोई ठिकाना ही नहीं रहा है । नूतन पोढीको अब सीता, चंदना, अंजना और सुदर्शन, जयकुमार आदि शीलवान नर-नारियोंकी कथायें काल्पनिक लगती हैं क्योंकि ऐसा दृढ़शोल उनमें खद में तो है नहीं और न कहीं दिखाई देता है। किन्तु जिन्हें आगामो भव में नपुंसक नहीं होना हो, नरकादि कुगतिमें जानेका भय हो वे नर-नारी अपनो प्राचीन परंपराका उल्लंघन न करें। वर्तमानके जीवन में भी जो कुशील आचरणसे, स्वास्थ्य हानि, भयंकर गुप्त रोग धनहानि आदि और अन्त में बेमौत मरण आदि इन दुःखोंसे छुटकारा तभी हो सकता है जब पूर्वाचार्यके वचनका पालन करें। एक तो संसारो जीवोंका निसर्गतः मोहयुक्त मन रहता है दूसरे यदि कामका विषय देखे सुने तो उसको देखकर सुनकर व्यक्ति कामकी अभिलाषा करने लगता है, विषय सेवन के लिये इच्छा करता है। जैसे मदिरा पायी मदिराको देखकर सुनकर मदिराकी इच्छा करता है ।।११३२।। चारुदत्त विनीत था तो भी संसर्ग दोषसे वेश्या मांस मदिरामें आसक्त हआ और कुलमें दूषण लगानेवाला हुआ ।।११३३।। चारुदत्तकी कथा-- ___ चंपापुरोमें भानुदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नी सुभद्रासे चारुदत्त नामका गुणी पुत्र हुआ । कुमार कालसे विद्याका अधिक प्रेमी होनेसे विवाह होनेपर Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका तरुणस्यापि वैराग्यं शीलवृद्धन जायते । क्रियते प्रस्तुतक्षीरा वस्सस्पर्शन गोर्न किम् ॥११३४।। भी स्त्री संपकसे दूर रहकर सदा विद्याभ्यास कला आदिमें हो लगा रहता था। किसी दिन माता आदि कुटू बीके द्वारा किये गये उपायसे वह बसंतसेना वेश्या पर मोहित होकर उसीके यहां रहने लगा। घरका सब धन बरबाद हुआ। परिवारको बहुत पश्चात्ताप हुआ लेकिन अब क्या हो सकता था ? जब चारुदत को धन रहित देखा तब वसंतसेनाकी माताने कपटसे उसे घरसे बाहर निकाल दिया। चारुदत्त अत्यंत लज्जित एवं दुःखो होकर धनोपार्जनके लिये विदेश यात्रा करता है धन संग्रहकर जहाज द्वारा जैसे हो वापिस लौटता है कि जहाज तुफान द्वारा डूब जाता है। पुनः अनेक कष्टोंका सामना करते हुए धन कमाता है किन्तु दुर्दैववश फिर जहाज डूबता है ऐसा सात बार होता है किन्तु आयुके प्रबल होनेसे सातों बार लकड़ोके सहारे किनारे लगता है । इसो बाचमें एक ठग संन्यासी द्वारा अंधकूपमें गिराया जाता है वहाँ कपमें उसीके समान धोखेसे पहुँचे हुए मरणासन्न पुरुषको णमोकार मंत्र सुनाकर समाधि कराता है जिससे वह देव बनता है । वहाँसे किसो उपायसे निकल आता है । परिवारके रुद्रदत्त नामके व्यक्ति से भेंट होती है उसके साथ द्वोपांतर जानेका विचार होता है दुष्ट रुद्रदत्त बकरे को मारकर उसको खालको उल्टीकर उसमें बैठकर पक्षी द्वारा रत्नद्वीप में जानेका उपाय बताता है। चारुदत्तके मना करते हुए भी उसके सो जाने के बाद रुद्रदत्त बकरे को मारता है, चारुदत्तकी नींद खुलती है, उसने बकरेको मरते हुए णमोकार मंत्र सूनाया । द्वीपांतर में चारुदत्त पहुंचा । पापी रुद्रदत्त बीच में मर गया। उक्त द्वीपमें चारुदत्त को महामुनिके दर्शन होते है । वहांसे विद्याधरकी सहायतासे वह अपने चंपापुर में सुरक्षित पहुंच जाता है । इसप्रकार कुशीलकी संगतिसे चारुदत्तने महान कष्ट भोगे । कथा समाप्त । कोई पुरुष तरुण है किन्तु शीलवान् वृद्धको संगति करता है तो उस घद्ध मंगसे उसके वैराग्य भाव हो जाता है, जैसे बछड़े के स्पर्श से गाय दूध झराने लगती है ।।११३४॥ जो पुरुष हर्षपूर्वक गुरुजनों का कहा हुआ करता है. वृद्धोंसे युक्त वसतिका आश्रय लेता है, तरुण व्यक्तिकी संगति छोड़ देता है वह निर्मल ब्रह्मचर्य को रक्षा करता Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार छंद-रथोद्धतायः करोति गुरुभाषितं मुना संश्रये वसति वृद्धसंकुले । मुंचते तरुणलोकसंगति ब्रह्मचर्यममलं स रक्षति ।।११३५॥ छंद-उपजाति - रजो धनोते हृदयं पुनीते तनोति सत्वं विधुनोति कोपम् । मानेन नलं नियं नापति दिवा कोतानीम् ॥११३६॥ मानस स्वल्पसत्वस्य स्त्रोसंसर्गे विनश्यति । जघनस्तनवपत्राणि पश्यतो बहु चल्यते ॥११३७॥ निरस्यति ततो लज्जां संस्तवं कुरुते ततः । ततो भवति निःशंकस्ततो विश्वसिति ध्र यम् ॥११३८।। विश्वासे सति विश्रंभो विभः प्रणये सति । रामासु परमा पुसः प्रणये जायते रतिः ॥११३६।। है ।।११३५।। यह वृद्ध सेवा पापको नष्ट करती है, हृदयको पवित्र बनाती है, शक्तिको बढ़ाती है, क्रोधका नाश करती है, विनयसे युक्त करती है, मानसे रहित करती है। यह वृद्ध सेवा किस अभीष्ट सिद्धिको नहीं करती ? सब ही इष्टको करती है ॥११३६॥ वृद्ध सेवा वर्णन समाप्त । स्त्रियोंके सहवाससे होनेवाले दोषोंका कथन करते हैं जिस पुरुषमें धैर्य सत्त्व अल्प है उस पुरुषका मन स्त्रियोंके संसर्गसे नष्टविकार युक्त होता है । स्त्रियोंके जघनभाग स्तन मुखादिको देखनेसे उसका चित्त अत्यंत चंचल हो जाता है ॥११३७।। मन चंचल होनेपर उसको लज्जा समाप्त होतो है, वह स्त्रीको स्तुति करने लगता है, फिर गुरुजनोंका भय समाप्त होकर निःशंक हो जाता है, तदनंतर नियमसे स्त्री पर विश्वास करता है ॥११३८॥ विश्वास होनेपर परस्परमें मन मिलता है, उससे प्रणय होता है फिर उस पुरुषके स्त्रीमें परम रति होती है ॥११३९।। नारियोंके देखनेसे उनके निकट जाना-माना होनेसे तथा उनके साथ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] मरणकण्डिका नारीणां दर्शनोद्द श आकृष्यते मनो भाषणप्रतिभाषणः I नृणामयस्कांतंरिवायसम् ॥ ११४० ॥ I हासोपहासलीलाभिगुप्तमात्रप्रकाशनंः विलासविभ्रमं हविर्भावः सह गमागमः ।। ११४१ ।। सन्मनेः कोमलैर्वाक्यै विस्र' भभाषणैः गति स्थिति तिकोडानमंविन्बोक मोहनः arateलोकनैः स्त्रीणां वैराग्यं ह्रियते नृणाम् । शरीरस्पर्शिभिः क्रुद्धः पन्नगैरिव जीवितम् ।।११४३ ।। 1 ।। ११४२ ।। योषितां नर्तनं गानं विकारो विनयो नयः । द्रावयन्ति मनो नृणां मदनं पावका इव ।।११४४॥ भाषण प्रतिसंभाषण करनेसे पुरुषोंका मन उनके प्रति आकर्षित हो जाता है, जैसे चुंबक द्वारा लोह आकर्षित होता है ।। ११४० ॥ नारियोंके हास्य मंद मीठी मुस्कान और लीला पूर्वक गमन आदि क्रियाओंसे, उनके द्वारा गुप्त अंग-स्तन आदिके दिखाने से, कटाक्षपूर्वक अवलोकन विलासपूर्ण चेष्टा अर्थात् नेत्रोंका मटकाना, भौंहे चलाना और हावभाव क्रियाओंसे उनके साथ देशादि गमनागमन करनेसे पुरुषका मन चंचल हो जाता है ||११४१।। मनके हरने वाले कोमल वाक्यों द्वारा हृदयके लिये संतुष्टिकारक वचनों द्वारा तथा उन स्त्रियोंके साथ विश्वास युक्त भाषण करना, मदभरी चाल चलना, कमर में हाथ रखकर खड़े होना, शरीरकी कांति, कोड़ा, मजाक विव्वोक अर्थात् दो भौंहे के बीच भागको सिकोड़ना, मोहन इन क्रियाओं द्वारा तथा टेढ़ी नजर से देखना इत्यादि स्त्रियोंकी चेष्टाओंसे पुरुषोंका वैराग्य नष्ट किया जाता है । जैसे जिनके शरीरका स्पर्श किया गया है और उस कारणसे जो क्रोधित हो गये हैं ऐसे सर्पों द्वारा जीवन नष्ट किया जाता है ।। ११४२ ।। ११४३॥ स्त्रियोंके नृत्य, गीत, विकारको देखना तथा उनका विनय करना, उनको कहीं ले जाना इत्यादि क्रियायें मनुष्योंके मनको पिघला देती हैं। जैसे मदनको अग्नि पिघला देती है ।। ११४४ । । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३२१ महिला मन्मथापासविलासोल्लासितातना । स्मृता पि हरते चितं बोक्षिता कुरुते न कि ॥११४५।। निर्मर्यादं मनः संगासंमूळं सुरतोत्सुकम् । पूर्वापरमनात्य शोलशालं विलयते ॥११४६।। कषायेन्द्रियसंझाभिरिवगुरुकाः सदा । सर्वे स्वभावत: संगादुद्भवन्स्यचिरेण ते ॥११४७।। मातृस्वससुताः पुंस एकांते यतो मनः । शीघ्र क्षोभ वजत्येय कि पुनः शेषयोषितः ॥११४८॥ निःसारी मलिनां जीणां विरूपां रोगिदहशम् । तिराची वा समोहेत नमनो मैथुनं प्रति ॥११४६।। महिला मन्मथका आवास है, विलास भावमे उल्लसित हो रहा है मुख जिसका ऐसी होती है स्मरणमें आने मात्र से वह चित्तको हर लेती है तो फिर देखनेपर क्या नहीं करेगी ? अर्थात् देखने पर तो वह पुरुषको अवश्य ही अपने वश में करेगी ॥११४५॥ स्त्रीके संगसे पुरुषका मन मर्यादाको तोड़ देता है वह मोहित हुआ सुरत-रति कोड़ा के लिये उत्सुक हो उठता है और पूर्वापर का कुछ भी विचार नहीं करके शीलरूपी शाल-परकोटेका उल्लंघन कर डालता है ।।११४६।। सभी संसारी प्राणी स्वभावत: कषाय इन्द्रियवशता और आहारादि चार संज्ञाओंसे भारी-युक्त हुआ करते हैं तथा गारव-घमंडसे युक्त होते हैं ऐसी स्थिति में उन्हें यदि स्त्रीजन का संग मिले तो शीघ्र ही वे कषाय आदि चारों अतिशय रूपसे प्रगट होने लग जाते हैं ॥११४७।। यदि अपनो माता, बहिन और पुत्री भी है और उसका एकांत में सहवास होता है तो उससे पुरुषका मन शोघ्र ही क्षोभको प्राप्त होता है, ऐसी स्थिति में शेष महिलाओंके एकांत संपर्कमें पुरुषका मन क्या क्षुभित नहीं होगा ? होगा ही ॥११४८।। स्त्री निःसार है, मलिन है, वृद्ध है, कुरूप है, रोगो है, जिसके नेत्र भयावह हैं ऐसी स्त्रीको भी मनुष्य का मन काम सेवनेके लिये चाहता है और तो क्या कामुक मन तियचिनीको भी चाहने लग जाता है ॥११४६।। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका रष्टश्रुतानुभूतानां विषयाणां चिस्मृतिः । मारससर्ग योऽपि विरहेऽप्यस्ति योषितः ।।११५०॥ पद्धो गणी तपस्वी च विश्वास्यो गुणवानपि । अचिराल्लभते दोषं विश्वस्तः प्रमकाजने ॥११५१।। कि पुनविकृताकल्पाः स्वैरिणः शेषसाधवः । नारी संसर्गतो नष्टा न संति स्वल्पकालतः ॥११५२।। जंनिकासंगतो नष्टश्चरणाच्छकटो यतिः । वेश्यायाः सह संसनिष्ट: कुपवरस्तथा ॥११५३॥ रुद्रः पाराशरो नष्टो महिलारक्तया रशा। देवर्षिः सायाकदेवपुत्रश्च क्षणमात्रत: ॥११५४।। -..-.--- -- . -. - - -.. ... .. -- - - -.-. -.स्त्रो का विरह भी होवे अर्थात् स्त्री वर्तमानमें निकट नहीं है उस वक्त देखे सने तथा अनुभूत विषयोंकी रुचि तथा स्मृति हो जाया करती है, वह स्मृति और रुचि भी एक तरहका स्त्री संपर्क ही कहा जाता है ।।११५०।। पुरुष चाहे वृद्ध है, आचार्य है, तपस्वी है तथा सभोके द्वारा विश्वसनीय है, गुणवान् भी है, किन्तु यदि वह स्त्रीजनों पर विश्वास करता है तो शोन्न हो अपयश आदि दोषको प्राप्त होता है ॥११५१।। जब महामुनि महा तपस्वीजनोंकी ऐसी बात है, तो जो विकृत मनयुक्त हैं स्वच्छंद है ऐसे शेष साधु नारोके संपर्कसे स्वल्पकालमें क्या नष्ट नहीं होते ? होते ही हैं ।। ११५२॥ जैनिका नामकी स्त्रीके संगसे शकट मुनि चारिश्रसे भ्रष्ट हुए तथा कुपवर (कूपार) मुनि वेश्याके साथ संसर्ग करनेसे नष्ट हुए थे। रुद्र तथा पाराशर महिलाओंको आसक्ति पूर्वक देखने से नष्ट हुए थे और देवर्षि और देवपुत्र तथा सात्यकि स्त्री संपर्कसे क्षणमात्रमें नष्ट हुए थे ।।११५३।११५४।। विशेषार्थ-यहां पर ब्रह्मचर्य महाव्रतका अतिविस्तार पूर्वक वर्णन करते समय स्त्री संगसे होने वाले दोष हानि आदिको आचार्य बता रहे हैं । प्राचीन काल में स्त्रीसंगसे जिनकी हानि हुई, भव भवांतर नष्ट हुए, उनका कथन करते हुए यहां सात व्यक्तियोंके नाम कंठोक्त बताये हैं। उन सातों में से एक अजैन साधु था शेष सभी दिगंबर जैन मुनि थे। इन सातोंकी कथा यहां अति संक्षिप्त बतायी जाती है Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार सात्यकि और रुद्रको कथागंधार देशमें महेश्वर नगरका राजा सत्यंधर था उसके पुत्र का नाम सात्यकि था, इसकी समाई राजा चेटककी पुत्री जेष्ठाके साथ हो चुकी थी। किसी कारण वश जेष्ठा राजपुत्रीने आर्यिका दीक्षा ली । जब सात्यकिको यह ज्ञात हुआ तो उसने भी समाधिगुप्त मुनीश्वर के समोप जिनदीक्षा ग्रहण की। एक दिन जेष्ठा आदि अनेक आर्यिकायें अपनो गणिनीके साथ महावीर भगवान्के समवशरण में जा रही थीं । मागमें पानी बरसने लगा इससे सब आर्यिका संघ तितर-बितर हो गया। जेष्ठी आर्यिका एक पुफामें पहुंचो वहां साडी खोलकर निचोड़ रही थी, गुफामें सात्यकि मुनि तपश्चरण कर रहे थे । वहां अकस्मात् जेष्ठाको देखकर उनका मन विचलित हुआ। दोनोंका समागम हुआ । अनंतर वर्षाके समाप्त होनेपर आर्यिका संघ एकत्रित हुआ । जेष्ठा ने अपनी गणिनी यशस्वती आर्यिकासे घटित घटना बतायो। गणिनोने अपवाद न हो इस उद्देश्यसे जेष्ठाको उसकी बड़ी बहिन राजा श्रेणिककी पट्टदेवी चेलनाके पास रखा । नव मास व्यतीत होनेपर बालक हुआ । उसके पालनका भार चेलना ने लिया । जेष्ठा पुनः छेदोपस्थापना प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होकर तपमें लीन हुई । सात्यकिने भी अपने गुरुके निकट तत्काल पुनर्दीक्षा ग्रहण की । इस प्रकार स्त्रीके निकट होनेसे सात्यकि मुनि भ्रष्ट हुए। इधर उनका पुत्र चेलनाके पास वृद्धिंगत हुआ, उसका नाम रुद्र था। यह कर स्वभाव वाला होने से अपने समोपवर्ती बालकोंको पीटता रहता, इससे उलाहना आनेपर चेलनाने कुपित होकर कह दिया कि किसका पुत्र और किसको कष्ट दे रहा है ? इतना सुनकर रुद्रने राजा श्रेणिकसे अपने जन्मका वृत्तांत विदित किया और उसने उदास हो दीक्षा ली । बह ग्यारह अंग और दश पूर्व क्रमसे पढ़ रहा था। दसवें विद्यानुवाद पूर्वके अध्ययन पूर्ण होनेपर रोहिणी आदि विद्यायें उसके समक्ष उपस्थित हुई। रुद्रमुनिने लोभवश विद्यायें स्वीकार करली । अब वह स्वच्छंद भ्रमण करने लगा । एक दिन वनमें सरोवर पर अनेक राजकन्यायें स्नानार्थ आयी थीं, उन्हें देखकर रुद्र कामबाणसे विद्ध हुआ और विद्याके बल से सबको हरणकर अपना बना लिया। कन्याओंके पिताने उससे युद्ध किया किन्तु रुद्र के पास विद्याका बल होने से राजा हार गये और इसतरह रुद्र मुनि भ्रष्ट होकर उन स्त्रियोंके साथ रमने लगा । अंतमें मरकर नरक गया। इसप्रकार स्त्री संसर्गसे रुद्रकी दुर्गति हुई । सात्यकि और रुद्रकी कथा समाप्त । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] मरणकण्डिका पाराशरकी कथा--- पाराशर नामका एक जटाधारो तापसी था । उसने कुतप द्वारा कुछ विद्या सिद्ध की थी । एक दिन नौका द्वारा नदी पार कर रहा था । नीका को एक धीवरकी सत्यवती नामको लड़की चला रही थी । जो सुदर थी, उसपर पाराशर मोहित हो गया। धीवर से उसकी मांगकर जंगलमें उसके साथ रहने लगा। इसतरह वह तपस्वी लड़कोको देखकर कामुक हो अपने तपसे भ्रष्ट हो गया । अतः स्त्रीसे सदा दूर रहना ही साधुवतीको श्रेयस्कर है । कथा समाप्त । शकट नामके भ्रष्ट मुनिकी कथाएक शकट नामके मुनि आहारके लिये वनसे कौशांबो नगरीके निकट आ रहे थे, मार्ग कुछ लंबा था, नगरके बाहर एक कुटो में शून्य स्थान समझकर वे बैठ गये, वहां कुटिया में एक दासकर्म करनेवाली स्त्री रहती थी, मुनिने उसे पहिचान लिया कि पहले बालक अवस्थामें यह और मैं एक साथ पढ़ते थे । मुनि अपने आहारके प्रयोजनको भूल गये और उस जैनिका-जयनी नामकी स्त्रीसे वार्तालाप करने लगे। इसमें दोनोंका मन परस्परमें आकृष्ट हो गया और शकट मुनिने अपना निर्मल चारित्र उस स्त्रीके किंचित कालके संगतिसे ही छोड़ दिया और उसके साथ वह भ्रष्टाचारी रहने लगा। कथा समाप्त । कृपार नामके भ्रष्ट मुनिकी कथापाटलीपुत्र नगर में अशोक नामका राजा था उसका एक अत्यन्त पराक्रमी पुत्र कपार (कूपकार) नामका था । किसी दिन विहार करते हुए वरधर्म आचार्य संघ सहित नगरके बाह्य उद्यान में आकर ठहर गये नागरिक समह दर्शनार्थ जा रहा था, कपार राजकुमार भी उनके साथ गया, आचार्यसे वैराग्यप्रद धर्मोपदेशको सुनकर कमारको संसारसे विरक्ति हुई और उसने जिनदीक्षा ग्रहण की । किसी दिन एक विषम पर्वत पर वह कूपार मुनि ध्यानारूढ़ हुए । इधर उनके पिता अशोक राजाको पुत्र वियोगका अत्यंत दुःख हुआ, उस राजाके यहां एक गणिका वीरवती नामकी नृत्यकारिणी थी उसने राजाको कहा मैं आपके पुत्रको वापस ला सकती हैं, आप चिता शोक न करें। इतना कहकर उसने प्रायिका वेष लिया साथ में बहतसी दासियोंको भी Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२५ अनुशिष्टि महाधिकार भुजंगीनामिव स्त्रीणां सदा संगं जहाति यः । तस्य ब्रह्मन्नतं पूतं स्थिरीभवति योगिनः ॥११५५॥ अविश्वस्तोत्रमत्तो यः स्त्रीवर्ग सकले सदा । पावज्जीवमसौ पाति ब्रह्मचर्यमखंडितम् ॥११५६।। प्रहं वर्ते कथं कि मे जनः पश्यति भाषते । चिता यस्येशी नित्यं दृढब्रह्मवतोऽस्ति सः ॥११५७।। - - -- -- -. . . - आर्यिकाका वेष दिलाकर वे सभी जिस पर्वतपर ध्यानारूढ़ कूपार मुनि थे, वहां पाई, वीरवती तो पर्वतके नीचे ठहर गयी और अन्य स्त्रियां ऊपर जाकर मुनिसे कहती हैं कि भो योगीश्वर ! हम सब आर्यिकायें तो यहां दर्शनार्थ आ चुकी किन्तु एक आयिका पर्वतपर चढ़ने में असमर्थ है आप कृपा करके उन्हें दर्शन देखें । मुनि धर्म वात्सल्यसे नीचे आये, उनके आते ही गणिकाने उन्हें हावभाव विलास द्वारा अपने धशमें कर लिया। इसतरह वह कूपार यति उस गणिका वीरवतोके निमित्तसे भ्रष्ट होगये। कथा समाप्त । जो नागिनीके समान स्त्रियोंका संग सदा छोड़ता है उस योगीके पवित्र ब्रह्मचर्य स्थिर होता है ।।११५५ जो सदा ही समस्त स्त्री वर्ग में विश्वास नहीं करता सदा उनसे सावधान रहता है वही पुरुष अपने ब्रह्मचर्यको यावज्जीवन पर्यंत अखण्डित रूपसे सुरक्षित रखता है ।।११५६॥ मैं किस प्रकार चाल चल रहा हूँ ? मेरे को जन किस दृष्टि से देखते हैं, मेरे विषय में जनसमुदाय क्या कहता है, इसप्रकारको चिता विचार जिस पुरुषको नित्य रहती है वही दृढ़ ब्रह्मचर्य व्रतधारी है ।।११५७।। भावार्थ-जन समुदायसे मेरा अपवाद न हो, मेरा अपमान, धर्मका अपमान है, मैंने सर्वोत्कृष्ट प्रत धारण किया है उसमें किसी प्रकार परिवर्तन तो नहीं हो रहा ? इन बातोंको जो सोचेगा जनापबादसे जिसे लज्जा आती है वही अपने ब्रह्मचर्यको सुरक्षित रखेगा ! जिसे इन बातोंकी परवाह नहीं, लोक कुछ भी कहें, इसपर शरम नहीं है, धर्मकी अप्रभावनाका कुछ भान नहीं है वह स्वच्छन्द आचरण कर अपने ब्रह्मचर्य में शिथिल होगा। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ } मरण कण्डिका न पश्यत्यंगनारूपं ग्रीष्मार्कमिव यश्चिरम् । क्षिप्रं संहरते दृष्टि तस्य ब्रह्मवतं स्थिरम् ।।११५८ ।। गंधे रूपे रसे स्पर्शे शब्दे स्त्रीणां न सज्जति । जातु यस्य ब्रह्मचर्यमखंडितम् ॥ ११५६।। मनस्तस्य छंद - मालिनी--- द्विपमिय हरिकांता मंक्षु मीनं बकीय | भुजंगभिव मयूरी भूषिकं वा बिडाली । गिलति निकटवृत्तिः संयतं निर्दया स्त्री । निकटमिति तदीयं सर्वदा वर्जनीयं ॥। ११६० ॥ छंद - मालिनो— प्रथयति भवमार्ग मुक्तिमार्गं वृणक्ति । दवयति शुभबुद्धि पापबुद्धि विधत्ते । जनयति जनजल्यं श्लोकवृक्षं लुनीते । वितरति किसु कष्टं संगतिनगनानाम् ।। ११६१ ।। इति स्त्रीसंसर्ग दोषाः । जो स्त्रियोंके रूपको ग्रीष्मकालीन सूर्यके समान चिरकाल तक नहीं देखता है शीघ्र ही अपनी दृष्टि उसरूपसे हटा लेता है उसका ब्रह्मचर्य स्थिर होता है ।। ११५८ ।१ भावार्थ – जिसप्रकार जेष्ठ मासके मध्याह्न कालीन सूर्यको कोई भी नहीं देख पाता । कदाचित् देख लेवे तो तत्काल वहांसे दृष्टि हटा लेता है उसीप्रकार जो पुरुष स्त्रीको देखता ही नहीं और कदाचित् दृष्टि पड़े तो तत्काल अपनी दृष्टिका संकोच कर लेता है । वही अखंड ब्रह्मव्रतधारी होता है । फिर राग भावकी मुख्यता है ही । यदि मन में स्त्री रूपको देखनेका अभिप्राय है और बाहर से केवल दृष्टि हटाता है उससे लाभ नहीं है । जिस पुरुषका मन स्त्रियोंके मनोहर गंध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द में कभी भी नहीं जाता उस पुरुषका ब्रह्मचर्य अखंडित रहता है ।।११५६ ॥ अब स्त्री संसर्गसे होनेवाले दोषोंके वर्णनका उपसंहार करते हुए कहते हैंजिसप्रकार निकटमें आये हुए हाथीको सिंहनी वा जाती है, समीपमें आये हुए मत्सको बगुली शीघ्र हो निगल जाती है, मयूरी सर्पको मार डालती है, बिल्ली चूहेको खा जाती है ठीक इसीप्रकार निर्दयी स्त्री निकटमें आवे तो संयत मुनिका संयम नष्ट कर डालती है इसलिये हमेशा ही उस स्त्रोकी निकटता त्याज्य है छोड़ने योग्य है, ।। ११६० ।। स्त्रियोंकी संगति संसार मार्गको विस्तृत करती है और मोक्षमार्गको नष्ट Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२७ अनुशिष्टि महाधिकार यदि ते जायते बुद्धिलॊकद्वितय मैथुने । उद्योगः पंचधा कार्यः स्त्रोबैराग्ये तदा त्वया ॥११६२।। करती है, पुण्य बुद्धि को तो जला देती है और पापबुद्धि को उत्पन्न करती है, जनापवादको उत्पन्न करती है प्रशंसारूप वृक्षको काट डालती है । अहो यह स्त्री संगति क्या-क्या कष्ट नहीं देती ? ।।११६१।। स्त्रो समग दोष तर्णन समाप्त । संस्तरमें स्थित क्षपकके लिये निर्यापकाचार्य महावतोंका उपदेश दे रहे हैं उसके अन्तर्गत ब्रह्मचर्य नामके चौथे महानतका उपदेश विस्तार पूर्वक देते हुए कह रहे हैं कि हे क्षपक ! उभय लोक में मैथुन सेबनको यदि तुमको इच्छा हो जाय तो तत्काल ही पांच प्रकारका उद्योग स्त्री वैराग्य में करना चाहिये । अर्थात् स्त्रोके दोष, शरोरके दोष आदिका विचार करना चाहिये ॥११६२।। विशेषार्थ-ब्रह्मचर्यका अखंड निर्दोष पालन करनेके लिये आचार्योंने यहांतक पांच प्रकारका उपदेश दिया है जो स्त्रियोंसे वैराग्य उत्पन्न कराता है, स्त्रियों में जो आसक्ति है, राग-प्रेम है, मन में जो कामुकता है उसको दूर करनेके लिये अत्यंत हृदयग्राहो पांच प्रकरण क्रमश: यहां तक बताये हैं, सर्वप्रथम काम दोषोंका प्रकरण आया है, कि काम सेवन किसप्रकार निंद्य है, पुन: स्त्रो के दोष बताये, फिर स्त्री और पुरुष दोनोंके शरीरके दोष बताये कि अपना खुदका और जिस मे भोग करना चाहता है, उसका शरीर कितना धिनावना है । पुनः वृद्ध सेवा प्रकरण है जो शीलवान पुरुषकी सेवा करता है वह ब्रह्मचर्य का पालन करने में समर्थ होता है और जो शोलवान नहीं है उसके संपर्कसे ब्रह्मवतमें कैसी शिथिलता आती है यह वृद्ध सेवा प्रकरणमें बहुत सदर रोत्या समझाया है । अंत में स्त्रीजनोंके संगतिसे होनेवाले दोषोंका कथन है । इस प्रकार कामदोष, स्त्रोदोष, शरीर दोष, युद्धसेवा और स्त्रो संसर्गदोष कथन द्वारा वैराग्य उत्पन्न कराया गया है अर्थात् स्त्रोसे वैराग्य होने के लिये इन पांचों विषयोंका विचार करते रहना चाहिये । क्षपकको आचार्य प्रेरणा देते हैं कि तुम वैराग्य परक इन पांच विषयोंका विचार करते रहना जिससे ब्रह्मवत में सर्वदा दृढ़ता बनी रहे। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] मरण कण्डिका लिप्यते वर्तमानोऽपि विषयेषु न संयंति: ! पद्मजासं जले वृद्ध जातु कि लिप्यते जलैः ।। ११६३॥ farface पस्थस्य चितमस्पर्शनं यतेः । सागरं गाहमानस्य सलिलैरिव जायते ।।११६४ ।। न दोषश्यापदे भीमे बंचनागहने यतिः I नश्यति स्त्रीवनेऽलीक पावपेऽशुचिता तृणे ॥। ११६५॥ विषयों के मध्य में रहता हुआ भी यति वैराग्य परक इन कामदोष आदि पांच विषयोंका चिंतन करता है तो उन विषयोंसे लिप्त नहीं होता है, जैसेकि कमलोंका समूह जलमें ही वृद्धिंगत होता है किन्तु जल द्वारा क्या लिप्त होता है ? नहीं होता है। ।। ११६३ ।। जिस प्रकार सागर में प्रविष्ट हुए पुरुषका जल द्वारा स्पर्श नहीं होना आश्चर्यकारी है उसप्रकार विषय में स्थित यतिके विषयोंसे स्पर्शित नहीं होना उनसे अलिप्त ही रहना आश्चर्यकारी है ।। ११६४ ।। दोषरूपी श्वापद - जंगलो पशु जिसमें रहते हैं वंचना - ठगाईसे जो गहन हो रहा है, भयावह है, असत्य रूपो वृक्षोंसे जो भरा है, अशुचिरूपी घाससे व्याप्त है, ऐसे स्त्रीरूपी बनमें निवास करते हुए भी मुनि नष्ट नहीं होता ।। ११६५ ।। विशेषार्थ --- कोई पुरुष भयानक वनमें रहे तो उसे जंगली पशु द्वारा सघन वृक्ष एवं नुकीली घास द्वारा महान् कष्ट होता है । यहांपर मोक्षमार्ग के पथिक मुनिजनों के लिये स्त्री ही एक भयावह बन है, वनमें जंगली पशु हैं इसमें असूया, चपलता आदि दोष रूपी पशु | लता गुल्म आदिसे वनका रास्ता मन होता है, यहां मायाके कारण रास्ता गहन हो रहा है । वनमें अनेक सघन वृक्ष होते हैं, यहां अनेक प्रकार असत्य, ठगाई आदिके वचन ही वृक्ष हैं । वनमें विविध प्रकारको घास होतो है । यहां अशुचि अवयवरूप घास है । ऐसी स्त्रीवन में भो मुनिजन दिग्भ्रमित नहीं होते अर्थात् अपने ब्रह्मव्रत से च्युत नहीं होते, यही इनकी महानता है । स्त्री एक नदो स्वरूप है नदोमें कल्लोलें हैं इसमें श्रृंगाररूपी कल्लोलें हैं । नदीमें जल है इसमें यौवनरूपी जल है, नदी में वेग होता है इसमें विलास विभ्रम रूपी J Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार रिगार कल्लोला यौवनाम्नवी I न विलासास्पदा ह्रासफेना बहूति संयतम् ॥। ११६६ ॥ विलाससलिलोती येस्तीघ्रा यौवनापगा 1 प्रग्रस्ताः प्रमदाग्राहस्ते धन्या मुनिपुंगवाः ।। ११६७। धन्यं स्त्रीव्याधनिर्मुक्ताः कटाक्षेक्षणसायकाः 1 विष्यंति विषयारण्ये वर्तमानं न योगिनम् ।।११६८ ।। न विश्वोकस्त्रोऽभ्येति विलासनवरो मुनिस । कटाक्षाक्षोऽगनाव्याप्रस्तारूण्यारण्यवर्तिनम् ।।११६६ ।। छंद उपजाति [ ३२६ त्रिलोकदाही विषयोद्धतेजाः । तारुण्य तृष्याज्वलितः स्मराग्निः । न प्लोषते यं स्मृतिधूमजालः । स वंदनीयो विदुषा महात्मा ।।११७० ।। वेग है तथा नदी में फेन रहता है तो इस स्त्रीरूपी नदी में मंद मुस्कान, ललित हास्यरूपो फेन है ऐसी स्त्री रूपी नदो भो संयमी मुनिको बहाके नहीं ले जाती है ।। ११६६ ।। जिन मुनिजनों के द्वारा विलासरूप जलवाली योवन रूपी तीव्र वेगशाली नदी पार हुई है तथा जो स्त्रीरूपी मगरों द्वारा ग्रस्त नहीं हुए हैं वे मुनिराज धन्य हैं ।। ११६७।। विषयरूपी वनमें स्थित यतिको स्त्रीरूपी व्याध शिकारी द्वारा छोड़े गये कटाक्ष ईक्षण रूपी बाण बेधित नहीं करते हैं वह यति धन्य है अर्थात् वे मुनिजन धन्य हैं जिनका मन स्त्रोद्वारा मोहित नहीं होता ।। ११६८ ।। विक्कोक दो भौहेंके मध्य भागको सिकोड़ना ही है, दांत जिसके विलास अर्थात् आंखें मटकाना ही है, नख जिसके और कटाक्ष रूपी आंख वाला स्त्री रूपी व्याघ्र-शेर तारुण्य रूपी बनमें विचरण करनेवाले मुनिको नहीं पकड़ता है । वही मुनि धन्य है ।।११६६।। तीन लोकोंको जलाने वालो, विषय रूपी बढ़ते तेजसे युक्त, तारुण्य रूपी घासफूस से प्रदोप्त हुई एवं स्मृति रूपी धुंआ जाल जिससे निकल रहा है ऐसी कामरूपी afra frest नहीं जलाती; वह महात्मा विद्वान् द्वारा वंदनीय है अर्थात् जिसका चित्त काम वासना से रहित है वह बंध है | ११७० ।। विपुल यौवनरूपी जलवाला रतिरूपो लहरोंसे व्याप्त दुस्तर ऐसे विषय रूपी समुद्रको जो निराकुल हुआ पार करता है वह इस संसार में धन्य पुरुषोंमें महा धन्य Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० | मर एक पिडका छंद द्र ुतविलंबित विपुल यौवननोरमनाकुलो विषय नीरनिधिरतिश्रधिकम् । इघूमकरैरथितस्तरति धन्यतमः परदुस्तरम् ॥ ११७१ इति ब्रह्मचर्यव्रतं । बाह्याभ्यंतरं संगं कृतकारितमोदनः । fara सदा साधो ! मनोवाक्कायकर्मभिः ।। ११७२ ।। मिथ्यात्यवेदहास्थादि क्रोध प्रभृतयोऽन्तराः । एक त्रिषट्चतुः संख्याः संगाः संति चतुर्दश ।। ११७३ ।। क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । यानं शय्यासनं कुप्यं भांडं संगा बहिर्दश ।। ११७४।। धन्यतम है | कैसा है वह ? जो उक्त विषयरूपी समुद्रको पार करते समय स्त्री रूपी मगरोंसे पीड़ित नहीं हुआ है । भाव यह है कि युवा अवस्था में भी जिसे काम वासना नहीं सताती, जो स्त्रियोंके मोहमें नहीं फँसता निराकुल भावयुक्त हो अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करता है वही पुरुष महान् है वही महामुनि श्रेष्ठ है धन्य है ।। ११७१ ।। इसप्रकार ब्रह्मचर्य व्रतका वर्णन समाप्त हुआ । पांचवें महाव्रतका वर्णन करते हैं हे साधो ! तुम बाह्य और अभ्यंतर दोनों परिग्रहोंका मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदना द्वारा सदाके लिये त्याग कर दो ।। ११७२ ।। अभ्यंतर परिग्रह मिथ्यात्व एक वेद तीन स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, हास्यादि छहहास्य, रति अरति, शोक, भय और जुगुप्सा, कषाय चार क्रोध मान, माया और लोभ ये अंतरंग चौदह परिग्रह हैं ||११७३|| बाह्य परिग्रह क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद ( दो पैरवाले मनुष्य, दास दासो ) चतुष्पद ( चार पैरोंवाले, घोड़ा, बैल, गाय आदि ) यान - पालकी आदि सवारी, कुप्य - वस्त्रादि, भांड - हींग मिरच मसाले आदि इसप्रकार ये चौदह बाह्य परिग्रह हैं ।। ११७४।। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३१ अनुशिष्टि महाधिकार नाभ्यंतरः ससंगस्य साधोः शोधयितुमलः । शक्यते सतुषस्येव तंबुलस्य कदाचन ॥११७५।। उदीयते यदा लोभो रागः संज्ञा च गारवं । शरीरी कुरुते बुद्धि तदादातु परिग्रहम् ॥११७६।। ग्रंथो लोकद्वये दोषं विदधाति यतेस्ततः । स्थितिकल्पो मतः पूर्व चेलाविग्रंथमोचनः ।।११७७॥ उद्देशामर्शक सूत्रमाचेलष्यमिति स्थितम् । लप्तोऽयवादिशब्दोऽत्र तालप्रालम्बसूत्रयत् ॥११७८॥ बाह्य परिग्रह त्यागकी महत्ता बताते हैं बहिरंग परिग्रह युक्त साधुके अंदरका मल अर्थात अंतरंग परिग्रहका शोधन करना अशक्य है अर्थात् बहिरंग परिग्रहके त्याग किये बिना अभ्यंतर परिग्रह कषायादि है उनका शोधन-दूर करना शक्य नहीं है । जैसे कि बाहरके तुषसे संयुक्त चावल के अंदरके मैलरूप लालिमाका शोधन करना लालिमाको दूर करना शक्य नहीं होता है ।।११७५।। जब लोभको उदय उदीरणा होती है जब यह मेरा है ऐसा रागभाव तथा उपकरण आदिके देखनेसे परिग्रहको इच्छा होना रूप संज्ञा तथा परिग्रहमें तीव्र अभिलाषा होती है तब यह संसारी प्राणी परिग्रहको ग्रहण करनेको बुद्धि करता है ।।११७६।। यह परिग्रह दोनों लोकोंमें मुनिके लिये दोष उत्पन्न करता है अर्थात परिग्नहके होनेपर उसका संरक्षण, संस्कार आदि करने पड़ते हैं उससे अशुभ भाव होते हैं यह इस लोकके दोष हुए तथा परलोकमें कुगतिमें जाना पड़ेगा यह परलोक संबंधो दोष हैं । ये दोष परिग्रह वालेके होते हैं अतः साधुजनोंके लिये सर्वप्रथम वस्त्र आदि परिग्रहका त्याग रूप पहला स्थिति कल्प कहा है अर्थात् साधुओंके दश प्रकारके स्थितिकल्प ( आचरण विशेष) बताये हैं उनमें पहला स्थिति कल्प आचेलक्य वस्त्र त्याग है ॥११७७॥ यहाँपर शंका होती है कि जब पहले स्थितिकल्पका नाम आचेलक्य है जिसका कि अर्थ वस्त्र त्याग है तो साधुओंको केवल वस्त्रका त्याग करना चाहिये अन्य परिग्रहके Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका खेलमात्रपरित्यागी शेषसंगी न संयतः । यतोमतमचेलत्वं सर्व ग्रंथोज्झनं ततः ॥११७६॥ त्यागको आवश्यकता नहीं है ? इस प्रकारकी शंकाका आगेकी कारिकामें समाधान करते हैं आचेलवय नामका जो सूत्र है वह देशामर्शक है, आचेलक्य शब्दको निरुक्ति करते समय 'न चेलं इति अचेल तस्यभाव आचेलक्यं" है इसमें चेल शब्द उपलक्षण रूप है अत: चेल वस्त्र के साथ अन्य परिग्रहका निषेध भी हो जाता है अथवा इस सूत्र में आदि शब्दका लोप हुअा है । जैसे तालप्रलंब सूत्र में हुआ है ।।११७८।। विशेषार्थ-आचेलक्य, उद्दिष्ट भोजन त्यागी आदि दस स्थिति कल्प हैं। इन सबका विस्तृत वर्णन आगममें पाया जाता है। आचेलक्य शब्दकी निरुक्ति--- "न चेल इति चेल ग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकल धन धान्यादि परिग्रह त्यागः गद्यते" अर्थात चेल-वस्त्रका त्याग इस शब्दमें वस्त्र परिग्रहका उपलक्षण है, जो उपलक्षण रूप अर्थ होता है उसमें उक्त शब्द के अर्थ के साथ अन्य उसके समान अर्थका ग्रहण स्वत: हो जाता है । जैसे किसीने कहा "काकेभ्यो रक्षता सपि:" कौवेसे घो को रक्षा करो तो इस वाक्यमें कौवा उपलक्षण है कौवा और कौवेके समान और जो कोई घी को नष्ट करता है उन सभीसे घी को बचाओ । यह अर्थ ध्वनित होता है। ऐसे ही आचेलक्ष्य शब्दमें चेलका त्याग तथा चेल वस्त्र समान अन्य धन धान्य आदिका त्याग भी इसी आचलक्य शब्द में निहित है । इसप्रकार आचेलक्य धारण किया इसका अर्थ समस्त वस्त्र धन प्रादि परिग्रहका त्याग है । अथवा इस आचेलक्य शब्द चेलका निषेध करते समय आदि शब्द लुप्त हुआ समझना चाहिये । जैसे "तालप्रलंब" सूत्रमें प्रादि शब्द लप्त हुआ है । साधुकी योग्य चर्या बताते समय कल्प ग्रंथ में "ताल प्रलंच वनस्पति नहीं खाना चाहिये" "ताल पलंब ण कप्पदि" ऐसा सूत्र है । इसमें ताल शब्द केवल ताड़ वृक्षका वाचक न होकर बनस्पतिके एक देशरूप वृक्ष विशेषका वाचक है । इस सूत्र में आदि शब्दका लोप है । अर्थात् ताल आदि वनस्पतियों का भक्षण नहीं करना चाहिये ऐसा अर्थ इष्ट है । केवल तालवनस्पतिको नहीं खाना ऐसा अर्थ अभीष्ट नहीं है । इसीप्रकार यहां आचेलक्य शब्दमें केवल वस्त्रका निषेध नहीं है किन्तु समस्त परिग्रहका निषेध इष्ट है। जिसकारणसे वस्त्रका त्याग करे और शेष परिग्रहको रखे तो वह संयत नहीं Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३३३ छंद वंशस्थ -- परिग्रहार्थ परिणहन्ति देहिनो वदत्यसत्यं विदधाति मोषणं । निषेयते स्त्रों श्रयते परिग्रहं न लुब्धबुद्धिः पुरुषः करोतिकिम् ॥११८०।। संज्ञा गौरवपैशुन्य विवादकलहावयः । दोषा ग्रंथेन जन्यते दुनयेनेव सर्वदा ॥११८१॥ क्रोधं लोभं भयं माया विद्वषमरति रतिम् । द्रविणार्थो निशाभुक्ति विदधाति विचेतनः ॥११८२॥ --- -- --- --- है उस कारणसे अचेलत्व शब्दसे सर्व परिग्रह त्याग हो अचेलत्व है ऐसा निश्चय होता है ।।११७६।। संसारी प्राणो परिग्रह के लिये जोवोंका वध करता है, असत्य भाषण करता है, चोरी करता है, स्त्री सेवन करता है, परिग्रहका आश्रय लेता है, इसतरह लोभयुक्त बुद्धिवाला पुरुष क्या गलत कार्य नहीं करता ? सब कुछ पाप करता है ।।११८०।। संज्ञा--आहारादि को वांछा, गौरव-रस गारव प्रादि तीन प्रकारका दर्प, चुगली, विवाद और कलह आदि दोष परिग्रह द्वारा उत्पन्न किये जाते है, जैसे दुर्नय द्वारा कुनय या अनीतिसे दर्प विवाद आदि दोष होते हैं ।।११८१।। भावार्थ—परिग्रहके कारण मैं बड़ा हूँ इत्यादि गर्व होता है, धन रक्षा हेतु वर कलह करता है, झूठ चोरी आदि पाप करता है अतः परिग्रह सर्बदोषोंका मूल है । धनका इच्छुक जन क्रोध, लोभ, भय, माया द्वेष, अरति, रति और रात्रि भोजन भी मोहित होकर करता है ।।११५२।। भावार्थ-धनके उपार्जनके लिये किसीसे कुपित होता है कोई धनका नाश न कर देवे चोर न आ जाय इत्यादि भय परिग्रह उत्पन्न करता है । धनको कमाने के लिये उसको बढ़तीके लिये माया जाल को रचता हुआ स्पष्ट रूपसे दिखाई देता है । किसोने धन खर्च आदि किया तो उससे द्वष करने लगता है। रात्रि भोजन भी करने लगता है। वर्तमानमें श्रावक जन तो धनके लिये प्रायः रात्रि भोजन करते हुए दिखाई देते हैं। इसप्रकार परिग्रह सर्व अनर्थ कराता है । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका ग्रंथो महाभयं नृणामेकरध्ये सहोदरौ । ग्रंथार्थ हिसित बुद्धि पत्तोऽकाष्टो परस्परम् ॥११८३॥ तस्कराणां भयं जातमभ्योन्यविणापिनाम् । मोमांसे विषं घोरं यतः संयोज्य मारिताः ॥११८४॥ मनुष्योंके लिये परिग्रह महाभय रूप है देखो ! द रश्मा नापळे ग्राम में दो सगे भाई थे, उन्होंने परिग्रहके लिये एक दूसरेको मारनेकी बुद्धि की थी ॥११८३॥ सगे दो भाईयोंको कथादशार्ण देश में एक रथ नामका नगर था उसमें दो सगे भाई रहते थे । दुर्भाग्य वश उनके दरिद्रता आयो । दोनों अपने मामा के समीप गये उन्होंने आठ रत्न दिये और कहा कि इनसे आप अपनी आजीविका का साधन बनाओ। दोनों भाई धनदेव और धनमित्र अपने नगर की ओर आ रहे थे । मार्ग में रत्नोंको अकेले ही हड़पने को दुर्भावना से एक दूसरे को मार डालने का विचार आया, किन्तु कुछ दूर जानेपर सुबुद्धि आयी और बरे विचार एक दूसरेको बताकर उन्होंने रत्नों को नदोमें फेंक दिया। उन रत्नों को बड़ी मछलीने निगल लिया । धीवरने जब उस मछली को चीरा तो उसके पेट से वे रत्न निकले । किन्तु धोवर उनकी कीमत नहीं जानता था अतः बाजार में बेचने आया, कर्म संयोग वश उन धनदेव धनपुत्र की माताने उनको खरीदा, जब उसे ये रत्न हैं ऐसा मालम हुआ तो उसके लोभमें पुत्रोंको मारना चाहा, फिर पश्चात्ताप कर उसने उन रत्नोंको अपनी लड़को धनमित्राको दिया, रत्नोंको पाते ही उसके भी भाव सबको मारने के हए । फिर सम्हल कर माताको मनका बुरा भाव बताया। सबने बैठकर विचार किया कि अहो ! यह रत्न आदि धन परिग्रह अत्यंत दुःखप्रद है, यह संसार असार है धिक मोह माया को । ऐसा विचार कर वे सभी दीक्षित होगये। इसप्रकार परिग्रहके ममत्वसे भाईयोंकी बुद्धि भ्रष्ट हुई थी। सगे दो भाईयोंको कथा समाप्त । एक दुसरेके हिस्सेका धन ग्रहण करने की इच्छा वाले चोरोंको आपसमें भय हआ और उन्होंने शराब तथा मांसमें घोर विष मिलाकर एक दूसरेको मार डाला ॥११८४॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३३५ संगो महाभयं यस्माच्छाधकेण कथितः । निहितेऽपहृते द्रव्ये तनुजेन तपोधनः ॥११८५।। चोरोंको कथाधनदत्त, धनभित्र आदि बहुतसे सेठके पुत्र व्यापारके लिये बहुतसा धन लेकर एकवनसे जा रहे थे। मागमें चोरोंने उन्हें लूट लिया । विशाल धनको प्राप्त कर उन चोरोंकी नियत बिगड़ गयो सबके मन में भाव आया कि अकेलेके हाथ सब धन आ जाय । रात्रिमें भोजन करने बैठे, उन्हीं में से एक ने खाने के लिये लाये गये निंद्य मांस में विष मिला दिया । सबने उसे खा लिया यहांतक कि जिसने विष मिलाया था उसने भी भ्रमवश खा लिया एक सागरदत्त नामके वैश्यपुत्रने नहीं खाया था बह बच गया उसने धन लोभके दुष्परिणामको साक्षात् देखा था इससे उसको वैराग्य हुआ । सब धन वहीं पड़ा रहा, एक बचा हुआ सागरदत्त मुनिके निकट दीक्षित हो गया। इसप्रकार एक घन लिप्सा सर्व चोरोंके मृत्युका कारण बनीं ऐसा जानकर धनकी लालसा का त्याग करना चाहिये। कथा समाप्त । परिग्रह ही महाभय है क्योंकि एक श्रावक द्वारा साधुको धनके कारण हो कष्ट दिया गया था, उस श्रावकने कहींपर धन गाड रखा था उसको पुत्रने चुरा लिया जिससे उक्त श्रावकको मुनिपर शंका हुई थी अतः अनेक प्रकारको कथा द्वारा मुनिको व्याकुल किया था ।।११८५।। धनलोभी जिनदत्तकी कथाउज्जैन नगरी में एक जिनदत्त नामका सेठ था उसके पुत्रका नाम कुबेरदत्त था । एक दिन नगरके श्मशान में मणिमाली यति मृतक शय्यासे ध्यान कर रहे थे । एक कापालिक विद्या सिद्धि के लिये वहां आया और मुनिराजको मृतक समझकर उनके मस्तकका तथा अन्य दो शवोंके मस्तकोंका चूल्हा बनाकर उसने आग जलायी उस चूल्हे पर हांडो चढ़ाकर चावल पकाने लगा। मुनिराज आत्मध्यानमें लोन हुए वे आत्मा और शरीरके पृथक् पृथक्पनेका विचार करने लगे किन्तु उनका मस्तक प्रकस्मात हिल गया उससे हांडी गिर पड़ी चूल्हा बुझ गया और कापालिक डरकर भाग गया। प्रातः हुआ किसीने मूनिको कष्टमय स्थितिमें देखा और जिनदत्त सेठको वह समाचार . दिया । सेठ अतिशीघ्र वहां पहुंचा मुनिको स्थितिको देखकर उसको बहुत दुःख हुआ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका वर्ष वातं क्षुधं तृष्णां तापं शीतं श्रमं क्लमं । दुर्भुत सहतेऽर्थार्थी भार वहति पुष्कलं ।।११८६।। छंद-द्रुत विलंबित-- कृषति दोव्यति सीव्यसि खिद्यते बपति पश्यति त्रस्यति याचते । धमति धावति वल्गति सेवते सवति ताम्यति नृत्यति गायते ॥११८७॥ .-- तत्काल मुनिराजको अपने गृह चैत्यालयमें ले गया चतुर वैद्यकी सलाहसे लाक्षामूल तेल द्वारा मुनिराजका जला हुआ मस्तक ठोक हो गया जिनदत्तने गुरुकी महान वैयावृत्यकी चातुर्मासका समय अत्यंत निकट था अतः सेठके प्रार्थनापर मुनिने गृह चैत्यालयमें वर्षायोग स्थापित किया । किसी दिन अपने व्यसनी पुत्र कुबेरदत्त से धनकी रक्षा हेतु सेठने मुनिराजके बैठने के स्थानमें धनको माड दिया । इस बातको कुबेरदत्तन छिपकर देखा था, अतः मौका पाकर उसने धनको उक्त स्थानसे निकाल कर अन्यत्र गाड दिया । वर्षायोग पूर्ण होनेपर मुनिराज विहार करते हैं, सेठने उनके जाते ही धनको खोदकर देखा तो मिला नहीं । अब उसको भ्रम हुआ कि मुनिने इस धनको चुराया है वह मुनिराजके निकट जंगल में पहुंच जाता है और कथाओंके माध्यमसे धन हरणकी बात कहता है मुनिराज भी समझ जाते हैं और वे भी कथाओं द्वारा अपनी निर्दोषता कहते हैं। उन कथाओंके नाम-दूत, ब्राह्मण, व्याघ्र, बैल, हाथी, राजपुत्र, पथिक, राजा, सुनार, वानर, नेवला, वैद्य, तपस्वी, चूतवन लोक और सर्प । इन कथाओंको सेठ पुत्र कुबेरदत्त भी सुन रहा था । पिताके मनिराजके प्रति होनेवाले दुर्भावको जानकर उसको वैराग्य हुआ उसने पिताको सब सत्य वृत्तांत कह दिया कि मैंने धनको खोदके निकाला है। उसने धन लिप्साकी बड़ी भारो निंदा की जिनदत्त को भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ। दोनों पिता पुत्रने मुनिराजसे क्षमा मांगी और उन्हींके निकट जिन दीक्षा ग्रहण की। कथा समाप्त । वर्णकी बाधा वायुको बाधा, भूख, प्यास, धूप, हिम, श्रम, वलम और खोटा भोजन इन सबको धन का इच्छुक पुरुष सहता है तथा बहुतसे भारको ढोता है अर्थात् कुलो बनकर भार ढोकर धन कमाता है ॥११८६।। धनार्थी पुरुष खेती करता है, क्रीड़ा करता है, वस्त्रको सीता है, खेदित होता है, धान्य बोता है, देखता है, घबराता है, याचना करता है, अग्निको धोंकता है, दौड़ता है, Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार छंद--द्रुतविलंबित पठति जल्पति लुठति लुंपते हरति रुष्यति नश्यति लिख्यति । रजति कस्यति वहति सिचति मुह्यति वंदते ॥११८६ | छंद द्रुतविलंबित [ ३३७ श्वसिति रोदिति माद्यति लज्जते हसति तृष्यति दृष्यति नृत्यति । तुति गृध्यति रज्यति सज्जते द्रविण लुब्धमनाः कुरुते न किम् ।।११८६ | कोणालि वयते वस्त्रं गोमहिष्यादि रक्षति । अर्थार्थी लोहकाष्टास्थिस्वर्णकर्म करोति ना ।। ११६० ।। छंद द्रुतविलंबित रुधिरमदुर्गममाहवं निशितशस्त्रविदारितकु जरं । हरिपुरस्सर जंतुविभीषणं भ्रमति विसमता गहनं वनम् ॥ १११ ॥ बकने लगता है, सेवा कर्म करता है । रोता है, दुःखी होता है, नाचता है, गाता है. ११८७।। पढ़ता है, चिल्लाता है, किसोका छन डाकू बनकर लूटता है, छिपता है, अपहरण करता है, रोष करता है, संतुष्ट होता है । नष्ट हो जाना चाहता है | रक्षक बनता है, कृषक बनता है, जलता है, संचय करता है, मोहित होता है, धनके लिये किसकी वंदना करता है ।।११८८ ।। जोर जोरसे श्वास लेता है, रोता है, मत्त होता है, लज्जित होता है, हँसता है, तृष्णा करता है, दर्प करता है, नाचता है, खेद करता है, वृद्धि करता है, रंज करता है, लगा रहता है इसप्रकार धनमें लुब्ध हुआ है मन जिसका ऐसा पुरुष क्या क्या नहीं करता ? ।। ११८९ ।। धनार्थी पुरुष वस्त्रको बेचता है, बुनता है, गो महिष आदि को रक्षा करता है, लोहकर्म, काष्ट कर्म, अस्थि कर्म, सुवर्ण कर्म करता है ।। ११९० ।। धनार्थी रक्तके कीचड़से जो दुर्गम है ऐसे रणमें प्रवेश करता है, कैसा है रण ? पैने पैने शस्त्रोंसे विदारित किया है हाथियोंको जहां तथा धनमें है मन जिसका ऐसा वह पुरुष शेर आदि बहुत से जंगलो पशुओंसे भीषण ऐसे गहन वनमें भ्रमण करता है ।। ११६१।। विशाल लहरों द्वारा मानो आकाशको छू रहा है ऐसे समुद्र में जो कि मकर श्रादि जलचर जीवोंसे व्याप्त है उसमें जीवनसे भी निस्पृह हुआ और धनार्जन में ही आसक्त हुआ व्यक्ति प्रवेश करता है ।। ११६२ ।। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] मरणकण्डिका छंद द त बिलनितविपुलवीचिविगाढनभस्तलं मकरपूर्वकचारसंकुलम् । जलनिधि प्रविणार्जनलालसोविशति जोवितनिस्पृहमानसः ॥११६२।। छंद द्र तविलंबितनिधनमच्छति तत्र यदेकको भवति कस्य तवा धनजितम् । विविधविघ्नविनाशितविग्रहो जनतयाखिलयापि जुगुप्सते ॥११६३॥ __छंद भुजंग प्रयातलुनीते पुनीते पुनीते कृणोते न बत्ते न भुक्तं न शेते न वित्त । सदाचारवृत्ते बंहितचित्तो धनार्थी विधेयं विधत्ते निकृष्टम् ।।११६४।। गिरिकंबरदुर्गाणि भोषणानि विगाहते । अकृत्यमपि वित्तार्थ कुरते कर्म मूढवीः ।।११६५॥ जायते निनो वश्यः कुलीनोऽपि महामपि । अपमानं धनाकांक्षी सहते मानवानपि ॥११६६॥ कोपिल्यनगरेऽर्थार्थ परितापं दुरुत्तरं । प्राप्य पिण्याकगंधोऽपारुलल्लकं नरकं कुधीः ॥११६७।। धनार्थी पुरुष अकेला ही धन कमाता हुआ जब मृत्युको प्राप्त होता है तब । उसका यह अजित धन किसका होता है ? विविध विघ्न बाधाओं द्वारा नष्ट कर डाला है अपने शरीरको जिसने ऐसा बह पुरुष तो अखिल जनता द्वारा निंदनीय हो जाता है ॥११६३।। धनार्थी पुरुष खेतमें फसलको काटता है, धुनता है, खलियान साफ करता है, धान्य बेचता है, अपना धन धान्य न किसीको देता है और न स्वयं खाता है, न सोता है और न कुछ जान पाता है, वह धनार्थी तो सदाचार वृत्ति से बहिर्भूत चित्तवाला होकर निकृष्ट कार्यको करता है ।।११६४।। धनके लिये मंद बुद्धि पुरुष भोषण गिरि कंदर दुर्ग में प्रवेश करता है, अकृत्यको भी कर डालता है ॥११९५|| धनका आकांक्षी पुरुष धनिकोंके वश में हो जाता है, भले ही स्वयं महान् है, कुलवान् भी है, अभिमानी होकर भी अपमान सहता है ।।११९६।। कांपिल्य नगरमें धन के लिये कठोर परितापको प्राप्त होकर पिण्याकगंध नामका कुबुद्धि पुरुष लल्लक नामके नरकके बिल में गया था ।।११६७॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार कुर्वतोऽपि परां चेष्टामर्थलाभो न निश्चितं । संचयते विपुण्यस्य मार्थो लब्धोऽपि जातुचित् ।। ११६८ ।। | ३३ पिण्याकगंधको कथा कांपिल्य नगर में रत्नप्रभ राजा राज्य करता था उसी नगर में एक पिण्याकगंध नामका सेठ था वह करोड़पति होकर भी अत्यंत लोभो कृपण और मूर्ख था । न स्वयं धनका भोग करता न किसी परिवार जनोंको करने देता । सब कुछ होते हुए भी खल खाया करता इसलिये उसका नाम पिण्याकगंध पड़ा था । पिण्याक खलीको कहते हैं यह सेठ उस पिण्याक को सूंघकर गंध लेकर खाया करता अतः पिण्याकगंध नामसे पुकारा जाता था । एक दिन राजाने तालाबका निर्माण कराया, उसकी खुदाई में एक नौकरको लोकी संदूक में बहुतसी सलाइयां मिली। नौकरने एक एक करके पिण्याकके यहां उन सलाइयोंको बेचा। पहले सलाई लेते समय तो उस सेठको मालूम नहीं पड़ा कि यह सलाई किस धातुको है लोहे को समझकर खरीदी । पोछे ज्ञात हुआ किन्तु लोभवश लोहे के मूल्य में खरीदता रहा । किसी दिन वह अन्यत्र गया हुआ था जब नौकर सलाई बेचने आया तो संठके पुत्रने सलाई खरोदने को मना किया। नौकर दूसरी जगह बेचनेको गया इतने में सिपाहीने उसे पकड़ लिया और राजाके समक्ष उपस्थित किया । नौकर ने सब बात बतादी कि पिण्याकगंधको सलाई बेची है और लोहे भाव में बेची है । राजाको क्रोध आया उसने सेठका सारा धन छीन लिया । जब पिण्याकगंधको अपने घनका नाश होना मालूम हुआ तो अत्यंत रौद्रभावसे उसने कुपित होकर अपने पैर काट डाले कि इन पैरोंसे मैं यदि दूसरे ग्राम नहीं जाता तो मेरा धन नहीं लुटता । इसतरह परके कट जाने से तीव्र वेदनाके साथ वह मर गया और छठे नरकके लल्लक नामके तीसरे इन्द्रक बिल में उत्पन्न हुआ। वहांपर भयंकर वेदना सहता रहा । इसप्रकार परिग्रहका मोह महान परितापका कारण है ऐसा जानकर भव्यों को उसका त्याग करना चाहिये । पिण्याकगंधकी कथा समाप्त । बहुतसा पुरुषार्थ करनेपर भी धनका लाभ होना निश्चित नहीं है तथा पुण्यरहित जीवके कदाचित् कुछ घन हो जाय तो वह संचित नहीं रह पाता नष्ट हो जाता ।। ११६८।। धनका संचय कदाचित् हो भी जाय तो पुरुष कभी तृप्त नहीं होता, जैसे Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० मरणकण्डिका नार्थे संचीयमानेऽपि पुरुषो जातु तृष्यति । अपथ्येन यथा व्याधिोभो लाभेन वद्धते ।।११६६॥ नदोजलरिवाम्भोधिरिधनरिव पावकः । लोफैस्त्रिभिरपि प्राप्तर्न जीवो जातु तृप्यति ॥१२००॥ महाधनसमृद्धोऽपि पटहस्ताभिधोवणिक् । जातस्तृप्तिमनासाद्य लब्धधीदोघंसंसृतिः ॥१२०१॥ -.-.- .-..-.--.--.--.-.---.-...अपथ्य सेवनसे व्याधि बढ़ती जाती है वैसे धनके लाभसे पुनः पुनः लोभ बढ़ता जाता है ॥११९९।। जिसप्रकार नदियोंसे सागर और ईंधनोंसे अग्नि तृप्त नहीं होती है उसाप्रकार तीन लोक के प्राप्त हो जाने पर भी जोव कभी तृप्त नहीं होता है ॥१२००॥ महा समृद्धशालो पटहस्त नामका वणिक तृप्त न होकर धनमें अत्यंत आसक्त है बुद्धि जिसकी ऐसा होकर दीर्घ संसारो बन गया था ।।१२०१।। फणहस्त-पटहस्त वणिकको कथाचंपापुरी में राजा अभयवाहन अपनी पूडरोका रानीके साथ सुखपूर्वक राज्य करता था । उस नगरी में एक महाकंजूस लुब्धक नामका सेठ था, सेठानी नागवसु थी। वर्षाऋतुका समय था । रात्रि के समय नदीमें बहकर आयी हुई लकड़ियोंको लुब्धक इकट्री कर रहा था। रानी पुडरीकाने इस दृश्यको देखा और लुब्धकको दरिद्री समझकर राजामे धन देने को कहा। राजाने पता लगाकर सेठको बुलाया और कहा कि तुम्हें जो द्रव्य चाहिये सो खजाने से ले जाओ। सेठने कहा-मुझे एक बैल चाहिये, राजाने कहा-गोशालामें से जैसा चाहिये वैसा बैल ले जाओ । सेठने उत्तर दिया राजन् ! मैं जैसा चाहता हूं वैसा बैल आपके गौशालामें नहीं है । तब आश्चर्ययुक्त होकर राजाने पूछा कि तुम्हें कैसा बैल चाहिये ? सेठने कहा-मेरे पास एक बैल तो है किन्तु उसका जोड़ा नहीं होने से चितित हूं | राजा विस्मित हो उसका बैल देखनेको चला, राजाको घरपर आये देख सेठ सेठानीने उनका स्वागत किया । सेठने तलघरमें स्थित, मयूर, हंस, सारस, मैना, अश्व, हाथी आदि पशु-पक्षियोंकी रत्न सुवर्णनिर्मित युगलोंको दिखाकर सेठने कहा कि इनमें एक बैल कम है उसके लिये मैं परेशान हूं। राजा उसका वैभव Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३४१ हाहाभूतस्य जीवस्य किं सुखं तृप्तितो विना । प्राशया ग्रस्यमानस्य पिशाच्येव निरंतरम् ॥१२०२।। छेद स्रग्विणीहन्यते तायते बध्यते रुध्यते मानवो वित्तयुक्तोऽपराधं विना । पक्षिभिः कि न पक्षी गृहोतामिषः खाद्यते लुच्यते दोषहोनः परः ।।१२०३॥ देखकर दंग रह गया तथा इतने धनके होते हुए भी लकड़ियां इकट्ठी करने जैसे निंद्यकार्य में प्रवृत्त देखकर उसके चाहको दाहपर बड़ा खेद भो हुआ । राजा जब वापिस जाने लगा तब सेठानी मागवणे संठने हाथमें रत्नोंका भरा सुवर्णथाल राजाको भेटमें देने के लिये दिया । सेठका सारा रक्त मानों सूख हो गया इतने रत्नोंके देते समय उसके दोनों हाथ लोभ और क्रोध के मारे कांपने लगे, राजाके तरफ थाल करते वक्त उसके हाथ नाग फणके सदृश राजाको दिखाई पड़े । राजा समझ चुका था कि यह सेठ महालोभी, कृपण, नीच एवं निंद्य है उसके भावोंके अनुसार उसके हाथोंका परिवर्तन देखकर राजाने उसकी निंद्य भावना एवं परिग्रह लोभकी बहुत निंदा की और "यह फण हस्त है" ऐसा उसका नामकरण करके राजा अपने महल में लौट आया । इधर सेठ धन कमाने हेतु विदेश गया था वहां से लौटते समय समुद्र के मध्य उपाजित धनके साथ डूब गया और परिग्रहके महालोभके कारण मरकर नरकमें चला गया । कथा समाप्त । जिसको धनकी हाय-हाय लगी है ऐसे पुरुष को धन मिल भी जाय किन्तु तृप्ति नहीं होती और तृप्तिके बिना क्या सुख ? वह तो आशा द्वारा सदा ग्रस्त रहता है। जैसे किसीको पिशाची लग जाय तो वह निरंतर दुःखो रहता है वैसे आशा-मुझे यह मिल जाय, अमुक वस्तुको प्राप्ति होनी चाहिये इसप्रकारको आशा पिशाचीसे ग्रस्त मानव धनके रहते हुए भी कभी सुखी नहीं होता ।।१२०२॥ धनिक पुरुष अपराधके बिना भी किसी अन्य धनके इच्छुक व्यक्ति द्वारा मारा जाता है, ताड़ित होता है, बांधा जाता है, रोका जाता है, ठोक ही है ! देखो ! जिसने मांसको ग्रहण किया है ऐसा पक्षी दूसरे पक्षियोंका कुछ अपराध दोष नहीं करता किन्तु अन्य पक्षियों द्वारा क्या खाया नहीं जाता, नोचा नहीं जाता? जाता ही है ॥१२०३॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] मरकण्डिका छंद उपेन्द्रवज्जा प्रियासवित्रीपितृदेहजादौ सदापि विश्वासमनावधानः । न त्रायमारणः सकलां त्रिधामां प्रयातिनिद्रां धनलुब्धबुद्धिः ।। १२०४।१ श्ररण्ये नगरे ग्रामे गृहे सर्वत्र शंकितः । श्राधारान्वेषणाकांक्षी स्ववशो जायते कदा ।। १२०५ ।। धीरेराचरितं स्थानं विविक्त' धनलालसः । विहाय भूरिलोकानां मध्ये गेहीव तिष्ठति ।।१२०६ ॥ शब्दं केचिदसौ श्रुत्वा सहसोत्थाय धावति । सर्वतः प्रेक्षते द्रथ्यं परामृशति मुह्यति ।।१२०७॥ आरोहति नगं वृक्षमुत्पथेन पलायते । frojengeat भीतो हृदं विशति दुस्तरम् ।।१२०८ ।। धनमें लुब्ध हुई हैं बुद्धि जिसकी ऐसा पुरुष अपनी स्वयंकी पत्नी, माता, पिता, पुत्री आदिमें विश्वास नहीं करता, सदा स्वयं हो धनकी रक्षामें लगा रहता है, तीन प्रहर प्रमाण समस्त रात्रिमें निद्रा नहीं लेता है || १२०४ || धनका लोभी धनकी रक्षा के लिये उपयुक्त स्थानको खोजता रहता है, अरण्य में, नगर में, ग्राममं, घर में सर्वत्र ही शंकित रहता है कि मेरा धन कोई देख न लेवे चुरा न लेवे ? वह स्ववण-स्वाधीन कब होता है ? अर्थात् नहीं होता सदा घनके आधीन रहता है ।। १२०५ ॥ धनका लोभी पुरुष धीर वीर महापुरुषों द्वारा जो स्थान सेवित किया जाता है ऐसे विविक्त एकान्त स्थानको छोड़कर बहुत से लोकोंके मध्य में गृहस्थवत् रहता है ( क्योंकि उसे डर लगता है कि इस एकांत स्थान में मेरा धन कोई चुरा नहीं लेवे ) ।। १२०६ ।। धनलुब्ध मानव रात्रिमें किचित् भी शब्द सुनता है तो तत्काल उठकर भय से भागने लगता है, चारों ओर देखने लगता है कि कोई धन चुराने आया तो नहीं ? अपने धनको बार-बार छूकर देखता है कि वह कहीं चला तो नहीं गया | धन पर सदा मोहित रहता है ।। १२०७ || मेरा धन चोर ले जायगा इस भय से वह परिग्रहवान् पुरुष पर्वत पर चढ जाता है, वृक्षपर चढ़ जाता है, ऊबड़ खाबड़ खराब रास्ते से भाग जाता है । जीव जन्तुका घात करते हुए कहीं घुस जाता है, भयसे कभी अगाव सरोवर में प्रविष्ट होता है ।। १२०८।। उस धनके परवश हुए पुरुषका धन जबरदस्ती Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [३४३ अवशस्य नरस्याओं हठतो बलिभिः परः । दायास्तस्कर पेस्त्रायमाणोऽपि लुटचते ॥१२०६।। कलि कलकलं वैरं कुरुते नाथते परं । म्रियते 'मार्यते लोकहस्यते चार्थलंपटः ॥१२१०॥ कृशानुमूषिकांभोभिः संचितोऽर्थो विनाश्यते । सत्र नष्टे पुनर्बाद वह्मते शोकवह्निना ॥१२११॥ छंद उ त विलंबितश्वसिति रोदिति सीवति धेपते गतवति दधिणे ग्रहिलोपमः । करनिविष्टकपोलतलोऽधमो मनसि शोचति पूत्कुरुतेऽभितः ॥१२१२॥ अंतरे द्रव्यशोकेन पावकेनेव ताप्यते । बुद्धिर्मदायतं बाद मुहह्मत्युत्कंठत राम् ॥१२१३॥ बलवान् अन्य किसीके द्वारा लूट लिया जाता है, परिवारके भागीदार उसके घनको छीन लेते हैं अथवा चोर या राजा द्वारा उसका रक्षित किया हुआ भो धन लूट लिया जाता है ।।१२०६।। धनका लंपटी व्यक्ति दूसरोंके साथ झगड़ा करता है, बकबक करने लगता है, वैर करता है। कभी अन्यसे धनकी याचना करने लगता है । धनको रक्षा करते हुए मर जाता है या अन्य द्वारा मारा जाता है, अधिक लोभी एवं कृपणकी लोक हंसी करते हैं ।।१२१०।। बहुत ही प्रयाससे संचित किया गया धन अग्नि, चहे और जल द्वारा नष्ट किया जाता है उस धनके नष्ट हो जानेपर वह अधिक रूपसे शोक अग्नि द्वारा जलने लगता है अर्थात् अत्यंत कठिनाईसे कमाये हुए घनका नाश हुआ देखकर उस व्यक्तिको बहुत भारी शोक संताप होता है ।। १२११।। जिसका धन नष्ट हुआ है वह पुरुष जोर जोरसे श्वास लेने लगता है, रोता है, खेद करता है, कांपता है । इसतरह धनके चले जानेपर पागलके समान चेष्टा करता है, हाथोंको कपोलपर रखकर वह अधम मन में बड़ा अफसोस करता है, पुकारने लगता है ।।१२१२।। धन-द्रव्यका नाश होनेसे उत्पन्न हुआ जो शोक है उसके द्वारा मनके भीतर संतप्त होता है, जैसे अग्निसे जलनेपर संताप होता है उससे अधिक संताप उसे होता है, उसकी बुद्धि मंद पड़ जाती है, अतिशय रूपसे मोहित होता है तथा उत्कंठित होता Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] मरणकण्डिका उन्मत्तो बधिरो मूको द्रव्ये नष्टे प्रजायते । चेष्टतो पुरुषो मतुं गिरिप्रपतनादिभिः ॥ १२१४॥ चैलाक्योऽखिला ग्रंथाः संसर्जति समंततः । संति समिहिताश्चित्रास्तस्मिन्झांगतुकास्तथा ॥ १२१५ ।। छंद स्रग्विणी बंधने छोटने छेदने मेदने पाटने धूनने चालने शोषणे । वेष्टने क्षालने स्वीकृती क्षेपणेऽर्थस्य पोडा परा जायते बेहिनाम् ।।१२१६ ॥ तेभ्यो निरसने तेषां वा योनिवियोजना | दोषा मद्द नसंघट्टथितापमरणावयः सविता गितो घ्नश्ति स्वयं संसक्तमानसाः । गृहीतुर्जायते पापं तनिमित्तमसंशयम् ॥१२१८ ।। ।।१२१७।। है ।।१२१३।। धनके नष्ट हो जानेपर वह पुरुष पागल हो जाता है, बहिरा गुरंगा होता है और अंत में पहाड़ आदिसे गिरकर मरने की चेष्टा करता है ।। १२१४ ।। ओढने आदिके वस्त्र आदि जितने परिग्रह हैं वे सब ही चारों ओरसे संमूर्च्छन जीवोंसे सहित हैं, नवीन विचित्र विचित्र जीव भी उनमें उत्पन्न होते रहते हैं ।। १२१५।। भावार्थ- वस्त्र आदि परिग्रहोंमें संमूच्र्छन जीव उत्पन्न होते हो रहते हैं जैसे वस्त्र में जूंं, दोमक आदि उत्पन्न होते हैं । धान्य में लट, घुन आदि लग जाते हैं । खाद्य पदार्थ अधिक दिन होनेपर उनमें रसज संमूर्च्छन जीव उत्पन्न होते हैं । इसीप्रकार अन्य वस्तुनोंमें भी जीव उत्पन्न होते हैं । परिग्रह धारी पुरुष जब अपने धन धान्य आदि परिग्रहों का बंधन करना-बांध देना, छोड़ना, छेदना, भेदना, उखाड़ना, हिलाना, छानना, सुखाना, वेष्टित करना, धोना पहनना, फेंकना यादि क्रियायें करता है तब उन परिग्रहों में होनेवाले जीव एवं उनके आसपास में रहनेवाले जीवोंको बड़ी भारी पीड़ा होती है ।।१२१६|| जब वस्त्रादि परिग्रहों से उन जीवोंको निकालते हैं तब नियमसे उनका योनि स्थान - उत्पत्ति स्थान बदलता है और उससे उन जीवोंका मद्दन संघट्टन, परिताप और मरण हो जाया करता है ।। १२१७ ।। दास दासी आदि सचित्त परिग्रह जो कि स्वयं भी धनमें आसक्त मनवाले हैं वे जीवोंका घात करते हैं अथवा उन सचित परिग्रहरूप दास आदिका उनके स्वामी द्वारा Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३४५ देहस्याक्षमयस्वेन देहसौख्याय गहतः । अक्षसौख्याभिलाषोऽस्ति सकलस्य परिगृहः ॥१२१६॥ रक्षणस्थापनाचीनि कुर्वाणोऽर्थस्य सर्वदा । निरस्ताध्ययनो ध्यानं व्याक्षिप्तः कुरुते कथम् ॥१२२०॥ अर्थप्रसक्तचित्तोऽस्ति निःस्थो बहुषु जन्मसु । प्रासार्थमपि कर्माणि नियानि कुरुते सदा ।।१२२१॥ बंधन, पोहन आदि रूप घात किया जाता है और उस निमित्तसे नि:संशय ही पाप बंध होता है । भाव यह है कि दास दासी आदिको खेतो आदिमें नियुक्त करते हैं तब वे जीवोंका घात करते हैं उससे उन दासादिको पाप बंध होता है और उनका स्वामी दासादिको उक्त कार्यमें लगाता है अतः स्वामीको भी पापबंध होता है, इसतरह दोनोंको पापका बंध होता है ।।१२१८।। यह शरीर इन्द्रियमय है अर्थात् पांचों इन्द्रियोंका अभिन्न भूत आधार है, शरीरको सुख हो इस हेतुसे वस्त्र आदिको मनुष्य ग्रहण करता है अर्थात शरीरको धूप, हवा आदिसे बाधा न होवे एतदर्थ वस्त्र आदिको धारण करता है, इसतरह परिग्रहधारीके इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा-इच्छा रहती है और इच्छा नियमसे पापबंधका कारण है ।।१२१९।। सर्वदा धनका संरक्षण रखना उठाना आदि कार्योंको करनेवालेके शास्त्रका अध्ययन नहीं होता, व्याकुल चित्तवाला पुरुष ध्यानको कैसे कर सकता है ? ॥१२२०।। भावार्थ-परिग्रह संरक्षण में लगे हुए व्यक्तिको स्वाध्याय करने का अवसर नहीं मिलता है उसका समस्त समय परिग्रहके संमार्जन आदिमें नष्ट होता है। चिस भी आकुल व्याकुल रहता है अत: एकाग्रचित्त रूप ध्यान भो परिग्रहधारीके संभव नहीं है । जो व्यक्ति सदा परिग्रहमें ही आसक्त मनवाला होता है उसको बहुत जन्मों में दरिद्रता आती है अर्थात परिग्रह में आसक्ति रखनेवाला जीव भव-भवमें दरिद्री बनता है, वह भोजनके लिये सदा निंद्य कार्योंको करता है, अर्थात् जूते उठाना, पगचंपी करना, भार ढोना आदि खोटे काम करता है तथा उसे ग्रास-पासके लिये भीख मांगनी पड़तो है ॥१२२१।। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] मरणकण्डिका लभते यातनाश्चित्रा ग्रंथहेतून्भवान्तरे । संक्लिश्यत्याशया ग्रस्तो हाहाभूतोऽर्थ लुब्धधीः ।।१२२२॥ प्रमीभिरखिलषग्रंथत्यागी धिमुख्यते । भूरिभिस्तद्विपक्षश्च निलयोक्रियते गुगः ॥१२२३॥ अंकुशो गतसंगत्वं विषयेभनिवारणम् । इंद्रियाणां परागुप्तिः पुरोणाभिच खातिका ।।१२२४॥ विषयेभ्यो दुरतेभ्यस्त्रस्यति नजितः । अल्पमंत्रौषधो मर्त्यः सर्पेभ्य इव सर्वदा ।।१२२५।। धन में लुब्ध बुद्धिवाला पुरुष भवांतरमें भी अनेक यातनाओंको प्राप्त होता है, धनकी हाय-हाय करता है, परकीय ग्रस्त हुआ सदा ही संक्लेश करता रहता है ।।१२२२॥ ___इसप्रकार यहांतक परिग्रह धारण करने में जो दोष होते हैं उनका वर्णन किया, आगे जो परिग्रहका त्याग कर देता है उसके उक्त दोष नहीं होते एवं दोषके विपक्षी गुण प्राप्त होते हैं ऐसा प्रतिपादन करते हैं परिग्रहका त्यागो इन समस्त दोषोंसे छूट जाता है और दोषोंसे विपरीत गुणोंका निलय स्थान बनता है अर्थात् कृपणता, निदा, पापसंचय आदि दोष तो नष्ट हो जाते हैं और उनके विपक्षीभूत जो उदारता, प्रशंसा, पुण्य संचय, निःस्पृहः आदि गुण हैं वे प्राप्त होते हैं । । १२२३।। परिग्रहसे रहित होना रूप जो गुण है वह मानो विषयरूपी हाथीको रोकनेवाला अंकुश ही है तथा नगरोंकी रक्षा करनेवालो परिधाके समान इन्द्रियों को परम गुप्ति है अर्थात् जिसके परिग्रह नहीं है वह विषयों में नहीं फंसला तथा समस्त इन्द्रिपां भी उसके वश में हो जाती हैं ।।१२२४।। परिग्रहका त्यागो सदा दुरंत पंचेन्द्रियके विषयोंसे भयभीत रहता है जैसे जिसके पास मंत्र औषधि अल्प है ऐसा मनुष्य सोसे भयभीत रहता है ।। १२२५।। भावार्थ-जिसको सोका विष दूर करने का ज्ञान नहीं है, मंत्र औषधि आदि का प्रयोग नहीं जानता है वह पुरुष साँसे युक्त बनादिमें बहुत सावधानीसे रहता है । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३४७ अनुशिष्टि महाधिकार रागो मनोहरे ग्रंथे द्वषश्चास्त्यमनोहरे। रागढषपरित्यागो ग्रंथत्यागे प्रजायते ॥१२२६॥ शीतादयोऽखिलाः सम्यग्विषद्यते परीषहाः । शीतादिवारकं संगं योगिना त्यजता सदा ।।१२२७॥ शोतवातातपादीनि कष्टानिसहते यतः । क्रियतेऽनावरो बेहे नि:संगेन ततः परं ।।१२२८।। इसोप्रकार क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान आदि मंत्र औषधि जिसके पास नहीं है ऐसे तपोधन मुनिराज राग-द्वेष आदि सपास भर विषयरूपी वन में सावधान होकर रहते हैं । अभिप्राय यह है कि परिग्रहका त्याग करनेसे रागद्वेष नष्ट होते हैं तथा विषयाभिलाषा भी समाप्त होती है। मनोहर इष्ट परिग्रहमें रामभाव होता है और अमनोहर अनिष्ट परिग्रहमें द्वेषभाव होता है अतः परिग्रहका त्याग करनेपर रागद्वेष का त्याग स्वत: हो जाता है ।।१२२६॥ शीत आदिको बाधाको रोकनेवाले परिग्रहका त्याग करनेवाले मुनिद्वारा सदा शीत, उष्ण, दंशमशक आदि संपूर्ण परीषह भलोप्रकारसे सहन किये जाते हैं ।।१२२७॥ भावार्थ-साधुजन कर्मोकी निर्जराके लिये सदा प्रयत्नशील रहते हैं, क्योंकि पूर्व संचित कर्म अन्यथा नष्ट नहीं होते हैं । कर्म निर्जराका प्रमुख कारण तप तथा परीषह सहना है । वस्त्र, घर आदिका त्याग कर देने से, शीतकी बाधा, धूपकी बाधा आदि स्वत: सहन हो जाती है, इसतरह परिग्रह त्यागको महत्ता बतायी है। ___आगे कहते हैं कि हिंसादि असंयमका मूल शरीरका मोह है जिसने परिग्रह त्यागा वह शरीरका मोह भो छोड़ता है जिसकारणसे मुनिजन शीत, वायु, आतप आदि कष्टोंको सहते हैं उस कारणसे उन निःसंग मुनि द्वारा शरीर में अनादर-निर्ममत्व किया जाता है । अर्थात् जो शीत आदि परीषहोंको सहता है उसके शरीरका ममत्व नहीं रहता है ।।१२२८।। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] मरणकण्डिका ध्याक्षेपोऽस्ति यतस्तस्य न ग्रंथान्वेषणाविषु । ध्यानाध्ययनयोविघ्नो निःसंगस्य ततोऽस्ति नो ॥१२२६॥ दशितास्ति मनःशुद्धिः संगत्यागेन तात्विको । संगासक्तमना जातु संगत्यागं करोति किम् ॥१२३०।। निःसंगे जायते व्यक्त कषायारणां तनकृतिः । कषायो दोप्यते संगरिंधनरिव पावकः ॥१२३१॥ लघुः सर्वत्र निःसंगो रूपं विश्यासकारणम् । गुरुः सर्वत्र सग्रंथः शंकनीयश्च जायते ॥१२३२।। मूनिके धन आदि परिग्रहोंका अन्वेषण करना आदि क्रियाओं में व्याकुलता नहीं रहती इसलिये ध्यान और अध्ययन में उस निःसंग मुनिके कोई विघ्न बाधा नहीं होती ।१२२६॥ ___ आशय यह है कि जो परिग्रहले विरक्त है उसे परिग्रहोंको ढूछनेकी चिंता नहीं होती । मेरी अभिलषित वस्तु कहां गयी, कहां मिलेगी ऐसा सोच करना किसीको उस वस्तुके विषय में पूछना कि क्या आपने मेरो अमुक वस्तु देखी है इत्यादि । मिलने पर आनंद और नहीं मिलनेपर विषाद होता है । यह सब निष्परिग्रहीके नहीं होता, इसीलिये उसके शास्त्र स्वाध्यायमें कोई बाधा नहीं आती वह सतत् शास्त्राभ्यास में लीन रहता है तथा चित्त निराकुल होनेसे धर्मध्यान आदिकी भी सिद्धि हो जाती है। परिग्रहके त्याग द्वारा वास्तविक मन की शुद्धि दृष्टिगोचर होतो है, जिसका मन परिग्रहमें आसक्त है वह क्या कभी परिग्रह त्याग कर सकता है ? नहीं कर सकता ।।१२३०।। परिग्रह रहित निःसंग मुनि में कषायोंकी कृशता (कम करना) व्यक्त होती है, क्योंकि परिग्रह द्वारा कषाय वृद्धिंगत होतो है, जैसे ईंधन द्वारा अग्नि वृद्धिंगत होती है । अर्थात् परिग्रहका त्याग करनेवाला ही कषायोंको क्षीण कर सकता है, परिग्रह धारीके कषायोंको वृद्धि होती है ।।१२३१।। __ परिग्रह रहित मुनि सर्वत्र लघु अर्थात् भार रहित होते हैं उन्हें गमनागमनमें किसीप्रकार की चिंता नहीं रहती। उनका नग्न दिगंबर रूप विश्वासका कारण होता Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार प्रतिबंधप्रतीकारप्रतिकर्म भयादयः । निग्रंथस्य न जाते वोषाः संसारहेतवः ॥१२३३॥ महाश्रमकरे भारे रभसाद्धारवानिव । निरस्ते सकले ग्रंथे निवतो जायते यतिः ॥१२३४॥ भवंतो भाविनो भता ये भवन्ति परिग्रहाः । जहाहि सर्वथा तांस्त्वं कृतकारितमोवितैः ॥१२३५।। यावन्तः केचन ग्रंथाः संभवन्ति विराधकाः। नित्तः सर्वथा तेभ्यः शरीरं मुच निःस्पृहः ।।१२३६॥ .----. - - - - है, क्योंकि वस्त्रादि शरीर पर नहीं होनेसे किसीको कुछ भय या शंका नहीं होती कि इसने कपड़ेमें कुछ शस्त्र आदि तो नहीं छिपाये हैं ? जो व्यक्ति परिग्रह युक्त है वह सर्वत्र गुरु भारवाला गमनागमनमें चिंतावान् होता है अर्थात् मेरी अमुक वस्तु है उसे किसप्रकार देशांतरमें ले जाऊं इत्यादि चिंता परिहारोके होती है तथा इस पदों कुछ अवश्य छिपाया है इसप्रकार वह लोगों द्वारा शंकनोय होता है ।।१२३२।। निर्ग्रन्थ के संसारके हेतुभूत प्रतिबंध, प्रतोकार, प्रतिकर्म और भय आदि दोष नहीं होते हैं । पराधीनता होना कहीं जाने आने में रुकावट होना प्रतिबंध कहलाता है। उसका ऐसा प्रतोकार-बदला लेना है इत्यादिको प्रतीकार कहते हैं। यह कार्य तो पहले कर दिया है इसको पोछे करूगा इत्यादि विचारको प्रतिकर्म कहते हैं । निग्रंथ तपोधन ग्राम नगर आदिमें स्वाधीन विचरता है, उसे कोई चिता नहीं रहती धनादि पासमें नहीं होनेसे कहीं पर भी जाओ भय नहीं रहता इसप्रकार परिग्रह त्यागी के प्रतिबंध आदि दोष नहीं होते ।।१२३३।। जैसे कोई भारवाहक पुरुष महाश्रमके कारणभूत भारको उतार कर नित सुखी हो जाता है, वैसे सकल परिग्रहके उतार देनेपर-त्यागकर देनेपर मुनि सुखी शांत हो जाता है ।।१२३४।। आचार्य क्षयकको उपदेश दे रहे हैं कि हे क्षपक ! तुम जो परिग्रह वर्तमानमें हैं जो अतीत में था और अनागतमें होवेगा उन तीनों कालोंके परिग्रहों को मन वचन काय और कृत कारित और अनुमोदना द्वारा छोड़ दो सर्वथा त्याग कर दो ।।१२३५।। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] मरणकण्डिका इत्थं कृतक्रियो मुच विषयं सार्वकालिकम् । तृष्णामाशां त्रिधा संगं ममत्वं त्यज सर्वदा ॥१२३७।। समस्तग्रंथनिर्मुक्तः प्रसन्नो निर्वृताशयः । यत्प्रीतिसुखमाप्नोति तत्कुतश्चक्रवर्तिनः ॥१२३८॥ छंद शालिनीगद्धयाकांक्षकारणं सेवते यच्चकी सौख्यं रामपाकं पितृप्ति । सौख्यस्येवं नास्तसंगस्य तुल्यं स्वस्थोऽस्वस्थैः सौख्यमाप्नोति कुत्र ॥१२३९।। - - -- --..-- भो यते ! इस संसारमें जितने कोई भी परिग्रह हैं वे आराधना या समाधिको विराधना करनेवाले हैं उन सभी परिग्रहोंसे सर्वथा निवृत्त होवो-दूर हो जाओ ! तुम सर्वत्र निःस्पृह होकर शरीरको छोड़ो ॥१२३६।। अहो क्षपकराज ! इसप्रकार आराधना संबंधी समस्त क्रियाओंको कर दिया है जिसने ऐसे तुम सार्वकालिक अर्थात् तीन कालीन धनादि विषयोंको छोड़ो तथा लालसा, आशा परिग्रह और ममत्वको मन, वचन, कायसे सर्वदा त्याग दो ।।१२३७।। भावार्थ-ये मनोज्ञ विषय इसतरहके वस्त्रादि आगे आगे बढ़ते रहें इसप्रकार के भावको आशा, कहते हैं । ये धनादिक मेरेसे किंचित् भी दूर नहीं होने चाहिये इसप्रकारके भाव तृष्णा कहलाती है । जो समस्त परिग्रहोंसे निर्मुक्त है, परिग्रहको चिंतासे रहित होनेके कारण प्रसन्न है, किसीप्रकारकी आगामी कालीन व्याकुलता नहीं होने से निर्वृत्ताशय है उस मनिराजको जो परम प्रीति और सुख प्राप्त होता है वह प्रोति और बह सुख चक्रवर्तीके भी कहां है ? ।।१२३८।। चक्रवर्ती जो सुख भोगता है वह मद्धि-लंपटता आकांक्षा-इच्छाका कारण है अर्थात् उस सुखसे अधिक अधिक लंपटता और इच्छायें बढ़तो है, रागरूप फलवाला है और अतृप्ति कारक है । ऐसे चक्रवर्ती के सुखकी तुलना निष्परिग्रही मनिके सुख के साथ नहीं हो सकती । क्योंकि मुनिका सुख तो आत्मीक है वीतरागरूप है, मृद्धि कारक नहीं है । स्वस्थ-नीरोग पुरुष जो सुख प्राप्त करता है क्या उसको रोगी पुरुष प्राप्त कर सकता है ? नहीं ! इसीप्रकार मुनिके वीतराग शांत भाव रूप सुखको चक्रवर्ती नहीं Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३५१ छंद-सारंगसिद्धति दुःखानि नश्यंति शर्माणि, पुष्यन्ति कर्माणि ऋचन्तिचित्राणि । संगेऽगृहीते यतःसंयतस्यापि, हेयस्ततः सर्वदासौ पटिष्ठेन ।।१२४०॥ इति परिग्रहत्याग व्रतं । साधयंति महाथं यन्महाभः सेवितानि यत् । महांति यत्स्वयं सन्तो महाव्रतान्यतो विदुः ॥१२४१॥ रक्षणाय मता तेषां निवत्ती रात्रिभुक्तितः । राद्धांतमातरश्चाष्टौ सर्वाश्चापि च भावनाः ।।१२४२॥ प्राप्त कर सकता ॥१२३६।। परिग्रहोंका त्याग करनेपर या परिग्नहोंको ग्रहण नहीं करनेपर मुनि सिद्ध हो जाते हैं, उनके समस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं, शर्म, सुख, शांति पुष्ट होती है, अनेक कर्मों के बंधन टूट जाते हैं, जिसकारणसे यह लाभ है उसकारणसे संयत मनिके वह परिग्रह नहीं होता है । अत: चतुर पुरुष द्वारा परिग्रह सर्वदा त्याज्य है ।। १२४०।। पांचवें महाव्रतका वर्णन पूर्ण हुआ । महावत शब्दकी निरुक्ति एवं अन्वर्थता ये अहिंसादि व्रत महान अर्थ महापुरुषार्थ या महा प्रयोजन जो कर्म माश है उसको सिद्ध करते हैं, जो महापुरुष तीर्थकर गणधर आदिके द्वारा सेवित-आचरित हैं और जो स्वयं महान् हैं इन कारणोंसे इन व्रतोंको "महाव्रत" कहते हैं ।।१२४१॥ ___ इन पांचों महावतोंकी रक्षा करने के लिये रावि-भोजनसे निवृत्ति कही गयी है तथा उन्हींके रक्षा हेतु सिद्धांत में कही गयी आठ प्रवचन माता है तथा सभी भावनायें भो बतलायी हैं ॥१२४२।। विशेषार्थ-रात्रि भोजन करने से हिंसा होती है एषणा समितिका पालन नहीं होता क्योंकि दाता द्वारा दिये गये प्राहारका शोधन नहीं हो सकता । आठ प्रवचन मातायें भी महाप्रतोंकी रक्षा करती हैं । पांच समिति और तीन गुप्तिको प्रष्ट प्रवचन मातृका कहते हैं। प्रवचन रत्नत्रयको कहते हैं, रत्नत्रय धर्मकी जो माताके समान रक्षा करे अर्थात् जैसे माता पुत्रको पापसे बचाती है वैसे समिति गुप्ति रूप मातायें ब्रत Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] मरणकण्डिका हिंसादीनां मुनेः प्राप्तिः पंचानां सहशंकया । विपत्तिर्जायते स्वस्य रात्रिभुक्तेस्तथा स्फुटम् ॥१२४३।। मनसो दोषविश्लेषो मनोगुप्तिरितिष्यते । वाग्गुप्तिश्चाप्यलोकानिवृत्तिमौनमेव च ॥१२४४॥ कायक्रियानिवृतिर्वा देहनिर्ममतापि वा । हिंसाविन्यो निवृत्तिर्वा वपुषो मुप्तिरिष्यते ॥१२४५॥ पुरस्य खातिका यद्वक्षेत्रस्य च यथा वृतिः । तथा पापस्य संरोधे साधूनां गुप्तयो मताः ॥१२४६॥ रत्नत्रय रूप पुत्र की रक्षा करती हैं । महाव्रतोंको दृढ़ताके लिये पच्चीस भावनायें भी आगममें कही हैं। रात्रि भोजनसे मुनिके शंकाके साथ हिंसादि पांच पापोंकी प्राप्ति होती है, अर्थात मुनिके शंका होतो है कि मेरे से हिंसादि दोष हुए या नहीं और पांचों पापोंका दोष लगता है तथा रात्रि में आहारार्थ गमन करनेमें ठूट, कंटक आदिसे स्वयं को विपत्ति आती है ।।१२४३।। मनोगुप्ति और वचन गुप्तिका लक्षण--- मनके रागादि दोष नष्ट होना मनोगुप्ति कही जाती हैं और असत्यसे निवृत्त होना अथवा मौन रहना वचन गुप्ति कहलाती है ॥१२४४।। कायगुप्ति का लक्षणशरीरको क्रिया-गमन, खड़े होना, बैठना, हाथ पांव फैलाना आदिसे निवृत्त होना-दूर होना कायगुप्ति है अथवा शरीर में निर्ममत्व हो जाना या हिंसादि पापोंसे निवृत्त होना कायगुप्ति मानो जाती है ।।१२४५।। जिसप्रकार नगरको रक्षाके लिये खाई होती है और खेतकी रक्षाके लिये बाड होतो है उसप्रकार साधुओंके पापके निरोधके लिये गुप्तियां मानी हैं अर्थात् जैसे नगरके चारों ओर खाई होने से नगरमें शत्रु सेना नहीं घुसतो । खेतमें कांटे आदिको बाड़ होनेसे पशु नहीं घुसते वैसे गुप्ति के द्वारा पापका निरोध होता है ॥१२४६।। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३५३ तस्मान मनोवचः कायप्रयोगेषु समाहितः । भव त्वं सर्वदा जातस्वाध्यायध्यानसंगतिः ।।१२४७।। मार्गोद्योतोपयोगानामालंबस्य च शुद्धिभिः । गच्छतः सूत्रमार्गेण मर्यासमितियंतेः ।।१२४८।। -- --- -- - -- इसप्रकार गुप्तियोंका महत्व जानकर हे क्षपक ! तुम मनका प्रयोग तथा वचन एवं कायके प्रयोगमें सदा सावधान होकर वरतना अर्थात् मनके खोटे विचार कुवचन और शरीरकी कुचेष्टा या व्यर्थको क्रिया इन सबको रोककर स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर होवो ।।१२४७।। __ ईर्या समितिका स्वरूप-- मार्गशुद्धि, जझोतशद्धि, उपयोग शुद्धि और आलंजन शुद्धि इन चार शुद्धियों के द्वारा आगमानुसार गमन करनेवाले साधुके ईर्यासमिति होती है ।।१२४८।। विशेषार्थ-साधु गमनागमन करते समय बस स्थावर जीवोंकी रक्षा करता है । वह कभी भी व्यर्थ गमन नहीं करता, रातमें गमन नहीं करता अपने नेत्रोंकी ज्योति ठोक रहनेपर ही गमन करता है और सूर्य के प्रकाशमें गमन करता है। इसीको बताते हैं-मार्ग शुद्धि-गमनके मार्ग में अंकुर, हरितकाय, त्रस चींटी आदिको प्रचरता नहीं होना तथा वह मार्ग स्त्री, पुरुष, पशु, सवारी आदिके गमनागमनसे प्रासुक हुआ हो या धूपसे तपा हो वह मार्ग मार्गशुद्धि कहलाता है। उद्योत शुद्धि-दिनमें सूर्यके प्रकाशमें चलना अन्य चन्द्र आदिके प्रकाश में नहीं, यह उद्योत शुद्धि है। उपयोग शुद्धिचलते समय जीव है या नहीं इत्यादि रूप मार्गमें अपने उपयोगको केन्द्रित करके चलना उन्मनस्क होकर नहीं चलना, पैरके रखने उठाने में सावधानी रखना इत्यादि उपयोग शुद्धि कहलाती है । आलंबन शुद्धि-गुरु वंदना, निषद्या-वंदना, तोथं वंदना, अपूर्व शास्त्र पठन आदि हेतुसे विहार करना, व्यर्थ घूमने के लिये नहीं, यह आलंबन शुद्धि कहलाती है । चलते समय न मंद गमन हो म अति शीघ्र । आगेको चार हाथ प्रमाण भूमिको देखते हुए चलना । मार्गमें खेल नाटक, नट, स्त्री आदिका अवलोकन करने हेतु खडे नहीं होना, कूदकर नहीं चलना, मदभरी चालसे नहीं, दुष्ट पशुओंको दूरसे परिहार करके चलना इत्यादि सूत्रानुसार गमन कहलाता है । इसप्रकार ईर्यासमितिका पालन करते हुए साधुके कर्मबंध नहीं होता है । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका व्यालोकादिविनिमुक्तं सत्यासत्यमृषाद्वयम् । वदतः सूत्रमार्गेण भाषासमितिरिष्यते ॥१२४६।। देशसम्मतिनिक्षेपनामरूपतोतिता । संभावनोपमाने च व्यवहारे भाव इत्यपि ॥१२५०।। भाषा समिति-- अलीक, परुष, कर्कश आदि वचनोंसे रहित तथा सत्य और असत्यमूषा ऐसे दो प्रकारके वचनोंको बोलने वाले साधुके तथा सूत्रके अनुसार बोलने वाले साधुके भाषा समिति होती है ।।१२४६।। विशेषार्थ-वचनके चार भेद हैं सत्य, असत्य, सत्य सहित मषा और असत्यमृषा । सज्जनोंकी हितकारी वाणी सत्य कहलाती है "सतां हिता सत्या" जो सत्य नहीं वह असत्य है । जिसमें सत्य असत्य दोनों प्रकारके वचन हैं वह सत्यमृषा कहलाती है । जो सत्य भी नहीं है और असत्य भी नहीं है ऐसे अनुभय वचन असत्यमषा वचन हैं, इस पदका समास-"न सत्यं न मृषा च इति असत्य मुषा" है। इसमें एक नकार वाचक अकालोप होता है जैसेकि अनादि निधन शब्दमें अनिधनका अ लुप्त होता है । इन चार वचनोंमेंसे दो वचन साधुओंके ग्राह्य बताये हैं सत्य और असत्यमृषा । शास्त्रके अनुकूल वचन बोलना सूत्रमार्गसे बोलना कहलाता है इसप्रकार कार्यवश सत्य भाषण करना भाषा समिति है। यहांपर एक प्रश्न होता है कि सत्य महाव्रतमें सत्य बोलने का आदेश है पुन: भाषा समिति में भी सत्य वचनकी बात है तथा दशधर्मों में सत्य एक धर्म भी है, इन सब में क्या अंतर है ? इसका उत्तर देते हैं-सत्य महावत में साधु तथा असाधु दोनोंके साथ सत्य बोला जाता है अधिक भो बोल सकता है, भाषा समितिमें उन्हीं पुरुषोंके साथ बोलता है किन्तु थोड़ा बोलता है और सत्य धर्मका पालन करनेवाला साधु केवल साधुजनों के साथ ही बोलेगा। हां वह उनके साथ अधिक भी बोल सकता है। यही इन तीनोंमें अंतर है। सत्यवचन के दश भेददेश सत्य, सम्मति सत्य, निक्षेप सत्य, नाम सत्य, रूप सत्य, प्रतीति सत्य, Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३५५ मयंपानापनो संबोधनी प्रच्छनी प्रत्याख्यानी याचनी प्रज्ञापनीच्छानुलोमा सशयिकि निरक्षरा चेति नवधा सत्यमृषाभाषा मंतव्या ॥१२५१।। संभावना सत्य, उपमा सत्य, व्यवहार सत्य और भाव सत्य ये दश प्रकारके सत्य होते हैं ॥१२५०।। यहाँपर इन दस प्रकारके वचनोंका लक्षण बताते हैं विशेषार्थ-देश देशमें जो प्रसिद्ध है ऐसे वचन देश सत्य कहलाते हैं जैसे भातको कहीं पर क्रूर, कहीं ओदन, कहीं चोखा कहा जाता है वह सब अपने देशको अपेक्षा सत्य है । राजाको देव कहना उसको रानीको देवी कहना यद्यपि ये मनुष्य हैं तो भी देव देवी कहना सम्मति सत्य है क्योंकि ये नाम सर्वलोक सम्मत हैं। प्रतिमामें यह चन्द्रप्रभ है इत्यादि स्थापना निक्षेपके अनुसार वचन कहना निक्षेप सत्य है । जिनदत्त आदि नाम रखना नाम सत्य है इसमें जाति गुण आदिको अपेक्षा नहीं रहतो । एक प्रमुख रूपको देखकर उस वस्तुको वैसा कहना रूप सत्य है जैसे बगुला सफेद है । अन्यको प्रपेक्षा लेकर बोलना जैसे यह व्यक्ति लंबा है यह छोटा कदवाला है इत्यादि | जिसकी संभावना मात्र हो वह संभावना सत्य है, जैसे यह बाहुसे समुद्र पार कर सकता है इत्यादि । उपमारूप वचन उपमा सत्य है जैसे चन्द्रमुखी कन्या, सागरप्रमाण काल इत्यादि ! वर्तमानमें पदार्थ में वैमा परिणमन नहीं भूतमें था या आगामी काल में होगा, उसको वर्तमानमें कहना व्यवहार सत्य है । पदार्थका सर्वांग रूपसे अवलोकन नहीं होनेपर भी संयत या संयतासंयत जनोंके अहिंसादिन्नतोंके परिपालनार्थ यह वस्तु प्रासुक है यह नहीं है इत्यादि रूप वचन कहना भावसत्य है। इन दश प्रकारके सस्थों के अतिरिक्त वचन असत्य है । दोनों मिले हुए उभयरूप सत्यमृषा है । इनमें अप्रशस्त वचन असत्य है और मैंने सब दे दिया। मैंने सब भोग लिया इत्यादि बचन उभयरूप है । इसप्रकार साधु के लिये ग्राह्यरूप सत्य वचन के भेद कहे । अब दूसरा असत्यमषा नामके ग्राह्य वचनको गद्य द्वारा बतलाते हैं--आज्ञापनी, संबोधनी, पच्छनी, प्रत्याख्यानी, याचनी, प्रज्ञापनी, इच्छानुलोमी, सांशयिको और निरक्षका । आज्ञाकारी भाषा आज्ञापनी है जैसे स्वाध्याय करो असंयमको छोड़ो इत्यादि । आवाज देकर पुकार कर बुलाना संबोधनो भाषा है । मैं अमुक कार्य करू क्या ? अापका स्वास्थ्य कैसा है इत्यादिरूप पृच्छनी भाषा है । मैं एक मास पर्यंत धी का त्याग करता हूं इत्यादि त्याग Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] मरणकण्डिका आहारमुपधि शय्यामुद्गमोत्पादनादिभिः । विमुक्त गृह्णत: साधोरेषणा समितिर्मता ॥१२५२॥ रूप भाषा प्रत्याख्यानो भाषा है। मुझे पुस्तक देवो इत्यादि याचना वाली याचनी भाषा है । कुछ कहूंगा यादि कप प्रतापनी भाषा है ! गुरुजनोंको इच्छाके अनुकूल भाषा इच्छानुलोमा भाषा है । संशयरूप भाषा सांशयिकी भाषा है और अक्षर रचना रहित ध्वनि निरक्षरा भाषा है ।।१२५१।।। एषणा समितिआहार, पिच्छो, कमंडलु, शास्त्र रूप उपकरण और वसतिका इन सबको उद्गम उत्पादना आदि दोषोंसे रहित ग्रहण करने वाले साधुके एषणा समिति होती है ॥१२५२॥ विशेषार्थ–साधुजन दिन में एक बार करपात्रमें आहार लेते हैं आहार ग्रहण करते समय उन्हें छियालीस दोष और बत्तीस अंतराय टालने होते हैं। यहांपर इन दोषोंका संक्षिप्त वर्णन करते हैं उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, अप्रमाण, इंगाल, धूम और कारण, मुख्य रूप से आहार संबंधी ये आठ दोष माने गये है। (१) दातार के निमित्तसे जो आहारमें दोष लगते हैं, वे उद्गम दोष कहलाते हैं। (२) साधुके निमित्त से आहार में होने वाले दोष उत्पादन नामवाले हैं। (३) आहार संबंधी दोष एषणा दोष हैं। (४) संयोगसे होने वाला दोष संयोजना है। (५) प्रमाण से अधिक आहार लेना अप्रमाण दोष है। (६) लंपटतासे आहार लेना इंगाल दोष है। (७) निंदा करके आहार लेना धूम दोष है । (८) विरुद्ध कारणों से आहार लेना कारण दोष है। इनमें से उद्गमके १६, उत्पादनके १६, एषणाके १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४ ऐसे १६ + १६+१०+४-४६ दोष हो जाते हैं। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [३५७ इन सबसे अतिरिक्त एक अध:कमंदोष है जो महादोष कहलाता है। इसमें कूटना, पीसना, रसोई करना, पानो भरना और बुहारी देना ऐसे पंचसूना नामके आरंभसे षट्कायिक जीवोंकी विराधना होनेसे यह दोष गृहस्थाश्रित है। इसके करने वाले साधु उस साधु पदमें नहीं माने जाते हैं । उद्गमके १६ भेद(१) औद्देशिक-साधु पाखंडी आदिके निमित्तसे बना हुआ आहार ग्रहण करना उद्देश दोष है। (२) अध्यधि-ग्राहारार्थ साधुओंको आते देखकर पकते हुए चावल आदिमें और अधिक मिला देना। (३) पूतिदोष-प्रासुक तथा अप्रासुकको मिश्र कर देता। (४) मिश्रदोष-असंयतोंके साथ साधुको आहार देना । (५) स्थापित-अपने घर में या अन्यत्र कहीं स्थापित किया हुआ भोजन देना । (६) बलिदोष-यक्ष देवता आदिके लिए बने हुएमें से अवशिष्टको देना । (७) प्रावर्तित-कालकी वृद्धि या हानि करके आहार देना। (6) प्राविष्करण-आहारार्थ साधुके आने पर खिड़की आदि खोलना या बर्तन मांजना आदि । (६) क्रोत-उसी समय वस्तु खरीदकर लाकर देना । (१०) प्रामृष्य-ऋण लेकर आहार देना । (११) परिवर्त-शालि आदि देकर बदले में अन्य धान्य लेकर आहार बनाना । (१२) अभिघट-पंक्तिबद्ध सात घरसे अतिरिक्त अन्य स्थानसे अन्नादि लाकर मुनिको देना। (१३) उदभिन्न-भाजनके ढक्कन आदिको खोलकर अर्थात सील, महर चपडी आदि हटाकर वस्तु निकालकर देना । (१४) मालारोहण-नसनीसे चढकर वस्तु लाकर देना। (१५) आछेद्य-राजा आदिके भयसे आहार देना । (१६) अनीशार्थ-अप्रधान दातारोंसे दिया हुआ माहार लेना । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) (५) ३५८ ] मरण कण्डिका ये सोलह दोष श्रावकके आश्रित होते हैं, ज्ञात होनेपर मुनि ऐसा आहार नहीं लेते हैं। उत्पादनके १६ भेद(१) धात्रीदोष-धायके समान बालकोंको खिलाना पिलाना, भूषित करना आदि जिससे दातार प्रसन्न होकर आहार देवें, यह मुनिके लिए धात्री दोष है। दूतदोष-दूतके समान किसीका समाचार अन्य प्रामादिमें पहुंचाकर आहार लेना। (३) निमित्तदोष-स्वर, व्यजंन आदि निमित्त ज्ञानसे श्रावकोंको द्वानि लाभ बताकर खुश करके आहार लेना । (४) आजीवदोष-अपनी जाति कुल या कला योग्यता आदि बताकर दातारको अपनी तरफ आकर्षित कर आहार लेना आजोवक दोष है । वनीपकदोष-किसीने पूछा कि पशु, पक्षी, दीन, ब्राह्मण आदिको भोजन देनेसे पुण्य है या नहीं ? हां पुण्य है, ऐसा दातारके अनुकूल वचन बोलकर यदि मुनि आहार लेवें तो वनीपक दोष है। (६) चिकित्सादोष-औषधि आदि बताकर दातारको खुशकर आहार लेना। (७) क्रोधदोष-क्रोध करके आहार उत्पादन कराकर ग्रहण करना । (८) मानदोष-मान करके आहार उत्पादन कराकर लेना। (8) मायादोण-कुटिल भावसे आहार उत्पादन कराकर लेना । (१०) लोभदोष-लोभाकांक्षा दिखाकर आहार कराकर लेना। (११) पूर्वसंस्तुतिदोष-पहले दातारकी प्रशंसा करके आहार उत्पादन कराकर लेना । (१२) पश्चात् स्तुतिदोष-आहारके बाद दातारको प्रशंसा करना । (१३) विद्यादोष-दातारको विद्याका प्रलोभन देकर आहार लेना । (१४) मंत्रदोष-मंत्रका माहात्म्य बताकर आहार ग्रहण करना । श्रावकोंको शांति आदिके लिये मंत्र देना दोष नहीं है किन्तु आहारके स्वार्थसे बताकर उनके इच्छित आहार ग्रहण करना सो दोष है । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर है कर ल्यालय तार वनका सदसौर अनुशिष्टि महाधिकार [ ३५९ (१५) चूर्णदोष-सुगंधित चूर्ण आदिके उपाय बताकर आहार लेना । ये सभी दोष मुनिके आश्रित होते हैं इसलिये ये उत्पादन दोष कहलाते हैं । मुनि इन दोषोंसे अपनेको अलग रखते हैं । (१६) मूलदोष-अवशको वश करने आदिके प्रयोग बताकर आहार लेना। एषण संबंधो ११ दोष-- (१) शंकित-यह आहार अघःकर्मसे उत्पन्न हुआ है क्या ? अथवा यह भक्ष्य है या अभक्ष्य ? इत्यादि शंका करके आहार लेना। (२) अक्षित-धी तेल आदिके चिकने हाथसे या चिकने चम्मच दिसे दिया हुआ आहार लेना । (३) निक्षिप्त-सचित्त पृथ्वी, जल आदिसे संबंधित आहार लेना । (४) पिहित-प्रासुक या अप्रासुक ऐसे बड़े ढक्कन को हटा कर दिया हुआ आहार लेना। संव्यवहरण-जल्दीसे वस्त्र, पात्रादि खींच कर बिना सावधानोके आहार लेना। (६) दायक-माहारके अयोग्य मद्यपायो नपुसक पिशाचग्रस्त अथवा सूतक-पातक आदिसे सहित दातासे आहार लेना। (७) उन्मिश्र-अप्रासुक वस्तु संमिश्रित आहार लेना। अपरिणत-अग्न्यादिसे अपरिपक्व आहार पान आदि लेना । लिप्त पानी या गीले गेरू आदिसे लिप्त ऐसे हाथोंसे दिया हुआ आहार लेना। (१०) छोटित-हाथको अंजूलिसे बहुत नीचे गिराते हुये आहार लेना ये दस दोष मुनियों के भोजनसे संबंध रखते हैं। (१) संयोजनादोष-आहारादिक पदार्थोंका मिश्रण कर देना, ठंडे जल आदि में उष्णभात आदि मिला देना अन्य भी प्रकृति विरुद्ध वस्तुका मिश्रण करना, संयोजन दोष है। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] मरण कण्डिका (२) अप्रमाण दोष - उदरके दो भाग रोटो आदिसे पूर्ण करना होता है एक भाग रस, दूध, पानी आदिसे भरना होता है और एक भाग खाली रखना होता है यह आहारका प्रमाण है । इसका अतिक्रमण करके आहार लेना अप्रमाण दोष है । (३) अंगार दोष - जिल्ह्वा इन्द्रियकी लंपटतासे भोजन ग्रहण करना | (४) धूम दोष - भोज्य वस्तुकी मनमें निंदा करते हुये आहार ग्रहण करना 1 इसप्रकारके उद्गमके १६ उत्पादन के १६+ एषणा के १०+ और संयोजना आदि ४=सब मिलाकर ४६ दोष होते हैं । + इनसे अतिरिक्त और दोष हैं उन्हें बताते हैं आहार में नख, बाल, हड्डी, माँस, पीप, रक्त, चर्म, द्वीन्द्रिय श्रादि जीवोंका फलेवर माजाय तो आहारको छोड़ देते हैं तथा ऋण, कुड, बीज कंद, मूल प्रोर अछिन्न फल आजाय तो यथाशक्य परिहार या अंतराय करते हैं-आहारको छोड़ देते है । बत्तीस अन्तराय - (१) काक - आहारको जाते समय या आहार लेते समय यदि कौवा आदि वीट कर देवे, तो काक नामका अंतराय है । ( २ ) अमेध्य - अपवित्र विष्ठा प्रादिसे पर लिप्त हो जावे । (३) छर्दि - वमन हो जाये । ( ४ ) रोधन - आहारको जाते समय कोई रोक देवें । (५) रक्तस्राव - अपने शरीरसे या अन्यके शरीरसे चार अंगुल पर्यंत रुधिर बहता हुवा दीखे | अश्रुपात - दुःख से अपने या परके अश्रु गिरने लगे । ( ६ ) ( ७ ) जान्वध परामर्श -यदि मुनि जंघाके नीचे का भाग स्पर्श करले । (८) जानूपरिव्यक्तक्रम - यदि सुनि जघांके ऊपरका व्यक्तिक्रम कर लें अर्थात् जघांसे ऊंची सीढ़ी पर इतनी ऊंची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़े तो जानूव्यक्ति क्रम अंतराय है । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार ६. नाभ्योनिर्गमन-यदि नाभिसे नीचे शिर करते आहारार्थ जाना पड़े । १०. प्रत्याख्यात सेवन-जिस वस्तुका देव या गुरुके पास त्याग किया है वह खाने में आ जाय । ११. जंतुवध-कोई जीव अपने सामने किसी जीवका वध कर देवे । १२. काकादि पिंडहरण-कौवा आदि हाथसे ग्रासका अपहरण कर ले। १३, ग्रास पतन-आहार करते समय मुनिके हाथसे ग्रास प्रमाण आहार गिर जावे। १४. पाणी जंतुवध-आहार करते समय कोई मच्छर, मक्खो आदि जंतु हाथमें मर जावे । १५. मांसादि दर्शन-मांस, मद्य या मरे हुए का कलेवर देख लेनेसे अंतराय है । १६. पादांतर जीव-यदि आहार लेते समय परके नीचेसे पंचेन्द्रिय जीव चूहा आदि निकल जाय । १७. देवाद्य पसर्ग-आहार लेते समय, देव, मनुष्य या तिथंच आदि उपसर्ग कर देखें । १८. भाजनसंपात-दाताके हाथसे कोई बर्तन गिर जाय । १९. उच्चार-यदि आहारके समय चांडालादिका घरमें प्रवेश हो जावे । २०. प्रस्रवण-यदि आहारके समय मूत्र विसर्जन हो जाये। २१. अभोज्य गृहप्रवेश-यदि आहारके समय चांडालादिके घर में प्रवेश हो जाये । २२. पतन-आहार करते समय मुर्छा आदिसे गिर जाने पर । २३. उपवेशन-आहार करते समय बैठ जानेपर । २४. सदंश-कुत्ते बिल्ली आदिके काट लेने पर। २५. भूमिस्पर्श-सिद्ध भक्तिके अनंतर हायसे भूमि का स्पर्श हो जाने पर । २६. निष्ठीवन-आहार करते समय कफ, थूक आदि निकलने पर । २७. वस्तुग्रहण-आहार करते समय हाथसे कुछ वस्तु उठा लेने पर । २८. उदर कृमिनिर्गमन-आहार करते समय उदरसे कृमि आदि निकलने पर । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ } मरणकण्डिका सहसाइष्टदुरष्टाप्रत्यवेक्षणमोचिनः । भवत्यादाननिक्षेपसमिति सतिनः ॥१२५३॥ अमय रेस प्रति नका मता । समितिस्त्यजतस्त्याज्यं प्रदेशे स्थंडिले यतेः ॥१२५४॥ २६. अदत्तग्रहण-नहीं दो हुई किचित् वस्तु ग्रहण कर लेने पर । ३०. प्रहार-अपने ऊपर या किसीके ऊपर शत्रु द्वारा शस्त्रादिका प्रहार होने पर। ३१. नामदाह-ग्राम आदिमें उसी समय आग लग जानेपर । ३२. पादेन किंचिद्ग्रहण-पादसे किंचित् भी वस्तु ग्रहण कर लेनेपर । इन बत्तीस कारणोंके मिलने पर साधुजन आहारका त्याग कर देते हैं । आदान निक्षेपण समितिपोछी, शास्त्र, चौकी आदि पदार्थोंको देख सोधकर रखना और उठाना आदान निक्षेपण समिति है । पदार्थों को रखते उठाते समय नेत्रोंसे नहीं देखना और पीछीसे नहीं शोधना सहसा नामका दोष है । देखा नहीं किन्तु शोधनकर बस्तु रखा उठाया वह अदृष्ट या अनाभोग नामका दोष है । देखा तो सही किन्तु पोछीसे शोधन किये विना वस्तुको रख दिया या उठाया तो यह दुष्ट या दुष्प्रमुष्ट नामका दोष है। देखा और सोधा किन्तु उन्मनस्कतासे उक्त क्रिया को है तो यह अप्रत्यवेक्षित नामका दोष है । इन दोषोंको छोड़कर भली प्रकारसे वस्तुका ग्रहण करना साधुको आदान निक्षेपण नामको समिति है ।।१२५३।।। प्रतिष्ठापना समितिजिसप्रकार आदान निक्षेपण समितिमें देख शोधकर वस्तुका रखना होता है उसीप्रकार स्थडिल प्रदेश जन्तु रहित छिद्र रहित प्रदेश में मल मूत्रका त्याग करना साधुको प्रतिष्ठापना नामकी समिति कहलाती है ।।१२५४।। भावार्थ-साधुजन मलमूत्रका विसर्जन निर्जंतुक स्थानमें करते हैं, जो स्थान वसतिसे दूर हो, रुकावट रहित हो, हरितकायसे रहित गूढ, विशाल ऐसे पर्वतका Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६३ अनुशिष्टि महाधिकार माभिः समितिभिर्योगी लोके षड्जीवसंकुले । दोषैहिंसादिभिर्नैव लिप्यते विहरम्नपि ॥१२५५॥ समितो मिलते मायामय घरनपि । स्निग्धं कमलिनीपत्रं सलिलैरिव वाः स्थितम् ॥१२५६।। बध्यते समितो नायः कायमध्ये भ्रमन्नपि । सन्नरो बिध्यते कुत्र शरवर्षे रणांगणे ॥१२५७॥ बालश्चरति यत्रैव तत्र परिहारवित् । बध्यते फल्मषैर्बाल इतरो मुच्यते पुनः ॥१२५८।। निकटस्थ प्रदेश आदिमें अथवा ऊसर भूमि चट्टान आदि जोव रहित प्रदेशमें शरीर मलका त्याग करते हैं । कदाचित रात्रिमें बाधा होवे तो दिन में बुद्धिमान स्थबिर साधु द्वारा देखे गये स्थान में जाकर वहां अपने उलटे हायसे भूमिका स्पर्श कर देखे कि कोई आगंतक जीव तो नहीं है ! इसप्रकार देखकर शरीर मलका त्याग करना प्रतिष्ठापना या उत्सर्ग समिति कहलाती है । इन पांचों समितियोंका भलीएकारसे पालन करनेवाला योगी षटजोव निकायपृथिवोकायिक आदि पंच स्थावर और एक त्रस इनके समुदायसे व्याप्त इस लोकमें विहार करता हुआ भी समिति के कारण हिंसा आदि दोषोंसे लिप्त नहीं होता है अर्थात् उसको पापका बंध नहीं होता है ।। १२५५।। समितियोंका प्रतिपालक मुनि जीवोंके मध्य में चलता हुपा भी पापोंसे लिप्त नहीं होता, जैसे चिकना कमल पत्र जलमें स्थित रहनेपर भी जलसे लिप्त नहीं होता है ॥१२५६॥ समितिसे युक्त मुनि षट्काय जीवों के मध्य में भ्रमण करता हुआ भी पापोंसे नहीं बंधता है । जैसे जिसने भलीप्रकार बाण विद्याका अभ्यास किया है एवं कवच आदिसे युक्त है तो बाणोंको वर्षा जहां हो रही है ऐसे रणांगणमें क्या बाणोंसे विद्ध होगा ? नहीं होगा ॥१२५७।। जहां जिस लोकमें बाल-अज्ञानो गमनागमन आदि क्रियायें करता है वहींपर जीवोंके परिहारको अर्थात् रक्षाको जाननेवाला ज्ञानी मुनि उक्त क्रियाओंको करता है, Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] अनुशिष्टि महाधिकार यदा तदा ततश्चेष्टां चिकीर्ष समितो भव । पुराणं क्षिप्यते कर्म नाप्नोति समितो नधम् ॥१२५६॥ रातिमातरोऽष्टौ ताः पांति रत्नत्रयं पतेः । अनन्यो यत्नतो नित्यं तनुजस्येव जीवितम् ॥१२६०॥ मनोगुप्त्येषणादाननिक्षेपेक्षिताशिताः । महावते मता जैनैरादिमाः पंच भावनाः ॥१२६॥ हास्यलोभभयकोधप्रत्याख्यानानि योगिनः । सूत्रानुसारि वाक्यं च वित्तीये पंच भाषनाः ॥१२६२॥ किन्तु बाल अज्ञानी तो पापोंसे बंध जाता है और इससे विपरोत मुनिजन ज्ञानी पुरुष उलटे उन पापोंसे छूट जाते हैं ।।१२५८।। इसप्रकार समितियोंका माहात्म्य जानकर है क्षपक ! तुमको जब जब भी चेष्टा क्रिया करने की इच्छा होती है तब तब समितियोंमें तत्पर होवो। समिति धारी साधुके पुराना कर्म नष्ट होता है और नवीन कर्म बंवता नहीं ॥१२५६।। पांच समिति तीन गुप्तिरूप आठ प्रवचन माता यतिके रत्नत्रयको रक्षा करतो है, जैसे माता बालकके जीवन को नित्य ही यत्नपूर्वक रक्षा करती है ॥१२६०।। इसप्रकार पंचमहाव्रत पंच समिति और तोन गुप्तिरूप त्रयोदश प्रकारका चारित्रका वर्णन पूर्ण हुआ । इन तेरह प्रकारके चारित्रका अखंडरीत्या पालन करनेवाले मुनिके चारित्र आराधना होती है । अब आगे अहिंसा आदि पांच व्रतोंको प्रत्येकको पांच पांच भावनाओंका वर्णन करते हैं । सर्वप्रथम अहिंसा व्रत की भावना बतलाते हैं मनोगुप्ति एषणा समिति ईर्यासमिति, आदान निक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन इन महावतोंमें जो पहला महाव्रत अहिंसा है उसकी पांच भावना नोंद्वारा मानो गयी हैं। मनोगप्ति आदि चारोंका लक्षण तो अभी कह दिया है। स्पष्टतया सूर्यके प्रकाश में ही चार प्रकारके आहारका शोधन करके ग्रहण करना आलोकित पान भोजन कहलाता है ।।१२६१।। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३६५ प्रसम्मताग्रहः साधोः सम्मतासक्तद्धिता । दीयमानस्य योग्यस्य गृहीतिरुपकारिणः ॥१२६३।। अप्रवेशोऽननुजाते योग्य यांचाविधानतः । तृतीये भावनाः पंच प्राज्ञः प्रोक्ता महावते ।।१२६४॥ -- -- - - . - .. .. - द्वितीय व्रतकी भावमाहास्य प्रत्याख्यान, लोभ प्रत्याख्यान, भय प्रत्याख्यान और क्रोध प्रत्याख्यान ये चार तथा सूत्रके अनुसार भाषण इसतरह दूसरे सत्यव्रतको पांच भावना हैं ॥१२६२॥ तृतीय व्रतकी भावना__असंमतका अग्रहण, संमतमें अनासक्त बुद्धि दीयमान योग्य वस्तुमें अपने लिये उपकारीका ही ग्रहण, अननुज्ञातमें अप्रवेश और योग्य वस्तुको याचना ये तीसरे अचौर्य महावतकी पांच भावना प्राज्ञ पुरुषों द्वारा कही गयी हैं। इन पांच भावनाओंका विवरण इसप्रकार है-ज्ञानके उपकरण शास्त्र आदि दूसरे साधुके हैं और अपनेको उनको लेना है तो बिना संमति-इच्छाके नहीं लेना, यह असंमत अग्रहण नामकी पहली भावना है । परकी संमतिसे उन उपकरणोंको ग्रहण करनेपर भी उसमें आसक्ति नहीं करना यह संमतमें अनासक्त बुद्धि नामकी दूसरी भावना है । अन्य साधु द्वारा योग्य वस्तु को जाने पर भी उसमें मेरे लिये यह उपयोगी है या नहीं इस बातका विचार करके यदि उपकारक है अर्थात् अपनेको काममें आनेवाली है केवल उसीको ग्रहण करना अन्यको नहीं, यह दीयमान योग्य वस्तुमें उपकारीका ग्रहण नामकी तीसरी भावना है। जहां पर प्रवेश करनेकी आज्ञा नहीं हो वहांपर बिना आज्ञाके प्रवेश नहीं करना यह अननुज्ञातमें अप्रवेश नामको चौथी भावना है तथा अपने लिये उपयुक्त वस्तुको अन्य साध आदिसे याचना करना यह योग्य वस्तुकी याचना नामकी पांचवी भावना है ।।१२६३॥ ॥१२६४।। चौथे व्रतकी भावनास्त्रियों का अवलोकन, स्त्रियोंके साथ संभाषण, पूर्वभुक्त भोगकी चिरकाल तक स्मृति, स्त्रियों द्वारा संसगित स्थान पर निवास और बलिष्ठ आहारका सेवन इन पांच Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] महिला लोकनालाप बासं संसक्तवस्तूनां मरकण्डिक चिरंतनरतस्मृति । बलिष्ठाहारसेवनम् ॥१२६५।। योगिनो मुच्यमानस्य विरागीभूतचेतसः । तुरीये भावनाः पंच संपद्यते महाव्रते ।। १२६६ ॥ यतेः स्पर्शे रसे गंधे वर्णे शब्वे शुभाशुभे । रागदेषपरित्यागो भावना: पंच पंचमे ।।१२६७ ॥ प्रकारके कार्योंको छोड़ देनेवाले विरागी चित्तवाले साधुके चौथे ब्रह्मचर्यं महाव्रतकी पांच भावना संपन्न होती हैं प्रर्थात् स्त्री रूपका अवलोकन नहीं करना, स्त्रियों से वार्तालाप नहीं करना, पूर्व भुक्त भोगका स्मरण नहीं करना, स्त्रीसे संसक्तवसति में नहीं रहना और बलिष्ठ आहारका सेवन नहीं करना ये पांच भावना ब्रह्मचर्य नामके चौथे व्रतको कही गयी हैं ।। १२६५।। १२६६।। पांचवें व्रतकी भावना - शुभ और अशुभ स्पर्श, रस, गंध वर्ण और शब्द में क्रमशः राग और द्वेषका त्याग कर देना साधुके पांचवें परिग्रह त्याग महाव्रतकी पांच भावना जानना चाहिये अर्थात् पांच प्रकारके मनोज्ञ विषयों में राग तथा पांच प्रकारके अमनोज्ञ विषयोंमें द्वेष नहीं करना इसप्रकारकी पांच भावना परिग्रह त्याग व्रतकी होती हैं ।। १२६७।। विशेषार्थ - प्रत्येक महाव्रतोंको दृढ़ करनेके लिये पांच पांच भावनायें हैं । बार बार विचार करना भावना है जिसप्रकार औषधिमें आंवला आदिके रसकी भावना देने से उस औषधिका गुण धर्म या शक्ति अधिक अधिक बढ़ती है उसमें रोग नाशक शक्ति शतगुणी या सहस्रगुणी बढ़ती है उसीप्रकार इन भावनाओंके द्वारा महाव्रतोंकी शक्ति बढ़ती है उनसे अधिक अधिक कर्मरूपी रोग नष्ट होते हैं अर्थात् कर्म निर्जरा होती है । इन भावनाओं का वर्णन अनेक आचार्योंने किया है। उन भावनाओंके कथन में कुछ विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं । जैसे—तत्त्वार्थ सूत्र में मनोगुप्ति, वचन मुप्ति, ईर्यासमिति, आदान निक्षेपण समिति और आलोकित पान भोजन ये अहिंसा व्रतकी पांच भावना है। इस ग्रंथ में वचनगुप्ति के स्थानपर एषणा समिति ली है । सत्य महाव्रत Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार की भावना उभय ग्रंथमें समान है। तीसरे अचौर्यव्रतकी भावना तत्वार्थसूत्र में शून्यागार में निवास, विमोचितवास, पर उपरोध अकरण, भैक्ष्यशुद्धि और साधर्मीसे अविसंवाद ये पांच भावनायें बतलायी हैं और इस मरणकंडिका ग्रंथमें असंमतका अग्रहण, संमतबस्तुमें अनासक्ति, दीयमान वस्तु में अपने लिये उपयुक्तका ग्रहण, बिना आज्ञाके वसति आदि प्रवेश नहीं करना और योग्य वस्तुकी याचना करना ये पांच भावना बतलायी है। इन दोनोंमें अंतर स्पष्टतया दिखायी देता है । तत्वार्थसूत्रकी भावना इसप्रकार की है कि जिसकारणसे चोरीके भाव होना संभव है उस उस कारणका निषेध हो । इस ग्रंथ में किसी भी वस्तुके प्रति अपनत्व-ममत्व आसक्ति न हो इसप्रकारको भावनायें बतलायी हैं सो ठोक हो है क्योंकि ममत्व आदिके कारण चोरी करने में प्रवृत्ति होती है। चौथे ब्रह्मचर्य व्रतको भावनामें थोड़ा अंतर है स्त्रोकथा श्रवण, स्त्रीरूप अवलोकन, पूर्वरतानुस्मरण, वृष्येष्ट रस सेवन और स्वशरीर संस्कार इन पांचोंका त्याग करना पांच भावना है यह तत्त्वार्थ सूत्र निर्दिष्ट है । इस ग्रन्थ में स्त्रोकथा श्रवणके स्थान पर स्त्रीके साथ संभाषण लिया है और वृष्येष्ट रस सेवनने स्थानपर स्थी संगमित जशति दी है। पांचवें व्रतकी भावना उभयत्र समान है। इसीप्रकार मूलाचार पाक्षिक प्रतिक्रमण आदिमें इन भावनाओंका वर्णन विभिन्न प्रकारसे उपलब्ध होता है किन्तु अभिप्राय सर्वत्र तद्तद् व्रतोंको स्थिरता जिससे हो बही लिया है । व्रत स्थिरताके विभिन्न अनेक कारण संभव हैं अतः भावनाओंके कथनमें विभिन्नता है। विशेष बात यह है कि तत्वार्थ सूत्रमें सातवें अध्यायमें श्रावकोके बारह व्रतों का वर्णन है । सर्वप्रथम सामान्य रूप व्रतका लक्षण कर पुनः उस व्रतके अणुव्रत और महाव्रत ऐसे दो भेद किये हैं, तदनंतर भावनाओंका वर्णन है। इससे कोई कोई व्यक्ति प्रश्न करते हैं कि ये भावनायें अणुवतकी हैं या महावतको ? यदि महावतको है तो अणुवतका वर्णन करनेवाले इस अध्यायमें उनका कथन क्यों ? यदि अगुवतकी मानते हैं तो मनोगुप्ति आदिरूप भावनायें गृहस्थके कैसे संभव है ? उत्तर यह है कि ये भावनायें महावतको हैं, अणवतकी नहीं। मूलाचार, भगवती आराधना यह मरणकडिका प्रादि ग्रन्थों में भावनाओंका वर्णन उस स्थान पर आता है जहां पांचों महावतोंका वर्णन पूर्ण हो चुकता है। इससे निश्चित होता है कि ये भावनायें महावतोंकी ही हैं । फिर प्रश्न शेष रहता है कि तत्त्वार्थसूत्र में अणुव्रतोंके वर्णनमें भावनाओं को Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ | मरणकण्डिका भावना भावयन्नेताः संयतो व्रतपीडनम् । विदधाति न सुप्तोऽपि जागरूकः कथं पुनः ।।१२६८ ।। त्वमतः समितो: पंच भावयस्वेकमानसः । महाव्रतान्यखंडानि निश्ािणि भवंति ते ।। १२६६।। छंद - रथोद्धता भावनाः समितिगुप्तयो यतेर्वर्धयन्ति फलदं महाव्रतम् । शर्मकारि रजसां निरासकाश्चारुसस्यमिव कालवृष्टयः ॥ १२७० ।। इति महाव्रत वृष्टिः । क्यों रखा ? बात यह है कि सूत्र में जहां मुनियोंके समिति आदिका वर्णन है वहां ( नौवें अध्याय में) महावतका उल्लेख नहीं है, सूत्रकारने तो सामान्य रूपसे वृतका लक्षण कर उसके अणुवृत और महाव्रत ऐसे दो भेद बताये फिर भावनाओंके अनंतर सामान्य रूपसे हो अहिंसा आदिका लक्षण किया है जो कि अणुव्रत और महावृत दोनों में घटित हो । सूत्र रचना संक्षिप्त होती है । अत: व्रतका लक्षण भावना और अहिंसादिका लक्षण कहकर आगे गुण वृतादिका वर्णन किया है । इसलिये पच्चीस भावनायें महाव्रतोंकी ही हैं ऐसा समझना चाहिये । एक और बात है श्रावकाचारोंमें भावनाओंका aa नहीं मिलेगा किन्तु मुनिके आचार ग्रन्थोंमें भावनाओंका वर्णन मिलता है । इससे भी भावनायें महावतों की ही हैं ऐसा ही सिद्ध होता है । भावनाओंका माहात्म्य इन पच्चीस भावनाओंको भानेवाला मुनि सुप्त अवस्थामें भी वृतोंका घात नहीं करता है, जाग्रत अवस्था में तो कैसे कर सकता है ? अर्थात् भावनाओं को भानेवाले मुनिके स्वप्न में भी दूतों में दोष नहीं लगते हैं ।११२६८।। आचार्य क्षपकको उपदेश दे रहे हैं कि हे क्षपक ! उपर्युक्त कथन के अनुसार भावनाओंका महत्व जानकर तुम एकाग्र होकर भावनाओंको भावो । पांच समितियां पालो | इससे तुम्हारे महावृत अखंड और दोष रहित होवेंगे । पच्चीस भावनायें, पांच समितियां और तीन गुप्तियां ये मुनिके मुक्तिरूप फलको देनेवाले महाव्रतको वृद्धिंगत करते हैं । जैसे धूल मिट्टी आदिका निरसन करनेवाली समयानुसार होनेवाली वर्षा सुंदर एवं सुखदायक धान्योंकी वृद्धि करती है ।। १२६६ ।। १२७० ।। भावनाओं का वर्णन समाप्त | Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३६६ विशेषार्थ--अब यहांपर साधुओंकी (तथा आर्यिकाओंकी) दिनचर्याका वर्णन करते हैं सूर्योदय होनेपर देव वंदना करके दो घड़ो (४८ मिनट) बीत जानेपर श्रुतभक्ति और आचार्य भक्तिपूर्वक स्वाध्याय ग्रहण करके सिद्धांत आदि ग्रंथोंकी वाचना पृच्छना, अनुप्रेक्षा आदि करके मध्याह्न कालसे दो घड़ी पहले श्रुतभक्ति पूर्वक स्वाध्याय समाप्त करे फिर वसतिसे दूर जाकर मलका त्याग करे। फिर शरीरकी शुद्धि करे, मध्याह्न देववंदना-सामायिक करनेके बाद बालक आदि भोजन करके निकलते हुए देखकर आहारको वेलाको जानकर आहारके लिये गमन करे, रास्ते में न धीरे चले न शीघ्रतासे चले । धनी निर्धनका विचार न करके केवल कुलवान् घरको देखकर जो श्रावक पड़गाहन करे वहां रुके, नवधा भक्तिपूर्वक दिये हुए भोजनको सिद्धभक्ति करके ग्रहण करे | नीचे भोज्य वस्तुको नहीं गिराते हुए पाणिपात्रको नाभिके प्रदेशके कुछ ऊपर हाथोंको अंजुलि बांधकर मुख से सुर सुर आदि शब्दको नहीं करते हुए आहार लेवे, उस समय स्त्री आदि दाताके अवयवोंका निरीक्षण नहीं करना चाहिये । छियालीस दोषोंको टालकर और बत्तोस अंतरायको टालकर आहार लेवे। अंतराय आजाय तो अपूर्ण उदर ही प्रासुक जलसे हाथ आदिकी शुद्धि कर सिद्धभक्ति पूर्वक दूसरे दिन तकके लिये आहारका त्याग करे | अंतराय नहीं आवे तो पूर्णोदर भोजन कर उक्त विधि करे । कमंडलूको उष्ण जलसे भरकर जिनालय आदि स्थान में जाकर पुनः प्रत्याख्यान करे । तदनंतर अपराह्निक स्वाध्याय करता रहे। दिन अस्त होनेके दो घड़ी पूर्व स्वाध्याय निष्ठापन करे देवासिक प्रतिक्रमण करे | पुनः देववंदना-सामायिक करे। सामायिकके अनंतर पूर्व रात्रिक स्वाध्याय प्रारंभकर मध्यरात्रिके दो घड़ी पूर्व स्वाध्याय समाप्त करना चाहिये । दो मुहूर्त अल्प निद्रा लेवे । पुन: अपर रात्रिक स्वाध्याय सूर्योदयके दो घड़ी पूर्वतक करना, किन्तु इस अपर रात्रिमें सिद्धांत ग्रंथकी याचना नहीं करना चाहिये । फिर रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिये । इसप्रकार दिन और रातके चौबीस घंटेको साधुकी यह दिनचर्या है । विशेष ज्ञातव्य यह है कि वर्तमान में गृहस्थोंको भोजनबेला प्रायः दस बजे से ग्यारह-बारह बजे तक है तदनुसार मध्याह्नके सामायिक पूर्व ही साधुजन आहारको निकलते हैं और फिर सामायिक करते हैं इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि साधुका आहार योग्यकाल सूर्योदय की तीन बड़ी (७२ मिनट) बीत जानेपर प्रारंभ होता है पौर सूर्यास्तके तीन घड़ी पहले तक शेष रहता है । Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० मरणकण्डिका महानतानि जायते निःशल्यस्य तपस्विनः । निदानवंचना मिथ्यादर्शनैर्हन्यते व्रतम् ॥१२७१॥ ___ साधुओंके दिनरातमें होनेवाली सामायिक, प्रतिक्रमण आदि क्रियाओंको करते समय अट्ठावीस कायोत्सर्ग होते हैं---प्रातःकालोन आदि तीन संध्याओंके तीन सामायिक क्रियाओंमें चैत्यभक्ति पंचगुरु भक्ति संबंधी दो-दो कायोत्सर्ग ऐसे छह हुए पुनः देवासिक और रात्रिक प्रतिक्रमणके चार-चार ऐसे आठ कायोत्सर्ग हैं। पूर्वाह्न, अपराह्न, पूर्व रात्रिक और पश्चिम रात्रिक ऐसे चार बेलाओंके चार स्वाध्यायोंमें प्रत्येकके तोन-तीन कायोत्सर्ग होते हैं ऐसे बारह हुए । रात्रियोग-प्रतिष्ठापन निष्ठापन क्रियामें योगभक्तिके दो कायोत्सर्ग इसतरह कुल अट्टावीस कायोत्सर्ग अवश्य करणीय हैं । यह तो प्रतिदिनमें होनेवाले कायोत्सर्गको बात है। अष्टमी चतुर्दशो, नंदीश्वर आदि पर्वो में होनेवाली नमित्तिक क्रियायें तथा इनमें होने वाली भक्तियां एवं इन सब क्रियाओंकी प्रयोग विधियां क्रिया कलाप, यतिक्रिया मंजरो, श्रमणचर्या आदि शास्त्रोंसे ज्ञात करना चाहिये । व्रतोंके परिणामोंका घात करनेवाले शल्य हैं अब उन परित्याज्य रूप शल्योंका वर्णन करते हैं-- जो तपस्वी निःशल्य है उसके महावत होते हैं क्योंकि निदान, माया और मिथ्यात्व इन तोन शल्यों द्वारा व्रतोंका घात होता है ।।१२७१।। भावार्थ-शल्य कांटेको कहते हैं जैसे कांटा परमें लगकर बाधा करता है वैसे जो व्रतोंको बाधित करे उसको यहां शल्य कहा है। उसके तीन भेद हैं तत्वोंके अश्रद्धा रूप परिणाम मिथ्यात्व शल्य है । माया छल कपटको कहते हैं । अमुक धार्मिक अनुष्ठानसे मुझे यह भोग प्राप्त हो इत्यादि परिणाम निदान शल्य है । यह तीन शल्योंका सामान्य लक्षण है। मिथ्यात्व सम्यक्त्वका घातक है और सम्यक्त्वके बिना सम्यक्चारित्र, वत नहीं होता अतः मिथ्यात्व वतका घातक सिद्ध होता है । साधुका रत्नत्रय धर्म के अतिरिक्त भोगादिमें मन जाना निदान है यह भी सम्यक्त्वमें अतीचार करता हुआ बतका घात करेगा साधु संबंधी माया तो अपने अतीचारोंको छिपाना आदि रूप होगी । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्ट सहा [ ३७१ निषेधु सिद्धिलाभस्य विभवस्येक कल्मषम् । निवानं त्रिविधं शस्तमशस्तं भोगकारणम् ॥१२७२॥ नत्वं सत्वं बलं वीर्य संहति पावनं कुलं । वृत्ताय याचमानस्य निदानं शस्तमुच्यते ॥१२७३।। अहवगणधराचार्य सुभगादेय तादिकं । प्रोक्तं प्रार्थयते शस्तं मानेन भववर्धकम् ॥१२७४॥ प्रशस्तं याचते को मरणेऽन्यवधं कुधीः । अयाचतोग्रसेनस्य वसिष्ठो हननं यथा ॥१२७५।। निदान शल्यमुक्ति लाभ जिससे होता है ऐसे रत्नत्रयका जो निषेधक है, उस निदान शल्यके तीन भेद हैं-प्रशस्त निदान, अप्रशस्त निदान और भोगकृत निदान ॥१२७२।। प्रशस्त निदानपूर्णचारित्र पालनके लिये, पुरुषत्व-उत्साह, सत्व-धैर्य, शरीरको दृढ़ता रूप बल, योतिराय कर्मका क्षयोपशमरूप वीर्य, उत्तम संहनन, उच्च कुल ये सब मुझे मिल जाय, इसप्रकार याचना करनेवालेके प्रशस्त निदान होता है ।।१२७३।। अप्रशस्त निदानअभिमानके वश होकर मैं तीर्थंकर बन जाऊँ, गणधर आचार्य प्रादिका पद मुझे प्राप्त हो, मैं सुदर बनूं। मेरे वचन एवं आज्ञा सभी मानने लग जाँघ इत्यादिरूप प्रार्थना करना भवको बढ़ानेवाला अप्रशस्त निदान कहलाता है ।।१२७४।। तया मरणके समय क्रोधित होकर खोटो बुद्धि वाला अन्य व्यक्तिका वध हो जाय इसप्रकार इच्छा-याचना करता है वह भी अप्रशस्त निदान है । जैसे वशिष्ठ मुनिने उग्रसेन राजाको मारने का निदान किया था ।।१२७५।। वशिष्ठ मुनिकी कथाबशिष्ठ नामका जटाधारी तपस्वो था। उसे एक बार समीचीन जैनधर्मका उपदेश मिला और कालादि लब्धिको प्राप्त होकर वह जंन दिगंबर मुनि बन गया । अब उन्होंने कठोर तपश्चरण करना प्रारम्भ किया । किसी दिन मथुरा नगरीके निकट Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] मरणकण्डिका छंद-रथोद्धतास्वर्गभोगिनरनाथकामिनीः श्रेष्ठिचक्रिवलसार्थवाहिनां । भोगभूतिमधियो निदानकं कांक्षतो भवतिभोगकारकम् ॥१२७६॥ वनमें आकर मासोपवास एवं प्रतिमा योग धारण किया। मथुराके राजा उग्रसेनको मुनिकी तपस्या ज्ञात हुई तब वह बड़ी भक्तिसे उनके दर्शन करने के लिये बन में गया । राजाने नगर में कहलाया कि बशिष्ठ मुनिके मासोपवासका पारणा मेरे यहां हो होगा। पारणा का दिन आया, महाराज नगर में प्रविष्ठ हुए अन्यत्र पड़गाहन नहीं होनेसे वे राज. महलमें आये किन्तु उस दिन राजा किसी राज्य संबंधी महत्वपूर्ण कार्य में उलझा हुआ था, अतः आहारकी बातको भूल गया । मुनिराज बिना आहार किये वनमें चले गये और पुनः एक मासका उपवास धारण किया । पुनः आहारके लिये आये किन्तु राजा उन्हें आहार नहीं दे पाया । ऐसा तीन बार हुआ । अबकी बार मुनि अत्यंत क्षीण शक्ति हो चुके थे, मार्गमें लोटते हुए चक्कर आनेसे गिर पड़े। तब नागरिक लोग दुःखी होकर कहने लगे कि अहो ! यह हमारा राजा बढ़ा निर्दयी हो गया है । देखो! हमको आहार नहीं देने देता और आप भी नहीं देता इत्यादि । इस वार्ताको वशिष्ठ मुनिने सुना, उनको राजापर अत्यधिक क्रोध आया और क्रोधमें आकर निदान कर डाला कि मैं इसी उग्रसेनका पुत्र होऊँ और राजाको कष्ट देऊ । इसी भाव में उनको मृत्यु हुई राजाके यहां जन्म हुआ । बालकका नाम कंस रखा । इसने आगे जाकर उग्रसेनको बहुत यातना दी । इसप्रकार अप्रशस्त निदानसे वशिष्ठ मुनिकी तपस्या दूषित हुई । कथा समाप्त । भोगकृत निदानमेरेको स्वर्ग मिल जाय मैं धरणेन्द्र बन जाऊँ, राजा बन, मुझे इष्ट स्त्री मिल जाय, नगर सेठ, चक्री, सेनापति, व्यापारियों में प्रमुख ऐसे पद मुझे मिलने चाहिये, भोग एवं वैभव प्राप्त होने इसप्रकार मूर्ख व्यक्ति कांक्षा करता है उसकी इसतरह की यांच्छा भोगकृत निदान कहलाता है ।।१२७६।। ___ जो पुरुष निदान करता है वह संयम तप पराक्रमका धारी भी हो तथा भली प्रकारसे गुप्तियोंका पालन करने वाला हो तो भी उस निदान दोषसे सुदुस्तर ऐसे भव Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३७३ छंद रथोद्धताबद्धसंयमतपः पराक्रमः शुद्धगुप्तिकरणोऽपि ना ततः । याति जन्मजलधिसुस्तरं कापरस्य गणना कुचेतसः ॥१२७७॥ निदानं योऽल्पसौख्याय विधत्ते सौख्यनिस्पृहः । काकिण्या स मणि वसे शंके कल्याणकारणम् ॥१२७८।। स सूत्राय मणि भिन्ते नावं लोहाय भस्मने । कुधीर्वहति गोशीर्ष निदानं विदधाति यः ॥१२७६॥ तापाथं सपा कुण्टो व रम्ने रसायनम् । श्रामण्यं नाश्यते तेन भोगार्थ सिद्धिसाधकम् ॥१२८०॥ सागरको प्राप्त होता है अर्थात् संसारमें परिभ्रमण करता है, तो फिर अन्य सामान्य व्यक्ति की तो क्या मिनली है ? वह तो संसार सागर में डूबेगा ही ।।१२७७।। जो व्यक्ति उत्कृष्ट सुखका-मुक्ति सुख का अनादर करके अल्प तुच्छ ऐसे संसार सुखके लिये निदान करता है, वह काकिनो-कौडोके लिये सुखकारक मणिको दे डालता है । मणि रत्न को तो शंका करता है कि यह उपयोगी है या नहीं और इसीलिये अपने पास की उस मणिको किसीके लिये देकर उसके बदले में कौडो खरीदता है ।।१२७८।। जो पुरुष निदान करता है वह कुबुद्धि धागेके लिये रत्नहार तोड़ता है, लोहे के लिये नौकाको तोड़ डालता है, राख के लिये गोशीर्ष चन्दन जलाता है, ऐसा मानना चाहिये । अर्थात् जैसे एक डोरेके लिये रत्नहार तोड़ना मूर्खता है, लोहेके लिये नौका तोड़ना मुर्खता है और राखके लिये गोशोर्ष चंदन को जलाना मुर्खता है, इसमें हानि बहुत अधिक है और लाभ कुछ भी नहीं उसोप्रकार व्रत पालन आदिको करके जो भोग की आकांक्षा करता है और उसमे कदाचित् तुच्छ सांसारिक किंचित् भोग प्राप्त करता है तो बड़ो भारी मूर्खता है, व्रत पालन आदि तो मुक्ति सुखका कारण है उसको निदान करने वाला नष्ट कर डालता है ।।१२७६।। । जैसे कोई कुष्ठो व्यक्ति रसायन स्वरूप इक्षुको पाकर उसे तपने के लिये जला देता है तो अज्ञानी है, अपनी बड़ी भारो हानि करता है वैसे ही मुक्तिदायक जो श्रामण्य था उसे भोगके लिये कोई नष्ट कर डालता है वह उसकी बड़ी भारी हानि है ।।१२८०।। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] मरकण्डिका नरत्वाविनिवानं च न कांक्षति मुमुक्षवः । नरत्वादिमयं तस्मात्संसारस्तन्मयो यतः ॥ १२८१|| समाधिमरणं बोधिषु : खकर्मक्षयस्ततः प्रार्थनीयो महाप्राज्ञैः परं नातः कदाचन ।। १२६२॥ I नरत्वसंयमप्राप्ती परत्र भवतः स्वयम् । निदानमंतरेणापि हाधाराधनांगिनः ।। १२८३ ॥ सहणनीरनिर्घेटमानदोषदिचितनम् । कर्तव्यं मानभंगा संसारान्तंयियासता ।। १२८४ ॥ मुमुक्षू जन तो पुरुषत्व आदिकी प्राप्तिकी इच्छा रूप निदान भी नहीं करते क्योंकि पुरुषत्व आदि भी भव है और भत्र संसार रूप है- बार-बार पर्यायें ग्रहण करना ही तो संसार है ।। १२८१ ॥ इसलिये महाप्राज्ञ पुरुषों द्वारा समाधिमरण, बोधि- रत्नत्रय, दुःखक्षय और कर्मक्षयकी प्रार्थना करनी चाहिये इनसे अन्य वस्तुकी कभी भी प्रार्थना नहीं करना चाहिये ।। १२६२ ।। भावार्थ - बुद्धिमान सम्यग्दृष्टि यदि कुछ प्रार्थना या वच्छा करते हैं तो यह करते हैं कि मेरे शारीरिक, मानसिक, आगंतुक दुःखोंका नाश हो, कर्मोंका नाश हो, रत्नत्रय स्वरूप बोधिका लाभ होवे तथा समाधिमरणकी प्राप्ति हो । साधुओंके द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले भक्ति पाठ में तथा श्रावकोंके द्वारा किये जानेवाले पूजापाठ में आता है किम दुक्खक्खदो, कम्मक्खवो, बोद्धिलाहो, सुगइ गमणं समाहिमरणं जिणगुरणसंपत्ति होउ मज्झं | सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाओंको करनेवाले व्यक्तिके निदान के बिना भी परभव में अपने आप मनुष्यभव तथा संयम की प्राप्ति होती है ।। १२८३ ॥ संसारसे वैराग्य और शरीरसे वैराग्य कैसे हो इसका चितवन तथा मान पायसे होनेवाले दोषोंका चितवन मानको नष्ट करनेके लिये सदा करना चाहिये जो कि संसारके अंतको प्राप्त करना चाहते हैं अर्थात् मुक्तिको चाहते हैं ।।१२८४ ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३७५ अनुगिष्टि महाधिकार उच्वं भवे कुलं नीचो नीचमुच्चः प्रपद्यते । कुलानि संति जीवानां पांथानामिव विश्रमः ।।१२८५॥ हानिवृद्धि प्रजायेते नोचोच्चासु न योनिषु । सर्वत्रोस्पद्यमानस्य जीवस्य सममानता ॥१२८६॥ लाभं लाभमनंताश्च नीचामुच्चां प्रपद्यते । तथाप्युच्चा अपि प्राप्ता अनंता योनयो भवे ॥१२८७।। भाव यह है कि मान कषायकी पुष्टि या अभिमानके वश होकर लोग अप्रशस्त निदान करते हैं अत: यहांपर कहा है कि हे साधो ! तुम उस मानका नाश करो और उसके लिये संसारके स्वरूपका शारीने स्वरूप विचार करो कि यह संसार अपार दुःखोंका सागर है नरकादि गतिमें महान कष्ट मैंने पाये हैं, शरीर तो साक्षात् अत्यंत अशुचि रूप है अतः किसी देवादि पर्यायकी या सुदर शरीरको इच्छा करना अत्यंत कष्टप्रद है । इसप्रकार विचार करनेसे भोगोंका निदान नहीं होता ।। ___ कुलके मानका निषेधजो व्यक्ति आज उच्चकूल में उत्पन्न हुआ है वह नीच कुल में उत्पन्न हो जाता है और जो आज नीच कुलीन है पुनः आगे उच्च कुलको प्राप्त कर लेता है जीवोंके कुल तो पथिक जनोंके मार्ग में होनेवाले विश्राम स्थल सदृश हुआ करते हैं अर्थात जैसे पथिक मार्ग में चलते हुए वृक्षके नीचे विश्राम करता है फिर उस वृक्षको छोड़कर दूसरे और उसको भी छोड़कर तीसरे वृक्षके तले विश्राम करता हुआ आगे-आगे गमन कर जाता है, वैसे यह उच्चकुल में जन्म लेकर वहांकी आयु पूर्णकर नोचकूल में जन्म लेता है । अत: मैं उच्चकुलीन हूँ इस प्रकार कुलाभिमान करना व्यर्थ है ॥१२८५। नीच और उच्च कुलों में जन्म लेनेसे जीवके हानि और वृद्धि नहीं हुआ करती, वह तो सर्वकुलों में समान प्रमाण वाला असंख्यात प्रदेशवाला ही रहता है ।।१२८६।। यह संसारी प्राणी अनंत-अनंत नीच कुलोंको और अनंत अनंत उच्चकुलोंको प्राप्त करता है तथा पुन; अनंत उच्चकुलोंको पाकर नीच कुलोंको भो पाता रहता है, संसारमें इसप्रकार उच्चगोत्र कम और नीच गोत्र कर्म के उदयानुसार कुलों का परिवर्तन होता ही रहता है, इसका क्या अभिमान ।।१२८७।। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकपिडका उच्चत्वे बहुशः कोऽत्र लब्ध्वा त्यक्तऽस्ति विस्मयः । नीचत्वे वास्ति किं दुःखं लन्ध्या त्यक्त सहस्रशः ।।१२८८॥ उच्चत्वे जायते प्रोतिः संकल्पवशतोऽगिनः । नीचस्वेऽपि महावुःखं कषायवशतिनः ॥१२८६।। उपचत्वमिव नोचत्वं चेतसा यो निरीक्षते । उच्चत्य इव नीचत्वे किमसो न सुखायते ।।१२६०॥ यो नोचत्वमिवोच्चत्वं विकल्पपति मानसे । तस्योपचस्वे न कि दुःखं नीचत्वमिव जायते ॥१२६१॥ यदि हमने बहुत-बहुत बार उच्चकुलोंको पाकर छोड़ा है तो उसमें क्या आश्चर्य या बड़प्पन हुआ ? और हजारों बार अनेकों बार नीच कूलोंको पाकर यदि उन्हें छोड़ ही दिया है तो उसमें क्या दुःख है ? कुछ भी नहीं ।।१२८८।। __ केवल संसारी प्राणियों को संकल्पवश या अभिमान वश ही उच्चगोत्र मिलने पर प्रीति होती है । कषायके कारण नीच गोत्र मिलनेपर महादुःख होता है। भाव यह हुआ कि उच्च कुल मिला तो उससे सुख नहीं हुआ किन्तु मैं कुलोन हूं इसतरहके मनके विचारसे ही संकल्पवश खूश होता है और नीचकुल कोई दुःख नहीं देता किन्तु कषायके कारण दुःख होता है ।।१२८६।। जो उच्चत्वके समान नोचत्वको मनसे देखता है उसको उच्चत्वके समान नीचत्वमें भी क्या सुख नहीं होता ? अर्थात् नीचत्व उच्चत्वको अच्छा या बुरा मानना उस व्यक्ति के संकल्प के आधीन है, बहुत से व्यक्ति नोच कुल में आनंद मानते रहते हैं और बहुतसे उसके प्राप्तिमें दुःखानुभव करते हैं तथा अन्य कोई उच्चकल मिलने में सूखानुभव करते हैं तो कोई दुःखानुभव करते हैं, यह उस व्यक्तिके संकल्पके कषाय भावके अनुसार होता है । उच्च कुल को प्राप्तकर जिनदीक्षा लेकर उसकुलकी प्राप्तिका लाभ उठावे तो भला है अन्यथा क्या लाभ ? ||१२९०।। जो मन में नीचत्वके समान उच्चत्वको मानता है उसको उच्चत्य मिलने पर भी नीचत्वके समान क्या दुःख नहीं होता ? ||१२६१।। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७७ अनुशिष्टि महाधिकार ततो नोच्चत्वनीचत्वे कारणं प्रीतिदुःखयोः । परमुम्चत्वनीचत्वसंकल्पः कारणं तयोः ।।१२६२।। नोचगोत्रं नरं मानो विधत्ते बहजन्मस् । प्राप्ता लक्ष्मीमतिर्नीचा योनिर्मानेन भूरिशः ॥१२६३।। - . --.- .-. . . अतः यह निश्चित होता है कि उच्चत्व और नीचत्व सुख और दुःखका कारण नहीं है किन्तु उच्चत्व और नीचत्वका सकरूप हो उन दोनोंका कारण है ।। १२६२।। यह मानकषाय जोवको बहुतसी योनियोंमें नीचगोत्री बनाता है । देखो ! लक्ष्मीमती मानके द्वारा बहुत बार नोच योनिको प्राप्त हुई थी ।।१२६३॥ लक्ष्मीमतीकी कथा-- लक्ष्मी नामके ग्राममें सोमशर्मा ब्राह्मणके लक्ष्मीमती नामको अत्यंत रूपवती पत्नी थी। उसको अपने रूपका बड़ा भारी गर्व था । वह सदा ही अपने रूपको संवारने में लगी रहती। एक दिन पक्षोपवासी समाधिगुप्त नामके मुनिराज आहार के लिये आये । आंगनमें आते हुए देखकर लक्ष्मीमतीने उनकी बहुत निंदा की, गालियां दी और घरका दरवाजा बंद कर दिया। उसे उस समय अपना शृंगार करना या उसमें मुनिको आहार देने से व्यवधान पड़ता इस कारणसे तथा मुनिके स्नान रहित शरीरसे ग्लानि होनेसे लक्ष्मीमतीने अपने रूपके गर्वमें आकर मुनि निदाका महान पापकर डाला। मुनि शांतभावसे अन्यत्र चले गये । किन्तु मुनि निंदाके पापसे लक्ष्मीमतीको सातवें दिन गलित कुष्ठ रोग होगया । उसे लोगोंने दुर्गंधताके कारण गांव के बाहर निकाल दिया । वहां वेदना सहन नहीं होनेसे आगमें जलकर मरी और गधी हुई । पुनः क्रमशः सूमरी, दो बार कुत्ती हई । फिर धीवरकी दुगंधा पुत्री हुई । इस पर्याय में उन्हीं समाधिगुप्त मुनिराज द्वारा धर्म श्रवणकर शांतभावको प्राप्त हुई। इसप्रकार मानकषायके दोषसे लक्ष्मीमतोको अनेक भवोंमें महान कष्ट सहना पड़ा। नीचगोत्री तिर्यचनी पर्यायको बार-बार प्राप्त करना पड़ा। लक्ष्मीमतीको कथा समाप्त । इसप्रकार अतीत भवोंमें अनंतबार नीच तथा उच्च कुल प्राप्त कर चुके हैं, अनंतभवोंमें उस उस कुल द्वारा पूजा और अनादर आदि भी मिल चुके हैं । जीवकी तो कहीं पर हानि या वृद्धि नहीं हुई है वह तो असंख्यात प्रदेशी ही रहा है ऐसा जानकर Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] मरणकण्डिका सुभगत्वमसौभाग्यं स्वरूपत्वं विरूपता । आज्ञानाज्ञादरी निया चित्ते कृत्या न धीमता ।।१२६४॥ एतेषां चितनान्मानो घर्धते सर्वदाऽग्निवत । ताएपद्धः सद्यो होयते तत्वचितने ।।१२६५।। उच्चत्वादिनिदानेऽपि संसारं लभते यदि । तवा वनिदानेगी भव भागीति का कथा ॥१२९६।। निदानेऽपि कुलादीनि जायंते नात्र जन्मनि । संयम विवधानस्य मानिनो यातना परा ॥१२६७।। __ -- - -. बुद्धिमान पुरुष द्वारा सौभाग्य और दुर्भाग्य, सुदरता और विरूपता एवं आज्ञा और अनाज्ञा होने पर भी न आदरभाव किया जाना चाहिये और न निंदाभाव किया जाना चाहिये ।।१२६४।। इन उच्चकुल सौभाग्य आदिके विचारसे अभिमान अग्निके समान सदा ही बढ़ता है जो कि अभिमान संसारकी वृद्धि करनेवाला है। किन्तु तत्त्व चिंतन करनेपर अर्थात् उच्च नीच आदिके परिवर्तन शोलता आदि विषयोंपर वास्तविक बोधके साथ तत्त्वचितन किया जानेपर अभिमान तत्काल नष्ट हो जाता है और उससे कषाय शांत होने के कारण संसारका किनारा निकट आजाता है ।।१२६५।। उच्चत्व आदि मुझे प्राप्त होवे ऐसा निदान करनेपर भी यदि संसारकी वृद्धि होती है संसार भ्रमण हो प्राप्त होता है तो फिर जो व्यक्ति किसीको मारने का निदान करता है उसका क्या कहना ? वह संसारका भागी बनेगा हो ।।१२६६।। कोई कहे कि गणधर पदादिकी प्रार्थना करना अशोभन क्यों है ? इससे तो रत्नत्रयको प्रर्थना करना जैसा ही होता है ? अब इसका उत्तर देते हैं आचार्य गणधर आदिका निदान करनेपर भी चे पद इस निदान करनेवाले भवमें तो प्राप्त होते नहीं । कदाचित् उसकी प्राप्ति हो भी जाय तो मानकषायके कारण यातना होती है । आशय यह है कि आचार्यत्व आदिका निदान करने पर भी उसी भवमें वह पद मिलता नहीं कदाचित् बहुत उच्चकोटिका संयम पालन करने पर किसी Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३७९ अनुशिष्टि महाधिकार मधुराः सेवमाना हि विपाके दुःखदायिनः । चितनीयाः सदा भोगाः किपाकफलसंनिभाः ॥१२६८॥ भोगार्थमेव चारित्रं निदाने सति जायते । कर्म कर्मकरस्येव द्रविणार्थविचारणे ॥१२६६॥ भवत्यब्रह्मचर्यार्थ सनिदानं तपो यतः । अपसारो विधातार्थ भेषस्येवास्ति मेषत: ॥१३००। एकको उक्त पद मिले तो मानकषायके दोषसे उसको मुक्ति लाभ नहीं होता, अतः ___आचार्यत्व आदिका निदान करना व्यर्थ है ।।१२६७।। ___ इसप्रकार प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों निदान वर्जनीय है ऐसा बतलाकर भोग मिदानको निंदा करते हैं ये संसारके विषयभोग-सुदर सुदर भोजन, सुदर कामिनी, धन इत्यादि सब हो भोग सामग्री केवल सेवन करते समय मधुर लगती है किन्तु उदयकालमें अत्यन्त दुःखदायी होतो है, जैसे किंपाक फल खाते समय मधुर लगता है किन्तु विपाक में प्राणघातक होता है । वैसे ही भोग भोगते समय अच्छे लगते हैं किन्तु भोग करते समय जो पबंध हुआ था उस कर्मका उदय आनेपर महान् दुःख उठाना पड़ता है। इसतरह मुमुक्षु जनोंको सदा हो भोगके दोषका विचार करते रहना चाहिये ।।१२९८।। निदान करनेपर चारित्र भोगके लिये ही रह जाता है, जैसे कर्मकर-नौकरकी क्रियायें केवल धनके लिये हुआ करती है । अर्थात् मुनि चारित्र पालन करता है किन्तु निदानयुक्त है तो उसका चारित्र केवल भोग प्राप्ति करा सकता है, कर्मनिर्जरा नहीं ।।१२६६।। निदानयुक्त ब्रह्मचर्य आदि तप करना तो अब्रह्मचर्य के लिये कहा जायगा। जिसप्रकार कि एक बकरेको दूसरे बकरेसे पीछे हटना बकरेको मारने के लिये ही होता है । उसीप्रकार निदान युक्त ब्रह्मचर्य आदिको पालन करके विषयोंसे हटना ब्रह्मचर्यके घात के लिये माना जायगा। क्योंकि निदानसे भोग प्राप्ति होगी उससे अब्रह्म सेवन ही करेगा, यहां तक कि जो भोग सामग्री स्त्री धन आदि निदान द्वारा प्राप्त होती है वह प्रायः छूट ती नहीं, उसमें अधिक मोहभाव होने से उसे वह व्यक्ति छोड़ नहीं पाता, जैसे कि नारायण प्रतिनारायण भोगसामग्रो छोड़ नहीं सकते ।।१३००। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० । मरणकमिडका विक्रीणाति तपोनघं भोगेन सनिदानकः । माणिक्यमिष काचेन सारासाराविचारकः ।।१३०१।। ससंगस्यानिवृत्तस्य चिनेनाब्रह्मचारिणः । कायेन शीलवाहित्वं व्यर्थ नटयतेरिव ॥१३०२।। प्राकांक्षति महादुःखं निदानी भोगतृष्णया । रोगित्वं प्रतिकाराय कुबुद्धिरिव कश्चन ॥१३०३।। भोगार्थ बहते साधुनिदानित्वेन संयमम् । स्कंधेनैव कुधीगुयोमासनाय महाशिलाम् ॥१३०४।। निदान करने वाला मुनि अपने अमूल्य तपको भोग द्वारा बेच डालता हैभोगका तुच्छ मूल्य लेकर अमूल्य महा कीमतो तपको बेचता है । जैसे कि सार क्या है असार क्या इस बातका जिसे विचार नहीं है वह पुरुष माणिक्य रत्न के बदले काचको खरीदता है अर्थात् रत्न देकर उसके बदले में (मूल्यमें) काचको ले आता है ।।१३०१।। जिसका चित्त गो दिशामा है मनसे अब्रह्मचारी है जिसके परिग्रहसे निवृत्त रूप परिणाम नहीं है और केवल शरीर द्वारा शीलपालन करता है उसका वह शील पालन व्यर्थ है, जैसे नटयति नकली या भ्रष्ट मुनिका केवल बाह्य या शरीरसे प्रतादिका पालन व्यर्थ है । अथवा नटयति का अर्थ यतिका वेष धारण करनेवाला नट पूरुष है वह जैसे बाहरसे वेषमात्रसे मुनि है अंतरंगमें अब्रह्म आदि रूपहो भाव है । वैसे निदान करने वाला मुनि है ।।१३०२।। ___ निदान करनेवाला व्यक्ति भोगकी लालसासे महादुःखकी कांक्षा करता है, जैसे कोई कूवृद्धि पुरुष प्रतीकार औषधि सेवनकी लालसासे रोगी होना चाहता है। वैसा निदान करनेवाला है, ऐसा समझना चाहिये ।। १३०३।। जैसे खोटी बुद्धिवाला मुर्ख, मैं इसपर बैठ जाऊंगा इस वांच्छासे बडो भारी शिला-पत्थरको कंधेपर रखकर ढोता फिरता है, वैसे कोई साधु निदान द्वारा भोग प्राप्तिके लिये संयमका भार ढोता है ।।१३०४।। भावार्थ-शिलापर बैठनेका सुख अति तुच्छ है और उसके लिये शिला कंधे पर रखकर ढोना महादुःखदायी है ठीक इसीप्रकार निदान करके भोग प्राप्त करना Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८१ अनुशिष्टि महाधिकार यत्सखं भोगजं जंतोयंददुःखं भोगनाशनम् । भोगनाशोस्थिर दुःशं दुखःधिकार मासा ।। ३६० ।। खुवादिपोस्तेि वेहे समासक्तः कथं सुखी । दुःखस्यास्ति प्रतीकारोहस्वीकारोऽथवा सुखम् ॥१३०६।। अनपेक्ष्य यथा सौख्यं न दुःखं बाधते नरम् । अनपेक्ष्य तथा दुःखं न सुखं विद्यते जने ।।१३०७।। सेवमानो यथा तिन कुष्ठी लभते शमम । भुजानो न तथा भोगं संतोष प्रतिपद्यते ।।१३०॥ अत्यल्प सुखरूप है और उसके लिये संयम पालन करना भाररूप है । संयम तो मोक्षरूप महाफल दायक था उसे तुच्छ भोगमें गमा दिया। __इस जीवको भोगसे होनेवाला जो सुख है और भोग के नष्ट हो जानेपर जो दुःख होता है, इन दोनोंको यदि मापा जाय या इनकी तुलना की जाय तो भोगनाश से उत्पन्न दुःख उक्त सुख से अधिकतम पाया जायेगा । अर्थात् भोगज सुख अति अल्प है और भोगके नष्ट होनेपर जो दुःख होता है वह बहुत अधिक है ।।१३०५।। कदाचित् किसी जीवको इच्छानुसार भोग मिल भी जाय तो बिनाशीक शरीरमें क्या सुख होगा ऐसा बताते हैं यह शरीर भूख प्यास बेदना आदिसे सदा पीड़ित रहता है ऐसे शरीरमें रहनेवाला जोब किसप्रकार सुखी हो सकता है ? संसारी प्राणियों का सुख तो दुःखोंका प्रतीकार करना रूप ही है अथवा दुःखोंको कम करना रूप है ।।१३०६।।। जैसे सुखकी अपेक्षाके बिना दुःख पुरुषको बाधित नहीं करता वैसे दुःखकी अपेक्षाके बिना लोक में सुख नहीं रहता है, अर्थात् संसारमें सुख और दुःख दोनों विद्यमान हैं ।।१३०७॥ जैसे कोई कुष्ठ रोगो अग्निका सेवन करके शांतिको प्राप्त नहीं कर सकता, वैसे भोग भोगता हआ जीव संतोषको प्राप्त नहीं कर सकता । अग्निके तापसे तो कृष्ठ बढ़ेगा हो, वैसे भोग सेवनसे भोगकी इच्छा बढ़ेगी उससे संतोष नहीं होगा। संतोष तो भोगके त्यागसे होगा] ।।१३०८।। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ मरणकण्डिका मैथन सेवमानोऽङ्गी सौख्यं दुःखेऽपि मन्यते । शितैः कडूयमानो वा कच्छ कररहै: कुधीः ॥१३०६।। सेवमानो नरो नारों दुःखवां सुखदां कुधीः। मन्यते मधरा बह्वीं कृमि?षातकोमिव ॥१३१०॥ मंपद्यते सुखं भोगे सेव्यमाने न किंचन । सारो नोऽविष्यमाणोऽपि रंभास्तमे विलोक्यते ॥१३११॥ विश्वस्ता यः प्रतायन्ते विमुच्यते निषेवकाः । प्रवद्धकाः प्रपीडच ते कस्तै गः समो रिपुः ॥१३१२॥ __ मैथुन सेवन करता हुआ पुरुष दुःख होनेपर भी उसमें सुख मानता है, जैसे कोई कुबुद्धि खाजको पर्ने नखोंसे खुजाता हुआ दाहरूप दुःख होनेपर भी उसमें सुख मानता है ।।१३०६।। ___खोटी बुद्धिवाला पुरुष दुःखदायक ऐसी नारोका सेवन करता हुआ उसे सुखदायक मानता है, जैसेकि कोई कीट या लट घोषातकी नामके बड़े कड़वे फलको खाते हुए उसे मीठी मान लेता है ।।१३१०।। सत्य रूपसे देखा जाय तो भोगोंका सेवन करने में किंचित् भी सुख प्राप्त नहीं होता है जैसे कि केले के स्तंभ-खंबेमें खोजनेपर भो कुछ सार दिखायी नहीं देता । अर्थात् केलेके स्तंभ सदृश भोग निःसार है ।।१३११॥ ___ जिन भोगों द्वारा विश्वस्त जन ठगाये जाते हैं, सेवा करने वाले छोड़े जाते हैं तथा वृद्धि करने वाले पीड़ित किये जाते हैं, उन भोगोंके समान क्या कोई अन्य शत्रु है ? नहीं है। भाव यह है कि जो अपने पर विश्वास करता है अथवा जो विश्वास पात्र पुरुष उसको कोई भी नहीं ठगता । सेवा करने वालों को कोई छोड़ता नहीं तथा धन सन्मान आदिको वृद्धि करने वाले पुरुषोंको दुःख नहीं देता है किन्तु ये भोग ऐसे विचित्र हैं कि विश्वस्तको भी ठग लेते हैं अर्थात् जो भोगों पर विश्वास करता है वह ठगा जाता है-कुगतिमें जाता है । अपनो सेवा करने वालेको भी ये भोग छोड़ देते हैं अर्थात योगी पुरुषके योग एक दिन अवश्य छूट जाते हैं-नष्ट होते हैं । भोग वृद्धिकारकको भी पीड़ा देते हैं अर्थात् जो पुरुष भोगोंको बढ़ाता है वह कुगतिमें पीड़ित होता है । इसप्रकार इस जीवका भोग ही महाशत्रु है ।।१३१२।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार छंद-उपजाति निषेव्यमाणो वनिता कलेवरं स्वदेहखेदेन सुखायते जनः । श्वा व्यश्वानो रसमस्थि नोरसं स्वतालुरक्ते मनुते सुखं यथा ।। १३१३ ।। — नग्नो बाल इवास्वस्थः स्थनन्नथ्य क्तजल्पनः । प्रवासाकुलो जनो नार्यो कीदृशीं श्रयते रतिम् ।। १३१४।। आरंत भराक्रान्तां दीनामुष्ट्रोमिषाकुलाम् । कि सुखं लभते मूढः सेवमानो नितंबिनीम् ॥१३१५॥ छंद-उपजाति [ ३८३ fret रूपाः कुटिल स्वभावा भोगा भुजंगा इव रंध्र संस्थाः । ये स्मर्यमाणा जनयन्ति सुःखं ते सेविताः कस्य भवन्ति शान्तये ।। १३१६ ।। यह मोही मनुष्य स्त्रो शरीरका सेवन करता हुआ अपने शरीरके स्वेद द्वारा सुखानुभव करता है-सुख हुआ ऐसा मानता है, जैसे कुत्ता नीरस हड्डी को चबाता हुआ अपने तालुसे निकले हुए रक्तमें ही यह रस है ऐसी कल्पना कर सुख मानता है ।। १३१३।। नारीके साथ भोग करनेवाला पुरुष, बालकके समान नग्न अस्वस्थ शब्द करता हुआ, अव्यक्त बोलता हुआ जोर-जोर से श्वास लेनेके कारण प्राकुलित किसप्रकार की रतिको पाता है ? बड़ा आश्चर्य है ।। १३१४।। शब्द करती हुई भारसे आक्रान्त दीन ऐसी ऊँटिनीके समान व्याकुल हुईं स्त्री का सेवन करता हुआ मूढ़ पुरुष क्या सूख पाता है ।। १३१५ । । स्त्री आदि संबंधी भोग सपंके समान अतिशय भयंकर हैं कुटिल स्वभाव वाले हैं अर्थात् सर्प भयावह डरावना होता है और कुटिल - टेढ़ीचाल चलता है भोग परलोक में दुःखकारक होने से भयावह हैं कषाय मायाचार आदिसे युक्त होने से कुटिल स्वभाव है, सर्प रंध्र संस्था - बिल में रहते हैं भोग योनिरूपी बिलमें रहते हैं । जो स्मरणमें आनेपर भी दुःख उत्पन्न करते हैं वे भोग सेवित किये गये किसके शांति के लिये हो सकते हैं ? किसी के भी नहीं ।। १३१६॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ । मरणकण्डिका छंद-उपजातिप्रवर्य सौख्यं वितरन्ति दुःखं विश्वासमुत्पाद्य व वंचति । ये पोउयन्ते परिचर्यमारणास्ते संति भोगा: परमा द्विषन्तः ॥१३१७॥ कामिभिर्भोग सेवायामसत्यं दृश्यते सुखम् । कुरंगभृगतृष्णायां पानीय तृषितरिय ॥१३१८।। कुथितस्त्रोतनुस्पर्श नष्टबुद्धिः सुखायते । अवगुह्य शवं व्याघ्रः श्मशाने कि न तृप्यति ।।१३१६।। मध्यदिनार्कतप्तस्य यावच्छायाव्यतिक्रमे । वेगतो धावतः सौख्यं तावद्धोगनिषेधणे ॥१३२०॥ __ जो सखको दिखाकर दुःख देते हैं, विश्वासको उत्पन्न कराके ठग लेते हैं, परिचर्या किये जानेपर पीड़ा पहुंचाते हैं वे भोग सचमुच में बड़े भारी शत्र ही हैं ऐसा समझना चाहिये ।।१३१७।। भावार्थ- बैरी या शत्रु का स्वभाव होता है कि वे सुख को देंगे ऐसा दिखाते हैं किन्तु देते दुःख ही हैं पहले विश्वास दिलाते हैं कि हम तुम्हारे हितचिंतक हैं किन्तु करते उगाई हो हैं । परिचर्या या परिचय में आनेपर पीड़ा-कष्टकारी होती है, ठीक इसीप्रकार भोगोंका स्वभाव होता है भोग भोगते समय सुखाभास होता है किन्तु रहता वह दुःख हो है । भोग मुझे सुखकारी होगा ऐसा पहले विश्वास होता है किन्तु भोगने पर सुखकारी नहीं होते अतः उससे मानव ठगे गये ही समझना चाहिये । सेवित होनेपर पीड़ादायक है अतः भोग बिलकुल शत्रु ही है । ___कामी पुरुषों द्वारा भोग भोगनेपर सुख दिखाई देता है किन्तु वह वास्तविक सुख नहीं है । जैसे प्यासे हिरणों द्वारा मृगतृष्णामें पानी दिखाई देता है किन्तु वह वास्तविक जल नहीं है ॥१३१८।।। श्मशान में व्याघ्न प्रेतका भक्षणकर क्या तृप्तिका अनुभव नहीं करता ? करता हो है । वैसे जिसकी बुद्धि नष्ट हुई है ऐसा कामी पुरुष सड़े हुए के समान स्त्रोके कलेवरके स्पर्श होनेपर सुखानुभव-मेरेको सुख हो रहा है ऐसा समझता है ।।१३१६।। जैसे कोई पथिक हैं और दोपहर के सूर्य द्वारा संतप्त हुआ वेगसे दौड़ता जा रहा है उसको मार्गमें वृक्षको छाया बीच-बीचमें पाती है उसको लांघने में किचित् धूप Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार स्रोतसा नौयमानस्य यावदाशासुखं भवेत् । पादांगुष्ठे क्षितिस्पर्श तावद्भोगसुखं स्फुटम् ॥१३२१॥ येऽनंतशोऽङ्गिना भुक्ता भोगाः सर्वे त्रिकालगाः । को नाम तेषु भोगेषु भुक्तस्यक्तेषु विस्मयः ।।१३२२॥ यथा यथा निषेव्यन्ते भोगास्तृष्णा तथा तथा। भोगा हि वर्षयम्से तामिघनानीव पायकम् ॥१३२३॥ भज्यमानश्चिरं भोगस्तृप्तिर्नास्ति शरीरिणाम् । उत्पूरमुखतं चितं विना तृप्त्यात्र जायते ॥१३२४।। नदीजलरिबांभोधि-विभावसुरिवेंधनैः । सेव्यमानेरयं भोगेर्न जीवो जातु तृष्यति ॥१३२५।। --...-.. ..-.-.की कमी होनेसे सुख प्रतीत होता है उसको जितना छाया संबंधी सुख है उतना भोग सेवन में सुख है ।।१३२०॥ अथवा नदी प्रवाह द्वारा बहते जा रहे व्यक्तिका कदाचित परके अंगुठेका जमीनमें स्पर्श हो जानेपर आशा संबंधी जितना सुख होता है (जमोनका स्पर्श हो गया है अब मैं प्रवाहसे निकल जावूगा इसतरहको आशाका सुख) उतना भोग संबंधी सुख है ऐसा स्पष्ट रूपसे समझना चाहिये ।।१३२१।। । इस संसारी प्राणो द्वारा तीन काल संबंधी संपूर्ण भोग अनंतबार भोगे जा चुके हैं उन भोगकर छोड़े हुए-उच्छिष्ट भोगों में क्या उत्सुकता? क्या आश्चर्य ? अर्थात् जो अतिपरिचित हैं उच्छिष्ट हैं उन पदार्थोकी प्राप्ति में आश्चर्य या उत्सुकता नहीं होनी चाहिये ॥१३२२॥ जैसे जैसे भोग भोगे जाते हैं वैसे वैसे तृष्णा बढ़ती है क्योंकि भोग तृष्णा को बढ़ाने वाले होते हैं, जैसे ईन्धन अग्निको बढ़ानेवाला होता है ॥१३२३॥ संसारी जोवोंके चिरकाल तक भोग भोगते हुए भी तृप्ति नहीं होती और तृप्ति हुए बिना चित्त उन भोगों में पुनः पुनः अत्यंत उत्कंठित ही रहता है ॥१३२४।। जिसप्रकार नदियोंके जल द्वारा समुद्र तृप्त नहीं होता [भरता नहीं] ईन्धनों द्वारा अग्नि तृप्त नहीं होती (ईन्धनको जलाना नहीं छोड़ती अथवा नहीं बुझती) उस Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणाकण्डिका भोगेष भोगिगोरखबलकेशव चक्रिणः । न तृप्तिं ये तु गच्छति तत्र तृप्यंति किं परे ।।१३२६।। व्याकुलो भवति प्रामी ग्रहण रक्षण नाशे संपवि तस्तस्य भोगायोत्कंठितश्चलः ।।१३२७।। व्याकुलस्य सुखं नास्ति कुतःप्रीतिविना सुखम् । कुतो रतिविना प्रोसिमुत्कंठां वहतः परम् ।।१३२८।। प्रकार यह जीव भोगोंका सेवन करते हुए भी उन भोगोंसे कभी भी तृप्त नहीं होता । है ।।१३२५।। भोगभूमिके मनुष्य, देव, बलदेव, नारायण और चक्रवर्ती ये बड़े बड़े समृद्धशाली अतुल भोग संपदावाले पुरुष भी भोगोंमें तृप्तिको प्राप्त नहीं हुए तो फिर अल्प बल, अल्प आयु और अल्प भोग सामग्री वाले मनुष्य तृप्त हो सकते हैं क्या ? नहीं हो सकते ।।१३२६॥ यह संसारी प्राणी धनके ग्रहण करने में व्याकुल होता है तथा रक्षण और अर्जनमें भी व्याकुल होता है यदि धनका नाश हो जाय तो उसको पुनः प्राप्ति के लिये व्याकुल होता है । प्राप्त भोगोंके लिये उसका मन सदा उत्कंठित रहता है कि यह भोगू यहांपर अमुक वस्तु है उसको शीघ्र ही लाना चाहिये । इसप्रकार धनके कारण चित्त सदा चंचल बना रहता है ॥१३२७॥ । ___ धन के उपार्जनमें, उपार्जित धन की सुरक्षामें एवं ग्रहणमें सर्वत्र ही व्याकुलता रहती है, व्याकुलित पुरुषके सुख हो नहीं सकता और सुख के बिना प्रीति कहांसे होवे ? और जब प्रीति नहीं है तो रति भी नहीं है, इसतरह उस कामुकके अतिशय रूपसे केवल उत्कंठा हो रहती है ।।१३२८॥ इसतरह स्त्री संबंधी भोगोंको निःसार जानकर साधु पुरुषोंको चाहिये कि वे स्त्री आदि की संगति को छोड़े यदि उन्हें रमनेकी ही इच्छा है तो कहां रमे ? सो बताते हैं जो वास्तविक सुखके विपक्षरूप है ऐसे स्त्री धन आदिकी संगतिका त्याग कर दिया है जिसने और रमनेकी है इच्छा जिसे उस पुरुषको निरंतर मोक्षके सुखके कारण Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३८७ छंद-वंशस्थनिरस्तदाराविविपक्षसंगती रिरंसुरध्यात्मसुखे निरंतरम् । रति विधत्तां शिवशर्मकारणे तया समा नास्ति जगत्त्रये रतिः ॥१३२६।। स्वस्थाध्यात्मरतिर्जन्तोनॆव भोगरतिः पुनः । भोगरत्यास्ति निर्मुक्तो परया न कदाचन ॥१३३०॥ नाशो भोगरतेरस्ति प्रत्यहाश्च सहस्रशः । नाशोऽध्यात्मरतेनास्ति न प्रत्यूहाः कुतश्चन ॥१३३१॥ कुर्वन्तो देहिनां दुःखं जायते यदि शत्रवः । तदानीं न कथं भोगा लोकद्वितयदुःखदाः ॥१३३२॥ भूत ऐसे अध्यात्म सुख में रति करना चाहिये । उस अध्यात्म सुख में जो रति है उस रतिके समान तीन लोकमें कोई भी रति नहीं है अर्थात् सर्वोत्कृष्ट रति वही है ।।१३२६।। अपने स्वस्थ स्वभावी अध्यात्ममें जीवोंको जो रति होती है वैसी भोगों में होनेवाली रति नहीं है क्योंकि भोगरतिसे तो निमुक्त हो जाता है किन्तु अध्यात्मरतिसे कभी भो निमुक्त नहीं होता अर्थात् अध्यात्मरति स्वाधीन है उसमें थकावट आदि नहीं है स्वभावभूत होनेसे सदा सर्वथा ही साथ रहती है, इससे विपरोत भोगरति पराधीन है एवं उसमें थकावट भो होतो है अतः उससे मुक्त होना होता है ।।१३३०।। भोगरतिका नाश होता है तथा उसमें हजारों विघ्न बाधायें आती हैं, किन्तु अध्यात्मरतिका नाश नहीं होता तथा उसमें किसी कारण विध्न भी नहीं आते हैं अथवा भोगरतिसे आत्माका नाश होता है अध्यात्म रतिसे आत्माका नाश नहीं होता, भोगरति नश्वर है अध्यात्म रति अविनश्वर ह ऐसा दोनोंमें महान् अंतर है ।।१३३१॥ जो जीवोंको दुःख उत्पन्न करते हैं उन्हें यदि शत्रु माना जाता है तो इस लोक और परलोक में दुःख देनेवाले भोग किसप्रकार शत्रु नहीं हैं ? अर्थात् वे शत्रु ही हैं ।।१३३२।। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डिका सत्रयो यान्ति मित्रत्वामिह वामुत्र वा भवे । मित्रत्वं प्रतिपद्यन्ते मोगा लोकद्वयेऽपि नो ॥१३३३॥ वैरिणो देहिनां दुःखं यच्छन्त्येकत्रजन्मनि । संततं दुस्सहं दुःखं भोगा जन्मनि जन्मनि ॥१३३४।। निवानी प्रेक्षते भोगाम्न संसारमनारतम् । मध्येव प्रेक्षते पातं तटस्थायो न दुस्सहम् ।। १३३५॥ भोगमध्ये प्रदोव्यन्ति जन्मदुःखमनारतम् । अपश्यंतो मृतित्रास जाल मध्ये झषा इव ॥१३३६।। इसप्रकार आचार्य क्षपक को उपदेशामृत पिला रहे हैं । क्षपकके मन में कहीं पर भी भोग आदिकी वांच्छा न रह जाय, इन्द्रिय सुख की इच्छाको कणिका मात्र भी न रहे इसतरहका आचार्य प्रयास कर रहे हैं । आगे और भी समझाते हैं जो शत्रु है वह इस जन्म में या अन्य जन्ममें मित्र भावको प्राप्त हो जाता है किन्तु भोग तो इस जन्म और पर जन्म दोनों में मित्रत्वको प्राप्त नहीं होते हैं अर्थात जो ये बाहिरी शत्रु हैं वे कार्यवश शत्रुब छोड़ देते हैं और मित्रता का व्यवहार करने लग जाते हैं परन्तु भोग सदा शत्रु रूप ही रहते हैं-उनसे दुःख ही मिलता है ॥१३३३।। बैरी जीवोंको एक जन्ममें दुःख देते हैं किन्तु भोग जन्म जन्ममें सतत् दुःसह दुःख ही देते हैं ।।१३३४।। निदान करनेवाला व्यक्ति भोगोंको देखता है अर्थात् उनके स्वादमें लगा रहता है दीर्घ संसारको नहीं देखता अर्थात् भोगसे मुझे बहुत कालतक संसार में रुलना पड़ेगा इस बात को नहीं सोचता है । जैसे कूपके तटभाग पर स्थित कोई अज्ञानी मक्खियोंके छत्तेसे गिरते हुए मधुको हो देखता है स्वाद लेता है किन्तु कूपमें बुरी तरहसे गिर जाऊंगा इस बात को नहीं देखता-सोचता ।।१३३५॥ यह संसारी प्राणो सतत् रूपसे होनेवाले जन्मोंके दुःखको नहीं देखते हुए भोगों के मध्य में रमता है । जैसे मीन मरणके त्रासको नहीं देखते हुए धीवरके जाल में क्रीड़ा करती है ॥१३३६।। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार प्राप्यापि कृच्छ्रतो जीयो देवमानव संपवम् । प्रवासी निजं स्थानं कुयोनि याति निश्वितं ।। १३३७॥ किं करिष्यति से होगा सौचिचात सुशियां किं कुर्वन्ति सुता वैद्या त्रियमाणस्य देहिनः ।। १३३८|| संसारं पुनरायान्ति निदानेन नियंत्रिता: । दूरं यातोऽपि पक्षीव रश्मिना निजमास्पदम् ।।१३३६॥ अधमर्णो निजे गेहे रोषमुक्तो सुखं वसेत् । वत्वार्थं समये प्राप्ते यथा मूयो निरुध्यते ॥ १३४० ।। [ ३८६ यह जीव देव और मनुष्योंकी संपत्तिको बड़े कष्टसे प्राप्त करता है और प्राप्त करके भी नियमसे पुनः कुयोनि-नरक तिर्यंच गतिमें चला जाता है । जैसे प्रवासी कुछ समय तक परदेशमें रहकर पुनः अपने स्थान पर चला जाता है ।। १३३७ ।। भावार्थ - प्रवासी पुरुष कार्यवश अन्य देश में जाता है और कुछ ही काल बाद पुनः अपने देश गृह में लौट आता है, इसोप्रकार संसारी प्राणी देव और मनुष्य पर्याय में अल्पकाल रहता है और नरक व तिर्यंच पर्याय में बहुत अधिक काल रहता है, क्योंकि सबसे अधिक रहनेका काल तिच गतिका है वहां पर यह जीव अनंतकाल तक सतत् रह सकता है, प्रायः रहता है । जब यह मोही प्राणी विषय भोगके कारण खोटी योनि में चला जाता है वहां वे भोग क्या सहायता करेंगे ? जैसे मृतक वैद्य मरते हुए जीवका क्या उपकार - चिकित्सा करते हैं ? कुछ भी नहीं करते हैं, वैसे भोग परलोकमें कुछ भी काम में नहीं आते हैं ।। १३३८ ।। निदान द्वारा नियंत्रित किये प्राणी पुनः पुनः संसारमें आते हैं- पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं, जैसे बहुत दूर तक उड़कर गया हुआ भी पक्षो रस्सी द्वारा नियंत्रित होने से पुनः अपने स्थानपर आजाता है ।। १३३ ।। जैसे कर्जदार पुरुष कुछ धन देकर बंधन मुक्त हो कुछ समयके घर में सुखपूर्वक रहता है और कर्ज लोटानेका समय प्राप्त होनेपर पुनः जाता है ।। १३४० । लिये अपने बंधन में आ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ] मरणकण्डिका इबानी चरणं कृत्वा सुखं भुक्त्वाऽवतिष्ठते । त्रिविबे समये प्राप्ते तथा याति पुनर्भवम् ।। १३४१।। देवश्चकी सुख भुक्त्वा सभूतो हि निदानतः । निरंतरं महादुःखं प्राप्तश्च प्रतिवासितम् ॥१३४२।। भावार्थ-कारागृहमें कैद किया हुआ मनुष्य इतने दिन के बाद मैं तुम्हारा द्रव्य देकंगा इस समय मुझे अपना द्रव्य देवो ऐसा कहकर उनसे धन लेकर उसको कैदमें रखनेवालोंको देकर अपनी मुक्ति कर लेता है किन्तु पुनः बह धनिक कर्जदारको पकड़ लेता है। ठीक उसीप्रकार निदान करनेवाला मुनि इससमय चारित्र पालन करके स्वर्ग में जाकर सुख भोगता हुआ रहता है किन्तु समय आनेपर पुनर्भवको-संसार भ्रमण को प्राप्त होता है । देखा ! संभूत नामके पुरुषन निदानपूर्वक तपश्चरण किया था उससे स्वर्ग में देव बनकर चक्रवर्ती बना वहां सुख भोगकर नरकमें निरंतर महादुःखको प्राप्त हुआ था ।।१३४१।।१३४२।। संभूतको कथावाराणसी नगरीमें दो भाई रहते थे बड़े भाईका नाम चित्त और छोटे भाई का संभूत था । ये दोनों नृत्यकलामें अति निपुण हुए । स्त्रीका वेष लेकर जब वे नत्य करते तब सब जनता अत्यंत मुग्ध होतो, कोई भी नहीं पहिचानता कि ये दोनों पुरुष हैं । नृत्यकला ही इन दोनोंकी आजीविका थी। किसो दिन दिगंबर जैन मुनि गुरुदतके मुखकमलसे श्रेष्ठ जनधर्मका उपदेश सुनकर दोनों भाईयोंको वैराग्य हुआ और उन्होंने उन्हीं गुरुदेव के निकट देगंबरी दीक्षा ग्रहण को । गुरु चरण के समोए समस्त आगमका अभ्यास किया अब दोनों मुनि सर्वत्र देशोंमें विहार करते हुए तपस्या करने लगे। उनको उग्न तपस्यासे प्रसन्न हुआ कोई देव चक्रवर्तीका रूप धारण करके मुनियुगल की सेवा करने लगा। चक्रवर्तीका वैभव देखकर संभूत नामके छोटे मुनिने निदान किया कि मैं अपनी इस श्रेष्ठ तपस्या द्वारा आगामी भवमें चक्रवर्ती बनू । यथासमय मरणकर संभूत मुनि प्रथम सौधर्म स्वर्गमें देव बना और वहांसे च्युत होकर भरत क्षेत्रका इस अवसर्पिणो कालका अंतिम बारहवां Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६१ अनुशिष्टि महाधिकार प्रतर्पकमविश्राम भोगसौख्यं विनावरम् । दुरंतं सर्वथा त्यक्त्वा मुक्तिसौख्ये मतिं कुरु ।।१३४३॥ विशोध्य दर्शनशानचारित्रत्रितयं पतिः । निनिदानो विशुद्धात्मा कर्मणां कुरुते क्षयम् ॥१३४४॥ दोषानिति सुधोर्बुद्ध्या निदानं विदधाति नो । जातानो दारुणं मृत्यु को हि भक्षयते विषम् ।।१३४५।। लपति पातकलोपि चरित्रं सिद्धिसुखं विधुनोति पवित्रम् । देहयतामुरुदोषनिधानं कि कशलो न शृणाति निदानम् ।।१३४६।। - - चक्री ब्रह्मदत्त नामका हुआ। निदान द्वारा प्राप्त वैभवमें अत्यंत आसक्ति होने के कारण ब्रह्मदत्त आयुके अंत में मरकर नरक में चला गया। इसप्रकार संभूत मूनिने निदान द्वारा अपनो सारभूत तपस्याको नष्ट किया और अंतमें कुगतिमें चला गया । अतः कभी भी भोगादिका अप्रशस्त निदान नहीं करना चाहिये । कथा समाप्त । इसप्रकार भोगसे उत्पन्न होनेवाला सुख अतृप्तिरूप है, विश्राम रहित है, विनश्वर और अंतमें कटुक फल देनेवाला है ऐसा जानकर हे क्षपक ! तुम इसे सर्वथा छोड़ दो और अपनी बुद्धिको मुक्ति सुख में लगाओ-मुक्ति प्राप्ति हो ऐसा प्रयत्न करो ।।१३४३।। निदानके दोष बतलाकर निदान नहीं करने में होनेवाले गुणोंको कहते हैं मनिराज दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनोंको भलीप्रकार शोधन करके, निदान रहित विशुद्धात्मा होकर कर्मोका क्षय करते हैं ॥१३४४॥ बुद्धिमान व्यक्ति इसप्रकार दोषोंको जानकर निदानको कभी भी नहीं करता है, क्योंकि ऐसा कौन पुरुष है जो दारुण-मृत्युको जानता हुआ विषको खाता है ? ११३४५।। यह निदान जीवोंके पापोंका नाश करने वाले चारित्रको लूट लेता है पवित्र सिद्धिसुख नष्ट कर डालता है, ऐसे बड़े बड़े दोषोंके भंडारस्वरूप निदान बंधको कौनसा Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] मरण कण्डिका पालोचनाधिकारस्य मायाशल्यस्य दूषणं । उक्त मिथ्यात्वशल्यस्य मिथ्यात्ववमनस्तवे । १३४७।। मायाशस्येन ही बोधेः प्रभ्रष्टा कथितानना। दासी सागरदत्तस्य पुष्पदंताजिका भवे ॥१३४८॥ कुशल पुरुष नष्ट नहीं करेगा ? अर्थात् बुद्धिमान् निदान को कभी भी नहीं करता है ।।१३४६।। निर्यापक आचार्य क्षपकको उपदेश दे रहे हैं, उस उपदेशके अंतर्गत पहले आलोचनाका कथन करते समय माया दोष या शल्यका त्याग करनेको कहा था तथा मिथ्यात्वका वमन करे । इसप्रकारके मिथ्यात्वके त्यागके लिये भी कहा था । अब यहां शल्य त्यागके अधिकारमें आचार्य पुनः क्षपकको स्मरण करा रहे हैं कि भो क्षपक ! मैंने तुमको आलोचनाका कथन करते हुए मायाशल्यके दूषण बतलाये हैं। अतः उनका स्मरण कर त्याग करदो ।।१३४७॥ सागरदत्त सेठकी दुर्गंधित मुखपाली दासी पुष्पदंता नामकी आर्थिकाके पर्यायमें माया शल्यके कारण ही बोधिसे-सम्यक्त्व एवं दीक्षा रूप बोधिसे भ्रष्ट हो गयी थी ॥१३४८।। पुष्पदंता आर्यिकाको कथाअजितावर्त्त नगरके राजा पुष्पचूलको पट्टरानोका नाम पुष्पदंता था । किसी दिन संसारसे विरक्त हो राजाने दैगंबरी दीक्षा ग्रहण की। देखादेखी पुष्पदंताने भी ब्रािला आयिका प्रमुखके निकट आर्यिका दीक्षा ली किन्तु इसे अपने रूप, सौभाग्य पदरानी पदका बहुत अभिमान था जिससे वह किसी अन्य आर्यिकाका विनय नहीं करतो न किसीको नमस्कार करतो सदा अपनो उच्चताका प्रदर्शन करती रहती । अपने शरोरमें सुगंधित तैलादिका संस्कार करतो । एक दिन गणिनो ब्रह्मिला प्रायिकाने उसे बहुत समझाया कि देखो ! आर्यिका पदमें ऐसा शरीर संस्कार वर्जित है तथा तुम्हें गुरुजनोंका, आर्यिकानोंका विनय करना चाहिये इत्यादि । किन्तु पुष्पदंताने मायाचारसे असत्य वचन कहा कि मेरे शरीर में निसर्गतः सुगंधी प्राती है मैं कुछ नहीं लगातो इत्यादि । इस मायाचार के साथ उसकी मृत्यु हुई अर्थात् उसने अंततक माया शल्यको नहीं छोड़ा। फलस्वरूप वह चंपापुरीके सेठ सागरदत्तके यहां दासी होकर जन्मी। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्ट महाधिकार विद्धो मिथ्यात्वशल्येन धार्मिको वत्सलाशयः । मरोचिरभ्रमद्धोमे चिरं संसारकानने ॥१३४६॥ छंद बंशस्थनिवानमायाविपरीतदर्शनविदार्यतेऽगी निशितैः शरैरिव । विबुध्य दोषानिति शुद्धबुद्धयनिषापि शल्यं दवयन्ति यत्नतः ।।१३५०॥ जन्मसे ही उसका शरीर दुगंधमय था अतः उसका नाम पूतिगंधा रखा गया । इसप्रकार मायाचारके कारण पुष्पदंताको नीचकुल में नीच कार्य करना पड़ा। दुर्गन्धमय शरीरका कष्ट भोगना पड़ा । अत: माया शल्यका त्याग करना चाहिये। कथा समाप्त । जो धार्मिक था साधु संघमें वत्सल भावयुक्त या ऐसा गुणवान् मरीचि मिथ्यात्व शल्यसे युक्त होने के कारण चिरकाल तक भयानक संसार वन में भटकता रहा था ।।१३४१।। निदान शल्य, माया शल्य और मिथ्यात्व शल्य इन शल्यों द्वारा यह प्रारणी इसप्रकार विदीर्ण किया जाता है कि मानो पंने नुकीले बाणों द्वारा हो विदीर्ण हुआ हो, अतः इन शल्योंके दोषोंको जानकर शुद्ध बुद्धिवाले पुष प्रयत्नपूर्वक मन वचन कायसे सदा हो शल्यको दूर कर देते हैं । शल्यको कभी भी नहीं करते हैं ।।१३५०।। ___ मरीचि की कथा । आदिनाथ तीर्थकरके जेष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्तीके हजारों पुत्रोंमें एक मरीचि. कुमार नामका पुत्र था । आदिनाथ भगवान् जब विरक्त होकर दीक्षित हुए तब उनके साथ यह मरीचि भी दोक्षित हुआ था किन्तु क्षुधा आदिसे पीड़ित होकर अन्य राजाओं के समान यह भी भ्रष्ट हो गया । वृक्षको छाल पहन कर जटाधारी तापसी बन गया आत्मा सर्वथा शुद्ध है, भोक्तामात्र है, कर्त्ता नहीं, कर्त्ता तो प्रकृति है इत्यादि सांख्याभिप्रायानुसार मिथ्यात्वका चिरकाल तक प्रचार करता रहा ! वृषभदेवको केवलज्ञान प्राप्त होने के अनंतर उन भ्रष्ट राजाओंने समवशरणमें दिव्यध्वनिको सूनकर जिनदीक्षा ग्रहण की किन्तु मरोचिने तो मिथ्यात्वके कारण नहीं लो । आयुके अंतमें मरकर वह स्वर्ग में देव हुआ। पुनः मनुष्य लोक में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर पूर्वभवके संस्कारवश उसी मिथ्यामसमें परिव्राजक साधु बन गया । पुनः स्वर्ग गया। इसके अनंतर यत्र तत्र चारों गतियोंमें, चौरासी लाख योनियोंमें, अस स्थावर पर्यायों में चिरकाल तक-इक्कीस Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] मरसाकण्डिका प्रवज्यागंत्रिका गुप्तिचक्रां ज्ञानमहाधुरं । समित्युक्षाणमारुह्य क्षपको दर्शनादिकम् ॥१३५१।। प्रस्थितः साधुसार्थेन व्रतभांउभृता सह । सिद्धि सौख्यमहाभांडं ग्रहीतु सिद्धिपत्तनम् ॥१३५२॥ सार्थः संस्क्रियमाणोऽसौ भोमां जन्ममहाटवीम् । प्राचार्य सार्थवाहेन महोयोगेन लंघते ॥१३५३।। --------- -- . - - ....-. - .... हजार वर्ष कम एक कोटा कोटी सागर प्रमाण कालतक भटकता रहा। पुनः सिंहकी पर्याय में चारणऋद्धिधारी मुनियुगलसे धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्वको ग्रहण किया और महादुःखदायी मिथ्यात्वका त्याग किया । आगामी कुछ भवोंके अनंतर अंतिम तीर्थंकर भगवान् महाबोर बनकर सिद्धपद पाया। इसप्रकार मरीचिने मिथ्यात्व शल्यके कारण घोर कष्ट सहा । कथा समाप्त । आचार्य क्षपक एवं साधु समुदायको महावत आदिका निर्दोष परिपालन करने के लिये उपदेश दे रहे हैं उसमें साधुपदकी प्रशंसा करते हैं जिनदीक्षा एक वाहन या गाड़ी स्वरूप है जिसमें मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तिरूप चक्र-पहिये लगे हुए हैं, वह ज्ञानरूपी महा धुरासे युक्त है, समिति रूपी बैलोंके द्वारा जो ढोयी जा रहो है ऐसी गाड़ी में क्षपक दर्शनादिको लेकर चढ़ जाता है । महावतरूपी भांड-मालको जिसने भर लिया है ऐसे साधुजन रूपी सार्थ-व्यापारियोंके साथ वह क्षपक सिद्धि-मुक्ति नगरके प्रति प्रस्थान कर देता है, किसलिये प्रस्थान करता है ? मुक्ति सुखरूपी महाभांडको-मालको खरीदने के लिये प्रस्थान करता है । अर्थ यह है कि क्षपक तथा साधूवर्ग महाव्रत समिति और गुप्तियोंका निर्दोष परिपालन करके मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं ।।१३५१।। १३५२।। यह क्षपक एवं साधुजन रूपी सार्थ-व्यापारी वर्ग निर्यापक आचार्य रूपो वैश्यपति-व्यापारियोंका मुखिया द्वारा संस्क्रियमान-मार्गदर्शन प्राप्त करके अत्यन्त भयावह ऐसी संसाररूपी अटवोको बड़े उद्योगके साथ उल्लंघन कर जाता है अर्थात संसार वनसे निकल जाता है ।।१३५३।। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६५ अनुशिष्टि महाधिकार तं भावनामहाभांडं घायते भवकानने । कषाय व्यालतः सूरिरिब्रियस्तेनतस्तथा ॥१३५४।। प्रमाववशतो यातो भ्रष्टो विषयकानने । तदीयं बतसर्वस्वं लप्यतेऽक्षमलिम्लुचैः ॥१३५५॥ तमसंयम बंष्ट्राभिः संक्लेशदशनैः शितः । कषायश्वापदाः क्षिप्रं दूरक्षा भक्षयन्ति च ॥१३५६॥ संसार रूपी वनमें भावनारूपी महाभांड-कीमती माल की कषायरूपी जंगली पशुओंसे तथा इन्द्रियरूपी चोरसे आचार्य रक्षा करते हैं ।।१३५४।। भावार्थ--कोई जंगल में कीमती माल लेकर जा रहा हो तो वहां शेर आदि जंगली जानवर और चोर डाकू उस व्यक्तिके माल को लूट लेते हैं अतः मालको रक्षार्थ शस्त्रधारी पुरुष उसके साथ रहते हैं। इसीप्रकार क्षपक एवं साधुजन महाव्रतोंके भावनारूपी कोमती मालको लेकर संसारवनसे जा रहे हैं वहां कषाय ही चीते हैं और इन्द्रियरूपो चोर डाकू हैं उनसे यदि कोई रक्षा कर सकता है तो वह आचार्य ही कर सकता है । आचार्य साधुवर्गको स्वाध्याय ध्यान आदि कार्योंमें नियुक्त करते हैं इसीसे साधुवर्ग कषाय और इन्द्रिय विषयोंसे बचते हैं। साधुके व्रत एवं भावनाओंको कषाय और इन्द्रियां ही लूटते हैं । जब साधुजन स्वाध्याय ध्यानमें संलग्न हो जाते हैं तो कषायभाव और इन्द्रियोंके विषय इनसे दूर रहते हैं, इसतरह साधुजन संसार वनसे पार हो जाते हैं। अवसन्न नामके भ्रष्ट मुनिजो साधु विषय रूपी वनमें प्रमादके वशसे मार्गभ्रष्ट हो जाता है उसके व्रतरूपी सर्वस्व धनको इन्द्रियरूपी चोर लूट लेते हैं ।।१३५५।। तथा असंयम रूपी दाढ और संक्लेश रूपी पैने दांतोंसे कषाय रूपी दुष्ट श्वापद उस मार्गच्युत साधुको शीन खा जाते हैं इसप्रकार आचार्य रूपी सार्थसे पृथक हुए साधुकी दशा होतो है ।।१३५६।। ओ साधु मुक्ति मार्गमें साथ चलनेवाले सार्थसे छूट जाता है-उसका साथ छोड़कर भ्रष्ट होता है वह अवसन्न क्रिया अर्थात् आवश्यक क्रियाओंमें शिथिलताको Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्डिका यः साधःसार्थतो भ्रष्टः सिद्धिमार्गानुयायिनः । सोऽवसनक्रिया: साघः सेवमानोऽस्त्यसंयतः ॥१३५७।। कषायाक्षगुरुत्वेन तपस्वी सुखभावनः । अवसनक्रियो भूत्वा सेवते फरणालसः ॥१३५८॥ [इति अवसन्नः] हृषीकतस्करीमः कषायश्वापदैरपि । विमोच्य नोयते मार्गे साधुः सार्थस्य पार्श्वतः ॥१३५६ ।। साधः सायं परित्यज्य नीयमानो महाभयम् । सहते दारुणं दुःखं प्राप्तो गौरवकाननम् ॥१३६०॥ शल्यछुःकंटकविद्धाः पतिता दुःखमासप्ते । एकाकिनोऽवीं याता विद्धा या विषकंटकः ॥१३६॥ करता हुआ असंयत बन जाता है । सुखिया जीवन को है इच्छा जिसे ऐसा वह तपस्त्री कषाय और इन्द्रियकी अधीनतासे तेरह प्रकारको क्रियाओंमें आलसी हुआ शिथिलाचारका सेवन करता है ।।१३५७।।१३५८।। पाइवस्थ नामके भ्रष्ट मुनिइन्द्रिय रूपी भयंकर चोर तथा कषायरूपी श्वापदों द्वारा कोई साधु सार्थसाधरूपी व्यापारोका साथ छुड़ाकर पार्श्वस्थ मुनिके मार्गमें ले लिया जाता है । अर्थात इन्द्रिय और कषायके अधीन हुआ साधु सुखिया जोवनमें आसक्त होकर अपने साधर्मी साधुजनोंका साथ छोड़ देता है और स्वच्छन्द होकर पार्श्वस्थ-भ्रष्ट मुनिके पास जाता है-भ्रष्ट मुनिका आचरण करने लगता है ।।१३५६।। जब वह साधु अपने साधर्मी साधुरूपी सार्थको छोड़ देता है तब महाभयानक गौरव-ऋद्धि गारव आदि तीन गारवरूपी जंगल में प्रविष्ट हो दारुण दुःखको सहन करता है ।। १३६०॥ जो साधु समूहसे गिर गये हैं अर्थात् जिन्होंने निदोष साधु समागमको छोड़ दिया है वह शल्य रूपो खोटे कांटोंसे विद्ध होते हैं इसतरह जंगल में पड़े हुए दुःख में रहते हैं। जैसे कोई पथिक अकेले जंगल में जाते हैं तो वहां विषले कांटोंसे विद्ध होते हैं ।।१३६१।। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३६७ साधुः सार्थपथं त्यक्त्वा स पार्वे याति संयतः । पार्श्वस्थानां शियां याति यश्चारित्रविजितः ॥१३६२॥ कषायाक्षगुरुत्वेन पश्यावृत्तं तुणं यथा । भूत्वानिमको पाति पार्षस्थानां सदाक्रियाः॥१३६३।। (पाश्वस्थः) अक्षचौरहताः केचित्कषायव्यालभीतितः । उन्मार्गेण पलायंते साधूसार्थस्य दूरतः ॥१३६४॥ ततोऽपथेन धावन्तः कुशीलानां क्रियावने । क्लेशस्रोतोभिरह्मन्ते यासाः संज्ञामहानदीः ॥१३६५।। संज्ञानदीषु ते मग्नाः क्वचिदप्यनस्थिताः । पश्चाज्जन्मोदधि यांति दुःखभीमझषाकुलम् ॥१३६६॥ कोई साधु सार्थ-साधुवर्गके पथको छोड़ कर पावस्थके पास जाता है वह चारित्र रहित हुआ पावस्थ-भ्रष्ट मुनियोंको क्रियाको करता है ॥१३६२।।। जो भ्रष्ट मुनिकी संगति करता है वह कषाय और इन्द्रियकी तीव्रता रूप भारसे युक्त होने से अपना जो महाव्रत रूप चारित्र है उसको तृणके समान तुच्छ मानता हुआ धर्म रहित होकर सदा ही पार्वेस्थकी क्रियाओंको करता है-भ्रष्ट मूनिका आचरण करता है ।।१३६३।। कुशील नामके भ्रष्ट मुनि__कोई-कोई साधुजन इन्द्रिय रूपी चोरोंके द्वारा पीटे जाते हैं तथा कोई कषाय रूपी श्वापदके भयसे साधु सार्थको दूरसे छोड़कर तथा सन्मार्ग-रत्नत्रयमार्गको छोड़कर उन्मार्गसे भाग जाते हैं ।।१३६४॥ कुशीलोंके क्रियावनमें खोटे मार्गसे दौड़ते हुए वे मुनि-आहार मैथुन आदि चार संज्ञारूप महानदीमें प्राप्त हुए क्लेश रूपी प्रवाह द्वारा बहाकर लिये जाते हैं । अर्थात् वे भ्रष्ट मुनि क्लेश रूप नदीमें बह जाते हैं ॥१३६५।। जब वे भृष्ट मुनि संज्ञारूपी नदीमें डूब जाते हैं तब वहां कहीं पर भी स्थिर न रहकर आगे-आगे बहते जाते हैं और दुःख रूपी भयानक मछलियोंसे भरे हुए जन्मरूपी सागर में प्रविष्ट हो जाते हैं ।।१३६६।। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६- ] मरणकण्डिका दुराशामिरिदुर्गाणि गरवा दंडशिलोत्करे । भ्रष्टाः सन्तरिचरं कालं गमयंति महाव्यथाः ॥१३६७।। पापकर्ममहारथ्यां विप्रनष्टाः कदाचन । सुखमार्गमपश्यन्तस्तत्रवायान्ति ते पुनः ।।१३६८॥ साधुसार्थ स दूरेण त्यक्त्वोन्मार्गक नश्यति । क्रिया यांति कुशोलानां या सूत्रे प्रतिशिताः ॥१३६६।। कषायाक्षगुरुत्वेन वृत्तं पश्यंस्तृणं यथा । सेवते हस्वको भूत्वा कुशील विषयाः क्रियाः ॥१३७०॥ [इति कुशोलः] केचित्सिद्धिपुरासन्नाः कषायेन्द्रियतस्करैः । मुक्तमाना निवर्तते लुप्तचारित्रसंपवः ॥१३७१।। वे भष्ट मूनि खोटी आशा रूपी पर्वतके दुर्गम स्थानका उल्लंघन कर दंडरूपी निष्ठर शिला पर गिरते हैं अर्थात् मन, वचन र शरीरको मत प्रीतमें तत्पर हो जाते हैं, इसप्रकार चारित्रसे भ्रष्ट होकर चिरकाल तक महादुःखी हो समय व्यतोत करते हैं ॥१३६७।। __ पाप रूपी महा अटवो में दिग्मूढ़ हुए वे मुनि कदाचित् भी सुखमार्ग-मुक्तिके मार्गको नहीं देखते हुए पुनः-पुन: वहीं भूमण करते हैं अर्थात् अनंतकाल तक संसाररूपी अरण्यमें भटकते हैं ।।१३६८।।। वे भष्ट मुनि साधुसार्थका दूरसे हो त्यागकर उन्मार्गसे जाकर नष्ट होते हैं, कुशोल नामके भ्रष्ट मुनियों की क्रिया जो सूत्रमें बतायी है उस क्रियाको करने लग जाते हैं ।।१३६६॥ इन्द्रिय और कषायके तीव्र परिणामके कारण अपने चारित्रको तिनकेके बराबर गिनते हुए अत्यंत हीन वे मुनि कुशील संबंधी क्रियाका आचरण करते हैं ।।१३७०।। कुशोल नामके भष्ट मुनिका कथन समाप्त । कोई मुनि मुक्ति नगरके निकट पहुचकर भी कषाय और इन्द्रिय रूपो चोरोंके द्वारा लुट गयी है चारित्ररूपो संपदा जिनको ऐसे होकर संयमका सन्मान जिनका समाप्त हुआ है वे मिथ्यात्व में ही लौट आते हैं ।। १३७१॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३६६ अनुशिष्टि महाधिकार सतः शीलदरिदास्ते लभंते दुःखमुल्बणम् । बहुभेदपरोवारा निर्धाना हव सर्वदाः ॥१३७२॥ स सिद्धियायिनः सानिर्गतः साधुमार्गतः । स्वच्छंदस्वेच्छमुत्सूत्रं चारित्रं यः प्रकल्पते ॥१३७३॥ पज्जायते यथाछंबो नितरामपि कुर्वतः। वृत्तं न विद्यते तस्य सम्यक्त्वसहचारितः ।।१३७४।। जिनद्रभाषितं तथ्यं कषायाक्षगुरुकृतः । प्रमाणीकुरुते वाक्यं यथाछंदो न दुर्मनाः ॥१३७५।। - [इति स्वच्छवः] कषायेन्द्रियदोषेण वृत्तात् सामान्य योगतः । यः प्रभ्रष्टः परिश्रान्तः स भ्रष्टः साधुसार्थतः ॥१३७६॥ इसप्रकार मिथ्यात्वको प्राप्त हुए वे शील दरिद्री अर्थात प्रत शीलरूपी धन जिनका नष्ट हो चुका है ऐसे वे भूष्ट मुनि संसारके महादुःखको भोगते हैं। जैसे बहुत बड़े परिवार वाले व्यक्ति यदि निर्धन हो तो सर्वदा महादुःखको भोगते हैं ।।१३७२।। मुक्ति मार्गमें चलनेवाले साधुका साथ छोड़कर जो उस मार्ग से निकल जाते हैं वे स्वच्छन्द हो मनमानी आगम विरुद्ध ऐसे आचरणको कल्पना करते हैं ॥१३७३।। जो यथाछंद हो गया है अर्थात् मनचाही प्रवृत्ति कर रहा है और बाहरसे संयमाचरणका दिखावा करता है उसके सम्यक्त्वका साथी ऐसा समोचीन चारित्र नहीं रहता है ।।१३७४।। यथा छंद नामका यह मुष्ट मुनि कषाय और इन्द्रिय के भारसे आक्रांत हुआ खोटे मन वाला होता है वह जिनेन्द्र मगवानके द्वारा प्रतिपादित वास्तविक तत्त्ववाक्य को स्वीकार नहीं करता है ।।१३७५।। ___ स्वच्छंद-यथाछंद नामके भ्रष्ट मुनिका कथन समाप्त । जो कषाय और इन्द्रियके दोषसे सामान्य रूप ध्यान आदिसे एवं चारित्रसे भृष्ट होता है वह अपने आचरणसे परिश्रान्त-च्युत है और साधु सार्थसे भ्रष्ट है अर्थात् साधु समागम छोड़ने वाला है ।।१३७६।। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] मरकण्डिका स्थानानि तानि सर्वाणि कषायाक्षगुरुकृताः । संसक्ताः सकलैर्दोषः केचित् गच्छन्ति दुधियः ॥ १३७७॥ इत्येते साधयः पंच निशिता जिनशासने । प्रत्यनीकक्रियारभाः कषायाक्षगुरुकृताः ॥ १३७८ ॥ दुरंताश्चंचला दुष्टा वृत्तसर्वस्वहारिणः । दुर्जयाः सन्ति जीवानां कषायेन्द्रिय तस्कराः ।। १३७६ ।। छंद - शालिनी छिद्रापेक्षाः सेव्यमाना विभीमा तो पार्श्वस्थाः कस्य कुर्वन्ति दुःखम् । क्रोधाविष्टाः पन्नगा वा द्विजिह्वाः विज्ञायेत्थं क्रूरतो वर्जनीयाः ।। १३८० ॥ छंद-तोटक तृणतुल्यमवेत्य विशिष्टफलं परिमुच्य चरित्रमपास्तमलम् । agrisargatnant निवसन्ति चिरं कुगतावयशाः ।। १३८१ ।। ॥ इति संसक्ता || कोई कुबुद्धि मुनि कषाय और इन्द्रियविषयके तीव्र परिणामके द्वारा निर्मित हुए संपूर्ण अशुभ स्थानोंको प्राप्त होते हैं, इसतरह संपूर्ण दोषोंसे वे युक्त होते हैं ।। १३७७ ।। इसप्रकार ये पांच अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, यथाछंद और संसक्त मुनि जिनशासन में निंदनीय माने जाते हैं, क्योंकि ये सभी साधू पदके विरुद्ध ऐसे आचरणों के करनेवाले होते हैं तथा सदा हो कषाय भाव एवं इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहते हैं ।। १३७८ ।। इन्द्रिय और कषाय रूपी चोर जीवोंके लिये अत्यंत करानेवाले हैं, चंचल हैं, दुष्ट हैं और चारित्र रूपी धनका हैं ।। १३७६ ।। ये पार्श्वस्थादि भ्रष्ट मुनि छिद्र - दोषोंको ढूंढनेवाले हैं, भयानक हैं, जो इनकी संगति करता है उनमें किसको दुःख नहीं देते ? सबको दुःख देते हैं ये मुनि तो क्रोधित सर्पके समान या दुमुहोके समान हैं ऐसा जानकर दूरसे छोड़ने योग्य हैं ।। १३५० ।। विशिष्ट फलदायक ऐसे निर्दोष चारित्रको तिनके के समान गिनकर ये भ्रष्ट मुनि उसको छोड़ देते हैं और बहुत बड़े दोषोंके कारण स्वरूप कषाय और इन्द्रियोंके दुर्जय हैं, ये खोटा अंत अपहरण करने वाले Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार कश्चिद्दक्षामुपेतोऽपि कषायाक्षं निषेवते । तैलमागुरवं बस्तः प्रतिवाति पिवन्नपि ।। १३८२ ॥ मुक्त्वापि कश्चन ग्रंथं कषायाक्षं न मुंचति । हित्वापि कंचुकं सर्पों विजहाति विषं नहि ।। १३८३॥ दीक्षितोप्यधमः कश्चित्कषायाक्षं चिकीर्षति । शुकरः शोभनैः रत्नैर्मलं तृप्तोऽपि कांक्षति ।। १३८४ ।। [ ४० १ आधीन होते हैं इसतरह खोटे भावके परवा हुए कुमतिमें चिरकाल तक निवास करते हैं ।११३८१ ।। कोई साधु जिनदीक्षा को धारण करके भी कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करता है, ठीक ही है । देखो ! अगुरु चंदनका अत्यंत सुगंधित तेलको पीता हुआ भो बकरा दुर्गंधको हो छोड़ता है । अर्थात् जैसे बकरा सुगंधित तेल पी लेवे तो भी दुर्गंधीको हो छोड़ता है-उसके शरीरसे दुर्गंध ही आती है, वैसे कोई दीक्षा रूपी सुगंधि से संयुक्त होकर भी कषाय और इन्द्रियविषयरूपी दुर्गंधका ही सेवन करता है, उस दुर्गंध को नहीं छोड़ता ।। १३८२ ।। कोई पुरुष परिग्रहका त्याग करके भी कषाय और पंचेन्द्रियोंके विषयोंको नहीं छोड़ पाता, जैसे कि सर्प कांचलो को छोड़ देता है किन्तु विषको नहीं छोड़ता ।। १३८३ ।। कोई नीच व्यक्ति दीक्षित होकर भी कषायभाव इन्द्रिय भोगोंकी इच्छा करता है वह पुरुष वैसा है जैसा कि शूकर सुन्दर रत्न - उत्कृष्ट भोजन द्वारा तृप्त होनेपर भी मलको इच्छा करता है ||१३८४ ।। भाव यह है कि शूकर को हमेशा विष्ठा भक्षण का अभ्यास रहता है वह कदाचित् अच्छे पदार्थ को खाकर तृप्त भी हुआ हो तो विष्ठा को देखकर उसको खाने की इच्छा करता है, खाता है, खानेके लिये दौड़ता है, वैसे गृहस्थ अवस्था में रागद्वेष मत्सर आदि भाव एवं मनोहर भोजन वस्त्र आदि का सेवन करने का अभ्यास रहता है अतः दीक्षित होनेपर भी कदाचित् कोई अधम व्यक्ति उन्हीं कषाय और विषयों को चाहता है । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.२ ] मरकण्डिका विहाय हरिणो यूथं व्याधभीतः पलायितः । स्वयं पुनर्यथा याति वागुरां पूयतृष्णया ।।१३८५ ॥ प्रारामे विचरन्स्वेच्छं पतश्री पंजरच्युतः । यथा याति पुनर्मूढः पंजरं नोडतृष्णया ।।१३८६ ॥ उसारितः करींद्र ेण पंकतः कलभो यथा । स्वयमेव पुनः पंकं प्रयाति जलतृष्णया ।। १३८७ || उड्डीय शाखिनः पक्षी सर्वतो बन्हवेष्टितात् । तत्रैव नोडलोभेन यथा याति पुनः स्वयम् ॥ ११३८८ ।। व्यमानोऽहिना सुप्तो जाग्रतोत्थापितो यथा । कौतुकेन तमादातु कश्चिदिच्छति मूढधीः ।। १३८६ ।। स्वयमेवानं वतिं निर्लज्जो निर्घुणाशय: 1 सारमेयो यथाश्नाति कृपणोऽशनतृष्णया ।। १३६० ।। अब आगे यह बतलाते हैं कि जो कोई पुरुष गुरुके उपदेश से या स्वयं के भावसे संसार भोग धन परिवार रागभाव आदिका त्याग करके पुन: उन्हीं धन भोग कषाय आदिको चाहता है उनका सेवन करता है वह पुरुष कैसा है जैसे कोई हिरण शिकारीके भयसे अपने झुंडको छोड़कर भाग जाता है और पुनः अपने उसी झूडको पाने की तृष्णासे शिकारोके जाल में स्वयं फँसता है ।। १३८५ ।। जैसे कोई पक्षो पिंजरे से छूटकर उद्यान में स्वच्छंद उड़ रहा है और घोंसले में रहने की इच्छा करता हुआ वह मूढ उसी पिंजरे में पुनः आकर फँस जाता है ।। १३८६ ।। जैसे हाथो का बच्चा कीचड़ में फँसा था उसको हाथोने कीचड़ से निकाल लिया है किन्तु जल पोनेकी वांछासे पुन: स्वयं कीचड़ में जाकर फँसता है ।। १३८७।। जैसे कोई पक्षी चारों ओरसे जिसमें अग्नि लगी है ऐसे वृक्षसे उड़कर घोसले के लोभसे पुनः उसी वृक्षपर स्वयं आजाता है ।।१३८८ ।। जैसे कोई मूढ बुद्धि पुरुष है वह सो रहा था उसको सर्प लांघ रहा था उस वक्त किसीने उसको जगाकर उठा दिया किन्तु वह कौतुक से उस सर्पको पकड़ना चाहता है ।।१३६९ || जैसे कोई निर्लज्ज और ग्लानिरहित कृपण और कुत्ता स्वयंसे वमन किये गये भोजनको भोजनकी लालसा से खाता है ।।१३९०।। वैसे Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्ट महाधिकार गृहवासं तथा स्यवत्वा कश्चिद्दोषशताकुलं । कषायेन्द्रियदोषार्ती याति तं भोगतृष्णया ।। १३६१ ।। बंधमुक्तः पुनबंधं निश्चितं स वियासति । यो दीक्षितः कषायाक्षान्सिषेवयिषेत कुधीः ||१३६२ ॥ [ ४०३ ही कोई पुरुष सैकड़ों दोषोंसे भरे हुए गृहवासको छोड़कर कषाय और इन्द्रियविषयसे पीड़ित हुआ भोगोंको लालसासे पुनः उसी गृहवासको प्राप्त करता है । अर्थात् गृह परिग्रह आदिका त्यागकर पुनः उसीको चाहने लगता है, ग्रहण करता है, गृहीत चारित्रसे भ्रष्ट हो जाता है ।। १३९१।। विशेषार्थं - यहां पर आचार्यने गृहवासको सैकड़ों दोषोंसे युक्त कहा है, सो उन दोषोंका कुछ वर्णन करते हैं गृहवास का है, इसका भावका अधिष्ठान है भाशा रूपी पिशाचोके आधीनता गृहवासमें अवश्य होती है अर्थात् यह मिल जाय अमुक कार्य हो जाय इसप्रकार की आशायें घर में रहनेवाले गृहस्थ को होती ही रहती है । जीवनयापनके लिये सतत् कृषि व्यापार आदि करते रहने से क्लेश होता है । पृथिवीकायिक आदि षटुकाय जीवोंको विराधना होनेसे महान् पाप संचय होता है । दुर्यशसे अर्थात् परिवार में कोई दुराचार आदि करे तो उससे दुर्यश होता है अतः गृहावास मलिनताका कारण है । विपत्तियां सदा गृहीको घेरी रहती है । इसका उपकार करना और इसका नहीं इसतरह सदा वित्त में अहंकार भाव बना रहता है घनका उपार्जन, रक्षण और व्ययमें लगे रहने से सार असारका विचार करनेकी बुद्धि गृहस्थके प्रायः नष्ट हो जाती है । प्रिय वियोग और अप्रियका संयोग होता रहनेसे शोकाग्निको ज्वालासे वह तप्तायमान रहता है । इच्छित पदार्थ की प्राप्ति के अभाव में दुःख संताप होता है । इसीप्रकार अन्य अन्य बहुत से दोष जो वचनके अगोचर हैं वे गृहावास में हुआ करते हैं । जो साधु दीक्षित होकर भी कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करने की इच्छा करता है वह दुर्बुद्धि निश्चित हो, बंधन मुक्त होकर पुनः बंधन में पड़ना चाहता है ऐसा मानना चाहिये ।। १३६२ ।। यदि साधु दीक्षित होकर भी कषाय और इन्द्रिय विषयरूपी कलहको चाहता है तो समझना चाहिये कि वह कलहका त्यागकर पुनः उसी कलहको स्वीकार करता Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] मरणकण्डिका वीक्षित्वापि पुनः साधुः कषायाक्षकलि यदि । जिघृक्षति कलि मुक्त्वा पुनः स्वीकुरुते कलिम् ॥१३६३॥ विषाय ज्वलितं हस्ते मुर्मुरं स बुभुक्षते । माथि रु कृष्ताहि व्याघ्र स्पृशति सक्षुषं ॥१३९४।। कंठालग्नशिलोऽगाधं सोऽज्ञानो माहते हृदम् । अबलो वापि यो दीक्षा कवायाक्षं प्रपद्यते ॥१३६५॥ गृहोतोऽक्षग्रहाघ्रातो नापरो ग्रहपीडितः । अक्षयः स सदा दोषं विदधाति कवाग्रहः ।।१३९६॥ कषायमत्त उन्मत्तः पिसोन्मत्तोऽपि नो पुनः । प्रथमः कुरुते पापं द्वितीयो न तथा स्फुटम् ॥१३९७॥ कषायाक्षपिशाचेन पिशाचोक्कियते जनः । जनानां प्रेक्षणीभूतस्तोत्रपापक्रियोद्यतः ॥१३९॥ है क्योंकि कषाय और इन्द्रिय विषयोंके कारण हो जगत् में कलह हुआ करते हैं ॥१३६३॥ जो साधु दीक्षित होकर कषाय और इन्द्रिय विषयरूप परिणामको स्वीकार करता है वह जलते अंगारेको हाथमें लेकर खानेको इच्छा करता है अथवा काले नाग को लांघता है या भूखे व्याघका स्पर्श करता है ।।१३९४|| जैसे कोई अज्ञानी कंठमें शिलाको बांधकर अगाध सरोवरमें प्रवेश करता है, वैसे जो निर्बल दीक्षाको लेकर पुन: इन्द्रिय और कषायको अधीनताको प्राप्त करता है ।।१३६५।। जो इन्द्रियरूपी ग्रहसे पीड़ित है वास्तवमें वही ग्रह (शनि प्रादि) से पीड़ित है ऐसा समझना चाहिये, दूसरा कोई ग्रह पीड़ित नहीं है क्योंकि इन्द्रिय रूपो ग्रह सतत् भव-भवमें दोषको करता है, शनि आदि ग्रह कदाचित् ही दोष करते हैं ।।१३६६।। जो कषायोंसे मत्त हो रहा है वही व्यक्ति वास्तवमें उन्मत्त (पागल) है, पित्त से उन्मत्त हुएको उन्मत्त नहीं मानना चाहिये क्योंकि जो कषायसे उन्मत्त है वही पाप करता है जो पित्त ज्वरसे उन्मत्त है वह पाप नहीं करता है ।।१३६७। कषाय और इन्द्रियरूपी पिशाच द्वारा यह मनुष्य पिशाचरूप हो किया जाता है । पिशाच तो अदृश्य होकर कुचेष्टा कराता है और कषाय इन्द्रियरूपी पिशाच Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०५ अनुशिष्टि महाधिकार संयतस्य कुलीनस्य योगिनो मरणं परम् । लोकद्वयसुखध्वंसि न कषायाक्षपोषणम् ॥१३६६॥ निद्यसे संयतः सर्वः कषायाक्षवशंगतः । सन्मद्धो धृतकोदंडो नश्यन्निव रणांगणे ॥१४००॥ कषायाक्षवशस्थायी दूष्यते कैर्न संयतः । याचमाती पथा भिधा भूचितो 'मुयुधानिभिः ।।१४०१।। सर्वागीणमलालोढो नग्नो मुंडो महातपाः। जायते सकषायाक्षश्चित्रश्रमणसन्निभः ॥१४०२॥ जिसको लगा है वह लोगोंके देखने योग्य कुचेष्टा-तोत्र पाप क्रिया को करता है ।।१३६८।। जो कुलवान संयमी साधु है उसको मरण स्वीकार करना श्रेष्ठ है किन्तु इस लोक और परलोकके सुखका नाश करनेवाले कषाय और इन्द्रियोंका पोषण उसे कभी नहीं करना चाहिये ||१३६६।। जो साधु इन्द्रिय और कषायोंके वश में हो गया है वह सभीके द्वारा निंदनीय हो जाता है, जैसे कोई भट हाथ में धनुष लेकर युद्ध के लिये तैयार हुआ है और रणांगण में पहुंचकर भागने लगता है तो वह सभीके द्वारा निंदनीय होता है ।।१४०० ।। कषाय और इन्द्रियोंके वश में रहनेवाला संग्रमी किनके द्वारा दूषित नहीं होता ? सबके द्वारा दूषित होता है । जिसप्रकार कि मुकुटहार आदि आभूषणोंसे भूषित-सजा हुआ पुरुष भिक्षाको मांगने लगे तो सबके द्वारा दूषित होता है, सबकी हँसोका पात्र होता है। वैसे कषायके अधीन हुआ साधु हँसीका पात्र है निंद्य है ।।१४०१।। ___ अस्नान व्रतके कारण जिसके सर्वागमें मल लिप्त है वस्त्रमात्रका त्याग होनेसे नग्न है, केश-लोच करनेसे मुंड है, अनशन आदि महातपको करता है ऐसा साधु भी कषाय और इन्द्रिय विषय युक्त होनेसे चित्रामके साधुके समान तुच्छ-गुण रहित ही माना जाता है अर्थात् जैसे चित्रामका मुनि वास्तविक मुनि नहीं है वैसे कषाय आदिसे युक्त मुनि वास्तविक मुनि नहीं है ।।१४०२।। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] मरकण्डिका ज्ञानवोषविनाशाय कषायेंद्रियनिर्जयः । शस्त्रं शत्रुविघाताय जायते सत्वसंभवे ।। १४०३ ॥ वोपाय जायते ज्ञानं कषायेंद्रियदूषितम् । आहारो हरसे कि न जीवितं विषमिश्रितम् ।।१४०४ ।। विदधाति गुणं ज्ञानं कषायेंद्रियजतम् । पुर्योग्यं करोत्यन्तं बलवर्णादिसु वरम् ।।१४०५ ।। कषायेंद्रियदोषेण ज्ञानं नाशयते गुणं । शस्त्रमात्मविनाशाय किन्न भोरुकरस्थितम् ॥ १४०६ ॥ शास्त्रज्ञोऽप्ययमन्यते । कषायेंद्रिय दोषार्तः कि प्रेतः शस्त्रहस्तोऽपि न खर्गः परिभूयते ॥ १४०७ ॥ कषाय और इन्द्रियोंके विषय जीतनेपर ज्ञान दोषों का नाश करने में ( कमौका नाश करनेमें) समर्थ होता है, जैसे सत्व- धैर्य होनेपर ही शस्त्र, तलवार, घनुष आदि शत्रुका नाश करने में समर्थ होते हैं ।। १४०३ ।। जो ज्ञान कषाय और इन्द्रियोंसे दूषित है वह दोषोंके लिये कारण बनता ( कर्म बंधरूप दोषका कारण) है, क्या विष मिश्रित माहार जीवनका नाश नहीं करता ? करता ही है । इसीप्रकार कषाय आदिसे युक्त ज्ञान दोषका ही कारण है । आहार यद्यपि जीवनका मुख्य साधन है किन्तु विषयुक्त आहार जीवन के विपरीत मरण का कारण होता है, वैसे ज्ञान गुणका कारण है उपकारक है किन्तु कषायादिसे युक्त होकर उल्टे दोषोंका कारण होता है ।११४०४ | कषाय और इन्द्रियोंसे रहित जो ज्ञान है वह गुणको करता है, जैसे योग्य आहार अर्थात् विषादिसे रहित आहार शरीरको बल, रूप, लावण्य ग्रादिसे युक्त करता है ।। १४०५ ।। कषाय और इन्द्रियोंके दोषसे ज्ञान गुणको नष्ट कर डालता है। ठोक हो हैं डरपोक आदमीके हाथ में आया हुआ शस्त्र क्या खुदके नाशके लिये नहीं होता ? होता ही है ।।१४०६ ।। कषाय और इन्द्रियोंके दोषसे युक्त पुरुष शास्त्रोंका अच्छी तरहसे जाननेवाला हो तो भी लोगों द्वारा अवमान्य- तिरस्कृत होता है, शस्त्रयुक्त भी शव हो तो Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४.७ अनुशिष्टि महाधिकार वृत्ते नाक्षकषायातः श्रुतशोऽपि प्रवर्तते । उड्नीयते कुत: पक्षी लूनपक्षः कदाचन ॥१४०८।। नसते बह्वपि ज्ञानं कषायेंद्रियदूषितम् । सशर्करमपि क्षीरं सविषं मंक्षु नश्यति ॥१४०६॥ ज्ञानं परोपकाराय कषायेंद्रिय वषितम् । किमूढमुपकाराय रासभस्य हि चंदनम् ॥१४१०॥ कषायाक्षगहीतस्य न विज्ञानं प्रकाशते । निमीलितेक्षणस्येव दीपः प्रज्वलितो निशि ॥१४११॥ क्या वह गीध आदि पक्षियों द्वारा तिरस्कृत नहीं होता है ? अर्थात् कोई शव-मुर्दा है और उसके हाथ में तलवार है किन्तु उस तलवारसे पक्षी नहीं डरते हैं उसको खाते ही हैं, वैसे कोई शास्त्रज्ञ तो है किन्तु कषाय और इन्द्रियों के आधीन है तो उसे कोई नहीं मानता है ।।१४०७।। इन्द्रिय और कषायसे पीड़ित पुरुष शास्त्रज्ञ होकर भी चारित्रमें प्रवृत्ति नहीं करता । ठीक है ! जिसके पंख कटे हैं ऐसा पक्षी क्या कभी आकाशमें उड़ सकता है ? ॥१४०८।। बहुत सारा ज्ञान है किन्तु वह कषाय और इन्द्रियोंसे दणित है तो नष्ट हो जाता है, जैसे मिश्री सहित भी दूध है किन्तु विष मिश्रित है तो वह शीघ्र ही नष्ट होता है ।।१४०९॥ कषाय और इन्द्रियोंसे दूषित हुआ ज्ञान केवल परोपकारके लिये है, जैसे गधे के द्वारा ढोया गया चंदन खुदके उपकारके लिये होता है क्या? नहीं होता। अर्थात गधा चंदनका भार ढोता है तो उसको चंदनकी सुगंधिका ज्ञान नहीं होनेसे खुदको कुछ भी लाभ नहीं है । उसीप्रकार बहुत से शास्त्रोंका ज्ञान है किन्तु कषायादिसे युक्त है वह ज्ञान अपने खुद आत्माके लिये कुछ भी हितकारी नहीं है, उस ज्ञान से अन्य व्यक्ति भले ही कुछ आत्म बोध कर लेवे किन्तु कषाय होनेसे खुदका हित नहीं हो पाता ।। १४१०॥ कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंसे युक्त पुरुषका ज्ञान पदार्थोके स्वरूपको प्रकाशित नहीं करता, जैसे रात्रि में दीपक जल रहा है किन्तु जिसने नेत्र बंद कर रखे हैं. उसको वह पदार्थोंको दिखाने में समर्थ नहीं होता है ।।१४११।। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] मरणकण्डिका बहिनिभृतवेषेण गीते विषयान्सवा । अंतरमलिनः कंको मोनानिय बुराशयः ।।१४१२॥ घोटकोच्चारतुल्यस्य किमन्तः कुपितास्मनः । बुष्टस्य बकचेष्टस्य करिष्यति बहिः क्रिया ॥१४१३॥ मता बहिः क्रियाशुद्धिरन्तमलविशुद्धये । बहिर्मलक्षयेनैव तंबुलोऽन्तविंशोध्यते ॥१४१४॥ अंतः शुद्धो बहिः शुद्धिनिश्चिता जायते यतः । बाह्य हि कुरुते दोषमन्तर्दोषं विना कुतः ॥१४१५॥ कषाय और इन्द्रियके वश हुमा साधु बाहर में नग्न दिगंबर वेशयक्त होता है किन्तु उसका बह वेग छलभरा है, उस छल वेष द्वारा वह सदा विषयोंको ग्रहण करता है। वह अंदरमें तो कषायसे मलिन है । जैसे अगला नाहरसे एफेद है किन्तु अंदरमें मलिन खाटे अभिप्राय युक्त हो मछलियोंको ग्रहण करता है-खाता है ॥१४१२।। जैसे घोड़े को लीद बाहरसे चिकनी और अंदर गंदी सड़ी रहती है, उससे क्या लाभ ! वैसे जो साधु दुष्ट और बगुलेके समान चेष्टा करता है उसकी बाहरी प्रतिक्रमण आदि क्रियायें क्या करेगी ? कुछ भी नही । भाव यह है कि बगुला बाहर में सफेद है किन्तु मछलो खाता है वैसे कोई साधु बाहर में कुछ क्रियायें प्रतिक्रमण आदिको करे किन्तु कषायादिसे अंदरमें मलिन है तो उसकी वह क्रिया कुछ भी कार्यकारी नहीं है ।।१४१३। अंतरंग मलको विशुद्धिके लिये बाह्य क्रियाशुद्धि उपयोगी मानी जाती है । किन्तु केवल बाह्य क्रिया शुद्धिसे कार्य नहीं होता जैसे चावलका केवल बाहर का छिलका निकल जाय तो उत्तने मासे यह शुद्ध नहीं माना जाता । अर्थात् चावलकी शूद्धि करने के लिये बाह्य तुष और अंदरकी ललाई दोनों निकालने होते हैं । उसमें क्रम यह है कि पहले बाह्य तुण निकालते हैं और फिर अंदरकी लालिमा निकालते हैं । ऐसे ही साधुओंको बाह्य क्रिया शुद्धि अनशन आदि है और अंतरंग शुद्धि विनयादि एवं कषायरहित भाव प्रादि हैं । क्रमसे प्रथम बाह्य क्रिया शुद्धि होती है पुनः अंतरंग शुद्धि । यदि अंतरंगकी शूद्धि नहीं है तो बाह्य क्रिया शुद्धि व्यर्थ है ।।१४१४।। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ४०६ बहिः शुद्धिर्यतो नियताः सर यते । नांतः कोपविमुक्तन भृकुटि: क्रियते बहिः ।।१४१६।। छंद-इन्द्रवत्रायत्र प्रयान्ति स्थिति जन्मपद्धोस्तद्दह्यते यह दयं कषायः। काष्ठं हुतार्शरिव तीवतापस्ते कस्य कुर्वन्ति न दुःखमुनम् ॥१४१७।। छंद-शालिनीयो पोष्यंते दुःखानप्रवीणास्तेषां पीडां ये वदन्ते दुरन्ताम् । भीमाकारा ध्याधयो वा प्रवाः संत्यक्षाः कस्य ते न क्षयाय ॥१४१८॥ ॥ इति सामान्याक्ष कषाय दोषाः ।। ये रामाकामभोगानां प्रपंचेन निरूपिताः । प्रक्षाणामपि ते दोषा द्रष्टव्याः सकलाः स्फुटम् ॥१४१६।। अंतरंग शुद्धि होनेपर नियमसे बाह्य शुद्धि होती है क्योंकि भीतरमें दोष हुए बिना बाहरमें दोष कहांसे करेगा ? अर्थात् अंदरमें कषायभाव होगा तो बाहर में असत्य भाषण आदि दोष करेगा अन्यथा नहीं । इसलिये अंतरंग परिणाम निर्मल करना चाहिये ॥१४१५॥ क्योंकि अंदरकी शुद्धिको पहिचान बाह्य शुद्धि है जो अंतरंगमें कोपसे रहित है वह पुरुष बाहर में भौंह टेढ़ी नहीं करता है ।।१४१६॥ जहांपर संसारकी स्थिति और जन्मकी वृद्धि होती है, जिन कषायोंके द्वारा हृदय ऐसा संतप्त किया जाता है जैसे कि तीन ताप वाले अग्नि के द्वारा काष्ट संतप्त किया जाता है । ऐसी ये कषायें किसको भयंकर दुःख नहीं देती ? सबको ही दुःख कारक है ।।१४१७।। दुःख देने में प्रवीण ऐसे अशुभ कर्म जिनके द्वारा पुष्ट किये जाते हैं, उन अशुभ कर्मको करनेवाले व्यक्तियोंको जो दुरंत पीड़ा पहुंचाते हैं । जो उत्पन्न हुए भयंकर रोगों के समान हैं वे इन्द्रियों के विषय किसका नाश नहीं करते? सबका नाश करते हैं ॥१४१८।। जो पहले स्त्री और काम भोगोंके दोष कहे हैं वे सब ही दोष इन्द्रियोंके विषयों में होते हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये ।।१४१६ ।। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ] मरकण्डिका मधुलिप्तामसेर्घारा तीक्ष्णां लेढि स मूढधीः । इंद्रियार्थं सुखं भुक्ते यो लोकद्वयदुःखदं ||१४२० ॥ यथाक्रमम् रूपशब्द रसस्पर्शगंधा सक्ता पतंग मृगमीने भभ्रमराः प्रलयं 1 ।। १४२१।। गताः रूपशब्वरसस्पर्श गंधानां यदि हन्यते । एकैकेन तदा कस्य सौख्यं पंच निषेविणाम् ॥ १४२२॥ इसप्रकार सामान्य रूपसे इन्द्रिय और कषायोंके दोष कहे हैं । अब विशेष रूप से इन्द्रियके दोष दस श्लोकों द्वारा कहते हैं- वह मूर्खबुद्धि तलवार की शहद लिपटी पैनीधारको चाटता है जो कि इस लोक और परलोकमें दुःखदायी ऐसे इन्द्रियोंके विषयोंको सुख मानकर भोगता है। शहद लिपटी तलवारको चाटनेवाला जैसे तत्काल किंचित मीठेका सुख अनुभव करता है किन्तु जीभ कटनेपर महादुःख ही पाता है वैसे इन्द्रियोंके भोग किंचित् सुखकर प्रतीत होते हैं किन्तु वे उभयलोक में दुःखदायी ही होते हैं ।। १४२०॥ दोषकका चमकीला रूप देखने में आसक्त पतंग जलकर नष्ट होता है इसीप्रकार यथाक्रमसे शब्द, रस, स्पर्श और गंध में आसक्त हुए मृग, मीन, हाथी और भ्रमर ये नाशको प्राप्त होते हैं ।। १४२१ ॥ भावार्थ-व्याधके बांसुरीका मधुर शब्द सुनकर हिरण उसके जाल में फंसकर नष्ट होते है । वोरके जाल में लगे हुए खाद्य में आसक्त हुई मछलियां उसी जाल में फंसकर मर जाती हैं। सल्लको वनमें स्वच्छंद विचरण करनेवाला हाथी नकली हथिनी का स्पर्श करनेका इच्छुक होता हुआ गर्त्तमें गिरकर भूख-प्यास आदिका महादुःख भोगता हुआ नकली हथिनीको बनानेवाले व्यक्तिके वशमें आ जाता है । कमलकी सुगंधिमें आसक्त भ्रमर उसी कमलमें बंद होकर मर जाता है । जब रूप, शब्द, रस, स्पर्श और गंध इन पांच विषयों में से एक-एक विषयका सेवन करने से ये पतंग आदि प्राणी नष्ट हो जाते हैं तो फिर पांचों ही इन्द्रिय विषयोंका सेवन करने वालोंको कौनसा सुख होगा ? अर्थात् उन जोवोंको सुख अल्प भी नहीं होगा उल्टे महादुःख ही होता है ।। १४२२ । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार सरच्यां गंधमित्राख्यो घ्राणेंद्रियवशं गतः । विषप्रसूनमानाय विपद्य नरकं गतः ॥१४२३॥ पुनिता पारतीने यन्मारगीतिः । मता गंधर्वसापि प्रासादापतिता सती ॥१४२४॥ गंधमित्र नामका राजा एक घ्राणेन्द्रिय मात्रके वश में होकर विष्णैले पुष्पको सूचकर सरयू नदी में मरकर नरक में गया था ।।१४२३।। गंधमित्र की कथाअयोध्याके नरेश विजयसेनके दो पुत्र थे, जयसेन और गंधमित्र | एक दिन राजाने बड़े पुत्र जयसेनको राजा एवं छोटे पुत्रको युवराजका पद दिया और स्वयं मुनि दीक्षा लेकर बनमें चले गये । गंधमित्रको युवराजपद अच्छा नहीं लगा, उस अन्यायीने अनेक कूटनीति द्वारा जय सेनको राज्यसे च्युत कर दिया। इससे जयसेन भी कुपित हुआ और गंधमित्रको मारने का विचार करने लगा। गंधमित्र विविध प्रकारके फूलोंको सूचने में सदा आसक्त रहता था । एक दिन रानियों के साथ वह सरयू नदीमें जलक्रीड़ा कर रहा था । जयसेनने मौका पाकर नदो के प्रवाहमें ऊपरकी ओरसे भयंकर विष जिनमें छिड़का गया है ऐसे फलोंको छोड़ दिया। गंधमित्रने उन फलोंको सूघा, उससे वह तत्काल प्राण रहित हुआ और घ्राणेन्द्रिय के विषय सुगंधिको आसक्तिके कारण नरकगतिमें उत्पन्न हुआ। इसप्रकार एक घ्राणेन्द्रियके विषयके दोषसे राजा महादुःखको प्राप्त हुआ था। ___कथा समाप्त । पाटलीपुत्र नगरीमें पंचाल नामके गायनाचार्य के मधुर गोतसे मोहित हुई गंधर्वदत्ता नामको स्त्री महल से गिरकर मर गयी थी ।।१४२४।। गंधर्वदत्ता को कथापाटलीपुत्रके नरेशकी गंधर्वदत्ता नामकी अनिद्य सुदरी राजकन्या थी वह मान विद्या महानिपुण थो उसने प्रतिज्ञा की कि जो मुझे गायन कलामें जीतेगा उसे मैं वरूगो । बहुत से राजकुमार उसकी सुदरतासे आकृष्ट होकर आये किन्तु कोई उस कन्याको जोत नहीं सका । एक दिन बहुत दूर देशसे एक गान विद्याका पंडित पंचाल Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ मराकण्डिका मर्त्यमांसरसासक्तः कांपिल्यनगराधिपः । राज्यभ्रष्टोमृतःप्राप्तो भीमः श्वभ्रमुरुव्यथाम् ॥१४२५।। नामका संगीताचार्य अपने पांचसौ शिष्योंके साथ उस नगरीमें आया। राजकन्याकी प्रतिज्ञासे वह परिचित हुआ। उसने राजासे कहा कि आपकी कन्या गान विद्या में चतुर है मैं भी इस विद्यासे परिचित हूं। मैं आपकी पुत्रीका गीत-संगीत सुनने का इच्छुक हूँ। इसतरहकी युक्तिसे उसने गंधर्वदत्ताके महलके पास अपना निवास स्थान प्राप्त किया । मध्य रात्रिके अनंतर शांत वातावरणमें वीणाके झंकारके साथ उसने सुमधुर गान प्रारंभ किया । गंधर्वदत्ता गहरी नींदमें सो रही थी, धीरे-धीरे उसके कर्ण प्रदेश में संगीतको लहरियां पहुंची और सहसा वह उठी । संगीतकी ध्वनिने उसको ऐसा आकृष्ट किया कि यह वेभान हो जिधरसे वह मधुर शब्द आरहा था, उधर दौड़कर जाने लगी और उसका पर चूक जानेसे महलसे गिरकर मृत्युको प्राप्त हुई । गंधर्षदत्ता को कथा समाप्त । कांपिल्य नगरका राजा भोम मनुष्य के मांसरसका भक्षक बनकर राज्यसे भ्रष्ट हुआ और मरकर नरकको महा वेदनाको प्राप्त हुआ था ॥१४२५।। भोम राजाकी कथाकांपिल्य नगरका शासक राजा भीम था वह दुर्बुद्धि मांस भक्षी होगया। नंदीश्वर पर्वमें उसे मांसका भोजन नहीं मिला तो उसने रसोइयेको कहा कि कहींसे मांस लाओ। रसोइया इधर-उधर खोजकर जब मांसको नहीं प्राप्त कर सका तो श्मशानसे मरे बालकको लाकर उसका मांस राजाको खिलाया । राजा तबसे नरमांसका लोलपी होगया । रसोइया उसके लिये गली-गलो में घूमकर छोटे-छोटे बच्चोंको कुछ मिठाई देकर इकट्ठा करता और छलसे एक बालकको पकड़कर मार देता था और उसका मांस राजाको खिलाता । नगरमें चंद दिनों बाद इस कुकृत्यका भंडाफोड़ हुआ और नागरिकोंने राजा तथा रसोइयेको देशसे निकाल दिया। दोनों पापो जंगल में घूमने लगे। राजाने भूखसे पीड़ित हो रसोईयेको मारकर खा लिया । अंत में वह पापी नरभक्षक वासुदेव द्वारा मारा गया और अपने पापका फल भोगनेके लिये नरकमें पहुंचा। कथा समाप्त । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१३ अनुशिष्टि महाधिकार सुवेगस्तस्करी दोनो रामारूपविषक्तयोः । बाणविद्ध क्षरणो मृत्वा प्रपेवे नारकों पुरीम् ॥१४२६॥ सुवेग नामका चोर स्त्रियोंके मनोहर रूप देखने में आसक्त होकर बाणोंसे विद्ध होकर मर गया और नारक पुरीको प्राप्त हुआ था ।।१४२६।। सुवेग चोरकी कथामहिल नामके नगर में एक भतृ मित्र नामका श्रेष्ठो पुत्र रहता था, उसको पत्नी का नाम देवदत्ता था । वसंत ऋतुका समय था सेठ भर्तृ मित्र अपने अनेक मित्रोंके साथ वसंतोत्सवके लिये बनमें गया था। वहांपर वसंतसेन नामके मित्रने बाण द्वारा आम्र मंजरीको तोड़कर अपनी पत्नीके कर्णाभूषण पहनाये उसे देखकर देवदत्ताने अपने पति भर्तृ मित्रसे कहा-हे प्राणनाथ ! आप भी बाण द्वारा मंजरी तोड़कर मुझे दीजिये । भर्तृ मित्रको बाण विद्या नहीं आती थी अतः वह उसे मंजरी नहीं दे सका उसे बहुत लज्जा आयो । भर्तृ मित्रने मन में निश्चय किया कि मुझे बाण विद्या अवश्य सोखनी है । मेघपुर नामके नगरमें धनुर्विद्याका पंडित रहता था, उसके पास जाकर भर्तृ मित्रने बहुतसे रन देकर तथा उसको सेवा करके बाण विद्यामें अत्यंत निपुणता प्राप्त की । पुनश्च उस नगरके राजाको कन्या मेघमालाको चंद्रक वेद्य प्रणमें जीतकर उसके साथ विवाह किया। दोनों सुखपूर्वक रहने लगे। किसी दिन भरी मित्रके घरसे समाचार आनेसे उसने राजासे विदा लो । राज वैभवके साथ रथमें सवार हो मेघमाला एवं भर्तृ मित्र महिल नगरको ओर जा रहे थे। रास्तेमें बनमें भोलोंको पल्ली आयी । वनमें आगत पथिकोंको लूटना ही उन भोलोंका काम था उनका सरदार सुवेग नामका था । सुवेग मेघमालाका मनोहर रूप देखकर मोहित हुआ और उसका अपहरण करने के लिये युद्ध करने लगा । मेघमाला उसका मन युद्धसे विचलित करने के लिये उसको तरफ जाने लगो। सुवेग उसके रूपको देखने लगा इतने में भर्तृ मित्रने बाण द्वारा उसके दोनों नेत्र नष्ट कर दिये उससे सुवेग घायल हो मृत्युको प्राप्त हुआ । भत मित्र मेघमालाके साथ निर्विघ्नरूपसे अपने नगर में पहुंच गया । इस प्रकार सुवेग नेत्रेन्द्रियके विषयमें आसक्त होकर मृत्युको प्राप्त हुआ। कथा समाप्त । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ ] मरणकण्डिका गोपासक्ता सुतं हत्वा नासिक्यनगरे मृता । पापा गृहपतेर्भार्या दुहित्रा मारिता सती ।। १४२७ ॥ छंद - रथोद्धता दु:खदाननिपुणा निषेविताः स्पर्शरूपरसगंधनिस्वनाः । दुर्जना इव विमोह्य मानवं योजयंति कुपथे प्रथीयसि ।। १४२८ ॥ नासिक्य नगर में एक सेठको पापी पत्नी ग्वालेमें आसक्त थी उसने अपने पाप को छिपाने के लिये पुत्रको मारा, इस कृत्य से कुपित हुई खुदको पुत्री द्वारा स्वयं भो मारी गयी ।। १४२७ ॥ गोपमें आसक्त नागदत्ताकी कथा -- नासिक्य नगर में सागरदत्त सेठकी सेठानी नागदत्ता थी उसके दो संतानें थीं, श्रीकुमार और श्रीषेणा । सेठानी अपनो गायें चरानेवाले नंद नामके ग्वालेपर आसक्त यी । उसने तो परदा डाला पुनः पुत्रको मारनेमें भी उद्यत हुई । पुत्र पहलेसे अपनी माताके कुकृत्य से अत्यंत दुःखी था । उसने माताको बहुत कुछ समझाया भी किन्तु उस पापिनीने उल्टे उसे मारनेका निश्चय और भी दृढ़ किया। किसी दिन वह अपने यार नंदको कह रही थी कि तुम श्रीकुमार पुत्रको मार डालो। इस रहस्यको पुत्री श्रीषेणाने सुना और भाईको सावधान किया। गाय चरानेको एक दिन माताने ग्वालेको न भेजकर पुत्रको भेजा पुत्र समझ गया कि आज धोखा है । वह जंगलमें जाकर अपने वस्त्र एक लकड़ीके ठूंठको पहनाता है और स्वयं छिप जाता है । पीछेसे ग्वाला आकर ठूठ को कुमार समझकर भाला मारता है कि इतने में कुमार उसी भासे नंद ग्वालेको मौत के घाट उतार देता है। घर में आनेपर नागदत्ता पूछती है कि नंद कहाँ है ? पुत्र उत्तर देता है इस बातको तो यह भाला जानता है । नागदत्ता समझ जाती हैं कि अपने यारकी मृत्यु हो चुकी है। क्रोधमें आ वह पापिनो मूसलसे श्रीकुमारका मस्तक फोड़ देतो है । पुत्री श्रीषेणा इतने में आकर उसी मूसलसे नागदत्ता माताको मार देती है इसप्रकार वह पावती परपुरुष आसक्त नागदत्ता स्पर्शनेन्द्रियके विषय में आसक्त होकर सर्व कुटु बका नाशकर नरकगामिनी हुई। कथा समाप्त । जिसप्रकार दुर्जनों की संगति करनेवालेको दुर्जन लोग मोहित करके बड़े भारी खोटे मार्ग- व्यसन आदि में फंसा देते हैं, उसप्रकार दुःख देनेमें निपुण ऐसे सेवन किये Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ४१५ छंद-रथोद्धताअग्निनेव हृषयं प्रदाते मुह्यते नु विषयविक्तितः । तत्कथं विषयवैरिणो जनाः पोषयन्ति भुजगानिबाधमान् ॥१४२६।। इतिइंद्रिय विशेष दोषाः । अरत्यचिचः करालेन श्यामलीकृतविग्रहं । प्रस्विद्यति तुषारेऽपि तापितः कोपलिना ॥१४३०॥ प्रभाष्या भाषते भाषामकृतां कुरुते क्रियाम् । कोपन्याकुलितो जोवो प्रहात इव कम्पते ॥१४३१॥ नो रूप, गम, गोरन्द गनुष्यको बड़े भारी कुगतिके मार्ग में लगा देते हैं। अर्थात् इन रूपादि विषयों में फंसा हुआ प्राणी नरक आदि कुगतिमें जाकर महादुःख भोगता है ।।१४२८।। शक्तिहीन पुरुषका हृदय विषयोंके द्वारा मोहित होता और अतिशय रूपसे जलता है मानो अग्निके द्वारा ही जल रहा हो । ऐसे विषयरूपी बैरियोंको जो कि सर्पके समान अधम-नीच हैं उनको लोग कसे पुष्ट कर सकते हैं ? नहीं कर सकते ||१४२६।। इन्द्रिय दोषोंका वर्णन पूर्ण हुआ। अब कोपके दोष बतलाते हैं अरति रूपी चिनगारियोंसे जो विकराल है ऐसे कोप रूप अग्निके द्वारा जिसका शरीर नीला काला कर दिया गया है एव तपाया गया है ऐसा पुरुष हिमकाल में भी पसीनेसे भोग जाता है अर्थात् जब व्यक्तिको क्रोध आता है उसकी आंखें, मुख आदि लाल काले हो जाते हैं सारा शरीर गुस्से के मारे तप जाता है और उसे पसीना आने लगता है ॥१४३०।। कोपसे व्याकुलित हुआ जीव जो भाषा नहीं बोलनी चाहिये उसको बोलने लगता है, जो कार्य नहीं करना चाहिये उसे करने लगता है और ग्रहसे पोडित हाके समान कांपने लगता है ।।१४३१।। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] मरण कण्डिका freलोकलितालोको रक्तस्तब्धीकृतेक्षणः । तदष्टाधरो कुष्टो जायते राक्षसोपमः ।। १४३२।। श्राददानो यथा लोहं परवाहाय कोपतः । स्वयं प्रवह्यते पूर्वं परवाहे विकल्पनम् || १४३३ ।। विधानस्तथा कोपं परघाताय मूढधीः । स्वयं निहन्यते पूर्वमन्यघातो विकल्प्यते || १४३४ ।। आधारं पुरुषं हत्वा पापः कोपः पलायते । प्रदा जनकं कष्टं वह्निः किं नोपशाम्यति ।। १४३५ ।। शत्रूपकाराद्रोषो यः स्थबंधूनां च शोककृत् । स्थानं कुलं बलं क्रोधं हत्वा नाशयते नरम् ।।१४३६॥ भौहें चढ़ाकर ललाटमें जिसके त्रिबलि पड़ी है ऐसा वह क्रोधी लाल और स्तब्ध कर लिया है नेत्रोंको जिसने ऐसा हुआ दालोंसे ओठोंको चबाने लगता है और इसतरह वह साक्षात् राक्षसके समान दुष्ट बन जाता है ।। १४३२ || जिसप्रकार कोई पुरुष गुस्से से परको जलाने के लिये गरम लोहेको ग्रहण करता हुआ पूर्व में स्वयं ही जल जाता है, अन्य व्यक्ति जले चाहे न जले इसमें दोनों विकल्प संभव हैं ।। १४३३ ।। उसीप्रकार कोई मूढ़ बुद्धि पुरुष परका घात करने के लिये कोको करता हुआ प्रथम स्वयं ही घातको प्राप्त होता है अन्यका घात तो होने अथवा न होवे ।। १४३४ ।। यह पापरूप कोप अपने आधार स्वरूप पुरुषको नष्ट करके फिर स्वयं भाग जाता है । ठीक है ! देखो ! अग्नि अपनेको उत्पन्न करनेवाले लकड़ोको जलाकर क्या शांत नहीं होती ? होती है । अर्थात् अग्नि लकड़ी से उत्पन्न होकर लकड़ीको जलाती है और फिर आप शांत होती है-बुझ जाती है, वैसे जीवमें क्रोध उत्पन्न होकर जीवको नष्ट करता है - पापबंध कराता है और फिर खुद समाप्त होता है ।। १४३५ ।। यह जो रोष है वह शत्रुका उपकार और स्वजनोंको शोक करानेवाला है, यह स्थान, कुल, बलको नष्ट करके अन्तमें मनुष्यका भी नाश करा देता है ।। १४३६ || Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार गुणागुणो न जानाति बचो अल्पति निष्ठरं । नरो रौद्रमना रुष्टो जायते नारकोपमः ।।१४३७॥ धान्य कृषीवलस्येव पावकः क्लेशतोऽजितम् । धामन्यं प्लोषते रोषः क्षणेन प्रतिनोऽखिलं ।।१४३८।। यथवोग्रविषः सर्पः कुडो वर्भतृणाहतः । निर्विषो जायते शीघ्र निःसारोऽस्ति तथायतिः ॥१४३६॥ भावार्थ-यह क्रोध शत्रुका उपकार करता है, क्योंकि जब मनुष्य क्रुद्ध होता है तब उसके शत्रुको आनंद आता है यह इसीतरह क्रोध करता रहे ऐसो शत्रुकी भावना रहती है, क्रोधी पुरुषके स्वजन दुःखी रहते हैं क्योंकि वह उन्हें गुस्से में आकर कष्ट पहुंचाता है । क्रोधसे अपना स्थान या पद नष्ट होता है-क्रोधीको अपने उच्च पदसे अयुत होना पड़ता है, क्रोधसे शरीर आदिका बल और कुल भी नष्ट होता ही है। आरोग्य शास्त्रका कहना है कि क्रोधसे अनेक रोग होकर शरीर बलहीन बन जाता है और क्रोधी कुगतिमें जाकर अपना भी नाश कर डालता है। इसतरह क्रोधके दोष जानना चाहिये । आगे और भी कहते हैं--- रुष्ट पुरुष अत्यंत क्रूर परिणाम वाला हो जाता है, वह गुण अवगुणको नहीं जानता, निष्ठुर वचन बोलता है, इसतरह नारको जीवके समान बन जाता है ॥१४३७।। जैसे बड़े मुश्किलसे उत्पन्न किये गये किसानके धान्यको अग्नि क्षणमात्रमें जला देती है, वैसे रोष व्रती पुरुषके अखिल श्रामण्य धर्मको क्षणमात्रमें जला देता है-- नष्ट कर देता है ।।१४३८।। जैसे उग्र विषवाला सर्प तीक्ष्ण डाभ जातिके तणसे पीड़ित होवे तो क्रोधसे उस डाभ तृणको खा डालता है किन्तु उससे उसके अंदरका विष बाहर उबल पड़ता है और इसतरह शीघ्र ही वह निःसार हो जाता है, उसीप्रकार यति क्रोधके कारण निःसार रत्नत्रय रहित हो जाता है ।। १४३६।। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] मरणकण्डिका सुरूपोऽपि नरो रुष्टो जायते मर्कटोपमः । कोपोपाजिलपापश्च विरूपो जन्मकोटिषु ॥१४४०॥ द्वेष्यो जनः प्रकोपेन जायते वल्लभोऽपि सन् । अकृत्यकारिगरतस्य हश्चलि विसं यशः ॥७॥ कुपितः कुरुते मूढो बांधवानपि विद्विषः । परं मारयते तैर्वा मार्यते म्रियते स्वयम् ॥१४४२॥ रुषितः पूजनीयोऽपि मंडलो चापमन्यते । समस्तं लोकविख्यातं माहात्म्यं च पलायते ।।१४४३।। कृत्वा हिंसानृतस्तेय कर्माणि कुपितो यथा। सर्व हिंसानतस्तेयदोषमाप्नोति निश्चितम् ॥१४४४॥ __ सुंदर मनुष्य भी क्रोधित होनेपर बंदर जैसा मुखवाला लगता है और उस क्रोधके द्वारा उत्पन्न हुए पापके कारण करोड़ों जन्मोंमें कुरूप बदसूरत बन जाता है ।।१४४०।। कोप करने से अतिशय प्रिय मनुष्य भी अप्रिय बन जाता है, वह क्रोधो अकृत्य को करने लगता है इससे उसका फैला हुआ यश नष्ट हो जाता है ||१४४१। कुपित हुआ मढ़ पूरुष अपने बंधुजनोंको भी शत्रु कर देता है, क्रोधी दूसरे को भरवा डालसा है या शत्रु भावको प्राप्त हुए उन बांधवों द्वारा मारा जाता है अथवा क्रोधवश खुद ही मर जाता है ।।१४४२।। पूजनीय पुरुष भी क्रुद्ध हुआ कुत्ते के समान तिरस्कृत होने लगता है और उसका सर्व लोकमें प्रसिद्ध माहात्म्य नष्ट हो जाता है ॥१४४३।।। ऋद्ध पुरुष हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप क्रियाको जिसतरह करता है, उस पाप क्रियासे पाप बंध होकर आगे उसको वे हिंसा, झूठ और चोरोके दोष निश्चित ही प्राप्त होते हैं 11१४४४॥ विशेषार्थ-क्रोध में आकर मानब यहां पर किसोकी हिंसा करता है, झुठ बोलता है और परका धन चुराता है इससे घोर पाप बंध होकर जब वह पाप उदयमें आता है तब अन्य लोग उसकी हिंसा करते हैं, उसे मार डालते हैं, उसके साथ असत्य Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१६ अनुशिष्टि महाधिकार द्वीपायनेन निःशेषा दग्धा द्वारावती रुषा । पापं च दारुणं वग्धं तेन दुर्गतिभीतिदम् ।।१४४५॥ ॥इति कोपः॥ जातिल्पकुलेश्वर्यविज्ञानाज्ञातपोबलः । कुर्वाणोऽहंकृति नीचं गोत्रं बध्नाति मानवः ॥१४४६।। व्यवहार करते हैं और उसका धन भी चोरी में चला जाता है । इसतरह क्रोधसे अनेक भवों में दुःख भोगने पड़ते हैं । द्वीपायन मुनिने क्रोध में आकर संपूर्ण द्वारावती नगरीको जला डाला था वह दारुण पाप करके स्वयं जला और उस पापसे भयंकर दुर्गतिमें गया ।।१४४५।। द्वीपायन मुनिको कथासोरठ देश में प्रसिद्ध द्वारिका नगरी थी। इसमें बलदेव और कृष्ण नारायण राज्य करते थे। किसी दिन दोनों बलभद्र नारायण भगवान् नेमिनाथके दर्शनके लिये समवसरणमें गये । धर्मोपदेश सुननेके अनंतर बलभद्रने प्रश्न किया कि यह द्वारिका कबतक समृद्धशाली रहेगी । दिव्य ध्वनिमें उत्तर मिला कि बारह वर्ष बाद शराबके कारण द्वीपायन द्वारा द्वारिका भस्म होगो एवं जरत्कुमार द्वारा श्री कृष्णकी मृत्यु होगी। इस भावी दुर्घटनाको सुनकर सभोको दुःख हुआ। बहुतसे दीक्षित हुए । द्वौपायनमे भी मुनिदोक्षा ग्रहणकर दूर देशमें जाकर तपस्या की । द्वारिकाको सब शराब वन में डालो गयो । बारह वर्ष में कुछ दिन शेष थे । द्वोपायन मुनि नगरके निकट आकर ध्यान करने लगे । बहुत से यदुवंशी राजकुमार वन क्रीड़ाके हेतु गये थे, वहां तृषासे पीड़ित होकर शराब मिश्रित पानीको उन्होंने पी लिया और उन्मत्त हो गये, पासमें द्वीपायन मुनिको देखकर वे कुमार उनको पत्थरोंसे मारने लगे । मुनिको क्रोध आया और उनके कंधेसे तैजस पुतला निकल गया, उस तेजस पुतलेसे समस्त द्वारिका भस्म हो गयी। द्वीपायन भो भस्म हुए और कुगतिमें चले गये । कथा समाप्त । मान कषायके दोष जाति, रूप, कुल, ऐश्वर्य, विज्ञान, आज्ञा, तप और बलके द्वारा अहंकार करने वाला मानव नीच गोत्रका बंध करता है ।।१४४६।। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] मरणवाण्डिका दृष्ट्वात्मनः परं हीनं मो मानं करोति ना । दृष्ट्वात्मनोऽधिकं प्राज्ञो मानं मुचति सर्वथा ॥१४४७।। द्वेष कॉल भयं बरं युद्ध दुःखं यशः क्षतिम् । पूजाभ्रशं पराभूति मानो लोकद्वयेऽस्तुतः ॥१४४८॥ सर्वेऽपि कोपिनो दोषा माननः सति निश्चितम् । मानी हिंसानतस्तेय मैथुनानि निषेवते ॥१४४६।। निर्मानो लभते पूजां दुःखं गईमपास्यति । कोति साधयते शुद्धामास्पदं भवति श्रियाम् ।।१४५०।। जो मुर्ख होता है वह अन्य व्यक्तिको अपनेसे होन देखकर (कल, बल, रूपादिमे होन) अभिमान करता है और प्राज्ञ पुरुष है वह अन्य व्यक्तिको अपनेसे कल आदिसे अधिक देखकर मानको सर्वथा छोड़ देता है ।।१४४७।। भावार्थ-मुर्ख पुरुष दूसरे व्यक्तिको कुल रूप आदिसे हीन देखकर घमंड करने लग जाता है कि देखो ! मैं बहुत बड़े कुलका हूं यह तो नीचकुली है तुच्छ है इत्यादि । किन्तु बुद्धिमान पुरुष अपने से कुलहीनको देखकर अभिमान करना छोड़ देता है वह विचार करता है कि अहो ! चौरासो योनियों में परिभ्रमण करते हुए मैंने भी अनंत बार नीच कुल ही पाया है, काक तालीय न्याय से अब कुलवंत हो गया तो इसका क्या गर्व ! तथा बुद्धिमान पुरुष अपने से अधिक उच्चकुलीन किसी व्यक्तिको देख कर भी सोचता है कि इस संसार में एकसे एक बढ़कर कुलबान गुणवान पुरुष होते आ रहे हैं। इस व्यक्तिने पूर्व में सुकृत किया है मेरेको अपने कुलका अभिमान नहीं होना चाहिये देखो ! यह पुरुष कितना कुल वान् है इत्यादि विचार द्वारा बुद्धिमान पुरुष अपने परिणामको गर्व रहित करता है ।. गर्व युक्त मनुष्य द्वेष , कलह, भय, वैर, युद्ध, दुःख, यशका नाश, आदरका नाग तथा परके द्वारा तिरस्कार इतने दोषों को प्राप्त करता है वह उभय-लोक में निंद्य हो जाता है ।।१४४८1 क्रोधी पुरुषके जो दोण बताये हैं वे सभो मानी पुरुषके नियमसे होते हैं। मानी हिंसा, झूठ, चोरी और मैथुन रूप पाप क्रियाका सेवन करता है ॥१४४९।। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्ट महाधिकार मार्दवं कुर्वतो जन्तोः कश्चनार्थो न हीयते । संपद्यते परं सद्यः कल्याणानां परंपरा ।। १४५१ ।। छंद-उपजाति मानेन सद्यः सगरस्य पुत्रा महाबलाः षष्टिसहस्र संख्या: । रहेन भिन्नाः कुलिशेन तुंगा घरावरेंद्रा इव भूरिसत्वाः ।। १४५२ ।। ॥ इतिमान दोषः ॥ [ ४२१ मान रहित पुरुष आदरको प्राप्त करता है वह दुःखकारी गर्वको सदा दूर करता है, गर्वका अपने में प्रवेश नहीं होने देता, वह निर्मल कीर्तिको सिद्धि कर लेता है और अंत में मोक्ष लक्ष्मीका स्थान बन जाता है अर्थात् मोक्षको प्राप्त करता है ।। १४५० ।। मानका अभाव होकर जो स्वाभाविक मार्दव भाव जोवमें प्रगट होता है, उस मार्दव धर्मका पालन करनेवाले जीवके कुछ नुकसान नहीं होता है उलटे मार्दव धर्म द्वारा तो अभ्युदय श्रादि कल्याणोंकी परंपरा तत्काल प्राप्त होतो है ।। १४५१ ।। सगर चक्रवर्तीके साठ हजार संख्या प्रमाण महाबलशाली पुत्र मान द्वारा तत्काल नष्ट हो गये थे जैसेकि ऊँचे बहुत सत्त्व- मजबूती वाले पर्वतराज दृढ़ वज्र द्वारा चूर-चूर हो जाते हैं; वैसे वे चक्री पुत्र मानरूपी वसे मृत्युको प्राप्त हुए थे ।। १४५२।। सगरचक्रोके साठ हजार पुत्रोंको कथा - इस अवसर्पिणी कालके बारह चक्रवर्ती मे से सगर दूसरे चक्री हुए उनके साठ हजार पुत्र थे । वे सभी बल वीर्य पराक्रमके धारक थे, उन सबने मिलकर एक दिन पितामे कहा कि हम सबको कोई राज्य आदि संबंधी कार्य बताईये | पिताने कहा पुत्रों ! यहा कार्य करने की क्या आवश्यकता ! सुखपूर्वक रहो। किन्तु पुत्रोंके अधिक आग्रह होनेसे चक्रीने कहा- कैलाश पर्वतके चारों ओर खाई खोदकर उसमें गंगाजल भरदो । सब पुत्र प्रसन्न हुए उन्हें अपने बल पराक्रमका बड़ा ही अभिमान था । दण्ड रत्नको लेकर खाई खोदने कैलाश पर्वतकी ओर चल पड़े । सगर चक्रवर्तीका पूर्व जन्मका एक मित्र देव हुआ था वह सगरको जिनदीक्षा दिलाना चाहता था इस विषय में उसने पहले प्रयत्न भी किये थे किन्तु वे प्रयत्न सफल नहीं हुए थे । अतः दण्ड रत्नसे धरणीको खोदते हुए उन चक्री के पुत्रोंको देखकर चक्रीको वैराग्य उत्पन्न कराने हेतु उस देवने अपनी मायासे सब पुत्रोंको बेहोश कर दिया Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परणकण्डिका विदधानोऽपि चारित्रं मायाशल्येन शल्यितः । न धृति लभते कुत्र शल्येनेव धनद्धिकः ॥१४५३॥ द्वेषमप्रत्ययं निदा पराभूतिमगौरवम् । सर्वत्र लभते भायी लोकद्वयविरोधकः ॥१४५४॥ अरतिर्जायते मायो बंधूनामपि दारणः । महान्तमश्नुते दोषमपराधनिराकृतः ॥१४५५।। (मार दिया) जब यह वार्ता मंत्री आदिको विदित हुई तब वे अत्यंत विचारमें पड़ गये कि यह हाल चक्रोको कैसे सुनाया जाय । फिर भी किसी बहाने से चक्री तक यह वार्ता पहुंचाई। प्रथम सगरने बहुत शोक किया किन्तु फिर वैराग्य रूप अमृत जलसे शोकाग्नि को शांत कर उसने जैनेश्वरी दोक्षा धारण कर ली। अब उस मित्रवर देवका मनोरथ पूर्ण हुआ । उसने सगर मुनिराजकी तीन प्रदीक्षणा दी नमस्कार किया और सर्व सत्य वृत्तांत कह दिया । सगर अब संपूर्ण मोह मायासे मुक्त हो चुके थे उन्हें कुछ संताप नहीं हुआ। वैराग्य तथा ज्ञान शक्तिसे उन्होंने अपना कल्याण कर लिया। इसप्रकार बलके अभिमानके कारण चक्रीके सब पुत्र नष्ट होगये थे । ___कथा समाप्त । मायादोषका कथन-- __मुनि चारित्रको पालन करते हुए यदि माया शल्यसे पोड़ित है सहित है तो वह कहींपर भी धैर्य-स्थैर्य-सुखको प्राप्त नहीं करता है, जैसे धन संपन्न है किन्तु शरीर आदिमें शल्य है तो उस शल्यके कारण पीडित वह धनिक कहीं भी सुख धैर्यको नहीं पाता ॥१४५३।। मायाचारी व्यक्ति द्वेष, अविश्वास, निंदा, तिरस्कार और लघुता-नीचताको सर्वत्र पाता है वह दोनों लोकोंका विरोधो है अर्थात् दोनों लोकोंमें उसका कोई विश्वास नहीं करता अथवा उसको उभयलोकमें सुख नहीं मिलता है ।।१४५४॥ मायावो पुरुष सबको अप्रिय लगता है वह बंधुजनोंको भी दुःखदायी प्रतीत होता है, वह अपराध रहित होनेपर भी महादोषी माना जाता है अथवा मायाके कारण वह महादोषको प्राप्त हो जाता है ।।१४५५।। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ४२३ एकासत्यसहस्राणि माया नाशयते कृता । मुहर्तेन तुषाणोष नित्योहगविधायिनी ॥१४५६।। मित्रभेदे कृते सधः कार्य नश्यति मायया। विषमिमिव क्षोरं समायं नश्यति व्रतम् ॥१४५७॥ स्त्रंगपंढत्वतरश्च नीचगोत्रपराभवाः । मायादोषेण लभ्यते पुंसा जन्मनि जन्मनि ॥१४५८।। यः क्रोधमानलोभानामाविर्भायोस्ति मायिनः । संपद्यन्तेऽखिला दोषास्ततस्तेषामसंयमम् ॥१४५६॥ सप्तवर्षाणि नि:शेष कुम्भकारेण कोपिना। भस्मितं भरतग्रामशस्यं प्राप्तेन वंचनां ॥१४६०॥ एक मायाचारी करनेपर उसके द्वारा हजारों सत्यका नाश हो जाता है। यदि उस मायाचारको बार बार किया जाय तो शरीरमें प्रविष्ट कांटा या सलोके समान नित्य ही उद्वेग--संतापको करती है ।।१४५६।। मायाके द्वारा मित्रका भेद हो जाता है अर्थात् अपने साथ माया छल किया जा रहा है यह देखकर मित्रजन तत्काल मित्रताको छोड़ देते हैं और मित्रकी सहायता समाप्त होनेपर सब कार्य समाप्त हो हुआ समझना चाहिये । उस मायाचार युक्त पालन किया व्रत विषसे मिले दूधके समान नष्ट हो जाता है ।।१४५७।। माया दोषसे इस जीवको भव भबमें स्त्री पर्याय, नपुसकत्व, तिर्यंच पर्याय, नीच गोत्र और पराभव प्राप्त होता है ।।१४५८।। मायावीके क्रोध, मान और लोभोंकी जिसकारणसे उत्पत्ति होती है उस कारण से उन जीवोंके संपूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं फिर उससे असंयमको प्राप्त होता है । भाव यह है कि क्रोध, मान आदि मायावीके अवश्य हो उत्पन्न होते हैं और जब ये क्रोधादि उत्पन्न हुए तो सब ही दोष उत्पन्न हुए ऐसा समझना चाहिये क्योंकि संपूर्ण दोषोंका कारण क्रोध आदि कषायें हैं और मायावी में ये कषायें होती हैं और इसतरह दोषोंको उत्पत्तिसे असंयमको प्राप्त होता ही है ।।१४५६।। कुपित हए कुभकारने भरत नामके ग्राममें सात वर्षों से संचित हुए धान्यों को मायासे युक्त होकर भस्म कर डाला था ।।१४६०।। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] मरणकण्डिका छंद-स्वागताधर्मपावपनिकतनशस्त्री जन्मसागरनिपातनकी । दुःख शोकभयवैरसहाया निदितं किमु करोति न माया ॥१४६१।। ॥ इति माया दोषः । लोभतो लभते दोषं पातकं कुरुते परम् । जानोते परमात्मानं नोचमुच्चं न नष्टधीः ।।१४६२॥ मायावी भरत कुम्हारको कथाअंगक नामके देश में बृहद् ग्राममें एक कुम्हार रहता था। एक दिन बहुतसे मिट्टीके बर्तनोंको बैलपर लादकर वह कुम्हार दूसरे ग्राममें बेचने के लिये गया गांवके बाहर बैलको खड़ाकरके वह ठहर गया। ग्रामीण लोग बालक स्त्रियां आदिने उससे घड़े, दिये, सकोरे आदि खरीद लिये और कुम्हारको भोला जानकर किसीने उसको बत्तनोंका मूल्य नहीं दिया । उसको कहा कि कल देखेंगे । बालक उसके साथ हंसी मजाक करने लगे। संध्या हो गगी कुम्हारने दुःखित मनसे रात पूर्ण को । रातमें किसी ने उसके बैल को भी चुरा लिया । प्रातः जब किसीने बत्तंनके रुपये नहीं दिये तब कुम्हार अत्यंत कूपित हो गया। उसने घर-घरमें जाकर पैसे मांगे किन्तु किसीने कछ नहीं दिया। कुम्हारने उस गांव में आग लगाद, । सात वर्ष तक धान्यों से भरे उस ग्राम को वह जलाता रहा और उससे उसने महान् पाप संचय किया। इसप्रकार क्रोषक वशमें हुए कुम्हारका उभय लोक नष्ट होगया। कथा समाप्त । यह माया धर्मरूप वृक्षको काटने के लिये करोंतके समान है जन्म रूप सागर में गिराने वाली है, दुःख, भय, शोक और बैर स्वरूप अवगुण इसके सहायक हैं, ऐसा कौनसा निंद्य कर्म है जिसको माया नहीं करती है ? अर्थात् माया सर्व हो निंद्य कार्य करती है ।।१४६१।। मायादोषका कथन समाप्त । लोभ दोषका वर्णन यह मानव लोभसे दोषको प्राप्त होता है वह अत्यंत प्रशुभ पापको करता है। वह नष्ट बुद्धि वाला व्यक्ति परको तो नीच जानता है और अपनेको उच्च । वह परको कभी उच्च नहीं मानता ।।१४६२।। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२५ अनुशिष्टि महाधिकार लोभस्तणेऽपि पापार्थमितरत्र किमुच्यते । मुकुटादिषरस्यापि निर्लोभस्य न पातकम् ॥१४६३।। सुध प्रलोभयगि मासंतुष्टय जायते । संतुष्टो लभते सौख्यं दरिद्रोऽपि निरंतरम् ।।१४६४॥ जायते सकला दोषा लोभिनो ग्रंथतापिनः । लोभी हिंसानृतस्तेयमेथनेषु प्रवर्तते ॥१४६५।। रामस्य जामदग्न्यस्य गृहीत्वा लब्धमानसः । कार्तधीयों नपः प्राप्तः सकुलः सबलः क्षयम् ॥१४६६॥ यदि तिनके में भो लोभ किया जाय तो वह लोभ पापका कारण है फिर अन्य विशिष्ट धन धान्यादिमें किये गये लोभ का तो क्या कहना ? वह लोभ तो पाप बंधकारक है ही । किन्तु जो व्यक्ति निर्लोभ है तो वह मुकुट कुडल आदिको धारण किये हुए भी है किन्तु उसको उस मुकुट आदि वस्तुके रहते हुए भो पाप बंध नहीं होता है ।।१४६३॥ असंतुष्ट पुरुषके तीन लोकका लाभ होने पर भी सुख नहीं होता है और संतुष्ट पुरुष दरिद्री होनेपर भी सतत् सुख को प्राप्त करता है ।।१४६४।। परिग्रह रूपी संताप युक्त लोभी मनुष्य के सकल दोष होते हैं। लोभी व्यक्ति हिंसा, झूठ, चोरी और मैथुन इन पापों में प्रवृत्त होता है ।।१४६५।। जमदग्नि नामके तापसोका पुत्र परशुराम था उसको कामधेनुको लुब्ध मन वाले कार्तवीर्य नामके राजाने हठात् ग्रहण किया था उससे वह राजा अपने पूरे वंशके साथ तथा सेनाके साथ नष्ट हो गया था ।।१४६६।। कार्तवीर्यकी कथाएक वन में जटाधारी तापसियोंका आश्रम था उसमें एक जमदग्नि नामका मिथ्या तापसी रेणुका स्त्रो एवं श्वेतराम और महेन्द्रराम नामके दो पुत्रोंके साथ रहता था । एक दिन उस वनमें हाथो पकड़नेको कार्तवीर्य नामका राजा आया । वह थककर विश्राम हेतु जमदग्निके कुटीके पास बैठा था। रेणुका ने उसको मिष्ठान्न द्वारा तृप्त किया आश्चर्य युक्त हो राजाने प्रश्न किया कि इतना श्रेष्ठ भोजन तुम लोगोंके पास Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] मरर कण्डिका छंद-उपजाति लोभेन लोभः परिवर्धमानोदिवानिशं वह्निरिवेन्धनेन । निषेव्यमाणो मलिनत्वकारी न कस्य तापं कुरुते महान्तं ।। १४६७ ।। इति लोभः । इति कषायविशेषदोषाः ॥ शत्रुसर्पानलब्याघ्राः नवाधिपन्न कुर्व यं करोति महादोषं कषायारिः शरीरिणाम् ॥। १४६८ ।। इस निर्जन वन में कहाँसे आया ? रेणुका ने कहा कि हमारे पास कामधेनु है उसके द्वारा सब कुछ मिलता है, राजाको कामधेनुका लोभ सताने लगा उसने उसकी याचना की किन्तु जमदग्नि ने मना किया तब उस लोभी अन्यायी राजाने हठात् कामधेनुका हरण कर लिया और जमदग्निको मारकर अपने नगर में लौट आया। इधर श्वेतराम महेन्द्रराम बनसे ईंधन को लेकर कुटी में पहुंचे और पिताको मरा देखकर बहुत दुःखी होगये । दोनों पुत्र अत्यंत पराक्रमी थे । उन्हें देवोपनोत शस्त्र परशु भी प्राप्त था । उन्होंने कार्त्तवीर्यको सेना सहित नष्ट कर दिया, सर्व वंश का सर्वथा नाश कर डाला और दोनों भाई उस राज्य के स्वामी बन गये । इसप्रकार लोभ के कारण कार्त्तवीर्य नरेश मारा गया और मरकर नरकमें चला गया । कथा समाप्त । जिसप्रकार इन्धन से अग्नि बढ़तो है उसप्रकार लोभसे लोभ रात-दिन बढ़ता जाता है, लोभका सेवन करने से मलिनता कृपणता आदि कलंक दोष आते हैं । इसतरह यह लोभ किसके महा संताप को नहीं करता ? सबको ही संताप करता है || १४६७ । । लोभ दोष का कथन समाप्त हुआ । इसप्रकार चारों कषायोंके दोष विशेष रूपये कहे । संसारी जीवोंके कषायरूपी शत्रु जिस महादोषको करते हैं उस महादोष को यह मनुष्य रूप शत्रु नहीं कर सकता, सर्प, अग्नि तथा व्याघ्र भी उस महादोषको कभी नहीं करते जिसको कि कषाय रूपी शत्रु करते हैं || १४६८ ।। जो वैराग्यरूपी लगामसे रहित हैं ऐसे कषाय और इन्द्रिय रूपी दुष्ट घोड़े बलवान् पुरुष को भी दोषरूपी दुर्गम Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार । ४२७ कषायेन्द्रिय दुष्टाश्वर्दोषदुर्गेषु पात्यते । त्यक्तनिर्वेदललिनेः पुरुषो बलयानपि ॥१४६६।। कषायेन्द्रियदुष्टाश्वई निर्वेदयंत्रितः दोषदुर्गेषु पात्यंते न सध्यान कशावशः ॥१४७०॥ विचित्रवेदनावष्टाः कषायाक्षभुजंगमः । नष्टध्यानसुखाः सद्यो मुचते वृत्तजीवितम् ।।१४७१॥ सध्यानमंत्रराग्य भेषजनिविधीकृताः । न साधोस्ते क्षमा हतु दोघं संयमजीविलम् ॥१४७२।। हृषीकमार्गणास्तोष्णाश्चितापुखाः स्मृतिस्यवाः । नरं लोगनु नाट विन्यति सुबहारिणः ॥१४७३॥ -- - ...-. स्थानोंमें गिरा देते हैं ।।१४६९।। किन्तु जिनको दृढ़ वैराग्यरूपी लगामसे नियंत्रित कर लिया है, जो सद् ध्यानरूपी चाबुक द्वारा वशमें कर लिये गये हैं ऐसे कषाय और इन्द्रियरूपो घोड़े दोष रूपी दुर्गम स्थानों में नहीं गिराते हैं ॥१४७०।। जो पुरुष कषाय और इन्द्रिय रूपी सोके द्वारा काटे जानेसे विचित्र वेदना युक्त हैं वे ध्यानरूप सुखसे रहित हुए तत्काल ही चारित्र रूपी प्राणों को छोड़ देते हैं अर्थात् कषाय और इन्द्रियों के निमित्तसे चारित्रसे च्युत होते हैं ।।१४७१।। जिन कषाय. रूप सर्पोको सद्ध्यान शुभध्यान धर्मध्यान शुक्लध्यानरूपी मंत्र और वैराग्यरूपी औषधियोंके द्वारा बिष रहित कर दिया गया है, वे सर्प साधुके संयमरूपी दीर्घ जीवन को हरण करने में समर्थ नहीं होते हैं ।।१४७२॥ चितारूपी पुख-पंख जिनमें लगे हैं, स्मरण रूपो वेग से युक्त और आत्मीक सुखका हरण करनेवाले ऐसे इन्द्रिय रूपी बाण मनरूपी धनुष से छोड़े गये मनुष्यको वेध देते हैं-मनुष्यको वे बाण लग जाते हैं ।।१४७३।। इसप्रकारके इन्द्रिय बाणोंको कैसे रोका जाय कसे नष्ट किया जाय ? ऐसा प्रश्न होनेपर कहते हैं Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ । मरणकण्डिका - हृषीकमार्गणास्तीक्ष्णा साधुभिषति खेटकः । ध्यानसायकमादाय खण्डयन्ते ज्ञानदृष्टिभिः ॥१४७४॥ प्रमादवपनाः साधु चरंतं संगकानने । धृत्युपानद्विनिमुक्त विध्यन्तीन्द्रियकण्टकाः ॥१४७५।। प्राबद्धधत्युपानकमुपयोगविलोचनम् । कषायकण्टका: साधून विध्यन्ति मनागपि ॥१४७६।। कषायमर्कटा लोलाः परिग्रहफलैषिणः । लपन्ति संयमारामं योगिनो निग्रहं विना ॥१४७७॥ त्रिकाल दोषदा नित्यं चंचला मुनिपुंगवः । कषायमर्कटा गावं बध्यन्ते वृत्तरअभिः ॥१४७८॥ महोपशमसत्वाळयानास्त्रैर्धतिमतः । साधुयोधधिजोयन्ते कषायेन्द्रियविद्विषः ॥१४७६।। . . .----... -- -- -- - -- - ज्ञानरूपी नेत्र जिनके पास हैं एवं धैयरूप तलवारके धारक साधुनों के द्वारा ध्यानरूपी बाण लेकर वे इन्द्रिय रूपी तीक्ष्ण बाण खंडित-नष्ट किये जाते हैं ।।१४७४।। परिग्रहरूपी वन में धर्यरूपी जतेसे रहित विचरण करने वाले साधुको प्रमाद ही है मुख-नोक जिनकी ऐसे इन्द्रिय रूपी कांटे वेध देते हैं-लग जाते हैं ॥१४७५॥ किन्तु जिसने धैर्यरूपी पादत्राण पहन रखे हैं और ज्ञानोपयोग रूपो नेत्रोंसे जो संयुक्त है उन साधु को कषायरूपी कांटे जरा भी नहीं लगते हैं नहीं चुभते हैं ।।१४७६।। परिग्रह रूपो फलोंको जो चाहते हैं ऐसे कषाय रूपी चपल बंदरको यदि निगहीत नहीं किया जाय तो वे अवश्य हो साधुओंके संयमरूपी उद्यान को नष्ट भ्रष्ट कर डालते हैं-उजाड़ देते हैं ।।१४७७।। तीनोंकालों में दोषको करनेवाले कषायरूपी चंचल बंदर मुनिजनों द्वारा चारित्र रूपी रस्सीसे कसकर बांध दिये जाते हैं ।।१४७८।। महान उपशम भावरूपी शक्ति जिनके पास है ज्ञानरूपी शस्त्रोंसे जो सुसज्जित हैं जिन्होंने धैर्यरूपी कवच पहन रखा है ऐसे साधुरूपी योद्धाओं द्वारा करायरूपी शत्रु जोते जाते हैं ।।१४७६।। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२६ अनुशिष्टि महाधिकार कषायाक्षद्विषो बद्धा भावनाभिस्तपस्विना । शंखलाभिरिव स्तेना न दोषं जातु कुर्वते ॥१४८०।। कषायाक्षमहाध्यानाः संयमप्राण भक्षिणः।। अधिरोप्य नियम्यन्ते वैराग्यहढपञ्जरे ॥१४८१॥ नोता तमहावारि कषायाक्षमतंगजाः । यशा संत्यवशाः सन्तो बद्धा विनयरश्मिभिः ॥१४८२॥ कषायाक्षगजाः शोलपरिखालंघनषिणः । धर्तव्याः सहसा वोरंधू तिकर्णप्रतोदनः ॥१४८३।। कषायाक्षद्विपा मत्ता दुःशीलबनकाक्षिणः । ज्ञानांकुविधीयन्ते तरसा वशवर्तिनः ।।१४८४।। इन तपस्वी जनोंने कषायरूपी वैरियोंको अहिंसादि व्रतोंकी पच्चीस भावना रूपी साकलोंसे बांध रखा है अब वे कभी भी दोष-संयमका अपहरण आदिको नहीं कर सकते, जिसप्रकार कि चोर दृढ सांकल द्वारा बांधे जानेपर दोषको-चोरीको नहीं कर सकते ।।१४८०॥ संयम रूपी प्राणोंका भक्षण करने वाले कषाय और इन्द्रियरूपो महाभयंकर शेर चोते वैराग्यरूपी मजबूत पीजरेमें बंद करके नियंत्रित किये जाते हैं ।।१४८१।। जो किसीके वशमें नहीं आते हैं ऐसे अवश कषाय और इन्द्रिय रूपो हाथी व्रतरूपी बंधन स्थान में ले जाकर विनयरूपी रस्सी से बांध दिये जानेपर वश में आजाते हैं ॥१४८२।। ये कषाय और इन्द्रियरूपी गज शोलरूपो खाईका उल्लंघन करना चाहते हैं उन्हें अकस्मात् जाकर धैर्यरूपी कर्ण प्रहारोंसे बीर पुरुषोंको पकड़ लेना चाहिये ॥१४८३।। कषाय और इन्द्रिय रूपी मत्त हाथी खोटे आचरण रूपो वन में प्रवेश करना चाहते हैं, ऐसे मत्त हाथियोंको शीघ्र ही ज्ञानरूपी अंकुश द्वारा वशमें किया जाता है ११४८४।। जो ध्यानरूपी योद्धाके द्वारा वश किये जा सकते हैं, रागद्वेष रूपी मदजल से जो आकुलित हैं ऐसे गज यदि ज्ञानरूपी अंकुश नहीं हो तो विषयरूपी वनमें चले जाते हैं ॥१४८५॥ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३.] मरणकण्डिका ध्यानयोधावशीभूता रागषमताकुलाः । ज्ञानांकुशं विना यांति तदा विषयकाननम् ॥१४८५॥ तदा शमबने रम्ये कषायाक्ष महागजाः । रम्यमारणा न कुर्वन्ति दोषं साधोर्मनागपि ॥१४८६॥ ॥ इति सामान्यकषाय निर्जयः ।। शम्बे वर्णे रसे गंधे स्प” साधुः शुभाशुभे । रागद्वेष परित्यागी हृषीकविजयीमतः ।।१४८७॥ हृषीकविजयः सद्भिः कटुकोऽपि निषेव्यते । भैषज्यभिव बांद्धिनित्यसौख्यं यथाजसा ॥१४८८।। -- जब ज्ञानांकुश द्वारा कषाय और इन्द्रिय रूपी महागज वशमें किये जाते हैं तब वे शांतभाव रूपी सुदर उपवन में रमते रहते हैं फिर वे साधुके महाव्रत आदिमें किंचित् भी दोष नहीं करते ।।१४८६॥ इसप्रकार सामान्यरूपसे कषायोंको जोतनेका कथन किया । अब आगे सामान्यरूपसे इन्द्रियोंको जीतनेका कथन करते हैं शुभ और अशुभ ऐसे शब्द, वर्ण, रस, स्पर्श और गंधमें राग और दोषका त्याग करने वाला साधु इन्द्रिय विजयी माना जाता है ।।१४८७।। पांचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करना यद्यपि कटुक-प्रत्यंत कठिन है तो भी सज्जन या साधु पुरुषों द्वारा सेवनीय है जो कि वास्तविक नित्य सुख चाहते हैं । जैसे नीरोगपनेका सुख चाहने वाले पुरुष कडुआ भी औषध हो तो भी उसका सेवन करते हैं ॥१४८८। भावार्थ- आचार्य महाराज क्षपक एवं साधुओंको उपदेश देते हैं कि भो सज्जनों ! आपको इन्द्रियोंपर विजय करना कठिन लगता है तो भी इस कार्यको तुम्हें अवश्य करना चाहिये क्योंकि इन्द्रिय विजयी पुरुष ही शाश्वत मुक्ति सुखको प्राप्त कर सकता है अन्य नहीं, जैसे स्वास्थ्यको चाहने बाला पुरुष कडुवी औषधिका सेवन करता है कडुवी औषधिके बिना स्वास्थ्य लाभ संभव नहीं है । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অনুহািতি মাৰিকাৰ पुद्गला ये शुभाः पूर्वमशुभाः सन्ति तेऽधुना । अशुभाः पूर्वमासन्ये सांप्रतं संति ते शुभाः ॥१४८६॥ भुक्तोज्झिताः कृताः सर्वे पूर्व तेऽनन्तशोऽङ्गिना। को मे हों विषादो वा द्रव्ये प्राप्ते शुभाशुभे ।।१४६०॥ रूपे शुभाशुभे न स्तः साधनं सुखदुःखयोः । संडाल्पबशतः सर्व कारणं जायते तयोः ॥१४६१।। आचार्य महाराज इन्द्रिय विजय किसप्रकार करें इसका उपाय बतलाते हैं--- इन्द्रियों के रूप रस आदि विषयोंमें इसप्रकार सोचना चाहिये कि जो पुद्गल पहले शुभ-मनोहर थे वे अब इससमय अशुभ हैं और जो विषय पहले अशुभ असुहावने थे वे वर्तमान में शुभ रूप है जब इन्द्रिय विषयों में इसतरह परिवर्तन होता रहता है तब शुभ-सुदरमें राग और अशुभ विषयमें द्वेष करना किसप्रकार उचित है अर्थात् उन विषयोमें रागद्वेष अनुचित ही है ।।१४८६।। संसारी प्राणियोंने अतीत भवों में पहले अनंतबार सभी शुभ अशुभ स्पर्श रसादि विषयोंको भोग-भोगकर छोड़ा हुआ है, अब मुझ ज्ञानी साधुको शुभ पदार्थ हो चाहे अशुभ पदार्थ हो उनको प्राप्ति में क्या तो हर्ष है और क्या विषाद है ? अर्थात शुभाशुभ इन्द्रिय विषयों में अब मेरा कोई हर्ष विषाद नहीं रहा है। इसतरह इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करनेके इच्छुक हे साधुजनों ! तुम्हें विचार करते रहना चाहिये ॥१४६०॥ कोई शिष्य प्रश्न करता है कि अमुक पुद्गल मुझे सुखप्रद हैं अतः मेरा उसमें अनुराग है एवं अमुक पुद्गल दुःखप्रद है अत: उसमें द्वष है ? इसका उत्तर आचार्य आगे की कारिकामें देते हैं भो साधो ! शुभ और अशुभ पुद्गल में सुख और दुःख का साधन नहीं है, शुभ और अशुभमें अपने संकल्प मनकी कल्पनाके वशसे ही सुख दुःखका साधन या कारण माना जाता है । भाव यह है कि कोई भी पदार्थ या रूप रस आदि विषय सर्वथा शुभ अशुभ नहीं है अतः सुख-दुःख का कारण नहीं है, केवल अपनी-अपनी कल्पनासे सुख दुःखके कारण माने जाते हैं ।।१४९११॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] मरणकण्डिका यतश्चक्षुर्महावोषमनिर्जितम् । विदधाति निर्जेतव्यं ततः सद्भिः सर्वथा तदतंत्रितैः १४६२॥ शब्दगंध रसस्पर्श गोश्वराष्यपि यत्नतः I जैतव्यानि हृषीकाणि योगिना शमभागिना ॥ १४६३ ॥ छंद - रथोद्धता बुर्जयामरनिलिप भर्तृभिः पंच यो विजयतेऽविद्विषः । तस्य सन्ति सकलाः करस्थिताः संपदो भुवननाथपूजिताः ।। १४९४ ।। ।। इति इंद्रियनिजयः ॥ दत्ते शापं विना दोषं नायं मेऽस्तोति सह्यते । कृपा कृत्येत्ययं पापं वराकः कथमर्जति ।। १४६५ ।। चक्षु द्वारा पदार्थको देखकर प्रायः उसके रसादि विषयों में प्रवृत्ति होती है, रसादि विषयों में रागादिको उत्पन्न कराना प्रायः चक्षुका काम है अतः चक्षुको जीतने का पृथक् रूप से उपदेश देते हैं- जिस कारणसे चक्षुको नहीं जीतने पर वह महादोषको करता है उसकारण से सावधान साधुओं द्वारा सर्वथा चक्षु जोतने योग्य है ।। १४६२ ।। प्रशम भावको धारण करनेवाले साधुको प्रयत्न पूर्वक शब्द, गंध, रस, स्पर्श को विषय करने वाले कर्ण आदि इन्द्रियोंको भी जीतना चाहिये ।। १४६३ ।। मनुष्य और देवोंके स्वामी चक्रवर्ती और इन्द्रों द्वारा जो दुर्जय हैं- जीते नहीं जाते हैं उन पांच इन्द्रिय रूपी शत्रुओंको जो साधु जोतता है पृथिवी पति द्वारा आदरणीय ऐसी समस्त संपदायें उसके हाथमें स्थित हो जाती हैं अर्थात् संसार की संपदाके साथ मुक्ति संपदाको भी वह इन्द्रिय विजयी साधु प्राप्त कर लेता है ।। १४६४।। इसतरह इन्द्रिय विजयका कथन पूर्ण हुआ । आगे कषाय विशेषको जीतनेका उपदेश देते हैं उसमें सर्वप्रथम पहली क्रोध कषायको जीतने के लिये उसका प्रतिपक्षी क्षमाका स्वरूप कहते हैं जब कोई गाली आदिके वचन कहे तब साधु विचार करे कि यह व्यक्ति बिना दोषके गाली दे रहा है मेरेमें यह दोष नहीं है, यह मसद् दोष कह रहा है तो Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुणिष्टि महाधिकार सत्येऽपि सर्वतो दोषे सहनीयं मनीषिणा । विद्यते मम दोषोऽयं न मिथ्यानेन जल्पितम् ।। १४६६ ।। शप्तोऽस्मिन हतोऽनेन निहतोऽस्मि न मारितः । मरणेऽपि न मे धर्मो नश्यतोति विषह्यते ।। १४६७।। क्रोधो नाशयते धर्म विभावसुरिवेन्धनम् । पापं च कुरुते घोरमिति मत्वा विषह्यते ॥। १४६८ ।। | ४ ३३ इसमें मेरी कुछ हानि नहीं है, यह बिचारा व्यर्थ पाप बध कैसे कर रहा है ? अहो ! यह तो दयाका पात्र है | इस प्रकार विचार कर गालीके बचन सहन किये जाते हैं ।। १४६५ ।। यदि कोई व्यक्ति सत्य दोषको कहता है तो साधुको उसे भी सर्वथा सहन करना चाहिये । उस समय विचार करे कि जो यह कह रहा है वह दोष मुझमें विद्यमान है, यह मिथ्या झूठ नहीं कहता । देखो ! जगत् में प्रायः लोग झूठे दोष लगाते हैं किन्तु यह तो सत्य कहता है, मैं तत्वका जानकार होकर भी इस दोषको नहीं छोड़ पाता । इत्यादि पवित्र विचार द्वारा गाली वचन कहने वालेको क्षमा करना चाहिये अर्थात् कुपित नहीं होना चाहिये ।। १४६६ || यदि कोई व्यक्ति गाली देवे तो साधु विचार करें कि इसने गाली दी है मारा तो नहीं ? यदि कोई मार पीट देवे तो विचार करना चाहिये कि यह केवल पीड़ित करता है प्राण नहीं लेता है । कदाचित् प्राण लेने लग जाय तो क्षमाशील महामुनि विचार करें कि अहो ! यह प्राण ले रहा है मेरा रत्नत्रय धर्म नष्ट नहीं करता ? इसप्रकार के पावन विचार द्वारा क्रोधको जोतना चाहिये ।। १४६७।। यतिराज विचार करते हैं कि यह क्रोध जैसे ईन्धनको अग्नि जलाती है वैसे ही कोध धर्मको जलाता है क्रोध घोर पापका उपार्जन करता है । इसतरह क्रोध के अवगुण जानकर सदा क्षमा हो धारण करनी चाहिये ।।१४६८।। भावार्थ - जैसे अग्निसे सर्व तृणादि जलकर खाक हो जाते हैं वैसे अतिशय दुर्लभ परभवमें साथ जाने वाला मेरा सद्धर्म यदि में क्रोध करू तो अवश्य नष्ट हो जायगा । यह क्रोध अग्नि है इसका ईंधन अज्ञान है, यह क्रोधाग्नि अपमान रूपी वायुसे Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४३४ ] मरणकण्डिका परदुःखनियोत्पन्नमुदीर्ण कल्मषं मम । ऋणमोक्षोऽधुना प्राप्तो विज्ञायेति विषह्यते ॥१४६६।। अनुभुक्त स्वयं यावत्काले न्यायेन तत्समम् । अधमर्णस्य कि दु:खमुत्तमर्णाय यच्छतः ।।१५००॥ छंद-वंशस्थनिषेवितः कोपरिपुर्यतोऽङ्गिनां वदाति दुःखान्युभयत्र जन्मनि । निकर्तनीयः शमखड्गधारया तपोवियोधैः स ततोऽन्यदुर्जयः ।।१५०१॥ ॥ इति क्रोधनिर्जयः॥ भभक उठती है, कठोर वचन इसके स्फुलिंगे हैं हिंसा ज्वालासे संयुक्त यह कोपाग्नि मेरे । धर्मरूपी उद्यानको भस्मसात् कर देगी । अत: मुझे बिलकुल ही क्रोध नहीं करना है। ऐसा विचार करके साधु सदा क्षमाभाव करते हैं । __मैंने पूर्व भव में अन्यको दु:ख दिया था उस पाप-क्रियासे जो पापोपार्जन हुमा था उसका फल उदयमें आया है, अच्छा ही है अब मैं ऋण मुक्त कर्ज से रहित हो जाऊंगा। इसप्रकार कोई दुष्ट मारने लग जाय तो विचार करना चाहिये ।।१४६६।। कोई धनहीन पुरुष साहूकारसे द्रव्य लाकर उसका उपभोग करता है जितने कालके लिये लाया था उतने कालके बाद लौटाना न्याय हो है, अब जब कर्ज लौटाने का समय आचुका है तो उस द्रव्यको साहूकार के लिये देते हुए कर्जदारको क्या दुःख होगा ? यदि वह न्यायी है तो कभी भी दुःख नहीं होगा। ठीक इसोप्रकार मैंने पापाचारसे अशुभ कर्मका संचय किया है उसका उदय अब आ चुका है । इस मनुष्यको मैंने अवश्य हो पूर्व जन्म में दुःख दिया था अब मुझे यह दुःख दे रहा है इसे मैं शांतभावसे सहन करू तो ऋण मुक्त हो जाऊंगा | इत्यादि विचारसे मुनिराज उत्तम क्षमा धारणकर क्रोषपर विजय प्राप्त करते हैं ।।१५००।। क्रोधरूपी शत्रुका सेवन करने से वह जीवोंको इस जन्म में और परजन्ममें दुःखोंको देता है अत: तपोधन साधुओंके द्वारा शमभावरूपी तलवारसे उस को काट देना चाहिये । कैसा है कोध शत्रु साधुको छोड़कर अन्य किसीके द्वारा जीता नहीं जा सकता है ।।१५०१॥ क्रोध विजयका कथन पूर्ण हुआ । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार नोचत्वे मम किं दुःखमुच्चत्वे कोऽत्र विस्मयः । नीचस्वोच्चत्वयोर्नास्ति नित्यत्वं हि कदाचन ॥१५०२॥ परेष विद्यमानेष कि दुःखमाधिकेष मे। योनिहोनेज्वहंकारः संसारे परिवर्तिनि ॥१५०३॥ स मानो कुरुते दोषमयमानकर न यः। न कुर्वाणः पुननिमपमान विवर्तकम् ॥१५०४।। छ-विलंबितद्वितयलोकभयंकरमत्तमो विविधःखशिलाततवर्गमम । प्रबलमार्दववविघाततो नयति माननगं शतखंडनम् ॥१५०५॥ ॥ इति माननियः ।। मानकषाय पर विजय प्राप्त करने के लिये उसके प्रतिपक्ष रूप मार्दव भावका वर्णन करते हैं यदि किसीने मेरा आदर नहीं किया उच्च आसन आदि नहीं दिया तो उससे मुझे क्या दूःख है ? तथा कदाचित् उच्चपद पर किसीने आरूढ़ किया अथवा भाग्यसे मुझे उच्चपना मिला तो उसमें मुझे क्या आश्चर्य या सुख है ? कुछ भी दुःख और सुख नहीं है क्योंकि नोचत्व और उच्चत्व कभी भी नित्य नहीं रहता। मैंने तो दोनोंको अनंतबार प्राप्त किया है । अतः इसमें मुझे हर्ष विषाद नहीं है ।। १५०२।। कुल, रूप, संपत्ति इत्यादि विषयों में मेरे से अधिक श्रेष्ठ लोग जगत में विद्यमान हैं, अत: इसमें मेरा अभिमान वृथा है । मैंने इस परिवर्तन शील संसारमें होन योनियों में जन्म लिया है इसलिये भी वर्तमानके इस उच्च कुलादिमें क्या अहंकार करना ? नहीं करना चाहिये ।।१५०३॥ मानी तो दह पुरुष है जो अपमानके कारणभूत दोषको नहीं करता । जो अपमानको बढ़ाने वाले मानकषाय को करता है वह वास्तविक मानी नहीं है अर्थात् गुणयुक्त होना यही अलौकिक मान है । इसतरह मान सन्मानके विषय में समझकर कभी भी मानकषाय नहीं करना चाहिये ॥१५०४।। उत्तम साधु जो इस लोक और परलोक में भयंकर है, दुःख रूपी विषमपाषाण शिलाओं के समूहसे दुर्गम है ऐसे मानरूपी पर्वतके प्रबल मार्दव भावरूपो वनके आघात Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] मरणाकण्डिका दोषो निगुह्यमानोऽपि स्पष्टतां याति कालतः । निक्षिप्तं हि जलेषों न चिरं व्यवतिष्ठते ।।१५०६॥ प्रकटोऽपि जनर्दोषः सभागस्यस्य न गृह्यते । समलं मलिनं केन गृह्यते सारसं जलम् ॥१५०७॥ नीचेन छाधमानोऽपि स्पष्टतामेति निर्मलः । राहुणा पिहितश्चद्रो भूयः क न प्रकाशते ॥१५०८।। . . . . ---- - से सैकड़ों खंड कर डालता है अर्थात् साधुओंको मान कषायरूपी पर्वतका मार्दव भावना द्वारा नाश करना चाहिये ।।१५०५।। मानकषाय विजयका कथन समाप्त । माया कषायपर विजय प्राप्त करनेका उपाय पांच कारिका द्वारा बतलाते हैं मायाके कारण यह जीव अपने दोषको छिपाता है किन्तु दोषको खूब अच्छो तरहसे छिपाने पर भी वह समय पर प्रगट अवश्य होता है । जल में डाला गया मल अधिक समय तक नीचे नहीं ठहरता ऊपर ही आजाता है । वंसे दोष प्रगट हो होता है, छिपता नहीं ॥१५०६॥ दोषका प्रगट होना और नहीं होना पाप पुण्यके आधीन है तथा दोष प्रगट होने पर भी उस दोषीको लोग हीन नहीं मानते जिसके पुण्य का उदय है ऐसा कहते हैं भाग्यवान् का दोष प्रगट हो तो भो लोगों द्वारा वह ग्रहण नहीं किया जाता । ठीक ही है । तालाबका मैला पानो “यह मलिन है" इसप्रकार लोगों द्वारा नहीं ग्रहण किया जाता ॥१५०७१। भाग्यहीनके दोष अवश्य प्रगट होते हैं ऐसा कहते हैं कोई भाग्यहीन पुरुष है उसके द्वारा दोष को छिपा देनेपर भी वह प्रकट होता है, जैसे राहु द्वारा चन्द्रमाको ग्रसित किया जाना यह क्या प्रगट नहीं होता? होता ही है ।।१५०८॥ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ४३७ वंभेऽर्थः क्रियमाणेऽपि विपुण्यस्य न जायते । प्रायाति स्वयमेवासो सुकृते विहिते सति ॥१५०६॥ छंद -- वितरति विपुला निकृतिधरित्री बहुविधमसुखं दुरितसवित्री । इयमिति निहता विपुलमनस्के ऋजुगुणपविना विमलयशस्कः ।।१५१०॥ ___। इति माया नियः ।। संपद्यते सुपुण्यस्य स्वयमेत्यान्यतो धनम् । हस्तप्राप्तमपि क्षिप्रं विपुण्यस्य पलायते ॥१५११॥ --... भावार्थ-भाग्यवान का दोष लोगोंके प्रत्यक्षमें आनेपर भी लोग उसे दोष नहीं मानते और भाग्यहीनका दोष गुप्त हो छिपाया हो लोगोंके समक्ष नहीं हो तो भी उस दोषसे जनता उसको तिरस्कृत करती है । अतः आचार्य महाराज साधु समुदाय एवं विशेष करके क्षपकको समझा रहे हैं कि दोषको छिपानेरूप मायाचार करना व्यर्थ है । पुण्योदयमें दोषको छिपानो या न छिपाओ लोग उसकी निंदा-ग्लानि नहीं करेंगे और पापोदय में दोषको ग्लानि निंदा अवश्य होगी। इसलिय "मेरे मान्यताका नाश होगा" इस भावसे दोषको मत छिपाना और माया, छल, कपट मत करना । बहुतसा कपट करनेपर भी भाग्यहीन व्यक्तिके धन नहीं होता है और पुण्य करनेपर वह घन स्वयं अपने आप ही अवश्य आता है । अतः कपट करके धन कमानेकी इच्छा करना व्यर्थ है ।। १५०६ ।। पापको जन्म-उत्पन्न करने में माताके समान यह मायारूप विशाल धरित्री जीवोंको बहुत प्रकारके दुःखको देती है, इसप्रकार जानकर इस मायाको विमल यशवाले बुद्धिमान पुरुषों द्वारा ऋजुगुण-प्रार्जव धर्मरूपो वसे नष्ट किया जाता है ।।१५१०।। मायादोषके बिजयका वर्णन समाप्त । अब लोभको जीतनेका उपाय बताते हैं पुण्यवान् पुरुषके अन्य स्थानसे धन स्वयं आकर प्राप्त होता है और पुण्यरहित पुरुषके हाथमें आया हुआ भी धन शीघ्र नष्ट होता है ।।१५११॥ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ । मरणकण्डिका संसारेऽटादघमानेन प्राप्ताः सर्वे सहस्रशः । विस्मयो लब्धमुक्तषु कस्तेषु मम सांप्रतम् ॥१५१२॥ छंद-इन्द्रबचालोकद्वये दुःख फलानि वत्ते गार्धक्यतोयेन विद्धितोऽयम् । संतोषशस्त्रेणनिकर्तनीयः स लोभवक्षो बहुलः क्षणेन ॥१५१३॥ छंद-वंशस्य - कषायचौरानतिदुःखकारिणः पवित्र चारित्रधनापहारिणः । शृणाति यश्चारित्रमार्गणे: करस्थितास्तस्य मनीषिताः श्रियः॥१५१४॥ ॥ इति निमः । - - --- -- भावार्थ-धन जब पुण्यका अनुकरण करता है अर्थात् पुण्यके उदयमें ही प्राप्त होता है तब धनार्जनके लिये लोभ करना हिंसादिमें प्रवृत्ति करके अन्याय करके धन संचय इत्यादि बातें व्यर्थ हैं । धन प्राप्ति में कारण लोभ या कृपणता नहीं है किन्तु पुण्य ही कारण है ऐसा निश्चित समझना चाहिये ।। संसारमें अनंतबार परिभ्रमण करते हुए मैंने सब प्रकार बैभव संपत्ति धनादि को हजारों बार प्राप्त कर लिया है, उस प्राप्त करके छोड़े गये धन वैभव में मेरेको इस समय आश्चर्य कोनसा है ? अर्थात् धनादिक तो मुझसे चिर परिचित हैं कोई नवीन नहीं हैं इसलिये उसमें मेरे लिये कौनसा विस्मय है ? कुछ भो विस्मय नहीं है ॥१५१२।। जो दोनों लोकोंमें दुःखरूपी फलोंको देता है, गद्धता-रूपी जलसे सींचा गया है-बढ़ाया गया है ऐसा यह बड़ा भारो लोभरूपी वृक्ष संतोषरूपी शस्त्रसे क्षणमात्र में काट देना चाहिये ।।१५१३।। पवित्र चारित्र रूपो धनको लूटने वाले कषायरूपी अति दुःखदायी इन चोरों को जो सुदर आचरण रूपो बाणोंसे नष्ट करता है उस महात्मा पुरुषके मनोवांछित संपत्ति हाथमें स्थित हो चुकी है ऐसा समझना चाहिये ।।१५१४।। लोभ विजयका कथन समाप्त । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ४३६ अनुशिष्टि महाधिकार निद्रां जय नरं निद्रा विवधाति विचेतनम् । सुप्तः प्रवर्तते योगो दोषेषु सकलेष्वपि ॥१५१५।। यदा प्रबाघते निता स्वाध्यायं स्वं तदाश्रय । अर्थानणीयसो ध्यायन्कुरु संगनिर्विवौ ॥१५१६॥ निद्रा प्रीतौ भये शोके यतः पुसो न जायते । निर्जयाय ततस्तस्यास्त्वमिदं त्रितयं भज ॥१५१७॥ ज्ञानाचाराधने प्रीति भयं संसारदुःखतः। पापे पूर्वाजिते शोक निद्रां जेतु सवा कुरु ।।१५१८।। इसप्रकार यहांतक निर्यापक आचार्य देवने इन्द्रिय विजयको और कषाय विजयको करनेका उपदेश क्षपक के लिये दिया अब आगे निद्रापर विजय प्राप्त करने का उपदेश देते हैं हे क्षपकराज ! तुम निद्राको जोलो, क्योंकि निद्रा मनुष्यको अचेतनसा बना देती है, निद्रित साधु सकल दोषोंमें प्रवृत्ति करता है ॥१५१५॥ भो साधो ! जब तुम्हें निद्रा बाधा पहुंचाती है तब तुम स्वाध्यायका आश्रय लेओ । आगमके सूक्ष्म सूक्ष्म अर्थों को ध्यान करते हुए संवेग निर्वेदको करो या संवेगिनी तथा निर्वेदिनी कथाओंको सुनो-पढ़ो ॥१५१६।। जिसकारण पुरुषको प्रीति होनेपर भय तथा शोकके होनेपर निद्रा नहीं आती उस कारण, निद्राको जीतने के लिये तुम उन तीन कारणोंका-प्रीति, भय और शोकका सेवन करो ।।१५१७॥ आगे प्रीति आदिका किसप्रकार सेवन करे ! ऐसा प्रश्न होनेपर उत्तर देते हैं ज्ञानदर्शन आदिकी आराधना करने में हे क्षपक ! तुम प्रोति करना, संसार दुःखसे भय करना तथा पूर्व में उपाजित जो पाप हैं उसमें शोक करना, इसप्रकार निद्राको जीतने के लिये सदा ही इनमें उद्यम करना ।।१५१८।। विशेषार्थ-प्रोति, भय और शोक ये तीनों ही मोहकी पर्यायें हैं अतः साधुको इनका सेवन किसप्रकार उपयुक्त होगा ? ऐसा प्रश्न स्वाभाविक हो उठता है अतः Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४०) मरणकण्डिका सदैव मुपयुक्तन निद्रां निर्जयता त्वया । न ध्यानेन सिना स्थेयं पवित्रण कदाचन ॥१५१६।। न वोषाननपाकृरय स्वस्तु जन्मनि युज्यते । अनर्थ कारिणो रौद्रान्पन्नगानिव मंदिरे ॥१५२०।। ---- --... ... - - -.. -- - आचार्य ने तत्काल ही किस विषयमें प्रीति हो किस विषय में भय हो इत्यादिका खुलासा किया है । रत्नत्रयको आराधनामें प्रीति करना क्योंकि यह आराधना संकटोंका नाश करती है, अभ्युदय और निःश्रेयस सुखोंको साधिका एकमात्र यही आराधना है अहो ! मैं आज ऐसो अपूर्व आराधना करने में उद्यमशील हूं। आज मैं धन्य हुआ। पुण्य स्वरूप हुआ। इस प्रकार रत्नत्रयमें स्नेह प्रेम या प्रीति भावना जाग्रत होनेसे निद्रा भाग जाती है, लोकमें भी देखते हैं कि जब कोई अपना प्रिय कार्य विवाह आदि उपस्थित होता है तब निद्रा भाग जाती है। पंच परावर्तन स्वरूप संसारमें मैंने अनादिकालसे महाभयानक कष्ट भोगे हैं, मिथ्यात्व अविरति आदिसे कुगति में मेरे स्वयंके अपराधसे जन्म धारण किया है ! बड़ा कष्ट है ! मैं अब ऐसे कार्यका पश्चात्ताप करता है । इस प्रकार अपने पूर्वमें किये गये पापोंका शोक करना आगे ऐसे पाप नहीं करने का दृढ़ संकल्प करते रहनेसे निद्रा नहीं प्राती है । शारीरिक, मानसिक, आगंतुक और स्वाभाविक ऐसे चार प्रकारके दुःख इस संसारमें सदा ही मुझे प्राप्त होते रहे हैं, मुझे इन दुःखोंके कारण जो अशुभ चेष्टायें हैं उनसे भयभीत रहना चाहिये, दूर रहना चाहिये । इसतरह चितवन करनेसे निद्रा नहीं आती। व्यवहार में देखा जाता है कि इष्ट व्यक्तिके वियोग होनेपर शोक होता है और शोकाकुल व्यक्ति नोंद नहीं ले पाता तथा घरमें सदिका भय हो तो भी नोंद नहीं पाती। इसोप्रकार ससारके कुगतिके दुःखका मनमें भय हो एवं अपने पापाचारके प्रति पश्चात्ताप शोक होवे तो निद्रा नहीं आवेगी । जाग्रत अवस्था में आत्म भावना व्रताचरण आदि सहज संपन्न होते हैं। हे क्षपक ! तुम सदैव निद्राको जीतने में उद्यमी होत्रो । शुभ ध्यानके बिना तुम कभी भी नहीं रहना । अर्थात् अशुभ ध्यान में स्थित नहीं होकर शुभध्यान में लीन रहना ।।१५१६॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ४४१ अनुशिष्टि महाधिकार संसारे युज्यते स्पस्तु कस्य दोषः प्रदीपिते । महातापकरंगेंहे पापकरिव भोषणे ॥१५२१।। को दोषेष्वप्रशांतेषु निरुद्व गोऽस्ति पंडितः । विषत्स्विव समीपेषु विविधानर्थकारिषु ॥१५२२।। नास्ति निद्रातमस्तुल्यं परं लोके यतस्तमः । सर्वव्यापारविध्वंसि जयेवं सर्वदा सतः ॥१५२३॥ निद्राविमोक्षकाले त्वं निद्रामुचाथवा यते ! । यथा वा पलान्तदेहस्य समाधानं तथा कुरु ।।१५२४॥ इस जन्म में मिथ्यात्व आदि दोषोंको दूर किये बिना सोना बिलकुल उचित नहीं है । देखो ! जिस घरमें अनर्थकारी क्रूर सर्प रहते हैं उसमें सोना जैसे उचित नहीं होता वैसे ही मिथ्यात्व आदि दोषोंके रहते हुए नोंद लेना उचित नहीं है ।।१५२०।। हिंसा आदि दोषोंसे भरे हुए इस संसारमें निद्रा लेना किसके लिये उचित है ? किसीको भी नहीं, जैसे महासंतापकारी अग्निके द्वारा जाज्वल्यमान भयानक घरमें नींद लेना उचित नहीं होता ।।१५२१॥ रागद्वेष आदि दोषोंके मौजूद रहनेपर कौन ऐसा पंडित है जो निर्भय है ? अर्थात दोषोंको शांत किये बिना झानोजन निद्रा नहीं लेते । जैसे विविध अनर्थ करने बाले शत्रुओंके निकट रहनेपर कोई नहीं सोता है ।।१५२२।। इस विश्वमें निद्राके समान अन्य कोई अंधकार नहीं है यही सबसे बड़ा अंधकार है क्योंकि यह सर्व हो कायाँको ध्वस करती है। इसलिये हे साधो ! तुम हमेशा निद्राको जोतो ।।१५२३।। रात्रिमें सतत् जाग्रत रहनेको शक्ति न होवे तो भो यते ! तुम निद्राके त्याग का जो समय रात्रिका पिछला भाग-तीसरा प्रहर है उसमें निद्राको छोड़ देना अथवा उपवास बिहार रोग आदिके कारण शरीर क्लान्त हो चुका है सो जैसा समाधान हो परिणाम शांत हो वैसा निद्राका त्याग करना ॥१५२४।। हे क्षपक ! तुम्हारे लिये मैंने निद्रा विजय नामका यह एक उपाय बताया है जिसके द्वारा कर्मोंका आस्रव रुक जाता है तथा पुराने कर्मोंकी निर्जरा होतो है अर्थात् Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] मरणकण्डिका कर्मास्रवनिरोधेऽयमुपायः कथितस्तव । कल्मषस्य पुराणस्य तपसा निर्जरा पुनः ।। १५२५।। छंद -उपजाति उदयमानेन महोद्यमेन अनिद्रा तमसां सवित्री । प्रशस्त कर्मव्यवधान शक्ता विजयते भानुमतेव रात्रिः ।। १५२६ ।। ॥ इति निद्रानिर्जयः ॥ यतस्वाभ्यंतरे बाह्य स्वशक्तिमनगृहयन् । तपस्यनलसः स त्वं देहसौख्यपराङ्मुखः ।। १५२७।। श्रालस्यसुखशोलत्वे शरीरप्रतिबंधने । विदधाति तपो भक्त्या स्वशक्तिसदृशं न यः ।। १५२८ ।। तस्य शुद्धो न भावोऽस्ति माया तेन प्रकाशिता । शरीरसौख्यसक्तस्य धर्मश्रद्धा न विद्यते ।। १५२६ ।। इन्द्रिय विजय और कषाय विजय करनेसे जैसे कर्मोकी संवर निर्जरा होती है, वैसे ही निद्रा विजयसे कर्मोंकी संवर निर्जरा होती है ।। १५२५ ।। जिसप्रकार उदित होते हुए महाप्रचंड ऐसे सूर्यके द्वारा प्रशस्त कार्यों में विघ्न उपस्थित करने वाली एवं अंधकार की जननी स्वरूप रात्रि जोती जाती है उसी प्रकार महाउद्यमशील उदित ऐसे क्षपक द्वारा प्रशस्त कार्य - सामायिक आदि में व्यवधान करनेवाली एवं पापधिकारको जननो ऐसी निद्रा जीती जाती है अर्थात् जो महान् प्रयत्नशील एवं वैराग्ययुक्त है वही साधु निद्रा को जीतता है ।। १५२६ । निद्रा विजय वर्णन समाप्त । आगे अंतरंग बहिरंग तपका कथन करते हैं अपि क्षपक ! बाह्य और अभ्यंतर तपमें अपनो शक्तिको नहीं छिपाते हुए निरालस एवं शरीर के सुखसे पराङमुख ऐसे तुम सदा उद्यमशील रहो ।।१५२७ ।। आलस्य प्रमाद तथा सुखी जीवन बितानेका स्वभाव होनेपर एवं शरीर में स्नेह - आसक्ति होनेपर इन कारणोंसे जो पुरुष, जो साधु श्रद्धा और भक्तिसे अपनी Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाषिकार यो निगृह्यते येन तेनात्मा वच्यते स्वयम् । सुखशोलतया तेन कर्मासातं च बध्यते ।। १५३० ।। बोर्यान्तराय चारित्र मोहावर्जयतेऽलसः शरीरप्रतिबंधन जायते सपरिग्रहः 1 ।। १५३१ ।। मायादोषाः पुरोद्दिष्टाः समस्ताः संति मायया । अर्मेऽपि निः प्रियाशस्य धर्मोऽस्य सुलभः कथम् ।। १५३२॥ अकुर्वाणस्तपः धिनोति तमोगुणेः । मायावीर्यान्तरायौ च तीव्रौ बध्नाति कर्मणी ।। १५३३ ।। [ ४४३ शक्तिके अनुसार तप नहीं करता है । उस पुरुष के भावोंकी शुद्धि नहीं है, उसने तपस्या करने में माया रखी है अर्थात् शक्ति होते हुए तप नहीं किया है। शरीर के सुखमें आसक्त ऐसे उस पुरुष के धर्मश्रद्धा भी नहीं मानी जावेगी अर्थात् यथाशक्ति तपस्या न करे तो उस साधुके धर्म में श्रद्धा नहीं रहती धर्माचरणमें जी चुरानेवाला मायाचारी भी सिद्ध होता है । इसप्रकार उपदेश देकर आचार्य साधुजनोंको तपस्या में लगा रहे हैं ।। १५२८।। १५२९॥ सुखिया स्वभाव होनेसे जिसने अपनी शक्तिको छिपाया उसने अपने आत्माको स्वयं ठग लिया । इसतरह शक्ति छिपाकर तप नहीं करनेवालेके असाता कर्मका बंध होता है ।। १५३० ।। आलस्य वोर्यान्तराय और चारित्र मोहनीय कर्मका उपार्जन करता है तथा शरीरकी आसक्ति से यह जोव परिग्रहवान होता है ।। १५३१ ।। माया कषायके जो दोष पहले कहे गये हैं वे सब ही दोष उसको लगते हैं जो तप करने में मायाभाव रखता है अपनी शक्तिको छिपाता है, इसतरह उत्तम तपधर्म में भी जिसका प्रीतिभाव नहीं है उस व्यक्तिको आगामी काल में - भव में धर्मं कैसे सुलभ होगा- आगे उसके धर्मकी प्राप्ति कैसे होगी अर्थात् नहीं होगी ।। १५३२ ।। ? जो तपको नहीं करता है वह तपस्यासे होनेवाले संवर निर्जरा आदि समस्त गुणोंसे रहित होता है तथा उस पुरुषके मायाकषाय मोहनीय और वीर्यान्तराय कर्मोंका तीव्र बंध होता है ।। १५३३ ।। तथा जो साधुजन तप नहीं करते हैं उनके अन्य भी दोष Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्डिका अकुर्वतस्तपोऽन्येऽपि दोषाः सन्ति तपस्विनः । कुर्वाणस्यपुनः शक्त्या जायन्ते विविधा गुणा: ।।१५३४॥ लोकद्वये पराः पूजाः प्राप्यन्ते कूर्यता तपः । बानटेलिसा नेवाः पुरंदरपुरःसरा ॥१५३५।। तपः फलति कल्याणं कृतमल्पमपि स्फुटम् । बहुशाखोपशाखाढ वटबीजं यथा वटम् ॥१५३६॥ विधिनोप्तस्य सस्यस्य विघ्नाः सन्ति सहस्रशः । तपसो विहितस्यास्ति प्रत्यूहो न मनागपि ॥१५३७॥ मृत्युजन्मजरातस्य तपः सुखविधायकम् । महारोगातुरस्येव भैषज्यं वीर्यसंयुतम् ॥१५३८।। उत्पन्न होते हैं किन्तु शक्तिके अनुसार जो तप करता है उनको विविध गुणोंकी प्राप्ति होतो है ।।१५३४।। तपके गुणतपस्या करनेवाले साधु इस लोक और परलोकमें महान आदर प्राप्त करते हैं इन्द्र आदि अखिल देव तपस्वी जनोंको प्रणाम करते हैं । भाव यह है कि तपस्याके प्रभावसे अनेक ऋद्धियां उत्पन्न होती हैं तथा देवगणभी चरणों में झुकते हैं ।।१५३५॥ _ विधिपूर्वक किया गया अल्प भी तप बड़े भारी कल्याणको करता है, जैसे अल्प-छोटा भी वटबोज बहुतसी शाखा उपशाखाओंसे युक्त ऐसे वटवृक्ष रूप फलता है ॥१५३६।। विधिपूर्वक-हल द्वारा भूमिको पहले जोतकर अच्छी तरह वर्षा आदिके होने पर बढ़िया बोजके बोनेपर भी फसल आने में हजारों विघ्न बाधायें होती हैं किन्तु विधि पूर्वक किये गये तपस्याके फल प्राप्तिमें किंचित् भी विघ्न बाधा नहीं आती अर्थात् खेती करनेपर उसका फल रूप फसल प्राप्ति होने में संशय है फसल प्राप्त हो अथवा न हो। किन्तु आगमोक्त विघिसे की गई तपस्याका फल जो स्वर्गादि की प्राप्ति आदि है उसमें कोई संशय नहीं है वे अवश्य मिलेंगे ।।१५३७।। मरण, जन्म और जरासे पीड़ित इस संसारी प्राणीको तप हो एक सुख कारक पदार्थ है, जैसेकि महारोग से पीड़ित व्यक्तिको अत्यंत शक्तिशाली रसायन रूप औषधि Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४४५ धनुशिष्टि महानिकार संसारस्याविषयन ग्रोऽमकस्येव भास्थतः । सापेन तप्यमानस्य तपो धारागृहायते ॥१५३६।। विवधानस्तपो भक्त्या निरालस्यो विधानतः। देशांतरमपि प्राप्तः स बंधुरिव गृह्यते ॥१५४०।। मातेवास्ति सुविश्वास्यः पूज्यो गुरुरिवाखिलः । महानिषिरिव ग्राह्यः सर्वत्रय तपोधनः ॥१५४१।। लभ्यते मरदेवानां सर्वाः कल्याणसंपदः । परमं सिद्धिसौख्यं च कुर्वता निर्मलं तपः ॥१५४२॥ चिन्तामणिस्तपः पुसो धेनुः कामदुधा तपः । तिलकोऽस्ति तपो भव्यस्तपो मानविभूषणम् ।।१५४३॥ सुखकारक हुआ करती है ।।१५३८।। संसार रूपी असह्य ग्रीष्म ऋतुके सूर्यके तापसे संलश हुए जोपो लिप यह सा धारागृह- फम्पाराके समान है अर्थात् जैसे धारागहसे ग्रीष्मको सूर्यको उष्णता शांत हो जाती है, वैसे तप द्वारा कर्मोंका नाश होनेसे दुःखका नाश होकर शांति प्राप्त होती है ।।१५३६।। आलसको छोड़कर विधि के अनुसार बड़ी श्रद्धा भक्ति के साथ तपको जो करता है वह देशांतरमें भी चला जाय तो वहां सभीको बंधुजनोंके समान प्रिय होता है । इस प्रकार तपश्चरण द्वारा जगत् तपस्वीका विश्वास करने लगता है । यह जगद् विश्वसनीयता गुण तपसे प्राप्त होता है ।।१५४०।। तपस्वो मुनि सर्वत्र ही माताके समान विश्वास पात्र होता है । गुरुके समान सबसे पूज्य होता है और महानिधिके समान ग्रहण करने योग्य होता है ।।१५४१॥ । मनुष्य और देवोंकी सर्व ही कल्याण संपदायें तथा परम उत्कृष्ट मुक्तिका सुख भी निर्मल तप करनेवालेको प्राप्त होता है ।।१५४२।। यह तप मनुष्यों के लिये चिंतामणि है, क्योंकि जैसे चितामणि चितित वस्तुको देता है वैसे तप मनाबांछित वस्तुका प्रदाता है तथा तप कामधेनु है, जैसे कामधेनु इच्छित पदार्थ देतो है वैसे तप इच्छित फलदायक है । यह तप ललाटके सुदर तिलकके समान साधु जीवनको शोभा बढ़ानेवाला है तथा तप सन्मानका भूषण है अर्थात् तप सन्मान को बढ़ाता है ।।१५४३।। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका प्रज्ञानतिमिरोच्छेदि जायते दीपकस्तपः । पितेव सर्वावस्थासु करोति नहितं तपः ॥१५४४।। विभीमविषयांभोधेस्तपो निस्तारणे प्लवः । तप उत्तारकं ज्ञेयं विभीमविषयावटात् ।।१५४५।। इंद्रियार्थमहातृष्णाच्छेदकं सलिलं तपः । दुर्गतीनामगम्यानां निषेधे परिधस्तपः ॥१५४६।। मनःकायासुखव्याघ्रत्रस्तानां शरणं तपः । कल्मषाणामशेषाणां तीर्थ प्रक्षालने तपः ॥१५४७।। तपः संसारकांतारे नष्टानो देश के यसः । दोघे भवपथे जन्तोस्तपः संबलकायते ॥१५४८।। श्रेयसामाकरो ज्ञेयं भयेभ्यो रक्षकं तपः । सोपानमारुरुक्षणामबाधं सिद्धिमंदिरम् ॥१५४६॥ अज्ञानरूपी अंधकारको नष्ट करनेवाला यह तप दीपक सदृश है तथा पिताके समान सर्व अवस्थाओंमें मनुष्यका हित करता है ॥१५४४॥ यह तप अतिभयानक विषयरूपी समुद्रसे पार होने के लिये नौका सदृश है और अत्यंत भयावह ऐसे पंचेन्द्रियोंके विषयरूपी गर्तसे निकालने वाला भी यह तप ही है ।।१५४५।। इन्द्रियोंको विषयरूपी महातृषाको बुझाने के लिये यह तप जलके समान है तथा अत्यंत दु:खदायी दुर्गतिको रोकनेके लिये अर्गलाके सदृश यह तप है ।।१५४६।। शरीर और मन संबंधी जो दुःख है उस दुःखरूपी व्याघ्रसे डरे हुए जीवोंके लिये तप शरणभूत है और संपूर्ण पापरूपो मैलको धो डालनेके लिये यही तप तीर्थ है-नदीका स्नानतट है। भाव यह है कि संसार में हमारा यदि कोई शरण, सहायक या रक्षक है तो वह तप हो है क्योंकि तपसे निर्भय स्थान--मोक्ष प्राप्त होता है । पाप मलका प्रक्षालन भी तप ही करता है अर्थात् पापकर्म की निर्जरा तप द्वारा होती है । इस प्रकार तपश्चरणके महान् महान गुण आचार्य परमेष्ठी क्षपक एवं साधुओं को बतला रहे हैं ।।१५४७॥ संसाररूपी भयंकर जंगल में दिशामढ़ हुए जोवोंको मार्गदर्शन देनेवाला यदि कोई है तो तप ही है । संसारी प्राणोका यह जो संसार भ्रमणका लवा रास्ता है उससे पार होने के लिये मार्ग का संबल (कलेबा) भी तप है ।। १५४८1। अनेक प्रकारके भयोंसे रक्षा करनेवाला यदि Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्ट महाधिकार तन्नास्ति भुवने यस्तु तपसा यन लभ्यते । तपसा दह्यते कर्म वह्निनेष तृणोत्करः ॥। १५५० ।। चितितं यच्छतो वस्तु सर्वं चितामणेरिव । तपसः शक्यते वक्तु न महात्म्यं कथंचन ।। १५५१ ।। द्रुत विलंबित छंद { ४४७ इति विलोक्य तपः फलमुत्तमं विमलवृत्त निवेशितमानसः । तपसि पूतमतिर्यतले यतिः कुलपसः स फले विगतावरः ।। १५५२ ।। छंद-वंशस्थ - तपःक्रियायामनिशं स्वग्रही नियोजन निहितंबिला. नियोज्यते कि न गृहीतवेतनो मनोषिते कर्मणि न स्वचेटकः ।। १५५३ ।। छंद-वंशस्थ - गुणैरशेषः कलिते मनोरमेनिरस्तदोषे कथिते तपोधनः । सदात्र धर्मे शिवसौख्य कारणे प्रमादमुक्त : क्रियतां महावरः ।। १५५४।। ।। इति तपसः क्रमः ॥ कोई है तो यह तप है । कल्याणोंका आकर तप है निबाध मुक्ति के महल में चढ़ने के इच्छुक जनोंके लिये तप सीढ़ियों के समान है ॥१५४९ ।। ऐसी कोई वस्तु संसार में नहीं है जो तपश्चरण द्वारा प्राप्त नहीं होती हो । तपस्या द्वारा कर्म भस्मसात् होता है जिसप्रकार अग्नि द्वारा तृणोंका ढेर भस्मसात् होता है ।। १५५० ।। चितामणि रत्न के समान चितित वस्तुको देनेवाले इस तपका माहात्म्य किसी प्रकार भी कहना शक्य नहीं है ।। १५५१ । । इसप्रकार निर्दोष चारित्रके पालन में लगाया है मनको जिसने ऐसे यति जन तपस्याके उत्कृष्ट फलको देखकर पवित्र बुद्धि युक्त हो तपमें प्रयत्नशील होते हैं और खोटे तपके फलमें आदर नहीं करते हैं ।। १५५२ ।। अपने हितको चाहनेवाले यति द्वारा शरीरको तपस्याकी क्रियाओं में सततरात दिन लगाना चाहिये । देखो ! जिसने अपनो वेतन - तनख्वा ली है ऐसे निज भृत्व को क्या इच्छित कार्य में नहीं लगाया जाता ? जाता हो है ।। १५५३ ।। आचार्य महोदय कह रहे हैं कि भो क्षपकराज ! संयुक्त तथा दोषोंसे रहित ऐसे तपोधन गणधर आदिके द्वारा संपूर्ण मनोरम गुणोंसे कहा गया मोक्षसुखका Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] मरण कण्डिका क्षपकाननराजीवं ततो भाति विकाशितम् । हतमोहतमस्कांडः सुरिवाक्यमरीचिभिः ॥१५५५।। सूरे तिप्रभावेण तत्सदो मुखपंकजः । सरोवर्रामवाकोणं पमं विकसितः रवेः ॥१५५६।। प्राप्योपवेशपीय क्षपकोऽनि निर्वतः । समस्तनमविध्यसि तृषार्त इव पानकम् ॥१५५७।। ततोऽमुशासनं श्रव्यं श्रत्या संविग्नमानसः । उत्थाय बंदतेसूरि स नम्रीकृतविग्रहः ॥१५५६।। कारणास्वरूप यह उत्तम ता धर्म है इसमें प्रमादसे रहित होकर आप सभी के द्वारा महान् आदर करना चाहिये अर्थात् तपधर्मका अनुष्ठान करना चाहिये ।।१५५४।। इसप्रकार सपका माहात्म्य सुनकर मोहरूपी अंधकार समूहको नष्ट करनेवाले निर्यापकाचायंके बचनरूपी किरणों के द्वारा क्षपकका मुखकमल विकसित हो शोभने लगता है ।।१५५५।। _ निर्यापक आचार्य जब क्षपक युक्त उस मुनि परिषद्के मध्य में तपधर्मका मनोहर उपदेश देते हैं तब आचार्य के बचन प्रभावसे मुनियों के विकसित हुए मुखकमलों द्वारा वह परिषद अत्यंत सुशोभित होती है, जैसे सूर्यको किरणोंसे विकसित हुए कमलों द्वारा भरा हुआ सरोवर सुशोभित होता है ।।१५५६।। उस समय क्षपक मुनि उपदेशरूपी उस अमृतको प्राप्तकर अत्यंत प्रसन्न होता है, जैसे प्याससे पीड़ित पुरुष समस्त थकावट और प्यासको नष्ट करनेवाले पेत्रकोठंडाई आदिको प्राप्तकर प्रसन्न होता है, वैसे क्षपक आचार्य के बचनामतको पीकर आनंदित होता है ।। १५५७।। तदनंतर कानोंको अत्यंत प्रिय ऐसे जिनशासन-तपधर्मको सुनकर उत्पन्न हुआ है वैराग्य एवं धर्म में अतिशय श्रद्धा जिसे ऐसा वह क्षपक संस्तरसे उटकर बैठ जाता है और सर्वागको अति नम्र करके वह आचार्य देवकी वंदना करता है-नमस्कार करता है ॥१५५८।। वह कहता है कि हे गुरुदेव ! आपके इस उपदेशामृत को मैं शेषाक्षतके समान मस्तकपर धारणकर परीषहोंको जीतकर जैसा आप कहते हो वैसा आचरण करूगा ।।१५५६।। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार तवेमा वेशनां कृत्वा शेषामिव शिरस्यहम् । यथोक्तमाचरिष्यामि पराजितपरीषहः ॥१५५६।। यथा मे निस्तरत्यात्मा तुष्टिरस्ति यथा तव । संघस्य सर्वस्य यथा तवास्ति सफलः श्रमः ॥१५६०।। यथात्मनो गणस्यापि कीतिरस्ति प्रथीयसी । अहमाराषषिष्यामि तथा संघप्रसादतः ॥१५६१।। पाराधिता महाधीररधिरमनसापि नो । प्रस्ताधां साधयिष्यामि देवीमाराधनामहम् ।।१५६२।। तवोपदेश पीयूषं पीत्वा को नाम पावनम् । विभेतोह क्षुदादिम्पः कातरोऽपि नरः प्रभोः ॥१५६३।। पलालरिव निःसारबहुभिर्भाषितः किमु । प्रत्यूहकरणे शक्तो न मे शकोऽपि निश्चितम् ॥१५६४।। ध्यानविघ्नं करिष्यति कि सुवादिपरोषहाः । कषायाक्षद्विषो वा मे त्वत्प्रसावमुपेयषः ॥१५६५।। मैं तो वैसा कार्य, आचरण तपस्या करूगा जैसे मेरा आत्मा संसार समुद्रसे पार हो जाय ! जिसप्रकार आपको संतुष्टि होवे । समस्त संघ और आपका श्रम जैसे सफल हो वैसा ही आचरण मैं अवश्यमेव करूगा ।।१५६०।। भो गुरुदेव ! जिसप्रकार अपनी और संघकी भी कीत्ति विस्तारको प्राप्त होये उसप्रकार को आराधनाको मैं संघके प्रसादसे करूंगा ॥१५६१।। हे पूज्यवर ! जिस आराधनाको महाघोर वीर पुरुषोंने किया है जो धैर्य रहित व्यक्ति द्वारा मनसे भी करना शक्य नहीं उस पापको नष्ट करनेवाली सम्यक्त्व आदि चार प्रकारको आराधना देवो को मैं सिद्धि करूगा ॥१५६२।। हे प्रभो ! आपके पावन उपदेशरूपी अमृतको पोकरके ऐसा कौनसा मानव है जो क्षुधा तृषा आदिसे डरेगा ? अर्थात् कोई भी नहीं डरता है ।।१५६३।। पलाल-घास या भूसाके समान बहुतसे निःसार भाषणसे क्या मतलब है । हे भगवन् ! मेरी तपस्यामें तो इन्द्र भो विघ्न करने में नियमसे समर्थ नहीं होगा ॥१५६४।। हे गुरुवर ! आपके प्रसादको प्राप्त हुए मेरेको भूख प्यास आदि परीषह क्या करेंगे तथा कषाय और इन्द्रिय रूपी शत्रु भी क्या बिगाड़ कर सकेंगे ? कुछ भी नहीं कर सकेंगे ।।१५६५॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] मरणकण्डिका छंद-रथोद्धतास्थानतश्चलति नाकपर्वतः पुष्करं वसुमति प्रपद्यते । स्वत्प्रसावमुपगम्य न प्रभो ! जातु पामिविकृति मनागपि ।।१५६६।। छंद-तोटकमनमा नषा वचसा भायखनुशासनमेतवनन्यमतिः । तव यो विवधाति सदा विधिना शिवतातिमुपैति स मुक्तमलः ॥१५६७।। ॥ इति अनुशिष्टिा । भो गुरुवर्य ! हे प्रभो ! कदाचित् सुमेरु पर्वत अपने स्थानसे चलायमान हो जाय, पुष्कर पृथिवीपने प्राप्त हो जाय । किन्तु आपके प्रसादको प्राप्त करके मैं किंचित भी विकारको प्राप्त नहीं होगा ।।१५६६।। हे भगवन् ! आपके इस अनुशासनको जो पुरुष अनन्यमति होकर मन से, वचनसे और कायसे विधिपूर्वक सदा धारण करता है, वह पुरुष कर्ममेलसे मुक्त हुआ मोक्षसुखकी परंपराको प्राप्त होता है ।।१५६७।। ____ इसप्रकार सल्लेखनाके चालीस अधिकारोंमें यह तैतीसवां अनुशिष्टि नामका महाधिकार पूर्ण हुआ । (३३) । विशेषार्थ-इस मरणकण्डिका ग्रंथमें समाधिमरणका वर्णन करने के लिये अर्ह, लिंग, शिक्षा आदि चालीस अधिकार हैं । इनमें अनुशिष्टि नामका अधिकार सबसे बड़ा है । इसमें निर्यापक आचार्यका क्षपकके लिये अत्यंत-हृदयग्राही उपदेश है। इस सुविस्तृत उपदेशके प्रारंभमें सूत्ररूप पांच कारिकायें हैं-- शोधयित्वोपधिं शय्यां वैयावृत्यकरानपि । नि:शल्यीभूय सर्वत्र साधो ! सल्लेखनां कुरु ।।७४६।। मिथ्यात्ववमनं दृष्टि, भावनां भक्ति मुत्तमा । रति भावनमस्कारे, ज्ञानाभ्यासे कुरुधमं ।।७५०।। मुने ! महाव्रतं रक्ष, कुरु कोपादि निग्रहम् । हृषीक निजयं द्वधा तपो मार्गे कुरुघमम् ।।७५१।। भवद्रुममहामूलं मिथ्यात्वं मुच सर्वथा । मोह्यते सगुणा बुद्धि मद्य नेव मुने ! लघु ।।७५२।। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ४५१ पिब सम्यक्त्व पीयूषं मिथ्यात्व विष मुत्सृज । निघेहि भक्तिश्चित्ते नमस्कार मनारतम् ।।७५३।। इन्हीं कारिकाओंके विश्लेषण रूप आगेका संपूर्ण उपदेश है अर्थात् उपधि तथा आहारको निर्दोष ग्रहण करना । शल्यका त्याग, मिथ्यात्वका वमन, सम्यक्त्वको भावना, भक्ति पंच नमस्कार मंत्रमें प्रीति और ज्ञानाभ्यास इनके लिये क्षपक्रको प्रेरित किया है पुनः महाव्रतोंका विस्तार पूर्वक वर्णन है । कषायका निग्रह और इन्द्रियों पर विजय करने के लिये बहुत ही सुदर रीतिसे समझाया है । अंतमें तपस्याका माहात्म्य एवं गुण तथा फल वर्णन करते हुए यह अधिकार समाप्त होता है । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार लिहां शुगते पुणे कुणः क्षाकस्ताः । वते निर्यापकः शिक्षामनिविष्णः प्रियंववः ॥१५६८॥ कतिक्तकषायाम्ललबरणस्वावुभौरसः । पानकं मध्यमयुक्तं तस्मै क्षीणाय दीयते ॥१५६६।। यबासौ नितरां क्षीणस्तदपि त्याज्यते तदा । पटीयांसो न कुर्वन्ति निरर्थक नियोजनम् ॥१५७०।। __ हित एवं प्रियवचन बोलने वाले निर्यापक बिना विश्रामके क्षपकको शिक्षा देता है उससे यथोक्त तपको करता हुआ क्षपक बड़ी भारी कर्मोको निर्जरा करता है ॥१५६८॥ समाधिमरणमें उद्यमी क्षीणकाय क्षपके लिए कटुक, तीखा, कषायला, नमकीन, स्वादु, मोठा इन रसोंमेंसे मध्यम रसोंका पानक देना उपयुक्त होता है ।।१५६६॥ पुनः अतिक्षीणकाय होनेपर क्षपक द्वारा वह पानक भी निर्यापक द्वारा छुड़ाया जाता है। ठीक ही है चतुर पुरुष व्यर्थका नियंत्रण नहीं करते हैं अर्थात् निर्यापक क्षपकको क्षमताके अनुसार पानकका त्याग कराते हैं ।।१५७०।। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार इत्थं शुश्रूषमाणस्य संस्तरस्थस्य वेदना । पूर्वकर्मानुभावेन काय काप्यस्य जायते ॥१५७१॥ वर्शनशानचारित्रतपोरन भूतस्ततः । संसारमा घोरे गाशिमोतो सिसाणति ।।३५७२॥ निमज्जंतं भवाम्भोधौ यो दृष्ट्वा तमुपेक्षते । अधार्मिको निराचारो नापरो विद्यते ततः ॥१५७३॥ वैयावस्यगुणाः पूर्व कथिता ये प्रपंचतः । तेरपेक्षापरो नीचस्स्यज्यते निखिलैरपि ॥१५७४॥ वैयावत्यं सतः कार्य चिकित्सां जानता स्वयम् । बंद्योपवेशतश्चास्य शक्तितो भक्तितः सदा ।।१५७५।। इसप्रकार निर्यापक द्वारा उपदेशसे जिसको सेवा हो रही है एवं वैयावृत्य करनेवाले मुनियों द्वारा जिसको सेवा हो रही है ऐसे संस्तरमें स्थित क्षपकके शरीरमें पूर्वके असाता कर्मके उदयसे कोई उदरशूल आदि वेदना उत्पन्न होती है ॥१५७१।। उस वेदनाके होनेसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूपो रत्नोंसे भरी हई यह क्षपक मुनिरूपी नौका घोर संसार सागर में डूबती है ।।१५७२।। वेदनासे आकुल व्याकुल क्षपकके परिणाम प्रशुभ होते हैं और उस परिणामसे मरण होवे तो क्षपकका भयसागर में डूबना संभव है । उस वक्त अस क्षपकको भवसागर में डूबते हुए देखकर जो साधु एवं निर्यापक उसको उपेक्षा करता है उनको सम्हालता नहीं अर्थात् उपदेश और सेवा द्वारा क्षपकको समाधान नहीं कराता है वह अधार्मिक है, आचारहीन है उससे अधार्मिक और आचारहीन दूसरा कोई नहीं है ।।१५७३। पहले विस्तारपूर्वक वैयाकृत्यके गुण बतलाये हैं । जो मुनि क्षपककी उपेक्षा करता है वह उन गुणोंसे भ्रष्ट होता है । अर्थात् क्षपककी उपेक्षा करने से क्षपक संसार सागरमें डूबेगा और उपेक्षा करने वालेके गुण भी नष्ट होंगे ।।१५७४।। इन सब बातों को ध्यानमें रखकर संघस्थ मुनियोंको वेदनाके चिकित्सा विधिको स्वयं जानकर क्षपकको देयावत्य अवश्य करना चाहिये तथा वैद्यके उपदेश के अनुसार शक्ति और भक्तिसे क्षपक की सदा ही वैयावृत्य करना चाहिये ।।१५७५।। क्षपकको बेदनाको जाने कि इस वेदना Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] मरण कण्डिका विज्ञाय विकृति तस्य वेदनाया: प्रतिक्रिया । ओषधैः पानकः कार्या बातपित्तकफापहैः ॥१५७६।। प्रभ्यंगस्वेदनालेपस्तिकांगमई नः । परिचर्यापरेणापि कृरपास्य परिकर्मणा ॥१५७७॥ कस्यचिक्रियमाणेऽपि बहुधा परिकर्मणि । पापकर्मोदये सीने न प्रशाम्यति बेदना ॥१५७८।। क्षपको जायते तीव्र रुपसर्गपरीषदः । अभिभूतः परायत्तो विह्वलीभूतचेतनः ॥१५७६॥ घ्याफुलो बेगनास हलः परीत हातितः । प्रलपत्यनिबद्धानि वाक्यानि स विचेतनः ।।१५८०॥ अयोग्यमशनं पानं रात्रिभुक्ति स कांक्षति । चारित्यजनाकांक्षी जायते बेबनाकुलः ॥१५॥ का कारण क्या है तथा उसके प्रतीकारको भलोप्रकारसे समझकर वातपित्त और कफ की नाशक पेय औषधिके द्वारा वेदनाका परिहार करना चाहिये ।।१५७६।। शरीरको शीत करना अथवा आवश्यकता और वेदनाके अनुसार अग्निसे सेक, और औषधिका लेप और वस्तिकर्म (इनिमा) तथा अंग मर्दन द्वारा इस क्षपककी परिचर्या करना चाहिये तथा अन्य भी प्रक्रियाके द्वारा वेदनाको दूर करना चाहिये ।।१५७७।। इसप्रकार उपचार करनेपर भी किसी क्षपकके तोत्र पापकर्मके उदयसे वेदना शांत नहीं होती है ।।१५७८।। उस समय तोव्र वेदना या उपसर्ग परोषहोंसे क्षपक अभिभूत होता है, वेदनाके आधीन हआ मूच्छित-बेहोश हो जाता है ।।१५७६।। वेदना प्रस्त व्याकुल हुआ क्षपक परोषहोंसे पीड़ित होकर बेभान हुआ असंबद्ध प्रलाप करने लगता है ॥१५८०।। वेदनासे आकुलित वह क्षपक साधुपदके प्रयोग्य ऐसे पानको तथा रात्रि भोजनको चाहने लगता है तथा चारित्रको त्यागनेकी भावना करता है ।।१५८१।। इसतरह क्षपककी मोहरूप विषम स्थिति होनेपर निर्यापक आचार्य उस क्षपकका मोह-मूर्छाभाव से दूर हो उस रूप सारणा करता है अर्थात् क्षपक अपने व्रतादिका स्मरण जिस तरह करे उसतरह Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ४५.५ तथेति मोहमापन्नः सारणीयो गणेशिना । तथास्ति शुखलेश्याकः स प्रत्यागतचेतनः ।।१५६२॥ कस्त्वं कि नाम ते काल: सांप्रतं कः क्व वर्तसे । कोऽहं किं मम नामेति तं पृच्छति गणी यतिम् ।।१५८३॥ इत्थं अपफमापृच्छ्य चित्तं जिज्ञासता सता । वत्सलत्वेन कर्तव्या सारणा तस्य सूरिणा ॥१५८४।। मुह्यतः क्षपकस्येत्थं यः करोति न सारणम् । तेनासो वजितो ननं जिनधर्म इनोज्ज्वलः ।।१५८५॥ आचार्य प्रयत्न करते हैं तथा शुद्ध लेश्या वाला हुआ पुनः सावधान होबे ऐसा यत्न करते हैं ॥१५८२।। आचार्य क्षपकको इसतरह सावधान करते हैं कि हे साधो ! तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है ? इससमय कौनसा काल प्रवृत्त हो रहा है ? तुम कौनसे देश मेस्थान निवास कर रहे हो ? बताओ मैं कौन हूं? मेरा नाम क्या है ।।१५८३।। इस प्रकार क्षपकको पूछकर उसका चित्त सावधान है या नहीं इस बातको जानने की इच्छासे आचार्यको क्षपकके लिये वत्सल-धर्मस्नेहसे बार-बार सावधान करना चाहिये तथा स्मरण दिलाना चाहिये ।।१५८४।। भावार्थ-यह क्ष पक सावधान है या नहीं इसका परीक्षण करने के लिये आचार्य बड़े प्रेमसे उपर्युक्त प्रश्न बार-बार पूछते हैं। यदि सावधान है तो प्रश्नका उत्तर ठोकसे देगा और सावधान नहीं है तो उसको सावधान करने का उपाय करते हैं। इस प्रकार आचार्य द्वारा क्षपकको सावधान करना स्मरण दिलाना परमावश्यक है । यदि मोहित हुए उस क्षपककी सारणा नहीं करता है अर्थात् व्रतादिका स्मरण नहीं दिलाता तो समझना चाहिये कि उस आचार्य द्वारा नियमसे क्षपकका त्याग किया और क्षपकका त्याग करना उज्ज्वल जिनधर्मका त्याग कहलाता है ।।१५८५।। भावार्थ-~~रत्नत्रय धर्म स्वरूप जिनधर्म है, रत्नत्रय धर्म साधुजनोंमें रहता है अत: क्षपकका त्याग करनेसे जिनधर्मका त्याग हुआ माना जायगा । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरगकण्डिका तस्येतिः सार्यमाणस्य कस्यचिज्जायसे स्मृति । तोत्रकर्मोक्ये नान्यः स्मरणं प्रतिपद्यते ॥१५८६॥ संततसारणवारणकारी कामकषायहृषीकनिवारी। धर्मवतो विवधोत समाधि सर्वमपास्यगणो तरसाधिम् ॥१५८७।। ॥ इति सारणं ॥ प्रतिकर्म विधातव्यं तस्य स्मृतिमगच्छतः । उपदेशोऽपि कर्तव्यः स्मरणारोपणक्षमः ॥१५८८।। परोषहातुरः कश्चिमानानोऽपि न बध्यते । आर्तः पूत्कुरुते दीनो मर्यादा च बिभिसति ॥१५८६।। न बिभीष्यः स नो वाच्यो वचनं कटुकादिकम् । न त्याज्यः सूरिणा तस्य कर्तव्यासावना न च ॥१५६०।। - :.--. - - . इसतरह आचार्य द्वारा सारणा करनेपर किसी क्षपकको स्मरण हो आला है कि अहो ! मैं व्याकुल होकर अपने चारित्र धर्मसे च्युत हो रहा हूं, अब मुझे इस करुणानिधान गुरुके प्रसादसे धर्म में स्थिर चित्त होना है इत्यादि । कोई क्षपक आचार्य द्वारा बार-बार स्मरण दिलाने पर भो तोनकर्मका उदय होनेसे स्मरणको प्राप्त नहीं होता है ॥१५८६।। आचार्य सतत ही क्षपककी सारणा और वारणाको करता है काम, कषाय तथा इन्द्रियोंका निवारण करनेवाला वह गणी धर्मात्मा क्षपकको पोड़ाको शीघ्रतासे दूर करते हुए समाधिको कराता है ।।१५५७।। (३४) इसप्रकार सारणा नामका चौतोसवां अधिकार पूर्ण हुआ। (३५) कवच नामका पैतीसवां अधिकार-- स्मतिको नहीं प्राप्त हुए उस क्षपकका वह सावधान हो ऐसा उपाय निरंतर करना चाहिये तथा स्मरणको प्राप्त हो ऐसा उपदेश भी देना चाहिये ।।१५८८॥ . . कोई क्षपक सावधान तो है किन्तु परीषहोंसे पीड़ित होकर कुछ बोध नहीं कर पाता है । भूख प्यास को वेदनाके द्वारा दुःखी हुआ क्षपक पुकारने लगता है दीन वचन कहता है तथा आहार पानकी प्रतिज्ञाको भंग करना चाहता है ।।१५८६।। इसप्रकार क्षपक विपरीत चेष्टा करने लग जाय तो आचार्य उसे डरावे नहीं तथा कडवे Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ४५७ विराधितो भवन्मानो वचनः कटकादिभिः । जिपक्षस्यसमाधानं प्रत्याख्यानं जिहासति ॥१५६१॥ निर्यापन मर्यादा तस्य मंक्षु मुमुक्षतः । कर्तव्यः कवचो गाढः परोषहनिवारणः ॥१५६२॥ गंभीरं मधुरं स्निग्धमादेयं हृदयंगमम् । सूरिणा शिक्षणीयोऽसौ प्रज्ञापनपटीयसा ॥१५६३।। संतोषबलतस्तोत्रास्ता रोमान्तकवेदनाः । प्रकातरो जयामूढो वृत्तविघ्नं च सर्वथा ॥१५६४।। त्वं पराजित्य निःशेषानुपसर्गपरीषहान् । समाधानपरो भद्र ! मृत्याचाराधको भव ॥१५६५।। कठोर आदि वचन भो नहीं कहे, न उसको छोड़े, आसादना-तिरस्कार भी नहीं करे ।।१५६०॥ क्योंकि कटुक वचनों द्वारा जिसका विराधना हुई है ऐसा वह क्षपक अशांति को प्राप्त होगा तथा अपने संयम आदिको छोड़ने को इच्छा करेगा ।।१५६१।। मर्यादाप्रतिज्ञाका भंग करने के इच्छुक उस क्षपकके आचार्य द्वारा परीवहका निवारण करनेवाला गाढ कवच करना चाहिये ।।१५९२।। समझाने में चतुर ऐसे आचार्य द्वारा यह क्षपक शिक्षणीय है, क्षपकको गंभीर मधुर, स्निग्ध हृदयमें प्रवेश करनेवाले ऐसे ग्राह्य वचन कहे अर्थात् ऐसे वचनों द्वारा उपदेश देवे ।।१५६३।। निर्यापक क्षपकको कहते हैं कि हे क्षपक ! तुम छोटी बड़ी व्याधियोंको तथा तोत्र वेदनाको मंतोष बलसे नष्ट करो । कातरपना-अधोरपनासे रहित सावधान हो, इस आगत चारित्रके विघ्नको सर्वथा जोतो ॥१५६४।। भावार्थ--आचार्य वेदनासे पीड़ित क्षत्रकको समझाते हैं कि तुम कातरपनेका त्याग करो, वेदनामें द्वेष और वेदना प्रतीकारमें राग मत करो क्योंकि रागद्वेष चारित्र रूपो संपत्तिको लूटनेवाले है । संतोष और धैर्यसे वेदनाको सहन करो । हे भद्र ! तुम समस्त परोषह और उपसर्गोको जोतकर समाधान युक्त हो इस मरणकालमें चतुर्विध आराधानाओंका पाराघन करो ।।१५९५॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] मरकण्डिका श्रमाराधयिष्यामि प्रतिज्ञा या त्वया कृता । मध्ये संघस्य सर्वस्य तो स्मरस्यधुना न किम् ।।१५६६ ।। जनमध्ये भुजास्फालं विधाय बलगवितः । कुलीनो रणे मानी शत्रुत्रस्तः पलायते ।। १५६७।। कः कृत्वा स्वस्तवं मानी संघमध्ये तपोधनः । परीषहरिपुत्रस्तः क्लिश्यत्यपातमात्रतः ॥ १५६८ ।। कः प्रविशति रणं पूर्ण शत्रुमर्दनलालसाः । यच्छन्ति नासुनाशेऽपि शत्रूणां प्रसरं पुनः ।। १५६६ मानिनो योगिनो धीराः परोषह निषूदिनः । सहन्ते वेदना घोराः प्रपद्यन्ते न विक्रियाम् ।। १६००॥ विशेषार्थ — परीषहों को और उपसर्गोको सहन करनेका आचार्य उपदेश दे रहे हैं कि भो क्षपकराज ! तुम मन, वचन और कायसे इन परीषहादिको जोतो । मनमें क्षुधा तृषा आदि परीषहसे दुःखी भयभीत नहीं होना मनसे परीषह जीतना कहलाता है | हा ! मुझे बड़ा कष्ट है अही यह कैसा पापका उदय आया हत्यादि दीन, वचन नहीं कहना बचन से परीषद् जीतना है तथा पीड़ा वेदना होनेपर भी मुखमें दीनता व्यक्त नहीं करना शरीरको निश्चल रखना इत्यादि कायसे परोषह जीतना है। इसप्रकार मरणकाल में कष्टों को सहन करनेसे आराधनाकी सिद्धि होती है । अहो क्षपक ! तुमने सर्व संघके मध्य में प्रतिज्ञा को थो कि मैं आराधना करूंगा । अब उस प्रतिज्ञाको क्यों नहीं करते ? क्या प्रापको प्रतिज्ञा याद नहीं है ? ।। १५९६ ।। जनसमुदायमें भुजाओं का आस्फालन कर करके गर्थपूर्वक जो युद्धको प्रतिज्ञा करता है वह मानी कुलीन पुरुष रणमें शत्रुसे घबराकर क्या भाग जाता है ? नहीं भागता है ।। १५९७।। ऐसा कौन मानी तपोधन है जो संघके मध्य में अपनी प्रशंसा करके परोषह्के आगमन मात्र से परोषहरूपी शत्रुसे त्रस्त हो क्लेश करता है ? अर्थात् कोई भी तपोधन सर्व समक्ष लो हुई प्रतिज्ञाका भंग नहीं करता है ।।१५६६ ।। शत्रुको नाश करने की इच्छावाले सुभट रण में प्रविष्ट होते हैं वे प्राण नष्ट होनेपर भी शत्रुओंके आधीन नहीं होते । वैसे ही मानी योगी धीर वीर मुनिजन परीषहोंके सहनेवाले होते हैं के घोर वेदनाको सहते हैं । वे धीर मुनि कभी भो वेदनासे विकारभावको प्राप्त नहीं होते ।।१५६६|| १६०० ll Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४५६ सारणादि अधिकार रणारंभे वरं मृत्यु जास्फालनकारिणः । यावज्जीवं कुलीनस्य न पुनर्जनजल्पनम् ॥१६०१।। संयतस्य वरं मृत्युर्मानिनोंऽसकताडिनः । न दोनत्वविषण्णत्वे परोषहरिपूरये ॥१६०२।। वरं मृत्युः कुलीनस्य पुत्रपौत्राविसंततेः । न युद्ध नश्यतोऽरिभ्यः कतुं स्वकुललांछनम् ॥१६०३।। मा कार्षी|वितार्थ त्वं वन्यं स्वकुललांछनम् । कुलस्य स्वस्य संघस्य मा मास्त्वं देवनावशम् ।।१६०४।। म्रियते अमरे बोरा: पहारा लिला अपि कुर्वन्ति भ्रकूटोभंगं न पुनरिणां पुरः ॥१६०५।। जिसप्रकार जनसमूहमें भुजास्फालन हारा युद्धको प्रतिज्ञा करनेवाले कुलीन पुरुषका रणांगणमें मरण हो जाना श्रेष्ठ है किन्तु जीवन पर्यन्त "यह युद्ध भूमिसे भागकर आया था" इसप्रकारका जनापवाद श्रेष्ठ नहीं है उसोप्रकार संघके मध्य में समाधिकी प्रतिज्ञा किये हुए मानी सयतका मरण होना श्रेष्ठ है किन्तु परीषहरूपी शत्रुके आनेपर दीनपना विषादपना श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् अपनी प्रतिज्ञापर निश्चल रहते हुए मुनिका मरण होना भला है किन्तु रत्नत्रयसे च्युत होना चित्त में भय होना, मैं प्रतिज्ञा पालनमें असमर्थ हूं ऐसा दीन वचन कहना भला नहीं है ॥१६०१।।१६०२।। जिसप्रकार कुलीन योद्धाको मृत्यु होना श्रेष्ठ है किन्तु युद्ध में शत्रुओंसे घबराकर भागकर जाने से पुत्र पौत्र आदि संतान परंपरामें अपने कुलमें जो कलक लग जाता है वह श्रेष्ठ नहीं है । उसीप्रकार हे क्षपक ! तुम जोवनके लिये दीनता मत करो। अपने कुल और संघका अपवाद मत करो । हे साधो ! तुम वेदनाके वशमें नहीं होना । ___अर्थात् संघको दूषण लगे ऐसा कार्य मत करो अपनी प्रतिज्ञामें दृढ़ रहो। मेरे से प्रतिज्ञा पालन नहीं होता, आहार त्यागका नियम नहीं पलता इत्यादि दीन वचन मत कहो उससे संघको लज्जित होना पड़ेगा ॥१६०३।।१६०४।। जैसे शस्त्र प्रहारसे पीड़ित हुए भी वीर पुरुष युद्ध में मर जाते हैं किन्तु पात्रुओंके सामने भ्रकुटो भंग नहीं करते हैं अर्थात् शत्रुसे डरकर भागते नहीं हैं ॥१६०५।। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. मरगकण्डिका कातरत्वं न कुर्वन्ति परोषहकरालिताः । किं पुनर्दीनताबोनि करिष्यन्ति महाधियः ।।१६०६॥ अग्निमध्यगताः केचिद्दह्यमानाः समंततः । प्रवेदना वितिष्ठन्ते जलमध्ये गता इव ॥१६०७।। साधकारं परे सत्र कुर्वन्त्यंगुलिनर्तनः । आनंदितजनस्वान्ता उस्कृष्टि कुर्वते परे ॥१६०८।। वेदनायामसह्मायां कुर्वन्त्यज्ञानिनो तिम् । लेश्यया भवद्धिन्या सुखास्वावपरा यदि ॥१६०६॥ तदा ति न कुर्वन्ति किं भवच्छेवनोचताः । ज्ञातसंसारनैःसार्या वेदनायां तपोधनाः ॥१६१०॥ वैसे ही महाबुद्धि वाले मुनि परीषहसे आक्रांत होनेपर भी डरते नहीं है जो डरते हो नहीं वे क्या दीनता, मुख विवर्णता, विषाद आदि करेंगे ? नहीं कर सकते ॥१६०६॥ कितने ही धीर वीर पुरुष अग्नि के मध्य में चारों तरफसे अतिशय रूपसे जलते हए भी वेदना रहित हो बैठ जाते हैं मानो पानोके मध्य में ही बैठे हों ।।१६०७।। बहत से धीर पुरुष उस अग्निके मध्य में स्थित होकर भी अंगुलियोंको चलाकर साधुकार करते हैं तथा कोई पुरुष आनंदसे विशिष्ट शब्द करते हैं ।।१६०८।। भावार्थ---अग्नि में जलते हुए भी कोई धोर पुरुष अच्छा हुआ ऐसा अपना अभिप्राय अंगुलोको वजाना आदिके इशारे द्वारा प्रगट करते हैं, इस उपसर्गसे मेरा कर्म नष्ट होगा, यह अग्नि शरोरके साथ कर्मों को भी जला देवे इत्यादि रूप अंगुलो हिलाकर एवं विशिष्ट शब्द बोलकर कोई धीर वोर आगत उपसर्गको सहन करते हैं। यदि बहुतसे अज्ञानी जीव असह्य वेदना आनेपर संसार बढ़ानेवाली अशुभ लेश्यासे युक्त होकर इन्द्रिय जन्य सुख स्वादमें लंपट हो धैर्यको धारण करते हैं अर्थात सांसारिक सुखोंके लिये महान महान् कष्ट वेदना-पीड़ाको बड़े ही धोरतासे सहते हैं। तो फिर संसारका छेद करने में उद्यत हुए तपोधन मुनि क्या वेदनाके आनेपर धैर्य धारण नहीं करेंगे ? अवश्य ही धैर्य धारण करेंगे । कैसे हैं मुनिराज ? जान लिया है संसार को असारताको जिन्होंने ।।१६०६।।१६१०।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ४६१ भिक्षे मरके कक्षमये रोगे दुरुत्तरे । मानं क्वापि विमुचंति कुलोना जातु नापदि ॥१६११॥ सेवंते मद्यगोमांसपलांङवादि न मानिनः। कर्मान्यदपि कृच्छेऽपि लज्जनीयं न कुर्वते ॥१६१२।। कुलसंघ यशस्कामाः कि कर्म जगच्चिताः । मानं विमुच्य कुर्वन्ति लज्जनोयं तपोधनाः ।।१६१३।। लध्वी विपत्तिमुरू वा यः प्रयातो विषीदति । नरा वदन्ति तं षढं धोराः पुरुषकातरम् ॥१६१४॥ समता इव गंभौरा निःकम्पाः पर्वता इव ।। विपद्यपि महिष्ठायां न क्षुभ्यन्ति महाधियः ।।१६१५।। स्वारोपित भराः केचिनिःसंगा निःप्रतिक्रियाः । गिरिप्राग्भारमापनाश्चित्रश्वापदसंकटम् ॥१६१६॥ -- . -.. जो कुलवंत पुरुष होते हैं वे कभी भी दुर्भिक्ष में, मारीमें, जंगलके भयके समय, भयानक रोगमें और आपत्तिमें कहीं पर भी गौरवको नहीं छोड़ते हैं ।।१६१११। ___ कुलका स्वाभिमान रखने वाले सामान्य गृहस्थ जन भी मद्य, गोमांस, प्याज आदि निंदनीय पदार्थों का सेवन नहीं करते हैं तथा अन्य भी गलत कार्य कष्ट आनेपर भी नहीं करते हैं ॥१६१२।। जब सामान्य जन की यह बात है तो फिर जो तपोधन मुनिराज कुल और संघके यशकी कामना करते हैं, जो जगत्में पूज्य हैं वे अपने गौरवको छोड़ कर लज्जनीय कार्यको कैसे कर सकते हैं ? नहीं कर सकते ।।१६१३॥ जो पुरुष छोटी या बड़ी विपत्तिके आनेपर खेद करता है भयभीत होता है उसको धीर बोर जन नपुंसक कहते हैं, यह डरपोक मनुष्य है ऐसा कहते हैं ।।१६१४।। जो महाबुद्धिवान होते हैं वे समुद्रके समान गंभोर होते हैं, पर्वतके समान अकंप होते हैं बड़ो भारी विपत्ति में भी क्षोभको प्राप्त नहीं होते हैं ।। १६१५।। ____ कितने ही महापुरुष ऐसे हैं कि जो संपूर्ण कार्यका भार स्वयंपर लेकर परिग्रह रहित होते हैं, आयी हुई आपतिका कुछ भो प्रतीकार नहीं करते हैं । अनेक प्रकारके Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] मरकण्डिका शद्धान्त सचिवाः सन्तः सन्तुष्टाः शुद्धवृत्तयः । साधयन्ति स्थिताः स्वायं व्यालदन्तान्तरेष्वपि ।। १६१७ ।। धीरोऽवन्ति कुमारोऽगास्त्रिरात्रं शुद्धमानसः । शृगाच्या खाद्यमानोऽपि देवोमाराधनां प्रति ।। १६१८ || जंगली पशुओं से व्याप्त गिरियोंके कंदरा गुफा प्रादिमें प्रविष्ट होते हैं ( वहां ध्यान में लीन होते हैं) ।। १६१६।। जो सिद्धांत ग्रंथ में कुशल हैं अर्थात् श्रतरूपी सागरके पारगामी हैं, संतोष भावयुक्त हैं अत्यंत शुद्ध चारित्र के धारक हैं ऐसे सन्त पुरुष क्रूर सिंह आदि जतुओं के दाढोंके मध्य में स्थित होनेपर भी अपना स्वार्थ जो मोक्ष पुरुषार्थ है उसको सिद्ध करते हैं ।।१६१७ ।। अहो क्षपक ! देखो ! अवंति सुकुमार तीन रात्रि तक शृगाली द्वारा खाये जानेपर भी आराधना देवो सम्यक्त्व आदि चार आराधनाको प्राप्त हुए थे । कैसे थे सुकुमार ? अत्यंत शुद्ध है मानस जिनका तथा धीर वीर पुरुष थे ।। १६१८ ।। सुकुमार मुनिकी कथा अवन्ति देश के उज्जैन नगर में रहने वाले सुरेन्द्रदत्त सेठ और यशोभद्रा सेठानी के एक सुकुमाल नामका पुत्र था, जो इतना सुकूमार था कि उसको आसन पर पड़े हुए राईके दाने भो चुभते थे। दीपक की लौं भी वे देख नहीं सकते थे और अतुल वैभव के बीच स्वर्गोपन भोगोंको भोगते हुए सुखपूर्वक अपना जीवन यापन कर रहे थे । एक दिन आपके मामा यशोभद्र मुनिराज त्रिलोक प्रज्ञप्तिका पाठ कर रहे थे, उसे सुनकर इन्हें जाति स्मरण हो गया । उसी समय महलसे निकलकर मुनिराजके पास जाकर दीक्षित हो गये । अपनी आयु मात्र तीन दिनकी जानकर सुकुमाल मुनि जंगल में चले गये और वहाँ प्रायोपगमन सन्यास लेकर आत्मध्यान में लीन हो गये । उसी समय पूर्वभवके वैर संस्कारके वशीभूत होती हुई एक स्यालनो बच्चों सहित भाई और उनके शरीरको खाना शुरु कर दिया तथा तीन दिन तक निरन्तर खाती रही । इस भयंकर उपसर्गके आ जाने पर भी सुकुमाल मुनि सुमेरु सदृश निश्चल रहे और अपनी चारों Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार शिधायाराधनां देवीं मुद्गलाद्रौ सुकौशलः । भक्ष्यमाणो मुनिनिया संद्धाथिरविषण्णवीः॥१६१६॥ आराधनाओंके अबलम्बनमें समता पूर्वक शरीरको त्यागकर अच्युतस्वर्ग में महर्दिक देव हुए। कथा समाप्त । सिद्धार्थ नामके राजाके सुकौशल नामके पुत्रने दीक्षा ली, वे प्रसन्न मनसे मुद्गल नामके पर्वतपर स्थित थे, उस वक्त व्याघ्री द्वारा खाये जानेपर भी उन्होंने आराधना देवीको प्राप्त किया था ॥१६१६।। सुकौशल मूनिको कथाअयोध्या नगरोमें प्रजापाल राजा राज्य करते थे। उसो नगर में सिद्धार्थ नामके सेठ अपनो सहदेवी आदि ३२ स्त्रियोंके साथ सुखसे रहते थे। बहुत समय व्यतीत हो जाने के बाद उनके सूकोशल नामका पूत्र हुआ, जिसका मुख देखते ही सिद्धार्थ सेठ मुनि हो गये। सुकौशल कुमार का भा ३२ कन्याओंसे विवाह हुआ, उनके साथ वे महाविभूतिका उपभोग करते हुए सुखसे जोवन यापन करने लगे। एक समय विहार करते हुए सिद्धार्थ मूनि भिक्षार्थ अयोध्या आये । "इन्हें देखकर मेरा पुत्र मुनि हो जायेगा" इस भयसे सेठानी ने उन्हें नगरसे बाहर निकलवा दिया। "जो एक दिन इस नगरके स्वामी थे, उन्हींका आज इतना अनादर किया जा रहा है" यह सोचकर सुकौशलकी धायको बहुत दुःख हुआ और वह रोने लगी। सुकौशल ने उसके रोनेका कारण पूछा । धायसे (अपने पिता) मुनिराज के अपमानकी बात सुनकर उन्हें दुःख हुआ और उसी समय उन्हीं मुनिराजके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा की बात सुनते ही सुकौशल को माँ अत्यन्त दु:खी हुई और पुत्र वियोग जन्य आर्तध्यानसे मरकर मगध देशके मौगिल नामक पर्वतपर व्याघ्री हुई। सिद्धार्थ और सुकौशल मुनिराजने उसी पर्वत पर योग धारण किया था । योग समाप्त होनेपर भिक्षाके लिए पर्वतसे उतरते हुए युगल मुनिराजोंको व्याघ्रोने देखा और झपट कर अपने ही पुत्र सुकौशल मुनिको खाने लगो । मुनिराजने उपसर्ग प्राप्त होनेपर समाधि द्वारा प्राण त्यागे और सर्वार्थ सिद्धि में गये । कथा समाप्त । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका घरण्यामा चमेव किल कोलितविग्रहः । प्रापद्गजकुमारोऽपि स्वार्थ निर्मलमानसः ।।१६२०॥ कासशोषारुचिश्छविकच्छूप्रभृतिवेवनाः । सोढाः सनत्कुमारेण यतिना शरदा शतम् ॥१६२१।। निर्मल मानसवाले गजकुमार मुनिने पृथ्वीमें गीले चमड़े के समान कीलें ठोककर जिनका शरीर कीलित कर दिया है ऐसा होते हुए भो निर्वाण को प्राप्त किया था।॥१६२०॥ गजकुमार मुनि की कथाश्रीकृष्ण नारायण के सुपुत्र गजकुमार अलि सक्रमार थे । वे अपने पिता आदि के साथ घर्मोपदेश सुनने के लिए भगवान् नेमिनाथके समोशरण में जा रहे थे । मार्ग में एक ब्राह्मण को नव-यौवना, सर्वगुणसम्पन्ना, सुलक्षणा और सौन्दर्यमूर्ति पुत्रोको देखकर श्रीकृष्ण ने उसे उसके पितासे गजकुमारके लिए मंगनी कर ली और उसे अन्त:पुर में भिजवा दिया । भाडान का उपदेश मुलकर श्रीकृष्ण तो सपरिवार द्वारका लौट आये परन्तु गजकुमार नहीं लौटे और जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके किसी एकान्त स्थानमें ध्यानारूढ़ हो गये । जिस लड़की का संबंध गजकूमार से हुआ था उसका पिता जंगलसे काष्ठ भार को लेकर लौट रहा था, उसकी दृष्टि जैसे ही गजकुमार पर पड़ो, वह प्राग बबूला हो उठा और बोला-"अरे दुष्ट ! मेरो अत्यन्त प्रिय सूकुमारी पुत्रीको विधवा बनाकर तू साधु बन गया है, मैं देखता हूँ तेरी साधुता को।" ऐसा कहकर उस दुष्टने मुनिराजके शरीर में काल ठोक दी । गोले चमड़े में जैसे कोलें ठोकते हैं। उस घोर वेदनाको सहन कर गजकुमार महामुनि अंतकृत केवलो हुए। कथा समाप्त । सनत्कुमार चक्रवर्ती मुनिने कास, शोष, अरुचि, वमन, खुजली आदि अनेक रोगोंको बेदनाओंको सैकड़ों वर्ष पर्यंत सहन किया था ।।१६२१॥ __सनत्कुमार मुनि की कथा-- भारतवर्षके अन्तर्गत वीतशोक नगरमें राजा अनन्त वीर्य रानो सीताके साथ कालयापन करते थे। उनके सनत्कुमार नामका अत्यन्त रूपवान् पुत्र उत्पन्न हुआ जो Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारणादि अधिकार [ ४६५ गंगायां नावि मग्नायां एणिकातनयो यतिः । अमूढमानसः स्वार्थ सापयामास शाश्वतम् ।।१६२२।। महापुण्योदयसे चक्रवर्ती की विभूति को प्राप्तकर नवनिधि और १४ रत्नों का स्वामी हुआ । एक दिन सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र अपनी सभा में उनके रूप को प्रशंसा कर रहा था, जिसे सुनकर मणिमाल और रत्नचूल नामके दो देव गुप्त भेषमें आये और स्नान करते हुए चक्रवर्ती का त्रिभुवन प्रिय सर्व सुन्दर रूप देखकर आश्चर्यान्वित हुए। इसके बाद उन देवोंने अपने असली वेष में आकर वस्त्रालंकारोंसे अलंकृत सिंहासन पर स्थित चक्रवर्तीके रूपको देखा और खेदित हो उठे। राजाने इसका कारण पूछा तब देव बोले-महाराज ! यथार्थ में आपका रूप देवोंको भो दुर्लभ है, इसकी तो हमें प्रसन्नता है किन्तु मनुष्य का रूप क्षणाक्षयों है यह देखकर हमें खेद हुआ। जो रूप कुछ समय पहिले स्नानगृहमें देखा था, वह अब दिखाई नहीं देता । यह बात सभासदों की समझमें नहीं आई, तब देवोंने एक पानीसे भरा हुआ घड़ा मंगाया और उसमें से एक बूंद जल निकालकर सभासदोंसे पूछा कि बताओ पहिलेसे इस घड़ेमें कुछ विशेषता दिखाई दो क्या ? यह सब चमत्कार देखकर चक्रवर्तीको वैराग्य हो गया और वे जैनेश्वरी दीक्षा धारण करके तपश्चरणमें संलग्न हो गये। पूर्व पापोदयसे उनके सारे शरारमे भयंकर कुष्ट रोग उत्पन्न हो गया । एक देव उनके धर्यकी परीक्षा लेने के लिए वैद्यका वेष धारण करके आया और उपचार करानेका आग्रह करने लगा। तब मुनिराज बोलेभो वैद्य ! मुझे जन्म-मरण का भयंकर रोग दुःख दे रहा है, यदि आप इस रोगको चिकित्सा कर सकते हो तो करो । महाराज को बात सुनकर वैद्य अत्यन्त लज्जित हुआ और चरणों में गिरकर बोला-स्वामिन् ! इस रोग को राम बाण औषधि तो आपके पास ही है । इस प्रकार देव मुनिराजके निर्दोष चारित्र को और शरीरमें निर्मोहपनेकी प्रशंसा करता हुआ स्वर्ग चला गया और सनत्कुमार मुनिराजने अपने धैर्य से उस परीषह पर विजय प्राप्त की और अष्ट कर्मोको नष्टकर मोक्षलक्ष्मोके स्वामी बने । सनत्क पार चक्रीको कथा समाप्त । एणिक पुत्र नामक मुनि नौकामें आरोहग कर गंगा नदी पार कर रहे थे मध्यमें नौका डूब गयी । उस वक्त सावधान बुद्धि होकर उन मुनिराजने आराधना द्वारा शाश्वत धाम मोक्ष प्राप्त किया था ।।१६२२।। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका अवमोदर्यमंत्रेण भद्रबाहमहामनाः । बुभुक्षाराक्षसों जित्वा स्त्रीचकारार्थमुत्तमम् ।।१६२३।। मासोपवाससंपन्नश्चंपायां तडज्वरादितः । धर्मघोषो मुनिः प्राप्तः स्वार्थ गंगानदीतटे ॥१६२४॥ पणिक-एणिक पुत्र मुनिको कथापणीश्वर नामक नगरमें राजा प्रजापाल राज्य करते थे । वहाँ एक सागरदत्त सेठ अपनी पणिका नामको स्त्रीके साथ आनन्दसे रह रहा था। उन दोनोंके एक पणिक नाम का पुत्र था, जो सरल, शान्त और पवित्र हृदय का था । एक दिन पणिक भगवान के समवसरणमें गया । वहाँ उसने गंध कुटीमें स्थित बर्द्धमान स्वामी का दिव्य स्वरूप देखा, जिससे उसके रोम-रोम पुलकित हो उठे । भगवान की स्तुति और पूजन आदि कर चुकने के बाद पणिकने धर्मोपदेश सुना और अपनी आयुके विषय में प्रशन भी किया तथा अल्प आयु जानकर वह वहीं दीक्षित हो गया । दीक्षा लेकर पणिक मुनिराज अनेक देशोंमें बिहार करते हुए गंगापार करने के लिए एक नाबमें बैठे । मल्लाह सुचारुरीत्या नाव खे रहा था कि अचानक भयंकर आँधी आई, नाव डममगाने लगी, उसमें पानी भर गया, फलस्वरूप नाव डूबने ही वाली थी कि पणिक मुनिराज विशेष आत्मविशुद्धि के साथ शुक्लध्यान में लीन हो गये और केवलज्ञान की प्राप्तिके साथ ही मोक्ष प्राप्त कर लिया। कथा समाप्त । भद्रबाहु नामके महामुनिने अवमौदर्य तप रूप मंत्र द्वारा क्षुधा रूपी राक्षसो को जीतकर उत्तम रत्नत्रय अर्थको प्राप्त किया था ।। १६२३।। चंपानगरी में गंगा नदीके तटपर एक मासके उपवासका नियम लेकर धर्मघोष मुनि स्थित थे, तब उन्हें भयंकर तृषा-प्यासको पीड़ा हुई किन्तु उसे सहन करते हुए उन्होंने आराधना द्वारा मोक्षको प्राप्त किया ।।१६२४।। धर्मघोष मुनिको कथा.. धर्ममूर्ति परम तपस्वी धर्मघोष मुनिराज एक माहके उपवास करके चम्पापुरी नगरमें पारणाके अर्थ गये थे। पारणा करके तपोवन को ओर लौटते हुए रास्ता भूल Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ४६७ पूर्वकारातिदेवेन कृतैः शीतोष्णमारुतः । श्रीवसः पीडपमानोऽपि जग्राहाराधनां सुधीः ॥१६२५।। गये जिससे चलने में अधिक परिश्रम हुआ और उन्हें तृषा वेदना उत्पन्न हो गई । वे गंगा किनारे आकर एक छायादार वृक्षके नोचे बैठ गये । उन्हें प्याससे व्याकुल देख गंगादेवी पवित्र जलसे भरा हुआ लौटा लाकर बोलो-योगिराज ! मैं ठण्डा जल लाई हूँ आप इसे पीकर अपनी प्यास शांत कीजिए । मुनिराज ने जल हो रहा नहीं लिया और प्राण हरण करने वालो तृषा वेदनाके मात्र ज्ञाता दृष्टा बनते हुये ध्यानारूढ़ हो गये। यह देखकर देवी चकित हुई और विदेह क्षेत्र जाकर समवशरणमें प्रश्न किया कि जब मुनिराज प्यासे हैं तो जल ग्रहण क्यों नहीं करते ? वहाँ गणधर देवने उत्तर दिया कि दिगम्बर साधु न तो असमय भोजन पान ग्रहण करते हैं और न देवों द्वारा दिया गया आहार आदि ही ग्रहण करते हैं । यह सुनकर देवो बहुत प्रभावित हुई और उसने मुनिराजको शांति प्राप्त कराने हेतु उनके चारों ओर सुगन्धित और ठण्डे जलको वर्षा प्रारम्भ कर दी । यहाँ मुनिराज ने आत्मोत्थ अनुपम सुखके रसास्वाद द्वारा कर्मोत्पन्न तषा बेदना पर विजय प्राप्त की और चार घातिया कर्माका नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त किया । कथा समाप्त । श्रीदत नामके बुद्धिमान् मुनिराज ध्यान में स्थित थे उस समय पूर्व जन्मके बैरीने शीतवायु एवं उष्णवायु द्वारा बड़ी भारी पीड़ा दिये जाने पर उन्होंने सम्यक्त्व आदि चार आराधनाओंको ग्रहण किया था ।।१६२५।। श्रीदत्तमुनिको कथाइलावर्धन नगरीके राजाका नाम जितशत्रु था। उनकी इला नामको रानो थी जिससे श्रीदत्त नामक पुत्रने जन्म लिया । श्रीदत्तकुमार का विवाह अयोध्याके राजा अंशुमान की पुत्री अंशुमतोसे हुआ था । अंशुमतीने एक तोता पाल रखा था। चौपड़ आदि खेलते हुए जब राजा विजयो होता तब तो तोता एक रेखा खींचता और जब रानी जीतती थी तब चालाको से दो रेखाएँ खींच देता था। उसकी यह शरारत दो चार बार तो राजाने सहन करली आखिर उसे गुस्सा आ गया और उसने तोतेकी Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] मरणकण्डिका मारुतं मकं तापं वह्नितप्तं शिलातलम् । सोढ़वा वृषभसेनोऽपि स्वार्थ प्रापदनाकुलः ॥ १६२६।। गरदन मरोड़ दो। तोता मरकर व्यन्तर देव हुआ । श्रीदत्त राजाको एक दिन बादलकी टुकड़ी को छिन्न-भिन्न होते देखकर वैराग्य हो गया और उन्होंने संसार परिभ्रमणका अन्त करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा धारण करलो । अनेक प्रकारके कठोर तपश्चरण करते हुए और अनेक देशों में विहार करते हुए श्रीदत्त मुनिराज इलावर्धन नगरी आये और नगर के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान से खड़े हो गये । ठण्ड कड़ाके को पड़ रही थी । उसी समय शुकचर व्यन्तर देवने पूर्व बैरके कारण मुनिराज पर घोर उपसर्ग प्रारम्भ कर दिया। वैसे हो ठण्डका समय था और उस देवने शरीरको छिन्न-भिन्न कर देनेवाली खूब ठण्डी हवा चलाई, पानी बरसागर तथा खूब ओले गिरा । पर मृतिराजने अपने धैर्य रूपी गर्भगृहमे बैठकर तथा समता रूपो कपाट बन्द करके संयमादि गुण रत्नोंको उस जल के प्रवाह में नहीं बहने दिया, उसके फलस्वरूप वे उसी समय केवलज्ञानको प्राप्त करते हुए मोक्ष पधारे । कथा समाप्त । वृषभसेन नामके मुनिराज शिला पर ध्यान करते थे किसी दिन गरमी में उस शिलाको किसीने अग्निसे तपाया । उस अग्निवत् तप्त हुई शिलाका ताप तथा उष्ण वायुका ताप सहन करके भी अनाकुल भावयुक्त हो आराधनाको उन्होंने प्राप्त किया था ।। १६२६।। वृषभसेन मुनिकी कथा— उज्जैन के राजा प्रद्योत एक दिन हाथी पर बैठकर हाथी पकड़नेके लिये जंगल की ओर जा रहे थे | रास्ते में हाथो उन्मत हो उठा और इन्हें भगाकर बहुत दूर गया | राजा प्रद्योत एक वृक्षकी डाल पकड़कर ज्यों त्यों बचे । प्यास से व्याकुल चलते हुवे ये खेट ग्राम के कुए पर पहुँचे । उसी समय जल भरने के निमित्त आई हुई जिनपाल की पुत्रो जिनदत्ताने उन्हें जल पिलाया और पितासे जाकर सब समाचार कह दिये । "ये कोई महापुरुष हैं" ऐसा विचारकर जिनपाल उन्हें आदरसत्कार पूर्वक अपने घर ले गया और जिनदत्ता के साथ उसकी शादी कर दी। जिनदत्ताको पट्टरानीके पदपर नियुक्त कर राजा सुखसे रहने लगा । समय पाकर उन दोनों के वृषभसेन नामका Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार अग्निराजसुतः शक्त्या विद्धः क्रौंचेन संयतः । रोहेडकपुरे सोढ़या देवीमाराधनां श्रितः ।। १६२७ ।। [ ४६९ पुत्र हुवा | वृषभसेन जब आठ वर्ष के थे तब राजा प्रद्योत पुत्रको राज्य भार देकर दीक्षा लेना चाहते थे । पुत्रने दीक्षा लेनेका कारण पूछा। पिताने कहा- बेटा ! राज्य का भोग भोगते हुवे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होतो, उसके लिये तपश्चरण आवश्यक है । सच्चे सुखकी बात सुनकर बहुत समझाए जानेपर भी पुत्रने इन्द्रिय सुखोंके कारणभूत राज्यको ग्रहण नहीं किया और पिताके साथ ही उसने भी जिनदीक्षा धारण कर ली । वृषभसेन मुनिराज तपस्या करते हुवे अकेले ही अनेक देशों में घूमते हुए कौशाम्बी नगरी में आये और छोटी सी पहाड़ी पर ठहर गये । गर्मीका समय था, धूप तेज पड़ रही थी । मुनिराज एक पवित्र शिलापर बैठकर ध्यान करते थे । कड़ी धूपमें इस प्रकारकी योग साधना तथा आत्मतेजसे उनके शरीरका सौन्दर्य इतना देदीप्यमान हो उठा कि लोगों के मन में उनकी श्रद्धा अति दृढ़ होतो गया और जैनधर्मका प्रभाव वृद्धिगत होने लगा । एक दिन महाराज जब शहर में भिक्षार्थ गये थे तब एक जैनधर्म द्वेषी बौद्ध भिक्षुने दुष्टता से महाराजके उस ध्यान करनेके लिये बैठनेको शिलाको अग्नि तपा दिया । मुनिराज आहारसे लौटे शिला को संतप्त देख समझ गये कि यह उपसर्ग आया है । उन घीर मुनिराजने उसी तप्त शिला पर आरूढ़ हो समाधिपूर्वक आराधनाको साधते हुए प्राण त्याग किया और उत्तमगति प्राप्त की । कथा समाप्त । अग्नि नामके राजाके पुत्र कार्तिकेय नामके मुनिने रोहेडक नामके नगर में क्रौंच नामके व्यक्ति द्वारा शक्ति नामके शस्त्र द्वारा घायल किये जानेपर भी उसको सहन करते हुए आराधनादेवोका आश्रय लिया था अर्थात् समाधि धारण की थो ।। १६२७॥ कार्तिकेय मुनिको कथा राजा अग्निदत्त के वीरवती रानीसे कृत्तिका नामको पुत्रो हुई । जब वह यौवन वती हुई तो राजा उसपर मोहित हो गया । उसने छलसे राज सभा में प्रश्न किया कि राजमहल में जो भी पदार्थ हैं उन सबका स्वामी कौन होता है ? मंत्री आदिने कहा आप ही तो स्वामी हैं । किन्तु वहांपर उपस्थित जैन मुनिने कहा राजन् ! कन्याओंको Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका - -- -. कांकद्यां चंडवेगेन छिन्ननिःशेषधिग्रहः । विषह्याभयघोषोऽपि पीडामाराधनां गतः ॥१६२८।। छोड़कर और सब पदार्थों के स्वामी आप हैं । राजाको यह मुनि वाक्य रुचा नहीं । रुचता भी कसे ? कामीको कभी भी गुरुके वाक्य रुचते नहीं । राजाने जबरदस्ती अपनी पुत्री कृत्तिकाके साथ विवाह कर लिया। कुछ समय बाद उसके दो संतानें हुई । एक पुत्र और एक पुत्री । यथा समय पुत्री वीरमतीका विवाह रोहेडक नामके नगरके राजा क्रौंचके साथ हुआ । पुत्र कात्तिकेय अभी अविवाहित था। एक दिन मित्रोंके यहाँ नानाके घरसे वस्त्राभूषण आये देख उसने मातासे प्रश्न किया कि हमारे नानाके यहां से वस्त्राभूषण क्यों नहीं आते ? पुत्रका प्रश्न सुनकर माताके हृदयपर मानो वचपात हो हुआ । नयन नीरसे भर आये । माताकी दशा देखकर पुनः कारण पूछा। बहुत हठ करनेपर माताने सब कह डाला कि तुम्हारा पिता ही नाना है, कात्तिकेयका हृदय ग्लानिसे भर गया। उसने कहा माता ! ऐसे कुकृत्यको करते हुए राजा को किसी ने नहीं रोका ? माता ने कहा-जैन मुनिने रोका था किन्तु राजा ने सुना नहीं, उलटे उन मुनिको नगरसे बाहर निकाल दिया । कात्तिकेय का मन वैराग्य युक्त हुआ। उसने वनमें जाकर मुनिराजसे जिनदीक्षा ग्रहण की । क्रमश: विहार करते हुए कातिकेय मूनि रोहेडक नगरी में आये जहां उनकी बहिन राजा क्रौंच से ब्याही था । मुनिराज को राजमार्ग से आते हुए देखकर वीरमतो बहिन ने उन्हें पहिचान लिया और धर्मप्रेम तथा भ्राता प्रेमसे विह्वल हो समीपमें बैठे राजाको बिना पूछे ही वह शीघ्रता से महलसे उतरकर मुनिराजके चरणोंमें गिरो। राजा विधर्मी था, मुनिके स्वरूप को नहीं जानता था । उसने क्रोध में आकर कर्मचारियों को आज्ञा दो कि इस व्यक्ति की चमड़ो चमड़ी छोल डालो। कर्मचारियों द्वारा मुनिराज पर महान् उपसर्ग प्रारंभ हुआ उनका सारा तन छेदा गया किन्तु भेदज्ञानी परम ध्यानमें लीन मुनिराज ने अत्यंत शांत भावसे सल्लेखना पूर्वक प्राण त्याग किया । धन्य है कात्तिकेय मुनिराज जिन्होंने घोर वेदनामें भी आत्मध्यान नहीं छोड़ा। कथा समाप्त । काकंदी नगरी में चंडवेग नामके दुष्ट व्यक्ति द्वारा सारा शरीर बाणोंसे घायल होनेपर भी अभयघोष नामके यतिराजने उस उन पीड़ा को सहनकर आराधनाको प्राप्त किया ॥१६२८।। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ४७१ प्रपेदे मशकैशः खाद्यमानो महामनाः । विधुरिमुष. स्वार्थ साधुःसहवेदनः ॥१६२६।। अभयघोष मुनिकी कथाकाकन्दीपुरमें राजा अभयघोष राज्य करते थे । उनको रानीका नाम अभयमती था। इन दोनों में अत्यन्त प्रीति थी । एक दिन राजा अभयघोष घूमने जा रहे थे । रास्ते में उन्हें एक मल्लाह मिला जो जीवित कछुए के चारों पैर बांधकर लकड़ी में लटकाये हुए जा रहा था । राजा ने अज्ञानता बश तलवार से उसके चारों पैर काट दिये । कछुआ तड़फड़ा कर मर गया और अकाम निर्जरा के फल से उसी राजा के चण्डवेग नाम का पुत्र हुआ । एक दिन चन्द्रग्रहण देखकर राजा को वैराग्य हो गया, उसने पत्र को राज्यभार सौंपकर दीक्षा धारण करली । वे कई वर्षों तक गुरु के समोप रहे। इसके बाद संसार समुद्र से पार करने वाले और जन्म, जरा तथा मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरु महाराज से आज्ञा लेकर और उन्हें नमस्कार करके धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विहार कर गये। कितने हो वर्षों बाद चूमते घूमते काकन्दीपुर आये और बीरासनमें स्थित होकर तपस्या करने लगे। इसी समय जो कछुवा मरकर उनका पुत्र चण्डवेग हुआ था वह वहां से आ निकला और पूर्वभव (कछुआ को पर्याय ) को कषायके संस्कार वश तोव क्रोधसे अन्ध होते हुए उस चण्डवेग ने उनके हाथ पैर काट दिये और तीव्र कष्ट दिया । इस भयंकर उपसर्ग के आजाने पर भी अभयघोष मुनिराज मेरु सदृश निश्चल रहे और शुक्लध्यानके बलसे अक्षयानन्त मोक्ष लाभ किया। कथा समाप्त । विद्य तचर (चोर) नामके मुनि दंशमशकों द्वारा खाये जानेपर भी अपने स्वार्थ मोक्षको प्राप्त हुए, कैसे थे वे मुनिराज ? उदार है मन जिनका तथा घोर वेदना को सहनेवाले थे ।।१६२६॥ ___विद्य च्चर मुनिको कथामिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में यमदण्ड नामका कोतवाल और विधु च्चर नामका चोर था । विद्य च्चर चोरियां बहुत करता था पर अपनो चालाकोके Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] मरणकण्डिका कारण पकड़ा नहीं जाता था। वह दिन को कुष्ठो का रूप धारण कर किसी शून्य मन्दिर में गरीब बनकर रहता था और रात्रिमें दिव्य मनुष्य का रूप धारण कर चोरी करता था। एक दिन उसने अपने दिव्य रूप से राजा को मोहित कर उनके देखते देखते हार चुरा लिया। राजाने कोतवाल को बुलाकर सात दिन के भीतर चोर को पकड़ लाने की आज्ञा दो । छह दिन व्यतीत हो जाने पर भी चोर नहीं पकड़ा गया, सातवें दिन देवी के सुनसान मन्दिर में एक कोढो को पड़ा हुआ देखकर कोतवाल को उसके ऊपर सन्देह हुआ और उसने उसे बहुत अधिक मार लगाई परन्तु कोठी ने अपने को चोर स्वीकार नहीं किया। तब राजा ने कहा-अच्छा मैं तेरा सर्व अपराध क्षमा करता हूँ और अभय का वचन देता हूँ तू यथार्थ बात बतला दे । अभय की बात सुनते ही कोढी, रूपधारी विद्य च्चर बोला-महाराज ! मैं आभीर प्रान्त के अन्तर्गत वेनातट शहर के राजा जितशत्रु और रानी जयावती का विद्य च्चर नाम का पुत्र हूँ और यह यमदण्ड उसो राजाके यमपाश कोतवाल का पुत्र है । मैंने बचपन में विनोद के लिए चौर्यशास्त्र का अध्ययन किया था और अपने मित्र यमदण्ड से कहा था कि जहाँ आप कोतवाली करेंगे, वहीं मैं चोरी करूंगा । हम दोनों के पिता अपना अपना कार्य भार हम लोगों को सौंपकर दीक्षित हो गये । मेरे भय से यमदंड यहां भाग आया और अपनी बचपन की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के उद्देश्य से मैंने भी यहाँ आकर चोरो का कार्य प्रारम्भ कर दिया । विद्यु च्चर को बात सुनकर राजा बामरथ बड़ा प्रसन्न हुआ। विद्य च्चर अपने मित्र यमदण्ष्ठ को लेकर अपने नगर चला गया। किन्तु इस घटना से वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। संघ सहित विहार करते हुए विद्य च्चर मुनिराज ताम्रलिप्त पुरी को ओर आये । संघ सहित नगरमें प्रवेश करने को थे कि वहां की चामुण्डा देवो ने कहा-हे साधो ! अभी मेरो पूजा विधि हो रही है । आप भीतर मत जाइये । इसप्रकार रोके जाने पर भी महाराज श्री अपने शिष्यों के आग्रह से भीतर चले गये और परकोटे के पास की भूमि देखकर बैठ गये तथा ध्यानारूढ़ हो गये। अपनो अवज्ञा जानकर देवी को क्रोध आगया और उसने कबूतरों के आकार के खून पीने वाले डांस मच्छरों को सृष्टि करके मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया । मुनिराज ने यह उपसर्ग बड़ी शान्ति से सहन किया और अपने मन को चारों आराधनाओं में रमाते हुए मोक्षनगर के स्वामो बने । कथा समाप्त । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार वास्तव्यो हास्तिने धीरो द्रोणीमतिमहीधरे । गुरुदत्तो यतिः स्वार्थं जग्राहानलबेष्टितः ॥ १६३०॥ [ ४७३ हस्तिनापुर के मुनि गुरुदत्त द्रोणीमति पर्वत पर ध्यान करते थे उनको किसो दुष्ट ने वेष्टित कर जला दिया था उस घोर वेदनामें भी उन्होंने रत्नत्रय रूप स्वार्थको ग्रहण किया था - मोक्षको प्राप्त किया था ।। १६३०|| गुरुदत्त मुनिकी कथा हस्तिनापुर में गुरुदत्त नामके राजा राज्य करते थे । उसी समय द्रोणीमति पर्वतके समीप चन्द्रपुरी नगरीमें राजा चन्द्रकीर्ति था, उसकी अभयमती नामकी अनिद्यसुदरी कन्या हुई । गुरुदत्तने उस कन्या की मांग को किन्तु चन्द्रकीतिने मना किया उससे कुपित होकर गुरुदत्तने उसपर चढ़ाई कर दी। अभयमती को जब यह वृत्तांत ज्ञात हुआ तब उसने पिता से प्रार्थना की कि मेरा इस जन्ममें गुरुदत्त ही पति हो ऐसा मेरा प्रण है अतः आप उसीसे विवाह कर दीजिये । पुत्रो की बात पिता को माननो पड़ी | मंगल वेला में विवाह सम्पन्न हुआ । गुरुदत्त राजा अभयमली के साथ श्रानंदसे रहने लगा । द्रोणीमति पर्वत में रहने वाला एक सिंह जनता को बहुत कष्ट दे रहा है ऐसा सुनकर गुरुदत्त राजा वहां आया और सिंहकी गुफा में चारों ओर आग लगाकर सिंहको जला दिया। सिंह प्रकाम निर्जरा करके उसी चन्द्रपुरी में ब्राह्मण का पुत्र हुआ । गुरुदत्त नरेश कुछ समय तक राज्य करके दोक्षित होते हैं और क्रमशः विहार करते हुए उसी द्रोणोमति पर्वतके निकट उसो कपिल ब्राह्मण के खेत में ध्यानस्थ होते हैं । उस समय कपिल अपनी पत्नी को खेल पर भोजन लानेके लिये कहकर खेत पर आया वहां मुनि को देखकर उस खेत को जोतना उचित नहीं समझा अत: दूसरे खेत में जाने का सोचा । उसने मुनिराज से कहा- मैं दूसरे खेत पर जा रहा हूँ। मेरी पत्नी भोजन लेकर आयेगी उसको कह देना । मुनि ध्यानस्थ थे उन्होंने कपिल पत्नी को पूछने पर भी कुछ उत्तर नहीं दिया । ब्राह्मणो घर चलो गयी । कपिल को समय पर भोजन नहीं मिला अतः घरमें आनेपर पत्नी को पीटना प्रारंभ किया, ब्राह्मणो ने घबराकर कहा कि मैं तो खेतपर गयो थी किन्तु आप नहीं मिले, वहां एक महात्मा बैठे थे उन्हें भी पूछा किन्तु कुछ उत्तर नहीं मिलने से वापिस आयी हूँ । इतना सुनते ही कपिलका क्रोध और अधिक बढ़ गया । उसने तत्काल खेत में जाकर सेमर नाम की रूई से मुनिराज Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] मरर कण्डिका गाढप्रहारविद्धोऽपि कोटिकाभिराकुलः । स्वार्थ चिलालपुत्रोऽगान्चालनीकृतविग्रहः ॥ १६३१॥ गुरुदत्त को लपेट दिया और आग लगा दी । उस घोर उपसर्गको धीर वीर मुनिने अत्यंत शांतभाव से सहा । वे शरीरको ममताका त्यागकर शुक्ल ध्यानमें लोन हो गये और ध्यान द्वारा केवलज्ञानको प्राप्त किया । I केवलज्ञान की पूजा के लिये चतुर्निकाय देव आये । कपिल ब्राह्मण को बहुत पश्चात्ताप हुआ । उसने गुरुदत्त केवलीसे पुनः पुनः क्षमा मांगी और उनकी दिव्य देशना द्वारा अपना कल्याण किया । देखो ! काष्टके समान शरीर जलते हुए भी गुरुदत्त मुनिराज श्रात्मामें लीन हुए और केवलज्ञान प्राप्त किया । कथा समाप्त बड़े बड़े कीडोंके द्वारा चलनीके समान होगया है शरीर जिनका ऐसे चिलातपुत्र नामा मुनिने दृढ़ शस्त्र प्रहारसे युक्त होते हुए भी अनाकुल रहकर प्राराधना रूप स्वार्थ अर्थात् मुक्ति को पायो थी ।।१६३१ ।। चिलातपुत्र मुनिको कथा राजगृह नगरी में राजा उपश्रेणिक राज्य करते थे । एक दिन वे घोड़े पर बैठकर घूमने गये । घोड़ा दुष्ट था सो उसने उन्हें एक भयानक वनमें छोड़ा ! उस वन का मालिक यमदण्ड नाम का भील था । उसके एक तिलकवती नामकी सुन्दर कन्या थो । राजा ने उसकी मांग की । "इसका पुत्र ही राज्य का अधिकारी होगा" इस शर्त के साथ भोल ने कन्या राजा को सौंप दी । उससे चिलात पुत्र नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । राजा अपने वचनानुसार राज्यका भार उसे सौंपकर दीक्षित हो गये । राजा बनते ही चिलातपुत्र प्रजापर नाना प्रकारके अन्याय करने लगा । जब कुमार श्रेणिक ने यह बात सुनी तब उन्होने अपने पौरुषसे चिलातपुत्र को राज्यमे बहिष्कृत करके पिताका राज्य संभाला अर्थात वे मगध सम्राट बन गये । चिलात पुत्र मगवसे निकलकर किसी वनमें जाकर बस गया और आस-पास के ग्रामोंसे जबरदस्ती कर वसूल कर उनका मालिक बन बैठा । उसका भर्तृ मित्र नामका मित्र था । भर्तृ मित्रने अपने मामा रुद्रदत्तसे उनकी कन्या सुभद्रा चिलात पुत्रके लिए माँगो । रुद्रदत्तने इसे स्वीकार नहीं किया, त Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ४७५ , यमुनावकनिक्षिप्तः शरपूरितविग्रहः । अध्यात्य वेवनां चंडः स्वार्थ शिश्राय धीरधीः ॥१६३२॥ चिलातपुत्र ने विवाह स्नान करती हुई सुभद्राका हरण कर लिया जब यह बात श्रेणिक ने सुनी तब वह सेना लेकर उनके पीछे दौड़ा श्रेणिकसे अपनी रक्षा न होते देख चिलात ने उस कन्या को निर्दयता पूर्वक मार डाला और आप अपनी जान बचाकर वैभार पर्वत परसे भागा जा रहा था कि उसे वहां मुनियों का एक संघ दिखाई दिया और उसने उनसे दोक्षाकी याचना की । तेरी आयु अब मात्र आठ दिन की रही है ऐसा कहकर आचार्य ने उसे दीक्षा दे दी। दीक्षा लेकर चिलात मनिराज प्रायोपगमन सन्यास लेकर आत्मध्यानमें लीन हो गये । सेना सहित पीछा करने वाले श्रेणिक ने जब उन्हें इस अवस्थामें देखा तब वे बहुत आश्चर्यान्वित हुए और मुनिराजको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके राजगह लौट आए। चिलातपुत्रने जिस कन्या को मारा था वह मरकर व्यंतर देवी हुई और "इसने मुझे निर्दयता पूर्वक मारा था" इस वैरका बदला लेने हेतु वह चोल का रूप ले चिलात मुनिके सिर पर बैठ गई। उसने उनको दोनों आंखें निकाल ली और सारे शरीर को छिन्न-भिन्न कर दिया जिससे उनके घावों में बड़े-बड़े कीड़े पड़ गये इसप्रकार आठ दिन तक वह देवी उन्हें अनिर्वचनीय वेदना पहुँचाती रही, किन्तु मन, इन्द्रियों और कषायों को वशमें करने वाले मुनिराज अपने ध्यानसे किंचित् भी विचलित नहीं हुए तथा समाधिपूर्वक शरोर छोड़कर सर्वार्थ सिद्धि की प्राप्ति की। कथा समाप्त । यमुनावक्र नामके दुष्ट पुरुष द्वारा छोड़े गये बाणोंसे घायल हुआ है शरीर जिनका ऐसे चंड (दंड-धन्य) नामके मुनिने धोर बुद्धि होकर उस घोर वेदनाको सहन कर रत्नत्रयको प्राप्त किया था ।।१६३२।। (धन्य) चंड या दंड नामके मुनिकी कथा-- पूर्व विदेहक्षेत्रको प्रसिद्ध राजधानो बीतशोकपुर का राजा अशोक अत्यन्त लोभी था । वह धान्यका दाय करते समय बैलों के मुख बंधवा दिया करता था जिससे वे अनाज न खा सकें और रसोइ गृह में रसोई करने वाली स्त्रियों के स्तन बंधवा देता था ताकि उनके बच्चे दूध न पी पावें । एक समय राजा अशोक के मुख में कोई भयंकर Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] मरण कण्डिका यंत्रेण पीडचमानांगाः प्राप्ताः पंचशतप्रमाः । कुंभकारकटे स्वार्थमभिनंदनपूर्वगाः ॥ १६३३॥ पीने ही वाला था कि रोग हो गया । उसने उस रोगकी औषधि बनवाई । वह उसे इतने में उसी रोग से पीड़ित एक मुनिराज आहार के लिए इसो ओर आ निकले । राजा नेपथ्य सहित वह औषधि मुनिराज को पिला दी, जिससे उनका बारह वर्ष पुराना रोग ठीक हो गया । उस पुण्यके फलसे आगामी भवमें राजा अमलकपुर के राजा नंदीसेन और रात्री नन्दनवीके अन्य दागका पुत्र हुआ । समय पाकर उसने राज्य सिंहासन को सुशोभित किया । एक समय धन्य राजा भगवान नेमिनाथके समवशरण में धर्मोपदेश सुनने के लिए गये थे । वहां उन्हें वैराग्य हो गया और वे वहीं दीक्षित हो गये । पूर्वभव में जो बच्चों और पशुओं के भोजन में अन्तराय डाला था । उस पापोदयसे प्रतिदिन गोचरी को जाते हुए भी उन्हें लगातार नौ माह तक आहारका लाभ नहीं हुआ अन्तिम दिन वे सौरीपुर के निकट यमुनाके किनारे ध्यानस्थ हो गये । उस दिन वहांका राजा नमें शिकार खेलने आया, पर दिनभर में उसे कुछ भी हाथ न लगा । नगर को लौटते हुए राजा को दृष्टि मुनिराज पर पड़ी। उन्हें देखते ही उसका क्रोध उबल पड़ा कि इसने हो आज अपशकुन किया है। प्रतिशोध की भावना से राजा ने मुनि के शरीरको तीक्ष्ण बाणों से बींध डाला । सैकड़ों बाणों के एक साथ प्रहारसे मुनिराज का शरीर चलनी की सदृश जर्जरित हो गया और सारे शरीर से रक्त धाराएँ फूट पड़ीं । मुनिराज ने उपसर्ग प्रारम्भ होते ही प्रायोपगमन सन्यास ग्रहण कर लिया और चारों आराधनाओं में संलग्न होते हुए प्रन्तकृत केवली होकर मोक्ष पधारे । कथा समाप्त अभिनंदन आदि पांचसौ मुनिराजोंने कु ́भकारकट नामके नगर में यंत्र में पेले जानेपर भी रत्नत्रयकी आराधना की थी ।। १६३३॥ अभिनंदन आदि पांचसौ मुनिराजोंकी कथा दक्षिण भारत में स्थित कुम्भकारकट नगरके राजा का नाम दण्डक, रानी का नाम सुव्रता और राजमन्त्री का नाम बालक था। बालक मन्त्री जैनधर्म का विरोधी और अभिमानी था । एक समय उस नगर में अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनिराज पधारे । मन्त्री बालक उनसे शास्त्रार्थ करने के लिए जा रहा था । मार्ग में उसे खण्डक नामके Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारवणादि अधिकार [ ४.७७ कुलारिष्टसंज्ञेन दग्धायां वसतौ गरणी । साधं वृषभसेनोऽगादुत्तमार्थ तपोधनः ॥१६३४॥ मुनिराज मिले और वह उन्हीं से विवाद करने लगा। महाराजश्री के स्याद्वाद सिद्धान्त के सामने वह एक क्षण भी न टिक सका और लज्जित होता हुआ घर लौट गया, पर उसके हृदय में अपमान की आग धधकने लगो। उसकी शान्ति के लिए उसने एक भांड को मुनि बनाकर रानी सुअता के महल में भेज दिया और सजा को वहीं लाकर खड़ा कर दिया । उस मुनि भेषी भांड को कुत्सित क्रियाएँ देखकर राजा क्रोध से अन्धा हो गया और उसने उसी समय आदेश दिया कि नगरमें जितने दिगम्बर साधु हों वे सब घानी में पेल दिये जाय । मन्त्री तो यह चाहता हो था। उसने तत्काल सब मुनिराजों को घानी में पेल दिया । इस महान दुःसह उपसर्ग को प्राप्त होकर भी साधु समूह अपने साम्यभाव से विचलित नहीं हुआ और उत्तमार्थको पाप्त किया। कथा समाप्त । कुलाल नगरीमें अरिष्ट नामके दुष्ट पुरुष द्वारा वसतिका को जला देनेपर वृषभसेन नामके आचार्य मुनियों के साथ उत्तमार्थको प्राप्त हुए थे ।।१६३४।। ___ आचार्य वृषभसेनकी कथादक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुलाल नगरके राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे । इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा मिथ्यात्वी और जैनधर्मका बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं। एक दिन वृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिए कुलाल नगर की ओर आये वैश्रवण उनके आने का समाचार सुन बड़ो विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिये उनकी वन्दना को गये । भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना को और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैनधर्म का उपदेश सुना । मंत्री ने मुनियों का अपमान करने की गर्ज से उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान उसी का हुआ । मुनियों के साथ उसे हार जाना पड़ा । इस अपमान को उसके हृदय पर गहरी चोट लगी । इसका बदला चुकाने का विचार कर वह शाम को मुनिसंघ के पास आया और जिस स्थान में वह ठहरा था उसमें उस पापो ने आग लगा दो । पर तत्वज्ञानी वस्तु स्थिति को जानने वाले मुनियों ने इस कष्ट की कुछ परवा न कर बड़ी सहनशीलताके साथ सब कुछ सह लिया और Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] मरकण्डिका कमी तपोधनाः प्राप्ताः स्वार्थमेकाकिनो यदि । अध्यास्य वेवनास्तीत्राः निःप्रसोकारविग्रहाः ।। १६३५ ।। चतुविधेन संघेन विनीतेन निषेवितः । दाराधय से न त्वं देवोमाराधनां कथम् ।।१६३६ ।। कलिपुट: पीत्वा जिनेंद्रबचनामृतम् । संघमध्ये स्थितः शक्तः स्वार्थ साधयितुं सुखम् ।।१६३७।। तिर्यग्वरस्वगं सुख दुःखानि सर्वथा । त्वं चितय महाबुद्ध ! भवलब्धान्यनेकशः ।। १६३८ ।। नरके वेदनाश्चित्रा दुःसहासतदायिनी । देहासक्ततया प्राप्ताश्चिरं यास्ता विचितय ।। १६३६ ॥ अन्त में अपने अपने भावों की पवित्रता के अनुसार उनमें से कितने ही मोक्ष में गये और कितने ही स्वर्ग में | कथा समाप्त । जिनके शरीरका प्रतीकार करने वाला कोई नहीं है तथा तीव्र वेदना को प्राप्त हैं ऐसे ये तपस्वी साधुजन अकेले अकेले होकर भी यदि रत्नत्रय को प्राप्त हुए थे तो चतुविध विनीत संघ द्वारा सेवित ऐसे तुम आराधना देवी को किस प्रकार आराधना नहीं करते हो ? अर्थात् पूर्वोक्त मुनिराज तो अकेले थे कोई साथी सहायक नहीं था महाभयानक उपसर्गकृत वेदना ने भी उन सबको घेरा था ऐसो स्थिति में भी उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया तो सर्वसंघ तुम्हारी सेवा में प्रवृत्त है वेदना का प्रतीकार भी चल रहा है अत: तुम रत्नत्रय की आराधना कैसे नहीं करोगे ? ।।१६३५ ।। १६३६ ।। हे क्षपक ! संघ के मध्य में रहते हुए तथा कररूपी अंजुलि द्वारा जिनेन्द्र भगवान की वाणी रूपी अमृत को पीकर मोक्षरूप जो अपना स्वार्थ है उसको सुख पूर्वक सिद्ध किया जा सकता है ।। १६३७|| भो क्षपक ! हे महाबुद्ध ! तुमने अतीत कालमें अनेकों बार नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति एवं देवगतिके दुःख सुखोंको सब प्रकार से प्राप्त किया है उन दुःखों को अब स्मरण करो ! ॥१६३८ ।। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार । ४७६ क्षिप्तः श्वश्रावनौ क्षिप्रं मेहमानोऽपि सर्वथा । उष्णामुळमनासाद्य लोहपिंडो विलीयते ॥१६४०॥ क्षिप्तस्तत्राग्निना तप्तोमेहमात्रः सहस्रधा । शोतामवनिमप्राप्य लोहपिंडो विशोर्यते ॥१६४१॥ तादृशो थेवन। वन्ने धोरदुःले मिसजा । यादृशो चूणितस्यास्ति क्षिप्तक्षारस्य चेततः ॥१६४२।। यच्छुयभ्रावसथे भीमे प्राप्नोददुःखमनेकधा । निशितः कंटकर्लोस्तुग्रमानः समंततः ॥१६४३।। यच्छले कट शाल्मल्यामसिपत्रवने गतः । सर्वतो भक्ष्यमाणोऽयं कंककाकाविपक्षिभिः ॥१६४४॥ - - - नरकगतिके दुःखहे क्षपक ! शरीरमें मोह होनेके कारण नरकगति में तीव्र असाता को देनेवाली विचित्र वेदनाओंको जो चिरकाल तक प्राप्त किया था उन्हें याद करो ! विचार करो ॥१६३९।। मेरु प्रमाण लोहे का पिंड नरक भूमि में डाल दिया जाय तो वह वहांकी उष्ण पृथिवीको प्राप्त होने के पहले रास्ते में ही विलीन हो जायगा-पिघल जायगा । इतनी भयंकर उष्णता नरकमें है ।।१६४०॥ और अग्निसे तपा हुआ वह मेरु प्रमाण लोहपिंड नरकमें डालने पर शीत भूमिको प्राप्त होने के पहले ही हजारों खंडरूप विशीर्ण होता है ।।१६४१।। घोर दुःखोंसे भरे हुए नरकमें स्वभावतः ही बंसी वेदना है जैसी वेदना मुद्गरसे पोटकर खारे जल में डाले गये अमूच्छित व्यक्तिको हुआ करती है ।।१६४२।। ___ भयंकर नरक भूमिमें पैने नुकीले लोहमयी कांटोंके द्वारा चारों ओरसे तुम छेदे जाकर अनेक बार दुःखको प्राप्त कर चुके हो ।। १६४३।। शलके समान असिपत्र वनमें कूट शाल्मली वृक्ष जहां है वहां पर तुम जब गये थे तब सब ओरसे कंक, काक आदि पक्षीके द्वारा (पक्षीका रूप लेकर आये हुए नारको द्वारा) खाये गये थे हे क्षपक ! उस वक्त जो वेदना हुई उसे स्मरण करो Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] मरणकण्डिका असुरवंतरण्यां च प्रापितो निणाशयः । कदंबवालुकायुजं गाढमाना यवा सृतः (?) ॥१६४५।। तप्तायःप्रतिमाकोणे यत्प्राप्तो लोहमंडपे । प्रायसं पाय्यमानोऽपि प्रतप्तं कललं कटु ॥१६४६॥ दुःस्पश्यं खाद्यमानो पल्लोहमंगारसंचयम् । पच्यमानः कंदकासु मंडका इव रंधितः ।।१६४७॥ चूर्णितः कुट्टितश्छिन्नो यन्मुग्दरमुसंडिभिः । बहुशः खडितो लोकर्यच्चभ्रस्थैरितस्ततः ॥१६४८।। उत्पाट्य बहुशो नेत्रे जिह्वा संछिद्यमूलतः। यन्नीतो नारफैबु:खं दुःखदानविशारदः ॥१६४६॥ ॥१६४४।। निर्दयी असुर कुमारों द्वारा वैतरणी नदीमें डुबाये गये। कदंब पुष्पके आकारके बालुके पुजपर जबरन सुलाया गया उस समय का दुःख याद करो ॥१६४५।। लोहमयी मंडपमें तपायी हुई लोहे की प्रतिमा जहाँ है वहाँ तुम्हें चिपकाया गया एवं तपाया हुअा कल कल करता हुआ कटुक लोह रस तुम्हें जबरन पिलाया गया था, हे क्षपक ! उसका स्मरण करो ||१६४६।। नरक में लोहेके गोलोंको तपाकर दु:स्पर्श, ऐसे अंगारेके समान लाल लाल हुए को तुमको नारकी द्वारा खिलाया गया था तथा कढाईमें मंडकोंके समान पकाया गया था। उस दुःखको हे क्षपक ! याद करो ।।१६४७।। ___ नरकमें नारकी जोवोंके द्वारा इधर उधरसे आ आकर बहुत बार तुम्हारे शरीरके खंड खंड किये गये तथा मुद्गर, मुसंडो प्रादिके द्वारा छिन्न किये गये कुटे गये और चूर्ण चूर्ण किये गये थे ।। १६४८।। नरको नारकी द्वारा तुम्हारे दोनों नेत्र बहुत बार उखाड़े गये, जिह्वाको मलसे काटा गया, दुःख देने में निपुण ऐसे नारकी जीवों द्वारा जो तुमको दुःख दिया गया था उसको स्मरण करो ॥१६४६।। हे क्षपक मुने ! तुमको महासंतापकारी भी पाकमें चारों ओर से पकाया गया था। शूल में लगे मांसके समान अंगारों के समूहके मध्यमें तुम पकाये गये थे उस घोर दुःखको याद करो ।।१६५०।। हे मुने ! तुम नरक में Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार कुंभीपाके महातापे क्वथितो यत्समंततः । श्रंगार प्रकरैः पववो यच्छूलप्रीतमांसवत् ॥१६५०।। शाकवद्भृज्यमानो यत् गाल्यमानो रसेन्द्रवत् । चूर्ण बच्चूर्ण्यमानो यहल्लूरमिव कर्तितः ।। १६५१ ।। वारितः क्रकचंश्छिन्नः खड्गैविद्धः शराविभिः । यत्पादितः परश्वास्ताडितो मुद्गरादिभिः ।। १६५२ ।। पार्शर्बद्धोऽभितो भिन्नो द्र घर्णरवशो धनैः । दुर्गमेsभूत यत्क्षिप्तः क्षारकर्दमे ।। १६५३ ।। यवापन्नः परायत्तो नारकैः क्रूरकर्मभिः । लोहशृंगाटके तीक्ष्णे लोटधमानोऽतिगतः ।। १६५४ ।। तष्ट्वा लोकेऽखिलं गात्रं क्षुरप्रेनिशितैश्चिरम् । वोजितः क्षारपानीयैः सिक्त्वा सिषत्वा निरंतरम् ।। १६५५ ।। [ ४८ १ नारकी द्वारा शाकके समान भरता किये गये अर्थात् अमरूद आदिको कोई अविवेकीजन अग्नि समूचा डालकर भूनते हैं भुरता बनाते हैं वैसे तुम समूचे आगमें डालकर भुरता बनाये गये हो । इक्षुके रसको पकाकर जब गुड़ बनाते हैं तब जैसे वह रस अतिशय रूपसे पकता है उसके समान तुम वहां पकाये गये हो अथवा गुड़ को गलाकर चासनी बनाते हैं उस वक्त वह गुड़ जैसे खदबद करके पकता है वैसे तुमको गला-गला के पकाया गया है । चूर्णके समान चूर-चूर किये गये हो तथा मांस खंडके समान कतरे गये हो ।। १६५१।। हे क्षपक ! तुम करोंत द्वारा विदारित किये गये, खड्ग द्वारा छिन्न अवयव किये गये, बाणादिसं विन्द्ध किये गये हो तथा फरसा आदिसे तुम्हारे अवयव उपाड़े गये एवं मुद्गर आदि से पीटे गये थे ।। १६५२ ।। पाश द्वारा चारों ओरसे कसकर बांधे गये, घनके द्वारा तथा कुल्हाड़ो द्वारा टुकड़े किये गये । गहन खारे जलके कीचड़ में नोचा मुख करके पटके गये थे ।। १६५३ ।। क्रूर कर्म करनेवाले नारको जीवों द्वारा जब तुम पकड़े गये थे तब लोहमयी तीक्ष्ण कांटोंपर अति वेगसे लौटाया गया था ।। १६५४ ।। नरक लोकमें नारकीयोंने पैने खुरपे से तुम्हारा सारा शरीर चिरकाल तक छीला था तथा निरंतर खारे जलसे सींच Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ ] मरणकण्डिका शक्तिभिः सूचिभिः खड्गर्यश्च्छिन्नाखिलविग्रहः । विगलद्रक्तधाराभिः कर्दमोकृत मूतलः ॥१६५६।। यत्स्फुटल्लोचनो दग्धो ज्वलिते वनपाधके । यच्छिन्नहस्तपादादिश्छिद्यमानास्थिसंचयः ॥१६५७।। शोषणे पेषणे कर्षणे घर्षणे लोटने मोटने कुट्टने पाटने । त्रासने ताडणे मईने चूर्णने छेदने भेदने तोदने यच्छितः ।।१६५८॥ छंद-स्रग्विणी-- दु:कृतकर्मविपाकवशोषं कालमपारमनंतमसह्यम् । सोढमिवं हृदये कुरु सर्व कातरतां विजहोहि सुबुद्ध ! ।।१६५६।। इति नरकगतिः। सींचकर ऊपरसे उन दुष्ट नारकियों ने हवा की थी ।।१६५५।। शक्ति नामके शस्त्रोंसे, सुईयोंसे एवं तलवारोंसे छिन्न किया गया है समस्त शरीर जिसका ऐसे तुम अत्यन्त दुःखी हुए निकलती हुई रक्तोंको धाराओंसे कीचड़ युक्त किया है भूतल जिसने ऐसे तुमने महान् दुःख भोगे उसका स्मरण करो ॥१६५६।। जिसके नेत्र फोड़ दिये हैं, वच्च की अग्निसे जिसे जलाया है । काट डाले हैं हाथ पैर जिसके तथा टूट रही है हड्डियां जिसकी ऐसे तुमने नरकमें महादुःख भोगे हैं (नारकीके शरीर वक्रियिक होते हैं अतः हड्डियां नहीं होती यहां हड्डियां टूटी इस शब्दका अर्थ शरीर के अवयव टूटे ऐसा लगाना) ॥१६५७11 नरक गतिमें शोषण, पीसना, कर्षण-कसना, घर्षण-घोसना, लौटाना, मोड़ना, कूटना, उपाड़ना, डराना, ताड़ना, मसलना, चूर्ण करना, छेदना, भेदना और पीड़ा इन क्रियाओंके होनेसे तुमने अत्यन्त दुखोंको पाया था ।।१६५८।। अपार अनंत काल तक अपार अनंत अनंत असह्य दुःखोंको सहन किया था जो कि पाप कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ था । हे सुबुद्ध ! हे क्षपकराज ! अब तुम उन सब दुःखोंका हृदय में विचार करो, वर्तमान की किंचित् वेदनासे आयी हुई इस कातरता को छोड़ दो छोड़ दो ।।१६५६।। __इसप्रकार क्षुधा आदिकी वेदनासे घबराये हुए क्षपक को निर्यापक आचार्यने नरकगतिके दुखोंका वर्णन कर धैर्य दिलाया है । नरकगतिके दुःखोंका वर्णन समाप्त । Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार जन्ममृत्युजराकीण घोरां तिर्यग्गति गतः । कि ती बहुशो लब्धां स्मरसि त्वं न वेदनाम् ।।१६६०।। पंचधा स्थावरा जीवा विमूढोभूतचेतनाः । लभते यानि दुःखानि कः शक्तस्तानि भाषितुम् ।। १६६१ ।। सवा परवशीभूताश्चतुर्धा जसकायिकाः । दुःखं बहुविधं दीना लभन्ते चिरमुल्बणम् ।।१६६२॥ dr-sfam... [ ४८३ ताडने वाहने बघने त्रासने नासिकातोदने कर्णयोः कर्तने । लांछने वाहने दोहने हंडने पीडने मर्द्दने हिंसने शातने ।। १६६३॥ तिर्यंच गतिके दुख:का वर्णन - जन्म, मरण और जरासे आकीर्ण घोर तिर्यच गतिको हे क्षपक ! तुमने पाया था, वहां पर बहुत बार तीव्र वेदनाको भोगा उसका स्मरण क्यों न करो ! अर्थात् इस समय तुम्हें अपने अतीत तिर्यंच पर्यायका स्मरण करना चाहिये ।। १६६० ।। सुप्त है चेतना जिनकी ऐसे पंच स्थावर जीव- पृथिवोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पति कायिक जिन जिन दुःखोंको पाते हैं उनका वर्णन करने में कौन समर्थ है ? कोई भी नहीं ।।१६६१ ।। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये चार प्रकारके सकायिक जीव सदा ही पराधीन रहते हैं । दीन होकर चिरकाल तक बहुत प्रकारके उत्कट घोर दुःखों को भोगते हैं ।। १६६२ ।। लाठी आदिसे पीटना, बोझा लादना, रस्सी आदिसे बांधना, भय दिखाना, नाक में नकील डालना, कानोंको कतरना, शरीरकी चमड़ी पर चिह्न बनाना, दूहना, तकलीफ देना, पीड़ा देना, मसलना, मारना, छोलना इत्यादि क्रिया द्वारा बैल, गधा, ऊंट आदि तिर्यंचोंको दुःख दिया जाता है । है क्षपक ! जब तुम तिर्यंच पर्याय में थे तब इन दुःखोंको भोगा है ।। १६६३ ।। वर्षांमें जलसे, हवासे, ठंही के दिनों में शीत से, गरमी में महान् यातपसे, घुमाना, आहार पानीको रोकना इत्यादि क्रियासे तुमने कष्ट पाये थे। दमन करना अर्थात् Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४] मरणकण्डिका -. - -. -..-.. . -- छंद-द्रतविलंबितसलिल मारुतशीतमहातपभ्रमण भक्षणपान निरोधनः। दमनतोदनगालनभंजन जलवियोजन भोजनवर्जने ।।१६६४॥ प्रबाग पतितः क्षोण्यां निःप्रतीकारविग्रहः । दुःसहा वेदनां सोया बहुभिर्वासरंमृतः ॥१६६५॥ अत्तष्णा व्याधिसंहारविह्वलोभूतमानसः । यः बहुमाः समन्तत हुनये कुरु ।।१६६६॥ छंद-उपजातितिर्यग्गति तोवविचित्रवेदनां गतो जराजन्मविपर्ययाकुलम् । दुःखासिका यां गतवाननारतं विचिंतयेस्तामपहाय बोनताम् ॥१६६७।। इति तिर्यग्गतिः । इच्छित स्थानपर नहीं जाने देना, तोदन-व्यथा पहुंचाना, पानी में गीले होना, पीलना, पानी नहीं पीने देना तथा घास आदि नहीं खाने देना इत्यादिसे बड़ा भारी कष्ट सहन करना पड़ा था ।।१६६४!। जब बैल, गधा, आदि दोन पशु स्वामो विहीन हो जाते हैं अर्थात इनका मालिक नहीं होता है तो वे बेरक्षक हो रोगादिकी स्थितिमें कहीं जमीन पर गिर जाते हैं । उस वक्त उनके शरीरका इलाज करने वाला कोई नहीं था । क्षीणकाय वहीं पर पड़े पड़े दुःसह वेदनाको सहन करके बहुत दिनोंके बाद वे विचारे अनाथ पशु मर जाते हैं मर जाते थे ।।१६६५।। हे क्षपक ! उक्त अवस्था में जो दुःख तुमने पाये थे उनको स्मरण करो। भूख, प्यास, रोग, पीटना आदिसे अत्यन्त विह्वल-घबराया है मन जिनका ऐसे उन पशु जोवोंने जो दुःख बहुत बार प्राप्त किया था उन सब दुःखोंको हृदयमें याद करो। ११६६६।। तिर्यंचगतिको प्राप्त हुए तुमने तीव्र विचित्र वेदना भोगी है, जन्म, जरा, मरण से आकूलित हो सततरूपसे जिस दुःखमय अवस्थाको तुमने पाया था उसको दोनपने के भावका त्याग करके विचार करो । हे क्षपक ! तुमने अनंत काल तक तिर्यंच पर्यायके कष्ट भोगे हैं उसका चितवन करो जिससे वर्तमानके थोड़ेसे कष्टको सहन करने का साहस आवे ।। १६६७।।। तिर्यंच गतिके दुःखोका वर्णन समाप्त । Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार मानुषीं पतिमापद्य यानि दुःखान्यनेकशः । त्वमवाप्तश्चिरं कालं तानि स्मर महामते ! | ११६६८ ।। प्रियस्य विगमे दुःखमप्रियस्य समागमे । अलाभे याच्यमानस्य संपन्नं मानसं स्मर ।। १६६६ ॥ छंद-स्रग्विणी - कर्कशे निष्ठुरे निःश्रवे भाषणे तर्जने भत्सने लाडणे पोडने । अंकने दंभने गुलसेवने ॥१९७॥ दुःसहं फिकरीभूतः करणे निद्यकर्मणः । यदवापश्चिरं दुःखं तन्निवेशय मानसे ।।१६७१॥ भीशोकमानमात्सर्य रागद्व ेष सवादिभिः । तप्यमानो गतो दुःखं पावकेरिव चितय ॥१६७२।। [ ४८५ मनुष्य गतिके दुःख हे महामते ! क्षपक ! तुमने मनुष्यगति में आकर जिन दुःखोंको अनेकों बार बहुत समय तक भोगा था उन दुःखोंको याद करो ।। १६६८ ।। प्रिय वस्तु- पत्नी पुत्र आदिके वियोग होनेपर, अप्रिय वस्तु शत्रु कंटक आदि के संयोग होनेपर तथा प्रार्थित वस्तुके नहीं मिलनेपर तुझे अंतरंग में दुःख हुआ था हे क्षपक ! उसका तुम स्मरण करो ।। १६६९ ॥ भावार्थ - जिसका नाम सुनने पर भी सर्वागमें रोमांच आते हैं मनमें आह्लाद होता है, जिसको देखते ही नेत्र मानों अमृत से सींचे गये हों ऐसा लगता है उस व्यक्तिको प्रिय कहते हैं । जिसका नाम श्रवणसे भी मस्तक शूल उठता है जिसको देखकर नेत्र धूमके समान हो जाते हैं उस व्यक्ति को अप्रिय कहते हैं । हे क्षपक ! जब तुम पराधीन होकर नोच पुरुषकी सेवा धनके लिये की धो उस वक्त उस नीचके कठोर निष्ठुर, नहीं सुनने योग्य ऐसे वचन तुमने सुने थे, उसके द्वारा की गयो तर्जना, भर्त्सना, ताड़ना, पीड़ाको सहा था, रोकड़ जमाना, छल करना, मुंडन, बाधा, खराब बर्ताव होना, नीच पूरुषकी सेवामें रहते हुए तुम्हें ये सब कष्ट सहने पड़े थे, उसने कुपित होकर तुम्हारा मर्दन और छेदन भी कर डाला था । इसतरह free होकर निद्य कामको किया उस वक्त जो चिरकाल तक दुःख भोगा था उस दुःखको हृदयमें रखो - विचार करो ।।१६७० ।। १६७११४ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ ] मरणकण्डिका स्तेनाग्निजलदायादपायिवर्धन विप्लवे कशावंडादिभिर्धाते हस्तपादादिमईने ॥१६७३॥ मूधिन प्रज्वालने वह्न भक्तपानाविरोधने । शखलैः रज्जभिः काष्ठहस्तपादाविबंधने ॥१६७४॥ पराभवे तिरस्कारे वृक्षशाखावलंबने । व्याघ्रसर्पविषारातिरोगादिभ्यो विपर्यये ॥१६७५॥ जिह्वाकर्णोष्ठनासाक्षिपाणिपादादिकर्तने । शीतवातातपोदयाबुभुक्षादिकदर्थने ॥१६७६।। शारीरं मानसं दुःखं साधो ! प्राप्तमनेकशः। यदुःसहं त्वया नत्वे तत्वं चितय यत्नतः ।।१६७७॥ परिवारको पालन करने में आजीविका की विकट समस्यामें, धनके संरक्षणमें तमको अनेक प्रकारके भय, शोक, अपमान मात्सर्य, राग, द्वेष और मदसे कष्ट सहना पड़ा अग्निसे संतप्त हुए के समान जो दुःख भोगा उसका विचार करो ।।१६७२।। चोरी हो जानेसे, अग्निसे, जलसे, हिस्सेदार पारिवारिक व्यक्ति और राजा द्वारा धनके नष्ट हो जानेपर तुम्हें जो प्राण घातक पीड़ा हुई थो तथा दास कर्म में नियुक्त होनेपर, चाबुकके कोड़ेकी मार पड़ी हस्त पाद आदिका मर्दन हुआ उस कष्टका स्मरण करो ।।१६७३।। किसी क्रूर दृष्ट शत्रुके द्वारा तुम्हारे शिर पर अग्नि जलायी भोजन पानी रोके गये, सांकल, रस्सी काठ प्रादिसे तुम्हारे हाथ पांव आदि बांधे गये थे उन दुःखों को अपमानको स्मृतिमें लाओ ।।१६७४॥ हे क्षपक ! शत्रु द्वारा पराभव होनेपर, तिरस्कार होनेपर किसी चोर, डाक आदिके द्वारा वृक्षको शाखापर लटकाये जानेपर जो जो पीड़ा सहो उनका हृदयमें विचार करो । जंगलमें व्याघ्र, सर्पसे कष्ट हुआ । शत्रु और रोगादिसे कष्ट हुअा उसका स्मरण करो ॥१६७५।। जीभ निकालना, कर्ण और ओठोंका छेदना, नाक, आंख, हाथ, पैर आदिका काटना, ठंडो, गरमी, हवा, प्यास, भूख आदि-आदिका महान कष्ट भोगना पड़ा था उसको स्मृति पथमें लाओ ।।१६७६।। हे साधो ! तुमने शारीरिक और मानसिक दुःख अनेक बार प्राप्त किये हैं। मनुष्य पर्यायमें जो दुःसह बेदना आयी थी उसका तूम प्रयत्तसे तात्विक चिंतन करो ।।१६७७।। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ४८७ सारादि अधिकार छेद-रथोद्धता हितं दुरतिकर्म निर्मितं मानुषों गतिमुपेयुषा त्वया । दुःसहं चिरमवाप्तमूजितं कि न चितयसि तत्वतोऽसुखम् ॥१६७८ ।। इति मनुष्यगतिः । वेवत्वे मानसं दुःखं घोरं कायिकतोंsगिनः । पराधीनस्य बाह्यत्वं नीयमानस्य जायते ॥१६७६ ॥ गुर्वी दृष्ट्वामरो मानी महद्धिकसुरक्षियम् । तवा स श्रयते दुःखं मानभंगेन मानसम् ॥। १६८० ।। छद-रथोद्धता सुदशस्त्रिदिवासि बरीच तो विबुधभोग संपदः । ध्यायतो भवति दुःखमुल्बणं गर्भवासवसति च निदितां ।। १६८१ ।। मनुष्य गतिको प्राप्त कर तुमने गर्हित पापकर्म किया, उससे जो दुःसह पापसंचय होकर जो भयंकर दुःख उठाना पड़ा था भी क्षपक ! उस दुःखको तुम तत्त्वदृष्टि द्वारा क्यों नहीं विचार करते हो ? हे धोर ! तुम्हें अवश्य ही इन उपर्युक्त मनुष्य गति संबंधी दुःखका चिंतन करना चाहिये, जिससे वर्तमानके किंचित् कष्ट सहज ही सहन हो ।। १६७८ ।। मनुष्यगति दुःखका वर्णन समाप्त । देवगतिके दुःखका वर्णन - इस संसारी प्राणीको कायिक दुःख से अधिक मानसिक दुःख देवगतिमें सहना पड़ा है। वहां पर अभियोग्य वाहन जातिके देव पर्याय में पराधीन हो हंस मयूर आदि सवारी बनकर अन्य देवोंको ले जाना पड़ा उस वक्त बड़ा भारी मानसिक दुःख हुआ ।। १६७६ ।। मानो देव अन्य बड़े देवोंको महान् ऋद्धियों की शोभा लक्ष्मोको देखकर मानभंगसे मानस दुःखको प्राप्त होता है अर्थात् उसे विचार आता है कि यह भी देव है और मैं भी देव हूं किन्तु यह कितना ऋद्धि संपन है, मुझे इसके सामने नीचा देखना पड़ रहा है अहो ! मैंने पूर्व जन्ममें निर्दोष आचरण नहीं किया जिससे देव होकर भी मुझे अन्य को दासता करनी पड़ती है इसप्रकार विचार आने से देव पर्यायमें भी महान् दुःख होता है ।। १६८०।। जब देव पर्यायका काल समाप्त होता है तब वहांके दिव्य वस्त्राभूषण, दिव्य देवांगनायें अप्सरायें छोड़ते हुए उस मनोहर भोग संपदायें, देवको बड़ा भारी कष्ट Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] मरणफण्डिका छंद-दोधकपूर्वभवाजितदुष्कृतजातं । उत्पन्न त्रिदशत्वमशस्तम् । दुःखमसामपारमवाप्तम् । चितय भद्रविमुच्य विषावम् ।।१६८२॥ इति देवगतिः ॥ दुगंतो यत्त्वया प्राप्तमेव दुःखमनेकशः । न तस्यानंतभागोऽपि भद्र ! बुःखमिवंस्फुटम् ॥१६८३॥ संख्यातमप्यसंख्यातं कालमध्यास्य ताशम् । अल्पकाल मिदं दुःखं सहमानस्य का व्यथा ।।१६८४॥ अवशेन त्वया सोढास्तादृश्यो वेदना यदि । किं तदा धर्मबुद्धघयं स्ववशेन न सह्यते ॥१६८५॥ होता है तथा इस दिव्यगतिसे ज्युत होकर अब मुझे अतिशय निंद्य गर्भावास में नो मास तक रहना पड़ेगा इस बातका ध्यान करते हुए अत्यंत दुःख होता है ॥१६८।। हे भद्र ! इसप्रकार देवपर्यायसे च्युत होते समय जीवको देवपना भी अत्यंत अप्रशस्त प्रतीत होता है। पूर्वभवमें उपार्जित पापके उदयसे असह्य दुःख उत्पन्न होता है। हे क्षपक ! तुमने इसतरह सर्वत्र ही अपार कष्ट एवं दुःख पाया है अब विषादको छोड़कर अतीत समस्त दुःखों का विचार करो और मनः समाधान पूर्वक सल्लेखनामें सावधान हो जाम्रो ॥१६८२।। देवगतिके दुःख का वर्णन पूर्ण हुआ । हे भद्र ! इसप्रकार तुमने दुर्गति में अनेक बार दुःखको प्राप्त किया है, वह जो चतुर्गतिका दुःख है उस दुःख के अनंतवें भाग प्रमाण भो यह समाधिमरणके समयका भख आदिका दुःख नहीं है ।। १६८३।। अतीत में तुमने संख्यात तथा असख्यात वर्ष प्रमाण काल में वैसा भयंकर दुःख सहा था, अब बहुत थोड़े कालका किंचित् दुःख सहते हए क्या व्यथा मानना ? अर्थात् रत्नत्रयको आराधनामें किंचित् दुःख होवे तो उसमें शांत भाव रखना चाहिये व्याकुल होकर व्रतादिसे च्युत नहीं होना चाहिये ।।१६८४॥ चतुर्गतियों में परवशतासे वैसी महावेदना सहन को थो, तो अब धर्मबुद्धिसे अपनी स्वाधीनता पूर्वक यह अल्पदुःख क्यों न सहा जाय ? अवश्य सहना चाहिये ॥१६८५॥ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ४८t संसारे भ्रमतस्तृष्णा दुरंता या तवाभवत् । न सा शमयितुं शक्या सर्वांभोधिजलरपि ।।१६८६॥ बुभुक्षा तारशी जाता संसारे सरतस्तत्र । न शक्या याहशो हंतु सर्वपुद्गलराशिना ॥१६८७॥ सोढ़वा तृष्णाबुभुक्षे ते त्वं नेमे सहसे कथम् । स्ववशे धर्मवद्धयर्थमल्पकाले महामते ! ॥१६८८॥ समुद्रो लंचितो येन मकरग्राहसंकुलः । गोष्पवं लंघतस्तस्य न खेदः कोऽपि विद्यते ॥१६८६।। श्रुतिपानकशिक्षालश्रुतध्यानौषधैर्यते । । वेबनानुगृहीतेन सोढ़ तीवापि शक्यते ।।१६६०॥ - - भो साधो ! संसारमें चिरकाल तक भ्रमण करते हुए तुमको जो महातृषा बाधा हुई थी वह इतनो विशाल थी कि समस्त सागरोंके जलसे भी शांत नहीं हो सकती थी ।।१६८६।। उसीप्रकार संसारमें परिभ्रमण करते हुए तुमको जैसी क्षधा लगी थी वैसी क्षुधा संपूर्ण पुद्गल राशि द्वारा भी दूर करना अशक्य था । हे महामते ! जब इतनी भयंकर भूख और प्यास सहन कर चुके हो तो अब स्वाधीनतासे रत्नत्रयधर्मकी वृद्धिके लिये अल्पकाल तक किंचित् भूख प्यास किसप्रकार नहीं सहोगे ? सहना ही चाहिये ।।१६८७।।१६८८।। देखिये ! जिसने मकर मत्स्य आदि जलचर जीवोंसे व्याप्त ऐसा समुद्र पार कर लिया है उसको गोष्पद प्रमाण जलका उल्लंघन करने में कुछ भी खेद नहीं होता है । ठीक इसोप्रकार दुर्गतियोंमें दु :खोंका मानों सागर हो था उसको तुम भोगकर आये हो तो अब भूख या वेदना संबंधी किंचित् दु:ख सहने में क्या खेद है ? कुछ भी नहीं ।।१६८६।। हे क्षपक मुने ! इस समय तुमको भूख, प्यास, रोग आदि संबंधी वेदना हो रहो है सो हम उपदेश रूपी पेय पदार्थ द्वारा आपकी प्यासको दूर करनेका अनुग्रह करते हैं तथा शिक्षारूपो भोजन एवं सूत्रार्थ के ध्यानरूपी औषधि द्वारा क्रमशः क्षधा और रोगका अनुग्रह कर रहे हैं इससे तीव्र भी वेदना सहन करने में तुम समर्थ हो जावोगे ।।१६६०॥ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] मरकण्डिका पीडानावकारस्य सोपकारस्य चोदिता । नाभीतस्य न भीतस्य जंतोर्नश्यति कर्मणि ।। १६६१ ॥ औषधानि सवोर्याणि प्रयुक्तान्यपि यत्नतः । पापकर्मोदये पुंसः शमयंति न वेदनाम् ॥१६९२ ।। असंयमप्रवृत्तानां पार्थिवादिकुटु खिनाम् । पोडा तरिः शक्तो निराकर्तुं न कर्मजाम् ।। १६६३।। असाता कर्मके उदय द्वारा प्रेरित हुई- उत्पन्न हुई पोड़ा या वेदना उपकार युक्त जीव हो चाहे उपकार रहित हो वेदनासे डरा हो चाहे नहीं डरा हो सब ही जीवों को उसको सहना ही पड़ता है बिना सहे उक्त वेदना नष्ट नहीं होती है । आशय यह है कि तीव्र असतकर्मको उदीरणा या उदय आजाने पर मानव कितना भी प्रतीकार करे अथवा बिल्कुल न करे, वेदनासे कितना भी भयभीत हो अथवा किंचित् भी डरता नहीं हो इन पारी ही अवस्थाओं में वेदनाको अवश्यमेव भोगना पड़ता है। उस वक्त वेदनासे बचनेका बचानेका कुछ भी उपाय नहीं है ।। १६६१ ।। बहुत बलवीर्यं युक्त औषधियोंका बड़े यत्न एवं विधिसे प्रयोग करने पर भी पापकर्मके उदय होनेपर वे औषधियां मनुष्यको बेदनाको शांत नहीं करती हैं ।। १६६२ ।। जो असंयमी है । किसी प्रकार यम नहीं है तथा राजा महाराजा मंत्री आदि परिवार वाला है अथवा स्वयं राजा महाराजा है तथा उनकी चिकित्सा करनेवाला धन्वंतरी वैद्य है तो भी पापकर्मोदयसे उत्पन्न हुई वेदनाका निराकरण करने में वह समर्थ नहीं होता है || १६६३॥ भावार्थ - राजा आदि लोग अतिशय धनवान् होते हैं, उनकी शुश्रूषा करनेके लिये अनेक मनुष्य सदा तत्पर रहते हैं, रोग दूर करने में उन लोगोंको असंयमकी कोई परवाह भी नहीं रहतो कि अमुक उपाय में असंयम होगा अतः वह उपाय न करे । वे तो सब प्रकारका रोग उपशमनका उपाय करते हैं | धन्वंतरी वैद्य समान चतुर चिकित्सक रोगका निदान कर औषधिका सेवन कराते हैं, परन्तु यह सब व्यर्थ हो जाता है जब असाताका तोव्र उदय चल रहा हो । इसप्रकार निर्यापक आचार्य क्षपक मुनिको समझा रहे हैं कि तुम यह नहीं सोचना कि मैं असंयमी होता, राजा प्रादि होता Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६१ सारणादि अधिकार क्यालोः सर्वजोवानामौषधेन व्यथाशमम । प्रार्थनाप्तेन कि साषोः प्रासुकेन करिष्यति ।।१६६४।। संयतस्य वरं साधोमरणं मोक्षकांक्षिणः । वेदनोपशमं कर्तुं नाप्रासुकनिषेवणम् ॥१६६५।। एकत्र निधनं नाशो न तु भाविषु जन्मसु । असंयमः पुनर्नाशं दत्ते बहुषु जन्मसु ॥१६६६॥ अच्छा वैद्य होता तो मेरा रोग या वेदना शांत हो जाती । वेदनासे छुटकारा तब तक नहीं हो सकता जब तक असाता मंद न हो । अतः भागत वेदनाको शांत भावसे सहना हो श्रेष्ठ है । इससे नूतन कर्मबंध नहीं होगा तथा पुराना कर्म निर्जीर्ण होगा। जब धनवान और असंयमी पुरुष भी रोगको दूर नहीं कर पाते तो सर्व जीवों पर दयाभाव रखनेवाले साधुके याचनासे प्राप्त हुए प्रामुक औषधि द्वारा क्या वेदना शांत की जा सकती है ? ॥१६६४।। विशेषार्थ-मुनिराज छह प्रकारके जीवोंकी दया पालते हैं । उनके पास द्रव्य नहीं रहता, याचना करके प्रासुक औषधि लाकर क्षपक मुनि या अन्य रोगो मुनिकी सेवा करते हैं । राजा आदिके समान उनके पास परिचारक एवं वैद्य सतत् उपस्थित भी नहीं रहते । राजा आदि असंयमो वेदनाके उपशमन चाहे जिस उपायसे करते हैं। किन्तु मुनिजन संयमकी रक्षा करते हुए वेदनाका प्रतिकार करते हैं यदि संयम सुरक्षित न रहे ता ऐसी औषधि ग्रहण नहीं करते हैं । हे क्षपक ! मोक्षके इच्छुक संयमो साधुका मरण हो जाना श्रेष्ठ है किन्तु वेदनाको शांत करने के लिये अप्रासुक औषधिका सेवन कदापि योग्य नहीं है ।।१६९५।। संयमकी रक्षा करते हुए अशुद्ध औषषिका सेवन नहीं किया और उससे मरण हो गया तो वह एक इसी पर्यायका मरण है अागामी जन्मों में तो नाश नहीं है । किन्तु असंयम होगा अर्थात् अशुद्ध औषधि सेवनसे होनेवाला असंयम बहुत जन्मोंका नाश करेगा ।।१६६६।। जीवके पापकर्मका उदय आनेपर इन्द्र सहित देव चाहते हुए भी वेदनाका नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं अर्थात जिस जीवका तीव्र पापोदय चल रहा है वेदना Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] मरणाकण्डिका कांक्षतोऽपि न जीवस्य पापकर्मोवये क्षमाः । वेवनोपशमं कतुं त्रिदशाः सपुरंदराः ॥१६६७॥ उदोर्णकर्मणः पोडां शयिष्यति किं परः । अभग्नो वंतिना वृक्षःशशकेन न भज्यते ॥१६६८॥ कर्माण्युदोर्यमाणानि स्वकोये समये सति । प्रतिषेद्धन शक्यन्ते नक्षत्राणीव केनचित् ॥१६६६।। ये शकाः पतनं शक्ता न धारयितुमात्मनः । ते परित्रां करिष्यप्ति परस्य पततः कथम् ।।१७००।। तरसा येन नोयंसे कजरा मवमंघराः । शशकानामसाराणां तत्र स्रोतसिका स्थितिः ॥१७०१॥ शिवशा येन पात्यंसे विक्रियाबलशालिनः । नायासो विद्यते तस्य कर्मणोऽन्यनिपातने ॥१७०२॥ से अति पीड़ित उस व्यक्तिको वेदनाको देव और इन्द्र मिलकर भी दूर नहीं कर सकते ॥१६६७॥ उदीरणाको प्राप्त हुए कर्मसे उत्पन्न हुई पोडा को जब देवेन्द्र भी दूर नहीं कर सकता है तब उस वेदनाको अन्य क्या शांत करेगा ? नहीं कर सकता, जो वृक्ष हाथी द्वारा हो टूट नहीं पाया वह क्या खरगोश द्वारा टूट सकता है ? नहीं टूट सकता। उसीप्रकार देवेन्द्र द्वारा जो वेदना दूर नहीं हुई वह अन्य साधारण जन द्वारा क्या दूर होगी ? नहीं होगी ।।१६९८।। अपने अपने समयपर कर्मोंके उदय में आनेपर उनका रोकना अशक्य है, जैसे यथा समय नक्षत्र उदित होते हैं उन्हें रोकना अशक्य है ।। १६६६।। जब इन्द्रोंका स्वर्गसे च्युत होनेका समय आता है तब वे स्वयं अपनेको वहांसे च्युत होने को रोक नहीं सकते तो फिर गिरते हुए अन्य व्यक्तिकी कैसे रक्षा कर सकते हैं ? नहीं कर सकते ॥१७००॥ जिस जल प्रवाहमें मदोन्मत्त हाथी शीघ्रतासे बहाये चले जाते हैं उस प्रवाहमें कमजोर खरगोशोंकी क्या स्थिति हो सकती है ? नहीं हो सकती ।।१७०१।। जिस कर्मोदय द्वारा बिक्रिया शक्तिसे संपन्न देव स्वर्गसे गिराये जाते हैं(आयुके पूर्ण होनेपर स्वर्गसे च्युत होते ही हैं) उस कर्मको अन्य सामान्य व्यक्तिको गिराने में-दु:खी करने में क्या आयास होगा १ ॥१७०२॥ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४९३ सारणादि अधिकार कर्मणा पततीन्न तु परस्य क्ष व्यवस्थितिः । मेरौ पति वातेन शुष्कपत्रं न तिष्ठति ॥१७०३॥ बलीयेभ्यः समस्तेभ्यो बलीयः कर्म निश्चितम् । तबलीयांसि मुदनाति कमलानीव कुजरः ॥१७०४॥ कोक्यमिति ज्ञात्वा दुनिवारं सुरैरपि । मा कार्षीमनिसे दुःखमुदीर्णे सति कर्मणि ॥१७०५॥ विषादे रोदने शोके संक्लेशे विहिते सति । न पोडोपशमं याति न विशेष प्रपद्यते ॥१७०६॥ मान्योऽपि लभ्यते कोऽपि संक्लेश करणे गुणः । केवलं बध्यते कर्म तिर्यग्गतिनिबंधनम् ।।१७०७॥ कर्मोदय आने पर जब इन्द्र भी स्वर्गसे गिरता है-च्युत होता है तो अन्य सामान्य व्यक्ति को क्या स्थिति ? अर्थात् कर्मोदय आनेपर इन्द्र भी द:खी होता है तो सामान्य जीव दुःखी होवे इसमें क्या संशय ? जिस वायु द्वारा मेरुके समान विशाल पर्वत गिरता है उससे क्या सूखा पता ठहर सकता है ? नहीं ठहर सकता ।।१७०३।। संसारमें एकसे बढ़कर एक बलवान पदार्थ हैं उन सब बलवानोंमें भी अधिक बलवान कर्म है क्योंकि कर्म सभी बलवान पदार्थों को नष्ट कर सकता है, करता ही है, जैसे हाथी कमलोंको मसल देता है, निगल जाता है, नष्ट करता है ।।१७०४॥ यह कर्मोदय देवों द्वारा भी द निवार है रोका नहीं जा सकता है ऐसा जानकर हे क्षपक ! तुम कर्मोदयके आनेपर मनमें द:ख मत करो ।। १७०५।। विषाद करनेपर, रोनेपर, शोक करनेपर तथा संक्लेश करनेपर भी पोड़ा शांत नहीं होती न उसमें कुछ कमी आती है ।।१७०६।। तथा संक्लेश करना, रोना आदिमे कुछ गुण भी प्राप्त नहीं होता, रोनेसे शोकसे विषादादिस तो उलटे तिर्यंचगति का कारणभूत कर्म बंधता है ॥१७०७।। भावार्थ-वेदनादिसे आतुर क्षपक मुनिको आचार्य महाराज समझा रहे हैं कि भो साधो ! तम रोग, भूख आदिसे पीड़ित हो क्लेश करोगे तो लाभ कुछ नहीं होगा अर्थात् रोगादिक कम या नष्ट नहीं होंगे इससे विपरीत नवीन असाता कर्मका Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] मरणकण्डिका हतं मुष्टिभिराकाशं विहितं तुषखंडनम् । सलिल मथितं तेन संक्लेशो येन सेवितः ॥१७०८।। पूर्व मुक्त स्वयं द्रव्यं काले न्यायेन तत्स्वयं । प्रधर्मणस्य किं दुःखमुत्तमर्णाय यच्छतः ॥१७०६॥ कृतस्य कर्मण: पूर्व स्वयं पाकमुपेयुषः । विकारं बुध्यमानस्य कस्य बुःखायते मनः ॥१७१०॥ पूर्वकर्मागतासातं सहस्व त्वं महामते ! । ऋणमोक्षमित्र ज्ञात्वा मा मूमनसि दुःखितः ॥१७११॥ बंध होगा । आर्तध्यान से तिर्यंचगतिका बंध होगा अर्थात् अमनोज पदार्थको दूर हटाने के लिये बार बार चित करने का अगिट संयोग नामका आर्तध्यान एवं मेरा रोग कब दूर हो ? कौनसा उपाय करू ? औषधि कहाँ मिलेगी इत्यादि रूप चिंतन पोड़ा चिंतन नामका आतंध्यान है । इससे तिर्यंचगतिका बंध होता है । __कोई अज्ञानी संक्लेश करता है तो समझना चाहिये उसने मुष्टियोंसे आकाश को मारा, भूसेको भूसलसे कूटा और पानोको बिलोया है अर्थात् जैसे आकाशको मारने से आकाशका घात नहीं होता, भूसेको कूट नेसे चावल नहीं निकलता, जलको बिलोनेसे मक्खन नहीं मिलता, वैसे संक्लेश करने से पीड़ा शांत नहीं होती है, उसके लिये संक्लेश करना व्यर्थ है, जैसे भूसा कूटना आदि व्यर्थ है ।।१७०८।। जैसे कोई पुरुष समयपर कर्ज लेता है उसका उपभोग करता है परन्तु जब उचित काल व्यतीत होनेपर उस कर्जसे लाये धनको साहूकारके लिये देता है उसको देते समय या खेद होता है ? क्योंकि वह जानता है कि कर्जसे लाया धन धनिकको लोटाना ही है ।।१७०६।। उसीप्रकार पूर्व जन्ममें स्वयंने पापकर्मका संचय किया अब वह उदयको प्राप्त हो चुका है, उस कर्मके उदय विकारको जानते हुए किस पुरुषका मन द :खित होगा ? अभिप्राय यह है कि जब कर्मोदय आ चूका है तो उस वक्त शांत परिणामसे उसे भोगना हो श्रेयस्कर है ।।१७१०।। हे महामते ! पूर्व जन्म में बाँधा हुआ असाता कर्म उदयमें आया है उसको तुम शांतिपूर्वक सहन करो। ऐसा विचार करो कि भला हुआ । कर्जा उतर गया ! Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ४६५ १वं शुमा महाद्य ललितं स्फुटम् । वोषो नैवात्र कस्यापि मत्वा वखासिका त्यज ॥१७१२॥ अभूतपूर्वमन्येषामात्मनो यदि जायते । तदा दुःखासिका फतुं मानसे युज्यते तव ॥१७१३।। अवश्यमेव वातव्यं काले न्यायेन यच्छतः । सर्वसाधारणं दंडं दुःखं कस्य मनीषिणः । १७१४।। सर्वसाधारणं दुःखं दनिवारमुपागतम ।। सहमानो मुने ! मामूर्तु:खितस्त्वं भज स्मृतिम् ॥१७१५॥ अर्थात् जैसे किसीसे पहले कर्ज लिया था उसका समय समाप्त होनेपर उसको चुका देते हैं और भार रहित होते हैं, वैसे पहले मैंने ही कर्म बांधा था अब उदय में पाकर खिर जायगा तो आगे भार नहीं रहेमा ऐसा जानकर मनमें दु :खी मत होवो ।।१७११॥ भो यते ! मैंने स्वयंने पहले कर्म किया था उसका आज स्पष्ट रूपसे फल मिला है, इसमें किसीका दोष नहीं है, इसप्रकार मानकर दुःखको छोड़ दो ।। १७१२।। यह पापकर्मका उदय एवं उससे होनेवाली वेदना यदि अभूतपूर्व होती अपने स्वयंको अन्य जीवोंको कभी भी नहीं हुई होती तो तुम्हारा मनमें दुःखी होना उचित था किन्तु, यह तो सर्वजन साधारण बात है, जैसे राजदण्ड-कर टैक्स यथासमय अवश्य देने योग्य होता है, उस दण्डको न्यायपूर्वक समयपर देते हुए किस मनीषिको दुःख होगा ? किसीको भी नहीं होगा। इसीप्रकार कर्म बंध करनेके बाद उसका फल अवश्य भोगना होता है यह सर्व साधारण बात है उस कर्मफल को भोगते समय किस बुद्धिमान को दुःख होगा ? किसीको नहीं ।। १७१३।।१७१४।। __ भो मुने ! कर्मोदयसे प्राप्त यह दुःख सर्व साधारण है एवं दनिवार है, अतः उसको भोगते हुए तुम दुःखी मत होबो । हे क्षपक ! तुम शीघ्र ही स्मृतिको प्राप्त होयो ।।१७१५॥ पांचों परमेप्ठियोंके साक्षोपूर्वक ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान-आहार त्यागका भंग करने की अपेक्षा संयतको मृत्यु होना श्रेष्ठ है भो क्षपक ! इसप्रकार तुम निश्चित Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका साक्षीकृत्य गृहोतस्य पंचापि परमेष्ठिनः । संयतस्य वरं मत्युः प्रत्याख्यानस्य भंगतः ॥१७१६॥ अप्रमाणयता तेन न्यचकृताः परमेष्ठिनः । कार्यानिवर्तमानेन साक्षीकृतनपा इव ॥१७१७॥ प्रमाणी कुरुते भक्तो यो योगी परमेष्ठिनः । तरसाक्षिकमसौ जातु प्रत्याख्यानं न मुंधति ।।१७१८।। साक्षीकृत्य एवानुजाः तुरीले एरोटिनः । पुनःसद्यो महादोष भूमिपाला इव स्फुटम् ॥१७१६॥ संघतीर्थकराचार्य श्रुताधिकमद्धिकान् । पराभवति योगी च स परांपिकमंचति ॥१७२०॥ समझो ।।१७१६।। पंच परमेष्ठियोंकी साक्षीसे आहार त्याग करके पुन: उस त्यागको स्वीकार नहीं करना छोड़नेके भाव करना या छोड़ देना, इससे तो पंच परमेष्ठियोंका तिरस्कार करना है क्योंकि उनके समक्ष ही व्रत लिया और फिर व्रत पालनको मना कर दिया यह उनका अनादर ही है । जैसे राजाके समक्ष अमुक राजकार्य करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा ली और पुनः उस कार्यसे पीछे हटे तो वह राजाका तिरस्कार ही माना जाता है ।।१७१७॥ जो साधु पंच परमेष्ठियोंका भक्त है उनको प्रमाणभूत मानता है वह कभी भी उनके साक्षीस लिये हुए प्रत्याख्यानको नहीं छोड़ता है ।।१७१।। परमेष्ठीके साक्षीसे आहार त्यागकी प्रतिज्ञा लेकर पुनः उसका तिरस्कार करता है तो उस परमेष्ठीको आसादनासे तत्काल उस साधुको महादोष लगता है महान पाप बंध होता है । जैसे राजाके सामने राज्य संबंधी कार्य करनेको प्रतिज्ञा लेकर उस कार्यको न करे तो राजा उसे अपराधो समझकर तत्काल दंड देता है ॥१७१९।। जो साधु संघ, तीर्थकर, आचार्य, उपाध्याय और ऋद्धि संपन्न साधुजनोंका तिरस्कार प्रनादर करता है वह पारंचिक नामके बड़े भारी प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है अर्थात् इन संघ तीर्थंकर आदिको आसादना करने पर पारंचिक प्रायश्चित्त द्वारा ही उसको शुद्धि होती है, अन्यथा नहीं ।।१७२०।। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार तिरस्कृता नपाः संतः साक्षिस्वेऽस्य शरीरिणः । एकत्र वदते दुःखं जिनंद्रा भवकोटिष ॥१७२१॥ मोक्षाभिलाषिणः साधोमरणं शरणं वरम् । प्रत्याख्यानस्य न स्यागो जिनमिद्धाविसाक्षिणः ।।१७२२॥ एकत्र कुरुते दोषं मरणं न भवांतरे । व्रतभंगः पुनर्जातो भवानां कोटिकोटिषु ॥१७२३॥ प्रत्याख्यानमनादाय म्रियमाणस्य देहिनः । न तथा जायते दोषः प्रत्याख्यात्यजने यथा ।।१७२४।। -- - -- - -- --- राजाके कार्यको प्रतिज्ञा लेकर उसको न करे तो उससे राजाका तिरस्कार होता है और तिरस्कारको प्राप्त हुआ राजा उसको धनहरण आदि दुःख देता है वह दुःख केवल उसी एक भवमें होता है किन्तु जो व्यक्ति जिनेन्द्रदेयकी साक्षीसे नियम लेकर उसको छोड़ देता है उससे जिनेन्द्रकी आसादना होती है उससे ऐसे निकाचित कर्म का बंध होता है कि जिसके द्वारा कोटि कोटि भवोंमें दुःख प्राप्त होता है ।।१७२१॥ ___ मोक्षाभिलाषी साधुके मरणकी शरण लेना श्रेष्ठ है किन्तु अहंत सिद्ध आदि परमेष्ठियोंकी साक्षीसे लिये हुए प्रत्याख्यानको छोड़ना श्रेष्ठ नहीं है ।।१७२२।। क्योंकि मरण एक भवमें दोष करता है-भवका नाश करता है किन्तु यदि प्रत्याख्यान व्रतका भग हो जाय तो कोटि कोटि भवोंमें दोष होता है-अनन्त भवों में दुर्गति प्राप्त होती है ।।१७२३।। प्रत्याख्यान व्रतको लिये बिना मरण करनेवाले जोवके वैसा दोष नहीं होता जैसा प्रत्याख्यान व्रतको लेकर फिर छोड़े तो दोष होता है ।।१७२४।। भावार्थ--आहारके त्यागकी प्रतिज्ञा किये बिना जो मरण करता है उसके नत भंगके परिणामरूप संक्लेश नहीं होता इसलिये वह महान् दोषका भागो नहीं है. किन्तु आहार त्यागको प्रतिज्ञा लेकर फिर उसे तोड़ देता है उसके मनमें संक्लेश परिणाम तीव्र होते हैं अतएव वह महादोषी है । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; ] मरकण्डिका हिनस्ति देहिनोऽनार्थं भाषते वितथं वचः । परस्य हरते प्रध्यं स्वीकरोति परिग्रहम् ॥। १७२५।। रत्नत्रयं जगत्सारमाहारार्थं विभुं चति । निस्त्रपो भुवनख्यातं अलिनीकु कुल्॥एछ जिह्व न्द्रियवशस्याशु बुद्धिस्तीक्ष्णापि नश्यति । संपद्यते परायसो योनिमश्लेषलग्नवत् ॥ १७२७॥ धर्मकृतज्ञत्वमाहात्म्यानि निरस्यति । महान्तं कुरुतेऽनर्थं गललग्तो यथा भषः || १७२८ ।। इस संसार में संसारी प्राणी आहारके लिये जीवोंका घात करता है झूठ, वचन बोलता है, पराया धन चुराता है और परिग्रहको स्वीकार करता है ।। १७२५ ।। वैसे ही निर्लज्ज साधु आहार के लिये जगत् में सारभूत ऐसे रत्नत्रयको छोड़ देता है और अपने जगद् विख्यात कुलको मलिन करता है ।।१७२६ ।। भावार्थ -- आहारका त्याग करके पुनः उस आहारको ग्रहण करनेसे रत्नत्रयका नाश होता है क्योंकि परमेष्ठोकी साक्षीसे व्रत लेकर छोड़ा है तो उस व्यक्तिके परमेष्ठी के प्रति श्रद्धाके भाव नष्ट हुए ही तथा नियमका भंग होनेसे चारित्र भी समाप्त हुआ । जो साधु आहारका त्याग कर पुनः ग्रहण करता है उसका अपने जन्मका जो उच्च कुल है वह और दीक्षाका कुल जो आचार्य परंपरा या संघ है वह मलिन होता है क्योंकि लोग अपवाद करते हैं कि अमुक कुलके साधुने अमुक संघके साधुने प्रत्याख्यानका भंग किया है, देखो ! इसने प्रतिज्ञाको तोड़ दिया है इत्यादि । जो मनुष्य जिल्ह्वा इन्द्रियके वर्ग होता है उसकी तीक्ष्ण बुद्धि भो नष्ट हो जाती है, वह आहार लोलुपो व्यक्ति वज्र के बंधन से मानो बंधा हुआ बिलकुल परतंत्र होता है ।।१७२७ ।। भावार्थ - भोजन लंपटी पुरुषके बुद्धि नष्ट होती है अर्थात् अनका लोभी मनमें युक्त अयुक्तका विचार नहीं कर पाता । जिह्वाके वशीभूत हुए मानवको बुद्धि पहले भले ही तीक्ष्ण हो किन्तु जिह्नाको आधीनतासे वह नष्ट होती है, रसोंमें लुब्ध होकर वह पदार्थका यथार्थ निर्णय करने में असमर्थ होता है । आहारके वश होकर मनुष्य रत्नत्रय धर्म, धैर्य, कृतज्ञता और माहात्म्यको भी नष्ट कर डालता है और अपना महान् अनर्थ करता है जैसे मछली जालमें लगे हुए Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादिधिकार [४९९ कुलोनो धार्मिको मानी ख्यातकीतिविचक्षणः । अभक्ष्यं वरुभते वस्तु विरुद्धां कुरुते क्रियाम् ॥१७२६॥ दुभिक्षारिषु माजरोिशिशुमाराहिमानवाः । बल्लभान्यप्यपत्यानि भक्षयन्ति बुभुक्षिताः ॥१७३०॥ ये जन्मद्वितये दोषाः केचनानर्थकारिणः । से जायतेऽखिला जन्तोराहारासक्त वेतसः ।।१७३१।। माहारसंशया श्वन महान्तं सप्तमं परम् । गच्छन्ति तिमयो यातः शालिसिपथोऽपि नष्ट थोः ॥१७३२।। खाद्य वस्तुके वश होकर उसको खाने जाती है और फंसकर अपने प्राण खोनेरूप महा अनर्थ करती है ॥१७२८।। ___ मनुष्य कुलीन है, धार्मिक है, अभिमानी और प्रसिद्ध कोतिबाला एवं बुद्धिमान है वह भो आहारके वशीभूत हुआ अभक्ष्य पदार्थका सेवन करने लगता है और इसतरह अपने कुल आदिसे विरुद्ध ऐसी क्रिया करता है ।।१७२६।। क्षुधासे पीड़ित हुए मनुष्य दुर्भिक्ष आदिके समय अन्न के अभावमें बिल्लो, शिशुमार, सर्प और तो क्या मनुष्यका भो भक्षण कर जाते हैं तथा अपने खुदको संतान पुत्र पुत्रीको भी खा जाते हैं ।।१७३०॥ इस विश्वमें उभय जन्मोंमें जो कुछ अनर्थकारी दोष हैं वे सबके सब आहारमें आसक्त चित्तवाले जीवके हो जाते हैं ।।१७३१।। आहार संज्ञासे महामत्स्य महा भयावह सातवें नरकमें जाते हैं तथा नष्ट बुद्धि तंदुल मत्स्य भी सातवें नरकमें जाता है ।।१७३२।। विशेषार्थ-स्वयंभरमण नामके अंतिम महासमुद्र में तिमिगलादि महामत्स्य रहते हैं, उनका शरीर बहुत बड़ा-एक हजार योजन लंबा होता है तथा चौड़ा पांच सौ योजन एवं मोटा ढाईसो योजन प्रमाण होता है। वे महामत्स्य आहार लोलुपी हो मुखको खोलकर पड़े रहते हैं छह मासतक भो ऐसे हो रह सकते हैं, बीच में निद्रा भो लेते रहते हैं, मुखमें आये हुए जलचर जीवोंको खाते हैं। छह मास पर्यंत मुखको Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] मरकण्डिका चतुरंगबलोपेतः सुभूमः फललालसः । नष्टभोध निजैः साधं ततोऽपि नरकं गतः ।। १७३३॥ खोलकर बैठ जाते हैं अनंतर मुखको बंदकर अंदर में प्रविष्ट हुए जल जंतुस्रोंको खाकर महा उग्र पापका बंध करते हैं और मरकर सातवें नरकके अवधिस्थान नामके बिल में जाते हैं । उन महामत्स्योंके कानोंमें कानके मंलका भक्षण करनेवाले तंदुल जैसे छोटी आकारके मत्स्य रहा करते हैं वे महामत्स्योंके मुखों में आते जाते हुए जल जंतुओंको देखकर सोचते हैं कि ये महामत्स्य मूर्ख हैं मुखको बंद नहीं करते, यदि हमको इतना बड़ा शरीर मिलता तो एक भी जीवको मुखसे बाहर निकलने नहीं देते । इत्यादि हिसानंदी रौद्र व्यान द्वारा वे तंदुल मीन भी सातवें नरक में जाते हैं । चतुरंग बलवाला सुभीम चक्रवर्ती फलोंमें आसक्त होकर अपने परिवार के साथ समुद्र में नष्ट हुआ था और मरकर नरक में गया था ।। १७३३ ।। सुभम चक्रवर्तीकी कथा छह खंडके अधिपति चक्रवर्ती सुभम जिह्वा लोलुपी था, निधियों द्वारा अनेक तरह के भोग उपभोग प्राप्त होनेपर भी वह सदा अतृप्त ही रहता था । एक दिन अधिक गरम खीर परोसने के कारण उसने गुस्से में आकर अपने रसोईये जयसेनको थाली फेंककर मारा, थाली मर्म स्थानपर लग जानेसे रसोईया तत्काल मर गया और अकाम निर्जरा के फलस्वरूप व्यंतरदेव हो गया और कुअवधिज्ञानसे जानकर चक्रीपर कुपित होकर उसको मारने का षडयंत्र रचा । व्यंतरदेवने सोचा कि यह रसनेन्द्रिय के वश में है अतः मधुर फलोंको देकर छलसे मार देंगे। वह देव ब्राह्मण वेषमें चक्रीके पास आया और दिव्य मधुर फलोंको भेंट में देकर अपना परिचय दिया कि मैं समुद्र के उस पार रहता हूँ मैं आपको अपना स्वामी मानता हूं अतः ये मिष्ट फल लाया हूँ । चक्री प्रसन्न हुआ और उसने प्रतिदिन फल लाने को कहा ब्राह्मण वेषधारी देवने कहाराजन् ! आप कृपाकर मेरे उस रम्य स्थानपर चलिये वहां अनेक उद्यान फलोंसे भरे हैं | चक्री उसके साथ चला, समुद्रसे पार होते समय ठोक मध्य समुद्रमें उस देखने अपना परिचय दिया कि अरे दुष्ट ! तुमने मुझे थाली फेंककर मारा था उस समय मैं निर्बल था अब उसका बदला अवश्य लूंगा इतना कहकर देवने नौका समुद्र में डूबा दी । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि प्रधिकार [ ५०१ प्राहारसंज्ञया भद्र ! कृत्वा पापं दुरुत्तरम् । चिरकालं भवाम्भोधौ प्राप्तो दुःखमनारतम् ॥१७३४॥ कि त्वमिच्छसि भूयोऽपि भ्रमितु भवकानने । दुःखदामशनाकांक्षा येनाबापि न मुचसि ॥१७३५।। पाहारं पल्भमानोऽपि चिरं जीवो न तृप्यति । उन्धुत्तं सर्वदा चित्तं जायते तृप्तितो विना ।।१७३६।। इंधनेनेव सप्तास्तिः सलिलेनेव वारिधिः । गंधसा गृह्यमाणेन जोबो जातु न तृप्यति ।।१७३७।। भोगिनश्चक्रिणो रामा वासुदेवाः पुरंदराः । नाहारस्तुप्तिमायासास्तप्यंत्यत्र परे कथम् ॥१७३८।। - - -- .-.-.- - सुभौम उस अगाध समुद्रमें मरा और नरकमें चला गया । इसप्रकार भोजनकी लंपटता से सुभौमको चिरकाल तक नरकावास जागना पड़ा। कथा समाप्त । हे भग ! आहार संज्ञासे तुमने अतीतकाल में अत्यंत पापको करके चिरकाल तक संसाररूपी महासमुद्र में सतत् महान दुःखोंको भोगा था ॥१७३४।। अहो क्षपक राज ! क्या अब भी पुनः तुम संसार वनमें भ्रमण करना चाहते हो ? जो कि आज भी दुःखदायी भोजनकी इच्छाको छोड़ नहीं रहे हो ? ।।१७३५।। आचार्य महाराज क्षपकको समझाते जा रहे हैं कि यह जीव चिरकाल तक भोजन करे किन्तु वह कभी तृप्त नहीं होता और तृप्ति हुए बिना सदा ही मन में आहार को उत्कंठा बनी रहती है ॥१७३६॥ जैसे ईंधन द्वारा अग्नि तृप्त नहीं होतो जल द्वारा सागर तृप्त नहीं होता, वैसे ही ग्रहण किये गये भोजन द्वारा जीव तृप्त नहीं होता है ।।१७३७।। महान महान भोग तथा भोज्य पदार्थ जिनके पास मौजूद हैं ऐसे भोग भमिज मनुष्य चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण पुरंदर विशिष्ट-आहार द्वारा तृप्तिको प्राप्त नहीं हुए तो फिर अन्य साधारण जोव सामान्य आहार द्वारा किसप्रकार तृप्त हो सकते हैं ? नहीं हो सकते ।।१७३८।। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] मरणकण्डिका रत्यालितचित्तस्य प्रीति स्ति रति विना । प्रीति विना कुतः सौख्यं सर्वदा गृखचेतसः ॥१७३६।। पुदगला विविधोपायः सकला भक्षितारवया । प्रतीतेऽनंतशः काले न च तृप्ति मन:श्रितम् ॥१७४०।। -. विशेषार्थ-भोगभुमिमें भोजनांग पानांग आदि दस प्रकारके कल्प वृक्ष होते हैं इन वृक्षों द्वारा वहांके मानव को दिव्य मिष्ट आहार एवं पेय प्राप्त होते हैं । चक्रवर्ती के भोजनको बनाने वाले तीनसो साठ रसोइया होते हैं वे एक दिन में एक रसोईया इसप्रकार क्रमशः वर्षके तीनसो साठ दिनों में अत्यंत मनोहर आहार बनाते हैं अर्थात् एक दिनमें एक रसोइया भोजन बनाता है, दूसरे दिन में दूसरा, इसप्रकार विशिष्ट भोजनको बनाकर चक्रवर्तीको परोसा जाता है ऐसे भोजनसे भी चक्रवर्ती तृप्त नहीं हो पाता। ऐसे ही अर्धचक्री नारायण प्रतिनारायणके तथा बलदेवके भोज्य पदार्थ महान विशिष्ट हुआ करते हैं उन पदार्थोसे अर्धचक्री आदि भी तृप्त नहीं होते हैं। देवेन्द्र आदि स्वर्गके देवोंका आहार तो मानसिक होता है, आयु प्रमाणके अनुसार कभी कभी मनमें भोजनको इच्छा होती है और तत्काल उनके कंठसे अमृत झरता है उससे देवोंको इच्छा पूर्ण होती है किन्तु हमेशाके लिये ये विशिष्ट व्यक्ति भी तप्त नहीं हो पाते । अत: आचार्य क्षपकको उपदेश देते हैं कि ऐसे दिव्य भोजी व्यक्ति भी आहारसे तृप्त नहीं होते तो किंचित् गोचरी वृत्तिसे प्राप्त आहारसे क्या तृप्ति होगो ? कदापि नहीं । इसलिये आहारकी वांछा करना व्यर्थ है । भोजनमें अत्यंत लंपटता रखनेवाले जीवके "यह पदार्थ बड़ा स्वादिष्ट है, यह नमकीन बहुत अच्छा है" । "इसको पहले लेना चाहिये" इत्यादि रूप भोज्य पदार्थ में आसक्ति रहनेसे आकुलता रहती है और आकुलित चित्तवाले पुरुषको प्रीति नहीं होती, इसतरह रति और प्रीतिके बिना उसको सुख कहांसे होगा ? नहीं हो सकता। भाव यह है कि निराकुलता सुख है और आहार लंपटीके निराकुलता नहीं होती अतः उसको सुख नहीं मिलता है ।।१७३९)! अतीत काल में अनंतबार विविध उपायों द्वारा समस्त पुद्गलोंका तुमने भक्षण किया है । हे मुने ! फिर भी तुम्हारा मन तप्त नहीं हुआ ।।१७४०।। हे सुबुद्ध ! जब अतीत में बहुत सारे भोजनसे तुम्हारी Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार भोज्यं कंठगतप्राणैर्भुक्त्वा प्रार्थनयाहृतं । किमिदानों पुनस्तृप्ति सुबुद्ध े ! स्वं गमिष्यसि ? ।।१७४१।। न तृप्तिर्यस्य संपना पीते जलनिधेजले । अवश्यायक द्वित्रैः पीतः किमु स तृप्यति ॥ १७४२।। भुक्तपूर्वे यते ! कोऽस्मिन्नाहारे तव विस्मयः । पूर्वे युज्यते कर्तुं मभिलाषो हि वस्तुनि ।। १७४३ ॥ आपात सुखदे भोज्ये न सुखं बहु विद्यते । बुद्धितो जायते भूरि दुःखमेवाभिलाध्यतः ।। १७४४ ।। प्रतिक्रामति वाजीव जिह्वामूलं स वेगतः । तत्रैव बुध्यते स्वादं भुजातो न पुनः परे ।। १७४५ ।। | ५० ३ तृप्ति नहीं हुई तो अब गोचरीसे प्राप्त हुए किंचित् भोज्यको कंठगत प्राण द्वारा खाकर क्या तृप्तिको प्राप्त करोगे ? नहीं करोगे || १७४१ ।। जिसकी समुद्र जलको पी डालने पर भी तृप्ति नहीं हुई उसकी ओसको दो तीन बिंदुकणों को पीने से क्या तृप्ति होती है ? नहीं होती ।। १७४२ ॥ हे यते ! पूर्व में भोगे हुए इस आहारमें तुम्हें क्या इच्छा है विस्मय है ? यह तो सब प्राप्त हो चुका है । संसार में अपूर्व वस्तुमें अभिलाषा हुआ करती है यह आहार अपूर्व होता- पहले कभी प्राप्त नहीं किया होता तो उसमें अभिलाषा करना युक्त था ।। १७४३।। केवल तत्कालमें सुखदायक इस भोज्य वस्तुमें कोई विशेष सुख नहीं मिलता, उलटे अभिलाषा करनेवाले पुरुषके जो गृद्धिके भाव हैं उनसे तो बड़ा भारी दुःख होता है ।। १७४४ ।। भावार्थ-जब जिह्वा पर आहार आता है तभी सुख होता है वह सुख भी प्रति अल्प हैं, अभिलाषासे आहार करने में सुखकी अपेक्षा दुःख ही ज्यादा है अथवा आहारको प्राप्ति करनेके लिये अधिक कष्ट करने पड़ते हैं अतः आहारमें सुख कम है और दुःख अधिक है । भोजन करते समय आहार अति वेगसे जिल्लाका उल्लंघन करता है जैसे अश्व Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] मरकण्डिका सौरूपमाहारग्रहणे परं । निमेषमात्र के गद्धितो गिलति क्षिप्रं तथा न हि विना सुखम् ।।१७४६ ।। प्रशनं कांक्षतो नित्यं व्याकुलो भूतचेतसः । afraटकस्यैव गुद्धस्यास्ति कुतः सुखं ॥। १७४७॥ को नामाल्पसुखस्यार्थे वच्यते सुखतो बहोः । संक्लेशः क्रियते येन मृतिकालेऽपि दुधिया ।। १७४८ ।। मधुलिप्तामा विशासन लिक्षिति । बुभुक्षते विषं घोरं संन्यस्तो योऽशनायति ।।१७४६ ।। शीघ्रता से दौड़ता है, स्वाद लेने की शक्ति केवल जिह्वाग्र में है, उसी स्थान पर स्वाद जाना जाता है, अतः भोजन करते हुए पुरुषको जिह्वा पर पहुंचने के पहले और गले में जानेके बाद भोज्य पदार्थका स्वाद नहीं आता। इसप्रकार आहारका सुखानुभव अत्यंत अन्य है ।। १७४५ ।। आहार ग्रहण में सुख निमेष काल प्रमाण है, आहारको गृद्धि - अभिलाषासे जल्दी जल्दी निगलता है । अभिलाषा के बिना इन्द्रिय सुख नहीं होता ।। १७४६ ।। भावार्थ - आहार के रसास्वादका काल आंखको टिमकार जितना है । यह जीव अभिलाषा वश शीघ्रतासे भोजनको निगल जाता है अतः अधिक समय तक भोजन जिह्वा पर रुकता नहीं और जिह्वाके अग्रभागसे आगे आहार गया कि स्वाद आना समाप्त होता है इसप्रकार आहारका सुख ना कुछ बराबर है । आहारकी नित्य कांक्षा करता हुआ यह मानव व्याकुल चित्त रहता है और व्याकुल चित्तवाले सुख कहांसे होगा ? जैसे चिरकालसे अन्नकी अभिलाषा करनेवाले दरिद्री नौकरको सुख नहीं होता ।। १७४७ ।। कौन ऐसा पुरुष है जो अल्प सुखके लिये बहुत सुखसे वंचित रहता है ? हे क्षपक ! तुम अल्प आहार के लिये इस समाधिमरणके अवसर पर भी दुर्बुद्धिसे संक्लेश कर रहे हो । यदि तुम आहारके अल्प सुखमें आसक्त होबोगे तो स्वर्ग और अपवर्ग के महान सुख से वंचित रह जावोगे || १७४८ || जो क्षपक संन्यासकालमें अयोग्य आहार की इच्छा करता है वह वैसा पुरुष है जो भूख लगने से घोर विषको खाना चाहता है तथा शहद से लिपटी तलवारको पैनी धार चाटना चाहता है ।। १७४६ ।। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदयादि टिकार [ ५०५ प्रसिधाराविषे दोषमेकत्र कुरुतो भवे । प्रशनायाः पुनर्जन्तो रितं भवकोटिषु ॥१७५०॥ शरीरं मानसं दुःखं रश्यते यजगत्त्रये । तद्दवाति यतेः सर्व अशनाया विसंशयम् ॥१७५१॥ यते ! देहममत्वेन प्राप्तं दुःखमनारतम् । इदानीं सर्वथा साधो | तत्ततस्त्वं निराकुरु ॥१७५२॥ दुःखं जन्मसमं नास्ति न मृत्युसदृशं भयम् । जन्ममृत्युकरों छिठि शरीरममतां ततः ।।१७५३॥ परोऽयं विग्रहःसायो ! चेतनोऽयं यतः परः । ततस्त्वं विग्रहस्नेहं महाक्लेसकरं त्यज ।।१७५४।। -- ---- - -- तलवारको धार चाटनेसे और विष खानेसे एक भवमें दोष होता है-मृत्यु होती है किन्तु संन्यासकाल में अयोग्य आहारसे जीवको करोड़ों भवोंमें दुःख होता है ॥१७५०॥ सोन लोकमें जो भी शारीरिक और मानसिक दुःख दिखायो देता है वह सब यतिके अयोग्य भोजनसे मिलता है, इसमें संशय नहीं है अर्थात् हे क्षपक ! इस अनादि संसारमें अनंतबार जो शारीरिक मानसिक दुःख तुमको भोगना पड़ा उसका कारण अयोग्य भोजन है ऐसा तुम निश्चयसे जानो ।। १७५१।। हे मुने ! शरीरको ममतासे तुमने सतत् दुःखको प्राप्त किया है । हे साधो ! इससमय उस शरीर ममताको तुम सर्वथा त्याग दो ।।१७५२।। इस संसार में जन्मके समान कोई दुःख नहीं है और मरणके समान कोई भय नहीं है, इन जन्म मरणको करने वाली शरीरको ममता ही है अतः शरीर ममत्वको छेद डालो ।।१७५३।। हे साधो ! जिस कारणसे यह शरीर अन्य है भिन्न है और चेतन आत्मा अन्य है, उस कारणसे महाक्लेशकारी शरीर ममत्वको छोड़ दो सर्वथा उस ममत्वका त्याग करो ॥१७५४॥ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकटिका . सहमानो मुने! हम्यगुप्तपरोहा । निःसंगस्त्वमसंक्लिष्टो देहमोहं तनकुरु ॥१७५५।। तृणाबिसंस्तरो योग्यश्चतुर्वा संघमीलनम् । निःफलं जायते सायो । मृत्यो संक्लिष्टचेतसः ॥१७५६॥ रत्नसंभतपात्रस्था वणिजः सागरे यथा । पत्तन निकषा साधो ! निमम्जंति प्रमावतः ॥१७५७।। तथा सिद्धिसमीपस्थाः शुद्धसंस्तरयायिनः । निपतंति भवावर्ते जीवाः संक्लेशयोगतः ॥१७५८।। . -.- हे मुने ! तुम उपसर्ग और परीषहोंको सहते हुए निःसंग होवो, संक्लेशको छोड़ो और देहकी ममताको कम करो। (संक्लेश भावसे रहित होनेसे एवं संग-परिग्रह रहित होने से शरीरका मोह कृश होता है अतः आचार्य निःसंग और संक्लेश रहित होनेका उपदेश दे रहे हैं) ॥१७५५।। आगे आचार्य कहते हैं कि संक्लेश परिणामका त्याग किये बिना अन्य प्रतादिक सफल नहीं होते हे साधो ! समाधिमरणके लिये तृणादि चार प्रकारका योग्य संस्तर ग्रहण करना, चार प्रकारके संघका मिलना उसके लिये निष्फल हो जाता है जिस साधुके परिणाम संक्लिष्ट होते हैं अर्थात् संक्लेश परिणामसे संघका मिलना आदि निमित्त कारण व्यर्थ हो जाते हैं क्योंकि संक्लेशसे समाधि बिगड़ जाती है। समाधिका अंतरंग कारण संक्लेश रहित भाव है । संघ आदि तो बहिरंग कारण हैं ।।१७५६।। हे साधो ! जिसप्रकार व्यापारोका रत्नोंसे भरा हुआ जहाज प्रमादके कारण नगरके निकट आया हुआ भी सागरमें डूब जाता है । उसीप्रकार शुद्धसंस्तरमें स्थित मोक्षनगरके निकट पहुंचे हुए जीव भी संक्लेश परिणामके योगसे संसार सागरमें डूब जाते हैं ।।१७५७ ॥ १७५८॥ भावार्थ-शरीर सल्लेखनाको निरतिचार करनेपर भो कषाय सल्लेखना जब तक नहीं होतो तब तक संसार समुद्रसे पार नहीं हो सकते, संस्तरमें आरूढ़ होना, संघ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५०५ सारणादि अधिकार सल्लेखनाथमं साधो ! चारित्रं च सुदुश्चरम् । मा स्म त्याक्षीजगत्सारमल्पसौख्याजघृक्षया ॥१७५६॥ पुरुषःकथितं धीरेमगि सद्भिनिषेवितम् । निरपेक्षाः भिता धन्याः संस्तरस्था निशेरते ॥१७६०॥ कलेवरमिदं त्याज्यमिति विज्ञाय निःस्पृहः । सहस्व कर्मजं दुःखं निवेदन इबाखिलम् ॥१७६१।। एवं प्रज्ञाप्यमानोऽसौ त्यक्तसंक्लेशवासनः । अन्यदुःखमिवात्मीयं दुःखं पश्यति सर्वथा ॥१७६२।। का सानिध्य होना तथा आहारका त्याग करना ये सब शरीर सल्लेखना रूप कार्य हैं, रागद्वेष संक्लेश नहीं होना कषाय सल्लेखना है । अतः आचार्य क्षपकको कषाय सल्लेखना करनेकी प्रेरणा दे रहे हैं । हे साधो ! जगत्में सारभूत ऐसा सल्लेखनाका श्रम तथा दुश्चर चारित्रको तुम अल्प-सुख की इच्छासे त्याग मत देना अर्थात शरोर सल्लेखनामें अनशन आदि तप करना, जलके बिना अन्य तीन प्रकारके आहारका त्याग इत्यादिसे जो श्रम तुमको हुआ है तथा तुम्हारा उज्ज्वल चारित्र है यह मोक्ष सुख को देनेवाला है, उसको आहार जन्य अल्प सुखके लिये छोड़ना नहीं ।। १७५६।। जो धीर वोर हैं परोषह उपसर्गको सहनेमें बीर हैं ऐसे पुरुषों द्वारा मुनिमार्ग के रत्नत्रयका कथन किया गया है और सत्पुरुषों द्वारा सेवन किया गया है उस रत्नत्रय स्वरूप मार्गका प्राश्रय पुण्यवान् हो लेते हैं तथा वह रत्नत्रय संस्तर पर स्थित होनेपर-संन्यास लेनेपर हो विशुद्ध होता-परिपूर्ण होता है ॥१७६०।। हे क्षपक ! यह शरीर त्यागने योग्य ही है ऐसा जानकर शरीरसे निःस्पृह हो असाताकर्मसे उत्पन्न हुए सर्व दुःखको सहन करो। ऐसा सहन करो कि मानो वेदना नहीं हो रही हो ॥१७६१।। इसप्रकार निर्यापक आचार्य द्वारा क्षपकको भलीप्रकार उपदेश दिया जानेपर वह क्षपक संक्लेश भावको छोड़ देता है और क्षुधा आदिसे होनेवाले अपने दुःखको अन्य किसीका दुःख है ऐसा सर्वथा देखता-मानता है ।।१७६२।। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका धन्यस्य पार्थिवादीनामागमाविप्रयोगतः । आपकस्यापि दातथ्यो मानिनः कवचो हतः ।।१७६३।। इत्येष कवचोऽवाचि संक्षेपेण श्रुतोदितः । विशेषेणापि कर्तव्यो दुःखे सति युक्त्तरे ॥१७६४॥ स्तोष्यते क्षपकः सरेर्वच वयंगमैः । चंद्रस्येव करः शुद्धः शोतलेः कुमुदाकरः ।।१७६५॥ आचार्य क्षपकको कहते हैं कि हे क्षपक ! तुम धन्य हो देखो ! बड़े बड़े राजा महाराजा मंत्री आदि तुम्हारे दर्शनार्थ आ रहे हैं, सर्वसंघ तुम्हारी मान्यता करता है इत्यादि सम्मानक बचन द्वारा अवाको प्रसंसा करके उन्हें आराधनामें दृढ़ता देनी चाहिये ।।१७६३॥ भावार्थ-क्षपकको आचार्य प्रशंसा वाक्य द्वारा व्रतोंमें प्रत्याख्यान में कवचवत् दृढ़ बनाते हैं । अपनी प्रशंसा सुनकर एवं आचार्य द्वारा राजा आदिका आगमन देखकर क्षपक मनमें विचारता है कि मेरी समाधिकी हलताको देखनेके लिये वे राजादिक आये हैं, इनके आगे मेरे प्राण चले जाय तो भी कुछ परवाह नहीं, मैं तो सर्वथा धैर्य ही रखगा । मैं अपना मान नहीं नष्ट करूगा । दुःख आ पड़नेपर भी व्रत भग नहीं होने दूगा । इसप्रकार क्षपकके मनमें भाव उत्पन्न कराने चाहिये । इसप्रकार यहांपर आगममें जैसा कहा है वैसा कवच संक्षेपसे कहा । यदि कोई दुरुतर दुःख उत्पन्न हो जाय तो विशेष रूपसे भो कवच करना चाहिये ।।१७६४।। विशेषार्थ--युद्ध में कवच पहनकर जानेवाले योद्धाको जसे बाणादिसे घाय नहीं होते हैं । वैसे प्रशंसनीय वचनों द्वारा वैराग्य बद्धक वचनों द्वारा शरीरको असारता आदिके वाक्यों द्वारा क्षपकके मन में दृढता लाना उसको मनमें दृढ़ता धीरताके भाव लाना, मनको कवचवत् मजबूत बनाना 'कवच' कहलाता है सल्लेखनाके चालीस अधिकारोंमें यह पैतीसवां कवच नामका अधिकार है । जिसको सल्लेखना पूर्ण होने में कुछ समय शेष है उस साधुके लिये सामान्य रूपसे कवच कहा है तथा कोई आसन्ननिकट मरण वाला है उसके विशेषरूपसे कवचका कथन करना चाहिये । । हृदयमें आह्लाद उत्पन्न करने वाले प्राचार्य वचनों द्वारा क्षपक स्तुत्य होता हैप्रशंसनीय होता है और उससे वह मनमें दृढ-मजबूत व्रताचरण में स्थिर होता है, उसके Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार [ ५.६ क्षणेन दोषोपचयापसारिणः समेत्य वाक्यानि तमोऽयहारिणः । जोऽपि सूरेः भपको विबुध्यते महांसि भानोरिव नीरजाकरः ॥१७६६॥ परीषहं प्रभवति संस्तरे स्थितो निति परमपराक्रम क्रमः । निराकुलः कवचधरस्तपोधनो रणांगणे रिपुमिव ककंशं भटः ।।१७६७॥ इति कवचः। इत्येवं क्षपकः सर्वान्सहमानः परीषहान् । सर्वत्र निःस्पृहोभूतः प्रयाति समचित्तताम् ॥१७६८।। मनके भाव शुद्ध होते हैं । इसप्रकार क्षपक प्रसन्न होता है, जैसे चन्द्रमाको शुद्ध शीतल किरणोंसे रात्रि विकासो कमलोंका सरोवर प्रसन्न होता है-विकसित होता है ।।१७६५।। क्षणभरमें दोषोंको दूर करनेवाले, मनके अंधकारको हटाने वाले आचार्यके वाक्योंको प्राप्त कर अल्प बुद्धि भी क्षपक अतिशय रूपसे बोधको प्राप्त करता है-अपने कर्तव्य-रत्नत्रयाराधनामें सावधान हो जाता है। जैसे दोषा-रात्रिको दूर करनेवाले अंधकारको नष्ट करनेवाले सूर्यके किरणोंको पाकर कमलोंसे व्याप्त सरोबर विबोधको प्राप्त होता है-खिलता है ।।१७६६।। आचार्यने जिसका कवच किया है अर्थात् परिणाम दृढ़ किये हैं ऐसा क्षपक रूपी योद्धा निराकुल तथा परम पराक्रमी होता हुआ संस्तरमें स्थित होकर परीषहरूपी सेनाको नष्ट करने के लिये समर्थ होता है । जैसे परम पराक्रमी कवचधारी सुभट रणांगण में स्थित होकर अत्यन्त कठोर शत्रुको मारने में समर्थ होता है ।।१७६७।। इसप्रकार सल्लेखनाके चालीस अधिकारों से पैतीसवां कवच नाम का अधिकार पूर्ण हुआ (३५) इसप्रकार मनकी दृढता धैर्यरूपी कवच को आचार्यके कृपा प्रसादसे जिसने पहन लिया है ऐसे क्षपकके लिये समाधिके साधनामें श्रेष्ठ सहायभूत जो समता है उसका वर्णन समता नामके इस छत्तोस. अधिकार में प्रारम्भ करते हैं आचार्य देव द्वारा इस प्रकार संबोधित क्षपक समस्त परोषहोंको सहता हुआ सर्व विषय कषाय परिग्रह शरीर संघ आदि में अत्यंत निःस्पृह हो समचित्तताको प्राप्त Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] मरणकण्डिका समस्तद्रव्यपर्यायममत्वासंगजितः निःप्रेम रागमोहोऽस्ति सर्वत्र समदर्शनः ॥१७६६।। प्रियाप्रियपदार्थानां समागमवियोगयोः । विजहीहि स्वमोत्सुक्यं वीनत्वमति रति ॥१७७०।। मित्रे शत्रौ कुले संघे शिष्ये सामिके गुरौ । रागद्वषं पुरोगका विमुपात राधीयते ॥१७५१॥ कुर्याद्दिव्यादि भोगानां क्षपकः प्रार्थनां न तु । उक्ता विराधनामूलं विषयेषु स्पृहा यतः ॥१७७२।। शब्द रूपे रसे गंधे स्परों साधो ! शुभाशुभे । सर्वत्र समतामेहि तया मानापमानयोः ॥१७७३।। करता है ।।१७६८॥ यह क्षपक जीव पुद्गल आदि सर्व द्रव्य उन द्रव्योंकी स्वभाव विभाव व्यञ्जन पर्यायें तथा द्रव्य गुण पर्यायोंमें ममत्व तथा प्रासक्त भावसे रहित होता है, द्वेष राग तथा मोह रहित होता है, इसतरह वह क्षपक सर्वत्र ही समदर्शन-समता भाव वाला होता है ।।१७६६।। भो साधो ! तुम प्रिय पदार्थोके समागममें उत्सुकता और रतिको नहीं करना तथा अप्रिय पदार्थोके वियोग में दीनता और अरतिभावको सदा छोड़ देना ॥१७७०॥ _हे उत्कृष्ट बुद्धिधारक यते ! मित्र और शत्रुमें रागद्वेषको पहले किया था उसको छोड़ दो तथा अपने कुलमें, संघमें, साधर्मी मुनिजनोंमें अथवा गुरुजनमें भो राग किया या राम उत्पन्न हुआ था उसको छोड़ो ॥१७७१॥ अपि क्षपकराज ! मेरेको स्वर्गके दिध्य भोग मिल जांय इसप्रकार की प्रार्थना को तुम कभी भी नहीं करना क्योंकि विषयभोगोंकी इच्छा रत्नत्रयकी विराधनाका मूल है ऐसा शास्त्रोंमें कहा है ।। १७७२॥ हे साधो ! अब तुम शुभ तथा अशुभ शब्द, रूप रस गंध और स्पर्श में समताभाव धारण करो, मान हो चाहे अपमान, सर्वत्र ही समान भाव रखो ॥१७७३।। हे महामते ! अब किसी विषयमें विशेषता नहीं मानना अर्थात् यह बहुत उपकारी है अच्छा है तथा इससे मुझे कष्ट होता है इत्यादि किसी पदार्थके प्रति जो पृथक् पृथक Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५११ सारणादि अधिकार समानो भव सर्वत्र निर्विशेषो महामते । रागढषोदये जंतोगत्तप्रार्थो विनश्यति ॥१७७४॥ गुरू यपि पीडास्ति प्रकृष्टा मारणान्ति की । तथापि भपको याति सर्वत्र समचित्तताम् ।।१७७५।। एवं भावित चारित्रो याबद्वीयं कलेवरे । तावत्प्रवर्तते साधुरुत्थाय शयनादिषु ॥१७७६।। क्षीरणशक्त यंदा चेष्टा स्वरूपा भवति सर्वथा । तवा वेहाहाणाय यतते नि:स्पृहाशयः ।।१७७७॥ उपधि संस्तरं शम्यां पानं व्यावृत्तिकारिणः । शरीरं मचते योगी सम्यक्त्वारूढमानसः ॥१७७८।। भाव होते हैं उन सबमें हो अब समान भाव होना चाहिये क्योंकि इसतरहके जीवके रागद्वेष रूप भायके उत्पन्न होनेपर उत्तमार्थ तो समाधिमरण है वह नष्ट होता है ॥१७७४।। यद्यपि मरणके समय होने वाली बड़ी भारी पीड़ा होती है तथापि क्षपक सर्वत्र समभावको प्राप्त होता है अर्थात् क्षपकको अंतसमय में मरण प्राप्त होनेतक दुःख होगा किन्तु दृढ़ता रूप कवच युक्त होनेसे वह मोह रहित होता है तथा गुरूपदेशसे भेदविज्ञान की प्रकृष्टताके कारण बह देहादि में समभावको प्राप्त होता है ।।१७७५।। इसतरह गुरुके प्रसादसे भलीप्रकार भाया है चारित्रको जिसने ऐसा वह क्षपक मुनि जब तक शरीर में शक्ति रहती है तब तक उठकर बैठना सोना आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है ।।१७७६।। और जब शक्ति सर्वथा क्षीण हो जाती है तब उक्त क्रियायें अल्प होकर बिलकुल समाप्त होती हैं तब नि.स्पृह भावयुक्त हुमा शरीरका त्याग करने में प्रयत्नशील होता है ॥१७७७।। सम्यक्त्व-दृढ़ श्रद्धामें लगा है मानस जिसका ऐसा यह क्षपक मुनि उपधि-पीछी कमंडलु आदि संस्तर शय्या, पान, वैयावृत्य करनेवाले मुनि तथा शरीरको छोड़ देता है-त्याग देता है ।।१७७८।। अब यह क्षीणकाय योगी काय योग अर्थात शरीरको क्रियायें हिलना आदि और वचनयोग अर्थात् बोलनेका Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] मरणकण्डिका निराकृत्य वचोयोगं काययोगं च सर्वथा । स विशुद्ध मनोयोगे स्थिरात्मा व्यवतिष्ठते ।।१७७६॥ समत्वमिति सर्वत्र प्रपद्यामलमानसः । स मैत्रीकरणोपेक्षामुदिताः प्रतिपद्यते ॥१०॥ जीवेष सेव्या सकलेषु मैत्री परानुकंपा करुणा पवित्रा। बुधैरुपेक्षा सुखदुःखसाभ्यं गुणानुरागो मुदितावगम्या ।।१७८१॥ --.-. निराकरण करके विशुद्ध मनोयोग अर्थात् आत्मचिंतन या पंचपरमेष्ठी चिंतनमें स्थिर हो जाता है ।।१७७६।। निर्मल मनवाला उक्त क्षपफ सर्वत्र समभावको प्राप्त करके अर्थात भले बुरे भावको छोड़कर मंत्री, प्रमोद, कारुण्य पौर मध्यस्थ भावनाओंको भाता है ॥१७००11 आगे मैत्री आदि भावना किस किस में होना चाहिये सो बताते हैं सकल जीवोंमें मंत्री भाव करना चाहिये तथा दीन दुःखितोंमें पवित्र और उत्कृष्ट करुणा भाव करे । बुद्धिमानोंको सदा हो सुख दुःखमें या विपरीत आचरण वालोंमें साम्यभाव जगाना युक्त है, जो गुणवान हैं उनमें प्रमोद भावना करना चाहिये ।।१७८१॥ विशेषार्थ--अनंतकालसे मेरा आत्मा चतुर्गतिमें घटी यंत्रके समान परिभ्रमण कर रहा है इस संसारमें सभी प्राणियोंने मेरा उपकार किया है ऐसा भाव होना मैत्री भावना है अथवा विश्वके किसी भी प्राणीको कष्ट दुःख न हो ऐसा भाव होना मैत्री है । ये मोही प्राणीमण शारीरिक और मानसिक व्याधि आधिसे संयुक्त हैं, अहो ! ये अशुभका उपार्जन कर करके दुःखी हो रहे हैं, इनका दुःख कैसे दूर हो ? इसप्रकार भाव जाग्रत होना कारुण्य कहलाता है । यति गुरु साधर्मीजनोंके गुणोंका विचार कर उन में हर्ष मानना मुनिजनोंको प्रमोद भावना कहलाती है तथा सुख होबे चाहे दुःख दोनोंमें समता आना माध्यस्थ है अथवा विपरीत चेष्टा करनेवाले व्यक्तियों में या मिथ्यादृष्टियों में मध्यस्थता रखना मध्यस्थ भावना है । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादि अधिकार t दर्शनज्ञानचारित्र तपोवीर्यनिविष्टधीः प्रकृष्टां कुरुते चेष्टां मनोवाक्काय कर्मभिः ।। १७८२ ॥ [ ५१३ रागद्वेषको मात्सर्यमोदा येन त्यक्ता निजिताक्षेण सर्वे । ध्यानं ध्यातुं योग्यता तस्य साधोः सामग्रीतो याति कार्यप्रसिद्धि ।। १७८३ ॥ ॥ इति समता ।। अपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यन्तप और वीर्य में लगी है बुद्धि जिसकी ऐसा वह क्षपक मुनि मन वचन और काव द्वारा सदा उत्कृष्ट चेष्टा करता है अर्थात् मनको जोवादि तत्त्वोंके श्रद्धानमें लगाता है, वचनको पचनमस्कार के उच्चारण में और कायको हाथ जोड़ना मस्तक हिलाकर धर्मश्रद्धाको प्रगट करना आदि क्रियामें तत्पर करता है । इसतरह अपने परिणामोंको उज्ज्वल करता है ।।१७८२।। जिस जितेन्द्रिय साधुने सभी राग, द्वेष, कोच, मात्सर्य और मोदको छोड़ दिया है उस साधुके ध्यानको करनेकी योग्यता आती है तथा ध्यानको कारण सामग्री मिलनेपर ध्यानरूप कार्यकी सिद्धि होती है ।।१७८३ ।। समता नामका छत्तीसवां अधिकार समाप्त | विशेषार्थ --- अपने से भिन्न जीवाजीवादि पदार्थों में शब्द, रस आदि विषयों में प्रीति होना राग कहलाता है । जो अमनोज्ञ विषय है उनमें अरतिरूप भावद्वेष है । क्रोध प्रसिद्ध हो है । किसीका उत्कर्ष अकारण ही नहीं सुहाना मात्सर्य है । मोद हर्षको कहते हैं । इन रामदिका त्याग करने पर हो ध्यानको योग्यता आती है तथा पांच इन्द्रियोंके विषय स्पर्श रसादिको जीतना परमावश्यक है । इसप्रकार कषाय और इन्द्रिय को जीत लेनेपर मुनि ध्यान करने में समर्थ होता है । अन्यत्र ध्यानके हेतु पांच बताये हैं आसन विजयी, निद्राविजयी, इन्द्रियविजयी, कषायविजयी महाव्रत आदिसे संपन्न होना । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरएकण्डिका सल्लेखनाके कथन करने में चालीस अधिकार हैं उनमेंसे समता नामका यह छत्तीसवां अधिकार है । इस अधिकारमें सोलह कारिकायें हैं। इनमें अंतकी पांच कारिकायें ध्यान विषयक हैं ऐसा प्रतीत होता है क्योंकि पांच कारिकाओंमें पहलेको तीन कारिकामें मैत्री आदि चार भावनाओंका वर्णन है, ध्यानका अभ्यास करनेवाला ध्याता पुरुष पहले इन भावनाओंका अवलंबन लेता है अतः ये ध्यानकी सामग्रीके अंतर्गत हैं तथा अंतिम कारिका स्पष्टतया ध्यानके योग्य कौन साधु है इस बातका उल्लेख कर रही है । अस्तु ! Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ध्यानादि अधिकार धम्यं चतुर्विधं ध्यात्वा संसारासुखभोरुकः । शुक्ल चतुअथ ध्यान ध्यातुं प्रक्रमते यतिः ॥१७६४।। जो संसारके दुःखोंसे भयभीत है वह यति पहले चार प्रकारके धम्यंध्यानोंको करके पुनः चार प्रकारोंके शुक्ल ध्यानोंको करने के लिये प्रवृत्त होता है ।।१७०४।। विशेषार्थ-एक पदार्थमें मनका स्थिर होना ध्यान है । प्रशस्त ध्यानके दो भेद हैं घHध्यान और शुक्लध्यान । धर्म्य ध्यानके चार भेद हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । शुक्लध्यानके भी चार भेद हैं-पृथक्त्व वितकं बोचार, एकत्व वितर्क अवीचार, मूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति और व्यूपरतक्रिया निवति । इन सभी का विशेष स्वरूप आगे क्रमश: कहेंगे । यहां सामान्य रूपसे कहते हैं । धय॑ध्यानका सामान्य लक्षण-उत्तम क्षमा आदि धर्मात् अनपेतं धर्म्यम् । अथवा वस्तुस्वभावको धर्म कहते हैं उस धर्मसे जो अनेपत अर्थात् सहित हो-वस्तु स्वभावका जिसमें चिंतन हो वह धर्म्यध्यान कहलाता है । अत्यंत शुचि-पवित्र-शुद्ध परिणाम से जो हो वह शुक्लध्यान है। इसमें संयम को शुचिता नियमसे होतो है अर्थात् यह संयमीके ही होता है । घHध्यान तथा शुक्लध्यान मोक्षके हेतु हैं । वर्तमान पंचम कालमें शुक्लध्यान नहीं होता, धय॑ध्यान होता है। Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका प्रार्तरोखवयं त्याज्यं सर्ववा दुःखदायकम् । तेन विश्वस्यते ध्यानं दुर्नयेनेव सन्नयः ॥१७८५॥ रौद्र चतषिधं ध्यानं ये चासें संति केचन । से मेवा दूरतस्त्याच्या विज्ञाय विषिवेदिना ॥१७८६॥ स्तेयासत्यवचोरक्षापड़िवधारंभभेदतः । कषायसहितं रौन ध्यानं ज्ञेयं समासतः ॥१७८७॥ प्रियायोगाप्रियप्राप्सिपरीषहनिदानतः । कषायफलितं ध्यानमातं प्रोक्तं चतुर्विधम् ।।१७८८॥ ध्यजीवोंको हमेणा हो दुखदायक वार्तध्यान और रौद्रध्यान छोड़ देना चाहिये क्योंकि इन अप्रशस्त ध्यानोंसे घम्यंध्यानादि प्रशस्तध्यान नष्ट होते हैं जैसे कि कुनयसे सुनय नष्ट होता है ।।१७८५।। ध्यानकी विधिको जानने वाले पुरुष द्वारा चार प्रकारके रौद्रध्यान और आर्तध्यान में जो भेद हैं उन खोटे ध्यानोंको जानकर दूर से ही छोड़ देना चाहिये । आचार्य महाराज क्षपकको समझा रहे हैं कि हे क्षपक ! तुम कभी भी रोद्रध्यान और आतध्यानको नहीं करना ये सब कुगतिके कारण हैं ।।१७८६।। रौद्र ध्यानके चार भेदकषाय सहित ध्यान रोद्रध्यान है, संक्षेपसे यह लक्षण है। चोरीका विचार, असत्यभाषणका चितन, परिग्रहकी रक्षामें लगन और षट्काय जीवों के आरंभ में तत्परता, | इसतरह सैद्रध्यानके धार भेद होते हैं अर्थात् हिंसामें हर्षभाव होना-हिसानंदी रौद्रध्यान कहलाता है । असत्य भाषणमें आनंद मानना अनन्तानंदो रौद्रध्यान है। चोरीमें आनंद आना चौर्यानंदी रोद्रध्यान है और परिग्रह रक्षामें आनंद मानना परिग्रहानंदी रौद्रध्यान है ।।१७८७।। आर्तध्यानके चार भेदआर्तध्यान भी कषाय भावयुक्त है इसके चार भेद हैं, प्रिय वस्तुके वियोगमें इष्ट वियोग नामका आतंध्यान होता है । अप्रिय वस्तुके संयोग होनेपर प्रनिष्ट संयोग Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादिअधिकार रौद्रमात्तं त्रिधा त्यक्त्वा सुगति प्रतिबंधकम् । धम्यंशुक्लद्वये योगो साम्यं कर्तुं प्रवर्तते ॥१७८६।। ध्याने प्रवर्तते कांक्षन्कषायाक्षनिरोधनम् । वश्यत्वं मनसो मार्गावभ्रंशंनिर्जरां पराम् ।।१७६०।। एकामानार्थायर्त्य परवस्तुतः । आत्मनि स्मृतिमाधाय ध्यानं श्रयति मुक्तये ॥१७६१।। नामका आतध्यान होता है। पीड़ा वेदना परीषहके आनेपर यह कैसे दूर हो इसप्रकार चितन पोड़ा चितन नामका आत्तध्यान है । आगामी काल में भोग प्राप्तिका विचार निदान नामका आत्तंध्यान है ।।१७८८।। सगतिको रोकनेवाले आर्तध्यान और रौद्रध्यानको मन, वचन और कायसे छोड़कर योगोजन समताभावको करने के लिये धर्म्यध्यान और शुक्ल ध्यान में प्रवृत्त होते हैं ।। १७८६।। कषाय और इन्द्रियोंको रोकनेके लिये, मनको वशमें करनेकी इच्छासे, मोक्षमार्गसे च्युत न होने के लिये तथा उत्कृष्ट निर्जराको करने के लिये योगीजन धय॑ध्यान और शुक्लध्यान में प्रवृत्त होते हैं अर्थात् जो कषाय और इन्द्रियको रोकना चाहता है मोक्षमार्गमें सदा प्रवृत्ति चाहता है उसको ये प्रशस्त ध्यान करने चाहिये ॥१७६०॥ ध्यानका परिकर नेत्रोंको परवस्तुसे हटाकर मनको एकाग्न करके अपनो आत्मामें स्मृति-विचार को लगाके मुनि मुक्ति प्राप्ति के लिये ध्यानका आश्रय लेते हैं ।।१७६१ भावार्थ-दृष्टि इधर उधर जाती रहे तो मन चंचल हो उठता है अतः सर्व प्रथम नेत्रको अपने नाकके अग्र भाग पर स्थिर करना चाहिये पुन: मनको एकाग्न करना चाहिये । श्रुतज्ञान की सहायतासे आगम कथित पदार्थोंका स्मरण करते हए आत्मा में स्थिरता होना ध्यान है । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ ] मरणकण्डिका प्रत्याहृत्य मनोऽक्षाणि विषयेभ्यो महाबलः । प्रणिधानं विधत्तेसावात्मनि ध्यानलालसः ।।१७६२।। ध्यायत्येकानचेतस्को धर्म्यध्यानं चतुर्विधम् । प्राज्ञापायविपाकानां संस्थाया विचयं सुधीः ।।१७६३॥ महाबलशाली मुनि मन और इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर आत्मामें एकाग्र करता है, कैसे हैं मुनिराज ? ध्यानकी प्राप्ति में लगा है मन जिनका ऐसे हैं ॥१७९२।। विशेषार्थ-इन्द्रिय और मनको तद तद् विषयोंसे हटानेके लिये पवित्र एकान्त स्थानमें ध्यान करने की आज्ञा आगममें है । ध्यानके इच्छुक मुनिजन गिरिकंदरा, नदीतट, वन आदि निर्जन स्थानोंमें प्रासुक भूमि या शिलातल पर पद्मासन या खड्मासन से स्थित होते हैं। श्वासोच्छ्वासको मंद मंद करते हुए नाभिके ऊपरले भागके अवयव नासिका, ललाट, भ्र मध्य, हृदय आदिमें मनोवृत्तिको केन्द्रित करके नेत्रोंको टिमकार रहित नासिकामें स्थिर करते हैं । इसप्रकार शरीरको प्रतिमावत् सर्वथा स्थिर करके किसी सूत्रार्थ में या जीवादि तत्वों में या निजात्मामें मनःप्रणिधान लगाते हैं । यह ध्यान को प्राप्त करनेको विधि है। धम्यंध्यानके भेदएकाग्रचित्तवाला बुद्धिमान मुनिराज आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थान विचय इसप्रकार चार प्रकारके धर्म्यध्यानोंको ध्याता है ।।१७६३।। विशेषार्थ-यहाँपर चार प्रकारके धर्म्यध्यानोंका वर्णन करते हैं-जीवादि सात तत्त्व या जीव पुद्गल आदि छह द्रव्योंके जानने में सूक्ष्मपने के कारण शंका होनेपर मुमुक्षज़न विचार करते हैं कि अहो ! इस वक्त केवली श्रुतकेवलो आदि उपदेशकोंका अभाव है, मेरो बुद्धि भी मंद है, ज्ञानावरणका उदय होनेसे मैं वस्तुको सूक्ष्मताको समझ नहीं पा रहा । जिनेन्द्र प्रणोत तत्त्व अत्यंत गहन है, नय निक्षेपकी योजना करने में चतर ऐसे पुरुषोंका भी इस सपय सद्भाव नहीं है अब तो जो सर्वज्ञ देवने प्रतिपादन किया है, जैसा कहा है वही मुझे प्रमाणभूत है, उनकी आज्ञा मुझे शिरोधार्य है। जिनेन्द्र अन्यथावादो-विपरीत प्रतिपादक नहीं होते, मुझे ऐसा दृढ़ विश्वास है । इसतरह Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार माईवाजवनः संग्यहेयोपादेय पाटवं । मेयं प्रवर्तमानस्य धम्यंध्यानस्य लक्षणं ।।१५६४॥ जिनदेवकी आज्ञाका विचार करना, उनमें दृढ़ निश्चय करना, तत्व में बार बार मनको केन्द्रित करना, आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है। अथवा स्वयंने तत्त्वोंका बोध भलीप्रकार प्राप्त किया है, उस तत्त्व बोधको अन्य मुमुक्षको प्राप्त कराऊं जिनेन्द्र देवकी आज्ञाका मैं प्रसार करू' । अमुक तकं आदि द्वारा जैनधर्मका उद्योत करूं । इस प्रकार तत्त्वोंका प्रतिपादन करने के लिये बार बार उपयोगको लगाना आज्ञाविचय है । मिथ्यादृष्टि जीव सर्वज्ञ प्रणीत मोक्षमार्ग से विमुख हो रहे हैं। जैसे जन्मांध पुरुष सन्मार्गसे दूर अति दूर रहते हैं क्योंकि उन्हें उक्त मार्ग दिखायी नहीं देता, उस प्रकार मिथ्यादृष्टिको मोक्षमार्ग दिखायो नहीं देता। ये बिचारे वास्तविक तत्त्वको नहीं समझ पा रहे हैं । इसप्रकार विचार करना अपायविचय घHध्यान है। अथवा इन अज्ञानी प्राणियोंका अज्ञान एवं मिथ्यात्व कैसे नष्ट हो, इसप्रकार विचार करना अपाय विचय ध्यान है । ज्ञानाबरण आदि कर्म प्रकृतियोंके उदयका विचार करना, किस कर्म का क्या फल है किस द्रव्य क्षेत्रादिसे कौनसा कर्मफल देने के सन्मुख होता है। कर्मों की बंध, उदय, सत्त्व संक्रमण आदि अवस्थायें इन सबका विचार करना, विणक विषय धबध्यान कहलाता है और तीन लोकके आकार, नरक स्वर्ग प्रादिके स्थान प्रमाण स्वभाव आदिका पुनः पुनः चिंतन संस्थान विचय धय॑ध्यान कहलाता है। धर्म्यध्यान का लक्षण (चिह्न) - मार्दव, प्रार्जव, निःसंगपना और हेयोपादेय तत्त्वको समझने समझानेमे पता होना यह सब धर्म्यध्यान में प्रवृत्त हुए व्यक्तिके लक्षण हैं अथवा धर्म्यध्यानके लक्षण हैं ।।१७६४॥ विशेषार्थ.-..-जाति कुल रूप आदिका मान नहीं होना मादय भाव है। कुटिलताका प्रभाव पार्जव है । परिग्रहमें ममत्वका अभाव निःसंगता है। हेय सत्त्व आस्रवादि और उपादेय तत्त्व आत्मा, संवर, निर्जरा आदि हैं, इन तत्त्वोंको जाननेकी एवं परको प्रतिपादन करने की योग्यता अर्थात् धर्मोपदेश में प्रवीणताका होना ये सब धय॑ध्यानके लक्षण-चिह्न विशेष हैं । जिस पुरुषमें मार्दवादि भाव हैं उस पुरुषकै धम्यं Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० ] मरणकण्डिका बाचना प्रच्छनाम्नायानुप्रेक्षाधर्मदेशनाः । भवत्यालबनं सापोर्धय॑ध्यानं चिकीर्षतः ॥१७६५।। पंचास्तिकायषटकाय कालद्रव्याणि यत्नतः । प्राज्ञाग्राह्याणि दक्षेण विचार्याणि जिनाज्ञया ॥१७९६॥ ध्यान होता है ऐसा जानना चाहिये । अथवा मार्दव आदि भावोंसे युक्त व्यक्तिके हो । धर्म्यध्यान संभव है । मार्दव आदि गुणोंको देखकर धबध्यानको जान सकते हैं। धम्यंध्यान और मार्दवादि गुण इनमें कार्यकारण भाव या लक्ष्य लक्षणभाव पाया जाता है । मार्दवादि भाव कारण है धर्म्यध्यान कार्य तथा मार्दवादि लक्षण है और धर्म्यध्यान लक्ष्य है। धर्म्यध्यान के आलंबनजो साधु धर्म्यध्यानको करना चाहता है उसके लिये बाचना, पृच्छना, आम्नाय, अनुप्रेक्षा और धर्मोपदेश ये पांच प्रकारके स्वाध्याय आलंधन होते हैं अर्थात् इन स्वाध्याय रूप तपों द्वारा धर्म्यध्यानको सिद्धि संभव है ।।१७६५।। विशेषार्थ-धर्म्यध्यानका ध्येय जीवादि समोचीन रूप सात तत्त्व छह द्रव्य आदि हैं इन तत्वोंका बोध वाचना आदि स्वाध्यायके माध्यमसे होता है जब तक सर्वज्ञ कथित और आचार्य रचित ग्रंथोंका वाचना, पुच्छना प्रादि रूप स्वाध्याय नहीं करेंगे तब तक ध्येय वस्तुका निर्णय नहीं हो सकता और उसके बिना ध्येय वस्तुपर मनका एकाग्र होना रूप ध्यान नहीं हो सकता। योग्य पात्रके लिये सिद्धांत आदि ग्रंथ पढ़ाना वाचना है । प्रागम कथित विषय में शंका होनेपर ज्ञानोसे प्रश्न करना पृच्छना है अथवा अपने द्वारा ज्ञात तत्त्वकी धारणा दृढ रहे इसके लिये प्रश्न-चर्चा करना पृच्छना स्वाध्याय है । सूत्र आदि कंठस्थ करने के लिये पुनः पुनः शुद्ध घोष करना प्राम्नाय है तथा तत्वार्थका चिंतन अनुप्रेक्षा है । भव्योंको धर्मका उपदेश देना धर्मोपदेश नामका स्वाध्याय है। आज्ञाबिच यधम्यध्यान का स्वरूप-- जो जिनेन्द्रको प्राज्ञा द्वारा ग्राह्य हैं ऐसे पांच अस्तिकाय छह द्रव्य, षट्काय जीव समूहका जिनाज्ञाके अनुसार दक्ष पुरुष द्वारा विचार किया जाना प्राज्ञा विषय धर्म्यध्यान है ।।१७६६।। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५२१ विशेषार्थ - अस्तिकाय - बहुप्रदेशो द्रव्यको अस्तिकाय कहते हैं, ये पांच हैं जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मारितकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय । एक एक जीव में असंख्यात प्रदेश पाये जाते हैं । मुद्गलमें किसीमें संख्यात, किसो में असंख्यात और किसी में अनंतप्रदेश पाये जाते | धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य में एक एकमें असंख्यात प्रदेश हैं | आकाशके दो भेद हैं लोकाकाश, अलोकाकाश । लोकाकाश में असंख्यात और अलोकाकाश में अनंतानंत प्रदेश हैं । अतः ये पांचों ही अस्तिकाय नामसे कहे जाते हैं । "अस्ति" मायने है-मौजूद । " काय" मायने बहुत, इसप्रकार अस्तिकाय का अर्थ है । इन पांचोंमें एक काल द्रव्य मिलानेपर छह द्रव्य होते हैं । जीव, अजीव, मानव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं । चेतना लक्षणवाला जीव है । इससे विपरीत अचेतन अजीव है । इस अजीव तत्वमें पुद्गल, धर्म, अधर्मं, आकाश और काल द्रव्य अंतर्भूत हो सकते हैं अर्थात् केवल सात तत्वोंका वर्णन करते समय छह द्रव्योंमेंसे जीवद्रव्य जीव तत्त्वमें और पुद्गलादि शेष द्रव्य अजोव तत्त्व में अंतर्निहित कर लेते हैं क्योंकि ये पाँच जड़-अजीव हैं। जिसमें स्पर्श, रस, गंध और वर्ण गुण पाये जाते हैं वह पुद्गल द्रव्य है, ये दृष्टिगोचर होनेवाले दिखायी देनेवाले जितने भी पदार्थ हैं ये सब पुद्गल द्रव्यरूप हैं। जीव और पुद्गलको गमनमें सहायी धर्मद्रव्य है जीव और पुद्गलको ठहरने में सहायो अधर्मद्रव्य या अधर्मास्तिकाय है । सभीका आधारभूत आकाश द्रव्य या आकाशास्तिकाय है । सभी द्रव्योंकी अवस्थायें पलटने में जो निमित्त होता है वह काल द्रव्य है यह बहुप्रदेशी नहीं है अतः अस्तिकायको कोटिमें नहीं आता । घंटा, दिन, वर्ष आदि व्यवहार काल है और आकाशप्रदेश में रत्नराशिवत् एक एक प्रदेश रूप अवस्थित कालद्रव्य निश्चयकाल है । इसप्रकार अजीव तत्त्वका वर्णन जानना । जीवोंके रागादि विकारभावोंसे कर्मबर्गणाका जीव प्रदेशोंमें आगमन होना आस्रव तत्त्व है इसके द्रव्यास्रव भावास्रव रूप अनेक भेद प्रभेद हैं । जीव और कर्मप्रदेशोंका क्षोर नीरवत् संबंध होना बंध तत्त्व है | कमोंका आना रुकना संवर तत्त्व है । पुरातन कर्मोंका एक देश क्षय निर्जरातत्व है और संपूर्ण कर्मो का जीवसे पृथक् हो जाना मोक्ष तत्त्व है । इन बंध, संवर प्रादिके द्वय्य बंध, भाव बंध आदि आदि अनेक भेद हैं । इन सभी का स्वरूप, सर्वार्थसिद्धि, बृहत् द्रव्यसंग्रह आदि ग्रंथोंसे जानना चाहिये । Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ 1 मरणकण्डिका कल्याण प्रापकोपायश्चितनोयो जिनागमे । शुभाशुभविकल्पानामपायः कर्मणां परम् ॥१७९७॥ एकानेकभवोपासपुण्यपापात्मकर्मणाम् । उदयोदोरणादीनि चितनीयानि धोमताम् ।।१७९८॥ ____ इन द्रव्य-तत्त्व प्रादिका पुनः पुनः विचार करना इनमें मनको एकाग्र करना आज्ञाविचय धर्म्यध्यान कहलाता है । अपायविचय धर्म्यध्यानका स्वरूप-~जिनागममें कल्याण, सुखकी प्राप्तिका जो उपाय बतलाया है उसका चितवन करना अथवा शुभ अशुभ कर्मों का अभाव कैसे हो, शुभ अशुभ कर्म इस जीवोंका कितना अपाय कर रहे हैं इत्यादि विचार करना अपायविचय धर्म्यध्यान है ।।१७६७।। विशेषार्थ-अभ्युदय और निःश्रेयस ऐसे दो प्रकारके कल्याण या सुख हैं । देव और मनुष्य संबधी सुख अभ्युदय सुख कहलाता है, मोक्षका सुख निःश्र यस सुख कहलाता है । इनका कारण रत्नत्रय है इत्यादि सुखके उपायका विचार करना अथवा शुभाशुभ कर्मोंसे होनेवाले अपायका विचार करना, मिथ्यात्व असंयम आदिसे इस जीव का कैसे-कैसे अपाय होता है इत्यादि विचार करना अपायविचय धर्म्यध्यान है । विपाकविचय घHध्यान का स्वरूपएक और भनेक भवों में संचित हुए पुण्य पापकर्मों की उदय उदीरणा, बंध, सत्व आदिका बुद्धिमानको विचार करना चाहिये । यह विचार विपाकविचय धर्म्यध्यान कहलाता है ॥१७९८॥ विशेषार्थ-जिनकर्मोंसे देवादिगतिके सुख प्राप्त होते हैं वे पुण्यकर्म हैं और जिन कर्मोसे नरकादि गतिके दुःख प्राप्त होते हैं वे पापकर्म हैं। इन कर्मोंकी दश अवस्थायें होती हैं-बंध, उदय, सत्त्व, संक्रमण, उदीरणा, उपशम, अपकर्षण, उत्कर्षण, निधत्ति और निकाचित । बंध-जीव प्रदेशों में नूतन कर्मका संबंध होना । उदय-कर्मका पथा समय फल देना । सत्त्व-कर्म बंधसे लेकर उदयमें आकर खिर जाने तक मौजूद रहना । संक्रमण-कर्मप्रकृतिका अन्य सजातोय कर्म प्रकृतिमें बदल जाना । उदीरणा Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिका ऊधः सत्रिलोकस्था द्रव्यपर्याय संस्थितीः । विचितयत्यनुप्रेक्षास्तवानुगतो प्रभु वाशरणंकान्यजन्मलोकविसूचिकाः आस्रव: यतिः ।।१७६६॥ संवरश्विन्त्यो निर्जराधर्मबोधयः ।। १८००॥ [ ५२३ असमय में कर्मो का फल देना । उपशम- कारण विशेषसे कर्मकी उदीरणा नहीं हो सकना दबा रहना । अपकर्षण- कर्मो को स्थिति घट जाना । उत्कर्षण - कर्मोकी स्थिति बढ़ जाना | निघत्ति - उदीरणा और संक्रमण जिसमें न हो सके वह कर्म निधत्ति कहलाता है । निकाचित- उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण और उत्कर्षण ये चारों जिसमें नहीं हो सके इन सब विषयोंका विशेष वर्णन, कर्मकाण्ड आदिमें है । इसप्रकार कर्मोके नाना अवस्था विशेषोंका विचार करना विपाक विचय धर्म्यध्यान है । संस्थान विचयधयंध्यानका स्वरूप ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक इसतरह तोन प्रकारके लोकमें स्थित जीवादि द्रव्य तथा उन द्रव्योंको स्वभाव विभाव पर्यायें जन पर्यायोंकी काल मर्यादा आदि का चितवन करना संस्थान विचय धर्म्यध्यान है । इस ध्यान में स्थित मुनिराज बारह भावनाओं का भी चिंतन करते हैं अर्थात् अनित्य आदि बारह भावनाओं का चिंतन इसी संस्थान विचय ध्यान में आता है ।। १७६६ ।। विशेषार्थ - अधोलोक क्षेत्रासन के आकारका है, मध्यलोक झालरीके आकारका और ऊर्ध्व लोक मृदंग आकारका है । उनमें क्रमशः नारकी, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि तिर्यंच और देव रहते हैं। तीन भेद वाले इस लोकाकाशमें मध्य भाग में बस स्थावर जीवोंके निवास स्थान भूत अस नाली है, त्रस जीव केवल इसी में रहते हैं तथा स्थावर जीव इसमें एवं सर्वत्र लोकमें रहते हैं । उसको मुख्यता से इसे त्रसनालो कहते हैं। छह द्रव्य आदिका स्वरूप अभी पहले कह दिया है । उन द्रव्योंमें जीव और पुद्गलकी स्वभाव विभाव दोनों प्रकारकी पर्यायें होती हैं । शेष धर्म आदि द्रव्योंमें स्वभाव पर्याय ही होती है । पर्यायोंके द्रव्य-पर्याय, गुणपर्याय, अर्थपर्याय आदि अनेक भेद हैं, इनका स्वरूप पंचास्तिकाय आदि ग्रंथोंमें अवलोकनीय है । बारह अनुप्रक्षाओंके नाम अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, प्रशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्म ये बारह भावनायें हैं ।। १८०० ॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४] मरणकण्डिका डिलीरपिंडवल्लोकः सकलोऽपि विलीयते । समस्ताः संपवश्चात्र स्वप्नभूतिसमागमः ॥१८०१॥ दृष्टनष्टानि सौख्यानि स्फुरितानीव विद्युताम् । बुदखुदा इध निःशेषा नश्वराः सन्ति गोचराः ॥१८०२।। नानादेशागता: पांथा नौगता इव बांषयाः । गत्वरा प्राधयाः सर्वे शारदा व नीरदाः ॥१८०३॥ तेरह श्लोकों द्वारा अनित्य भावनाका वर्णन करते हैं यह समस्त लोक-संसारके पदार्थ डिंडीर पिंडसमुद्र का फेन या झागके समान नष्ट होनेवाले हैं तथा समस्त बंभव, धन, संपदायें स्वप्नके वैभव के समागम सदृश क्षणभंगुर हैं ।।१८०१॥ इन्द्रिय जन्य सुख बिजलीके चमकके समान देखते-देखते नष्ट होने वाले हैं। संसारके उच्च पद एवं स्थान जलके बुलबुलके समान नश्वर हैं ।। १८०२।। भावार्थ-यह मोही प्राणी इन्द्रिय सुख और बड़े पद तथा स्थानोंके लिये बड़ा हो लालायित रहता है किन्तु ये सब विनाशीक है। ये प्रिय बंधूजन नदीसे पार होने के लिये नाना देशोंसे आकर एक नाव में बैठने वाले पथिक जनोंके समान हैं अर्थात् जैसे नावमें अनेक ग्राम नगरवासी जन माकर बैठते हैं और नदीसे पार होते ही अपने स्थान पर चले जाते हैं फिर साथ नहीं रहते हैं वैसे बंधु, मित्र, पुत्रादि अनेक गतिसे आकर कुछ कालके लिये एक घर ग्रामादि में एकत्रित होते हैं यथासमय वहां से चल देते हैं उनका साथ सदाका नहीं है। स्वामी आदि आश्रयभूत पदार्थ भी शरद ऋतुके मेघ के समान अस्थिर-नश्वर हैं ।।१८०३।। प्रिय जोवोंके साथ जो सहवास है वह मार्गमें चलते हुए पथिक पुरुषों को वृक्षों की छायाके समान अति अल्पकाल रहकर नष्ट होने वाला है अथवा मार्ग में स्थित वृक्षों को छायामें जैसे अनेक पथिक आकर बैठते हैं परस्पर मिलते हैं और अन्यत्र भिन्न भिन्न दिशामें चले जाते हैं अथवा विश्वास हेतु कुछ हो समय तक वृक्षकी छायामें बैठते हैं पुनः उस छायाको छोड़कर चले जाते हैं अथवा मार्गके दोनों किनारे पर वृक्ष आते Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५२५ छायानामिव पांथान संवासो नश्वरोंऽगिनाम् । चक्षुषामिव रागोऽत्र न स्नेहो जायते स्थिरः ॥१८०४॥ संयोगो देहिनां वृक्षे शर्वर्यामिव पक्षिणाम् । आश्विर्याश्यो भावाः परिवेषा इव स्थिराः ॥१८०५।। जीवानामक्षसामग्री शंपेवास्ति चला चलम् । विनश्वरमशेषाणां मध्याह्न इव यौवनम् ॥१८०६।। चंद्रमा बर्द्धते क्षोण प्रातुरेति पुनर्गत: । नदीजलमियातीतं भूयो नायाति गौतनम् ॥१८ ॥ धावते देहिनामायुरापगानामिबोदकम् । क्षिप्रं पलायते रूपं जलरूपभियोगिनाम् ॥१८०८॥ जाते हैं और पथिक चलता हुआ छायाका किंचित् संयोग करता हुआ आगे बढ़ता जाता है जैसे यह क्षणिक है वैसे परिवारके लोगोंका साथ अल्पकालीन है । जैसे प्रणय आदिसे कुपित व्यक्तिके नेत्र किंचित् काल तक लालिमा युक्त होते हैं वैसे प्रिय जनोंका स्नेह किंचित कालका है स्थिर नहीं है ।।१८०४।। जैसे रात्रिमें एक वृक्षपर पक्षियोंका संयोग होता है और रात्रि समाप्त होते ही संयोग समाप्त हो जाता है वैसे परिवारका संयोग अस्थिर है । सूर्य या चन्द्र में परिवेष जैसे क्षणिक है वैसे आज्ञा, ऐश्वर्य आदि भाव अस्थिर हैं क्षणिक हैं ॥१८०५।। जीवोंको इन्द्रियोंको भोग सामग्री विद्युतवत् चंचल है अथवा नेत्र आदि इन्द्रियां अस्थिर हैं, वृद्धावस्था में नष्ट होतो हैं अथवा कमजोर होती हैं । सभी जीवोंका यौवन मध्याह्न कालके समान विनश्वर है ।।१८०६।। इस जगत में चन्द्रमा क्षीण होकर पुनः वृद्धिंगत होता है । वसंत आदि ऋतुयें व्यतीत होकर पुन: पुन: आती हैं किन्तु हमारा यह प्यारा-प्यारा यौवन व्यतीत होनेपर पुनः लौटकर नहीं आता जैसे कि नदीका प्रवाह जो बहता जा रहा है वह पुनः लौटकर नहीं आता ॥१८०७।। संसारो प्राणियों की आयु नदीजलके समान वेगसे दौड़ रही है । जोवोंका रूप जलमें प्रतिबिंबत रूपके समान शोघ्र हो भाग जाता है ।।१८०८।। जैसे पूर्वाह्न कालमें छाया घटती जाती है वैसे शरीरको सुकुमारता घटती जाती है। जैसे सायंकालीन छाया बढ़ती जाती है वैसे Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] मरएकण्डिका पौर्वाल्लिकी यथा छाया हीयते सुकुमारता । परालिकी यथा छाया सर्वदा वर्धते जरा ॥१८०६॥ तेजो नश्यति जीवानां निलिपधनुषामिव । उल्केवनश्वरी बुद्धिष्टनष्टाप्रजायते ॥१८१०।। बलं पलायते रूपमिव रथ्यागतं रजः । जलानामिव कल्लोलो बीर्य नश्वरमंगिनाम् ॥१८११॥ हिमपुजा इवानित्या भवन्ति स्वजनावयः। जंतूनां मत्वरो कोतिः संध्याथोरिव सर्वथा ।।१८१२।। छंद वंशस्थइवं जगमछारबारिवोपमं न जानते नश्वरमंगिनः कथम् । यमेन हंतु सकलाः पुरस्कृता मृगाधिपेनेव मृगा बलोयसा ॥१८१३।। इति अनित्य । बुढ़ापा सदा बढ़ता जाता है ||१८०६ ।। जीवों को शरीरकी कांति या तेज इन्द्रधनुषके समान नष्ट होता है । पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप बतलाने वालो, कुगतिको रोकने वाली, चारित्र रूपी निधिको प्रगट करने में दोपकके समान ऐसी विशिष्ट बुद्धि भी देखते-देखते नष्ट हो जाती है ।।१८१०॥ गलोको धुलिमें रचा हआ किसीका आकार या रूप जैसे क्षणिक है वैसे मानवोंका बल क्षणिक है नष्ट होनेवाला है । जैसे जल में लहरें चंचल हैं नश्वर हैं वैसे जीवोंका पराक्रम-वीर्य बड़े बड़े योद्धा या मल्लोंका वीर्य भी नष्ट हो जाता है ।।१८११॥ स्वजन आदि हिमपुजके समान अनित्य होते हैं अर्थात् जैसे बर्फका ढेर क्षणभरमें पिघलकर नष्ट होता है वैसे स्वजन कुछ काल बाद नष्ट हो जाते हैं । जीवोंको महान कत्ति संध्याकी शोभाके समान सर्वथा नश्वर स्वभाव वाली है ।।१८१२।। यह जगत शरदऋतुके मेघके समान नश्वर है, अहो ! ये प्राणिगण इस बातको कैसे नहीं जानते ? जैसे बलवान सिंह द्वारा हरिण मारने के लिये पकड़े जाते हैं वैसे संसारी जीव यमराज द्वारा मारने के लिये मानों पुरस्कृत हो रहे हैं-सामने आरहे हैं अर्थात् सभोके समक्ष मृत्यु मंडरा रही है ।।१८१३।। __ अनित्य अनुप्रेक्षा समाप्त । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५२७ कर्मोदये मतिर्याति नोपायो विद्यतेऽङ्गिनाम् । सुधा विषं तृणं शस्त्रं बंधः शत्रुश्च जायते ॥१८१४॥ अस्ति कर्मोदये बुद्धिरुपायमवलोक्ते । विपक्षो जायते बंधः शस्त्रं पुष्पं विषं सुधा ॥१८१५।। अर्थः पापोषये सो हस्तप्राप्तोऽपि नश्यति । दूरतो हस्तमायाति पुण्यकर्मोदये सति ॥१८१६॥ नरः पापोदये दोषं यतमानोऽपि गच्छति । गुणं पुण्योदये श्रेष्ठं यत्नहोनोऽपि तत्वतः ।।१८५७!! अशरण अनुप्रेक्षाका वर्णन इस संसारमें जब जीवोंके पापकर्मका तीव्र उदय प्राता है तब हेय उपादेय तत्त्वका विचार करनेवाली बुद्धि नष्ट हो जाती है । शरणभूत कुछ उपाय नहीं रहता। पापके उदयमें अमत भी विष जैसा बन जाता है, तृण भी शस्त्र जैसा घातक होता है और बंधु भी शत्रुवत् आचरण करने लगता है । इससे विपरीत जब पुण्यका उदय आता है तब ज्ञानावरण कर्मके तीव्र क्षयोपशम रूप बुद्धि प्राप्त होती है जो संपूर्ण पदारेको जानने में हेय और उपादेयताको दिखलाने में समर्थ होती है । पुण्योदय में दुःख, कष्ट आदि को दूर करने का उपाय सूझता है अथवा मोक्ष प्राप्तिका उपाय जानने में आता है। पुण्यके उदय होनेपर शत्रु मित्रवत् बन जाता है, शस्त्र प्रहार पुष्पहार बनता है और विष भी अमृत बनता है ।।१८१४॥१८१५।। . __ जब जीवके पापका उदय आता है तब हाथमें पाया हुआ धन नष्ट हो जाता है और पृण्योदयके होने पर बहुत दूर देशांतग्में स्थित धनादि वंभव हाथ में आता हैप्राप्त होता है ।।१८१६।। यह मनुष्य पापके उदय में दोषसे दूर रहना चाहता है तो भी दोषको प्राप्त होता है अथवा सदाचारी निर्दोष होनेपर भी पापोदयमें उसका अपवाद होता है और पुण्यके उदयमें आनेपर बिना किसी प्रयत्नके श्रेष्ठ गुण प्राप्त होते हैं अथवा पुण्योदयमें अकार्य करनेपर भी यश मिलता है प्रशंसा होती है ॥१८१७।।। Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ ] मरणाकण्डिका पुण्योदये परां कोति लभते गुणजितः । पापोदयेऽश्नुते गु/मोति गुणवानपि ॥१८१८॥ जन्ममृत्युजरातके दुःखशोकभयादिके । दीयमाने विपक्षण निरुपक्रमकर्मणा ॥१८१६॥ न कोऽपि विद्यते त्राणं देहिनो भुबनत्रये । न प्रविष्टोऽपि पाताल मुच्यते कर्मणा जनः ॥१८२०॥ नगदुर्गे क्षितौ शैले लोकांसे काननेऽम्युषो । गतोऽपि कर्मणा जीवो नोदीर्णेन विमुच्यते ।।१८२१॥ द्विचतुर्वहुपाला ये ते गच्छति महीतले । मले मीनाः स्वगा व्योम्नि कर्म सर्वत्र सर्ववा ॥१८२२॥ कोई नर गुण रहित है तो भी पुण्यके उदयमें श्रेष्ठ कीतिको प्राप्त करता है और पापके उदय होनेपर गुणवान व्यक्ति है तो भी बड़ो भारी अपकीतिको पाता है ॥ १८१८।। जिसके प्रतिकारका काई उपाय नहीं है ऐसे निर्धात्त आदि तीव्र स्वभाव वाले विपक्षीके समान पापकर्म द्वारा दिये जानेवाले जन्म, मरण, जरा, पोड़ा, दुःख, शोक, भय आदिको जोवोंको भोगने ही पड़ते हैं। उस वक्त इन जीवोंको तोन लोकमें कोई शरण सहाय नहीं मिलता है तोव पापोदग्रसे युक्त जो चाहे पाताल प्रविष्ट हो जाय तो भी उस कर्म द्वारा छूट नहीं सकता है ।।१८१६।।१८२०।। यह जीव चाहे पर्वतके किले-गढ़ आदिमें चला जाय या पृथिवीके अंदर फंस जाय, लोकांतमें, वनमें और समुद्र में भी छिप जाय किन्तु उदीरणाको प्राप्त हुए कर्म द्वारा छोड़ा नहीं जाता अर्थात् उक्त स्थानों पर भो कर्म अपना फल अवश्य देता है ॥१८२१॥ दो पैर वाले मनुष्य, चार पैर वाले अश्व, सिंह आदि बहुत पैर वाले प्रष्टापद पा कीट विशेष प्रादि प्राणोगण महोतल पर चलते हैं, रहते हैं। मीन, मगर आदि जल में रहते हैं। पक्षी आकाश में चलते हैं किन्तु कर्म तो जल, स्थल, प्राकाशमें सर्वत्र ही हमेशा ही रहता है ।।१८२२॥ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५२६ प्रगम्या विषयाः संति रविचंद्रामिलामरैः । अशा विसं फोपि नागम्यः कर्मणा पुनः ॥१८२३॥ न योषा रथहस्साश्वा विद्यामंत्रौषधादयः । सामादयोऽपि चोपायाः पान्ति कर्मोदयेऽङ्गिनाम् ।।१८२४॥ केनेहोदीयमानानां कर्मणां ज्योतिषामिव । निषेधः शक्यते कतुं स्वकीये समये सति ।।१८२५।। प्रतीकारोऽस्ति रोगाणां कर्मणां न पुनर्जने । कर्म मृद्गाति हस्तीव लोकं मतो निरंकुशः ।।१८२६।। प्रतीकारो न रोगाणां कर्मणामदये सति । उपचारो ध्र वं तेषामस्ति कर्मशमे सति ॥१८२७।। इस जगतमें सूर्य के लिये अगम्यप्रदेश विद्यमान हैं, चन्द्र, वायु और देवोंको अगम्य ऐसे प्रदेश भी हैं किन्तु कर्मके लिये कोई प्रदेश अगम्य नहीं है ।।१८२३।। संसारी जोवोंके पाप कर्मोका उदय आनेपर बड़े बड़े सहस्रभट, कोटोभट आदि योद्धा भी सहायक रक्षक नहीं बन पाते, रथ, हाथी, अश्य, विद्या, मंत्र (जिसके अंतमें "स्वाहा" शब्द होता है वह विद्या कहलाती है और जिसके अंतमें स्वाहा शब्द नहीं होता वह मंत्र कहलाता है) औषधि आदि तथा साम, दाम, दण्ड आदि उपाय कार्यकारी नहीं होते हैं अर्थात् इन उपायोंके करनेपर भी पापकर्मसे होनेवाले कष्ट, दुःख, वेदना और मृत्यु को दूर नहीं कर सकते हैं ।।१०२४।। जिसप्रकार आकाश में उदित होते हए सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदिको रोक नहीं सकते हैं उनका निषेध किसीके द्वारा भो होना शाक्य नहीं वे अपने-अपने समय पर अवश्य उदित होते हैं उसोप्रकार कर्मोंका उदय आनेपर उसको कोई भी रोक नहीं सकता, निषेध नहीं कर सकता कि अभी उदयमें नहीं आना इत्यादि ।।१८२५।।। लोगोंके पास रोगोंका प्रतीकार तो है किन्तु कर्मों का प्रतीकार नहीं है । जैसे अंकुश रहित मत्त हाथो जन को नष्ट करता है, मसल देता है, वैसे कर्म जीवको नष्ट करता है ||१८२६।। कर्मोका तोव उदय आनेपर रोगोंका प्रतोकार नहीं हो पाता किन्तु जब कर्मों का उपशम या मंद उदय होता है तब उन रोगों का उपचार प्रतीकार Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डिका बलकेशवचक्रेशदेवविद्याधरावयः । सन्ति फर्मोदये व्यक्त शरणं न शरीरिणाम् ॥१८२८॥ मच्छन्मुल्लंघते क्षोणी नरस्तरति नीरधिम् । नातिक्रांतु पुनः कोऽपि कर्मणामुदयं क्षमः ॥१८२६॥ मृगमोनो परौ जन्त्योः सिंहमीनगृहीतयोः । जायते रक्षकः कोऽपि कर्मग्रस्तस्य नो पुनः ॥१८३०॥ छंद-स्वागताकर्मनाशनसहानि जनानां सामवर्शनचरिषतपांसि । नापहाय सति कर्मणि पक्वे रक्षकानि खल संतिपराणि ॥१८३१॥ ॥ इति प्रशारणम् ॥ निश्चय से हो जाता है ।।१८२७।। इन शरीर धारी जीवोंको कर्मोका तीव्र उदय आनेपर बलदेव, नारायण, चक्रवर्ती देव और विद्याधर आदि भी शरण नहीं होते हैं । यह स्पष्ट ही है ।।१५२८। यह मानव बड़े-बड़े पर्वत आदिसे विषम भूमिका उल्लंघन कर सकता, सागरको भूा द्वारा पार कर सकता है किन्तु ऐसा कोई भी संसारी जीव नहीं है जो उदयको प्राप्त कर्मोका उल्लंघन कर सके ॥१८२६।। सिंहके द्वारा पकड़े हुए हिरणका कोई रक्षक हो सकता हैं, बड़ी मछली द्वारा पकड़े हुए छोटी मछलीका कोई रक्षक हो सकता है, किन्तु कर्म द्वारा पकड़े हुए-ग्रस्त हए जीवका कोई भी रक्षक नहीं है ।। १८३०।। इसप्रकार यहां तक कहे गये बंधु, मित्र, राजा, चक्रवर्ती, दुर्ग, पाताल आदि कोई भी शरण सहायी नहीं है ऐसा बताया। अब जो सहायक है, उसको आगेके श्लोक मे बतलाते हैं भव्य जीवों के लिये यदि कोई शरणभूत हैं तो वह अपने-अपने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप हो हैं । ये ही ज्ञानादिक उन दुःखदायी कर्मोका नाश करने में समर्थ हैं। इन ज्ञानादि चार आराधनाओंको छोड़कर अन्य कोई पदार्थ कर्मके उदयमें रक्षक सहायक शरणभूत नहीं होते हैं । ऐसा दृढ़ निश्चय करना चाहिये ।।१८३१।। अशरण भावना समाप्त । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५३१ ध्यानादि अधिकार करोति पातकं जन्तरवाषनदेनते ! श्वचाविषु पुमर्दु :खमेकाकी सहते चिरम् ॥१८३२॥ वेदनां कर्मणा वत्सां रोगशोकभयाविकां । कि भुजानस्य कुर्वन्तु पश्यन्त्यो ज्ञातयोऽङ्गिनः।१८३३।। एकाकी म्रिपते जीवो न द्वितीयोऽस्य कश्चन । सहाया भोगसेवायां न कर्मफलसेवने ॥१८३४।। हाथ बांधवाः साधं न केनापि भवांतरम् । वल्लभा अपि गच्छन्ति कुर्वन्तोऽपि महादरम् ॥१८३५॥ - -- - ....-. एकत्व भावना यह मोही जीव शरीर बंधुजन आदिके लिये पाप करता है किन्तु नरकादि खोटी गतियोंमें चिरकाल तक अकेला हो दुःखको भोगता है, वहां बंधुजन दुःख भोगने में साथी नहीं होते ।।१८३२।। यदि कोई प्रश्न करे कि नरकादि गति में बंधुजन उसकी वेदनाको देखते नहीं अतः सहायक या साथी कसे बनें । सो इस प्रश्नका उत्तर देते हैं पापकर्म द्वारा रोग, शोक, भय आदि रूप वेदना दी जानेपर उसको भोगते हुए मनुष्यको प्रत्यक्ष रूप परिवार-बंधुजन देख रहे हैं किन्तु उसका कुछ प्रतोकार आदि करते हैं क्या? नहीं करते हैं अर्थात् अपने आँखों के सामने पिता आदिको भयंकर वेदना या कष्ट आदि आनेपर भी परिवार कुछ नहीं कर सकता, वेदना उस व्यक्तिको हो भोगनी पड़ती है जिसने कि पूर्व में पापका उपार्जन किया था ॥१८३३॥ आयु पूर्ण होने पर यह जीव अकेला हो मरता है, इसका दूसरा कोई साथी नहीं होता । मनोहर वस्त्राभरण भोजनादि को भोगने में सहायक बहुत हैं किन्तु कर्मोंका फल भोगनेमें कोई सहायक नहीं है ॥१८३४।। शरीर, धन और बांधव किसीके भी साथ दूसरे भव में--परलोकमें नहीं जाते हैं, उस व्यक्तिका महान् आदर करते हुए अत्यंत प्रिय पुत्र-पत्नी आदि भी परलोक में साथ नहीं जाते ।।१८३५।। इन संसारी जीवोंके अपने शरीर, धन और स्वजन आदि यहीं पर इस लोकमें ही रह जाते हैं, अत्यंत उत्कंठा Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ ] मरणकण्डिका स्वकीया देहिनोऽनव देहार्थस्वजनादयः । स्वीकृताः संभ्रमेणापि न कदाचिद्भवान्तरे ॥१८३६॥ स्वकीयं परकीयं न विद्यते भुवनत्रये । नकस्याटायमानस्य परमाणोरिवाशिनः ॥१८३७।। भातरं समं गत्वा धर्मो रत्नत्रयात्मकः । उपकारं परं नित्यं पितेय कुरुतेऽङ्गिनः ।।१८३८॥ भोगं रोगं धनं शल्यं गेहं गुप्तिः स्त्रियो यथा । बंधु च मन्यते बंध साधरेफत्ववासितः ॥१८३६।। से धन परिवार आदिको भवान्तरमें साथ ले जाना चाहें तो भी मरनेवाला पुरुष उनको नहीं ले जा सकता। इसप्रकार एकत्व भावनामें विचार करना चाहिये ।।१८३६॥ जैसे परमाणु अन्य परमाण या स्कंध आदिके संबंध बिना तीन लोक में सर्वत्र अकेला घूमता है वैसे तीन लोकमें एकाकी परिभ्रमण करते हुए इस जीवके कोई नहीं है न अपना है और न पराया है ।।१८३७॥ इसप्रकार धन, परिवार आदि परलोकमें साथ नहीं जाते ऐसा समीचीन सिद्धांत कहकर अब प्रागे कहते हैं कि परलोकमें धर्म साथ जाता है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप धर्म इस जोवके साथ परलोक में जाता है । यह रत्नत्रय धर्म पिताके समान इस जीव का नित्य ही उत्कृष्ट उपकार करता है ॥१८३८॥ विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन आदि धर्म आत्माका निजी धर्म है, आत्मासे अभिन्न है, अनादिकालसे मिथ्यात्व आदि द्वारा यह धर्म ढक रहा है, मिथ्यात्व आदिके हटने पर प्रगट होता है । यह धर्म दुर्गति में जाते हुए जीवको रोककर उत्तम इन्द्र आदि पदमें स्थापित करता है, यह परलोक में कल्याणकारक मित्र है क्योंकि परलोक में साथ जाकर अभ्युदय आदि सुख को देता है । इसप्रकार रत्नत्रय धर्मको छोड़कर अन्य कोई भी इस जीवका नहीं है ऐसा एकत्व भावनामें विचार करना चाहिये । जो साधु सदा एकत्व भावनाको भाता है वह भोगको रोमके समान दुःखदायी मानता है, धनको शल्यवत् कष्टप्रद समझता है, घर और स्त्रियों को कारागृहके समान Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार बंधस्य बंधनेनेव रागो यस्य न विग्रहे । स करोत्यावरं साधुः किमर्थेऽनर्थकारिणि ।।१८४०॥ छेद-अनुकूलाबंधनतुल्यं चरणसहायं पश्यति गात्रं मथितकषायः । यो मुनिवर्यो जनधनसंगे तस्य न रागःकृतहितभंगे ।।१८४१।। ॥ इति एकत्वम् ॥ दुःखव्याकुलितं दृष्ट्वा किमन्योऽन्येन शोच्यते । कि नात्मा शोच्यते जन्ममृत्युदुःखपुरस्कृतः ॥१८४२।। और बंधुको बंधनरूप मानता है अर्थात भोग आदिमें ममत्व प्रेम नहीं करता है ॥१८३६।। जैसे सांकल आदिसे बंधे हुए पुरुषके उस सांकल आदिमें प्रीति नहीं होती वैसे जिसकी शरीरमें हो राग-प्रीति नहीं है वह साधु अनर्थको करनेवाले धनमें क्या आदर कर सकता है ? कभी नहीं कर सकता ।।१८४०॥ जिन्होंने कषायोंका मथन किया है वे मुनिजन शरीरको बंधन तुल्य देखते हैं अर्थात् शरीरको बंधनरूप मानते हैं । शरीरको तो केवल चारित्र पालनमें सहायो मानते हैं। इसप्रकार जिनका स्वशरीरमें ही राग नहीं रहता उनके हितका नाश करनेवाले, परिवार, धन और परिग्रहमें क्या राग हो सकता है ? नहीं हो सकता । इसप्रकार अपने को सदा एकाको मानना एकत्व भावना है ।।१८४१।। एकत्व भावना समाप्त । अन्यत्व भावना अहो ! बड़ा आश्चर्य है कि इस संसार में मोहो प्राणी एक दूसरेको दुःखसे पाकुलित देखकर शोक क्यों करता है ? स्वयंका आत्मा जन्म, मृत्युके दुःखोंसे युक्त हो रहा है, उसका शोक क्यों नहीं करता ? अर्थात् दूसरा दुःखो हो रहा है उसका शोक तो करते हैं किन्तु खुद नरकादिके दुःख पा रहा है उसका शोक नहीं करता ।।१८४२।। अनंत संसार में कर्म द्वारा परिभ्र पण करते हुए जीवोंका कौन किसका अपना हुआ है ? कोई Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] मरणकण्डिका संसारे भ्रममाणानामनसे कर्मणाङ्गिनः । कः कस्यास्ति निजो मूढः सज्जतेऽत्र जने जने ॥१८४३॥ कालेऽतीतेऽभवत्सर्व सर्वस्यापि निजो जनः । तथा कर्मानुभावेन भविष्यति भविष्यति ॥१८४४॥ संगमोऽस्ति शकताना रात्री रात्री तरोतरौ। यथा तथा तनभाजां जातो जातो भवे भवे ॥१८४५॥ अध्वनीना इकत्र प्राप्य संग ततोऽगिनः । स्थानं निजं निजं यान्ति हित्वा कर्मयशीकृताः ॥१८४६॥ भी अपना नहीं हुआ है, यह मूर्ख व्यर्थ हो जन-जन में यह मेरा है, यह मेरा है ऐसा मानकर आसक्त होता है ।।१८४३।। अतीत काल में सर्व हो जीय सर्व जोवों के प्रात्मीयजन हो चुके हैं । कोई जीब शेष नहीं रहा जो अपना नहीं हुआ हो तथा कर्मके उदयसे आगामी काल में भी सर्व जीव सर्व जीवोंके आत्मीय जन बनेंगे ॥१८४४।। भाव यह है कि सर्व जीव अपने सगे बन चुके हैं किन्तु वे सब ही मेरेसे सदा पृथक हो रहे हैं और आगे भी पृथक ही रहेंगे अत: संसारके सर्व पदार्थ मेरेसे अन्य हैं ऐसा चिंतन करना चाहिये, जैसे रात्रि-रात्रिमें वृक्ष वृक्षपर पक्षियोंका समागम होता है वैसे संसारी जीवोंके जाति जाति में (योनिमें) भव भव में परिवारजनका समागम होता रहता है ।।१८४५।। विशेषार्थ-जैसे प्रत्येक रात्रि में प्रत्येक वृक्षपर पक्षी आकर बैठते हैं। वैसे प्रत्येक जन्ममें प्राणियोंका समागम होता है, रात्रिमें पक्षी आश्रय बिना नहीं रह सकते अतः योग्य वृक्षका आश्रय लेते हैं । संसारो जोब भी आयुके नष्ट होनेपर पूर्व शरीरको छोड़कर अन्य शरीरके योग्य पुद्गलोंके योनि-स्थान में जाकर ग्रहण करते हैं। फिर वहाँ की आयु पूर्ण होनेपर अन्य योनिमें जन्मते हैं । जैसे पक्षियोंको वृक्ष सुलभ हैं वैसे जीवोंको योनियां सुलभ हैं । यह सब समागम कुछ ही समयका हुआ करता है अत: स्पष्ट है कि योनि, शरीर, परिवार आत्मासे अन्य है पृथक् है । जैसे पथिक जन एक धर्मशाला या वृक्षको छाया में एकत्रित होकर पुनः अपने अपने ग्रामादिमें चले आते हैं, उस वृक्षादिके निकट प्राप्त हुए समागम छोड़ देते हैं । धंसे कर्म के आधीन हुए प्राणीगण एक घर-नामादिमें समागमको प्राप्त करके पुन: उस Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार नानाप्रकृति के लोके कस्य कस्तत्त्वतः प्रियः । कार्यमुद्दिश्य संबंधो वालुकामुष्टिवज्जनः ॥ १८४७ ।। माता पोषयते पुत्रमाधारोऽयं भविष्यति । मातरं पोषयत्येष गर्भेऽहं विधृतोऽनया ।।१८४६ ।। श्रमित्रं जायते तनूजो आयते मित्रमुपकारविधानतः । शत्रुरपकारविधानतः ।। १८४६ ॥ विद्यते ततः । जायते कार्यमाश्रित्य शत्रुभित्रं विनिश्चितम् ।।१८५० ॥ [ ५३५ समागमको छोड़कर अपने-अपने कर्मानुसार प्राप्त हुई गतियों में चले जाते हैं ।। १८४६ ।। अहो इस विचित्र संसार में नाना स्वभाववाले लोक हैं किसी की प्रकृति किसोसे मिलती नहीं है, तत्त्व दृष्टि से देखा जाय तो किसको कौन प्रिय है ? कोई भी प्रिय नहीं है। किन्तु अपने कार्यका उद्देश्य लेकर ये लोक संबंध स्थापित कर लेते हैं । उनका वह संबंध तो बालुको मुट्ठी के समान है, जैसे बालुके कण पृथक् हैं जल आदिसे मिल जाते हैं संबंधको प्राप्त होते हैं किन्तु वह संबंध न स्वाभाविक है और न सदा रहने वाला है । वैसे पुत्र, मित्र या घनादिका संबंध न स्वाभाविक है और न सदा का है ।। १८४७ ।। इस विश्व में यह पुत्र मेरा आधार होगा, इस भावनासे माता पुत्रका पालन करती है और पुत्र इस माताने मुझको गर्भ में धारण किया था ऐसो भावनासे माताकी सेवा करता है, बुढापे में उसका पालन करता है ।। १८४८। पहले जो शत्रु था वह उपकार कर लेवे तो मित्र बन जाता है अर्थात् जो शत्रुभावको प्राप्त था वह यदि हमारा उपकार करने लगता है तो हम उसे मित्र मानने लग जाते हैं तथा स्वयंका पुत्र है किन्तु अपकार करनेसे शत्रु बन जाता है। अतः वास्तव में देखा जाय तो प्राणियों का कोई भी मित्र और कोई शत्रु नहीं है, केवल कार्य का आश्रय लेकर शत्रु और मित्र बन जाया करते हैं या उन्हें शत्रु और मित्र माना जाता है यह निश्चित समझो ।। १८४६ ।। १८५० ॥ भावार्थ — वास्तव में हमारा कोई मित्र या शत्रु नहीं है । जो हमारा उपकार करे या हम जिसपर उपकार करते हैं वह मित्र समझा जाता है और पात्रु भो वही है Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ ] मरकण्डिका हितं करोति घो घस्य स मतस्तस्य बांधवः । स तस्य भव्यते बैरो यो यस्याहितकारकः ।।१८५१।। कुर्वन्ति बांधवा विघ्नं धर्मस्य शिवदायिनः । तीव्र दुःखकरं घोरं कारयन्त्यप्यसंयमम् ॥१८५२।। बंधुरं साधवो धर्मं वर्धयन्ति शरीरिणः । संसारकारणं निद्यं त्याजयन्त्यप्यसंयमम ॥। १८५३ ॥ साधवो बांधवास्तस्माद्देहिनः परमार्थतः । ज्ञातयः शत्रवो रौद्रभवाम्भोधिनिपाततः ||१८५४ ॥ जो हमारा अपकार - हानि घात करता हो या हम उसका अपकार करते हैं । जो आज मित्र है यह कल शत्रु बन जाता है और जो आज शत्रु है वह कल मित्र बन जाता है । सब स्वार्थ या कार्य यशता पर निर्भर है । अतः हे भव्य जीवों ! यह निश्चित समझो कि मेरे आत्मासे यह सब हो पृथक्-पृथक् हैं । जो जिसका हित करता है वह उसका बांधव माना जाता है और जो जिसका अहित करता है वह उसका बैरी समझा जाता है ।। १८५१।। जो हमारे इष्ट बंधुजन हैं वे मोक्षको प्रदान करनेवाले रत्नत्रयधर्म में विघ्न बाधात्रोंको करते हैं अतः निश्चित समझना चाहिये कि वे हमारे लिये घोर अत्यंत तीव्र दुःखको कराते हैं । अतः वे बन्धु मित्र या प्रियजन ही हमारे वास्तविक शत्रु हैं । जिसे हम शत्रु मानते हैं वह वास्तविक शत्रु नहीं हैं। बंधुजनोंके मोह में हिंसा, असंयम आदिमें प्रवृत्ति होती है । बंधुजन मोक्षमार्ग में जाने से रोक देते हैं, त्याग तपस्याको रोकते हैं जिस कार्य से आत्माका हित होता है उस उस कार्यसे रोकने वाले बंधुजन हैं अतः वे ही शत्रु हैं। ऐसा जानकर सबसे अपनेको अन्य मानना चाहिये यही अन्यत्व भावना है। ।। १८५२।। साधुजन संसारी जीवोंके महा मनोहर मोक्ष सुखके दाता ऐसे रत्नत्रयको सदा ही वृद्धिगत करते हैं तथा जो निद्य संसारका कारण है ऐसे मिथ्यात्व असंयम आदिका त्याग कराते हैं । इसमें कोई संशय नहीं । अतः मुनि हो परमार्थतः बंधुजन हैं । एक कुल एवं जाति में उत्पन्न परिवार जन वास्तव में शत्रू ही हैं, क्योंकि ये बन्धु परिवारजन महाभयंकर संसार रूपी सागरमें डुबाने वाले हैं ।। १६५३ ।। १६५४।। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tসাকি ঘিাৰ [ ५३७ शरीरावात्मनोऽन्यत्वं निस्त्रिशस्येव कोशतः । परबत्तं (परतत्त्वं) न जानन्ति मोहान्तमसावृत्ताः॥१८५५॥ अनादिनिधनो ज्ञानी कर्ता भोक्ता च कर्मणाम् । सर्वेषां वेहिनां ज्ञेयो मतो वेहस्ततोऽन्यथा ॥१०५६॥ छेद-रथोद्धतापूर्वजन्मकृतकर्मनिमितं पुत्रमित्रधनबांधवादिकम् । न स्वकीयमखिलं शरीरिणो ज्ञानदर्शनमपास्य विद्यते ॥१८५७॥ ॥इति मन्यत्त्वं ।। जैसे म्यानसे तलवार पृथक होती है वैसे आत्मा शरीर से अन्य है किन्तु मोह. रूपी अंधकारसे ढ़क गये हैं ज्ञानरूपो नेत्र जिनके (अथवा जैसे अंध व्यक्तिके नेत्र अंधकारसे आवृत्त रहते हैं उनको सदा अंधकार ही प्रतीत होता है कुछ दिखता नहीं वैसे मोहसे अंधे हुए व्यक्तिके ज्ञानरूपी नेत्र सदा अंधकारसे आवृत्त रहते हैं) ऐसे पुरुष इस अन्यत्व रूप श्रेष्ठ सयको नहीं आते हैं ।।१५५ सभी संसारी प्राणियोंका आत्मा अनादि निधन है-शाश्वत रहनेवाला है, ज्ञानी है, कोका कर्ता और कर्मोंके फलोंका भोक्ता है तथा शरीर इससे सर्वथा अन्य प्रकार का है अर्थात् शरीर नाशवान् है. शाश्वत नहीं है, अज्ञानो है क्योंकि जड़ है कुछ नहीं जानता इत्यादि । इसप्रकार शरीर और आत्माका स्वरूप-लक्षण सर्वना भिन्न-भिन्न है ॥१८५६।। जोवोंका अपने ज्ञान, दर्शन, स्वभावको छोड़कर अन्य कोई भी स्वकोय नहीं है । पुत्र, मित्र, धन, बांधव आदि तो पूर्व जन्म में उपाजित किये हुए कर्मों द्वारा निर्मित हैं ।।१८५७॥ विशेषार्थ- अन्यत्व भावनामें मुनिजन विचार करते हैं कि मित्र, पुत्र, धन आदि साक्षात् मेरेसे पृथक् दिखाई देते हैं अतः ये सब मेरेसे मेरे प्रात्मासे सर्वथा अन्य हैं । मोही प्राणो इस बातको नहीं जानता अत: अपना और पराया ऐसा भेद करता है । वास्तवमें जो मोक्षमार्गमें लगाते हैं वे साधुजन अपने हैं। संसार समुद्र में डूबाने वाले मोक्ष मार्गसे रोकने वाले परिवार जन तो साक्षात् ही शत्रु हैं । इसप्रकार चिंतन करना अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। अन्यत्व भावना समाप्त । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ ] मरणकण्डिका मिव्यारबमोहितस्वान्तो भवे भ्रमति दुर्गमे । मान हसारण प्रभारि भयंकरे ॥१८५८।। अनेकदुःखपानीये नानायोनिभ्रमाकुले । अनंतकायपाताले विचित्रगतिपत्तने ॥१८५६॥ रागद्वषमवक्रोधलोभ मोहादियादसि । अनेकजातिकल्लोले प्रसस्थावरबुबुदे १८६०॥ जीवपोतो भयांभोधी कर्मनाविकचोदितः । जन्ममृत्युजरावर्ते चिरं भ्राम्यति संततम् ॥१८६१॥ संसार अनुप्रेक्षाका वर्णन संसार रूपी दुर्गम वनमें मिथ्यात्वसे मोहित मनवाले ये जीव भ्रमण करते हैं, जैसे हाथी, लुटेरे आदि शत्रुसे युक्त ऐसे भयंकर अरण्य, मार्गको भूलकर पथिक उस बनमें इधर उधर भ्रमण करता है ।।१८५८।।। भावार्थ-यह जीव अनादि कालसे मिथ्यात्वके कारण चतुर्गति रूप संसार वन में परिभ्रमण कर रहा है । दर्शन मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व नामा प्रकृतिके उदयसे जीवादि पदार्थों पर श्रद्धा नहीं होना मिथ्यात्व परिणाम है । इस परिणामसे युक्त जीव मिथ्यादृष्टि कहालाता है । मिथ्यादृष्टि ही संसार भ्रमण करता है । सम्यक्त्व होनेके बाद अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गल परिवर्तन काल तक ही भ्रमण करता है । अतः संसार वनमें भटकाने वाला मिथ्यात्व हो ऐसा जानना चाहिये । प्रागे संसारको समुद्रकी उपमा देकर वर्णन करते हैं जिसमें अनेक प्रकारका दुःखरूपी जल भरा हुआ है, नाना योनि चौरासी लाख योनि रूप भंवरोंसे व्याप्त और अनंतकाय साधारण वनस्पति रूप जिसमें पाताल प्रदेश हैं, विचित्र चार गतिरूप वेला पतन जिसके तट पर स्थित है, राग द्वेष, मद, क्रोध, लोभ और मोह आदि रूप भयंकर मगर मच्छादि जलचर जोवोंसे जो भरा है, एकेन्द्रिय आदि अनेक जातिरूप लहरें जिसमें उछल रही हैं, उस स्थावर जीव रूप बलबूले जिसमें उठ रहे हैं और जन्म, मरण, जरा, आवर्त जिस में हैं ऐसे संसार रूपी समुद्र में कर्मरूपी खेवटिया द्वारा चलाया गया यह जीव रूपी जहाज सतत चिरकाल तक भ्रमण कर रहा है ।।१८५६।।१८६०।।१८६१।। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार पंचही कारणा मनंतशः 1 एक द्वित्रिचतुः जातयः सकला वान्ता बेहिना भ्रमता भवे ।। १८६२ ॥ गृह्णीते मुंचमानोऽङ्गी शरीराणि सहस्रशः । भ्रमति द्रव्यसंसारे घटीयंत्रमिवानिशम् ।। १६६३ || बहुसंस्थानरूपाणि चित्रचेष्टाविधायकः P रंगस्थनटवज्जीवो गृहोते मुंचते भवे ॥। १८६४ ॥ [ ५३९ एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति त्रोन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय इन सर्व ही जातियोंको संसार में भ्रमण करते हुए जीवने अनंतबार प्राप्त किया है ।। १८६२ ।। संसार भ्रमणके पांच भेद हैं द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्र परिवर्तन, काल परिवर्तन, भव परिवर्तन और भाव परिवर्तन | आगे पांचोंको क्रमशः वर्णन करते हैं- द्रव्य परिवर्तन यह जीव हजारों शरीरोंको छोड़ता और ग्रहण करता है, जैसे अरहट में लगे हुए सकोरे जलसे भरभर के आते हैं और रिक्त होते जाते हैं वह घटी यंत्र - अरहट सतत घूमता रहता है, वैसे जीव सतत द्रव्यसंसार में भ्रमण करता है ।। १८६६३।। विशेषार्थ – पंच परावर्तन में प्रथम परावर्तन, द्रव्य परावर्तन है उसके दो भेद हैं- नोकर्म द्रव्य परिवर्तन और कर्म द्रव्य परिवर्तन | छह पर्याप्ति और तीन शरीर पुद्गलोंको एक जीवने किसी एक विवक्षित समय में ग्रहण किया और द्वितीयादि समयोंमें उस पुद्गलवर्गणाको निर्जीर्ण किया, आगे के समयोंमें अगृहीत वर्गणाओंको अनंतबार ग्रहण करता है पुनः मिश्र वर्गणाओंको अनंतबार ग्रहण करता है, इसतरह अनंत बारोंको व्यतीत करके पुनः उस विवक्षित वर्गगाको उसी स्पेशादिसे युक्त वही जीव जब ग्रहण करता है, इसमें जितना काल ( अनंत ) लगता है वह नोकर्म परिवर्तन कहलाता है । एक जीवने एक समय में अष्ट प्रकारके ज्ञानावरणादि कर्मोंको ग्रहण किया और समय अधिक आवलीको व्यतीत होनेपर द्वितीयादि समयों में निर्जीर्ण किया, पूनः ग्रहीत आदि कर्मवणाको ग्रहण करता रहा, जब कभी वही जोव उन्हीं वर्गणाओंको Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. ] मरणकण्डिका भूत्वा भूत्वा मृतो यत्र जीवो मेऽयमनंतशः । प्रणमात्रोऽपि नो देशो विद्यते स जगत्त्रये ॥१८६५॥ ये कल्पानामनंतामा समयाः सन्ति भी पते ! मातो मृतः समस्तेषु शरीरी तेष्वनेकशः ॥१९६६॥ ग्रहण करता है तब एक कर्म परिवर्तन होता है । दोनोंका समुदायरूप काल एक द्रव्य परिवर्तनका काल होता है। रंगभूमिमें जैसे नट अनेक प्रकारके आकार रूपोंको धारण करता है और विचित्र चेष्टायें करता है वैसे संसार रूपी रंग भूमिमें जीव रूपी नट अनेक आकारसंस्थान धारण करके पुनः छोड़ देता है फिर ग्रहण करता है, इसप्रकार द्रव्य परिवर्तन करता है ॥१८६४॥ क्षेत्र परिवर्तनसीनों लोकों में ऐसा कोई एक प्रदेश भी शेष नहीं है कि जहांपर मेरा यह जीव जन्म से लेकर मरा नहीं हो । सर्व ही प्रदेशों में अनंत बार जन्म मरण किया है ॥१८६५।। विशेषार्थ-लोकाकाशके आठ मध्य प्रदेशोंको ( वे प्रदेश मेरुके जड़में हैं ) अपने शरीरके मध्यमें लेकर जघन्य अवगाहनासे सूक्ष्म निगोदिया जीवने जन्म लिया और क्षुद्र भवप्रमाण (श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण) कालतक जीवित रहकर मरा पुनः उसी अवगाहनासे वही जीव उसी सुमेरुको जड़में उत्पन्न हुआ, उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भागमें जितने प्रदेश हैं उतनी बार उसी स्थान पर जन्म मरण किया । फिर एक प्रदेश आगे बढ़कर जन्म लिया इसतरह एक एक प्रदेश आगे बढ़ाते हुए क्रमशः संपूर्ण लोकको अपना जन्म मरणका स्थान बनाया, इसमें जितना काल लगता है वह एक क्षेत्र परिवर्तन कहलाता है। काल परिवर्तन-- हे यते ! अनंत कल्पकालोंके जितने समय हैं उन सभी समयों में यह संसारी जीव अनेक बार जन्मा और मरा है ।।१८६६।। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५४१ प्रवेशाष्टकमत्यस्य शेषेषु कुरुते भवो । उद्वर्तनपरावर्त संतप्ताप्स्विव तंदुलाः ॥१८६७।। असंख्यलोकमानेषु परिणामेषु वर्तते । शरीरी भव संसारे कर्मभूपयशीकृतः ॥१८६८।। अघन्या मध्यमा पर्या निविष्टाः स्थितयोऽखिलाः । प्रतीतानंतशः काले भवभ्रमणकारिणा ॥१८६६॥ परिणामांतरेगी सर्वदा परिवर्तते ।। वर्णेषु चित्ररूपेषु कृकलास इव स्फुटम् ॥१८७०। विशेषार्थ-उत्सर्पिणीके प्रथम समयमें एक जीवने जन्म लिया और अपनी आयु पूर्ण कर मरा, दूसरीबार उत्पसपिणीके दूसरे समय में जन्मा, फिर तीसरे उत्पसपिणो के तीसरे समयमें जन्मा इसतरह उत्पस पिणीके जितने समय हैं उतनी बार क्रमबार जन्मा शिवबीग. इसी त ह जन्म द्वारा पूरित किया, इसमें जितना काल लगा यह एक काल परिवर्तन है। एक जीवके असंख्यात प्रदेश होते हैं उनमें मध्यके आठ प्रदेश सदा स्थिर रहते हैं, शेष समस्त प्रदेश उद्वर्तन परावर्तन करते रहते हैं अर्थात् ऊपर नीचे घूमते रहते हैं, जैसे अग्नि पर बर्तन में पकने के लिये रखे हुए चावल ऊपर नीचे करते रहते हैं ।।१८६७।। भाव परिवर्तनभव संसारमें कर्मरूपी राजाके वश हुआ यह जोब असंख्यात लोक प्रमाण परिणामोंमें वर्तन करता है अर्थात् एक जीवके अध्यवसान स्थान असंख्यात लोक प्रमाण है। कर्मोंकी जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट तोनों प्रकारको स्थितियों को बांधने में कारणभूत स्थिति बंधाध्यवसान स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं, इन सब भव भ्रमणकारी परिणामोंको अतीत कालमें अनंतबार धारण किया है ।।१८६८।।१८६६।। इन उपर्युक्त परिणामों में संसारी जीव सदा ही परिवर्तन करता रहता है अर्थात् बदल बदलकर अन्य अन्य परिणाम करता है। जैसे कृकलास, सरड, गिरगिट विचित्र वर्ण रूपोंमें परिवर्तित होता रहता है ।।१८७०।। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ ] मरणकण्डिका आकाशे पक्षिणोऽन्योन्य स्थले स्थलविहारिणः । जले मीनाश्च हिसन्सि सर्वत्रापि भयं भवे ।।१८७१॥ विशेषार्थ-नवीन कन्धमें कारमा स्याम और मोग है नाशय परिणामके असंख्यात भेद हैं इन्हें कषाय बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। मनोवर्गणा आदिके आलंबनसे आत्म प्रदेशोंमें कंपन होना योग है, जिसके द्वारा कि आत्मा कर्मवर्गणाको आकृष्ट करता है ग्रहण करता है । इसके असंख्यात भेद हैं । पात्माके परिणाम कर्मों की स्थितिमें कारण हैं तथा अनुभागमें कारण हैं उनको क्रमशः स्थिति बन्धाध्यवसान स्थान और अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थान कहते हैं। कर्मोको जघन्य आदि स्थिति भी असंख्यात प्रकारको है। इसतरह योगस्थान, कषाय अध्यवसाय स्थान, स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान और कर्मस्थितिके भेद ये सब ही असंख्यात लोक असंख्यात लोक प्रमाण हैं । इनका क्रमशः परिवर्तन होने में जो बड़ा भारा काल लगता है वह भाव परिवर्तन कहलाता है । इसका विस्तृत विवेचन जीवकाण्ड आदि ग्रंथोंमें अवलोकनीय है । नरकमें जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट तैतीस सागर प्रमाण है । कोई जीव जघन्य आयु लेकर जन्मा और उसको पूर्ण कर मरा । दूसरी बार भी उतनी ही आयु लो । इसतरह दस हजार वर्षमें जितने समय हैं उतनी बार उसी आय को पाया, फिर एक समय बढ़ाया, दो समय बढ़ाया ऐसे करते हुए तैतीस सागर तक बढ़ाकर आयुको भोगा । तिर्यंच तथा मनुष्यकी जघन्य आय अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्य को है । कोई जीव जघन्य आयु लेकर तियंच हुआ, अन्तर्मुहर्तके जितने समय हैं उतनी बार उसी आयुको लेकर जन्म लिया फिर एक समय क्रमसे बढ़ाते हुए तीन पल्य प्रमाण तक बढ़ाया । ऐसे ही मनुष्य संबंधो आयुको लेकर मनुष्य गतिमें जघन्यसे उत्कृष्ट तक क्रमसे मायुको प्राप्त किया । देवगति में नरकगतिके समान कथन है किन्तु विशेष यह है कि उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर प्रमाए लेना क्योंकि इकतीस सागरसे अधिक आयुवाले देव सम्यग्दृष्टि ही हुआ करते हैं और सम्यग्दृष्टि इन पंच परावर्तनको नहीं करता है । इसप्रकार चार गति संबंधी जघन्यसे उत्कृष्ट तककी आयू को क्रमसे भोगने में जितना अनंतकाल लगता है वह एक भव परिवर्तन कहलाता है । प्रत्येकका काल अनंत होते हुए भो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव इन पंच Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि भधिकार [ ५४३ शयालोमुखमभ्येत्य व्यापारब्धो यथा शशः । मन्यानो विधरं दीन: प्रयाति यममंदिरम् ॥१८७२॥ क्षुत्तृष्णावि महाब्याधप्रारब्धाचेतनस्तथा । प्रज्ञो दु:खकरं याति संसारभुजगाननम् ॥१८७३।। यावन्ति संति सौख्यानि लोके सर्वापु योनिषु । प्राप्तानि तानि सर्वारिण बहुवारं शरीरिणा ।।१८७४।। अवाप्यानंतशो दुःखमेकशी लभते यदि । सुखं तथापि सर्वाणि तानि लब्धान्यमेकशः ॥१७५।। ------ -- -..परावर्तनों में क्रमसे आगे आगे अनंतगुणा अनंतगुणा काल लगता है । मिथ्यात्व आदिके वशीभूत होकर इस मोहो जीबने ऐसे परिवर्तन अनंतबार कर लिये हैं । सम्यक्त्व प्राप्त होनेपर यह परिभ्रमणा अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण द्रव्य परिवर्तनके भेदरूप नोकर्म परिवर्तन प्रमाण शेष रहता है । अत: सर्व प्रयत्न से सम्यक्त्व रत्नको अवश्य हो प्राप्त कर लेना चाहिये । संसारमें सर्वत्र भय है । देखो ! आकाशमें छोटे पक्षियोंको बड़े पक्षी त्रास देते हैं या समान शक्तिवाले पक्षी परस्परमें घात करते हैं । स्थल पर विचरने वाले हिरणादिको सिंहादि पीड़ा देते हैं मारकर खाजाते हैं। जलमें मीन परस्परमें घात करते हैं । एक दूसरेको निगल जाते हैं ।। १८७१।। जैसे खरगोश व्याघ्रसे पीड़ित होकर दौड़ता है और अजगरके मुख में "यह बिल है" ऐसा मानकर घुसता है और यह बेचारा मृत्युको प्राप्त होता है । ठोक इसी प्रकार भूख प्यास आदि रूप महाव्याचसे पीड़ित हुआ यह अज्ञजोव संसाररूपी अजगरके मुस्त्रमें "यहां सुख होगा" ऐसा समझकर प्रविष्ट होता है और बार-बार जन्म मरणके दुःखको पाता है ॥१८७२।।१९७३।। ___ इस लोकमें सर्व योनियों में जितने सुख हैं उन सबको इस जीवने बहुत बार प्राप्त किया है ।।१८७४॥ इस संसारका सुख भो जब अनंतबार दुःखको भोग लेता है तब एक बार प्राप्त होता है अर्थात् अनंतबार दुःख फिर एक बार सुख । पुनः अनंतबार दुःख तो Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ ] मरणकण्डिका स चतुर्भिस्त्रिभिर्वाभ्यामेकेनाक्षेरण वजितः । संसारसागरेऽनंते जायतेऽनन्तशोऽमुमान् ॥१८७६॥ विचक्षुर्बधिरो मूको वामनः पामनः कुणिः । दुर्वी दुःस्वरो मूखंश्चुल्लश्चिपिटनासिकः ।।१५७७॥ ध्याधितो व्यसनी शोको मस्सरोपिशुनः शठः । दुर्भगो गुणवितषी पंचको जायते भवे ॥१८७८।। क्षुधितस्तृषितः प्रातो दुःखभारवशीकृतः । एकाकीदुर्गमे दीनो हिंडते भवकानने ॥१८७६।। - - - - - . एक बार सुख, इस क्रमसे दुःख अधिक समय तक और सुख कम समय तक रहता है तथापि संसारके जो भी इन्द्रिय जन्य सुख हैं उन सभीको भनेकों बार प्राप्त कर चुके हैं ॥१७॥ विशेषार्थ-संसारके राजा, महाराजा, विद्याधर, देव, भोगभूमिज संबंधी सुख इस जीवने अनेकों बार भोग लिये हैं, केवल गणधर, नारायण, प्रतिनारायण, बलदेव, चक्री, पंचानुत्तर विमान वासी देव सौधर्मेन्द्र-इन्द्राणी इनके लोकपाल एवं लोकान्तिक देव इनके सुख प्राप्त नहीं किये हैं, क्योंकि ये स्थान सम्यम्दृष्टि जीव हो प्राप्त करता है तथा इन स्थानोंको प्राप्त करनेवाले जीव आसन्नभव्य या तद्भव मोक्षगामी है । यह जीव अनंत संसार सागर में परिभ्रमण करता है उसमें कभी चार इन्द्रियों से रहित, कभी तीन इन्द्रियोंसे, कभी दो इन्द्रियोंसे और कभी एक इन्द्रियसे रहित होकर जन्म लेता है अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय होता है, एक एक पर्याय में अनंतों बार उत्पन्न होता है । सबसे अधिक काल एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक आदि स्थावरों में व्यतीत होता है, उससे कम दोन्द्रियमें, उससे कम त्रीन्द्रिय में इसप्रकार भ्रमण करता है ॥१८७६।। कभी पंचेन्द्रिय भी होता है तो उसमें नेत्रविहीन होता है, कभी बहरा, मुक, बौना, पंगु, कुबड़ा, बदसूरत, कर्कश वाणी युक्त, मूर्ख, चिड़चिड़ा स्वभाव यक्त, चिपटी नाकबाला, दोघं रोगो, व्यसनी, सदाशोक संतप्त, मत्सरी, चुगलखोर, ठग, शठ, सबको बुरा लगनेवाला-दरिद्री, गुणोंमें द्वेष रखनेवाला, छल-कपटी, ऐसी ऐसी हीन-दोन दुःखो पापमय अवस्थाओंको संसारमें पाता रहता है । संसाररूपी भयानक Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार एकेंद्रियेष्वयं जीवः पंचस्वपि निरंतरम् । उत्थानवीर्यरहितो दोनो बंभूमते चिरम् ।।१८८० ।। चित्रदुःखमहावर्तामिमां संसृतिवाहिनीम् । अज्ञानमिलिती जो गाते पायपासम् ॥१८८१ ॥ इंद्रियार्थाभिलाषारं चंचलं योनितेमिकं । मिथ्याज्ञानमहातु मं दुःखकीलकमंत्रितम् ॥१८८२ ॥ कषायपट्टिकाबद्ध जरामरणवर्तनम् 1 संसारचक्रमारुह्य चिरं भ्राम्यति चेतनः ।। १८८३ ।। वहमानो नरो भारं क्वापि विश्राम्यतिध्रुवम् । न देहभारमादाय विश्राम्यति कदाचन ॥१८८४ ।। [ ५४५ जंगल में दुःखभारसे परवश हुआ यह दीन अनाथ प्रागी भूखा प्यासा, थका, मांदा हुआ अकेला ही हिंडता रहता है- विश्राम रहित सदा परिभ्रमण कर रहा है । आशय यह है कि मनुष्य पर्याय में भी जन्म लेता है तो सुंदर सुभग धनवान् सर्व गुण संपन्न, इन्द्रियों के विकलता से रहित ऐसा बहुत कम हो पाता है ।।१८७७ ।। १८७८ ।। १८७६ ।। + पाँच प्रकारके पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक स्थावर एकेन्द्रिय पर्यायोंमें यह जीव वीर्य एवं बलसे हीन होता हुआ चिरकाल तक भ्रमण करता है इन स्थावरोंमें पोसे जाना, जलाना, बुझाना, पकाना, मसल डालना, छीलना, करोतसे कुल्हाड़ीसे काटे जाने, बहा देना आदि बचनके अगोचर ऐसे महा भयानक दुःखोंको भोगता है ।। १८८०॥ यह संसार विशाल एवं भयावह एक नदी है जिसमें पापरूप जल प्रवाह है, अनेक प्रकारके दुःख रूपी महाआवर्त उठ रहे हैं, उसमें यह अज्ञानसे आकर डूबता है, प्रवाह में बहता जा रहा है ।। १८८१ ।। यह संसार वाहन स्वरूप है, जिसमें इन्द्रियों के स्पर्श रस आदि विषयोंकी अभिलाषा रूपी अर लगे हुए हैं, जो बड़ी तेजी से चल रहा है, कुयोनि जिसकी धुरा है, इसमें मिथ्याज्ञानरूपी तु बा है, दुःखरूपी कीलोंसे नियंत्रित है, कषायरूपी पट्टिकासे बद्ध है, जरा और मरणरूपी दो पहिये वाला ऐसा यह संसार चक्र वाहन गाड़ी या रथ है इसमें आरोहण करके यह वेतन प्राणी चिरकाल तक भ्रमण करता है ।।१८६२ ।। १८८३ ॥ गेहूं आदि अनाजके बोरे आदि भारको ढ़ोनेवाला पुरुष कभी विश्राम प्राप्त कर लेता है किन्तु शरीर रूपी भारको ढोनेवाला यह संसारी प्राणी कभी भी विश्राम प्राप्त नहीं करपाता ।। १८८४ ।। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ ] मरणकण्डिका बमोति जिरं वीरो मोहचतमसावृतः । संसारे दुःखितस्वान्तो विचक्षुरिय कानने ॥१८८५॥ भीतः करोति दुःखेभ्यः सुखसंगमलालसः । अज्ञानतमसा छन्नो हिसारंभाविपातकम् ॥१८८६॥ हिसारंभादिकोषेण महोतनवकल्मषः । प्रदह्यते प्रविष्टोऽडो पावकादिव पावकम् ॥१८८७॥ छंद-स्रग्विणीगल्ता मुचता वारुणं कल्मषं सौख्यकांक्षण जीवेन मूहात्मना । भूम्यते संसृतौ सर्वदा दुःखिना पावनं मुक्तिमार्ग ततोऽपश्यता ॥१८८८।। ॥ इति जन्मानुप्रेक्षा ।। जैसे नेत्र रहित व्यक्ति जंगलमें दुःखी होकर भटकता है वैसे संसार रूपी काननमें यह जीव मोह रूपी महांधकारसे आवृत्त हो दुःखित मन युक्त होकर चिरकाल तक भमण करता है ।।१८८५।। मोही अज प्राणो दुःखोंसे भयभीत रहता है वह सदा सुख प्राप्तिको इच्छा युक्त हो अज्ञान रूप अंधकारसे ढ़क गया है ज्ञान जिसका ऐसा होता हुग्रा हिंसा, झूठ, चोरी आरंभ आदि पातकोंको करता है अर्थात् सुखकी वांछासे पाप कर्म निंद्य कर्म करता है ।।१८८६॥ इसतरह वह हिंसा आरंभ आदि दोष द्वारा नये-नये असाता वेदनीय, नोच-गोत्र नरकायु आदि पापोंका संचय करता है जिससे कुगतिमें प्रविष्ट हो दुःखसे सदा जलता है जैसे एक अग्निसे निकलकर दूसरे अग्निमें प्रवेश करनेवाला सदा जलता रहता है, वैसे एक जन्म में सुखकी इच्छासे हिंसादिको करके पाप संचय करता है और दुःखी हो रहता है पुन: उस पापोदयसे कुगतिमें जन्म होनेके कारण दुःखी होता है ।। १८८७।। सुखकी आकांक्षासे युक्त मूढ़ जीव द्वारा तीव्र पापकर्मका ग्रहण करना और छोड़ना यह कार्य सदा किया जाता है इसतरह सर्वदा दःखी होता है इसलिये परम पावन रत्नत्रय रूप मोक्षमार्गको नहीं देखता है, नहीं जानता है, इसप्रकार संसार में भ्रमण ही करता रहता है ॥१८८८।। भावार्थ-द्रव्यक्षेत्र आदि पंचपरावर्तनों का स्वरूप चिंतन करना, जन्म-मरणके दःख इस जीवने किसप्रकार अनंतबार प्राप्त किये हैं इत्यादिका चितन करना संसार अनुप्रेक्षा है। संसार अनुप्रक्षा समाप्त । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५४७ सर्वे सबैः समं प्राप्ताः संबंधाजंतुनांगिभिः । भवति भमतः कस्य तत्र तत्रास्य बांधवाः ॥१८८६।। माता सुता स्नुषा भार्या सुता कांता स्वसा स्नुषा। पिता पुत्रो नृपो वासो जायतेऽनंतशो भवे ॥१८६०॥ वसंततिलका माता भगिनी कमला च ते । एकत्र धनदेवस्य भार्या डासा भये ततः ॥१८६१॥ लोक अनुप्रेक्षाइस जोवने सभी संसारी प्राणियोंके साथ संबंध प्राप्त कर लिया है उस उस मति और योनिमें भमण करते हुए इसके किसके साथ बंधुता नहीं हुई है ? सबके साथ बंधुता हो चुकी है अथवा अन्य गतिमें जानेपर पहलेके बंधुजन कहां रहते हैं ? अतः बंधु मित्र आदिसे मोह ममता करना व्यर्थ है ।।१८८६।। संसारमें जो पहले माता थी वह पुत्री बन जाती है, पुत्रवधू पत्नी हो जाती है पुत्रो, पत्नी और बहिन, पुत्रवधू बन जाती है, जो पहले पिता था वह पुत्र बनता है । जो राजा था वह दास बनता है, ऐसा यह परिवर्तन अनंतबार होता है ॥१५६०।। देखो ! संसारको विचित्रता! एक ही भव में धनदेव नामके पुरुषके माता वसंततिलका और बहिन कमला ये दोनों पत्नियां हुई थीं ॥१८६१॥ धनदेव (अठारह नाते) की कथामालवदेशकी उज्जनी नगरीमें राजा विश्वसेन, सेठ सूदत्त और वसंततिलका वेश्या रहती थी। सेठ सुदत्त सोलह करोड़ द्रव्यका स्वामी था। उसने घसंततिलका वेश्याको अपने घर में रख लिया। वह गर्भवती हुई और खाज, खाँसी, श्वास आदि रोगोंने उसे घेर लिया। तब सेठने उसे अपने घरसे निकाल दिया । अपने घरमें आकर वसंततिलकाने एक पुत्र और एक पुत्रोको जन्म दिया । खिन्न होकर उसने रत्न कम्बलमें लपेट कर कमला नाम को पुत्री को तो दक्षिण ओर की गलीमें डाल दिया। उसे प्रयाग का व्यापारी सुकेत ले गया और उसने उसे अपनी सुपुत्रा नाम को पत्नी को सौंप दिया तथा धनदेव पुत्र को उसी तरह रस्नकम्बल से लपेटकर उत्तर ओर को गलो में रख दिया । उसे अयोध्यावासो सुभद्र ले गया और उसने उसे अपनी सुव्रता नाम की पत्नी Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ ] मरणकण्डिका को सौंप दिया। पूर्वजन्म में उपाजित पापकर्म के उदय से धनदेव और कमला का आपस में विवाह हो गया। एक बार धनदेव व्यापारके लिए उज्जैनो गया । वहाँ बसंततिलका वेश्यासे उसका सम्बन्ध हो गया। दोनों के सम्बन्ध से वरुण नामका पुत्र हुश्रा । एक बार कमला ने श्री मुनिदत्त से अपने पूर्वभव का वृत्तान्त पूछा । श्री मुनिदत्त ने सब सम्बन्ध बतलाया, जो इस प्रकार है। उज्जैनी में सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम काश्यपी था । उन दोनों के अग्निभूति और सोमभूति नामके दो पुत्र थे । वे दोनों परदेश से विद्याध्ययन करके लौट रहे थे । मार्ग में उन्होंने जिनमति आयिका को अपने पुत्र जिनदत मुनि से कुशलक्षेम पूछते हुए देखा तथा सुभद्रा आयिका को अपने श्वसुर जिनभद्र मुनिसे कुशलक्षेम पूछते हुए देखा । इस पर दोनों भाइयों ने उपहास किया । जवान की स्त्री बूढ़ी और बूढ़े की स्त्री जवान, विधाता ने अच्छा उलट फेर किया है ।' कुछ समय पश्चात् अपने उपार्जित कर्मों के अनुसार सोमशर्मा ब्राह्मण मरकर उज्जैनोमें ही बसन्त लगा की पुत्री वसंततिलका हुई और अग्निभूति तथा सोमभूति दोनों मरकर उसके धनदेव और कमला नाम के पुत्र और पुत्री हए । श्राह्मण की पत्नी व्यभिचारिणी काश्यपो मरकर धनदेव के सम्बन्ध से वसंततिलका के वरुण नाम का पुत्र हुा । इस कथा को सुनकर कमला को जाति स्मरण हो आया । उसने मुनिराज से अणुव्रत ग्रहण किये और उज्जैनी जाकर वसन्ततिलका के घर में घुसकर पालने में पड़े हुए वरुण को झुलाने लगी और उससे कहने लगी (१) मेरे पति के पुत्र होने से तुम मेरे पुत्र हो । (२) मेरे भाई धनदेव के पुत्र होने से तुम मेरे भतीजे हो । (३) तुम्हारी और मेरो माता एक ही है, अत: तुम मेरे भाई हो । (४) धनदेव के छोटे भाई होने से तुम मेरे देवर हो । (५) धमदेव मेरी माता वसंततिलका का पति है, इसलिए धनदेव मेरे पिता हैं। उसके भाई होने से तुम मेरे काका हो । (६) मैं वेश्या वसंततिलका को सौत हूँ अत: धनदेव मेरा पुत्र है । तुम उसके भी पुत्र हो, अतः तुम मेरे पौत्र हो । यह छह नाते बच्चे के साथ हुए। आगे(१) वसंततिलका का पति होने से धनदेव मेरा पिता है । (२) तुम मेरे काका हो और धनदेव तुम्हारा भो पिता है, अतः वह मेरा दादा है। (३) तथा यह मेरा पति भी है । (४) उसको और मेरो माता एक ही है; अतः धनदेव मेरा भाई है। (५) मैं वेश्या वसंततिलका की सौत हूँ और उस वेश्या का वह पुत्र है; अतः मेरा भी पुत्र है । (६) वेश्या मेरी सास है, मैं उसकी पुत्रवधू हूँ और धनदेव वेश्या का पति है; अतः वह मेरा श्वसुर है । ये छह नाते धनदेव के साथ हुए । आगे-(१) मेरे भाई धनदेव Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार संसारे जायते यस्मिन्नपोऽपि खल किंकरः । कोशी क्रियते तत्र रतिनिदानिधानके ॥१८६२॥ विवहाधिपती राजा तेजोरूपकुलाधिकः । जातो तल गहे कोट: मुभोग: पूर्वकर्मभिः ।।१८९३॥ को पत्नो होने से वेश्या मेरी भावज है । (२) तेरे मेरे दोनों के धनदेव पिता हैं और वेश्या उनकी माता है; अतः यह मेरो दादी है । (३) धनदेव को और तेरी भी माता होने से वह मेरी भी माता है । (४) मेरे पति धनदेव को भार्या होने से वह मेरी सौत है । (५) धनदेव मेरी सौत का पुत्र होने से मेरा भो पुत्र कहलाया । उसको होने से वह वेश्या मेरो पुत्रवधू है । (६) मैं धनदेव की स्त्रो हूँ और वह उसको माता है ; अतः वह मेरो सास है । इन अठारह नातों को सुनकर वेश्या धनदेव आदि को भी सब बातें ज्ञात हो जाने से जातिस्मरण हो आया और उन्हें वैराग्य होगया । __जिस संसारमें निश्चयसे राजा भी किंकर हो जाता है उस निंदाके भंडार स्वरूप संसार में रति-प्रेम किसप्रकार किया जाता है ? अर्थात् जो बुद्धिमान है वह संसार में प्रेम नहीं करता ॥१८१२॥ तेज, रूप और कुलसे संपन्न ऐसा विदेह देशका राजा सुभोग पूर्वकर्म के द्वारा विष्ठा घरमें कीड़ा हुप्रा था। जब राजा आदि श्रेष्ठ पुरुषोंकी ऐसी होन अवस्था हो जाती है वहां अन्यकी क्या कथा ! ॥१८६३।। सुभोग राजाकी कथाविदेह देशकी मिथिला नगरीमें राजा सुभोग राज्य करता था, उसकी रानी मनोरमा और पुत्र देवरति था, एक दिन मिथिलाके उद्यान में देवगुरु नामके अवधिज्ञानी आचार्य संघ सहित पाये । राजा उनके दर्शन के लिये गया धर्मोपदेश सुननेके अनंतर राजा ने प्रश्न किया कि मैं आगामी भवमें कौनसी पर्याय धारण करूगा ? मुनिने कहा राजन् ! सुनो पापकर्मोके उदयसे आप बिष्ठामें कीड़ा होवोगे । मुनिराजने मरणकालको निकटता एवं उसके चिह्न भी बताये । राजा उदास हो महल में लौट आया । क्रमशः मृत्युके चिह्न जैसे बताये थे वैसे प्रगट होने लगे जिससे मुनिके वचनों पर पूर्ण विश्वास हुआ । उसने पुत्र देवरति को बुलाकर मुनिके मुखसे सुना हुआ आगामी भवका हाल बताकर कहा कि हे पुत्र ! मैं मरणकर विष्ठागृहमें पंचरंग का कीड़ा होगा। उस Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० ] मरणकण्डिका देवो महद्धको मूत्वा पवित्रगुणविग्रहः । गर्भे वसति बीभत्से थिक्संसारमसारकम् ।।१८६४ ।। नद्यपर्याय में रहना सर्वथा अनुचित है अत: तुम उस कीड़े को मार देना । मुनिराज के कथनानुसार राजा की निश्चित समयपर मृत्यु हो जाती है और वह विष्ठाका कीड़ा बनता है । देवरति उसको देखकर मारना चाहता है किन्तु कीड़ा विष्ठा समूहमें घुस जाता है । अनंतर किसी दिन देवरति किसी ज्ञानी मुनिसे अपने पिताके कीड़ा होना आदिका वृत्तति कहकर पूछता है कि है पूज्यवर ! पिताको इच्छानुसार उनकी इस निद्य पर्याय को नष्ट करने के लिये मैंने प्रयत्न किया किन्तु वह कीड़ा तो विष्ठा में भीतर भीतर घुसता है सो क्या कारण है ? मुनिराजने कहा यह संसारी मोहोप्राणी जहां जिस पर्याय में जाता है वहां उसी में रमता है, यही मोहकी विचित्र लीला है, इस पर्याय बुद्धि के कारण ही आजतक इन जीवोंका कल्याण नहीं हुआ है इत्यादि अनेक प्रकारसे देवरतिको वैराग्यप्रद उपदेश दिया जिससे राजाने भोगोंसे विरक्त हो जिनदोक्षा ग्रहण की। सुभोग राजाकी कथा समाप्त यह जीव पवित्र गुण युक्त-मल, मूत्र, पसीना, रक्त आदि मलिन पदार्थों से रहित वैrियिक शरीर वाला तथा अणिमा, महिमा, लघिमा आदि अष्ट महा ऋद्धियोंसे संपन ऐसा वैमानिक देव होकर पुन: वहांकी आयु पूर्ण होने के अनंतर घिनावने गर्भ में जाकर नौ मासतक बसता है । हाय ! धिक् ! इस असार संसारको धिक्कार है धिक्कार है ।। १८९४ ।। विशेषार्थ भवनवासी, व्यंतर ज्योतिषी और वैमानिक ऐसे देवोंके चार भेद हैं, इनमें आदिके तीन जातिके देवोंसे वैमानिक देवोंके ऋद्धियां अधिक प्रभावशाली हुआ करती हैं। ऋद्धियां आठ हैं- अणिमाऋद्धि- अपने वैऋियिक शरीरको अत्यंत सूक्ष्म बना सकना | महिमा शरीरको बहुत बड़ा बनाना । लघिमा - अर्कतूलवत हल्का शरीर निर्माण कर सकना । गरिमा पर्वत से भी अधिक भारी शरीर बना सकता | प्राप्ति - अपने स्थानपर रहकर हो किसो सुदूरवर्ती स्थानको स्पर्श कर सकना । प्राकाम्यमनचाहा रूप बनाना । ईशत्व - ऐश्वर्यशाली प्रभावशाली होना । वशित्व - सबको वश में रख सकना । देव इन ऋद्धियोंसे संयुक्त तथा और भी अनेक विशेषतानोंसे युक्त हुआ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार यत्र खावति पुत्रस्य जनन्यपि कलेवरम् । तत्तत्रामुत्र वा बंधों शत्रुत्वे कोऽस्ति विस्मयः ।। १८६५ ॥ बंधू रिपू रिपुबंधुर्जायते कार्यतस्ततः । यतो रिपुत्वबंधुत्वे संसारे न निसर्गतः ॥ १८६६॥ वक्रेण विमलाहेतोः सुदृष्टिविनिपातितः । निजांगनांगजो भूत्वा जातो जातिस्मरो बस ।।१८६७॥ [ ५५१ करते हैं । किन्तु आयु समाप्त होते ही यहां मनुष्य भवमें माता के गर्भ में आना पड़ता है । अतः ज्ञानीजन संसारके किसी भी पदार्थ पर स्नेह नहीं करते । जहाँपर माता भी पुत्रके शरीरको खा जाती है वहां बंधु आदि शत्रु बने उसमें क्या आश्चर्य है ? अर्थात् इस लोकके बंधु परलोक में शत्रु बने इसमें क्या प्राश्चयं है ।। १८९५ ।। संसार में अपने कार्यवश बंधुजन भी शत्रु बन जाते हैं और शत्रु भी बंधु बन जाता है अतः शत्रुपना और बंधुपता स्वाभाविक नहीं है ऐसा निश्वयसे जानो ||१८६६।। विमला नामकी स्त्रीके लिये वक्रनामके पुरुषने प्रपने स्वामीको मार डाला था वह मरकर अपनी उसी विमला स्त्रीका पुत्र हुआ, वहां उसको जातिस्मरण हो गया जिससे उसने जान लिया था कि मैं अपने पूर्वकी पत्नोका ही पुत्र हो गया हूँ । हा ! बड़ा खेद है ।। १८६७ । सुदृष्टि सुनारकी कथा उज्जैन में एक सुदृष्टि नामका सुनार था, वह जवाहरात के जेवर बनाने में बड़ा निपुण था, उसकी पत्नी विमला थी वह दुराचारिणी थी अपने घर में रहने वाले विद्यार्थी वसे उसका अनुचित संबंध था । विमलाने एक दिन उस यारसे कहकर अपने पति सुदृष्टि को मरवा डाला । वह मरकर उसी विमलाके गर्भ में आया यथासमय पुत्र हुआ और क्रमश: बड़ा होगया। किसी दिन उस उज्जैन नगरीके राजा प्रजापाल की पट्टदेवी सुप्रभा का मूल्यवान रत्नहार टूट गया । अनेक सुनारोंके पास उसे भेजा गया किन्तु कोई भी उस हारको ठीकसे बना नहीं पाया अन्तमें उसी विमलाके यहां वह हार पहुंचा उसके पुत्रने जैसे ही हारको देखा वैसे उसको जाति स्मरण होगया, उसने हारको तो बना दिया Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ काडमा श्रोत्रियो ब्राह्मणो भूत्वा कृस्वा मानेन पातकम् । सूकरो मंडलः पाणी शृगालो जायते बकः ।।१८६८।। निवां दारिद्रयमश्वयं पूजामन्यवयं स्तुतिम् । स्त्रैणं पोस्नं चिरं जीवः षंढत्वं प्रतिपद्यते ॥१८६६॥ निर्दोषमपि निःपुण्यं सदोष मन्यते जनः । सदोषमपि पुण्याढच निर्दोषं पुरुषः पुनः ॥१९००॥ किन्तु उस दिनसे अत्यंत उदास रहने लगा। राजाको हारके ठीक हो जानेसे बड़ी प्रसन्नता हुई थी अतः उसने उस सुनार पुत्र को बुलाकर पूछा कि इस हारको कोई बना नहीं पा रहा था तुमने कैसे बनाया ? तब उसने एकांतमें अपना पूर्वभवसे अब तक सारा वृत्तांत सुनाया 1 राजा प्रजापाल पाश्चर्यचकित हो गया, उसे इस विचित्र भव परम्परा को देखकर वैराग्य हुआ । सुनार पुत्र तो पहलेसे ही उदास हो चुका था, उसका मन ग्लानिसे भरा था कि अहो ! यह कैसा परिवर्तनशील संसार है ! जहां स्वयंकी पत्नी से पतिका जन्म पुत्र रूपसे होता है । धिक ! धिक ! मोहतम को ! इसप्रकार विचार कर उसने अपना कल्याण किया। सुदृष्टि सूनारको कथा समाप्त । कोई जीव श्रोत्रिय ब्राह्मण होकर मान-गर्म द्वारा पापकर्म बंध करता है और उससे शूकर, कुत्ता, चंडाल, सियार और बगुला हो जाता है। अभिप्राय यह है कि जो पहले उच्च पर्याय में था वही नीच पर्यायमें जन्म लेता है ।।१८६८।। यह जीव कभी निंदाका पात्र बनता है, कभी दरिद्री तो कभी ऐश्वर्यशाली होता है, कभी आदर, वैभव और स्तुति प्रशंसाको प्राप्त करता है, यह चिरकाल तक स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसक वेदको अनेकों बार प्राप्त करता है । अर्थात् किसी एक अवस्थामें सदा नहीं रहता है ॥१८६६।। जिसके पापका उदय है उसको निर्दोष होते हुए भी लोक सदोष मानने लग जाते हैं और जिसके पुण्यका उदय है उसको लोक दोषयुक्त होनेपर भी निर्दोष समझते हैं ।।१९००॥ स्वभावसे समान होनेपरभो कोई व्यक्ति तो जीवोंको प्रिय लगता है और कोई Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५५३ छंद-वंशस्थनिसर्गतः कोपि समेऽपि वल्लभो विचेष्टतेऽज्योऽसुमलामवल्लभः । समानरूपे सति चंत्रिकोदप्रियो हि पक्षो अवलः प्रियोऽपरः ।।१६०१।। छन-वंशस्थ --- विचित्य मानं जगतो विचेष्टितं विचित्र रूपं भयदायि दुर्गमम् । करोति वैराग्यमनन्य गोचरं गुहिलं पूर्णमिलि ।। १६.२६ छंद-उपजातिलोकस्वभावं चपलं दुरंतं दुःखानि दातु सकलानि शतम् । निरीक्षमाणा न बुधा रमते भयंकर व्यानमिवानिवार्यम ||१९०३॥ ॥ इति लोकानुप्रेक्षा ।। अप्रिय लगता है । जैसे चन्द्रमाको चांदनीका समान उदय होनेपर भी लोगोंको शुक्ल पक्ष प्रिय लगता है और कृष्णपक्ष अप्रिय लगता है (शुक्ल पक्षमें पहली रातमें चन्द्रमा उदित रहता है और कृष्णपक्षमें पिछलो रातमें उदित रहता है अतः शुक्लपक्षमें पहली रातमें चांदनी रहतो है तथा कृष्णपक्षमें पिछली रात में । फिर भी शुक्लपक्ष मंगल कार्य आदिमें उपयुक्त माना जाता है) ।।१६०१॥ इसप्रकार जगतकी विचित्र चेष्टायें जानकर विचार कर तथा मान-गर्व अत्यंत दुःख तथा भयको देनेवाला है ऐसा सोचकर जो बुद्धिमान व्यक्ति है वह वैराग्य भाव को प्राप्त होता है, कैसे वैराग्यको प्राप्त होता है ? जो जनसाधारणके अमोचर है तथा अत्यंत कठिन है । ऐसे वैराग्यको लोकके स्वरूपका विचार करनेवाला पुरुष इसतरह धारण करता है मानो पहलेसे प्राप्त किया हो उस में अभ्यस्त हो । प्राशय यह है कि संसारकी विचित्र लीलाको जो भली प्रकारसे जान लेता है उसको अत्यंत दृढ़ वैराग्य उत्पन्न होता है ।।१९०२।। ___ यह लोक अत्यंत चपल है, दुरंत है, समस्त दुःखोंको देने में समर्थ है, इसतरहके स्वभाववाले लोकको देखनेवाले ज्ञानीजन उसमें रमते नहीं हैं, जैसे जिसको रोकना अशक्य है ऐसे भयंकर व्याघ्रको देखनेवाले पुरुष उस में रमते नहीं हैं अर्थात जैसे व्याघ्रसे भय होता है उसमें प्रीति रति नहीं होती, वैसे ज्ञानीको लोक-जगत या जगतके यावन्मात्र चेतन अचेतन पदार्थों में प्रीति नहीं होती वह हमेशा लोकसे डरता रहता है ।।१९०३।। लोकभावनाका वर्णन समाप्त । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ ] मरक foret प्रशुभाः संति निःशेषाः पुंसां कामार्थविग्रहाः । शुभोऽत्र केवलं धर्मो लोकद्वयसुखप्रदः ॥१६०४।। अर्थो मूलमनर्थानां निर्वाणप्रतिबंधकः । लोकद्वये महादोषं दत्ते पुंसां दुरुत्तरम् ।।१६०५३। निद्यस्थानभवाः कामा भीमा लाघवहेतवः | दुःखप्रचा द्वये लोके स्वरूप काला: सुदुर्लभाः ।।१६०६ ।। मांस लिप्तासिरामा कुथितास्थिपति सतां कायकुटी कुत्स्या कुथिसे विविधैर्भूता ॥१६०७ ॥ निसर्गमलिनः कायो धाव्यमानो जलादिभिः । श्रंगार इव नायातिस्फुटं शुद्धि कदाचन ॥। १६०८ ॥ अशुचि भावना - इस जगतमें पुरुषोंके कामभोग, धन और शरीर ये इस जगत में केवल एक धर्म ही शुभ है, इस लोक और ।।१९०४।। सब ही अशुभ - अशुचि हैं, परलोक में सुखदायी है संपूर्ण अनकी जड़ अर्थ है यह अर्थ मोक्षका प्रतिबंधक है, अर्थ दोनों लोकों में जिसका दूर करना अत्यंत कठिन है ऐसे महादोषको पुरुषोंके लिये देता है अर्थात् अर्थधनके निमित्तसे संसारी प्राणो, हिंसा करते हैं, चोरी, असत्य आदि पाप करते हैं इससे राजा द्वारा दण्डित होने से इस लोक में महादुःखको प्राप्त होते हैं और परलोक में नरकादि गति में महादुःख भोगते हैं ।। १६०५ ।। ये कामभोग विद्यस्थान से उत्पन्न होते हैं, भयंकर हैं, आत्माको अत्यंत लघु-हीन करने हेतु हैं, दोनों लोकोंमें दुःखदायी हैं, अल्पकाल तक रहनेवाले हैं और बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं ।। १९०६ ।। यह मानव शरोररूपी कुटो-झोंपड़ी मांसरूपी मिट्टी से लोपो गयी है, वसाओंसे बंधी है, कुथित अस्थिरूप पत्तोंसे छाई हुई है और विविध घनावने पदार्थोंसे भरी हुई है ऐसी यह कुटी सदा हो सज्जनों द्वारा ग्लानि करने योग्य है ।।१९०७ ।। यह शरीर स्वभावसे मलिन है, जलादिसे धोनेपर भी कोयले के समान कभी भी शुद्धिको प्राप्त नहीं होता ।। १६०८ ।। Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५५५ छंद-उपजाति-- मेध्यान्यमेध्यानि करोयमेध्यं सद्यः शरीरं सलिलानि नूनम् । अमेध्यमिश्राणि पुनः शरीरं न तानि मेध्यं विवधात्यमेध्यम् ।।१९०६॥ अमेध्यनिर्मितो देहः शोध्यमानो जलादिभिः । अमेध्यविविधः पूर्णो न कुभ इव शुञ्जयति ॥१६१०॥ _ छंद-उपेन्द्रवज्ञा-- भवन्ति जल्लोषधयो मुनोन्द्रा धर्मेण देवाः प्रणमन्ति सेन्द्राः । यतस्ततो नास्ति ततः प्रशस्तः कल्याणविश्राण न कल्पवृक्षः ॥१६११॥ ॥ इति प्रशुच्यनुप्रेक्षा ॥ दुःखोदके भवाम्भोधों कषायेंद्रियवाचरैः । प्रास्रवः कारणं नेयं भ्रमतो भवभागिनः ।।१९१२॥ यह अशुचि शरीर पवित्र जल को तत्काल अपवित्र कर देता है। जल स्वयं अशुद्ध अपवित्र नहीं है किन्तु अशुचिर्स मिश्रित होनेसे अशुचि बनता है, पवित्र जल शरीरको पवित्र नहीं बना पाता किन्तु अपवित्र शरीर पवित्र जलको अवश्य अपवित्र कर डालता है ॥१६०६।। अशुचि-मांसरक्त आदिसे निर्मित यह शरीर जलादिके द्वारा धोये जानेपर भी शुद्ध नहीं होता, जैसे विविध मल, मूत्र, थूक आदिसे भरा हुआ घट बाहरसे जलसे धोये जानेपर भो शुद्ध नहीं होता ।।१९१७।। इस जगत में शुचि पवित्र पावन यदि कोई पदार्थ है तो वह रत्नत्रय रूप धर्म ही है, इस धर्म द्वारा मुनिजन जल्लोषधि आदि ऋद्धियोंसे संपन्न हो जाते हैं, धर्मसे युक्त मुनीन्द्रोंको इन्द्रसहित सकलदेव वंदना करते हैं। जिसकारणसे धर्मद्वारा मानव पूज्य होता है उस कारणसे धर्मसे अन्य कोई प्रशस्त पवित्र वस्तु नहीं है, धर्म ही संपूर्ण कल्याण-सुख परंपराको देनेवाला कल्पवृक्ष है ।।१६११॥ अशुचि भावना समाप्त । आस्रव भावनाका कथनकषाय और इन्द्रियरूपी जलचर मगरमच्छोंसे भरे दुःखरूपी जलसे युक्त इस संसाररूपी सागरमें संसारी जीवोंको परिभ्रमण करानेका हेतु आस्रव है ऐसा जानना Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ ] मरकण्डिका कर्मास्त्रवति जीवस्य संसारे विषयादिभिः । सलिलं विविधं रन्ध्रः पोतस्यैव पयोनिधौ ॥१६१३ ।। कर्मसंबंधता जाता रागदेषाक्तचेतसः । स्नेहाभ्यक्त शरीरस्य रजोराशिरिवानिशम् ॥१६१४॥ अदृश्यैश्चक्षुषा दृश्यः स्थूलैः सूक्ष्मैश्च पुद्गलैः । विविधनिचितो लोकः कुभो धूर्मरिवाभितः ॥ १६१५।। मिथ्यात्वाव्रतकोपादियोगानश्रास बान्विदुः I मिथ्यात्वमर्हदुक्तानां पदार्थानामरोचनम् ॥१६१६।। हिंसादयो मता दोषाः पचाप्यव्रतसंज्ञकाः । कोपादयः कषायाः स्यूराग षद्वयात्मकाः ।।१६ १७ ॥ चाहिये । अर्थात् जीवके संसार परिभ्रमणका कारण कर्म है और उस कर्मका भी कारण मिथ्यात्व आदि आस्रव है ।। १६१२ ।। संसारमें इस जीव के पंचेन्द्रियोंके स्पर्शादि विषयों द्वारा कमका आस्रव होता है, जैसे समुद्र में स्थित जहाज के विविध छिद्रों द्वारा जल आता है ।।१९१३ ।। राग और द्वेषसे व्याप्त चित्तवाले जीवके कर्मोंका संबंध होता है, जैसे तैलकी मालिश से युक्त शरीर के सतत धूल मिट्टिका संबंध होता है ।। १६१४|| यह लोक नेत्रद्वारा अदृश्य ऐसे सूक्ष्म पुद्गलों से तथा दृश्यमान विविध स्थूल पुद्गलोंसे ठसाठस भरा हुआ है, जैसे कोई घट धुंआसे चारों ओरसे भरा होता है । अर्थात् लोकमें सूक्ष्म और बादर दोनों प्रकारके पुद्गल निरंतर रूपसे व्याप्त हैं ।। १९१५ ।। मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग ये आस्रव हैं। इनमें अर्हत भगवान के द्वारा प्रतिपादित जीवादि पदार्थोंको अरुचि करना अर्थात् सात तत्त्व छह द्रव्य आदिपर श्रद्धान नहीं होना मिथ्यात्व नामका आस्रव भाव जानना चाहिये ।।१९१६ || हिंसा, झूठ, चोरी, कुशोल और परिग्रह ये पांच दोष अव्रत या अविरति भाव हैं । क्रोधादि कषाय भाव अनेक हैं, वे राग और द्वेष इन दो में अन्तर्भूत होते हैं ।। १९१७ ।। अहो आश्चर्य है कि शरीरके स्वभावको जाननेवाले पुरुषको भी रागभाव घिने शरीर में कैसे रंजायमान कराता है तथा बांधवोंको क्षणमात्र में कैसे द्वष्य द्वेष Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५५७ जानंतं कुथिते काये रागो रंजयते कथम् । बांधवं कुश्ते ध्यं द्वषो हि क्षणतः कथम् ।।१९१८॥ कल्मषं कार्यते घोरं सदष्टिरपि येजनः । रागद्वेषविपक्षास्ताधिक्संज्ञागौर वात्मनः ॥१६१६।। विषयेष्वभिलाषो यः पुरुषस्य प्रवर्तते । न ततो जायते सौख्यं पातकं बध्यते परम् ॥१९२०॥ इंद्रियार्थसुखे येन मानुष्यं प्राप्य योज्यते । भस्मार्थ प्लोषते काष्ठं महामौल्यमसौ स्फुटम् ॥१६२१॥ नत्ये योऽनसुखं मुढो धर्म मुक्त्वा निषेवते । लोष्ठं गहात्यसौ मुक्या रत्नद्वीपेऽनघं मणिम् ॥१६२२।। - ... - . . .----- करने योग्य बनाता है अर्थात् रागभाव घिने शरीरमें तो प्रीति कराता है और हितकारी बांधवोंमें देष कराता है। जिनके ऊपर प्रेम करना चाहिये उनपर दोष कराता है और जिनके ऊपर द्वष करना चाहिये उनपर राग-प्रीति कराता है ॥१६१८॥ जिन रागद्वेष द्वारा सम्यग्दृष्टि जीव भी घोर पाप करता है उन रागद्वेषरूपी वैरियोंको धिक्कार है, आहारादि संज्ञा तथा ऋद्धि गौरव आदि गौरव रूप रागद्वेषको धिक्कार है ।। १६१६॥ पुरुषके पंचेन्द्रियों के मनोहर स्पर्शादि विषयोंमें जो अभिलाषा होती है उससे सख नहीं होता किन्तु उल्टे पापबंध ही होता है अर्थात् विषयों की इच्छा करनेसे कोई सुख नहीं होता इच्छा या अभिलाषा तो महान् कर्मबंधका हेतु है। तीव्र विषयाभिलाषासे अविरतिरूप भाव होते हैं हिंसा, झूठ आदि पापचार भी तीन अभिलाषासे होता है और उससे कर्मोंका महान् आस्रव होता है ।।१९२०॥ जो महादुर्लभ मानव जन्मको प्राप्त करके उस मानव पर्यायको इन्द्रियों के विषयसुख में लगाता है, वह निश्चयसे महामूल्यवान हरिचंदन आदिरूप श्रेष्ठ काष्ठको राखके लिये जलाता है अर्थात् जैसे राख के लिये चंदन जलाना मुर्खता है वैसे इन्द्रिय सुखके लिये मानव पर्याय गमाना मूर्खता है ।। १६२१।। जो मूढ़ मानवपर्याय प्राप्त करके धर्मको छोड़कर इन्द्रिय सुखका सेवन करता है वह रत्नद्वीपमें अत्यंत मूल्यवान् रत्नको छोड़कर लोह या ढेलेको ग्रहण करता है । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्डिका यो नृत्वे सेवते भोगं हित्वा धर्ममकल्मषम् । असौ विमुच्य पीयूषं विषं गृहाति नंदने ।।१९२३॥ योगः कर्मास्त्रवं दुष्टो मनोवाक्कायलक्षणः । यथा भुक्तो दुराहारो विदधाति व्रणालवम् ।।१६२४।। प्रास्त्रवं कुरुते योगो विशुद्धः पुण्यकर्मणाम् । विपरीतः परं सद्यः सेवितः पापकर्मणाम् ॥१९२५॥ अर्थात रत्नद्वीपमें जाकर कोमती हीरा आदि रत्नोंको खरीदना चाहिये किन्तु कोई मूर्ख वहांपर जाकर भी लोहेको खरीदे तो उसकी बड़ी भारी अज्ञानता मानी जायगी । ठीक इसीप्रकार मनुष्य जन्म में आकर रत्न अयधर्मको आराधना करनी चाहिये । किन्तु कोई मढ़ विषय सेवन करे तो वह अज्ञानता है ।।१९२२।। जो मनुष्य जन्ममें निर्दोष धर्मको छोड़कर भोगको भोगता है वह नंदनवन में पहुंचकर भी अमृतको छोड़कर विषको ग्रहण करता है, पीता है ।।१९२३।। मन, वचन और कायको खोटो चेष्टारूप योग पापकर्मके आसवको करता है, जैसेकि खाया गया खोटा-अपथ्य आहार वण-धावमें आस्रव पोपको पैदा करता है ॥१६२४।। मन, वचन, कायकी विशुद्ध--शुभ चेष्टारूप योग सातावेदनीय आदि पुण्यकर्मोके आस्रवको करता है और इससे विपरीत मन, वचन और कायको अशुभचेष्टारूप सेवित किया गया योग तत्काल पापकर्मोके आस्रवको करता है ॥१९२५॥ विशेषार्थ-दया दान, पूजा आदिके भाव होना मनकी शुभचेष्टा है, प्रिय हित धर्म आदि रूप वाणी बोलना वचनको शुभ चेष्टा है। धैयावृत्त्य करना, परोपकार पूजा भिषक तीर्थयात्रा आदि रूप शरीरकी चेष्टा शुभकाययोग है । इन शुभ योगों द्वारा सातावेदनीय देवगति देवायु, उच्चगोत्र आदि पुण्यकर्मोंका आस्रव होता है तथा क्रूरभाय दूसरेको पीड़ा देने के भाव आदि मन को अशुभचेष्टा है, कर्कश, पिशुनता, मर्मभेदी इत्यादि वचन बोलना वचनको अशुभ चेष्टा है, शरीर द्वारा किसोका घात करना, चोरी करता धर्म विरुद्ध आचरण, व्यसन आदि रूपकायकी अशुभ प्रवृत्ति है इन अशुभ योगों द्वारा असातावेदनीय, नरकगति, नरकायु, नौगोत्र आदि पापकर्मोंका आस्रव होता है । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार छंद-उपजातिकुवर्शनावृत्त कषाययोगीयो भवे मज्जति कर्मपूर्णः । दुरापपारे विवरैरनेकः पोतः पयोषाविव वारिपूर्णः ॥१९२६॥ ॥ इत्यालवानुप्रेक्षा ।। मिथ्यास्थमास्रवद्यारं पिषते तत्त्वरोचनम् । संयमासंयम सयो गृहीत्वारमिवाररे ।।१९२७।। कषायतस्करा रौद्रा दयादमशमायुधः । शक्यंते रक्षितु विध्यरायुधरिव तस्कराः ॥१९२८॥ इन्द्रियारवा नियम्यते वैराग्यखलिनेह ढः । उत्पथस्थिता दुष्टास्तुरगाः खलिनरिव ॥१९२६॥ मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योगों द्वारा कौके भारसे युक्त हआ जीव भवसागरमें डूब जाता है, जैसे जिसका पार पाना कठिन ऐसे समुद्र में अनेक छिद्रों द्वारा जलसे भरी हुई नौका डूब जाती है ।।१९२६।। आस्रव अनुप्रेक्षा समाप्त संवर अनुप्रेक्षाका वर्णनसम्यग्दर्शन, मिथ्यात्व आस्रव द्वारको ढक देता है तथा देशसंयम और सकलसंयम रूप व्रतोंको ग्रहण करके यह जीव अविरति नामा आस्रवद्वारको ढक देता है जैसे कोई पुरुष द्वारको बंदकर अर्गला-सांकल या कुदो लगाकर बाहर से प्रानेवाले चोर आदिको रोक देता है ।।१९२७।।। क्रोधादि कषायरूप क्रूर चोर-डाक लुटेरोंको दया, इन्द्रियदमन और उपशम भावरूप शस्त्रों द्वारा रोकना शक्य है अर्थात् कषायोंको दम शम आदि भावों द्वारा रोकना चाहिये । जैसे धनके चुरानेवाले डाकू आदिको दिव्य शस्त्रों द्वारा रोकना शक्य है अथवा शस्त्र द्वारा चोर डाकूको खदेड़कर धनकी रक्षा करना शक्य है ॥१९२८।। खोटे कुगतिके मार्ग में जाते हुए दुष्ट इन्द्रिय रूपी घोड़े बैराग्यरूपी मजबूत लगाम द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं । जैसे गड्ढे ऊबड़ खाबड़ भूमिरूप खोटे मार्ग में जाते हुए दुष्ट Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० । भरणकण्डिका नाक्षस निगृह्यन्ते भौषणाश्चलमानसः । वंदशूका इव ग्राह्या विद्यासंवादजितः ॥१९३०॥ अप्रमादकपाटेन जीवे योगनिरोधनम् । क्रियते फलकेनेव पोते जलनिरोधनम् ॥१६३१॥ कर्मभिः शक्यते भेत्तन चारित्रं कदाचन । सम्यग्गुप्तिपरिक्षिप्तं विपक्षरिव पत्तनम् ॥१९३२।। घोड़े लगाम द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं ॥१९२९॥ चंचल मनवाले पुरुषों द्वारा इन्द्रियरूपी भीषण सप निगृहीत नहीं किये जा सकते । जैसे विषापहार मंत्र विद्या औषधि आदिसे रहित व्यक्ति द्वारा गिरे नार्प पा नहीं जा पा ॥१६३। भावार्थ- इन्द्रियोंको वश तब कर सकते हैं जब मन चपल न हो, मनको स्वाधीन कर लेनेपर इन्द्रियां अपने-अपने विषयोंके तरफ नहीं दौड़ती अत: कहा है कि चंचल मनवाले पुरुष इन्द्रियरूपो सर्पको निगृहीत नहीं कर सकते । जीवमें अप्रमाद रूप कपाट द्वारा मनोयोग आदि आस्रवोंका निरोध किया जाता है, जैसे नावमें फलक द्वारा जसका निरोध किया जाता है ॥१९३१।। विशेषार्थ-प्रमाद पंद्रह प्रकारका है-भक्तकथा, स्त्रीकथा, राजकथा, राष्ट्रकथा, ये चार विकथायें तथा चार क्रोधादिकषाय, पांच इन्द्रियां, निद्रा और स्नेह । स्वाध्याय आदि द्वारा विकथा प्रमादको, क्षमादि द्वारा कषायप्रमादको, अवमोदर्य एवं रसत्याग आदि द्वारा निद्राप्रमादको और बंधुत्व आदिके क्षणिकपने के चिंतन द्वारा स्नेह नामा प्रमादको जीतना चाहिये । इसतरह अप्रमाद भाव द्वारा प्रमादजन्य आसवको रोकना चाहिये । जैसे परिखा द्वारा देष्ठित नगर प्रतिपक्षी राजा द्वारा ध्यस्त नहीं किया जा सकता वैसे समीचीन मनोगुप्ति आदि द्वारा युक्त चारित्र कभी भी कर्म द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता ।।१९३२।। भावार्थ-मनोगुप्ति-वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्तियां परम संवर का सर्वोत्कृष्ट हेतु हैं, गुप्तिसे संयुक्त मुनिराजोंके नियमसे कर्मास्रव रुक जाता है-संबर होता है । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५६१ गुणबंधनमारा संयतः समितिप्लवं । हिंसादिमकराग्रस्तो जन्मभोधि विलंघते ॥१६३३।। द्वारपाल इष द्वारे यस्यास्ति हृदये स्मृतिः । दूषयति न तं दोषा गुप्तं पुरमिवारयः ॥१६३४।। न यस्यास्ति स्मृतिश्विसे स बोस्यते स्फुटम् । असहायोऽखिर म विचारव परिभिः ॥१९३५।। छद-रचोखताज्ञानवर्शनचरित्रसंपदं पूर्णतां नयति स व्रती स्फुटम् । यो विमुञ्चति परोषहारिभिर्बाधितोऽपि न कदाचन स्मृतिम् ॥१९३६॥ ॥ इति संवरानुप्रेक्षा ॥ सम्यक्त्व आदि गुणरूप बंधनसे युक्त समिति रूप नौका पर आरोहन करके मुनिराज हिंसा आदि मगरमच्छोंसे पीड़ित नहीं होते हुए जन्मरूप सागरका उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् ईर्या समिति आदि पंचसमितियोंसे संवर होता है ।। १६३३।। जिसके हृदय में दरवाजे पर द्वारपालके समान वस्तुतत्त्वको स्मति मौजद है उस साधुको दोष दूषित नहीं कर सकते, जैसे सुरक्षित नगरको शत्रुगण नष्ट नहीं कर सकते हैं ।।१९३४।। जिसके हृदय में वस्तु तत्त्वको स्मृति नहीं है अर्थात् जो साधु समीचीन तत्त्व चिंतन में स्थिर नहीं होता वह नियमसे दोषों द्वारा ग्रस्त होता है, जैसे नेत्रविहीन और सहायता रहित पुरुष शीघ्र ही समस्त वैरियोंसे पराभूत हो जाता है १६३५।। जो मुनि परीषह रूपी शत्रु द्वारा बाधित होनेपर भी कभी भी तत्त्वको स्मतिको नहीं छोड़ता, वह साधु निश्चयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपी संपदाको पूर्ण रूपसे प्राप्त करता है अर्थात् परीषहों पर विजय प्राप्त करनेसे कर्मोंका संवर होता है एवं रत्नत्रय पूर्ण होता है ।। १९३६।। विशेषार्थ-यहांपर संवरभाबनाके प्रकरणमें मिथ्यात्व आदि आस्रवोंको सम्यक्त्व आदि द्वारा रोकने का उपदेश दिया है। मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय और योग ये आस्रव भाव हैं। इनमेंसे मिथ्यात्वरूप आलवको तत्त्वज्ञानरूप सम्यग्दर्शनसे रोकना चाहिये । अविरतिको असंयम भी कहते हैं, पांच इन्द्रियां और छठा Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ) मरण कण्डिका यो मुनिर्यवि शुद्धात्मा सर्वथा कर्मसंवरम् । करोति निर्जराकांक्षी सिद्धये विविधं तपः ॥१९३७।। न कर्मनिर्जरा जन्तोर्जायते तपसा विना । संचितं क्षीयते धान्यमुपयोगं विना कुतः ॥१६३८॥ पूर्वस्य कर्मणः पुंसो निर्जरा द्विविधा मता । प्राधा विपाकजात द्वितीया त्व विपाकजा ॥१९३९।। नानाविधानि कर्माणि गृहीतानि पुराभवे । फलानीव विपच्यते कालेनोपक्रमेण च ।।१९४०॥ -- . . - ...---- मन इनको अपने-अपने स्पर्शादि विषयों में जो प्रवृत्ति है उसको रोकनेसे इन्द्रिय अविरतिरूप पासव रुकता है तथा षटकाय जीवोंके घातरूप अविरति बाला आस्रव अहिंसा आदि व्रतों द्वारा तथा समिति द्वारा रोका जाता है । विक्रथा आदि प्रमादरूप आस्रव स्वाध्याय तपोभावना आदि द्वारा रोकना चाहिये । कषायरूप आस्रव क्षमा आदि दशधर्म, गुप्ति, परीषय, जय आदिसे रुक जाता है । योगरूप आसव तो अंतमें यथाख्यात चारित्रको पूर्णतारूप अयोग केवली अवस्था में रुकता है । इसप्रकार संवरका स्वरूप जानना-संवरका चितन करना संवर अनुप्रेक्षर है। संवर अनुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त। निर्जरा अनुप्रक्षाका स्वरूपजो शुद्धात्मा मुनि यदि सर्वथा कर्मसंबरको करने में उद्यमी है वह निर्जराका आकांक्षी हुआ मोक्षके लिये विविध प्रकारके तपश्चरणको करता है ।।१९३७॥ तपके बिना जोबके कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती है, जैसे संचित किया गया धान्य उपयोगमें लाये बिना-भोजन प्रादिके काम में लाये बिना समाप्त नहीं होता है ।।१९३८॥ जीव के पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा दो प्रकारको मानी है, एक विपाक निर्जरा और दूसरी अविपाक निर्जरा ॥१९३९।। पूर्वजन्ममें ग्रहण किये गये अनेक प्रकार के कर्म कालके अनुसार तथा उपक्रमसे दोनों प्रकार से फल देकर निर्जीर्ण होते हैं, जैसे फल यथा समय और समयके पहले पक जाया करते हैं। अर्थात् किसी कर्मोकी निर्जरा अपना समय Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५६३ कालेन निर्जरा ननमुवीर्णस्यय कर्मणः । तपसा क्रियमाणेन कर्म निर्जीयतेऽखिलम् ॥१६४१॥ अनिर्दिष्टफलं कर्म तपसा दह्यते परम् । सस्य हुताशनेनेत बहुभेदमुनिता ? तपसादीयमानेन नाश्यते कर्मसंचयः । प्राशुशुक्षणिना क्षिप्रं दीप्तेनेव तृणोरकरः ॥१९४३।। स्वयं पलायते कर्म तपसा विरसीकृतम् । रजोऽवतिष्ठते कुत्र नीरसे स्फटि केऽमनि ॥१९४४॥ तपसाध्मायमानोऽङ्गो क्षिप्रं शुद्धधति कर्मभिः। पाषाणः पावकेनेव कानकः सकलमलेः ॥१९४५।। पानेपर होती है और किसोको समयके पहले तपश्चरण द्वारा होती है। आम आदि फल जैसे समयपर डालमें पकते हैं और कोई बिना समयके प्रयोग द्वारा पालमें शीघ्र पकते हैं । १६४०॥ अपना समय पाकर जो कर्मोको निर्जरा होती है वह तो केवल उदयावलो में आये हुए कर्मनिषकोंकी होती है, किन्तु तपश्चरण द्वारा अखिल कर्म निर्जीणं होता हैनष्ट होता है ।।१९४१।। जिसका फल जीवको प्राप्त नहीं हुआ है ऐसा कर्म तपरूप अग्नि द्वारा भस्मसात हो जाता है, जैसे गेहूँ, चावल, मूग आदि बहुत भेदवाला एकत्रित किया धान्य अग्नि द्वारा भस्मसात् होता है । अर्थात तपश्चरण द्वारा फल भोगे बिना ही कर्मोको निर्जरा होती है ।।१९४२॥ मुनिजन ग्रहण किये गये तपश्चरण द्वारा कर्मों के समहको क्षणभरमें नष्ट कर देते हैं जैसे जलायी गयो अग्नि द्वारा तृणोंका समूह शीघ्र नष्ट हो जाता है ।।१६४३॥ तप द्वारा शक्तिहोन हुआ कर्म स्वयं पलायमान हो जाता है ठोक ही है, चिकनाईसे रहित स्फटिक पाषाण में क्या कहीं धूल ठहरती है ? नहीं ठहरती । उसीप्रकार तपश्चरण करनेपर कर्म नहीं ठहरता निर्जीर्ण हो जाता है ।।१९४४।। यह संसारी जीव तपरूपी अग्निके द्वारा धौंकने पर कर्ममलसे शीघ्र शुद्ध हो Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका मोक्षः संवरहीनेन तपसा न जिनागमे । रविणाशोष्यते नोरं प्रवेशे सति कि सरः ॥१९४६॥ छंद-रथोद्धतादर्शनद्विपमधिष्ठितो बुधो लग्यबोधसचिवस्तपः शरैः । कर्मशत्रुमपहत्य संवृतः सिद्धिसंपदमुपैतिशाश्वतीम् ॥१९४७।। ॥ इति निर्जरा ॥ जाता है, अर्थात् तपसे कर्म नष्ट होनेसे आत्मा शुद्ध बनता है, जैसे कनक पाषाण अग्नि द्वारा समस्त मलोंसे रहित शुद्ध हो जाता है ।।१९४५।। संवरसे रहित तपश्चरण द्वारा मोक्ष प्राप्त नहीं होता है, ऐसा जिनागम में कहा है, ठीक ही है देखो! जिस सरोवर में सोरसे नया पानीका सोत प्रविष्ट हो रहा है वह सरोवर क्या सूर्य द्वारा सुखाया जा सकता है ? नहीं सुखाया जा सकता । वैसे ही नये कर्मका आगमन यदि हो रहा है तो तपसे कर्मोका नाशरूप मोक्ष नहीं हो सकता है ॥१९४६।। सम्यग्दर्शनरूपो हाथी पर जो बैठा है, सम्यग्ज्ञानरूपी मंत्री जिसको प्राप्त है, ऐसा संवरयुक्त मुनिरूपी राजा कर्मरूपी शत्रुका नाश करके शाश्वत सिद्धिरूपी संपदाको प्राप्त करता है ॥१९४७॥ विशेषार्थ-निर्जरा भावनामें निर्जराके स्वरूप एवं भेदादिका चिंतन चलता है । प्राचीन कर्मसमूहका एक देशरूपसे झड़ना, नष्ट होना निर्जरा है । इसके मूलतः दो भेद हैं-सविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा । सविपाकनिर्जरा-काँका बंध होने के अनंतर आबाधाकालके पूर्ण होते ही कर्म प्रवाहक्रमसे एक-एक निषेक रूप उदय में आकर अपना फल देकर आरमासे पृथक होता है वह सविपाक निर्जरा है जो कि प्रतिसमय प्रत्येक संसारी जोवोंके हो रही है । इससे मोक्षमार्गमें कोई सहायता नहीं मिलती क्योंकि प्राचीन कर्म जितना निर्जीण होता है उससे अधिक नवोन बंधता जाता है। अविपाकनिर्जरा-यही निर्जरा मोक्षमागमें परम सहायक है यहो मोक्षपुरीमें पहुंचानेवाली है संपूर्ण कर्मों का निर्जीर्ण होना ही तो मोक्ष है । जो कर्म अभी उदयके योग्य नहीं हैं Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार मोक्षावसानकल्याण भाजनेन शरीरिणा । आहतो भावनाधर्मो भावतः प्रतिपद्यते ॥१९४८।। यशस्वी सुभगः पूज्यो विश्वास्यो धर्मतः प्रियः । सुसाध्यः सोऽन्यकार्येभ्यो मनोनितिकारकः ।।१६४६।। उनको तपस्या द्वारा हठात् उदोर्ण करके अर्थात् उदयावलोमें लाकर असमय में निर्जीणं कर देना अविपाक निर्जरा है तथा सजातीय अन्य प्रकृतिरूप कर्मों में संक्रमण कराके नष्ट करना अविषाक निर्जरा है क्योंकि बहुतसी कर्मप्रकृतियां सजातीय कर्मों में संक्रामित होकर परमुखसे हो नष्ट होतो हैं । ज से क्षपक श्रेणि में अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान फषा संज्वलन कषायमें संक्रामित होकर नष्टको जाती हैं। इसोप्रकार अन्य कई प्रकृतियां पर में संक्रामित होकर नष्ट होतो हैं इसका सुदर विवेचन लब्धिसार क्षपणासार, धवल श्रादि सिमांत अंधों में पाया जाता है । मुमुक्षुजनोंको वहां देखना चाहिये । इस अविपाक निर्जराका हेतु अंतरंग बहिरंग तपस्या है। तपरूपी अग्नि में जब तक आत्मारूप सुवर्ण पाषाण नहीं तप्त किया जाता तब तक वह सिद्धपरमात्मा रूप शुद्ध सुवर्ण नहीं बन सकता यह अकाट्य नियम है । तपों में भी धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानरूप तप हो निर्जराका परमसाधन है-कारण है । इन दो ध्यानोंके बिना निर्जरा संभव नहीं है । व्रत नियम संयम समिति क्षमादिधर्म, परीषह विजय आदि को सफलता ध्यान के होनेपर होती है । बारह भावनायें ध्यान की सिद्धि में हेतु हैं । इसप्रकार निर्जराको परम उपादेयता, निर्जराका हेतु, निर्जराके भेद आदिका चिंतन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है। धर्म अनुप्रक्षाका वर्णन-- अहंत भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्मको भावना से मोक्ष प्राप्ति तक संपूर्ण कल्याण परंपरा प्राप्त होती है, अभ्युदयरूप देव एवं मनुष्य के सुख एवं अंतिम निःश्रेयसमोक्षसुख इन सभी कल्याण परंपराओं का भाजन जीव है, इस जीव द्वारा अहंत प्रणोत धर्मभावसे प्राप्त किया जाता है अर्थात् मोक्ष के इच्छुक भव्यजीवोंको जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित जैनधर्म रत्नत्रयधर्मको सदा ही भावना करनी चाहिये एवं उस धर्मको धारण करना चाहिये ।।१९४८।। धर्मसे हो यह जीव यशको प्राप्त करता है, सुभग-सुदर होता है, पूज्य होता है, सबके द्वारा विश्वास करने योग्य होता है, सर्वजन प्रिय होता है । धर्म हो मनको Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरराण्डिका धर्मः सर्वारिण सौख्यानि प्रदाय भुवनेऽङ्गिनम् । निधसे शाश्वते स्थाने निधिसुखसंकुले ॥१९५०॥ ते धन्या ये नरा धर्म जैनं सर्वसुखाकरम् । निरस्तनिखिलग्रंथाः प्रपन्नाः शुद्धमानसाः ।।१९५१॥ येऽवत्तीन्द्रियाश्वेभ्यो नीता विषय कानने। धर्ममार्ग प्रपद्यन्ते ते धन्या नरपुगवाः ।।१६५२॥ अहोटषेण रागेण लोके कीरति सर्वदा । योसरागे निरास्वारे बोधिधर्मेऽतिदुर्लभा ॥१९५३॥ तबीयं सफलं जन्म पदीयं वृसमुज्जबलम् । अन्ममृत्युनराकारिकस्त्रियनिरोधकम् ॥१६५४।। संतुष्ट-पाल्हाद करता है । अन्य कार्य जो अर्थ उपार्जन आदि पुरुषार्थ हैं उनसे यह धर्मपुरुषार्थ सुसाध्य है सरल है ।।१६४६१ इस संसार में जोधको सभी सुखोंको देनेवाला धर्म ही है और इन संसारके सुखोंको देकर अंत में बाधारहित सुखोंसे पूर्ण ऐसे शाश्वत स्थान मोक्षमें भी धर्म ही पहुंचाता है ।।१६५०॥ शुद्ध मनवाले, संपूर्ण बाह्याभ्यंतर परिग्रहों के त्यागी वे नर-धन्य हैं जिन्होंने समस्त सुखोंकी खान स्वरूप जैनधर्मको प्राप्त किया है ॥१९५१।। बलवान इन्द्रियरूपी अश्वोंद्वारा विषयरूपी वनके लिये जानेपर जो महापुरुष धर्ममार्गको पाप्त होते हैं वे नरपुंगव-मुनिराज इस संसारमें धन्य हैं अर्थात् किसी दुष्ट घोड़े द्वारा भयंकर जंगल में पटक देने पर जो सुरक्षित नगरके मार्गका अन्वेषण कर उस पर चल पड़ते हैं वे पुरुष श्रेष्ठ पुरुषार्थी समझे जाते हैं, वैसे इस मानवपर्यायमें मनको लभाने विषयों के मध्य फंसने पर भी जो महान् आत्मा जिनदीक्षा लेकर रत्नत्रयकी आराधना करते हैं वे श्रेष्ठ माने जाते हैं ।।१९५२।। अहो ! इस संसार में प्राय: सर्व हो जीव सर्वदा राग और द्वेषके साथ क्रीड़ा कर रहे हैं, रम रहे हैं, ऐसो स्थितिमें निरा. स्वाद बीतरागधर्ममें जीवोंकी प्रीति होना अतिदुर्लभ है ।।१९५३।। उसो मानवका जन्म सफल है जिसका उज्ज्वल चरित्र जन्म-मरण, जराके कारणभूत कर्मों के आस्रवको रोकनेवाला है ।।१९५४।। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार यथा यथा विवद्धते निर्वेदप्रशमादयः । प्रयास्यासन्नतां पुसः सिद्धिलक्ष्मीस्तथा तथा ॥१६५५॥ ___ छंद-रथोद्धताद्वादशात्मकतपोरयंत्रितं तत्वबोधचित्तनेमिकम् । धर्मवक्रमनवद्यमाहतं विष्टपे विजयतामनश्वरम् ॥१६५६॥ ॥ इति धर्मानुप्रेक्षा । धर्मे भवति सम्यक्त्वज्ञानवृत्ततपोमये । दुर्लभा भ्रमतो बोधिः संसारे कर्मतोऽङ्गिनः ।।१६५७।। संसारे वेहिनोऽनते मानुष्यमति दुर्लभं । समिलायगसांगत्यं पयोधाविव दुर्गमे ॥१६५८।। जैसे जैसे इस जीवके निर्वेद-वैराग्य, प्रशम आदिभाव वृद्धिंगत होते जाते हैं वैसे-वैसे सिद्धि रूपी लक्ष्मी निकट आती जातो है ॥१६५५।। बारह प्रकारके तपरूपी आरोंसे जो नियंत्रित है जो तस्वबोध और तत्त्वांच रूपी धुरात युक्त है निर्दोष और अविनश्वर ऐसे अर्हन्त भगवानका धर्मचक्र इस विश्वमें सदा जयवन्त रहे ॥१९५६।। भावार्थ-जिनेन्द्र भगवानके द्वारा प्रतिपादित रत्नत्रयधर्म जीयोंको परम कल्याण का करनेवाला है, अनुपम है, महा मंगलस्वरूप है परम शांतिकारक आत्म स्वभावरूप है, यह एक महान कल्पवृक्ष के समान फलदायक है । ऐसा चिंतन करना धर्म अनुप्रेक्षा है। धर्म अनुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त । बोधिदुर्लभ अनुप्रक्षाकर्मके वशसे संसारमें भ्रमण करते हुए इस जीवके सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सभ्यकचारित्र और सम्यक्तपरूप धर्ममें बोधि अत्यंत दुर्लभ है ।।१६५७।। इस अनंत अपार संसारमें मनुष्य पर्याय मिलना अत्यंत दुर्लभ है, जैसे अपार सागरके एक किनारेसे जुवा और दूसरे किनारे से उसकी लकड़ियां डाल दो जाय और वे दोनों पदार्थ उस अपार जलराशिमें बहते बहते एकत्र आकर जुवामें लकड़ी धस जाना अत्यंत कठिन है वैसे हो चौरासो लाख योनि और साढ़े निन्यानवे लाख करोड़ कुलोंमें मानव पर्यायका पाना महादुर्लभ है ।।१९५८॥ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ ] मरणकण्डिका प्राचुर्य गर्दा भावानां महत्त्वं जगतोऽङ्गिनाम । विधत्ते योनिबाहुल्यं मानुष्यं जन्मदुर्लभं ॥१९५६॥ देशो जातिः कुलं रूपमायु:रोगता मतिः । श्रवणं ग्रहणं थक्षा नत्वे सत्यपि दुर्लभम् ।।१६६०।। - - - संसारमें जीवोंके निंदनीय अशुभ भावोंकी अत्यधिक प्रचुरता है अशुभभावोंसे अशुभ ही एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय नरक आदि संबंधो योनियोंकी प्राप्ति होती है, ऐसे कुयोनि बहुलताके मध्य में मानुष जन्म अतिदुर्लभ है ।। १९५६।। विशेषार्थ-तीससी तैतालोस राज घन प्रमाण इस लोकमें सर्वत्र तिर्यच एकेन्द्रिय पर्यायको बहुलता है, विकलेन्द्रिय आदि भी बहुत हैं । नारकी और देवोंकी अपेक्षा भी मनुष्यों की संख्या अति अल्प है अर्थात् तिर्यंच में एकेन्द्रियों की संख्या अनंत है। विकलेन्द्रिय असंज्ञी एवं संज्ञी तिथंचोंको संख्या असंख्यात है । नारकी और देवोंकी संख्या भी असंख्यात है। मनुष्य तो संख्यात ही है । क्षेत्र भी तियंचका सर्वलोक है। नारको देवोंके क्षेत्र भी क्रमशः छह और सात राज प्रमाण है किन्तु मनुष्योंका क्षेत्र केवल अढाई द्वोप प्रमाण है, अत: मनुष्य जन्म प्राप्त होना दुर्लभ है। दुर्लभ मनुष्य पर्याय मिलनेपर भी जिनधर्मयुक्त देश, उच्च जाति, कुल, सुदर रूप, दीर्घाय, नीरोग शरीर, हेयोपादेय बुद्धि, जिनधर्म श्रवण, ग्रहण और श्रद्धा अत्यंत दुर्लभ है ।।१६६० ___ विशेषार्थ-मनुष्य पर्याय मिलनेपर भी श्रेष्ठ जिनधर्मका प्रचार जिसमें है ऐसा देश मिलमा दुर्लभ है क्योंकि धर्मज्ञतासे रहित यवन शक आदि मनुष्योंके देशोंकी अधिकता है । नीचकुल और जातिको सर्वत्र बहुलता है, उच्चकुल उच्चजातिका मिलना दुर्लभ है क्योंकि प्रायः प्रज्ञ प्राणो परनिंदा और आत्मप्रशंसा करके नीच गोत्रका हो बंध किया करते हैं । आयुको पूर्णता मिलना कठिन है । सुदर रूप मिलना दुर्लभ है क्योंकि हिंसादि पाप क्रियासे अशुभनामकर्मका उपार्जन करके जीव अधिकतर विरूप हो होते हैं । कभी कदाचित् जीब गुरुसेवा आदिसे पुण्योपार्जन करके रूपवान् बनता है । तो निरोग काया मिलना सुलभ नहीं है, परजोवोंको पीड़ा संताप आदिको देकर मूर्ख प्राणी असाता कर्मका बंध करता है उससे रोगी काया प्रायः रहती है । समीचीन तत्त्वोंको Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५६९ ध्यानादि मधिकार देशाविष्वपि लब्धेष दुर्लभा बोधिरंजसा । कुपथाकुलिते लोके रागद्वेषवशीकृते ॥१६६१॥ इस्थं यो दुर्लभा बोधि लब्ध्वा सत्र प्रमाद्यति । रस्नपर्वतमारुह्य ततः पतति नष्टधोः ॥१९६२।। --- जाननेकी बुद्धि करोड़ों असंख्य भवोंमें दुर्लभ है, यह जोव ज्ञानी जनोंको दूषण लगाना, सत्यज्ञान में बाधा करना इत्यादि दुर्भावोंसे तोवमति श्रुतावरणका बंध करता है अत: ऐसी विवेक बुद्धिका मिलना सुलभ नहीं होता । बुद्धिके होनेपर भो धर्मश्रवणका मिलना दुर्लभ है क्योंकि प्रथम तो परके हितोंका उपदेश देनेवाले यतिजनोंका पाया जाना ही मुश्किल है, फिर गुणोंमें द्वेष करनेवाले तथा आलसीजन मुनिजनोंके निकट ही नहीं आते, अतः धर्मश्रवण सुलभ नहीं है । तत्त्व श्रवणके अनंतर भी उसका ग्रहण कठिन होता है-समझना कठिन होता है क्योंकि तत्त्वकी सूक्ष्मता होनेसे अथवा आत्माका उस तरफ उपयोग नहीं लगनेसे तत्त्व समझने में नहीं आता। ग्रहण-समझ लेनेपर भी उन तत्त्वों पर श्रद्धा होना-सम्यग्दर्शन होना अत्यंत कठिन है क्योंकि कालादि पांचों लब्धियोंकी प्राप्ति बिना सम्यक्त्व नहीं होती और इन लब्धियोंकी प्राप्ति अति दुर्घभ है । इसप्रकार उत्तरोत्तर दुर्लभ ऐसी वस्तुओंको प्राप्ति मुझे हुई है । अब धर्माचरण में प्रमादी नहीं होना चाहिये इत्यादि विचार करना बोधि दुर्लभ भावना है। देश, जाति, कुल आदि संपूर्ण दुर्लभ वस्तुओंके प्राप्त होनेपर भी जिनदीक्षा रूप बोधि या रत्नत्रयको पूर्णता या समाधिमरण रूप बोधि या धर्म्यध्यान, शुक्लध्यान रूप बोधि रागद्वेषके वश में हुए तथा खोटे मार्ग-मिथ्याष्टिके मार्गसे भरे हुए इस लोकमें महादुर्लभ है ।।१९६१।। जो मुनि इसप्रकारको दुर्लभ बोधिको प्राप्त करके पुनः उसमें प्रमाद करता है वह मूर्खबुद्धि रत्नोंके पर्वतपर आरोहण करके उससे गिरता है। अर्थात् जैसे कोई पुरुष बड़ी कठिनाईसे तो पहले रत्नोंका पर्वत प्राप्त करता है फिर उस अति उत्तुंगपर्वत पर बहुत मुश्किलसे चढ़ता है, इतनेपर यदि प्रमादी बन वहांसे गिरे तो वह उसकी मूर्खता है वैसे कोई भव्य मुमुक्षु अत्यंत कठिनाईमे सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त करता है तथा बड़ी कठिनाईसे उसके जिनदीक्षाके भाव होते हैं, जिनदीक्षाकोरत्नत्रयको पाकर भो यह प्रमाद करे तो उसको यह महामूढ़ता हो मानो जावेगी ।।१९६२।। और एकबार प्रमादवश बोधि नष्ट होगयी तो पुनः प्राप्त होना इस संसार में Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७. ] मरणकण्डिका नष्टा प्रमादतो बोधिः संसारे दुर्लभा भवेत् । नष्टं समसि सद्रत्नं पयोधो लभ्यते कथम् ॥१९६३॥ छंद-मालिनीविपुलसुखफलानां कल्पने कल्पवल्ली भवसरणतरूणां कल्पने या कुठारी। भवति मनसि शुद्धा सा स्थिरा शुखबोधिः फलममलमलंभि प्राणित ध्यस्य तेन ॥१९६४॥ ॥ इति बोधिः ॥ द्वावशापीत्यनुप्रेक्षा धर्मध्यानावलंबनम् । नालंबनं बिना चितं स्थिरतां प्रतिपद्यते ।।१९६५॥ महादुर्लभ होगी। अंधकार स्वरूप समुद्रके मध्य में रत्नके गिर जानेपर वह कैसे मिल सकता है ? नहीं मिल सकता ।।१९६३॥ विपुल सुखरूपी फलोंको देनेमें जो कल्पलताके समान है और संसाररूपी वनके वृक्षोंको काटने में कुल्हाड़ी के समान है ऐसी यह शुद्ध बोधि जिसके मन में स्थिरताको प्राप्त होती है उस महामुनिके बोधि द्वारा मुक्तिरूपी निर्दोष फल प्राप्त हुआ ऐसा जानना-समझना चाहिये ।।१६६४|| बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा समाप्त । बारह भावनाओंका उपसंहार करते हैं ये अनित्व अशरण आदि बारह अनुप्रेक्षायें धर्म्यध्यानका आलंबन है, आलंबन के बिना मन स्थिरताको प्राप्त नहीं होता है ।।१६६५। भावार्थ--ध्यानमें ध्येय अवश्य होता है तथा ध्यान की पहली अवस्था चितनरूप होती है । चिंतनके लिये विषय-अवलंबन चाहिये । यहाँपर प्रकृति में घHध्यानका वर्णन चल रहा है, घHध्यान का आलंबन द्वादश अनुप्रेक्षा है इनके द्वारा ध्यानका इच्छुक पुरुष चित्तकी एकाग्रताका अभ्यास करता है । इसप्रकार धर्म्यध्यानका आलंबन रूप भावनाओंका कथन करके आगे यह कहते हैं कि ध्यान के अवलंबन इतने ही नहीं हैं Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५७१ प्रालंबनगो लोको साबुदाणा हिनः । यदेवालोकते सम्यक् तवेवालंबनं मतम् ।।१९६६॥ धर्मध्यानमति क्रांतो यदा भवति शुरधीः । शुद्धलेश्यस्तदा ध्यानं शुक्लं ध्यायति सिद्धये ।।१९६७।। गयं-पृथक्त्ववितर्कवीचारकत्ववितर्कावीचारसूक्ष्मक्रिया समुच्छिन्नक्रियाणि येक योगकाययोगायोगध्येयानि चत्वारि शुक्लानियथार्थानि ॥१९६८।। - .....-- - ध्यानके इच्छुक मुनिके लिये यह लोक आलंबनोंसे भरा पड़ा है, योगीजन जिस पदार्थको सम्यतया देखते हैं वही पदार्थ उनके ध्यानका आलंबन बन जाता है ॥१९६६।। भावार्थ-निर्विकार भावसे ममत्व भावसे रहित होकर जो कोई वस्तु देखो जाय वही ध्यानका ध्येय हो सकता है, किसी भी जीवादि तत्वोंपर मन केन्द्रित किया जा सकता है। इसप्रकार धर्म्यध्यानका कथन पूर्ण हुआ। शुक्लध्यानका वर्णन-- अब शुद्ध बुद्धिवाला योगी धर्माध्यानको पूर्ण करके आगे बढ़ता है तब मोक्षके लिये शुक्ल लेश्यासे युक्त हो शुक्लध्यानको ध्याता है ॥१९६७।। अब गद्य द्वारा शुक्लध्यानके नाम आदि बतलाते हैं पृथकत्व वितकं वीचार, एकत्व अवितर्क वोचार, सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति और समुच्छिन्न क्रिया ये पार शुक्लध्यानके भेद हैं । इनमें पहला शुक्लध्यान मनोयोग आदि तीनों योगों द्वारा ध्याया जाता है, दूसरा तीन योगों में से किसी एक योग द्वारा ध्याया जाता है, तीसरा केवल काययोग द्वारा ध्याया जाता है एवं अंतिम शक्लध्यान योग रहित अयोग द्वारा संपन्न होता है । शुक्लध्यान पीतादि लेश्यावालेके न होकर केवल शुक्ल लेण्यावालेके ही होता है तथा इसमें अत्यंत शुक्ल-पवित्र परिणाम अपूर्व अपूर्व परिणाम होते हैं, आत्मा Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ] मरगाकण्डिका वितर्को भण्यते तत्र श्रुत, ध्यानविचक्षणः । अर्थव्यंजनयोगानां घोचारः संक्रमो बुधः ॥१६६६॥ तत्र द्रख्याणि सर्वाणि ध्यायता पूर्ववेदिना । भेवेन प्रथमं शुक्लं शांतमोहेन लभ्यते ।।१९७०॥ को अत्यंत शुचि-भावकर्म, द्रव्यकर्म और नोकर्मरूप मलसे रहित शुद्ध करनेवाला यह ध्यान है अतः सार्थक नामवाला यह शुक्लध्यान हे "शुचिगुण योगात् शुक्लं" 1१९६८।। पहले ध्यानका शब्दार्थ कहते हैं पृथक्त्व मायने नाना-अनेक होता है । ध्यानमें विचक्षण पुरुषोंने वितर्कका अर्थ श्रुत किया है, अर्थोका, व्यंजनोंका और योगोंका परिवर्तन हाना वीचार है ऐसा बुद्धिमान् द्वारा प्रतिपादन किया गया है ।।१६६६।। चौदह पूर्वोके पारगामी मुनिराज द्वारा जीवादि सभी द्रव्यों को ध्याया जाता है, इन द्रव्योंको ध्याते र उपशांत मोहवाले मुनिके पहला शुक्लध्यान होता है ॥१९७०।। विशेषार्थ-पृथक्त्व वितर्क योचार नामका पहला शुक्लध्यान है । पृथक्त्व शब्दका अर्थ है नाना अनेकपना, श्रुतज्ञान अथवा भूतज्ञानका विषयभूत पदार्थ या शब्दश्रुतको वितर्क कहते हैं । अर्थ-द्रव्य, व्यंजन-शब्द-सूत्र आदि रूप आगम वाक्य और मनोयोग आदि योग इन तीनोंका परिवर्तन होना वीचार शब्दका अर्थ है। अर्थात् पहले शुक्ल ध्यान में ध्येयभूत जो वस्तु है, जोवादि पदार्थ है, उनका परिवर्तन होता है, जिस आगम वाक्यका आलंबन लिया था उसका भी परिवर्तन होता है अर्थात् शुक्लध्यानमें मुनिराज पहले जीव पदार्थको चितनका ध्यानका विषय बनाकर पुनः उसे छोड़कर अन्य पदार्थका ध्यान करने लग जाते हैं तथा पहले किसी विवक्षित आगम वाक्यका आलंबन लेकर पुनः उसको छोड़ अन्य किसी आगम वाक्यका आलंबन लेते हैं। इसी परिवर्तनको अर्थ और व्यंजनोंको संक्रान्ति रूप वीचार कहते हैं तथा वे मुनिराज मनोयोग युक्त होकर ध्यानमें स्थित होकर पुनः उसे छोड़ वचन-योग आदिसे युक्त हो ध्यान करने लगते हैं इसतरह अर्थ, व्यंजन और योग इन तीनोंका परिवर्तन जिस में हो यह पहला शुक्लध्यान है। किन्तु ध्यान रहे कि यह अर्थ, व्यंजन आदिका Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५७३ ध्यायता पूर्ववक्षेण सीणमोहेन साधुना । एक द्रव्यमभेदेन द्वितीयं ध्यानमाप्यते ॥१९७१॥ . . . -- - - परिवर्तन बुद्धिपूर्वक नहीं होता है । इस प्रथम ध्यानको मुख्यतया चतुर्दश पूर्वघट मुनि ध्याते हैं । इसमें श्र तज्ञान सहारा अवश्य रहता है इसलिये तथा श्रृ त में कथित अर्थका सहारा रहता है अथवा द्रव्यश्रु त जो शब्दात्मक है उसकी सहायता रहतो है अतः यह ध्यान वितर्कयुक्त कहा जाता है इसप्रकार पृथक्-नाना वितर्क और अर्थादिक जिसमें होते हैं वह पृथक्त्व वितर्क धीचार ध्यान कहलाता है । इस ग्रंथमें प्रथम शुक्लध्यानके स्वामी उपशांत मोह नामके ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज होते हैं ऐसा बताया है । राजवातिक आदि ग्रंथों में सातिशय अप्रमत्तसे उपशांत मोह तकके गुणस्थानवर्ती मुनिराज इसके स्वामी निर्दिष्ट किये गये हैं । अस्तु ! यह ध्यान कर्मकाष्ठ राशिको भस्म करने में अग्निवत् है। दूसरे शुक्लध्यानके स्वामी एवं स्वरूपका कथन करते हैं क्षीणमोह नामके बारहवे गुणस्थानवर्ती चतुर्दश पूर्वघट मुनिराज द्वारा दूसरा एकत्व वितर्क अवीचार नामा शुक्लध्यान ध्याया जाता है । इसमें किसी एक विवक्षित अर्थ-द्रव्य का अभेदरूपसे प्रालंबन रहता है ।। १९७१।। विशेषार्थ-दूसरे शुक्लध्यानका नाम है एकत्व वितर्क अवीचार, एकत्व अर्थात् एकरूप, वितर्क अर्थात् यह पूर्वज्ञान धारी छ चस्थ मुनीश्वर द्वारा ध्याया जाता है अत: श्रु तके आलंबनसे युक्त है ! इसमें अर्थ व्यंजन और योगोंकी संक्रांति-परिवर्तनबदलना नहीं होता अतः बोचार रहित अवीचार है । आशय यह है कि यह ध्यान रत्नों को दोपशिखावत् अकंप अडोल है बदलाहट से रहित है। किसी एक श्रुत वाक्यका आश्रय लेकर यह प्रवृत्त होता है । योग भी इसमें कोई एक ही रहेगा। इसप्रकार ध्येयके परिवर्तन रहित यह एकत्व वितर्क शुक्लध्यान है। इस ध्यान द्वारा क्षोणमोह नामके बारहवें गुणस्थानवर्ती योगीश्वर ज्ञानावरण दर्शनावरण और अंतराय नामा शेष तोन घातिया कर्मों को भस्मसात् कर डालते हैं । मोहनीय कर्मका निर्मूलन तो प्रथम शुक्लध्यान द्वारा हो चुकता है [अथवा इस ग्रंथ तथा अन्य धवल आदि ग्रंथकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका नाश धय॑ध्यान द्वारा माना गया है।] Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ ] मरणकण्डिका सर्वभावगतं शक्लं विलोकितजगत्त्रयं । सर्वसूक्ष्मनियो योगी तृतीयं ध्यायति प्रभुः ॥१९७२॥ अयोगकेवली शुक्लं सिद्धिसौघमियासया । चतुर्थ ध्यायति ध्यानं समुच्छिन्नक्रियो जिनः ॥१९७३॥ तृतीय शुक्लध्यानका स्वरूप एवं स्वामी-सर्वद्रव्य और सर्वपर्यायगत तथा जगत्त्रयके विलोकन स्वरूप तृतीय शुक्लध्यान है, सूक्ष्म हो गयी है वचन और कायकी क्रिया जिसके ऐसे सयोगो जिनेन्द्र प्रभु इस ध्यानके स्वामी हैं ।।१९७२।। विशेषार्थ-सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति नामका यह तीसरा शुक्लध्यान है। यह तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहंत सर्वज्ञ देवके होता है। सर्वज्ञदेव सर्वव्य सर्व पर्यायोंको जगत्त्रय एवं कालत्रयको युगपत् जानते देखते हैं अतः इस ध्यानको सर्वद्रव्य पर्यायगत कहा है । यह ध्यान तेरहवें गुणस्थानके अंतिम अन्तर्मुहूर्त कालमें होता है उससमय संपूर्ण योग निरोध अर्थात् दिव्यध्यान देशदेशमें विहार रूप क्रियायें समाप्त हो चूकती हैं । इसतरह इसमें बाह्य क्रियारूप योगका निरोध रहता है । लथा यहां मनोवर्गणाका आलंबन लेकर होनेवाला मनोयोग और वचन वर्गणाका आलंबन लेकर होनेवाला वचनयोग भी नहीं रहता केवल सूक्ष्मकाय योग है । सूक्ष्मक्रियाका अप्रतिपात-अभी अभाव नहीं है, सूक्ष्म एकमात्र काय योगरूप क्रियाका जिसमें अस्तित्व है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति है इसप्रकार यह अन्वर्थ नामवाला तृतीय शुक्लध्यान है। ___ चतुर्थ शुक्लध्यानके स्वामी एवं स्वरूप-- ___ नष्ट हो चुकी काययोगरूप क्रिया जिनको ऐसे तथा सिद्धिरूप प्रासादको प्राप्त करने वाले अयोगी जिन-चौदहवें गुणस्थानवी अयोग केवली अरहंतदेव चौथे व्युपरस क्रिया नामके शुक्लध्यानको ध्याते हैं ।।१९७३।। विशेषार्थ-प्रयोगकेवली जिन चतुर्थ शुक्लध्यानके स्वामी हैं । इस ध्यान में संपूर्ण योगरूप क्रिया नहीं रहती अतः "व्युपरतक्रिया" यह सार्थक नाम है। इससे अघातिया कर्मोको पच्चासी प्रकृतियां नष्ट होती हैं। इसतरह समस्त अठारह हजार शीलोंके स्वामी, चौरासी लाख उत्तरगुणोंसे परिपूर्ण अयोगी जिन सर्व कर्मभारसे रहित होकर अष्टम ईषत् प्राग्भार-नामा पृथिवी-सिद्ध शिलापर जाकर सदा-सदाके लिये Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यामादि अधिकार इत्थं यो ध्यायति ध्यानं गुणधषिगतः शनम् । निर्जरी कर्मणामेष क्षपकः कुरुते पराम् ॥१९७४॥ तपस्यवस्थितं चित्रं चिरं निानसंवरम् । ध्यानेन संवृतः क्षिप्रं जयति क्षपकः स्फुटम् ॥१६७५।। प्रायषं योगिनो ध्यानं कषाय समरे परम । निनिः संस्तरे, युद्ध निरस्त्र भटसन्निभः ॥१९७६।। विराजमान होते हैं । जो सदा अनंत अव्याबाध, निर्द्वन्द्व, परिपूर्ण सुख आनंदमें मग्न रहते हैं। ___ इसप्रकार शुक्लध्यानका वर्णन पूर्ण हुआ। आगे ध्यानका माहात्म्य बतलाते हैं इस प्रकार गुणश्रेणीको प्राप्त जो साधु परम प्रशस्त शुक्लध्यानको ध्याता है वह क्षपकति कर्मोका महान् निर्जराको करता है ।।१९७४।। जो मुनि ध्यानरूप संवरसे रहित है और चिरकाल तक अनेक प्रकारके अनशन आदि तप करता है उसको ध्यानसे संवर करनेवाला क्षपक मुनि शीघ्र ही जीतता है। यह निश्चित है। अर्थात् कोई साधु ध्यान नहीं करता केवल बाह्य तपश्चरणमें लगा रहता है वह चाहे करोड़ों वर्ष तप करनेवाला है किन्तु उससे ध्यानको करनेवाला साधु अधिक श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि बाह्य तपके द्वारा जो निर्जरा करोडों वर्षों में भी नहीं हो पाती वह निर्जरा ध्यानस्थ साधुके अन्तर्मुहूर्त में हो जाती है ।।१९७५।। __ कषायका नाश करनेवाले समरभूमि में योगीरूप सुभटका सर्वोत्कृष्ट शस्त्रध्यान है । जो संस्तरमें स्थित क्षपक ध्यान रहित है, जिसके पास ध्यानरूप शस्त्र नहीं है वह क्षपक मुनि उस भट-योद्धाके समान है जो युद्धभूमिमें तो आया है किन्तु शस्त्रतलवार, धनुष आदिसे रहित है । अर्थात् जैसे युद्ध में उतरे सैनिकके पास शस्त्र नहीं हो तो उसका युद्ध में आना व्यर्थ है, वह शत्रुको जीत नहीं सकता वैसे समाधिके इच्छुक संस्तरमें स्थित क्षपकके पास यदि धर्म्यध्यान आदिरूप शस्त्र नहीं है तो वह कषायरूप शत्रुका एवं कर्मरूप शत्रुका नाश नहीं कर सकता ॥१९७६।। Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ ] मरण कण्डिका कषायसंयगे ध्यानं ममक्षोः कवचो दृढः । ध्यानहीनस्तदा युद्ध निःकंकट भटोपमः ॥१९७७॥ ध्यानं करोत्यवस्टम्भं क्षीणचेष्टस्य योगिनः । बंडः प्रवर्तमामस्य स्थविरस्येच पावनः ॥१९७८।। बलं च्यानं यतेधत्ते मल्लस्येव घृतादिकम् । समोऽपुष्टेन मल्लेन ध्यानहीनो यतिमतः ॥१६७६ । वना रत्नेषु गोशीर्ष पवने च यथा मतम् । ज्ञेयं मरिणष बंपूर्य तथा ध्यानं प्रताविषु ॥१९८०॥ कषायके साथ युद्ध करने में मुमुक्ष मुनिके यह ध्यान दृढ़ कवचके समान है, जो ध्यानसे रहित मुनि है वह कवच रहित योद्धाके समान है । जैसे कवच रहित भट युद्ध में शत्रके बाण, तलवार आदिके प्रहारसे अपनी रक्षा नहीं कर सकता वैसे कषायका नाश करने में उद्यमी क्षपक सुभट यदि ध्यानरूप कवचसे रहित है ध्यान नहीं करता है तो वह कषायशत्रुके शस्त्र प्रहारको रोक नहीं सकता । अर्थात् कषायको जीतने का उत्तम उपाय ध्यान है ।।१९७७।। मन, वचन और दारोरसे जो क्षीण हो चुका है, देव वंदना आदि क्रिया करने में असमर्थ है ऐसे क्षोणकाय योगोके ध्यान सहायताको करता है । अर्थात ओ शरीर द्वारा आवश्यक क्रिया करके चारित्र पालन या कर्मनिर्जरा करने में असमर्थ है वह ध्यान द्वारा उक्त कार्य करता है अतः उसके लिये ध्यान सहाय भूत है। जैसे बूढ़े व्यक्ति के गमनादि क्रिया में दण्डा-लाठी सहायभूत है ।।१६७८।। जैसे मल्ल पुरुषका बल घी आदि है, धी मल्लके शक्तिको करता है बढ़ाता है । वैसे साधु के बलको ध्यान करता है । जो मल्ल घो आदिसे पुष्ट बलवान नहीं हुआ है वह बाहयुद्ध में हार जाता है वैसे जो साधु ध्यानके बलसे होन है वह कर्मशत्रुको नहीं जीत सकता ।।१६७६।। जैसे रत्नों में श्रेष्ठ रत्न हीरा है, चन्दन में श्रेष्ठ चंदन गोशीर्ष है, मणियों में श्रेष्ठ मणि बड्य है वैसे व्रत संयम, तप आदिमें श्रेष्ठ ध्यान है ऐसा जानना चाहिये ।।१९८०।। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार कषाय व्यसने मित्रं कषायव्यालरक्षणम् । पादायमाली मेहं पालने हरः ॥१९८१॥ कषायातिपे छाया कषायशिशिरेऽमाल । कषायारिमये त्राणं कषायव्याधिमेषजम् ॥१९८२॥ तोयं विषयतृष्णायामाहारो विषयक्षुधि । जायते योगिनो ध्यानं सर्वोपावसूदनम् ॥१९८३॥ माराधनायबोधार्थ योगो व्यावृत्तिकारणम् । तदा करोति चिह्नानि निश्चेष्टो जायते यदा ।।१९८४॥ यह ध्यान कषायरूप कष्टके समयमें मित्रके समान है, कषायरूप जंगली श्वापदोंसे रक्षा करनेवाला यही ध्यान है, ध्यान कषायरूप तूफान, मांधी वायुसे बचानेवाला घरके समान है तथा कषायरूप अग्निको शांत करनेके लिये सरोवर है ।।१९८१।। यह ध्यान कषायरूप सूर्यके घाम-आसपसे बचने के लिये छायावत है । कषायरूप शिशिरशीतको बाधाको नष्ट करने में अग्निके समान है । कषायरूप शसे रक्षा करनेवाला यह ध्यान ही है एवं कषायरूप रोगको औषधि ध्यान ही है ।।१९८२॥ यह ध्यान विषय तृषाको शांत करनेके लिये मिष्ट जलके समान है, विषयरूप क्षुधा लगनेपर मुनिजन इस ध्यानरूप पाहारको ही ग्रहण करते हैं, अधिक क्या करें ? यह ध्यान योगीजनोंके समस्त उपद्रवोंको शांत करनेवाला है, ऐसा निश्चयसे जानो ॥१९८३॥ आगे यह बताते हैं कि संस्तरमें आरूढ क्षपक अत्यंत क्षीणकाय होता है तब मैं ध्यानमें हूं, सावधान हूं, मेरा मन प्रसन्न है इत्यादि बातोंको मुखसे कहने में असमर्थ होनेसे चिह्न-इशारेसे उक्त बातको बताता है-जब क्षपक मुनि निश्चेष्ट-शरीर और मनकी चेष्टा करने में शक्ति रहित होता है तब मैं चार प्रकारको आराधनामें तत्पर हूं इस बात को निर्यापकाचार्यको ज्ञात कराने के लिये आगे कहे जानेवाले चिह्नोंको करता है अथवा यह क्षपक सावधान है या नहीं ऐसा आचार्यको संशय हो जाय और वे क्षपकको प्रश्न करे तो उनकी शंकाको दूर करने के लिये क्षपक चिह्न विशेष-इशारे विशेषसे अपनी आराधनाकी लीनताको प्रगट करता है ।।१९८४) आचार्य द्वारा Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका हुंकारांगुलिनेत्रभ्र मूद्ध कंपांजलिक्रियाः । ययासंकेतमध्यमः क्षपकः कुरुते सुधोः ॥१९८॥ संकेतवंतः परिचारकास्ते चेष्टाविशेषेण विवन्ति साधोः । पाराधनोद्योगमवेतशास्त्रा धूमेन चित्रांशुमिव ज्वलन्तम् ।।१९८६ । ॥ इति ध्यानम् ॥ इत्यं समत्वमापन्नः शुभध्यानपरायणः । प्रारोहति गुणश्रेणी शुद्धलेग्यो महामनाः ।।१९८७।। बाह्याभ्यंतरभेदेन द्वधा लेश्या निवेदिता । शुभाशुभविभेदेन पुनघा जिनेश्वरः ॥१९८८॥ जाग्रति सावधानीके विषय में पूछे जानेपर ज्ञानी क्षएक मुनि हंकारसे, हाथ जोड़नेसे, भोंहे उठाकर, मस्तक हिलाकर, हाथको पांच अंगुलियां दिखाकर आचार्यको अपनी प्रसन्नता, ध्यानको लीनताको बतलाता है। यथायोग्य संकेतको वह क्षपक करता है जिससे आचार्य उसको सावधानी समझ जाय ।।१९८५।। संकेतको जाननेवाले एवं शास्त्रके ज्ञाता परिचारक साधु समुदाय तथा निर्यापक क्षपक साधुके द्वारा किये गये चिह्न-चेष्टा विशेषसे उसके आराधनाके उद्योगको जान लेते हैं। जैसे धूम द्वारा जाज्वल्यमान अग्निको जाना जाता है ।।१९८६॥ इसप्रकार ध्यान नामका सैंतीसवां अधिकार समाप्त हुआ। लेश्यानामा अड़तीसवां अधिकारइसप्रकार बारह भावनामोंका जिसने चिंतन किया है, ध्यानका स्वरूप जाना है ऐसा क्षपकराज समताको प्राप्त होता है तथा शुभध्यान में परायण वह महामना साधु शुद्ध लेश्या-पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या युक्त हो गुणश्रेणिका प्रारोहण करता है--आगेआगे अधिक-अधिक विशुद्धिको प्राप्त करता है ।।१९८७।। लेण्याके भेदजिनेश्वर द्वारा लेश्याके दो भेद कहे गये हैं, बाह्य लेश्या और अभ्यंतर लेश्या अर्थात् द्रव्य लेण्या और भाव लेश्या पुनः उन दोनों के शुभ और अशुभके भेदसे दो दो भेद होते हैं ॥१९८८।। कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या ये तीन लेश्यायें Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५७९ कृष्णा नीला च कापोती तिस्रो लेश्या विहिता। घोरो वैराग्यमापन्नः स्वैरिणीरिव मुचते ॥१९८६॥ अशुभ-गदित हैं । वैराग्यगे पाप्त हुए धीरपुरुष इन तीन लेश्याओंको छोड़ देते हैं, जैसे दुराचारिणी स्वच्छंद स्त्रीको धीर पुरुष छोड़ते हैं ॥१९८६।। विशेषार्थ-कषायसे अनुरंजित योग प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । यह लेश्याका सामान्य लक्षण है। यह लक्षण भाव लेश्यका है । द्रव्य लेश्या तो शरीरके वर्ण रूप हैं। द्रव्य लेश्याके छह भेद शरीरको कोतिरूप है उसका यह कथन नहीं है। यहां भाव लेश्याका कथन है । कृष्ण, नोल, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ऐसे छह भेद लेश्याके जानने । इन छहों लेश्या वाले विभिन्न व्यक्तियोंके परिणाम-भाव किसप्रकार विभिन्न होते हैं इसके लिये प्रसिद्ध उदाहरण है कि-छह पथिक देशान्तरमें जा रहे थे, जंगल में मार्ग भूल गये । क्षुधासे पीड़ित होकर इधर-उधर भटक रहे थे कि कहीं पर कुछ भूख दूर करने का साधन बने । इतने में एक फलोंसे भरा वृक्ष दिखाई देता है उस वृक्षपर छह पुरुषों को एक साथ दृष्टि पड़ती है और सबके मन में पृथक-पृथक् रूपसे इस तरह विचार माते हैं । एक पुरुष सोचता है कि अहो ! अच्छा हुआ यह वक्ष फलोंसे भरा है मैं इसको जड़से काटकर फलोंको खावूगा । दूसरा व्यक्ति विचारता है इस वृक्षको बड़ो-बड़ी शाखायें काटकर फल खाना चाहिये । तोसरा चिंतन कर रहा है कि छोटी-छोटी डालियो तोड़कर फल खाबू गा । चौथा पुरुष सोचता है कि फलोंके गुच्छे सोड़कर भक्षण करना चाहिये । पांचवां व्यक्ति विचारता है कि वृक्ष में जो जो फल पके हैं उन्हें हो तोडूगा अन्यको नहीं । और छटा महामना सोच रहा है कि वृक्षके नीचे भूमिपर फल पड़े हैं स्वत: गिर गये हैं उन्हें खाना है । सबने एक साथ वृक्षको देखा है सबको भूख लगी है, सभी थके हुए हैं किन्तु भाव भिन्न-भिन्न हो रहे हैं । जो वृक्षको मूलतः काटनेके भाव कर रहा है वह कृष्ण लेश्याघाला है। क्योंकि इसके भाव अत्यधिक कठोर है अतः काला मनवाला-कृष्ण लेश्यावाला है । वृक्षको बड़ी शाखायें काटनेको भावना वाला नीललेश्या संसक्त है, पूर्वकी अपेक्षा आंशिक कठोरता कम है। छोटी डालियां काटनेकी सोचनेवाला कापोत लोश्यादाला समझना । गुच्छे तोड़ने की इच्छा. वाला पोस लेश्यायुक्त है। पके फलोंको तोड़ने का इच्छुक पा लेश्यावाला माना जायगा एवं भूमिगत फलोंको लेने का वांच्छक श्रेष्ठ शुक्ल लेश्यावाला समझना चाहिये । इन लेश्याओंके धारक पुरुषोंके चिह्न विस्तारपूर्वक इसप्रकार जानना चाहियेजो दुराग्रही है, दुष्ट, क्रोधादि कषायोंकी तीव्रता युक्त, सतत वैरभाववाला कलहप्रिय Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० ] मरकण्डिका तेजः पद्मा तथा शुक्ला तिस्रो लेश्याः प्रियंकराः । निर्वृत्तिमिव गृह्णाति निर्वाध सुखदायिनीं ॥। १६६०॥ कुरुष्व सुखहेतुनां सल्लेश्यार्ना विशोधनम् । यत्संगानामशेषाणां सर्वथापि विवर्जनम् ।।१६६१ ॥ श्यानां जायते शुद्धिः परिणामविशुद्धितः । विशुद्धिः परिणामानां कषायोपशमे सति ।।१२।। मंदी भवन्ति जीवस्य कथायाः संग वर्जने । कषाय बहुलः सर्व गृहोते हि परिग्रहम् ।।१६६३ ।। है वह कृष्ण लेश्यावाला व्यक्ति है । बुद्धिहीन, छलकपटी, विषयलंपट, आलसी, अधिक निद्रालु, धन धान्यमें श्रासक्त, नानापकारके आरंभ गौर परिग्रहों में मोहित जोव नील लेश्यायुक्त समझना चाहिये । शोक और भयसे युक्त, बात बात में रूसनेवाला, परनिंदा और अपनी प्रशंसा करने वाला, पर का तिरस्कार करनेवाला, इत्यादिरूप कापोत श्वाला है । हित और ग्रहित का ज्ञाता, दया, दान, पूजामें रत कार्य अकार्यको जाननेवाला पोत लेश्या संयुक्त है। त्यागी, क्षमाशील, भद्रप्रकृति, साधुकी सेवापूजा, दानादि रतजोव पद्म लेश्यायुक्त है । और सर्वजन एवं सर्वक्षेत्र में समता भाववाला, निदान रहित रागद्व ेष रहित जीव शुक्ल लेश्यावाला जानना चाहिये । इसप्रकार इन लेश्याधारियोंके कतिपय चिह्न या पहिचान यहां बताये हैं। इनमें कृष्णादि अशुभ लेश्या त्याज्य है और पीतादि तीन लेश्या ग्राह्य हैं । शुभलेश्यायें - पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या शुभ प्रशस्त प्रियंकर हैं । शुभलेश्याको साधुजन ग्रहण करते हैं जैसे निर्बाध सुखदायी मुक्तिको ग्रहण करते हैं ||१०|| हे साधो ! सुखकारक शुभ लेश्याओंकी तुम विशुद्धि करो प्रर्थात् आगे आगे परिणाम अधिक निर्मल बनाओ । परिणाम शुद्धिमें जो बाधक हैं ऐसे संपूर्ण परिग्रहोंका तुम सर्वथा त्याग करो ।। १९९१|| क्योंकि परिणामोंकी विशुद्धि से लेश्याओंकी शुद्धि होती है और परिणाम शुद्ध तब होते हैं जब कषाय उपशमित होती है ।। १६६२ ।। तथा जीव की कषाय उपशमित मंद तब होती है जब परिग्रहों का त्याग हो जाता है, क्योंकि Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५८१ वृद्धिहानी कषायाणां संगग्रहणमोक्षयोः । अग्नीनामिव काष्ठाविप्रक्षेपणनिरासयोः ॥१६६४|| कषायो ग्रंथसंगेन क्षोभ्यते तनुधारिणाम् । प्रशांतोऽपि हृदादीनां पाषाणेनेव कर्दमः ॥१९६५।। अंतविशुद्धितो जीवो बहिग्रंथं विमुचति । अंतरामलिनो बाह्य होते हि परिग्रहम् ।।१६६६।। शिशुद्धियो अन्तः शान्तिः पदाले यहिः । बाह्य हि कुरुते वोषं सर्वमांतरदोषतः ॥१६६७।। ससंगस्याङ्गिनः कतुं लेश्याशुद्धिर्न शक्यते । अंतराशोथ्यते केन तुषयुक्तोऽपि तंदुलः ॥१९६८।। तीन कषायवाला सर्व परिग्रहको ग्रहण करता है ।।१९९३1। परिग्रहके ग्रहण करने से कषायको वृद्धि होती है और उसके त्याग करदेने से कषायकी हानि होती है, जैसे काष्टतृण आदि इंधनोंको डालनेसे अग्निकी वृद्धि होती है और इंधन को नहीं डालने से या निकाल देनेसे अग्नि शांत होती है ।।१६६४|| संसारी प्राणोको कषाय परिग्रहके संगतिसे ग्रहण करनेसे तीन होती है-जैसे सरोवर आदिका नोचे बैठा हुप्रा भी कीचड़ पत्थरके डाल देनेसे क्षुभित होता है, ऊपर आ जाता है ॥१९९५॥ यह जोव अंतरंगको विशुद्धिसे बाह्य परिसह छोड़ देता है, जो अंतरंगमें मलिन है वह बाह्य परिग्रहको ग्रहण करता है ।।१६६६।। जीवके अंतरंगकी शुद्धिसे बाह्य शुद्धि हो जाती है। क्योंकि अंतरंगके दोषके कारण ही यह जीव सर्व बाह्य दोषको करता है । आशय यह है कि मनमें परिग्रहको आसक्तिरूप अंतरंगका दोष है तो बाह्य परिग्रह संचय, हिंसा, झूठ, छल आदि सब दोष इकट्ठे होंगे । कषायकी मंदतारूप मनके परिणाम निर्मल हैं तो आपके उक्त दोष होना संभव नहीं है । यदि भीतरी परिणाम मलिन हैं तो शरीर और वचन संबंधी मलिनता होगो हो ।।१६६७॥ परिग्रहबान पुरुष के लेश्याकी शुद्धि करना शक्य नहीं है, बाहरके छिलकेसे युक्त चावल क्या किसीफे द्वारा अंदर को ललाईसे रहित शुद्ध किये जाते है ? नहीं किये जाते । वैसे परिग्रहधारीके लोश्या शुद्ध नहीं हो सकती ।।१९६८|| Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ । मरमण्डिका शुक्ललेश्योतमाशं यः प्रतिपधं विपद्यते । उत्कृष्टाराधना तस्य जायते पुण्यकर्मणः ।।१६६६॥ शेषांशान् शुक्ललेश्यायाः पद्मायाश्च तथाषितः । म्रियते मध्यमा तस्य साधोराराषना मता ॥२०००॥ सेजोलेश्यामधिष्ठाय क्षपको यो विपद्यते । जघन्याराधना सस्य वणिता पूर्व सूरिभिः ॥२००१॥ प्रतिपद्य तपोवाही यो यां लेश्यां विपद्यते । तल्लेश्ये जायते स्वर्ग तल्लेश्यः स सुरोत्तमः ॥२००२॥ सर्वलेश्याविनिर्मुक्तः प्राणांस्त्यजति यो यतिः । प्रायषो बंधनेनेव मुक्तो याति स नि तिम् ॥२००३॥ कौन कौनसी लोश्यावाले उत्कृष्ट मध्यम तथा जघन्य आराधनाके धारक हैं यह बतलाते हैं जो क्षपक शक्ल लेश्याके उत्तम अंशको प्राप्त कर समाधिमरण करता है अर्थात् प्राण त्यागके समय जिस क्षपक मुनिकी उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है उस पुण्यात्माको उत्कृष्ट आराधना होती है ।।१६६६।। शुक्ल लोश्याके उत्कृष्ट अंशको छोड़कर शेष अंशोंसे तथा पय लेश्याके अंशोंका आश्रय लेकर सल्लेखना मरण करने वाले मुनिको मध्यम आराधना होती है ॥२०००।। जो क्षपक पीत लोश्यामें स्थित होकर मरण करता है उसकी जघन्य आराधना होतो है ऐसा पूर्वाचार्योंने कहा है ।।२००२॥ जो तपस्थो क्षपक जिस लेश्याको प्राप्त करके समाधिमरण करता है वह उसी लेश्यावाले स्वर्गमें उसी लेश्याका धारक उत्तमदेव-वैमानिक देव होता है ।।२००२।। भावार्थ-~साधुके मरते समय जो लेश्या होती है उसी लेश्याको लेकर जिस स्वर्ग में उक्त लेश्या संभव है उसी स्वर्गमें देव होता है तथा वहां आय पूर्ण होनेतक वही लेश्या बनी रहती है। जो साधु संपूर्ण लेश्याओंसे रहित होकर प्राणोंको छोड़ता है वह हमेशाके लिये आयुके बंधनसे हो मुक्त होता है वह तो परम निर्वाण मोक्षको हो प्राप्त करता है । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [१८३ छंदः दोषकशुद्धतमा गुणवृद्धिगरिष्ठा भव्यशरीरिनिवेशित चेष्टाः । दूरनिवारितसंसृति वेश्याः कस्य सुखं जनयन्ति न लेश्याः।।२००४॥ ॥ इति लेश्याः ॥ अविध्नेन विशुशास्मा लेप्याशुद्धिमधिष्ठितः । प्रवर्तितशुभध्यानो गृह्णात्याराधनाध्वजाम् ॥२००५॥ क्वाति चितितं सौख्यं छिनत्ति भवपादपम् । इत्थमाराधना देवो भव्येनाराध्यते सदा ॥२००६॥ अर्थात् अयोगकेवली जिन सर्वलेश्या रहित हैं और शेष मनुष्य आयु पूर्णकर संपूर्ण कर्मोसे छूटकर मोक्षसुखको प्राप्त करते हैं ॥२००३।। जो शुभ ले श्यायें हैं वे गुणोंकी वृद्धि करने में प्रधान हैं, भव्यजीवोंके चेष्टानों को शांत करनेवाली हैं दूरसे ही संसृतिरूपी वेश्याको रोकनेवाली हैं ऐसी लेश्या किसको सुख उत्पन्न नहीं करती? सबको सुख उत्पन्न करतो हैं ॥२००४।। ले श्यानामा अड़तोसयां अधिकार समाप्त । आराधना फलनामा उनचालीसयो अधिकारइसप्रकार निर्विघ्नतासे जिसने आहारादि त्यागसे लेकर ध्यान तक सर्व कार्य कर लिये हैं जो ले श्याको शुद्धिसे युक्त है, शुभध्यानमें प्रवृत्त है ऐसा क्षपक मुनिराज आराधना ध्वजको ग्रहण करता है ।।२००५।। भव्यात्मा द्वारा इस आराधना रूपी देवी को आराधना सदा की जाती है, कैसी है आराधना देवी ? जो मनोवांछित सौख्यको देती है, और संसाररूपी वृक्षको काटती है। भावार्थ यह है कि जैसे कोई किसी देवीको पाराधना पुत्र सुखादिकी प्राप्ति हेतु करता है और उससे उक्त फल पाता है विद्या मंत्रादि अधिष्ठात्री देवताकी सिद्धि कर उससे उक्त कार्य पूर्ण करता है वैसे सम्यक्त्व आदि चार प्रकारको आराधनारूपी देवीको आराधना करके क्षपक मुक्ति सुखको प्राप्त करता है ।।२००६।। जिनके द्वारा सिद्धि प्रासादमें प्रवेश करानेवाली इस आराधना देवीका प्राराधन नहीं किया जाता उनके द्वारा तीन लोकमें क्या प्राप्त किया जाता है ? मानव Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ मरणकण्डिका यरेषाराधना देवी सिद्धि सौषप्रवेशिनी । पाराषिता न तैर्लाभः को लब्धो भुवनत्रये ॥२००७॥ यथास्यातविधि प्राप्ता विशुद्धज्ञानवर्शनाः । वहन्ति घातिदारूणि केचिध्यानकृशानुना ।।२००६॥ त्यजत्याराधका घेहं ध्यायन्तो भुवनत्रयम् । द्रव्यपर्यायसंपूरणं केवलालोकलोकितम् ॥२००६।। रत्नत्रयकुठारेण छिस्वा संसारकाननं । भवंति सहसा सिद्धा नृसुरासुरवंदिताः ॥२०१०॥ आराध्याराधनामेवमुत्कृष्टां धूतकल्मषाः । मृत्या केवलिनः सिखाः सन्ति लोकारवासिनः ॥२०११॥ पर्याय में आने का उसे क्या लाभ हुमा । कुछ भी लाभ नहीं हुआ । अर्थात् मानव जन्म पाकर जिसने चार आराधना सहित समाधिमरण नहीं किया उसको मानय जन्मका लाभ होना नहीं होने के समान है ॥२००७।। संस्तर में प्रारूढ़ कोई क्षपक मुनिराज यथाख्यात चारित्रको प्राप्तकर विशुद्धज्ञान दर्शन युक्त हो ध्यानरूपी अग्नि द्वारा पातिया कर्मरूप इंधनको जला देते हैं-सर्वज्ञ अरिहंत बनते हैं ।।२००८।। वे भव्यारमा आराधक मुनिजन केवलज्ञान दर्शन द्वारा द्रव्य और पर्यायोंसे परिपूर्ण ऐसे तीन लोकका अवलोकन कर उनका ध्यान करते हुए शरीर को छोड़ देते हैं, अर्थात् केवलज्ञानको प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं ।।२००९। आराधना करनेवाले मुनिगण रत्नत्रयरूपी कुठार द्वारा संसाररूपी जंगलको काटकर शीघ्र ही मनुष्य और सुर असुरोंसे वंदित सिद्ध हो जाते हैं ॥२०१०॥ इसप्रकार उत्कृष्ट आराधनाको करके नष्ट कर दिया कर्मोको जिन्होंने ऐसे वे क्षपक केवलशानी होकर लोकापवासी सिर होते हैं ।।२०११।। इसतरह उत्कृष्ट प्राराधनाको करनेवाले उत्कृष्ट सिद्धपद को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार उत्कृष्ट आराधनाका फल बताया। आगे मध्यम आराधनाफा फल बतलाते हैं Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८५ ध्यानादि अधिकार अवशेषितकर्माणः पवित्रागममातृकाः । कामकोपाविहास्यादिमिथ्यावर्शनमोचिनः ॥२०१२।। सुखदुःखसहा वृसज्ञानदर्शनसंस्थिताः । संवृत्ताः ससमाधाना शुभध्यानपरायणाः ॥२०१३॥ विधायाराधनां बेवीं मध्यमां मुक्तविग्रहाः । शुद्धलेश्यान्विता देवाः सन्स्यनुसरवासिनः ॥२०१४।। सुखं साप्सरसो देवाः कल्पगा निविशति यत । ततोऽनंत गुण स्वस्थं लभते लवसत्तमाः ॥२०१५॥ जिनके कर्म अभी शेष हैं, जो पवित्र आगमके श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि हैं, काम कोपादि कषाय एवं हास्यादि भाव तथा मिथ्यात्वको जिन्होंने त्याग किया है। सुखदुःखको समान भावसे सहनेवाले हैं, दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हैं, गुप्तिसे संवत्त, समाधान युक्त हैं, धर्म और शुक्ल रूप शुभध्यान में तत्पर हैं ऐसे क्षपक मुनि मध्यरूपसे प्राराधनादेवीकी आराधना करके शरीर छोड़ते हैं और शुद्ध लेश्या-शुद्ध लेश्यासे युक्त होकर अनुत्तर विमानवासी देव होते हैं ।।२०१२॥२०१३।।२०१४॥ विशेषार्थ-अनुत्तर विमान पांच हैं--विजय, वैजयंत, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इनमें शुक्ल लेश्याधारी एक हाथकी अवगाहना वाले अहमिन्द्रोंका निवास है, ये नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं इनको श्रायु सर्वार्थसिद्धि वासियोंकी तो जघन्य उत्कृष्ट तैतीस सागर प्रमाण ही है । विजयादि चार विमानवासियों के जघन्य बत्तोस सागर और उत्कृष्ट तैतोस सागर प्रमाण है । सर्वार्थ सिद्धिवाले एक भवावतारी और विजयादिक वासी दो भवावतारी होते हैं। इसप्रकार शुक्ल लेश्याके साथ मध्यम आराधना करने वाले क्षपक मुनि पंच अनुतर विमानोंमें दिव्यसुखानुभव करते हैं । षोडश स्वर्गवाले कल्पवासी देव अप्सराओंसे युक्त होकर जो सुख प्राप्त करते हैं उनसे अनंतगुणा स्वस्थ सुख अहमिन्द्र देव प्राप्त करते हैं । अर्थात् सोलह स्वर्गों तक तो अन्य ऋद्धि आदिके साथ देवांगना भी रहती हैं उन सबसे जो सुख कल्पवासियोंको मिलता है उससे अनंतगुणा सुख अहमिन्द्रोंको देवांगनाके अभाव में भी प्राप्त होता है, क्योंकि विषयको चाह रूप दाह अहमिन्द्रोंको अल्प है तथा कामेच्छा तो होती ही नहीं अतः देवांगनाके नहीं रहते हुए भी तृप्त स्वस्थ सुखी रहते हैं ॥२०१५।। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका विशुद्धदर्शनशानाः सयबाल्पातसंयमाः । शश्वनिर्मललेश्याका बर्द्धमानतपोगुणाः ॥२०१६॥ प्रदोनमनसो मुक्त्वा कचारमिव विग्रहम् । देवेंद्रचरमस्पान प्रपद्यन्ते बुधाचिताः ॥२०१७॥ वर्यरत्नत्रयोद्योगाः कषायारातिमद्दिनः । संति लोकांतिका देवा देहोद्योतितपुष्कराः ॥२०१८॥ ऋद्धयः संति या लोके यानींद्रियसुखानि च । क्षपकास्तानि लप्स्यन्ते सर्वाण्येष्यस्यनेहसि ॥२०१६॥ जधन्यारा ऐत्री तेजोदेश्या वयाः । आराध्य क्षपकाः संति सौधर्मादिषु नाकिनः ॥२०२०॥ जो विशुद्ध ज्ञान दर्शन वाले हैं यथाख्यात संयमी हैं, सदा निर्मल लेश्याको धारण करने वाले हैं, वर्द्धमान तप गुणोंसे संयुक्त हैं बुद्धिमान द्वारा पूजित हैं ऐसे श्रेष्ठ मुनिराज दीनता रहित होकर कचरेके समान शरीरका त्याग करते हैं और देवेन्द्रके चरम स्थान ( सोलहवें स्वर्गका देवेन्द्रपद) प्राप्त करते हैं ॥२०१६।।२०१७।। जिन्होंने श्रेष्ठ रत्नत्रयकी आराधनाका बड़ा भारी उद्योग किया है एवं कषाय शत्रका मर्दन किया है ऐसे मुनिराज लौकान्तिक देव होते हैं कैसे हैं वे देव ? अपनी शरीरकी कान्तिसे व्याप्त किया स्वर्गको जिन्होंने ऐसे हैं । अथवा इस कारिकाका अर्थ इस प्रकार भी है--जिन्होंने पूर्व भवमें रत्नत्रयको आराधना को थो एवं आगामी भवमें नियमसे श्रेष्ठ रत्नत्रयका उद्योग करेंगे तथा कषाय शत्रु जीतने वाले और देहकी कांति से स्वर्गको उद्योतित करनेवाले एवं गुण विशिष्ट लोकान्तिक होते हैं, ऐसे लोकांतिक देव पदको आराधना करनेवाले मुनि प्राप्त करते हैं ॥२०१८॥ इस संसार में जो भी ऋद्धियां हैं, जो इन्द्रियोंके सुख हैं उन सभीको क्षपक मूनि आगामीकालमें प्राप्त करेगा ।।२०१६।। इसप्रकार मध्यम आराधनाका फल बतलाया । मध्यम आराधना करनेवाले को शुक्ल या पद्य लेश्या होती है । जघन्य आराधनाका फलपीत लेश्यावाले क्षपक मुनि जघन्य रूपसे आराधना देवीकी आराधना करके सौधर्म प्रादि स्वर्गों में देव होते हैं ।।२०२०।। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [५८७ बहुनात्र किमुक्त न यत्सारं भुवनत्रये । प्राराध्याराषनां देवीं लभते तन्मनीषिणः ।।२०२१।। भुक्त्वा भोग च्युताः सन्तो भूत्या भुवि नरोत्तमाः । विहाय महती भूति भूत्वा सिध्यन्ति साधवः ॥२०२२।। धुतिस्मृतिमतिश्रद्धावीर्यसंवेग भागिनः । परोषहोपसर्गाणां जेतारो विजितेन्द्रियाः ॥२०२३॥ सयथाख्यातचारित्राः पवित्रज्ञानदर्शनाः । विशोध्य मलिना लेश्यां शुद्धध्यानविद्धिमः ॥२०२४॥ शुक्ललेश्यांगनाश्लिष्टाध्वस्तनिःशेषकल्मषाः । भवन्ति सहसा सिद्धा भवनोसमवंदिताः ॥२०२५॥ ----.. -. ___ अधिक कहनेसे क्या लाभ ? इस भुवनत्रयमें जो भो सारभूत वस्तु है, सुख है, वह सब ही आराधनादेवीकी पाराधना करके बुद्धिमान मुनिजन प्राप्त करते हैं ॥२०२१॥ आराधक मुनि समाधि करके स्वर्गमें जाते हैं वहां देव पर्याय में दिव्य भोगको भोगकर वहांसे च्युत होनेपर पृथिवीपर मध्यलोकके आर्यभूमिमें मनुष्यों में महान् ऐसे " श्रेष्ठ मनूष्य-चक्रवर्ती, बलदेव आदि होते हैं पुनः उस मनुष्य संबंधी महान विभूतिका त्याग करके जिनदीक्षा ग्रहणकर सिद्ध हो जाते हैं ।।२०२२॥ धृति, स्मृति, मति, श्रद्धा, बोर्य और संवेगगुणोंसे संपन्न, परीषह और उपसर्गों को जीतनेवाले, इन्द्रिय विजयी यथाख्यात चारित्रको धारण करनेवाले, पवित्र है सम्यग्दर्शन ज्ञान जिनका, ऐसे मुनिगण, अशुभ लेश्या (कृष्णादि) का शोधन करत्यागकर शुद्ध ध्यानको बढ़ानेवाले तथा शुक्ल लेश्यारूपो स्त्रीसे आलिंगित अर्थात् शुक्ल लेश्याके धारक और नष्ट कर दिया अशेष कर्मोंको जिन्होंने ऐसे होकर शोघ्र ही तीन लोक में उत्तम और वंदित सिद्ध भगवान बन जाते हैं । अर्थात् मुनि शुक्ल लेश्याको धारण करके शुक्लध्यान द्वारा कर्मोंका नाशकर सिद्ध प्रभु होते हैं ॥२०२३।।२०२४॥ ।।२०२५।। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ ] मरणकण्डिका इत्थं संस्तरमापना रौद्रातवशवतिनः । रत्नत्रयं विशोध्यापि भूयो भ्रश्यन्ति केचन ॥२०२६॥ प्रातरौद्रपरः साधुर्यो मुचति कलेवरम् । एतां दुःखप्रदामेष देवदुर्गतिमृच्छति ॥२०२७॥ चिराभ्यस्तचरित्रोऽपि कषायाक्षवशीकृतः । मृत्युकाले ततःसयो यदि भ्रश्यति संयतः ॥२०२८।। प्रवसन्नो पथाछयो यः पार्श्वस्थः कुशीलकः । संसक्तश्च तदा कि न स भ्रश्यति कुमानसः ।।२०२६॥ इसप्रकार प्रशस्त शुभ लेश्यापूर्वक समाधि करनेका महान श्रेष्ठ फल बताया अर्थात शुभ लेश्या युक्त और चार आराधनाओंकी आराधना करनेवाले साधु स्वर्ग और अपवर्गरूप सार फलको प्राप्त करते हैं ऐसा आराधनाके फलका वर्णन किया। आगे जो आराधनाकी विराधना करते हैं अर्थात् समाधिमरणका नियम लेकर भी दुर्लेश्या और दुर्व्यानके वश होते हैं उन मुनियोंको उक्त विराधनाका क्या फल मिलता है इस विषयको बतलाते हैं ____ कोई क्षपक मुनि संस्तरमें आरूढ़ होनेपर तथा रत्नत्रयका शोधन करके भो रौद्रध्यान और आर्तध्यानके वश हो जाते हैं इसतरह वे पुनः भ्रष्ट होते हैं। जो रस्नत्रयसे च्यत हुए हैं वे आर्तध्यान रौद्रध्यान पूर्वक शरीरको छोड़ते हैं उक्त खोटे ध्यानसे दुःखदायी देव दुर्गतिको प्राप्त होते हैं । भाव यह है कि समाधिका नियम लेनेपर भी किसी क्षपक मुनिको आर्त रोदध्यान हो जाता है उससे आराधनाको विराधना होनेसे वह देवदुर्गतिमें होन देवों में चला जाता है ।।२०२६॥२०२७।। जिसने चिरकाल से चारित्रका अभ्यास किया है ऐसा संयत भी यदि मत्यकालमें भूख आदिकी वेदनासे कषाय और इन्द्रियोंके वश होता है और चारित्रसे एवं समाधिसे भ्रष्ट हो जाता है तो फिर जो साधु अवसन्न, यथाछंद, पार्श्वस्थ, कुशील और संसक्त इन पांच प्रकारके भ्रष्ट कुबुद्धि मुनियों में से कोई है वह क्या समाधिसे व्युत नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥२०२८।।२०२६।। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि प्राधिकार [ ५८१ अशुद्धमनसो वश्याः कषायेन्द्रियविद्विषाम् । पूज्याल्यासावनाशीला नीचा मायापरायणाः ॥२०३०।। धर्मकर्मपराधीनाः पापसूत्रपरायणाः । संघकृत्ये ममानेन कि कृत्यमिति वादिनः ॥२०३१॥ सर्ववतातिचारस्थाः सुखास्वादनलालसा: । प्रनाराधितचारित्राः परचिताकृतोद्यमाः ॥२०३२।। इहलोकक्रियोक्ताः परलोकक्रियालसाः । मोहिनः शवलाः क्षुद्राःसंक्लिष्टा दीनवृत्तयः ।।२०३३।। मालोचनामनाधाय ये नियंते कुबुद्धयः । त्रिदिवे निविताचारा तुर्भपाः संति ते सुराः ।।२०३४।। आगे किन किन मुनियोंकी समाधि नष्ट होती है एवं देवदुर्गति होती है उनका स्वरूप बताते हैं-- जो अशुद्ध मनवाले हैं, कषाय और इन्द्रियरूपी शत्रुओंके वशमें हैं, पूज्य पुरुष-- तीर्थकर गणधर आदिको आसादना करनेका जिनका स्वभाव है, नीच हैं, मायामें तत्पर हैं । धर्मकार्यको पराधीन होकर करते हैं अर्थात् आचार्य संघ आदिके भयसे सामायिक आदि करते हैं स्वयंके रुचिसे स्वाधीनतासे धर्म क्रियायें नहीं करते, काम शास्त्र, वैद्यक शास्त्र, काव्य, नाटक, चोर आदि विद्याके शास्त्र पढ़ने पढ़ाने में सदा लगे रहते हैं, जब संघका कोई वैयावृत्य आदि काम आता है तो उस समय कहते हैं कि मेरे को क्या करना है, मुझे इससे कुछ प्रयोजन नहीं इत्यादि अर्थात् संघका काम नहीं करते । महाप्रतादि सबमें अतीचार लगाते हैं, सदा सुखिया जीवन जीते हैं अथवा सुख और स्वादु भोजनके लंपटी हैं, चारित्रको आराधना नहीं करते, पर गृहस्थ आदिकी चिंता करने में हो उद्यत हैं । इस लोक संबंधी क्रिया-शरीर संबंधी, देश राज्य संबंधी या गृहस्थ संबंधी क्रियामें तो तत्पर हैं और परलोक संबंधो क्रिया-निर्दोष व्रतपालन, समोचोन ज्ञानवृद्धि आदिमें आलसी हैं, मोही हैं, शिथिलाचारो, क्षुद्र, संश्लिष्ट परिणाम युक्त और दीनवृत्तिभिखारी जैसी दीनता करते हैं, कुबुद्धि है ऐसे भ्रष्ट मुनि दोषोंको आलोचना बिना किये ही मरते हैं और स्वर्गमें निंदित आचरण दासकर्म वाहनकर्म आदि आचारको करनेवाले अप्रिय नीच देव होते हैं ।।२०३०॥२०३१।१२०३२।।२०३३।।२०३४।। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० } मरणकण्डिका संघकृत्ये निरुत्साहाः किमनेन ममेति थे। ते भवन्ति सुरा म्लेच्छा वाद्यवादिविवौकसा ॥२०३५॥ कंदर्पभावनाशीलाः फंदर्याः संति नाकिनः । निघाः किल्विषिकाः संति मृताः किल्बिषभावनाः ।।२०३६॥ अभियोग्यक्रियासक्ता आभियोग्या:सुरा मताः। प्रासरी भावनाः कृत्वा मृत्वा सन्त्यसुराः पुनः ।।२०३७॥ संमोहभाषनोयुक्ताः संमोहास्त्रिदशामृताः । विराधकः पराप्येवं प्राप्यते देवदुर्गतिः ॥२०३८॥ इत्थं विराध्य ये जोधा म्रियते-संयमादिकम् । तेषां बालमृतिस्तस्याः फलं पूर्वत्र वर्णितम् ॥२०३६।। __ जो साधु संघके कार्यमें निरुत्साही हैं और कहते हैं कि इस संघके वैयावृत्य आदि कामसे मुझे क्या प्रयोजन है ? मैं कुछ भी काम नहीं करूंगा इत्यादि । सो ऐसे मुनि देवसभामें बाजे बजाना, गाना आदि होन कार्य को करनेवाले म्लोच्छ जैसे देव होते हैं । भाव यह है कि जो मुनि संघके कार्य में दूर-दूर रहता है, वैयावृत्यादिमें मुह छिपाता है कि मुझे ये कार्य न करना पड़े । ऐसा मुनि-मरकर स्वर्ग में नोच चंडाल जैसा देव बनता है वह देवसभासे दूर रहता है उसे सभामें प्रवेश नहीं मिलता है ।।२०३।। ___कंदर्पभावनासे युक्त मनि मरणकर कंदर्प जातिके देव होते हैं। जो मनि किल्विष भावनासे युक्त होते हैं वे मरकर किल्विषिक जातिके निंदनीय देव होते हैं। आभियोग्य क्रियामें-दासक्रियामें जो लगे रहते हैं वे मरणकर आभियोग्य जातिके देव होते हैं । आसुरी भावनाको करके भरण करनेवाले भ्रष्ट मुनि असुरकुमार देव होते हैं और संमोह भावनामें तत्पर रहनेवाले मुनि संमोह जातिके देव होते हैं। जो रत्नत्रयको आराधना नहीं करते, चार आराधना एवं समाधिको विराधना कर डालते हैं वे इन कंदर्प आदि नीच जाति रूप देवदुर्गतिको प्राप्त करते हैं तथा इसोप्रकार की अन्य हीनदेव पर्यायको पाते हैं ॥२०३६।।२०३७।।२०३८।। इसतरह संयम रत्नत्रय समाधि आदिको विराधना करके जो जीव मरते हैं, उनका मरण बालमरण कहलाता है, उस बालमरणका फल पहले बता ही दिया है ॥२०३९।। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार विराध्य ये विपद्यते सम्यक्त्वं नष्टबुद्धयः । ज्योतिर्भाविनभोमेषु से जायन्ते वितेजसः ॥२०४० ॥ दर्शनज्ञान होनास्ते प्रच्युता देवलोकतः । संसारसागरे घोरे बंभ्रमन्ति निरंतरम् ॥। २०४१ ।। [ ५६१ विशेषार्थ - कंदपं भावना आदि पांच प्रकारको भावनासे युक्त मुनिका समात्रिपूर्वक मरण नहीं होता प्रर्थात् भक्त प्रत्याख्यान आदिरूप पंडित मरण नहीं होता उनका तो बालमरण ही होता है । कंदर्प भावना आदि पांचों भावना एवं उन भावनाओंके करनेवाले मुनियोंका स्वरूप यहां पर बताते हैं-- कंदर्प काम या कामवासनाको कहते हैं, कामवासना से युक्त जिनका मन है, अश्लील, भण्ड वचन बोलते हैं दूसरोंकी वासना को बढ़ाते हैं, हँसी-मजाक करते हैं, कुचेष्टायें करते हैं वे मुनि कंदर्प भावना युक्त हैं ऐसा जानना चाहिये ऐसे मुनि मरणकर कंदर्प जातिके देव होते हैं जिनमें उपर्युक्त कामकी उत्तेजना, अश्लीलता आदि खोटी चेष्टायें स्वभावतः पायी जाती हैं। जो साधु तीर्थंकर का अविनय करते हैं, संघ चैत्य चैत्यालयको आसादना करते हैं, साधर्मी से विपरीत चलते हैं मायावी हैं, वे किल्विष भावनायुक्त हैं, वे मरणकर किल्विषक जातिके नीच चंडाल सहशदेव होते हैं । जो मंत्र, तंत्र, ज्योतिषी आदि कार्यों में लगे रहते हैं, साधु पदके अयोग्य ऐसे कार्य करते हैं वे अभियोग्य भावनावाले मुनि हैं और वे मरणकर अभियोग्य जातिके देव बनते हैं जो कि हाथी, घोड़ा, मयुर आदिका रूप लेकर अन्य उच्च देवोंकी सेवा करनेवाले हैं । मिथ्यामागंका तो प्रचार करते हैं और सन्मार्गस्वरूप जो जैनधर्म है उसका नाश करते हैं अर्थात् मिध्यात्व मोहसे मोहित हैं बुद्धि जिनकी ऐसे गाढ़ मिथ्यात्व भावना संयुक्त यति भांड सदृश जातिके संमोही देवों में उत्पन्न होते हैं । जो निदान युक्त हैं रौद्र परिणामी, वैर बांधने वाले अत्यंत संक्लिष्ट परिणामके धारक तीव्र कषायी मुनि हैं वे अंत्रावरीष नामवाले प्रसुर जातिके देव होते हैं । इसप्रकार कंदर्प आदि भावनायें और उन भावनावाले मुनियोंका स्वरूप कहा । ये सभी मुनि आराधना रहित बाल मरण करते हैं और नीच देव होते हैं वहां च्युत होकर चतुर्गति संसार में भ्रमण करते हैं । जो सम्यक्त्वको विराधना करके मृत्युको प्राप्त होते हैं वे नष्टबुद्धि ज्योतिष, भवनवासी और व्यंतर इन होन देवपर्यायमें उत्पन्न होते हैं ||२०४०|| सम्यग्दर्शन और Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ ] मरणकटिका ये मृता मुक्त सम्यक्त्वाः कृष्णलेश्याविभाषिताः। तथालेश्या भवाम्भोधौ ते भ्रमन्ति दुरुत्तरे ॥२०४२॥ छंद-उपजाति-- निवेशयंती भुवनाधिपत्ये मनीषितं कामदुधेव धेनुः । पाराषिता किं न ददाति पुसामाराधना सिद्विवधूवयस्या ॥२०४३॥ ॥इति फलम् ॥ सम्यग्झानसे रहित ३ जीव देवलोककी आयूपूर्ण कर वहांसे च्युत होकर घोर संसार सागर में चिरकाल तक परिभ्रमण करते हैं ॥२०४१।। जो कृष्ण नील कापोत लेश्याओंसे भावित अंत:करण वाले हैं । सम्यक्त्व रत्न को जिन्होंने छोड़ दिया है ऐसे साधु मरणकर उसीप्रकारकी लेश्यासे युक्त होकर संसाररूप भयंकर समुद्र में परिभ्रमण करते रहते हैं ।।२०४२॥ भावार्थ--पावस्थ आदि मुनि, कंदर्प आदि पांच प्रकारकी नीच भावनासे युक्त होते हैं । ये सभी नियमसे सम्यक्त्वादि रहित बाल मरण ही करते हैं, जिनको लेश्या खोटी है-कृष्ण लेश्या आदि युक्त होकर मरते हैं वे नियमसे भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं । वहां भी प्रायः उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो पाती। पहले मुनि अवस्थामें सतत् नीय संक्लिष्ट परिणाम युक्त रहने से वे खोटे संस्कार तथा जिनदीक्षा की विराधना का महान पाप अजित होनेसे वे सम्यक्त्व रत्नको नहीं पाते वहांसे च्युत होने पर एकेन्द्रिय आदि पर्यायोंमें जहांकि कृष्णादि तीन खोटी लोश्या ही है ऐसे भवों में परिभ्रमण करते हैं । जिनको मरणके समय कृष्ण आदि अशुभ लोश्या है उनकी नियमसे दुर्गति होती है । ऐसा जानकर महादुर्लभ सम्यक्त्व और व्रतादि की कभी विराधना नहीं करनी चाहिये एवं समाधि ग्रहणकर भूख प्यास आदिके कारण उससे च्युत नहीं होना चाहिये । अब इस आराधनाके फलनामा प्रकरणका उपसंहार करते हैं सम्यक्त्व आदि चार प्रकारको आराधनाओं के आराधक पुरुषोंको यह आराधना देवी तीनलोकके स्वामित्वमें स्थापित करती है । समीचीन प्रकारसे आराधित की गयी यह आराधना मनोवांछित फलको देनेके लिये कामदुधा धेनु है । यह सिद्धिरूपी वकी Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार एवं कालमतस्यास्य बहिरंतनिवासिनः । स्पजंति यत्नतो गात्रं वैयावृस्पकराः स्वयम् ।। २०४४ । । करते हैं साधून स्थितिकल्पोऽयं वर्षासु ऋतुबंधयोः । समस्तैः साधुभिर्यत्नाद्यनिरूपया निषधका ॥२०४५।। सखी आराधना क्या फल नहीं देती । सर्वे हो अभ्युदय और निःश्रेयस सुखोंको देती है ।।२०४३॥ इसप्रकार आराधना फल नामका उन्चालिसव अधिकार पूर्ण हुआ । अब आगे आराधक त्याग नामा अंतिम चालीस { LET अधिकार प्रारम्भ संस्तरको प्राप्त क्षपककी जब मृत्यु हो जाती है तब उसका शरीर वसतिका के बाहर या भीतर में स्थित है उसको वैयावृत्य करनेवाले मुनि स्वयं यत्नपूर्वक यथास्थान ले जाकर छोड़ देते हैं ।। २०४४ || भावार्थ — क्षपककी समाधि- प्राणांत हो जानेपर वैयावृत्य करनेवाले मुनिगण जो कि धैर्यशाली हैं जिन्होंने अनेकों बार सल्लेखनाको देखा एवं करवाया है शारीरिक सामर्थ्य से युक्त हैं ये क्षपकके शरीरको लेजाकर उचित प्रासुक भूमिपर छोड़ आते हैं, उस शवको किस दिशा में कितनी दूर किस तरीकेसे ले जाना इत्यादि विषयोंको आगे बता रहे हैं । यहां प्रश्न होता है कि शरीरादिसे भी निःस्पृह ऐसे यतिगण शवको स्वयं क्यों ले जाते हैं एवं उस अंतिम विधिमें प्रयत्नशील क्यों होते हैं ? इसका उत्तर देते हैं gar यह स्थितिप है कि वर्षायोग के प्रारंभ और अंतमें तथा ऋतुके प्रारंभ में समस्त साधुओं द्वारा प्रयत्नपूर्वक निषद्याका प्रतिलेखन निरीक्षण होना चाहिये । अर्थात् जिस भूमिपर क्षपकके शवका विसर्जन किया है वह स्थल निषद्या कहलाता है और उस निषद्याका प्रतिलेखन साधुओंको उक्त समयपर करना तथा उस निषद्याकी वंदना करना आवश्यक होता है || २०४५ Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ ] मरणकाजको निषद्या नातिदूरस्था विविक्ता प्रासुका घना। कर्तव्यास्ति परागम्या बालवृद्धगणोचिता ॥२०४६॥ वसते ते भागे दक्षिण पश्चिमेऽपि वा। निषधका स्थिता या सा प्रशस्ता परिकीर्तिता ॥२०४७।। सर्वस्यापि समाधान प्रथमायां सथान्यतः । पाहारः सुलभोऽन्यस्यां भवेत्सुखविहारिता ॥२०४८।। तवभावेऽनलाशायां वायथ्यायां हरेविशि । निषद्यकोत्तरस्यां वा मतेशानस्य वा दिशि ।।२०४६।। जहांपर क्षपकका शव क्षेपण करना है बह स्थल कैसा होना चाहिये इस विषय का प्रतिपादन करते हैं वह निषद्या स्थल नगर आदिसे प्रति दूर नहीं होना चाहिये, विविक्त-जन कोलाहल से दूर होना चाहिये, प्रासुक एवं धन-ठोस भूमिरूप जिसमें पोल आदि न हो एसा चाहिये बिल आदिसे रहित होना चाहिये, मिथ्यादृष्टिको अगम्य तथा बालवद्ध साधु समुदाय बहीं पहुंच सके इसप्रकार का होना चाहिये ।।२०४६॥ निषद्या की दिशाजिस वसतिकामें क्षषकको समाधि हुई है उससे नैऋत दिशामें या दक्षिण अथवा पश्चिम दिशामें निषद्या बनाना प्रशस्त शुभ माना है ।।२०४७।। निषद्या का दिशानुसार फलनैऋत दिशामें निषद्या स्थल होवे तो सर्व संघका समाधान-हित होता है । तथा दक्षिण दिशामें निषद्या होनेसे आहार सुलभ हो जाता है और पश्चिम दिशाकी निष द्या होनेपर संघका सुखपूर्वक विहार होता है । पुस्तक आदिका लाभ भी होता है ।।२०४८।। पूर्वोक्त नैऋत आदि दिशाओंमें निषद्या स्थल प्राप्त न हो सके और आग्नेय, धायथ्य, पूर्व, उत्तर या ईशान दिशामें निषद्या कर लेवे तो हानि होगी। आगे उस हानिको बताते हैं-आग्नेय दिशामें निषद्या होवे तो संघमें स्पर्धा पैदा होगी । वायव्य में Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार क्रमेण फलमेतासु स्पर्द्धा राटश्च जायते । मेवश्चापि तथा व्याधिरन्यस्याप्यपकर्षणम् ॥। २०५० ॥ यदेव म्रियते काले स्यजनीयस्तवैव सः I वेलायां विधातव्या छेदबंधनजागराः ।।२०५१ ।। भोरुशैक्षगरिग्लानबालवृद्ध तपस्विनः I पाकृत्या पारधीश जितनिम्राः प्रजाग्रतिः ।। २०५२ ।। कृतकृत्या गृहीतार्थी महाबलपराक्रमाः । हस्तांगुष्ठादिदेशेषु बंधं द्येवं च कुर्वते ॥२०५३ विधीयते न यद्येवं तवा काचन देवता । कलेवरं तवादाय विधत्ते भीषण क्रियां ॥। २०४४ ॥ [ ५६५ होनेपर कलह, पूर्व दिशा में निषद्या होने से संघ में फूट, उत्तर दिशा में होने से रोग और ईशान दिशामें निषद्या होनेसे संघ में खींचातानी होगी ||२०४६ ॥२०५०।। क्षपकका मरण जब होवे उसी वक्त उसके शवको लेजाना चाहिये और कदाचित वेला [रात्रिमें] मरण होवे तो शवका छेदन बंधन [ अंगुली का ] करना चाहिये और जागरण करना चाहिये ।। २०५१ । । क्षपकके शव के निकट जागरण करने वाले साधु कैसे होना चाहिये इस बातको बताते हैं- जो मुनि भीरु - डरपोक हैं तथा शैक्ष-अध्ययनशील हैं, रोगी बालवृद्ध मोर अधिक तपस्या करने वाले हैं ऐसे साधुओंको क्षपकके शव के पास जागरण नहीं करना चाहिये | जो अपार धैर्यशाली हैं जिन्होंने निद्वाको जीता है ऐसे साधु मृतक क्षपकके निकट जागरण करते हैं ।। २०५२ ।। जिन्होंने क्षपककी सेवा पूर्वमें अनेकों बार की है आगम के अर्थको भली प्रकार जानते हैं, महाबल और पराक्रमी हैं ऐसे साधु मृतक क्षपक के हाथ या पैर के अंगुष्ठ या अंगुलीको छेदते हैं और बांधते हैं ||२०५३ || उक्त छेदन और बंधनको यदि न किया जाय तो क्या दोष होगा सो बताते हैं Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ मरणकण्डिका यस्योपकरणं किंचित्कृत्वा यांचा यवाहतम् । कृस्वा संबोधनं सर्व तत्तस्याप्य विधानतः ॥२०५५॥ प्रसिद्धो यदि संन्यासः स्थानरक्षायिका पवि ।। विपन्ना विधिना कार्या तदानी शिक्षिकोत्तमा ॥२०५६।। संस्तरेण सम बद्धवा मृतक विधिना इदम् । विधायोत्थानरक्षार्थ प्रामस्य विमुखं शिरः ॥२०५७॥ क्षपकके शवका छेदन बंधन नहीं करनेपर उस देहमें कोई कोतुहली देव प्रविष्ट हो भयंकर चेष्टायें कर सकता है । अर्थात् जिसका मृतक कलेवरमें क्रीड़ा करनेका स्वभाव है ऐसा कोई भूत आदि व्यंतर उस शरीरमें प्रविष्ट हो जायगा उस प्रेतको लेकर दौड़ना कोड़ा आदि करना प्रारंभ करेगा और इस कार्यको देखकर कोई बालमुनि या भोरुमुनि भयभीत होवेंगे । या मरणको भी प्राप्त हो सकते हैं । अतः हाथ आदिकी अंगुलिका छेदन बंधन करना आवश्यक है ॥२०५४।। मत क्षपकके शरीरका क्षेपण करनेके अनंतर क्या करना सो बताते हैं--- क्षपकके समाधिमरणके पश्चात् समाधिको सिद्धि लिये पाटा, चटाई, कमंडल आदि उपकरणोंको याचना करके जो लाये गये थे अथवा कुछ तैयार किये थे उन पदार्थोंको जो-जो जिसके हों उस उसको उस स्वामीके लिये कहकर वापिस दे देना चाहिये । अर्थात् यह वस्तु अब संघमें उपयोगी नहीं है आपले जाईये इसतरह कहकर बस्तुके मालिकको अर्पित कर देवें ॥२०५५। मुनियोंके समाधिमरण होनेपर उनके शवको वैयावृत्य करनेवाले मुनिराज योग्य भूमिमें ले जाकर क्षेपण करते हैं ऐसा वर्णन किया । यदि आर्यिका क्षुल्लक आदि का विधिपूर्वक समाधिमरण होये तो उनके शवको किसप्रकार ले जावे, कौन ले जावे ? इत्यादि विधिका आगे प्रतिपादन करते हैं आयिकाका सल्लेखना विधिसे मरण होनेपर तथा क्षुल्लक व्रती धावक आदिका समाधिमरण होनेपर उनके शवको लेजाने के लिये उत्तम पालकी-विमान तैयार करना चाहिये । फिर संस्तरके साथ उसे मृतक विधिपूर्वक दृढ़ बांधना, विमानमें लिटाकर ले Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ५६७ क्षिप्रमानाम गच्छंति नीटिदाबाना पुरा : निवर्तनमवस्थानं त्यक्त्वा पूर्वावलोकनम् ॥२०५८।। पुरोगन्तव्य मेकेन गृहोतकुशमुष्टिना । पूर्वावलोकनस्थाननिवर्तनविजिना ॥२०५६।। कृत्यस्तत्र समस्तेन संस्तरः कुशधारया । अच्छिन्नया सकृद्देशे वीक्षिते समपातया ॥२०६०॥ स चूर्णः केशरर्वापि कुशाभाये विधीयते । समानः सर्वतोऽच्छिन्नो धीमता विधिनासकृत् ॥२०६१।। मादौ मध्येवसाने च विषमो पवि जायते । प्राचार्यों वषभः साधुर्मृत्यु रोगमथाश्नुते ।।२०६२॥ . जाना चाहिये । ले जाते समय शवका मस्तक ग्रामके तरफ होने चाहिये (पैर जिसस्थानपर ले जा रहे हैं उधर करना चाहिये) शव का मस्तक ग्रामको तरफ इसलिये करते हैं कि कदाचित वह शव उठेगा (भूतके प्रविष्ट होनेसे) तो ग्रामकी तरफ नहीं दौड़ेगा । विमानमें शवको लिटाकर लेजाते समय शीघ्र चलना चाहिये । रास्ते में रुकना नहीं चाहिये, आगेका मार्ग देखते हुए चलें,पोछे लौटकर नहीं देखें । जो मार्ग पहले देखाहो उसमार्गसे लेजाना चाहिये। उस शबके आगे एक व्यक्ति मुट्ठी में कुशा लेकर चले, वह पुरुष भी पीछे मुड़कर न देखे न मार्ग में ठहरे 1 जिस स्थान पर शवको ले जाना है वह पहलो देखा हो, यहाँपर समान भूमि रूप संस्तर उस आगे जाने बालो व्यक्तिको करना चाहिये । कुशा-घासके द्वारा अंतराल रहित समान रूप संस्तर बनाना चाहिये । यदि घास नहीं हो तो चूर्ण केसर चावल आदिसे चारों ओरसे छेद रहित समान ऐसा संस्तर बुद्धिमानको करना चाहिये । संस्तर विषम नहीं होना चाहिये ।।२०५६।।२०५७।२०५८॥२०५६।२०६०।२०६१।। ___ जहांपर शवको स्थापित करना है वह भूमि एवं मस्तर विषम हो तो क्या हानि है यह बताते हैं ऊपरो भागमें, मध्यमें और अंतमें यदि संस्तर में विषमता होवे तो क्रमशः आचार्य, श्रेष्ठ मुनि और सामान्य मुनिका मरण होगा या रोग होगा। अर्थात् ऊपरी भागमें संस्तर भूमि विषम हो तो प्राचार्यका मरण होगा या उन्हें रोग होगा । मध्यमें Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ मरणकण्डिका ग्रामस्याभिमुखं कृत्वा शिरस्त्याज्यं कलेवरम् । उत्थानरक्षणं कतु मस्तकं कियते तथा ॥२०६३॥ विषमता हो तो श्रेष्ठ मुनिका मरण या रोग एवं अंतभागमें-नीचेके भागमें संस्तर होवे तो सामान्य मुनिका मरण या उन्हें रोग होगा ।।२०६२।। ___ इसप्रकार शव क्षेपणका स्थान भली प्रकारसे देखकर उसे सम करके ग्रामके तरफ मस्तक करके शरीरको रखना चाहिये । ग्रामके तरफ मस्तक करनेका अभिप्राय यही है कि उस शवमें कदाचित भूत प्रविष्ट हो और वह दौड़े तो ग्रामकी तरफ नहीं जावे। इसतरह ग्रामकी रक्षा करने के लिये मस्तक वैसा किया जाता है। यह बात पहले शवको लानेको विधिमें भी कही है ॥२०६३॥ विशेषार्थ-क्षपकके समाधि होने के पश्चात् क्या-क्या कर्तव्य विधि है उसको बताया जा रहा है । क्षपक मुनिका समाधिमरण होनेपर वैयावृत्य करनेवाले मनि उस शवको ले जाकर प्रासुक समभूमिमें क्षेपण करते हैं । वसतिकासे नैऋत, दक्षिण और पश्चिम इन तीन दिशामें लेजाना चाहिये । शव स्थापित करनेको भूमिपर घास आदि का संस्तर करना चाहिये वह भूमि व संस्तर पूर्णतया समान होना चाहिये । निषद्या स्थानपर ले जाते समय लेजाने वाले मुनियोंको पीछे देखना, रुकना वापिस लौटना सर्वथा मना है । समान संस्तर पर ग्राम तरफ मस्तक करके शवको लिटाना चाहिये । शवके मिकट पोछी भी रखनी चाहिये । पीछीको शवके पास रखनेका उद्देश्य यह है कि जिसने सम्यक्त्व की विराधना करके मरणकर देव पर्याय पायी है । वह पीछीके साथ अपना देह देखकर मैं पहले भवमें मुनि था ऐसा जान सकेगा। इसप्रकार समाधि करनेवाले मुनिके शवको स्थापित करनेको विधि है । यदि आर्यिका क्षुल्लक, क्षुल्लिका ऐलक, प्रती ब्रह्मचारी आदि ने समाधिपूर्वक देह छोड़ी है अथवा उनका मरण हुआ है तो उनके शवको पालकी-विमान में रखकर संस्तर सहित बांधकर ग्राम तरफ मस्तक करके पूर्वोक्त विधिसे ले जाना चाहिये । एवं पूर्वोक्त विशेषण विशिष्ट भूमि संस्तरमें उसी विधिसे स्थापित करना चाहिये । प्राचीन कालमें वनोंमें मुनिजन निवास करते थे, वहांपर सल्लेखना आदि विधिसे किसी मुनि-क्षपकका मरण होनेपर अन्य मुनि उस क्षपकके शवको योग्य प्रासुक भूमि में स्वयं ले जाकर स्थापित कर आते थे। Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार शांतिर्भवति सर्वेषामुपे क्षपके मृते । मध्यमे मृत्युरेकस्प जायते महति द्वयोः ॥२०६४॥ महन्मध्य नक्षत्रे मृते शांतिविधीयते । यस्तो गणरक्षार्थ जिनाचकरणादिभिः || २०६५।। [ ५ee अब वर्तमान में श्रावकोंके मध्य में मंदिर धर्मशाला आदि स्थानोंपर मुनिजन रहते हैं, यहां किसी मुनि आदिका सल्लेखना आदि विधिसे मरण होता है तो श्रावकगण काष्ठका विमान जैसा तैयार करके उसमें साधुके शवको स्थापित कर योग्य प्रासुक भूमिपर लेजाकर दाह संस्कार करते हैं । एवं उस स्थान पर छत्री, चबूतरा आदि बना देते हैं । सो यह कालके अनुसार होनेवाली व्यवस्थायें हैं । जघन्य आदि नक्षत्र में क्षपकका मरण होवे तो क्या फल होगा सो बताते हैं यदि क्षपकका मरण अल्प - जघन्य नक्षत्र में होता है तो सर्वसंघ प्रजा आदिको शांतिदायक है । मध्यम नक्षत्र में क्षपकने देह छोड़ी है तो एक मुनिकी मृत्यु होती है और उत्कृष्ट नक्षत्रमें क्षपककी मृत्यु हुई है तो दो मुनियोंका भरण होगा || २०६४ || विशेषार्थ — कौनसे नक्षत्र में क्षपकने प्राण छोड़े हैं यह देखकर संघके भविष्यका ज्ञान होता है । नक्षत्र तीन प्रकारके हैं जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । जो पंद्रह मुहूर्त्तके होते हैं उन नक्षत्रोंको जघन्य नक्षत्र कहते हैं वे छह हैं- शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा और जेष्ठा । इन नक्षत्रोंमेंसे किसी नक्षत्र में या उनके अंशपर क्षपककी समाधि हुई है तो संघ क्षेमकुशल होगा । तीस मुहूर्त्तके नक्षत्रको मध्यम नक्षत्र कहते हैं ये पंद्रह हैं-- अश्विनी, कृतिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपदा, हस्त, चित्रा अनुराधा, मूल, श्रवण, घनिष्ठा और रेवती । इन नक्षत्रोंमें या इनके अंशों पर मरण होगा तो एक मुनिका मरण होगा । पैंतालीस मुहूर्त के नक्षत्र उत्कृष्ट नक्षत्र कहलाते हैं, ये छह हैं- उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, पुनर्वसु, रोहिणी और विशाखा इन नक्षत्रों में या इनके अंशोंपर मरण होवे तो निकट भविष्य में दो मुनियोंकी मृत्यु होगी । उत्कृष्ट नक्षत्र और मध्यम नक्षत्र में यदि समाधिमरण होवे तो क्या करना चाहिये सो कहते हैं Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० ] मरणकण्डिका संपद्यतां नोऽपि विनांतरायमाराधनषेति गणेन कार्यः । वपुर्विसर्गः क्षपकाधिवासे पृच्छा च तस्मिन्नधिदेवतानाम् ।।२०६६॥ उपवासमनध्यायं कुर्वन्तु स्थगणस्थिताः । अनध्यायं मृतेऽन्यस्मिन्नुपवासो विकल्प्यते ॥२०६७।। उत्कृष्ट और मध्यम नक्षत्र में क्षपकका मरण हुआ है तो संघकी रक्षाके लिये प्रयत्नपूर्वक जिनेन्द्र देवको अर्चा आदि कराके शांति की जाती है ॥२०६५।। विशेषार्थ-भगवती आराधनामें उत्कृष्ट तथा मध्यम नक्षत्र में क्षपकके मरण होनेपर जो क्रिया बतायी है वह इसप्रकार है-जहां क्षपकका शव क्षेपण करे उस शवके निकट घासका प्रतिबिंब स्थापित करके यह दूसरा अर्पण किया है यह चिरकाल तक यहांपर रहकर तप करे ऐसा जोरसे तीन बार उच्चारण करना चाहिये । उत्कृष्ट नक्षत्र में समाधि होवे तो घासके दो प्रतिबिंब रखे जाते हैं । यदि घास तृणके प्रतिबिंबका अभाव हो तो तंडल चूर्ण, भस्म, ईटोंका चूर्ण आदि से किसीको लेकर शवके निकट ऊपरी भागमें का प्रक्षर लिखना और नीचेके भागमें य अक्षर लिखना अर्थात् "काय" लिखना चाहिये । अथवा क्षपकका शव भूमिपर जहां स्थापित करना है उस स्थानपर पहले चावल आदिके चूर्णसे ऊपर के और नीचे त लिखकर पुन: उसपर शव स्थापित करना चाहिये। क्षपकके शरीरका यथास्थान क्षेषण करने के अनंतर संघ द्वारा करणोय कार्य बताते हैं समाधिके अनंतर शवकी क्रिया संपन्न होनेपर चार आराधनाओंकी प्राप्ति हमको भी बिना किसो विघ्न बाधाओंके होवे । इस भावनासे समस्त संघको कायोत्सर्ग करना चाहिये । तथा क्षपककी समाधि जिस स्थान पर हुई थी, उस स्थानके अधिष्ठाता देवतासे पृच्छा करनी चाहिये कि यहांपर संघ रहना चाहता है ।।२०६६।। क्षपकका समाधिमरण होनेपर अपने संघके साधुजन उपवास करे एवं स्वाध्याय को नहीं करे । अन्य संघमें समाधिमरण हुआ है तो स्वाध्याय नहीं करे और उपवास भजनोय है, करे अथवा नहीं करे ॥२०६७।। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार गत्वा सुखविहाराय संघस्य विधिकोविदः । द्वितीयेऽह्नि तृतीय का द्रष्टव्य तत्कलेवरम् ॥५७६i यावन्तो वासरा गात्रमिदं तिष्ठत्यविक्षतम् । शिवं तावन्ति वर्षाणि तत्र राज्ये विनिश्चितम् ।।२०६६।। प्राकृष्य नीयते यस्यां तवंगं श्वापदादिभिः । विह यज्यते तस्यां संघस्य ककुभिस्फुटम् ॥२०७०॥ यदि तस्य शिरो वन्ता दृश्येरन्नगमनि । तदा कर्ममलान्मुक्तो ज्ञेयः सिद्धिमसोमतः ॥२०७१॥ समाधिमरणके होनेके अनंतर संघके सुखपूर्वक विहार के लिये बुद्धिमान मुनियों को दूसरे दिन या तीसरे दिन उक्त निषद्यास्थल पर जाकर उस क्षपकके शवको देखना चाहिये । अर्थात् ज्ञानी मुनिजन निषद्या स्थान पर जाकर देखते हैं कि क्षपकका शव किस स्थितिमें है ।।२०६८।। जितने दिन तक क्षपकका शरीर पक्षी आदिके द्वारा क्षत विक्षत नहीं हुआ है उतने वर्ष तक उस देशके राज्य में नियमसे सुख शांति रहती है ।।२०६९।। क्षपकका कलेबर जंगली पशु पक्षो द्वारा जिस दिशामें खींचकर ले जाया गया हो उस दिशामें संघका विहार करना उचित होता है ॥२०७०॥ भावार्थ-जिस दिशामें कलेवरको पक्षी आदि लेगये हैं उस दिशामें क्षेम है ऐसा जानकर संघ उस तरफ विहार करे । पक्षी आदि जीव यदि क्षपकका मस्तक या दांत पर्वत पर लेगये हैं तो समझना चाहिये यह क्षपक मुनि कर्ममलोंसे मुक्त होकर सिद्धिको प्राप्त कर चुका है ॥२०७१॥ यदि क्षपफके मस्तकको उच्चस्थान पर पक्षी आदि लेगये हों तो क्षपक वैमानिक देव हआ है ऐसा समझे । समभूमि पर लेगये हों तो ज्योतिषी और व्यतर देव हुआ ऐसा समझे तथा किसी गर्त-गढ्ढे में मस्तकको ले गये हैं तो भवनवासी देव हुमा है ऐसा निश्चय करे । इसप्रकार शवको या उसके अवयवको पक्षी आदि द्वारा किस स्थानपर ले जाया गया है उसको देखकर क्षपककी गतिको ज्ञात करना चाहिये । इसप्रकार क्षपक का समाधिमरण, उसके मृत शरीरका क्षेपण इत्यादि विधिको जिनेन्द्र देवने कहा है, Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ ] मरण कण्डिका वैमानिकः स्थलं यातो ज्योतिष्को व्यंतरः समम् । गर्ता च भावनस्तस्य गतिरेषा समासतः ॥२०७२।। छंदः उपजातिइदं विधान जिननाथदेशितं ये कुर्वते पहनते त्र भक्तितः । प्रादाय कल्याणपरंपरामिमे प्रयांति निष्ठामपनीतकल्मषाम् ॥२०७३।। ॥ इति आराधकांग त्यागः ॥ भगवतोऽत्र ते शूराश्चतुर्बाराधनां मुशा। संघमध्येप्रतिज्ञाय निर्विघ्नां साधयन्ति ये ॥२०७४।। से धन्या जानिनो धीरा लब्धनिःशेषचितिताः । यरेषाराधना देवी संपूर्ण स्ववशीकृता ॥२०७५॥ कि न तै वने प्राप्तं वंदनीयं महोदयः । लोलयाराधना प्राप्ता परेषा सिद्धिसंफली ॥२०७६।। इन समस्त विषयोंकी जो महामना श्रद्धा करते हैं, इन सपूर्ण आराधना विधिको भक्तिसे स्वयं करते हैं, वे कल्याण परंपरा-मनुष्य तथा देवोंके सुखको प्राप्तकर अंतमें कर्ममलों को दूरकर सिद्धालयमें निवास करते हैं-मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं ।।२०७२।।२०७३।। इसप्रकार अाराधक अंग त्यागनामा चालीसवां अधिकार पूर्ण हुआ। चार प्रकारको आराधनाको करनेवाले आराधक मुनिजनोंको प्रशंसा-स्तुति करते हैं वे मुनिराज शूर हैं, पूज्य हैं, जिन्होंने संघके मध्य में चार प्रकारको आराधना को हर्षपूर्वक स्वीकार करके-समाधिमरण करनेको प्रतिज्ञा लेकरके उसको निर्विघ्न तथा पूर्ण किया है । वे ज्ञानी मुनिजन धन्य हैं, धीर हैं जिन्होंने अपने चितित समस्त संयम तप आदिको पाया है । जिनके द्वारा यह संपूर्ण आराधना देवी स्ववशमें कर ली गयी है । जिन्होंने लीलामात्र से सिद्धि रूप फलको देनेवालो यह आराधना प्राप्त करली है उन महापुरुषोंने इस विश्व में किस वंदनीय श्रेष्ठ पदको नहीं पाया ? सब कुछ श्रेष्ठ वंद्य पदको पाया है । क्योंकि सर्व वंद्य पदोंमें महावंद्य जो सिद्धिपद है उसको जिन्होंने पाया उन्होंने सर्व वंदनीय पद पाया हो है ।।२०७४।।२०७५॥२०७६।। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६०३ ध्यानादि अधिकार धन्या महानुभायास्ते भक्तितः क्षपकस्य यः । ढोकिताराधना पूर्ण कुभिः परमादरम् ॥२०७७॥ परस्य दौकिता पेन धन्यस्याराधनाङ्गिनः । निविघ्ना तस्य सा पूर्णा सुखं संपाते मृतौ ॥२०७८।। स्नाति लामती से कानातले । पापपंकेन मुच्यन्ते धन्यास्तेऽपि शरीरिणः ॥२०७६।। पर्वतादीनि तीर्थानि सेवितानि तपोधनः । जायंते यदि सत्तीर्थ कथं न क्षपस्तदा ॥२०८०॥ निर्यापक की स्तुतिवे महानुभाव धन्य हैं जिन्होंने भक्तिसे क्षपककी आराधना परमादरको करते हुए पूर्ण प्राप्त करायी है । अर्थात् क्षपक द्वारा चार आराधनाको करते समय भली प्रकारसे विनय एवं भक्ति पूर्वक उस आराधनामें सहायता की है-क्षपककी वैयावृत्यको है वे धन्य हैं । जो मुनिगण महाधन्य ऐसे अन्य क्षपक मुनिके पाराधनाको करनेमें सहायता देते हैं आराधनाको प्राप्त करवाते हैं उन मुनियोंके मरण काल में नियमसे सख शांति एवं निविघ्नतासे चार आराधना पूर्णरूपसे प्राप्त होती है। अर्थात अन्यकी सल्लोखना करने में जो सहायता देता है उसको सल्लेखना नियमसे होती है उसमें कोई बाधा नहीं आती ॥२०७७॥२०७८।। क्षपक मुनिका दर्शन वंदन करनेवाले भव्य पुण्यशाली हैं ऐसा कहते हैं कर्मरूपी कीचड़को धोनेवाले-उस कीचड़को दूर करनेवाले क्षपक रूप तीर्थमें जो भब्धजोव स्नान करते हैं वे धन्य हैं वे भी पापरूप कीचड़से छूट जाते हैं ।।२०७१।। क्षपक मुनितीर्थ स्वरूप कैसे हैं सो बताते हैं तपस्वी मनिराजों द्वारा सेवित पर्वत आदि स्थान तीर्थ माने जाते हैं अर्थात जहां पर पर्वत, गुफा आदि स्थानोंपर बैठकर मुनिराज ध्यान करते हैं आतपनादि योग धारण करते हैं श्रेष्ठ श्रुतज्ञान अवधिज्ञान आदि प्राप्त करते हैं उन स्थानोंको तीर्थ माना जाता है, वे पर्वतादि पवित्र पूज्य होते हैं । तो भक्त प्रत्याख्यान मरण रूप महा Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ ] मरणकशिका वंदमानोऽश्नुते पुण्यं योगिनां प्रतिमा यदि । भक्तितो न तपोराशिस्तदानों पकः कथम् ॥२०५१॥ सेव्यते क्षपको येन शक्तितो भक्तितः सदा । तस्याप्याराधना देवो प्रत्यक्षा जायते मृतौ ॥२०॥२॥ भक्तत्यागः सबोचारो विस्तरेणेति वर्णितः । अधुना तमयोचारं वर्णयामि समासतः ॥२०६३।। ॥ इति भक्तत्यागः ॥ तपस्या करनेवाले क्षपक मुनिराज सत् तीर्थरूप कैसे नहीं हैं ? वे अवश्य ही महातीर्थ स्वरूप हैं, पर्वतादिक तो तपस्वी मुनिके स्पर्शसे तीर्थ हुए हैं किन्तु तपस्वी क्षपक मुनि तो स्वयं महान आत्मिकगुण राशिका भंडार हैं वे ही मुख्यतीर्थ हैं ।।२०८०॥ देखिये ! मुनिराजोंकी प्रतिमाको वंदना करनेवाला व्यक्ति यदि पुण्यको प्राप्त करता है तो तपकी राशि स्वरूप योगी क्षपक भक्तिसे कैसे बंदनीय नहीं है ? अवश्य है। उनकी वंदना करनेवाला महान पुण्योपार्जन करता ही है ।।२०८१॥ जो भी भव्य जीव शक्तिसे भक्तिसे सदा क्षपककी सेधा वैयावृत्य करता है, वंदना करता है, नमस्कार पूजा करता है उसके भी क्षपकके समान आराधना देवी मरणकालमें प्रत्यक्ष प्रगट होतो है । अर्थात् क्षपकको वंदना सेवा करनेवाले पुरुषका समाधिपूर्वक मरण होता है ।।२०६२।। इस प्रकार यहां तक सवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरणका विस्तार पूर्वक वर्णन किया । अब आगे अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरणका संक्षेपसे वर्णन करते हैं |२०८३।। भावार्थ-प्रारंभ में भक्त प्रत्याख्यान मरणके दो भेद किये थे सवीचार भक्त प्रत्याख्यान और अवीचार भक्त प्रत्याख्यान । जिनकी आयु अभी शोध समाप्त नहीं होनेवाली है और कुछ कारण विशेष समाधिके लिये उपस्थित हो रहे हैं तब ज्ञानी मुनिजन क्रमशः आहार और कषायको कुश करते हुए अंतमें सर्वथा त्यागकर आत्माका ध्यान करते हुए प्राण छोड़ते हैं ऐसी विधि जिसमें होती है वह सवीचार भक्त त्याग है, Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानादि अधिकार [ ६०५ इस समाधिमरणका वर्णन करने में चालीस अधिकार कहे-अई, लिंग, शिक्षा, विनय, समाधि, अनियत विहार, परिणाम, उपधित्याग, श्रिति, भावना, सल्लेखना, दिशा, क्षरण, अनुशिष्टि, परगणचर्या, मार्गणा, सुस्थित, उपसर्पण, निरूपण, प्रतिलेख, पृच्छा, एकसंग्रह, आलोचना, गुणदोष, शय्या, संस्तर, निर्यापक प्रकाशन, हानि, प्रत्याख्यान, क्षापण, क्षपणा, अनुशिष्टि, सारणा, कवच, समता, ध्यान, लेश्या, फल, आराधक त्याग । इन अधिकारों में प्रायः यह ग्रंथ विभक्त है । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवीचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार भक्तत्यागोस्त्यवीचारो निष्चेष्टस्य दुरुत्तरे । सहसोपस्थिते मृत्यौ योगिनो वीर्यधारिणः ॥२०८४।। निरुद्ध' प्रथम तत्र निरुद्धतरमूचिरे । द्वितीयं तु तृतीयं च निरुद्धतममुत्तमाः ॥२०६५॥ निरुद्ध कथितं तस्य रोगातकाविपीडितं । जंघाबलविहीनो यः परसंघगमाक्षमः ॥२०५६॥ अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरणका वर्णन वोर्यधारी योगी मनि के अकस्मात् जिसका रोकना कठिन है। ऐसे मरण के उपस्थित हो जानेपर चेष्टा रहित-शक्ति रहित उस साधुके अवीचार भक्त प्रत्याख्यान नामका समाधिमरण होता है । अर्थात् अचानक भयंकर रोग, उपसर्ग आदिके आनेपर आहार त्याग रूप अवीचार भक्त प्रतिज्ञा मरणको मुनि स्वीकार करते हैं ।।२०६४।। अवीचार भक्त त्याग मरणके तीन भेद हैं-निरुद्ध, निरुद्धतर और परम निरुद्ध इसप्रकारके तीन भेदोंका गणधरादि उत्तम ऋषियोंने वर्णन किया है ।।२०५५।। निरुद्ध अबोचार भक्त त्यागका कथन करते हैं उस मनिके निरुद्ध नामका अबोचार भक्त प्रत्याख्यान कहा है, जो रोग, आतंक आदिसे पीड़ित है, जंघाबलसे रहित है, परसंधमें जानको असमर्थ है ॥२०८६।। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवीचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार यावदस्ति बलं बोयें स्वयं तावत्प्रवर्तते । क्रियमाणोपकारस्तु तदभावे गणेन सः || २०६७ ।। निरुद्धमवीचारं स्वगणस्थमितीरितम् । अपरः प्रक्रमः सर्वः पूर्वोक्तोऽत्रापि जायते ॥२०८८ || प्रकाशमप्रकाशं च स्वगणस्थमिति द्विधा । जनज्ञातं मतं पूर्व जनाज्ञातं परं पुनः ॥२०८६ ॥ [ ६०७ निरुद्ध नामके अवीचार भक्त प्रतिज्ञाको करने वाला मुनि जबतक बल और वीर्य है तब तक अपनी आवश्यक क्रियायें एवं शारीरिक क्रिया स्वयं करता है और जब बल रहित होता है तब संघके द्वारा उपकृत होकर संघकी सहायता लेकर उक्त क्रियायें करता है ।। २०८७॥ भावार्थ - शक्ति जबतक है तबतक रत्नत्रय पालनमें स्वयं प्रवृत्ति करता है और जब अत्यन्त अशक्त हो जाता है तब संघस्थ मुनि उसकी सेवा करते हैं । इसतरह अपने संघमें रहकर जो समाधिमरण किया जाता है वह निरुद्ध अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण कहलाता है । इसमें जो क्रम सवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरणमें कहा है वही सर्व कम होता है ॥२०८६ ।। विशेषार्थ --- जिस मुनिके पैरोंका सामर्थ्य कम हुआ है अथवा रोगादिसे पीड़ित है, अत: अन्य संघमें जाने में असमर्थ है ऐसे मुनि निरुद्ध अत्रोचार भक्त प्रत्याख्यान मरणको करते हैं अर्थात् अपने संघ में रहकर क्रमशः आहारादिके त्यागरूप विधिको करके समाधिमरण करना निरुद्ध अवचार भक्त त्यागमरण है । अवीचार भक्त त्याग में अनियत विहार स्वगणका त्याग, परगण में प्रवेश आदि विधि नहीं होती । यह मुनि स्वगण में आचार्य के चरणमूलमें दीक्षा से लेकर आजतक जो जो अपराध हुए हैं उनको आलोचना करता है तथा निंदा गर्हा, प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त करता है । वह क्षपक मुनि जबतक अपनी सामर्थ्य है तब तक बिना सहायता के प्रवृत्ति करता है, जब सामर्थ्य नहीं रहतो तब अन्य मुनिगणसे सहायता लेकर रत्नत्रय पालन करता है । अपने गए में स्थित होकर निरुद्ध अबोचार भक्त त्याग नामका जो समाधिमरण किया जाता है, उसके दो भेद हैं प्रकाश और अप्रकाश । जो जनता द्वारा जाना Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ } मरणकण्डिका द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं ज्ञात्वा क्षपकमानसं । प्रप्रकाशं मतं हेताबन्यत्रापि सतीरशे ॥२०६०॥ ॥ इति निरुद्धं ॥ जलानलविषव्यालसनिपातथिसूचिकाः । हरंति जीवितं क्षिप्रं भानूस्रा इव तामसम् ॥२०६॥ जाय वह प्रकाश अवीचार भक्तत्याग कहलाता है और जो जनता द्वारा ज्ञात नहीं है वह अप्रकाश अवीचार भक्त त्याग मरण समझना चाहिये ॥२०८६॥ द्रव्य, क्षेत्र, बल, काल और क्षपकका मानस इतनी बातोंको ज्ञातकर निरुद्ध अवीचार भक्त त्याग प्रकाशित या अप्रकाशित किया जाता है । प्राशय यह है कि इस समय वसतिका आदि योग्य उपलब्ध है या नहीं, क्षपकके स्वयंका मानस दृढ़ धैर्य युक्त है या नहीं क्षेत्र देश योग्य है या नहीं, क्षपको शक्ति कितनी है, काल ऋतु रूक्ष-उष्ण या कैसी है इत्यादि बातोंका विचार करके यदि ये सब अनुकूल होये तो निरुद्ध प्रवीचार भक्त त्यागको जनसमुदाय-श्रावक श्रादिके समक्ष प्रकाशित करना चाहिये अर्थात् यह मुनिराज सल्लेखना कर रहे हैं प्राहारका त्याग किया है इत्यादि प्रगट करना चाहिये । और यदि क्षपक परीषह आदिसे घबरानेवाला है अर्थात् धैर्य एवं शक्तिसे कमजोर है । समय समाधिके अनुकूल नहीं है ऐसे समयमें समाधिका अवसर प्राप्त होता है तो क्षपकके सल्लेखनाको-आहारादिका त्याग किया इत्यादि बातोंको जनताके समक्ष प्रगट नहीं करना चाहिये । क्षपकके बंधुगण या राजा प्रजा सल्लेखनाके विरुद्ध होये तो भी क्षपककी सल्लेखनाकी तैयारीको प्रगट नहीं करे ।।२०६०।। इसप्रकार निरुद्ध अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरणका स्वरूप कहा ।। अब निरुद्धतर अवीचार भक्त प्रत्याख्यानका कथन करते हैं--- जल, अग्नि, विष, जंगली र पशु इत्यादिके द्वारा घोर उपसर्ग उपस्थित होनेपर तथा सन्निपात रोग, तीन शूल रोग आदिके होनेपर तत्काल मरणका प्रसंग प्राप्त होता है, अथवा ये जलादि उपसर्ग एवं शूल आदि रोग शीघ्र जीवनको हर लेते हैं, जैसे सूर्यकिरणें अंधकारको हर लेती हैं ॥२०६१।। Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६०९ अवोबार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार यावन्न क्षीयते वाणी यावविद्रिय पाटवम् । यावद्धयं बलं चेष्टा हेयादेयविवेचनम् ॥२०१२॥ ताव बनया ज्ञात्वा हियमाणं स्वजीवितम् । आलोचना गुरोः कृत्वा धीरा मुचन्ति विग्रहम् ॥२०६३॥ स्वगणस्यमिति प्राजनिष्तरमोरितम् । अवशेषो विधिस्तस्य शेयः पूर्वत्र वर्शितः ॥२०६४॥ ॥इति निरुद्धतरम् ॥ -. -..-.. -- - - - -- इन जलादिके उपसर्ग उपस्थित होनेपर एवं सन्निपात आदि रोगोंके उपस्थित होनेपर मुनिजन जबतक वाणो-बोलने की शक्ति नष्ट नहीं होती जबतक इन्द्रियों में श्रवण आदि की शक्ति समाप्त नहीं होती, उक्त तीन कष्ट वेदनाके कारण अपना धर्य, बल, चेष्टा नष्ट नहीं होती तथा हेय उपादेयको विचार करनेको बुद्धि समाप्त नहीं होती तबतक ही उक्त वेदना आदिसे अपनी आयु क्षीण होती देखकर घोर बीर मुनिराज गुरुके निकट आलोचना करके शरीरका त्याग कर देते हैं ॥२०६२।।२०६३।। विशेषार्थ---जल प्रवाह द्वारा बहनेका प्रसंग आगया है, कहीं वन में संघ है और अचानक दावाग्नि लग गई या जंगली पशुका आक्रमणका प्रसंग है अकस्मात् तीव्र शूल आदि रोग आ गया इत्यादि मरणके कारण उपस्थित होते देखकर अपनी बोलने की शक्ति, सुनने की शक्ति, सोचने की शक्ति नष्ट होनेके पहले ही महान् मुनिराज जो प्राचार्य या साधु अपने निकट हों उन्हींके समक्ष दीक्षित जीवन में जो जो दोष अपराध हुए हैं उनकी आलोचना करते हैं तथा आहार, उपधि, शय्या आदि त्याग कर शरीरको छोड देते हैं। इसप्रकार अपने संघमें स्थित रहकर जो उक्त मरणके कारणोंके अकस्मात उपस्थित होनेपर सल्लेखना ग्रहणकी जाती है उसे प्राज्ञजन निरुद्धतर अवीचार भक्त त्याग मरण कहते हैं । इस मरणकी शेष विधि पूर्वोक्त विधिके अनुसार है ।।२०६४।। विशेषार्थ-निरुद्ध अवीचार भक्त त्याग और निरुद्धतर अवीचार भक्त त्याग ये दोनों मरण अपने संघ में रहकर ही होते हैं किन्तु निरुद्धमें तो जंघाबल घट जानेसे या अन्य किसी कारणसे परसंघमें जानेको साधु असमर्थ हुए हैं और समाधि-ग्रहणके Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० ] मरणकण्डिका यदा संक्षिप्यते वाणी व्याधिव्यालविषादिभिः । तदा शुद्धषियः साधोनिरुद्धतममिष्यते ॥२०६५ हरती जीवितं दृष्ट्वा वेदनामनिवारणाम् । जिनादीनां पुरो धोरः करोत्यालोचनां लघु ॥२०६६॥ आराधनाविधिः पूर्व कथितो विस्तरेण यः। अत्रापि युज्यमानोऽसौ द्रष्टव्यः श्रुतपारगः ॥२०६७।। कारण उपस्थित हुए हैं तो क्रमशः आहारका त्याग करते हुए तथा आलोचना आदिको करते हुए समाधिमरण करते हैं और निरुद्धतर अवीचार भक्त त्यागमें अचानक ही कोई उपसर्ग या भयंकर रोग आदि प्रागये हैं तो शोघ्रतासे जो भी आचार्य आदि निकट होवे उनके पास अपने दोषोंको पालोचना निदा गर्दा करके चतुराहारका त्याग कर शरोरको छोड़ते हैं। निरुद्धतम या परम निरुद्ध अवीचार भवत प्रत्याख्यानका स्वरूप बतलाते हैं __ जब व्याधि, क्रूर पशु पक्षियों द्वारा एवं विष आदिके द्वारा वाणी आदिकी शक्ति समाप्त प्रायः होने लगती है तब निर्मल बुद्धिवाले मुनिराजके निरुद्धतम अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरण होता है ॥२०९५।। जिसको रोकना अशक्य है ऐसी भयानक वेदना अपने जीवनको हरण करती देखकर धीर साधु जिनेन्द्र आदिके समक्ष अर्थात् अपने मनमें जिनेन्द्र देवको विराजमान कर शीघ्र ही दोषोंकी आलोचना करता है ॥२०६६।। जो आराधना विधि पहले विस्तारसे श्रुत पारगामी आचार्यों द्वारा कही गयी है वह विधि इस निरुद्धतर अवीचार भक्त त्यागमें भी होती है ।।२०६७।। विशेषार्थ-अवीचार और अविचार ऐसे दोनों ही शब्दोंके प्रयोग इस मरणके नाममें देखे जाते हैं । विचार अर्थात् सोचना ! जिस मरण में सोचनेका अधिक अवसर नहीं है, आयु ह्रासके तरफ उन्मुख है ऐसा देखकर यह मरण किया जाता है। वर्षों पहले से तैयारी करना अपना संघ छोड़कर अन्य संघ में प्रवेश करना इत्यादि विषय इस मरण में नहीं होते हैं । इस में मरणको संभावना शीघ्र, शीघ्रतर और शीघ्रतम होती Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवीचार भक्त स्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार [१११ प्राराध्याराधनादेवीं प्राशुकारं मृतावपि । केचिसिध्यन्ति जायन्से केचित मानिकाः सुराः॥२०६८।। प्रमाणं कालबाहुल्यमस्य नाराधनाविधेः । तीर्णा मुहूर्तमात्रेण बहवो भवनीरधिम् ।।२०६६।। -- - देखकर उसी प्रकारसे साधुजन उस उस मरणको करनेको तैयार रहते हैं अर्थात् जिसका जंघाबल घट गया है और रोग भी असाध्य हो रहा है तब वह निरुद्ध अविचार भक्त प्रत्याख्यान मरणको स्वीकार करता है । तथा जिसके उपसर्ग या अचानक तीन शूल आदि पाये हैं और निकट आचार्य आदि मौजूद हैं तो उनके पास आलोचना कर पाहार का यावज्जीव त्याग करके जो साधुमरण करते हैं वह निरुद्धतर अविचार भक्त प्रत्याख्यान है । घोर उपसर्ग या रोग आया और जिसमें गुरुकी निकटता नहीं है तथा इतना समय ही है कि उनके पास आलोचना कर सके, अतः अपने हृदयमें जिनेन्द्रको साक्षी करके आलोचना करके आहार आदिका त्यागकर प्राण छोड़नेवाले साधुके निरुद्धतम या परम निरुद्ध आयचार भक्त प्रत्याख्यानमरण होता है। निरुद्ध, निरुद्धतम और निरुद्धतर अवीचार भक्त त्यागके स्वरूपको ज्ञात कर कोई प्रश्न करे कि-इस प्रकार शीघ्रतासे अल्प समयमें मरण करनेवालेके आराधनाकी सिद्धि किसप्रकार होगी? तो इसका उत्तर देते हैं-चार आराधना रूप देवीका शीघ्रतासे आराधना करके मरणयाले मुनि भी कोई सिद्धपदको भी प्राप्त करते हैं तथा कोई वैमानिक देव भो हो जाते हैं अर्थात् आराधनाको शीघ्रतासे करनेपर भी मुक्त या देवपर्यायको मुनिजन प्राप्त कर लेते हैं। क्योंकि रत्नत्रयकी आराधनाको विधिमें कालको बहुलता को मुख्यता नहीं होती अर्थात् जो बहुत दिनोंतक ममाधिको विधि चलती रहे वह श्रेष्ठ है उसीसे उच्चगतिको प्राप्ति होती है, और जिसमें उक्त विधि अल्पकाल में होती है वह उच्चगतिका कारण नहीं है ऐसा नहीं समझना । समाधिमें तो परिणामों को शुद्धि अपेक्षित है । बहुतसे मुनियोंने अन्तर्मुहूर्त मात्रमें रत्नत्रयको आराधना करके संसारसागरको पार किया था-मोक्ष प्राप्त किया था ।।२०६८॥२०६६।। देखो ! विवर्द्धन नामका राजा चिरकालसे-अनादिकाल से मिथ्यात्वसे भावित था-मिथ्याइष्टि था, वह आदिनाथ भगवान के चरण सानिध्य में-उनके समवशरणमें Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ ] मरएकण्डिका सिद्धो विवर्द्धनो राजा चिरं मिथ्यात्व भावितः । वृषभस्वामिनो मूले क्षणेन धुतकल्मषः ॥२१००। ॥ इति निरुद्धतमम् ॥ प्रोक्ता भक्तप्रतिज्ञेति समासण्यासयोगतः । इदानी मिगिनी वक्ष्ये जन्मकक्षकुठारिकाम् ।।२१०।। जिनदीक्षा लेकर अन्तर्मुहर्त मात्रकालमें रत्नत्रयकी आराधना करके कर्ममलसे मुक्त-सिद्ध हो गया था ॥२१००॥ विवर्द्धनकी कथा___ इस अवसर्पिणीकालके चतुर्थकालके प्रारंभमें आदि तीर्थकर वृषभनाथने जिनदीक्षा ग्रहणकर तपस्या द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया था। उनके राज्य अवस्थाके पुत्र भरत थे जो एकसी एक भाईयोंमें सर्वजेष्ठ पुत्र थे, महापुण्योदयसे राजा भरतके आयुधशालामें चक्ररत्त उत्पन्न हुभा । मंपूर्ण छह खंडोंको जीतकर भरत षटखंडाधिपति चक्रवतो हए; उनके हजारों पुत्र हुए । उन में विवर्द्धनकुमार को आदि लेकर कई पुत्र मूक हुए थेबोलते नहीं थे । किसी दिन चक्रवर्ती उन्हें लेकर समवशरण में भगवान आदिनाथके दर्शनार्थ गये । समवशरण सभामें बैठकर दिव्यध्वनि सुनते ही वे सब कुमार विरक्त हए दिव्य ध्वनिमें अपने पूर्वभवोंको सुनकर वैराग्यसे ओतप्रोत होकर तत्काल प्राप्त हुई शक्ति के द्वारा अर्थात् गूगापन नष्ट हो जानेपर उन्होंने आदि प्रभुसे जिनदीक्षा ग्रहण को। और इसतरह उनको लेश्याकी अत्यंत विशुद्धि प्राप्त हुई । छटे सातवें गुणस्थानोंमें परिवर्तित होते हुए उन्होंने मुहूर्त प्रमाण कालमें ही शुक्लध्यानको प्राप्त किया । क्षपक श्रेणिमें क्रमश: आरोहण कर धातिया कर्मों का नाश किया तथा अघातिया कर्मोंका भी नाश करके सिद्धपद पाया । इस तरह अत्यंत अल्पकाल में उन्होंने शाश्वत सुखको पाया था । अतः भव्य जीवोंको चाहिये कि कालको न देखे कि अब अल्पकाल हो रह गया है कसे आत्मकल्याण करे इत्यादि, जब आत्मबोध हो तभी वैराग्य धारणकर आत्महित करना चाहिये। विवर्द्धनकुमार को कथा समाप्त । इसप्रकार अविचार भक्त प्रतिज्ञामरणका वर्णन किया । इंगिनो मरणका वर्णनभक्त प्रतिज्ञा भरणका संक्षेपसे तथा विस्तारसे वर्णन इसप्रकार मेरे द्वारा Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवीचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार उक्तो भक्तप्रतिज्ञाया विस्तारो यत्र कश्चन । इंगिनीमरणे यथायोम् शिबुगा १२०२१ प्रवज्याग्रहणे योग्यो योग्यं लिंगमधिष्ठितः। कृतप्रवचनाभ्यासो बिनयस्थः समाहितः ॥२१०३॥ निष्पाद्य सकलं संघ इंगिनीगतमानसः । त्रितिस्थो भावितस्वान्तः कृतसल्लेखनाविधिः ॥२१०४॥ संस्थाप्य गणिनं संघे क्षमयित्वा त्रिधाखिलं । यावज्जोवं वियोगार्थी दत्वाशिक्षा प्रियकराम्।। २१०५।। किया गया । अब आगे इंगिनी मरणका वर्णन करूंगा। कैसा है इंगिनी मरण ? जन्मरूप वनको नष्ट करनेके लिये-काटने के लिये कुठारके समान है ।।२१०१॥ भक्त प्रतिज्ञा मरणमें जो कोई आराधनाको विधि कही है वह इस इंगिनी मरण में भी यथायोग्य जाननी चाहिये ।।२१०२।। इंगिनी मरणके स्वामी कौन हैं सो बताते हैं __जो व्यक्ति जिनदीक्षाके योग्य है और योग्य साधुवेषको (दिगंबर मुनिमुद्राको) जिसने धारण किया है, जिसने जैन आगमका भली प्रकारसे अभ्यास किया है, विनयो और शांत है, दीक्षाके अनंतर जिसने अपने संघ को रत्नत्रयकी साधनामें निष्पन्न किया है, इंगिनी मरणको प्राप्त करने की जिसको इच्छा है, परिणामोंको निर्मलताकी श्रेणिमें जो स्थित है अर्थात आगे आगे अधिक अधिक विशुद्ध परिणामोंमें स्थित है तपोभावना,श्रुतभावना आदि श्रेष्ठ भावनासे भावित है मन : जिसका एवं काय तथा कषायको जिसने कृश किया है ऐसे विशिष्ट मुनिराज-आचार्य संघमें अपने स्थानपर अन्य योग्य शिष्यको आचार्य पद पर स्थापित करके समस्त संघसे मन वचन, काय द्वारा क्षमा याचना करके कराके यावज्जीवनके लिये संघका त्याग करते समय संघको अत्यंत हितकारी प्रियकारी उत्तम शिक्षा-उपदेश देते हैं । और इसप्रकार संघ आदिके प्रति अपना कर्तव्य पूर्ण करनेसे जो कृतकृत्यताका अनुभव कर रहे हैं इससे तथा समाधि प्राप्तिको उत्सुकतासे जिन्हें अत्यंत हर्ष हो रहा है ऐसे गुण और शोलोंसे मंडित प्राचार्य संघसे बाहर निकलते हैं । संघसे निकलकर वे Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका कृतार्थता समापनो हर्षाकुलिसमानसः । निर्यातो गणतः सरिर्गुणशीलनिभूषितः ॥२१०६॥ निःक्रम्य स्थंडिलादौ स विविक्त बहिरंतरे । भूशिलासंस्तरस्थायी स्वं निर्यापयति स्वयम् ॥२१०७।। योग्यं पू@वित्तं कृत्वा संस्तरं स्थंडिले तृणः । पूर्वस्यामुत्तरस्यां वा शिरो विशि करोति सः ॥२१०८॥ भावशुद्धिमधिष्ठाय लेण्याशुद्धिविद्धितः । कर्मविध्वंसनाकांक्षी मूर्धन्यस्तकरद्वयः ॥२१०६॥ विधायालोचनामग्रे जिनादीनामदूषणाम् । दर्शनज्ञानचारित्रतपसां कृतशोधनः ॥२११०।। यावज्जोवं विधाहारं प्रत्याख्याय चतुर्विधं । बाह्यमाभ्यंतरं ग्रंथमपाकृत्य विशेषतः ।।२१११॥ आचार्य एकान्तमें बाहर भीतरमें जो प्रासुक है ऐसे स्थंडिल आदि स्थानमें पहुंचते हैं, वहां भूमिरूप या शिलारूप संस्तरमें स्वयंको आरोपित करते हैं अर्थात् अन्यकी सहायता से रहित एकाको शरीरमात्र है सहायक जिनका ऐसे वे योगीराज भूमि आदिका आश्रय लेते हैं। पहले भक्त प्रत्याख्यान मरणमें संस्तरका जैसे विधान बताया था वैसे नगर आदिसे याचना करके तृणादिको लाकर उनसे अपने शरीर प्रमाण संस्तर बनाकर पूर्व या उत्तर दिशामें शिर करते हैं [अर्थात् जब जब संस्तर में शयन करते हैं तब तब उक्त दिशामें शिर करते हैं ।।२१०३।।२१०४।।२१०५।।२१०६।२१०७॥२१०८।। इंगिनी मरण के इच्छुक वे मुनिराज अपने भावोंकी शुद्धि करते हैं एवं लेश्या को विशुद्धि-पीत पद्म और शुक्ल लेश्यारूप विशुद्धिको बढ़ाते हैं, कर्मों के नाशकी इच्छाबाले वे मुनिराज दोनों हाथों को जोड़कर मस्तकपर रखते हैं और जिनेन्द्र आदिके समक्ष अपने सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप संबंधो अतोचारोंको निर्दोष आलोचना करके अपने अपराधोंका शोधन करते हैं ॥२१०९॥२११०।। वे मुनिराज मन, वचन, कायसे Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवीचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार परिषहोपसर्गाणां कुर्वाणो निर्जयं परम् । माहमानः परो शुद्धि धर्मध्यानपरायणः ।। २११२ ।। निषद्योत्थाय निःशेषामात्मनः कुरुते क्रियाम् । विहरन्नुपसर्गेऽसौ प्रसाराकुंचनादिकम् ॥२११३॥ स्वयमेवात्मनः सर्वं प्रतिकर्म करोति सः । श्राकांक्षति महासत्त्वः परतोऽनुग्रहं न हि ॥२११४॥ संपन्नमतिदारुणम् 1 देवमानवतिर्यग्भ्यः उपसर्ग महासत्वः सहतेऽसौ निराकुलः ॥२११५ ।। दुःशील भूतबेताल शाकिनीप्रहराक्षसः 1 न संभीषयितुं शक्यो भोरपि कथंचन ।।२११६ ।। त्रिवर्शन क्रियावद्भिश्चेतश्चोरणकारिणों I प्रदर्श्य महतोमृद्धि लोभ्यमानो न लुभ्यति ।।२११७॥ | ६१५ जीवन पर्यंतके लिये चार प्रकारके आहारका त्याग करते हैं तथा विशेषरूप से बाह्यान्तर परिग्रहका त्याग करते हैं ||२१११।। परोषह और उपसर्गो पर उत्कृष्ट विजय करते हुए परम शुद्धिको प्राप्तकर सदा धर्म्यंध्यानमें तत्पर रहते हैं ।। २११२ ॥ जिस समय उपसर्ग नहीं है उस वक्त अपनो उठने बैठने आदि संपूर्ण क्रियाको तथा शरीरको फैलाना सिकोड़ना श्रादिको स्वयं करते हैं ।। २११३ ।। इंगिनी मरण करनेवाले मुनि अपने कार्य - शीच हाथपैरका सहलाना, खड़े होना गमन करना प्रादिको स्वयं करते हैं । वे महाशक्तिशाली - - उत्तम संहननधारी मुनि कदाचित भी परसे सेवा, अनुग्रह सहायता नहीं चाहते ।।२११४|| देव मनुष्य और तिर्यंच द्वारा दारुण उपसर्ग किया जानेपर उसको वे बलवान मुनि शांतभाव से निराकुल हो सहते हैं ।। २११५ ।। महा धैर्यशाली उन मुनिराजको खोटे भयंकर भूत, प्रेत, बेताल, शाकिनी, ग्रह राक्षस आदिके द्वारा किसी तरह भी डराया नहीं जा सकता ।।२११६ ।। विक्रिया ऋद्धिधारो देवों द्वारा चित्तको चुराने वाली बड़ी भारी ऋद्धिको दिखाने पर भी वे मुनिश्वर कभी भी मोहित नहीं होते अर्थात् कोई देव उन्हें ऋद्धि वैभव दिखलाकर मोहित करना चाहे संयमसे च्युत करना चाहे तो कदापि नहीं कर सकते ।।२११७॥ उन योगोश्वरको Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका संपद्यतेऽखिलास्तस्य दुःखाय यदि पुद्गलाः । तथापि जायते जातु ध्यानविघ्नो न धीमतः ॥२११८॥ सुखाय यदि लभ्यते सर्वेपुदगलसंचया: । तथापि धीरधीनासो ध्यानतश्चलतिस्फुटम् ॥२११६॥ उपेक्षते विनिक्षिप्तः सचित्तहरिताविषु । उपसर्गशमे भूयो योग्यं स्थानमित्ति सः ॥२१२०।। परीषहोपसर्गाणामेवं विषहनोद्यतः । मनोवाक्कापगुप्तोऽसौ निःकषायो जितेत्रियः ॥२१२१॥ इहामुत्र सुखे दुःखे जोषिते मरणे सुधीः । सर्वथा निःप्रतीकारश्चतुरंगे प्रवर्तते ॥२१२२।। वाचनापृच्छनाम्नाय धर्म देशन वजितः । षीरः सूत्रार्थयोः सम्पाध्यायत्येकान मानसः ॥२१२३।। संसारके समस्त पुद्गल-पदार्थ दुःख देने में उद्यमी होवे तो भी वे आकुलित दु:खित नहीं होते तथा उनके ध्यानमें कभी भी विघ्न नहीं होता ॥२११८॥ तथा संसार के संपूर्ण पुद्गल उनके सुखके लिये प्राप्त होवे तो भी धीर बुद्धिवाले वे यतिराज ध्यानसे चलायमान नहीं होते ॥२११९।। किसी क्रूर पशु आदि द्वारा सचित्त हरित तृण प्रादिपर डाल दिये जानेपर भी वे मुनि उपसर्गको सहते हुए वहीं स्थित रहते हैं, यदि उपसर्ग दूर हो जाय तो पुन: उसी योग्य प्रासुक स्थानमें लौटकर आ जाते हैं ॥२१२०॥ परीषह और उपसगाको सहन करने में सदा उद्यत रहते हैं, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन सोन गुप्तियों से युक्त कषायभावसे रहित और जितेन्द्रिय होते हैं ।।२१२१।। ___ इस लोक और परलोक में सुख और दुःखमें जीवन और मरण में वे सर्वथा रागद्वेष रहित होते हैं और चार आराधनाओं में प्रवृत्त होते हैं ॥२१२२॥ वाचना, पृच्छना, आम्नाय और धर्मोपदेश इन चार प्रकारके स्वाध्यायमें प्रवृत्ति नहीं करते, वे Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवी चार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार [६१७ एवमष्टसु यामेष निनिद्रो ध्यानलालसः । भवन्ती हठतो निद्रा न निषेवत्यसो पराम् ।।२१२४॥ स्वाध्यायकाले विक्षेपाचंतास्तस्य न च क्रियाः । ध्यानं श्मशानमध्येऽपि कुर्वाणस्य निरंतरम् ॥२१२५।। यथोक्तं कुरुते सर्वमावश्यकमतंद्रितः । विधत्ते स द्वयं कालं उपधिप्रतिलेखनम् ॥२१२६।। सहसा स्खलने जाते मिथ्याकारं करोति सः । प्रासीनिषद्यकाशब्दौ घिनिःक्रांति प्रवेशयोः ॥२१२७॥ पादयोः कंटके भने रजईक्षणयोगते । तूष्णीमास्ते स्वयं धीरो परेणोद्धरणेऽपि सः ॥२१२।। एकाग्र मन होकर सूत्र और अर्थका भलीप्रकारसे चिंतन मात्र करते हैं अर्थात् अनुप्रेक्षा नामके स्वाध्यायको ही करते हैं अन्य वाचना आदि स्वाध्यायको नहीं करते ।।२१२३॥ इसप्रकार वे योगीश्वर पाठों प्रहरोंमें निद्रा रहित और ध्यानके इच्छुक हो रहते हैं, जबरदस्तो निद्रा आजाये तो सोते नहीं अथवा कदाचित अति अल्प निद्रा लेते हैं । बहुत निद्रा नहों लेते ।।२१२४।। स्वाध्यायकाल में प्रतिलेखन अर्थात् यह क्षेत्र स्वाध्याय योग्य नहीं है यह काल उपयुक्त नहीं है इत्यादि विचारकी उन्हें आवश्यकता नहीं होतो क्योंकि वाचना आदि स्वाध्याय नहीं करते हैं, श्मशानके मध्य में भी निरंतर ध्यान करते हैं ॥२१२५॥ आलस रहित होकर सर्व आवश्यक सामायिक आदि यथोक्त विधिसे करते हैं, वे दोनों संध्याओंमें पीछी कमंडलु संस्तरका प्रतिलेखन-शोधन करते हैं ।।२१२६।। कदाचित किचित् असिक्रम अतीचार हो जाय तो "मिच्छा मे दुक्कड" मेरा दोष मिथ्या हो इसप्रकार मिथ्याकार करते हैं, कहीं वन, गुफा या अपने स्थान में प्रवेश और निष्क्रमण करते समय अस्सहो अस्सहो, निस्सही निस्सही शब्दोंका उच्चारण करते हैं ।।२१२७।। इंगिनोमरणको ग्रहण करनेवाले मुनोश्वरके पैरों में काँटे लग जाय तो तथा आंखोंमें धली आदि जाय तो मौन रहते हैं उन कांटे आदिको निकालते नहीं, कदाचित् कोई अन्य निकाल देवे तो मौन रहते हैं ।।२१२८॥ इसतरह कठोर तप करते हुए उनके नानाप्रकारको ऋद्धियां उत्पन्न हो तो बे महामना विराग युक्त है मानस जिनका ऐसे कभी भी उन ऋद्धियोंका सेवन-प्रयोग Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकपिडका नानाविधासु जातासु लब्धिष्वेष महामनाः । न किंचित्सेवते मातु विरागीभूतमानसः ॥२१२६॥ वेदनानां प्रतीकारं क्षुदादीनां च धोरधीः । न जातु कुरुते किचिन्मौनव्रतमवस्थितः ॥२१३०॥ उपवेशोऽन्यसूरीणामिगिनीमरणेऽपि सः । त्रिदशर्मानुषैः पृष्ठो विधत्ते धर्मवेशनाम् ॥२१३१।। इंगिनीमरणेऽप्येवमाराध्याराधनां बुधाः । केचित्सिध्यन्ति केचिच्च सन्ति वैमानिकाः सुराः ।।२१३२॥ छंद-प्रये नीइंगिनीमति सुखानुषंगिणी निर्मला कषायनाशकौशलाम् । पजिता भजति विघ्नजितां ये नरा भवंति तेऽजरामराः ।।२१३३॥ ॥ इति इंगिनीमरणम् ॥ नहीं करते हैं ।।२१२९॥ धीर बुद्धिवाले मौनव्रतको स्वीकार करनेवाले वे मनि भूख, प्यास, उष्णता आदि की वेदना होनेपर कभी भी उस वेदनाका किचित् भी प्रतीकार नहीं करते हैं ।।२१३०।। इंगिनी मरणको प्रतिज्ञा वाले मुनिराज देव या मनुष्य द्वारा प्रश्न किये जानेपर धर्मोपदेश देते हैं ऐसा किन्हीं आचार्योका कहना है ।।२१३१।। ____ इसप्रकार उपर्युक्त विधिसे इंगिनी नामके समाधिमरणमें चार प्रकारकी आराधनाको करनेवाले उन बुद्धिमान मुनियों में से कोई तो मोक्षको प्राप्त करते हैं और कोई वैमानिक देव होते हैं अर्थात् इंगिनी मरण करने वाले अपने परिणामोंके अनुसार सिद्धगति या देवगति प्राप्त करते हैं ।।२१३२।। यह इंगिनो मरण स्वर्ग तथा अपवर्ग के सुखोंको देनेवाला है, निर्मल है, कषायों का नाश करने में कुशल है, जो योगोराज विघ्न रहित ऐसे इस मरणको पूजते हैं अर्थात स्वयं धारण करते हैं वे अजर-अमर सिद्ध होते हैं ॥२१३३।। इसपकार इंगिनी मरणका वर्णन पूर्ण हुघा । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१९ अवो चार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगम नाधिकार इंगिनीमरणं प्रोक्त समासव्यासयोगतः । प्रायोपगमनं वक्ष्ये व्यासेन विधिनाधुना ॥२१३४॥ इंगिनोमरणेऽवाचि प्रक्रमो यो विशेषतः । प्रायोपगमनेऽप्येष व्रष्टव्यः श्रुतपारगः ॥२१३५॥ संस्तरः क्रियते नात्र तृणकाष्ठाविनिर्मितः । स्वकीयमन्यदोयं च वैयावत्यं न विद्यते ॥२१३६।। करोत्येनं ततो योगी कृतसल्लेखनाविधिः । उच्चारप्रस्त्रवादीनां ततो नास्ति निराक्रिया । २१३७।। पृश्योवाय्वग्निकायादौ निक्षिप्तस्त्यक्तविग्रहः । प्रायुः पालयमानोऽसावदासोनोऽवतिष्ठते ।।२१३८।। संक्षेपसे इंगिनो मरणको कहा, अब प्रायोपगमन मरणको संक्षेप विधिसे कहंगा ।।२१३४।। इंगिनीमरणमें जो प्रक्रम विधि कही थी विशेषसे प्रायोपगमन मरण में भी वही प्रक्रम श्रुतके पारगामी गणधर आदिके द्वारा देखो गयो है-कही गयी है ।।२१३५।। इस मरण में तृण काष्ठ आदिका संस्तर नहीं किया जाता तथा अपने द्वारा और परके द्वारा वैयावृत्य भी नहीं किया जाता ।।२१३६।। कषाय और कायकी कृशता को जिसने कर लिया है ऐसा योगी इस मरणको करता है, उस कारणसे इसमें मलमत्र आदिका निराकरण नहीं होता है अर्थात् प्रायोपगमन सन्यासका धारक मलमत्र भी नहीं करता ।।२१३७।। यदि किसी वैरी देव, मनुष्य या पशु आदिके द्वारा उनको पृथिवी, वाय, अग्नि, वनस्पति आदि सचित्त स्थानपर डाल देवे तो वे वहीं पर स्थित रहते हैं, शरोरका ममत्व सर्वथा छोड़े रहते हैं. आयुकी परिसमाप्ति होनेतक उदासोन होकर वहीं निश्चल अवस्थित होते हैं, अर्थात जैसे इंगिनी मरणमें उपसर्ग द्वारा सचित्त स्थानपर डाल देनेपर वे मुनि उपसर्ग समाप्त होनेपर उस स्थानसे निकल अपने स्थानपर आते हैं वैसे ये प्रायोपगमन मरण करने वाले महामुनि नहीं आते जहां पर फेंका-गिराया पटका है वहों पर प्राण जाने तक काष्ठवत् अवस्थित रहते हैं ॥२१३८।। यदि कोई पाकर प्रायोपगमन सन्यास में स्थित यतिराजको गंध, पुष्प, धूप आदिसे पूजा करता है तो छोड़ दिया है शरीरका ममत्व जिन्होंने ऐसे वे उस पूजाक्रियामें उदास रूपसे बैठे Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. ] मरणकण्डिका गंधप्रसूनधूपाचः क्रियमाणेऽप्युपग्रहे । त्यसबेहतयोदास्ते स स्वजीवितपालकः ।।२१३६॥ यत्र निक्षिपते देहं निःस्पृहः शांतमानसः । ततश्चलयते नासौ यावज्जीवं मनागपि ॥२१४०॥ इत्युक्तं निःप्रतीकारं प्रायोपगमनं जिनः । नियमेनाचलं ज्ञेयमुपसर्गे पुनश्चलम् ॥२१४१॥ उपसर्गहतः कालमन्यत्र कुरुते यतः । ततो मतं चलं प्राजैरुपसर्गमते स्थिरम् ॥२१४२।। रहते हैं अर्थात् उस पूजकपर न प्रसन्न होते हैं, न उसे रोकते हैं, न कोप करते हैं । आशय यह है कि कोई वैरी आकर उन्हें उपसर्ग करे विषम स्थानपर डाल देवे इत्यादि क्रियासे महान् कष्ट दे तो उस गाशि र कुपिता नहीं होते और कोई जाकर गंध पुष्पादिसे पूजा करे या उनका किसीप्रकार अनुग्रह करे तो उसपर प्रसन्न नहीं होते दोनों अवस्थाओं में समान रूप उदासीन रहते हैं ।।२१३६।। जिस स्थानपर नि:स्पृह और शांत मनवाले उन मनिराजने शरीर डाल दिया है वहांसे अब वे यावज्जीव पर्यंत किंचित् भी हिलते डुलते नहीं हैं ।।२१४०।। इसप्रकार प्रायोपगमन मरण सर्वथा प्रतीकार रहित होता है नियमसे शरीरकी चंचलता क्रिया हिलना आदिसे रहित होता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है । यदि उपसर्ग द्वारा उन्हें उठाकर कहीं फेंक देवे तो बह चलपना तो है किन्तु स्वयं कृत शरीर चंचलता नहीं है सर्वथा अकंप, अचल, अडोल रूप ही स्थित रहते हैं ।।२१४१॥ जिस कारणसे उपसर्ग द्वारा आहत होकर अन्य स्थानपर स्थित होकर वे मरण करते हैं उस कारणसे प्राज्ञ पुरुष द्वारा उपसर्ग पूर्वक होनेवाले मरण में शरीरको चलता मानो गयी है अन्यथा शरीरकी स्थिरतासे-एक ही स्थान पर रहकर उनका समाधिमरण होता है । भाव यह है कि उपसर्ग के कारण उनका स्थानांतर होता है अन्यथा कभी भी स्थानांतर नहीं करते एक बार जहां पद्मासन या खड्गासानसे स्थित हो गये वैसे ही आमरण पर्यंत स्थित रहते हैं ।।२१४२॥ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असार शुक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार I प्रायोपगमनं केचित्कुर्वते प्रतिमास्थिताः प्रपद्याराधनां देवी मिगिनी मरणं परे ।। २१४३॥ ॥ इति प्रायोपगमनं ॥ उपसर्गे सति प्राप्ते दुर्भिक्षे च दुरुत्तरे । कुर्वन्ति मरणे बुद्धि परीवहसहिष्णवः ॥ २१४४॥ कोशलो धर्मसिंहोऽयं ससाध श्वासरोधतः । कोणतीरे पुरे धीरो हित्वा चंद्रश्रियं नृपः ॥। २१४५।। [ ६२१ कोई मुनि कायोत्सर्ग धारण कर प्रायोपगमन मरणको करते हैं तथा कोई श्राराधना देवीको प्राप्तकर इंगिनी मरणको करते हैं । प्रर्थात् कोई प्रायोपगमन विधिसे सम्यग्दर्शन आदि चार प्रकारकी आराधनाका आराधन कर समाधि करते हैं और कोई मुनिराज इगिनी विधिसे उक्त आराधनाको करते हुए समाधि करते हैं ।। २१४३ ॥ || प्रायोपगमन मरणका वर्णन समाप्त ॥ इसप्रकार पंडित मरण के तीन भेदों में से भक्त प्रत्याख्यानका वर्णन अतिविस्तार पूर्वक तथा इंगिनी और प्रायोपगमन विधिका संक्षेप पूर्वक वर्णन किया गया है । आगे कहते हैं कि महान् उपसर्ग आदिके आनेपर उन कारणोंको लेकर भी महामुनि पंडित मरणको करनेमें उत्साहित होते हैं जिसका निवारण होना अशक्य है ऐसा घोर उपसर्ग आनेपर तथा महान् अकाल पड़ने पर परीषहोंको जीतने वाले योगीश्वर समाधिमरण में अपनो बुद्धिको लगाते हैं ।। २१४४ ।। आगे जिन्होंने अकस्मात् आये हुए उपसर्ग श्रादिके निमित्तसे तत्काल प्राराधनापूर्वक पंडित मरणको प्राप्त किया था उनका कथन करते हैं कौशलाधिपति धर्मसिंह नामके धीर वीर राजाने कोष्ठा तीर नामके नगर के free अपनी पत्नी चन्द्रश्रीका त्यागकर प्रवास निरोध द्वारा समाधिमरणको साधा था ।।२१४५ ।। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ ] मरणकण्डिका सुतार्थ पाटलीपुत्रे मातुलेन कथितः । जनाहर्षभसेनोऽथं खानसमति धितः ॥१९४६।। ___ - ---- ----- धर्मसिंह मुनिको कथा-- दक्षिण देश में कोष्ठा तोर (कौशलगिरि नगरके राजावीरसेन और रानी वीरमतीसे दो पुत्र, पुत्री हुए, पुत्रका नाम चन्द्रभूति और पुत्रीका नामचन्द्रधी 'था'। चन्द्र श्रीका विवाह कौशल देशके राजपुत्र धर्मसिंहते-हुआ वोमोना समय -सुखपूर्वक व्यतीत होने लगा | धर्मसिंह प्रत्यंत धर्मप्रिय था, विशाल रज्जका संचालन करते हुए भो मनियोंको आहार दान तथा जिनपूजाको यह अवश्य करता था। किसी दिन दमधर मनिराजसे धर्मोपदेश सुनकर धर्मसिंह नरेसने जिन दीक्षा महल को और तपस्या करने लगे। रानी चंद्रश्रीको बहुत दुःख हुआ। भाई चन्द्रभृति बहिनको दुःखो देखकर धर्मसिंह मुनिको जबरन चन्द्रश्रीके पास ले आया किन्तु धर्मसिंह पुन :-यन में गये और “तपस्या में लीन हुए । कुछ दिन इसीप्रकार व्यतीत हुए । मन्द्रभूतिने किसी दिन वन विहार करते हुए उन मुनिको देखा । मुनिराजने भी अपनी तरफ आते हुए उस अपने साले को देखकर पहिचान लिया उन्होंने सोचा कि यह मुझे तपस्यासे च्युत करेगा । जहां मुनि तपस्या कर रहे थे, वहां वन में पासमें एक हाथीका कलेवर पड़ा 'था, घोरवार "मुनि धर्मसिंह उसी में घुस गये । उन्होंने चार प्रकारके आहारका एवं संपूर्ण कषाय भावोंका त्यागकर संन्यास ग्रहण किया तथा तत्काल श्वासका निरोधकर प्राण छोड़े। इस तरह उन्होंने क्षणमात्रमें उत्तमार्थको साधा और स्वर्गमें जाकर देवपद पाया । वे महामुनि हम सबके लिये समाधिप्रद होवे ।। धर्मसिंह मूनिकी कथा समाप्त । पाटलोपुत्र नगरी में अपनी पुत्रोके लिये मामा-श्वसुर द्वारा उपसर्ग किये जाने पर ऋषभसेन नामके व्यक्तिने श्वासका निरोधकर सल्लेखना की ॥२१४६।। दृषभसेन मुनिको कथा-- पाटली पुत्र नगरी में वृषभदत्त वृषभदत्ता सेठ सेठानी रहते थे। उनके पुत्र का नाम वृषभसेन था, वह सर्वगुण और कलाओं में प्रवीण एवं अत्यंत धर्मात्मा था। उसका विवाह अपने मामाकी पुत्री धनश्रीके साथ हुआ था । किसी दिन दमधर नामके मुनिके समीप धर्मोपदेश सुनकर उसने जिनदीक्षा ग्रहण को, इससे धनश्री रात दिन दुःखो रहने Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६२३ अवोचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगम नाधिकार नृपे हत्ते हि चोरेण यतिलिंगमुपेयुषा । प्राचार्यः संघशान्त्यर्थ शस्त्रग्रहणतो मृतः ।।२१४७।। लगी, धनश्रीका दुःख पिता धनपति से देखा नहीं गया उसने मुनि वृषभसेनको उठाकर घर ले लाया और उसे अनेक कपट द्वारा गृहस्थ बना दिया । कुछ दिन बाद अवसर पाकर वृषभसेन पुनः मुनि बन गये । दुष्ट धनपति पुनः हठात् उनको घर पर लाया और क्रोधमें साकलसे बांध दिया। मुनिने देखा कि यह मुझे पुनः विवश कर रहा है, मेरी संयम निधि खूटेगा। उन्होंने श्वासोच्छ्वास का निरोधकर आराधना पूर्वक सन्यास द्वारा प्राण त्याग किया और स्वर्ग में जाकर वैमानिक महद्धिक देवपद प्राप्त किया। इसप्रकार वृषभसेन मुनिराजने ऐसी विषम स्थिति में भी पात्म कल्याण किया। वृषभसेन मुनिकी कथा समाप्त । मुनिका वेष लेकर चोरने राजाको मारा था । उस वक्त वहाँपर आचार्यने संघपर आनेवाली बड़ी आपत्तिको दूर करने के लिये शस्त्र ग्रहणकर-शस्त्रसे अपना घात कर समाधिमरण किया था ।।२१४७।। यतिवृषभ आचार्यको कथा-- श्रावस्ती नगरीका राजा जयसेन था उसके पुत्र का नाम वीरसेन था। उस नगरीमें शिवगुप्त नामका बौद्ध भिक्षु था, वह निर्दयो एवं मांस भक्षी तथा कपटी था । राजा जयसेन बौद्ध धर्म पर विश्वास करता था अत: शिवगुप्तको अपना गुरु बनाया । एक दिन यतिवृषभ आचार्य संघसहित उस नगरोके बाह्य उद्यानमें आये । प्रजाजनोंको उनके दर्शनार्थ जाते देख कर राजा भी कौतुहल वश उद्यान में गया, वहांपर कल्याणकारी मिष्ट वाणोसे आचार्य उपदेश दे रहे थे; उपदेश तात्त्विक एवं तर्कपूर्ण था उसे सुनते ही राजा जैनधर्मका श्रद्धालु होगया । उस दिनसे उसने बुद्ध की उपासना छोड़ दी। इससे बौद्ध भिक्षु शिव गुप्तको बड़ा क्रोध आया। उसने राजाको बहुत समझाया किंतु वह राजाको जैनधर्मको श्रद्धाको नष्ट नहीं कर सका तब पृथिवो पुरी नामकी नगरी में बौद्धधर्मी राजा सुमति के पास जाकर जयसेन राजाका जैन होने का समाचार कहा । सुमति राजाने जयसेनके पास पत्र भेजकर उसको पुन: बौद्ध बनने को कहा किन्तु जयसेन नरेशने स्वीकार नहीं किया। सुमतिका कोप बढ़ता गया। उसने गुप्त रूपसे जयसेनको Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ मरण कण्डिका शस्त्रग्रहणतः स्वार्थः शकटालेन साधितः । कुतोऽपि हेतुतः कर नंदे सति महीपतौ ॥२१४८॥ अकारि पंडितस्येति सप्रपंचा निरूपणा । इदानीं वर्णयिष्यामि मरण बालपांडतम् ॥२१४६॥ ॥ इति पंडितभरणम् ॥ मारनेका जाल रचा । उस दुष्टने नौकरोंसे पूछा कि कोई ऐसा वीर है जो जयसेनको मार सकता हो । तब एक हिमारक नामके व्यक्तिने इस कार्यको करना स्वीकार किया । वह दुष्ट हिमारक श्रावस्तीमें आकर कपटसे उन्हीं यतिवृषभ आचार्यके समीप मुनि बन गया। राजा जयसेन दर्शनार्थ प्रतिदिन आया करता था। एक दिन अपने नियमानुसार दर्शनार्थ आया, प्राचार्यके निकट धर्मचर्चा आदि करके नमस्कार कर जाने लगा कि मुनि वेषधारी उस दुष्ट हिमारकने राजाको शस्त्रसे मार दिया और स्वयं तत्काल भाग गया । आचार्य इस आकस्मिक घटनाको देखकर सोचने लगे। उन्हें राजाको मृत्युसे संघके ऊपर आनेवाली घोर आपत्तिसे बचाने का अन्य उपाय नहीं दिखा अतः सामने दिवाल पर "यह अनर्थ किसोने जैनधर्मके द्वेषसे किया है" इतना लिखा और तत्काल वहांपर पड़े उसी शस्त्रसे घातकर सन्यास ग्रहण कर प्राण त्याग किया। जयसेन राजाके पुत्र वीरसेनको अपने पिताकी मत्युके समाचार मिले। वह उस स्थानपर आकर देखता है तो राजाके निकट आचार्यको भी दिवंगत हुए देखकर पाश्चर्यचकित हुआ । इधर उधर देखते हुए उसकी नजर दिवाल पर पड़ी और पूर्वोक्त पंक्ति पढ़ते ही उसे समझ में आया कि यह सब घटना किसप्रकार हुई है । बीरसेनका हृदय आचार्य यतिवृषभकी भक्तिसे भर आया । उसको पहलेसे जैनधर्म पर श्रद्धा थी अब और अधिक दृढ़ होगयो । इसप्रकार यतिवृषभ आचार्यने क्षणमात्रमें आराधनापूर्वक समाधिको सिद्ध किया था। यतिवृषभ आचार्यको कथा समाप्त । या समाप्त । किसी कारण से नंद राजाके क्रोधित होनेपर शकटाल नामके मुनिने शस्त्र द्वारा घातकर समाधिमरण रूप अपना स्वार्थ सिद्ध किया था ।।२१४८।। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवीचार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगमनाधिकार [ ६२५ शकटाल मुनिको कथापाटलीपुत्र नामको नगरीमें राजानंद राज्य करता था। उसके दो मंत्री थे, एक का नाम शकटाल और दूधनका कारचि : मसाल जैस हल स्वभावी नीति प्रिय था इससे विपरीत वररुचि था। दोनोंका आपस में विरोध था । एक दिन पद्मरुचि नामके यतिराजसे धर्मोपदेश सुनकर शकटाल मंत्रीने जिनदीक्षा ग्रहण को । जैन सिद्धांत का अध्ययन कर उन यतिराजने संपूर्ण तत्त्वोंका समीचीन ज्ञान प्राप्त किया । किसी दिन शकटाल मुनि आहारार्थ राजमहल पधारे । आहार करके वापिस लौट रहे थे कि वररुचिने उन्हें देखा । वररुचि शकटालसे अत्यंत द्वेष रखता था अतः मौका देख उसने राजानंदसे कहा कि देखो। यह नग्न ढोंगी साधु राज महल जाकर क्या क्या पाप कर आये हैं इत्यादि अनेक तरहसे राजाको कुपित किया, राजाने शकटाल मुनिको मार डालनेको आज्ञा दी । कर्मचारी मुनिके तरफ आ रहे थे उन्हें शस्त्रास्त्र सहित आवेश में आते देखकर शकटाल मुनिने निश्चय किया कि ये घोर उपद्रव करने वाले हैं उन्होंने तत्काल चतुराहारका त्याग एवं राग द्वेष कषायका त्यागकर सन्यास ग्रहण किया और शस्त्र द्वारा प्राण त्यागकर स्वर्गारोहण किया । शकटाल मुनिको कथा समाप्त । Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र बालपंडित मरणाधिकार । संयतासंयलो जोवः सम्यग्दर्शनभूषितः । मत्तस्य मरणं प्रोक्तं श्रुतर्बालपंडिलम् ॥२१५०॥ पंचधाणुव्रतं प्रोक्तं त्रिषा प्रोक्तं गुणवतम् । शिक्षावतं चतुर्षा छ धर्मो वेशयतेरयम् ॥२१५१॥ हंसामसूनृतं स्तेयं परनारोनिषेषणम् । विमुचतो महालोभं पंचधाणुव्रतं मतम् ।।२१५२॥ इसप्रकार पंडितमरणके भेद प्रभेदोंका निरूपण किया। अब बालपंडितमरणका वर्णन करूंगा। पंचम गुणस्थानवर्ती संयतासंयत जीव जो कि सम्यग्दर्शनसे विभूषित है उसका जो मरण है उसे श्रुतज्ञ गणधरादि बालपंडित मरण कहते हैं ॥२१४६।।२१५०।। पांच प्रकारका अणुव्रत, तीन प्रकारका गुणवत और चार प्रकारका शिक्षाक्त इसतरह बारह व्रतरूप देश संयमीका धर्म कहा गया है ।।२१५१।। हिंसा, झूठ, चोरी, परनारो सेवन और महालोभका त्याग करना अर्थात हिंसा आदि पांच पापोंका स्थूलरूपसे त्याग करना पांच प्रकारका अणुव्रत कहलाता है ।।२१५२॥ दिशा, देश और अनर्थदंडोंका त्याग रूप तीन गुणव्रत कहे गये हैं तथा प्राज्ञ पुरूषों द्वारा शिक्षावत निम्न Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालपंडित मरणाधिकार [ ६२७ दिग्देशानर्थवंडानां त्यामस्त्रधागुणवतम् । शिक्षाव्रतमिति प्राश्चतुर्भेदमुदाहृतम् ॥२१५३॥ भोगोपभोग संख्यानं सामायिफमखंडितम् । संविभागोऽतिथीनां च प्रोषधोपोषित व्रतम् ॥२१५४।। सहसोपस्थिते मृत्यौ महारोगे दुरुत्तरे ।। स्वबांधवरनुमातो याति सल्लेखनामसौ ॥२१५५॥ विधायालोचनां सम्यक् प्रतिपद्य च संस्तरम् । नियते यो गहस्थोऽपि तस्योक्त बालपण्डितं ॥२१५६॥ प्रोक्तो भक्तप्रतिज्ञायाःप्रक्रमो यः सविस्तरम् । प्रत्रापि स यथायोग्यं द्रष्टव्यः श्रुतपारगः ॥२१५७॥ छंद-रथोद्धतायेन देश यतिना निषेव्यते बालपंडितमृतिनिराकुला। भोगसौख्यकमनीयतावधिः कल्पवासिविबुधः स जायते ॥२१५८।। -. -- ..-- --- लिखित चार भेदोंवाला कहा गया है ॥२१५३।। सामायिक शिक्षावत, प्रोषधोपवास शिक्षावत, भोगोपभोग संख्यान और अतिथि संविभाग । इन संपूर्ण बारह व्रतोंका धारक श्रावक अकस्मात् मृत्युके उपस्थित होनेपर या भयानक महारोग होनेपर अपने बंधुजनोंके द्वारा अनुज्ञा लेकर सल्लेखनाको धारण करता है ।।२१५४।।२१५५।। सल्लेखनाका इच्छुक वह श्रावक आचार्य या मुनि आदिके समक्ष अपने व्रतोंमें लगे हुए दोषों की भली प्रकारसे आलोचना करता है फिर यथायोग्य चढाई आदि संस्तरको ग्रहण करता है, इसप्रकार नियमपूर्वक जो गृहस्थ मरण करता है उसके बालपंडित मरण कहा गया है ।।२१५६॥ श्रुतके पारगामी प्राचार्योंने भक्त प्रत्याख्यान मरण में जो विधि विस्तारपूर्वक कही थी वह यहां बालपंडित मरणमें भी यथायोग्य जाननी चाहिये जो देशवती श्रायक आदि निराकूल भावसे इस बाल पंडितमरणको ग्रहण करते हैं वे भोग, सौख्य प्रौर सुन्दरताको चरम सीमा हैं जिनके ऐसे कल्पवासी देव होते हैं । जो शुभमना-विशद्ध - - .. -..-. -. .---...---- ---- -- -- Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ ] मरसकषिष्टका छंद-रथोद्धताएकवा शुभमना विपद्यतं मालपस्तिमृति समेत्य यः । स प्रपद्य नरदेवसंपदं सप्तमे भवति निQतो भवे ॥२१५६॥ ॥ इति बालपंडितम् ॥ -- - ---- -- परिणामवाला देशद्रती एकबार या एक भवमें बालपंडित मरणको ग्रहण करता है वह मनुष्य और देव संबंधी अभ्युदय सुखोंको प्राप्त करके सातवें भवमें मोक्ष चला जाता है ।।२१५७॥२१५८॥२१५६५ विशेषार्थ-बाल पंडितमरण संयतासंयत नामके पंचम गुणस्थानवी जीवोंके होता है । इसमें जीव बाल इसलिये है कि पूर्ण संयम धारण नहीं किया है और पंडित इसलिये है कि अणुव्रत धारण किये हैं । अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यान कषायोंका इसमें उदय नहीं है । शेष प्रत्याख्यान प्रादिका उदय है । इस बाल पंडित मरणको पहली प्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तकके जीव प्राप्त करते हैं तथा आर्यिकाओंके मरणको भी बाल पंडितमरण कहते हैं क्योंकि आयिकाओं के उपचार महावत होते हुए भी गुणस्थान पांचवाँ ही होता है । इसप्रकार प्रतिमाधारी श्रावक श्राविका, ब्रह्मचारी ब्रह्मचारिणी, क्षुल्लक लल्लिका ऐलक और आर्यिकायें इन सबका भक्त प्रतिज्ञा पूर्वक यदि मरण होता है तो वह बाल पंडित मरण कहलाता है । ये सभी जीव सम्यग्दृष्टि तो हैं ही साघमें यदि कुछ समयके लिये आहार एवं कषायभावका त्यागकर सन्यासपूर्वक मरण करते हैं तो वह बाल पंडितमरण कहलाता है । बाल पंडितमरणका कथन समाप्त । Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पंडित-पंडित मरणाधिकार एवं समासतोऽवाचि मरणं बालपंडितम् । अधुना कयिष्यामि मृत्यु पंडितपंडितम् ।।२१६०॥ अप्रमत्तगुणस्याने वर्तमानस्तपोधनः । पारोदु क्षपकरणों धर्मध्यानं प्रपद्यते ॥२१६१॥ अनुज्ञाते समे देशे विविक्त जंतुजिते । ऋग्वायतवपुर्यष्टिः कृत्वा पर्यकबंधनम् ॥२१६२।। इस प्रकार संक्षेपसे बालपंडित मरण का कथन किया, अब पंडित पंडित मरणको कहूंगा ।।२१६०॥ ___ अप्रमत्त संयत नामके सातवें गुणस्थान में कोई मुनिराज विद्यमान हैं वे क्षपक श्रेणो आरोहन करने के लिये धर्म्यध्यानको धारण करते हैं ॥२१६१।। धर्म्यध्यानको ध्याने के लिये जंतरहित एकांत देश में निवास करते हैं, कैसा है वह स्थान-प्रदेश ? जिसमें निवास करने के लिये उसके मालिक या अधिष्ठाता देवकी अनुज्ञा ली गयी है ऐसे रम्य तथा इन्द्रियोंको क्षोभ नहीं करने वाले तथा पवित्र स्थानमें आकर पर्यंक आसनसे बैठकर अपने शरीरको सरल सीधा तानकर रीढ़की हड्डीको एकदम सीधाकर बैठ जाते हैं ।।२१६२।। अथवा वीरासन प्रादि आसनोंको करके ध्यानमें स्थित Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकण्डिका वीरासनादिकं बद्धब्धा समपादाविकां स्थितिम् । आश्रित्य वा सुधीः शय्यामुत्तानशयनादिकम् ॥२१६३॥ पूर्वोक्तविधिना ध्याने शुद्धलेश्यः प्रवर्तते । योगीप्रवचनाभिज्ञो मोहनीयक्षयोचतः ॥२१६४॥ पूर्व संयोजनाहन्ति तेन ध्यानेन शुद्धधीः । मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्स्व त्रितयं क्रमतस्ततः ॥२१६५।। होते हैं या कायोत्सर्ग मुद्रामें दोनों पैरोंको समान कर खड़े होते हैं अथवा एक पार्श्वसे लेटकर या उत्तान रूपसे लेटकर वे बुद्धिमान मुनि पूर्वोक्त विधि से शुद्ध लेश्या-शुक्ल लश्या युक्त हो ध्यान में प्रवृत्त होते हैं. कैसे हैं मुनिराज ? शास्त्रोंके ज्ञाता-अंग तथा पूर्वरूप श्रुतके पारगामी हैं तथा मोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंका क्षय करने में उद्यत हैं ॥२१६३।।२१६४।। शुद्ध बुद्धिवाले वे मुनिराज धर्म्यध्यान द्वारा पहले अनंतानुबंधी संबंधी चार कषाय क्रोध, मान, माया, लोभको विसंयोजना करके नष्ट करते हैं, तदनंतर मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व नामको दर्शन मोहकी तीन प्रकृतियोंको नाश करके भायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं ।।२१६५।।। विशेषार्थ-यहांपर सातवें पुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्तिका क्रम कहा है, ऐसे क्षायिक सम्यक्त्व चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थानमे हो सकता है । क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करनेका यह क्रम है-चौथे आदि गुणस्थानवर्ती कोई वेदक-क्षयोपशम सम्यक्त्वी कर्मभूमिका मनुष्य है वह केवली अथवा श्रुत केवलोके पादमूलमें इस क्षायिक सम्यक्स्थको प्राप्त करता है। यह सम्यक्त्व मिथ्यात्वसे सासादनसे मिश्रसे न होकर सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है, सम्यक्त्व में भी प्रथमोपशम या द्वितोयोपशम सम्यक्त्व से न होकर बेदक सम्यक्त्य से हो होता है वेदक सम्यक्त्वी कर्मभूमिज मनुष्योंमें भी द्रव्यस्त्रो और द्रव्य-नपुंसक वेदो इसे प्राप्त नहीं करता, जो द्रव्यसे पुरुषवेदो है बहो प्राप्त करता है । इसमें सर्वप्रथम अध:करण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणोंको करते हुए अनिवृत्तिकरणमें चार अनंतानुबंधीका विसयोजन करता है अर्थात् इन चार कषायोंको प्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषाय तथा नोकषाय में संक्रामित करता है और इसतरह अनंतानुबंधोका सत्तासे नाश करता है। तदनंतर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालतक विश्राम लेता है 1 पुनः उक्त अध:करणादि तीन Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित पंडित मरणाधिकार पारुह्य क्षपश्रेणीमपूर्वकरणो यतिः । भूत्वा प्रपद्यते स्थाननिवृत्तिगुणाभिधम् ।।२१६६॥ सूक्ष्मसाधारणोघोतस्त्यानद्धियातपान् । एकायिकलाख्यानां जाति तिर्यग्द्वयं मुनिः ।।२१६७।। स्थावरं नारकर षोडश प्रकृतिरिमाः । प्लोषते प्रथमं तत्र शुक्लध्यानकृशानुना ॥२१६८।। कषायामध्यमानष्टौ पंढवेदं निकृन्तति । स्त्रीवेदं क्रमतः षट्कं हास्यावोनां ततः परम् ।।३१६६।। करणोंको करता है उसमें अंतिम अनिवृत्तिकरणमें मिथ्यात्व प्रकृतिको तथा मिश्रप्रकृति को सम्यक्त्व प्रकृति में संक्रामित करके नष्ट करता है पुन: सम्यक्त्व प्रकृतिको नष्ट करता है । इसप्रकार सात प्रकृतियोंका नाशकर क्षायिक सम्यक्त्वी बनता है। तीनों करणोंका स्वरूप तथा इनमें होनेवाले स्थिति खंडन, अनुभाग खंडन, गुणश्रोणि निर्जरा आदिका स्वरूप लब्धिसार आदि सिद्धांत ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक बताया है। विशेष जिज्ञासुप्रोंको वहींसे अवलोकनीय है । इसप्रकार क्षायिक सम्यक्त्वी होकर वह साधु क्षपक श्रेणी में आरोहन करता है उसमें क्रमश: अध:करण-सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान तथा अपूर्वकरण नामके आठवें गुणस्थानको प्राप्तकर नौवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में आता है ।।२१६६।। नौवें गुणस्थानमें सूक्ष्म, साधारण, उद्योत, स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्रा, आतप, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये चार जातियां तियंचगति, तिर्यंचगत्यानपूर्वी, स्थावर, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी इन सोलह कर्मप्रकृतियों का प्रथम शुक्ल ध्यान-पृथक्त्व वित्त वीचार रूप अग्नि द्वारा नाश करते हैं ॥२१६७३।२१६८॥ तदनंतर उसी गुणस्थान में क्रमशः प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण नामको आठ कषायें नष्ट करते हैं, पुनः नपुंसक वेद पुनः स्त्रीवेद तदनंतर हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छह कषायोंका युगपत क्षय करते हैं ।।२१६६ ।। पुनः वहों पर शुक्लध्यान रूप तलवारसे पुरुषवेदको काटकर संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन मायाका क्षय करते हैं । इसप्रकार अनिवृत्तिकरण नामके नौवें Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरणकण्डिका पुवेदं क्रमतश्च्छित्वा शुक्लध्यानमहासिना। क्रोधं संज्वलनं मान मायां संज्वलनाभिधाम् ॥२१७०॥ सूक्षम लोभगुणस्थाने सूक्ष्मलोभं निशुभप्ति । स निद्राप्रचले क्षीणमोहस्योपान्तिमे ततः ॥२१७१॥ पंचज्ञानावतोस्तत्र चतस्रो वर्शनावृतोः । पंच विघ्नानसी हन्ति चरमशि चतुर्दश ॥२१७२।। हुत्वैकत्ववितर्काग्नौ घातिकर्मेन्धनं सुधीः । वर्शकं सर्वभावामां केवलज्ञानमश्नुते ॥२१७३॥ अनंतं दर्शनं झानं सुखं वीर्यमनश्वरम् । जायते तरसा तस्य चतुष्टय मखंडितम् ॥२१७४॥ अनंतमप्रतीबंध निःसंकोचमनिट्रियम् । लिरकार केगलबार विहान्यानलमजल ॥२१७५॥ गुणस्थानमें नामकर्म तेरह, दर्शनावरणकी तीन और मोहनीय कमको बीस इसतरह छत्तीस प्रकृतियोंका नाश करते हैं ॥२१७०॥ पुन: वे मुनिराज सूक्ष्म सापराय नामके दसवें गुणस्थानमें प्रविष्ट होकर सूक्ष्म लोभको नष्ट करते हैं, तदनंतर क्षीणकषाय नामके बारहवें गुणस्थान में आकर उसके द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला प्रकृतिका नाशकर चरम समय में पांच ज्ञानावरण की चार दर्शनावरणकी और पांच अंतराय कर्मको इसतरह दो और चौदह कुल मिलाकर सोलह कर्म प्रकृतियोंका नाश करते हैं ॥२१७१॥२१७२।। इसप्रकार वे बुद्धिमान तपोधन एकरव वितर्क अवोचार शुक्ल ध्यानरूप अग्निमें घाती कर्मरूप इंधनको भस्मसात करके प्तमस्त द्रव्य और उन अनंतानंत द्रव्योंकी अनंतानंत पर्यायोंको जानने देखनेवाले केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त करते हैं ।।२१७३।। उन अरिहंतोंके शीघ्र ही अनंत ज्ञान, प्रनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये अखंडित अविनश्वर चतुष्टय उत्पन्न होते हैं ।।२१७४।। यह केवलज्ञान अनंत है-कभी भी नष्ट नहीं होगा, अप्रतीबंध-रुकावट रहित है, संकोच विस्तार रहित है, इन्द्रियोंकी सहायतासे रहित अनिन्द्रिय है, कम रहित है, Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित पंडित मरणाधिकार करस्थितमिवाशेष लोकालोकं विलोकते । युगपत्तेन बोधेन योगी विश्वप्रकाशिना ॥२१७६॥ ततो वेश्यमानोऽसौ शेषघाति चतुष्टयम् । कुर्वाणो जनतानंदं भ्रमत्येष सुराचितः ॥२१७७॥ विवर्तमानचारित्रो ज्ञानग्यांनभूषितः । शेषकर्मविघाताय योगरोधं करोति सः ॥२१७॥ यहाथषोऽधिकं कर्म जायते त्रितयं परम् । समुद्घातं तदाम्येति तत्समीकरणाय सः ॥२१७६।। प्रायुषा सदृशं यस्य जायते कर्मणां त्रयम् । स निरस्त सद्घमातः शैलेश्यं प्रतिपद्यते ॥२१०॥ यः षण्मासावशेषायः केवलज्ञानमश्नुते । अवश्यं स समुद्घातं याति शेषो विकल्पते ॥२१८॥ कषाय और पापोंसे रहित है, ऐसे विश्वप्रकाशी केवलज्ञान द्वारा हाथमें रखे हुए पदार्थके समान अशेष लोकालोकको सयोग केवलो भगवान् जानते हैं ॥२१७५।।२१७६।। __ इसतरह केवलज्ञानो भगवान्-शेष बचे चार अघातो कोको वेदन करते हए चतुनिकाय देवों द्वारा पूजित होते हैं तथा दिव्यध्वनि द्वारा समस्त जनताको आनंद प्रदान करते हुए आर्यखण्ड में विहार करते हैं । तदनंतर वर्द्धमान चारित्रवाले ज्ञान दर्शनसे भूषित वे सयोगी जिन शेष कर्मों का नाश करनेके लिये योग निरोध करते हैं ॥२१७७॥२१७८।। यदि उन केवली भगवान के आय कर्मसे अधिक नामादि तीन कोकी स्थिति है तो उन कर्मोंको आयुके बराबर करने के लिये समुद्घात क्रियाको करते हैं ।।२१७६।। जिन भगवान के नाम आदि तीन कम आयुके समान प्रमाण वाले हैं वे भगवान समुद्घात नहीं करके हो शैलेश्य भाव अर्थात् अठारह हजार शीलोंके आधिपत्यको प्राप्त करते हैं अर्थात् चौदहवें अयोग केवलो नामके गुणास्थान में आते हैं। जिन मुनिराजको छह मासको प्रायु शेष रहने पर केवलज्ञान प्राप्त हुआ है, वे नियमसे समुद्घात करते हैं और शेष केवली समुद्घात करते भी हैं और नहीं भी करते ।।२१८०।२१८१।। Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ ] मरकण्डिका अंतर्मुहूर्तशेषायुर्यदा भवति संयमी I समुद्घातं तदा धीरो विद्यते कर्मभूतये ।।२१८२ ॥ प्रविकीर्ण यथा वस्त्रं विशुष्यति न संवृतम् । तथा कर्मापि बोद्धव्यं कर्मविध्वंसकारिभिः ।।२१६३॥ समुद्घाते कृते स्नेहस्थितिहेतुविनश्यति । क्षीणस्नेहं ततः शेषमल्पीय: स्थितिः जायते || २१८४ ॥ केवली समुद्घात कब होता है सो बताते हैं सयोगी केवली भगवानको आयु जब अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है तब धीर संयमी भगवान् कर्मोंका स्थिति ह्रास करनेके लिये समुद्घात क्रियाको करते हैं ।।२१८२॥ केवली समुद्घातमें आत्मा के प्रदेश तीन लोकमें फैलते हैं, उससे कर्मों की स्थिति कम होती है । प्रदेश फैलने से स्थिति किसप्रकार कम होती है ? ऐसा प्रश्न होनेपर दृष्टांत द्वारा उत्तर देते हैं जैसे गीले वस्त्रको फैला देवें तो सूख जाता है बिना फैलाये सूखता नहीं वैसे कर्म भी फैलाने पर कम स्थिति वाला होता है बिना फैलाये उनकी स्थिति घटती नहीं ऐसा कर्मोके नाशक जिनेन्द्र देवोंने कहा है । भाव यह है कि तोन लोकमें आत्मा के प्रदेश फलते हैं उस वक्त आत्मप्रदेशोंके साथ ही क्षोर नीरवत् श्रुले मिले कर्मप्रदेश भी फैलते ही हैं और इसतरह कर्मप्रदेशों के फैल जानेसे उनको स्थिति (आत्मा के साथ रहने की स्थिति - कालमर्यादा) कम हो जाती है ।।२१८३|| समुद्घात करनेपर कर्मोंको स्थितिका हेतु जो स्नेह गुण स्निग्धता थी वह नष्ट हो जाती है और इसतरह स्नेहके क्षीण होने से समस्त कर्म अल्प स्थिति वाला हो जाता है ।।२१८४।। भावार्थ - कर्म प्रदेशोंका परस्पर में जो संबंध है वह उनके स्नेह या स्निग्ध गुणके कारण है, कर्म प्रदेशों को सर्वत्र फैला देनेसे उनको स्निग्धता कम होती है अतः कमकी स्थिति कम होती है । इसप्रकार समुद्घात करनेसे कर्मों की स्थिति किस प्रकार Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित पंडित मरणाधिकार [ ६३५ दंडकपाटकं कृत्वा प्रतरं लोकपूरणं । चतुभिः समययोंगी तावद्भिश्च निवर्तते ॥२१॥ घटती है कम होतो है ? इस शंकाका समाधान हो जाता है । इसमें गोले वस्त्रका दृष्टांत भो दिया है इसतरह केवली समद्धात द्वारा कर्मोको स्थिति कैसे घटती है इस विषयको यहां पर आचार्यने बहुत सुन्दर रीतिसे समझाया है । केवली समुद्घातमें आत्माके प्रदेश किस क्रमसे फैलते हैं उसको बतलाते हैं सयोगी जिन चार समयों द्वारा दंड, कपाट प्रतर और लोक पूरण इसतरह चार प्रकारसे आत्मा प्रदेशों को फैलाते हैं और पार समयों द्वारा उन प्रदेशोंको संकुचित करते हैं ॥२१८५।। विशेषार्थ-सयोगी जिनेन्द्र अंतर्मुहूर्त आयु शेष रहनेपर आयुके बराबर शेष नाम कर्मादिको स्थिति करने के लिये केबली समुद्घात करते हैं—पूर्वाभिमख या उत्तराभिमुख होकर कायोत्सर्ग या पद्मासन में स्थित होते हैं । समुद्घातमें सर्वप्रथम आत्मप्रदेश दण्डाकार होते हैं इसमें मूल शरीरके प्रमाण चौड़े होकर कुछ कम चौदह राजू प्रमाण ऊपर नीचे लोकमें फैल जाते हैं यह कायोत्सर्ग आसन वाले केवलीको बात है । जो पचासन वाले हैं उनके आत्मप्रदेश शरीरसे तिगुने चौड़े होकर दण्डाकार फैलते हैं । दूसरे समय में कपाटाकार फैलते हैं इसमें जो पूर्वदिशाभिमुख हैं उनके दक्षिण उत्तर चौड़े सात राजू प्रमाग और जो उत्तराभिमुख हैं उनके पूर्व पश्चिम चौड़े सात राज प्रमाण होकर आत्मप्रदेश फैलते हैं । अर्थात् जैसे किवाड़ बाहल्य मोटाईमें स्तोक होकर भी लंबाई और चौड़ाई में बड़ा रहता है वैसे विस्तार में जीब प्रदेश कुछ कम चौदह राजू लंबे और दोनों पार्श्व भागोंमें सात राजू चौड़े होकर फैलते हैं। अर्थात् पूर्वाभिमुख वालेके दक्षिण उत्तर सात राजू चौड़ और उत्तराभिमुख वाले के पूर्व पश्चिम हानि वृद्धि रूप सात राजू चौड़ फैलते हैं (क्योंकि लोकाकाशकी चौड़ाई पूर्व-पश्चिम हानि बद्धिरूप सात राज है ) तोसरे समय में प्रतराकारसे जोव प्रदेश फैलते हैं अर्थात् मोटाईको लिये हुए वातबलयके अतिरिक्त समस्त लोकमें फैलते हैं। इसप्रकार दण्डाकारमें लंबे, कपाटाकारमें चौड़े और प्रतराकारमें मोटाई रूप जीव प्रदेश फैलते हैं। चौथे समय में लोकपूरण रूप फैलते हैं अर्थात् वातदलयोंमें भी सर्वत्र फैल जाते हैं। पुनः संकोच होता है उसमें पांचवें समयमें प्रत राकार छठे समयमें कपाटाकार सातवें Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ | माकडका durgर्नामगोत्राणि समानानि विधाय सः । प्राप्तु सिद्धिवधू धीरो विधत्ते योगरोधनम् ॥२१६६॥ समय में दण्डाकार और आठवें समय में मूल शरीर प्रमाण आत्मप्रदेश हो जाते हैं । इसतरह इस समुद्घातका काल आठ समय प्रमाण है । इस समुद्घात में प्रथम दण्डाकार के समय औदारिक काययोग होता है, दूसरे कपाटाकारके समय औदारिक मिश्र योग होता है, तीसरे प्रतराकार चौथे लोकपूरण तथा संकोच करते हुए प्रतराकार ऐसे तीन समयोंमें कार्मण काययोग होता है, संकोचके कपाटाकारमें औदारिक मिश्रयोग, दण्डाकारमें ओदारिक काययोग होता है। इसतरह पुन: मूल शरीर में सर्वात्मप्रदेश प्रविष्ट हो जाते हैं । योग केवली जिनेन्द्र समृद्धात द्वारा वेदनीय नाम और गोत्र इन तीन कर्मों को आयुके बराबर करके पुनः सिद्धि वधूमुक्तिको प्राप्त करनेके लिये योग निरोध करते हैं ।। २१८६ ।। विशेषार्थ - केवली भगवान दिव्य ध्वनि द्वारा उपदेश देना, देश देश में विहार होना इत्यादि बाह्य क्रियारूप योगोंका निरोध तो कई दिन पहले करते हैं, जैसे आदिनाथ भगवान् ने चौदह दिन पहले किया था, अजितनाथ आदि तीर्थंकरोंने एकमास पहले किया था इत्यादि । इस योग निरोधको करनेकी दृष्टिसे ही "विवद्ध' मानचारित्रो, ज्ञानदर्शन भूषितः । शेषकर्म विघाताप, योग रोधं करोति सः । इस कारिका में योग निरोधका उल्लेख किया है । जब केवलो भगवान् की आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण शेष रहती है तब जिनके कर्मोकी स्थिति विषम हैं वे केवलो समुद्घात करते हैं और जिनके कर्मोकी स्थिति समान है वे समुद्घात नहीं करते । फिर स्थूल- बादर मनोयोग, वचनयोग और काययोगको नष्ट करते हैं और सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग, काययोगमें आते हैं. इसतरह बादर योगोंका निरोध करते हैं । सूक्ष्म योगों में स्थित होकर सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचन योगको भी नष्ट करते हैं और एक मात्र सूक्ष्म काययोग धारणकर सूक्ष्म क्रिया - अप्रतिपाति नामके तीसरे शुक्ल ध्यानको ध्याते हैं । इसतरह ईर्यापथ आस्रवरूप सातावेदनीयका आस्रव, सूक्ष्म शुक्ल लेश्या और सूक्ष्म काययोग इन तीनों को समाप्त करके वे भगवान जिन चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होते हैं । इसीको आगेको कारिकाओं द्वारा कह रहे हैं । योग निरोधका क्रम बतलाते हैं Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितपंडित मरणाधिकार स्थूलौ मनोवचोयोगी वद्धि स्थलकायत:। सूक्ष्मेण काययोगेन स्थूलयोगं च कायिकम् ।।२१८७।। सूक्ष्मो मनोवचोयोगौ रुद्ध कर्मालवे जिनः । सूक्ष्मेण काययोगेन सेतुनेव जलासयौ ॥२१८८।। सर्व प्रथम स्थूल काययोग द्वारा स्थूल मनोयोग और स्थूल वचनयोगको रोकते हैं-नष्ट करते हैं । फिर स्थूल काययोगको सूक्ष्म काययोग द्वारा रोकते हैं । सूक्ष्म मनोयोग और सक्ष्म वचनयोग भी जब रुक जाता है तब उनसे होनेवाला ईर्यापथ आस्रव भी रुक जाता है, फिर सभा काययोग मात्रमे उक्त आस्रव होता है, जैसे जलको बांध देनेवाले बंधामें किंचित् छेद होवे तो उससे किंचित् जलास्रव होता है-जल आता है वैसे मूक्ष्म योग द्वारा किंचित् कर्म आता है । अर्थात् सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग, काययोग होनेपर सूक्ष्म कापयोग द्वारा सूक्ष्म मनोयोग और वचनयोगको रोकते हैं और इसतरह एक मात्र सूक्ष्म काययोग में जिनेन्द्र स्थित रहते हैं ।।२१८७॥२१८८।। विशेषार्थ-पुद्गल विपाको शरीर नामकर्मके उदयसे मन, वचन, काययुक्त जोबके कर्म नोकर्म वर्गणाओंको ग्रहण करनेकी शक्ति विशेषको योग कहते हैं। वह योगका सामान्य लक्षण है । अथवा काय, वचन और मनको क्रियाको योग कहते हैं यह व्यावहारिक स्थूल लक्षण है । मन, वचन और कायके द्वारा आत्माके प्रदेशों में कंपन होना योग है । मनोवर्गणा, भाषावर्गणा आदिका अवलंबन लेकर आत्मप्रदेशों में हलनचलन होता है उसे योग कहते हैं, इसतरह योगके लक्षण कहे गये हैं। एक समयमें एक जीवके एक ही योग होता है और कर्म बगंणा, नोकर्म बर्गणा, मनोवगंणा आदि अनेक वर्गणा एक ही समय में यह जीव ग्रहण करता है अतः प्रश्न होता है कि इसके कौनसा योग होगा? इसका उत्तर है कि जिस वर्गणाका प्रवलंबन लेकर आत्मप्रदेशों में कंपन हुआ है उस समय वह योग है । अतः यह लक्षण किया कि वर्गणायें तो अनेक आरही हैं या अनेक वर्गणानोंको ग्रहण कर रहा है किन्तु उनमें जिसका अवलंबन लेकर आत्म-. प्रदेश सकंप हुए उसी वर्गणाके नामवाला योग हुआ-मनोधर्गणाका अवलकन लेकर कंपन हुआ है तो मनोयोग है इत्यादि । इसप्रकार योगकी परिभाषा है। जीव में पुद्गल वर्गणाओंको ग्रहण करनेकी सामर्थ्य है और निमित्त कर्मोदय आदि है। यहां पर सयोग केबलो जब योग निरोध करते हैं तब क्या प्रक्रिया होती है . यह मूल को दो कारिकाओं में बतलाया है । जीवकी योग शक्तिको यहां कृश करके Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३५ ] मरणकण्डिका लेश्याशरीरयोगाभ्यां सूक्ष्माम्यां कर्मबंधकः । शुक्लं सूक्ष्मनियं ध्यानं कर्तुमारभतेजिनः ।।२१८६।। सूक्ष्मक्रियेण रुद्धोऽसौ ध्यानेन सूक्ष्मविग्रहः । स्थिरीमूतप्रदेशोऽस्ति कर्मबंधविजितः ॥२१६०॥ प्रयोगोऽन्यतरह नरायन वय असम् । सुभगाय पर्याप्तं पंचाक्षोच्चयासि सः ॥२१६१॥ नष्ट किया जाता है । योग निरोधके पूर्व सर्वत्र बादर योग रहता है। सयोग केवली बादर काययोगमें स्थित होकर बादर मनोयोग और बादर वचनयोगको नष्ट करते हैं पुनः बादर काययोगको नष्ट करते हैं पुनः सूक्ष्मकाय योगमें स्थित होकर सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचन योगको पूर्णतया नष्ट करते हैं । इसप्रकार प्रति समय योग शक्तिको घटाते हुए इस सयोग केवनी गुणस्थानके अंत समयमें योग शक्ति का पूर्णनाश हो जाता है और वे अयोग केवली नामा चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं । बादर योगोंको नष्ट करके तथा सक्ष्म मनोयोग और वचन योगको भी नष्ट कर चुकनेके बाद सूक्ष्म काययोगमें स्थित होनेपर सयोग केवलोके सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है। इससे पूर्व तेरहवें गुणस्थानके काल में तथा केवलो समुद्घात काल में भी यह शुक्लध्यान नहीं होता ऐसा जानना चाहिये । सूक्ष्म शुक्ल लेश्या और सूक्ष्म काययोग द्वारा कर्मबंधको करने वाले अर्थात् सातावेदनीय रूप ईर्यापथ आस्रवको करने वाले वे सयोगी जिन सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती नामके तीसरे शुक्ल ध्यानको करना प्रारंभ करते हैं । वे केवलो जिन उस सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति ध्यान द्वारा सूक्ष्मयोगका निरोध करते हैं और इसप्रकार संपूर्ण योग नष्ट होकर सर्व आत्मप्रदेश स्थिर हो गये हैं जिनके ऐसे वे अयोग केवलो नामके गुणस्थानमें प्रवेश करते हैं कसे हैं अयोगी जिन ? ईपिथ आस्रव रूप कर्मबंध भी अब जिनके नहीं रहा है ।।२१८६।।२१६०।। अयोगी जिनके ईर्यापथ रूप प्रास्रव बंत्र तो समाप्त हुआ किन्तु उदय कितनी प्रकृतियोंका है ? ऐसा प्रश्न होनेपर कहते हैं-~प्रयोग केवलीके साता सातामें से कोई एक वेदनोय कर्म, मनुष्यायु, मनुष्यगति, प्रस, सुभग, आदेश, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जाति, Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितपंडित मरणाधिकार बादर तीर्थकृत्वैतास्तीर्थकारी त्रयोदश। न परो वेवयते साघस्तदानों द्वादश स्फुटम् ॥२१६२।। देहत्रितय बंधस्य ध्वंसायायोग केवली । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानं निश्चलं प्रतिपद्यते ॥२१९३॥ मापनककालेन डे मात्र ते । प्रकृतीनामपक्वानां द्वासप्ततिमसौं समम् ।।२१६४॥ शरीरं पंचधा तत्र पञ्चधा देहबन्धनम् । संघातः पञ्चधा घोढा संस्थान ममरयम् ।।२१६५।। अंगोपांग त्रिसंख्यानं षोढा संहननक्षणे । पंच वर्ण रसाः पंच गंधस्पर्शा द्विधाष्टधा ॥२१६६॥ उच्चगोत्र, यशस्कीति और बादर इसप्रकार (सामान्य केवली) ग्यारह कर्म प्रकृतियां उदयमें रहती हैं तथा तीर्थंकर केवलोके ये ग्यारह तथा एक तीर्थकर इसतरह बारह प्रकृतियां उदयमें रहती हैं, इन बारहके अतिरिक्त अन्य तेरह आदि प्रकृतियोंका उदय उनके कदापि नहीं रहता, उससमय अधिकसे अधिक बारह प्रकृतियां ही नियमसे उदय में हैं ।।२१९१।।२१९२।। अयोग केवली तीन शरीर के संबंधका ( औदारिक तेजस और कार्मण शरोरका) सर्वथा नाश करने के लिये समुच्छिन्न क्रिया-व्युतरत क्रिया नियत्ति नामके चौथे निश्चल शुक्ल ध्यानको प्राप्त करते हैं ।।२१९३॥ पांच लघु ह्रस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ, लु) के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने काल प्रमाणवाला यह चौथा शुक्लध्यान है (इस चौदहवें गुणस्थानका काल भी इतना हो है) इस शुक्लध्यान में रहते हुए वे भगवान अरिहंत देव अपक्य रूप अर्थात् अनुश्यरूप बाहत्तर कर्मप्रकृतियोंका चौदहवें गुणस्थानके द्विचरम समय में युगपत् नाश करते हैं ।।२१६४६ उन बाहत्तर प्रकृतियों के नाम है-औदारिक आदि पांच शरीर, उन पांचों शरीरोंके पांच बंधन तथा पांच संघास-औदारिक शरीर बंधन, औदारिक शरीर संघात इत्यादि, समचतुरस्र आदि छह संस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, औदारिक शरोर अंगोपांग, वैक्रियक शरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग ये तीन, वज्रवृपभ नाराच आदि छह संहनन, शुक्ल कृष्ण आदि पांच वर्ण, मधुर आदि पांच रस, सुगंध दुर्गधरूप दो गंध, स्निग्ध रूक्ष Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० ] मरण कण्डिका क्षोयते गुरुलघ्वादि चतुष्क । नभोगती । शुभवयं स्थिर प्रत्येक सुस्परद्वयम् ॥२२ ॥ अनादेयायशो निर्माणे चापूर्णानि दुर्भगम् । वेद्यमन्यतरत्तस्य द्वासप्ततिरूपान्तिमे ॥२१६८॥ अंतिम समये इत्वा प्रकृतीः स त्रयोदश । वंद्यमान सवाश्योगः प्रयाति पवमव्ययम् ॥२१६६॥ आदि आठ स्पर्श, अगुरु लघु चतुष्क अर्थात्-अगुरुलधू, उपघात, परघात और उच्छवास ये चार, प्रशस्त और अप्रशस्त बिहायोगति ये दो, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, प्रत्येक, सुस्वर, दुस्वर, अनादेय, अयशस्कीति, निर्माण, अपर्याप्त, दुर्भग, साता असातामें से एक वेदनीय और नीचगोत्र । फिर अंतिम समयमें तेरह प्रकृतियोंका नाश करके सबके द्वारा वंदनीय ऐसे वे अयोगी जिन अव्यय पद-मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥२१९५।।२१९६।। ॥२१९७॥२१९८॥२१९९॥ विशेषार्थ-सयोग केवलोके पिच्चासो प्रकृतियोंको सत्ता रहती है प्रयोग केवलोके भो द्विचरम समय तक उन्हींकी सत्ता पायी जाती है । द्विचरम समयमें अयोगो जिन बाहत्तर कर्म प्रकृतियोंका नाश करते हैं जिनके नाम ऊपर गिनायें हैं। चरम समय में तेरह प्रकृतियोंका नाश करते हैं उनके नाम- मनुष्यगति, मनुष्य सत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, पंचेन्द्रिय, सुभग, त्रस, आदेय, पर्याप्त, यशस्कोति, उच्चगोत्र, साता असातामें से एक और तीर्थकर । जो सामान्य केवली हैं उनके तीर्थकर कर्मका सत्त्व नहीं होता अतः वे अंत समयमें बारह कर्मप्रकृतियोंका नाश करते हैं । अयोग केवलोके द्विचरमसमयमें नाश होनेवाली प्रकृतियां एवं अंत समय में होनेवाली प्रकृतियों में दो मत हैं—एक मतके अभिप्रायसे द्विचरम समयमें तिहतर प्रकृतियां नष्ट होती हैं और अंत समयमें बारह प्रकृतियां नष्ट होती हैं । अंतसमयको जो प्रकृतियां हैं उन मेंसे एक मनुष्यगत्यानपूर्वी का नाश पहले ही अर्थात् द्विचरम समयमें होता है । इसप्रकार कुल पिच्चासी कर्म प्रकृतियों का नाश करके वे अयोगी जिन शाश्वतधाम मोक्षको प्राप्त करते हैं और वहां पर हमेशा के लिये आत्मिक अनंत आनंदका अनुभव करते रहते हैं। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडित पंडित मरणाधिकार [ ६४१ नामकर्मक्षयात्तस्य तेजोबंधः प्रलीयते । प्रौदारिक वपुबंधो न सन्यायः क्षये सति ।।२२००॥ एरंडवीजबज्जीयो बन्धव्यपगमे सति । ऊवं यातिनिसर्गेण शिखेवविषमाच्चिषः ॥२२०१॥ आविनाशुगामि व सपूर्वेण नियोजितः। अलाबुरिव निर्लेपो गत्वा मोक्षेऽवतिष्ठते ।।२२०२।। ध्यानप्रयुक्तो यात्यूयमात्मायेगेनपूरितः । तथा प्रयत्नमुक्तोऽपि स्थातुकामो न तिष्ठति ।।२२०३॥ यथानलशिखा नित्यमूध्वं याति स्वभावतः ।। तथोवं याति जीवोऽपि कर्ममुक्तो निसर्गतः ।।२२०४।। इसप्रकार उन भगवान के नाम कर्मका सर्वथा क्षय होनेसे तंजस शरीरका जो संबंध आत्माके साथ हो रहा था वह नष्ट होता है तथा प्रायुकर्मका क्षय होने से औदारिक शरीरका जो संबंध था वह समाप्त होता है, इसतरह शरीरादिके बंधनोंसे सर्वथा प्रमुक्त हुआ यह जीव अर्ध्व गमन कर सिद्धालयमें जाकर विराजमान हो जाता है। जैसे एरंड का बोज उसका बंधन जो ऊपरी छिलका था उसके दूर होनेपर ऊपर जाता है अथवा अग्नि को शिखा-सौ स्वभावसे ऊपर की ओर जलती रहती है ( यदि हवा का झकोरा न होवे तो ) वैसे मुक्त हुआ आत्मा ऊपर की तरफ गमन करता है और अष्टम पृथिवी सिद्ध शिलाके ऊपर जाकर स्थित होता है ।।२२००।२२०१।। अथवा जैसे पूर्व के आवेगसे नियोजित किया गया आशुगामी-चक्र गमन करता है अर्थात् एकबार दंडेसे घुमा देने पर कुम्हारका चक्र कुछ समय तक घूमता रहता है, वैसे पूर्व प्रयोगसे अर्थात् ध्यान में किये गये ऊर्ध्व गमनके अभ्यासके वशसे मुक्त हुए जोव कार गमन करते हैं । अथवा जैसे मिट्टो आदिके लेपसे रहित तुम्बड़ो पानीके ऊपर आतो है वैसे कर्मरूप लेपसे रहित हुआ आत्मा मोक्षमें ऊपर गमन करता है-सिद्धालय में जाकर विराजमान होता है ॥२२०२॥ इसोको कहते हैं कि प्रात्मा पूर्व में ध्यान में प्रयुक्त हुआ उस वेगसे पूरित ऊपर जाता है, जैसे कोई पुरुष वेगसे पूरित होकर दौड़ता है और उस दौड़नेके प्रयत्न को छोड़कर ठहरना चाहता हुआ भी कुछ समय तक ठहर नहीं पाता अथवा जैसे अग्नि शिखा स्वभाव से हमेशा ऊपर जाती है वैसे कर्मों से मुक्त हुआ जोव स्वभावसे ऊपर जाता है ॥२२०३।।२२०४।। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ ] परणनगरको यात्यविग्रहया गत्या निर्याघातः शिवास्पवम् । एकेन समयेनासौ न मुक्तोऽन्यत्र तिष्ठति ॥२२०५।। विच्छिद्य ध्यानशस्त्रेण देहत्रितयबंधनम् । सर्वद विनिर्मुक्तो लोकानमधिरोहति ॥२२०६॥ ईषत्प्रारभारसंज्ञायां धरित्र्यामुपरि स्थिताः । त्रैलोक्याग्नेऽतिष्ठन्ति ते किंचिन्यूनयोजने ॥२२०७॥ न धर्माभावतः सिद्धा गच्छन्ति परतस्ततः । धर्मो हि सर्वा कर्ता जीवपुद्गलयोगः ॥२२०८।। मुक्त जीव मोड़ रहित गति से बिना किसी रुकावटके एक समय में मोक्ष शिला पर जाकर विराजमान होते हैं, वे कहीं अन्यत्र नहीं ठहरते ॥२२०५।। इसप्रकार ध्यानरूप शस्त्र द्वारा औदारिक आदि तीन शरीरोंके बंधनको छेद कर समस्त द्वन्द्व-विभाव परिणामोंसे रहित हुए वे भगवान् लोकान में आरोहण करते हैं ।।२२०६॥ लोकानमें ईषत् प्राम्भारा नामको पृथिवीके ऊपर भाग स्वरूप लोक्यके अंतमें वे परमात्मा अबस्थित होते हैं, उस पृथिवीसे कितने ऊपर जाकर ठहरते है ? कुछ कम एक योजन प्रमाण ऊपर जाकर ठहरते हैं १ ।।२२०७।। विशेषार्थ-सर्वार्थ सिद्धि नामके अंतिम स्वर्ग विमानसे बारह योजन (महायोजन) ऊपर जाकर चन्द्रमा समान उज्ज्वल, छत्राकार ईषत् प्रारभारा नामकी आठवों पृथिवी है इसका प्रमाण अढाई द्वीपके प्रमाणके समान पंतालीस लाख महायोजन का है इसे हो सिद्ध शिला, सिद्धालय, मोक्षशिला इत्यादि अनेक नामोंसे कहते हैं । इस पृथिवीसे आगे तोन वातवलय हैं प्रथम घनोदधि वातवलयकी मोटाई वहां दो कोसको है दूसरे घनवातबलयको एक कोस तथा तीसरे तनुवातवलयको मोटाई कुछ कम एक कोस अर्थात् पौने सौलह सौ धनुष प्रमाण है, अत: अष्टम पृथिवीसे एक योजनमें कुछ कम ऊपर जाकर अंतिम वातवलयके अंत में सिद्धभगवान् विराजमान होते हैं अतः मोक्ष शिलासे कुछ कम एक योजन ऊपर जाकर स्थित होते हैं ऐसा यहां कहा है। लोकान के आगे धर्म द्रव्यका अभाव होने से सिद्ध भगवान् आगे गमन नहीं - करते क्योंकि जोब और पुद्गल के गमन में सहायक धर्मद्रव्य ही होता है ॥२२०८॥ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितपंडित माधिकार निष्ठिताशेषकृत्यानां गमनागमनादयः I व्यापारा जातु जायंते सिद्धानां न सुखात्मनाम् ।।२२० ।। कर्मभिः क्रियते पातो जीवानां भवसागरे । तेषामभावतस्तेषां पातो जातु न विद्यते ।। २२१०॥ क्षुधातृष्णावयस्तेषां न कर्माभावतो यतः । आहारास्ततो नार्थस्तत्प्रतीकारकारिभिः ||२२११॥ यत्सर्वेषां ससौख्यानां भुवनत्रयर्वातिनाम् । ततोऽनंतगुणं तेषां सुखमस्त्यविनश्वरम् ॥२२१२ ॥ प्रत्यविग्रहसंस्थानसदृशाकृतयः स्थिरा: 1 सुखदुःखविनिर्मुक्ता भाविनं कालमासते ।२२१३॥ तेषां कर्मव्यपायेन प्राणाः संति दशापि नो । न योगाभावतो जातु विद्यते स्पंदनादिकम् ॥ २२१४।। [ ६४३ अशेष कार्योंको जो पूर्ण कर चुके हैं ऐसे निष्ठित कृत्य एवं अनंत सुखोंका अनुभव करनेवाले सिद्ध प्रभुके गमनागमन आदि क्रियायें कभी भी नहीं होती हैं ।।२२०६ ॥ जीवों का संसार सागर में गिरता कर्म द्वारा हुआ करता है, उन कर्मोका सिद्धों के अभाव हो चुका है अतः वे कभी भी संसार में लौटकर नहीं आते हैं ।। २२१०।। तथा जिस कारण से उन सिद्धोंके कर्मोका प्रभाव है उस कारणसे उनके भूख प्यास, रोग आदि वेदनायें नहीं होती और वेदनाके अभाव में वेदनाका प्रतीकार करने वाले आहार, पानो, औषधि आदि सिद्धों को कुछ प्रयोजन नहीं रहा है ।।२२११।। तोन लोकमें जो सुख संपन्न जीव हैं उन सबको जितना सुख होता है उन सबके सुखोंसे अनंतगुणा शाश्वत सुख सिद्धों होता है ।। २२१२ ।। I वे सिद्ध अंतिम शरीर के संस्थान के सदृश आकार वाले होते हैं अर्थात् जिस शरीरसे मुक्ति प्राप्त की है उस आकार एवं अवगाहनामें सिद्धोंके आत्मप्रदेश स्थित रहते हैं, उक्त आकारसे कभी विचलित नहीं होनेसे स्थिर हैं । संसारके संपूर्ण सुख और दुःखों से निर्मुक्त हैं वे भविष्यत् अनंतकाल तक सदा इसीतरह रहते हैं ।।२२१३ । सिद्धोंके इन्द्रिय, आयु आदि देशों प्राण नहीं होते हैं तथा तीनों योगों का अभाव होने से उनके हलन चलन - स्पंदन नहीं होता है ।। २२१४ || कर्मोंका अभाव हो जाने से वे पुनः Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ ] मरणकण्डिका न फर्माभावतो भूयो विद्यते विग्रहहः । शरीरं श्रयते जीवः कर्मणा कलुषीकृतः ॥२२१५॥ अधर्मवशतः सिद्धास्तत्र तिष्ठन्ति निश्चलाः । सर्वदाप्यपकर्तासी जीय पुद्गलयोः स्थितेः ॥२२१६॥ लोकमूर्धनि तिष्ठन्ति कालत्रितयतिनं । जानाना वीक्षमाणास्ते द्रव्यपर्यायविस्तरम् ।।२२१७॥ युगपत्केवलालोको लोकं भासयतेऽखिलम् । घनावरणनिमुक्तः स्वगोचरमिवाशुमान् ॥२२१८।। रागद्वेषमद क्रोधलोभमोहविजिताः । ते नमस्यास्त्रिलोकस्य धुन्वते कल्मषं स्मृताः ॥२२१६॥ जन्ममृत्युजरारोगशोकातकाविध्याधयः । विध्याताः सकलास्तेषां निर्वाणशरवारिभिः ।।२२२०॥ शरीर को ग्रहण नहीं करते हैं क्योंकि जीव कमसे कलुषित होकर शरीरका आश्रय लेता है। बिना कमके शरीर ग्रहण भी नहीं होता ॥२२१५।। सिद्धालय में सिद्ध भगवन्त अधर्म द्रव्य के निमित्तसे सदा निश्चल रूपसे ठहर जाते हैं (वहांसे कभो चलायमान नहीं होते) क्योंकि जोव और पुद्गलोंको स्थितिका उपकारक सदा अधमंद्रव्य माना गया है ।।२२१६।। तीनों कालोंमें होनेवाले द्रव्योंकी पर्यायोंके विस्तारको जानते और देखते हर वे सिद्ध परमात्मा सदा लोकके मस्तकपर अवस्थित रहते हैं ।।२२१७।। केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप प्रकाश ऐसा है कि वह युगपत् समस्त लोकको प्रकाशित करता है, जैसे मेघके आवरणसे रहित हुआ सूर्य अपने विषयभूत जगतको प्रकाशित करता है ।।२२१८।। वे सिद्ध प्रभु राग, द्वेष, मद, क्रोध, लोभ और मोहसे रहित हैं, तीनलोकके द्वारा नमस्कार करने योग्य हैं एवं जीवों के द्वारा स्मृत होने पर उनके पापको नष्ट करने वाले हैं । अर्थात् जो जो भव्यात्मा सिद्धोंका स्मरण करते हैं, उनके पापोंका क्षय हो जाया करता है ।।२२१९।। उन सिद्धोंके जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक, पीड़ा आदि सर्व व्याधि निर्वाण रूप जलधारा शांत हो चुकी है ।।२२२०॥ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितांडित मरणाधिकार [ ६४५ शारीरं मानसं सौख्यं विद्यते यज्जगत्त्रये ।। तद्योगाभावतस्तेषां न मनागपि जायते ॥२२२१।। जानतां पश्यतां तेषां विबाधारहितात्मनाम् । सुखं वर्णयितुं केन शक्यते हतकर्मणाम् ॥२२२२॥ भोगिनो मानवा देवा यत्सुखं भुजतेऽखिलम् । तन्नेषामात्मनीनस्य सुखस्यांशोऽपि विद्यते ॥२२२३।। रूपगंधरसस्पर्शशब्दयंत्सेवितः सुखम् । तवैतदोयसौख्यस्य नानंतांशोऽपि जायते ॥२२२४॥ कालत्रितयभावोनि यानि सौख्यानि विष्टपे । सिद्ध कक्षणसौख्यस्य तानि यांति न तुल्यताम् ।।२२२५॥ रागहेत पराधीनं सवं वैषयिकं सुखम् । स्वाधीनेन विरागेरा सिखसौख्येन नो समम् ।।२२२६।। तीन लोक में शरीर और मन संबंधी जो भी सुख है वह सिद्धों के शरीर और मनके अभाव हो जाने से किंचित् नहीं होता । किन्तु स्वाभाविक अनंत शाश्वत् सुख होता है ॥२२२१|| संसारके संपूर्ण बाधाओंसे रहित, सर्व लोकालोक को जानने देखने वाले और कर्मों का जिन्होंने नाश किया है ऐसे सिद्धोंके सुखका वर्णन कौन कर सकता है? कोई भी नहीं कर सकता ॥२२२२।। भोग भमिज जोव, मनुष्य एवं देव जो अखिल इन्द्रियज सुखको भोगते हैं यह इन सिद्धोंके स्वाधीन सुखका अंश मात्र भी नहीं है ।।२२२३।। रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्दों का इन्द्रियों द्वारा सेवन करमेपर जो सुख होता है वह इन सिद्धोंके सुखका अनंतवा भाग भी नहीं है ।।२२२४।। तीनों कालोंमें होनेवाले जो भी सुख इस जगसमें हैं वे सुख सिद्धोंके एक क्षणके सुखके बराबर भी नहीं हैं । अर्थात् सिद्ध के एक क्षणके सुखके साथ अनंतकालसे जो भोग हैं एवं भोगगे, उन सुखोंकी तुलना नहीं हो सकती। क्योंकि संसारस्थ जीवोंका सुख रागद षका कारण है, पराधीन है, पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न होनेवाला है वह स्वाधीन एवं विराग संपन्न सिद्ध प्रभुके सुखके साथ समानताको प्राप्त नहीं हो सकता ।।२२२५।।२२२६।। सिद्धोंका सुख अक्षय, निर्मल, स्वस्थ, जन्ममरण Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ ] मरणकण्डिका अक्षयं निर्मलं स्वस्थं जन्ममृत्युजरातिगं । सिद्धानां स्थावरं सौख्यमात्मनीनं जनाधितम् ।।२२२७॥ काष्टविनाशन ये गुणाष्टकवेष्टिताः । संतिष्ठन्ते स्थिरीभूताः भवनत्रयविताः ॥२२२८।। संसारार्णवमुत्तीर्णा दुःखनक्रकुलाकुलं । ये सिद्धिसोधमापन्नास्ते सन्तु मम सिद्धये ॥२२२६॥ __छंद-द्रुतदिलंबितभवति पंउितपंडितमृत्युना सपबिसिद्धिचथर्वशतिनी । विमलसौख्यविधानपटीयसी सुभगतव गुणेन निरेनसा ॥२२३०।। जरासे रहित शाश्वत अपनी प्रात्मासे ही समूत्पन्न एवं सर्व संसारी जोवों द्वारा अचित है ॥२२२७।। वे सिद्ध परमेष्ठी आठ कर्मोंके नाश हो जाने से पाठ गुणोंसे युक्त होते हैं, संपूर्ण लोकाकाश प्रमाण आत्माके प्रदेश सर्वथा अचल स्थिर होनेसे स्थिरीभूत हैं और तीन लोकके जीवीं द्वारा सदा वंदित हैं ।।२२२८।। विशेषार्थ-सिद्धोंके आठों कमौका नाश हो चूकता है अतः उन कोंके अभावमे भाठ आत्मिक गुण प्रगट होते हैं । किस कर्मके अभावसे कौनसा गुण प्रगट होता है । सो दिखाते हैं-ज्ञानावरण कर्मके नाशसे केवलज्ञान अनंतजान या ज्ञानगुण प्रगट होता है । दर्शनावरण कर्मके विलयसे केवलदर्शन या दर्शनगुण प्राप्त होता है । वेदनीयके अभावसे अव्याबाध गुण, मोहनीयकर्मके प्रलयसे सम्यक्त्व गुण, आयुके नष्ट होनेसे अवगाहनत्व गुण, नामकर्म विलीन हो जानेसे सूक्ष्मत्वगुण, गोत्रकर्मके अभावसे अगुरुलघु गुण और अंतराय कर्म के नाश हो जानेसे वीर्य अनंतवीर्य प्रगट होता है। ___ अनेक प्रकारके मानसिक शारीरिक आदि दुःख रूपी मगरमच्छोंके समूहसे व्याप्त ऐसे संसाररूपी सागरको जो पार कर चुके हैं और सिद्धिरूप प्रासादको प्राप्त हुए हैं वे सिद्ध भगवंत मेरे सिद्धिके लिये होवे-मुझे सिद्धि प्रदान करें ।।२२२६।। इसप्रकार सिद्ध परमेष्ठियों का वर्णन पूर्ण हुआ । Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंडितपंडित मरणाधिकार [ ६४७ छंद-उपजाति प्राराधना जन्मवतश्चतुर्धा निषेव्यमाणा प्रथमे प्रकृष्टा । भवं तृतीये विद्यातिमध्यासिद्धि जघन्या खलु सप्तमे सा ।। २२३१|| छंद-उपजाति श्राराधनंषा कथिता समासतो ददातु सिद्धि मम मंबमेधसः । अबुध्यमान रखिलं जिनागमं न शक्यते विस्तरतो हि भाषितुं ।। २२३२ ॥ पंडित पंडित मरण वर्णनका उपसंहार इसश्रेष्ठ पंडित पंडित मरण द्वारा विमल सोख्यको उत्पन्न करने में चतुर ऐसो सिद्धि रूपी वधू वश होती है अर्थात् सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है, जैसे निर्दोष गुण द्वारा सुभगता - सर्वजनप्रियता प्राप्त होती है ।।२२३०॥ पंडित पंडित मरणका वर्णन समाप्त | आराधना फल -- जो भव्य जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्लप रूप चार आराधनाओंका उत्कृष्ट रूपसे सेवन करते हैं वे उसी भवसे मुक्त होते हैं और जो मध्यम रूपसे उक्त प्राराधनाओं का सेवन करते हैं वे तृतीय भवमें तथा जघन्य रूप से श्राराधनाओं का सेवन करनेवाले सातवें भव में मुक्त होते हैं ||२२३१ ॥ अब ग्रंथकार अमितगति आचार्य आराधनाओंका कथन करनेवाले इस ग्रंथ को पूर्ण करते हुए ग्रंथ रचना फलकी याचना करते हैं मेरे द्वारा यह आराधना संक्षेपसे कहो गयी है यह मंद बुद्धिवाले मेरे लिये सिद्धिको - मोक्षको प्रदान करें। जो संपूर्ण जिनागमको जाननेवाले हैं ऐसे महान् आचार्यो के द्वारा भी इन आराधनाओंका विस्तारसे वर्णन नहीं किया जा सकता अर्थात् जो संपूर्ण शास्त्रोंके पारगामी हैं वे भी आराधनाओंका सविस्तार वर्णन नहीं कर सकते तो मुझ जैसे मंद बुद्धिवाले कैसे कर सकते हैं ? नहीं कर सकते । अतः मैंने इन चार आराधनाओंका से वर्णन किया है ।।२२३२ ॥ आगे ग्रन्थकार अपनी लघुता प्रगट करते हैं Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण कण्डिका छंद-उपजातिविशोध्यसिद्धांतधिरोधिबद्ध ग्राह्या श्रुतज्ञः शिवकारिणीयम् । पलालमत्यस्य न कि पवित्रं गहातिसस्य जनतोपकारि ॥२२३३॥ छंद--वसंततिलकापाराधनाभगवती कथिता स्वशक्त्या चितामणिवितरितु बुधचिंतितानि । अह्नाय जन्मजलधि तरितु तरण्डं भव्यात्मनां गुणवती वदतां समाधि ॥२२३४॥ छंद-पृथ्वीकरोति वशवर्तिनी स्त्रिदशपूजिताः संपदो। निवेशयति शाश्वते यतिमसे पदे पायने । अनेकभवसंचितं हरति कल्मषं जन्मिनाम् । विदग्धमुखमंडनी सपदि सेविताराधना ॥२२३५॥ ॥ मरणकण्डिका समाप्तं ॥ इस आराधना ग्रन्थमें मैंने मंद बुद्धि के कारण कुछ सिद्धांत के विरुद्ध लिखा हो उसको श्रुतके ज्ञाता पुरुष शुद्ध करके फिर इस कल्याणकारिणी मुक्ति प्रदायिनी श्राराधना ग्रन्थको ग्रहण करें--पढ़ें पढ़ावें, सुने सुनावें। ठीक हो है ! जगतमें क्या जनता पलालका त्यागकर उपकारी पवित्र ऐसे धान्यको ग्रहण नहीं करती है ? करतो हो है । अर्थात् जैसे घास तृण पलाल फुसको छोड़कर उपयोगो उपकारी श्रेष्ठ गेहं चावल आदि धान्यको हो लोग ग्रहण करते हैं वैसे इस ग्रंथमें अक्षर वाक्य अर्थ आदि सिद्धांत विरुद्ध हो उन्हें छोड़ कर अर्थात् उनका संशोधन करके परमार्थ भूत शब्दार्थको ग्रहण करना चाहिये ।।२२३३।। ___ इस भगवती आराधनाको मैंने अपनो शक्ति के अनुसार कहा है, यह आराधना बुधजन-मुनिजनोंको चितित वस्तु-मोक्षको देने के लिये चितामणि सदृश है। जन्मरूपी सागरको शीघ्र पार करने के लिये नौका सदृश है । यह गुणवतो आराधना भव्य जीवोंके लिये समाधिको प्रदान करें ।। २२३४।। आराधना विद्वदजनोंके मुखके अलंकार स्वरूप है, भव्यजीवों द्वारा सेवित को गयी यह आराधना देवोंके द्वारा पूजित ऐसो मुक्तिको संपदाको वशमें करती है, शाश्वत पवित्र जनमत में प्रवेश करातो है और जीवोंक अनेक भवों में संचित किये हुए पापोंका नाश करती है ।।२२३५।। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उपसंहार : इसप्रकार यह मरणकंडिका ग्रंथ पूर्ण हुआ। भाचार्य अमितगति विरचित संस्कृत पद्यमय स्वरूप इस ग्रंथका हिन्दी भाषानुवाद मैंने अढ़ाई मास में पूर्ण किया है। इसमें सिद्धांत कि नाग हुगा हो इसे बुद्धिमान जन संशोधन करके पढ़ें। __ मानव जीवनका सार सल्लेखना पूर्वक मरण करना है, इस विषयका वर्णन करने वाले इस ग्रन्थ का सभी मुमुक्षुजन साधु श्रावक वर्ग अध्ययन करें। मुमुक्षु भव्य जीवोंके आराधना संबंधी अज्ञान अंधकारको दूर करता हुआ यह भाषानुवाद चिरकाल तक भूमंडलपर प्रसिद्ध होवे । ।। मरणकंडिका समाप्त ।। ॐ शान्तिः भद्रभूयात् Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पाराधनास्तवनम् । छंद-स्रग्धरापंध: स्वपिवगंप्रभवसुखफलप्रापणे कर्मवल्ली । नामाबापाविधायिप्रचितकलिमलक्षालने जह्न कन्या ।। रागषाविभाविष्यसनधनवनच्छेदने छेवनी या । सारामाराधनासौ वितरतु तरसा शाश्वती वो विभूतिम् ।।१।। स्रग्धरा यामासाधावन त्रिदशपतिशिरोघष्टपादारविन्दाः । सधः कुवावदातस्थिरपरमयशः शोधिताशेषदिक्काः ।। जायंते जंतवोऽमी जनजनितमुवः केवलज्ञानभाजो । भूयावाराधना सा भवभयमयनी भूयसे श्रेयसे यः ।।२।। यह आराधना स्वर्ग और मोक्ष में उत्पन्न हुए सुखरूप फलको प्राप्त कराने में बंधके समान है । नाना प्रकार की बाधाओंको उत्पन्न करनेवाले पापरूप कीचड़ को धोने के लिये गंगा नदी के समान है । रागद्वेषादिसे उत्पन्न हुए कष्ट और संकटरूप सघन वन को काटने के लिये कुल्हाड़ी सदृश है ऐसी यह रम्य आराधना आप लोगोंको शीघ्र ही शाश्वत विभूतिको देवे ।। १।। जिस आराधनाको प्राप्त करके-धारण करके ये संसारी भव्य जीव नम्र हुए देवोंके मस्तक द्वारा स्पशित है चरण कमल जिनके ऐसे हो जाते हैं अर्थात् देवों द्वारा बंध होते हैं तथा कुद पुष्पके समान उज्ज्वल तथा स्थिर ऐसे परम यश द्वारा शुद्ध किया है समस्त दिशानोंको जिन्होंने ऐसे होते हैं अर्थात् उनका यश सर्वत्र फैलता है । लोगोंको आनंद उत्पन्न करनेवाले एवं केवलज्ञानको प्राप्त करने वाले होते हैं, ऐसो संसारके भयका नाश करने वाली यह आराधना तुम लोगोंके विशाल कल्याणके लिये होवे ।।२।। Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राराधनास्तवनम् स्रग्धरा यामाराध्याशु गंता शकलितविपदः पंचकल्याणलक्ष्मीम् । प्राप्यां पुण्यपापां त्रिभुवनपतिभिनिर्मितां भक्तिमद्भिः ॥ सम्यक्त्वज्ञामष्टिप्रमुखगुणमणिभ्राजितां यान्ति मुक्ति । सा वंद्या हृद्यविधिलसतु हृदये सर्वदाराधना वः ॥३॥ स्रग्धरा या सौभाग्यं विधत्ते भवति भवभिदे भक्तितः सेव्यमाना । या छिन्ते मोहस्यं भुवनभवभृतां साध्वसं ध्वंसयंती ॥ यां चानासाद्य देही भ्रमति भववने सूरिभावाद्विरौद्र । सा भद्वाराधना वो भक्त भगवती वंभवोद्भावनाय ॥४॥ छंद - स्रग्धरा- या कामको लोभप्रभृतिबहुविधग्रहनक्रावकीर्णा । संसारापार सिंधोर्भवमरणजरार्तगर्तादुपेत्य " इत्युत्तीर्य सिद्धि सपदि भवभूतः शाश्वतानंतसोध्यम् । भन्यंराराधनानो' जगणकलिता नित्यमारुह्यतां सा ॥५॥ [ ६५१ जिसकी आराधना करके विपत्तिका प्रलयकर भव्य जोव पंच कल्याणक रूप लक्ष्मी को शीघ्र ही प्राप्त कर चुके हैं, भक्तिमान पुण्यशाली ऐसे तीन लोकके अधिपतिदेवेन्द्र नरेन्द्र द्वारा जो प्राप्त करने योग्य है, निर्दोष है, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन आदि प्रमुख गुणरूप मणियोंसे अलंकृत है ऐसी मुक्तिको भव्य जीव जिसके प्रसादसे प्राप्त करते हैं श्रेष्ठ विद्याओंसे युक्त जीवों द्वारा जो वंदनीय है वह आराधना आप लोगों के हृदय में सदा शोभायमान होवे ||३|| जो सौभाग्यको करती है, भक्तिसे सेवित करनेपर संसार का छेद करती है, मोहरूप दैत्यको छेदती है, संसारके जीवोंके भयको नष्ट करती है जिसको प्राप्त नहीं करनेसे आजतक यह जीव विकार भावरूप भयानक पर्वत वाले संसार रूप वन में घूमता रहा है, ऐसी यह महा कल्याणकारी भगवती आराधना आपके वंभवोंके उत्पन्न करने के लिये होवे ||४| काम, क्रोध, लोभ प्रभृति बहुत प्रकार के ग्राह, नक्ररूप क्रूर जलचर जंतुओंसे जो व्याप्त है ऐसा संसार रूप अपार सागर है उस संसार सागरमें होनेवाला जन्मजरा Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ ] मरकण्डिका स्रग्धरा युनक्ति ॥ या मैत्रख्यातिकांतिद्युतिमतिसुगतिश्रोविनीत्यादिकांताम् । संयोज्योपार्जनीयामवहितमतिभिर्मुक्तिकांत मुक्ताहाराभिरामा मम मदशमनी सम्यगाराधनाली । भूयान्नेदीयसी सा विमलितमनसां साधयन्तीप्सितानि ||६|| स्रग्धरा स्वांतस्था या कुरापा नियमितकरणा सृष्ट सर्वोपकारा । माता सर्वाश्रमाणां भवमथनपराइनंगसंगापहारा || सत्या चितापहारी बुधहितजननी ध्वस्तदोषाकरश्रीः । बच्चादाराधना मा सकलगुणवती नीरजा वः सुखानि ||७|| स्रग्धरा उद्यदुःखागदुर्गं गुरुदुरितदवं दग्धुमतीयमाना । . तु मोहान्धकारं कलितनिखिला तिग्मरश्मीयमाना ।। मरणरूप आवर्तका—भंवरका गर्त है उस गर्तमें गिरे हुए जीवोंको निकालकर उस सागर से पार कराके शीघ्र ही शाश्वत आनंद और सुखरूप सिद्धिको प्राप्त कराती है, ऐसी यह श्राराधना रूप नौका जो गुण समुदायसे युक्त है ऐसी नौकापर भव्यजीव नित्य आरोहण करे – आराधनाको धारण करे ||५|| आराधनाकी सेवा करने से सेवकों को मैत्री, ख्याति, कांति, शोभा, बुद्धि, सुगति, संपत्ति, नम्रता आदि रूप स्त्रियों के साथ समागम कराती है और अंत में अवश्य प्राप्त करने योग्य ऐसी मुक्ति रूप स्त्रीको भी देती है यह आराधना मोतियोंकी माला के सदृश सुन्दर है मेरे मदको शांत करनेवाली है, निर्मल मनवाले पुरुषोंके इच्छित पदार्थका साधन करती हुई यह आराधना रूप सखी सदा मेरे निकट रहे || ६ || अत्यन्त दुर्लभ ऐसो यह आराधना मनमें स्थित होनेपर इन्द्रियों को नियंत्रित करती है, संपूर्ण उपकारको करती है, यह समस्त ब्रह्मचर्य आदि आश्रमोंकी माता है, भवका मथन करने वाली है काम और परिग्रहको हटाने वाली, सत्यस्वरूपा, संतापकी अपहर्त्री, बुधजनके हितको उत्पन्न करने वाली, दोषोंके समूहकी विध्वंसिनी सकल गुणोंसे युक्त और पाप रहित ऐसी यह आराधना आपके लिये सुखोंको देवे ||७|| जो अति उत्तुंग दुःखरूपी पर्वतों से घिरा है ऐसे पापरूपो बड़े वनको भस्म करनेके लिये आराधना अग्नि सदृश हैं । मोहान्धकारको नष्ट करने के लिये सूर्यतुल्य है, Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५३ आराधनास्तवनम् निःशेष वस्तु धातु भवभूतभिमतं कामधेनूयमाना। निर्बाधा या विधत्ताममितगतिसुखं शीघ्रमाराधना वः ॥८॥ श्वभ्रभूमिज्वलह्नि र्याऽविच्छिन्नजलोद्गतिः । अद्य नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ॥६॥ येषा कुद्दालिका शाता तिर्यग्दुःखांकुरोद्धता । अद्य नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ।।१०।। मचितितलाभाय येषा कल्पद्रमायते । अद्य नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ।।११।। दुतिका हुतये येयं महद्धिकसुरश्रियः । अद्य नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ॥१२॥ मुक्तिदाने क्षमा यास्ति विरतिर्भवसंततेः । अध नः शरणं सास्तु रत्नत्रयविशुद्धिता ॥१३।। एषव परमो धर्म एषैव परमं तपः । एषाहदचो वाच्यमेव ध्यानसंगतिः ।।१४।। . - वांछित पदार्थको देने में कामधेनु समान है, ऐसी यह पारावना निर्बाध अमित ज्ञान जिसमें गर्भित है ऐसा सुख तुम लोगोंको प्रदान करे ।।८।। नरक भूमिमें प्रज्वलित अग्निको शांत करने के लिये आराधना अविच्छिन्न मेघके समान है ऐसी रत्नत्रयमे निर्मल रूप आराधना हमको शरण हो ।।९।। तियंग्गतिके दुःखरूपी अंकुरोंको उखाड़ने के लिये कुदाली सदृश यह आराधना हमारे लिये शरणभूत होवे ।।१०।। मनुष्योंको चितित पदार्थ देने के लिये कल्पवृक्ष तुल्य मानी गयो ऐसी यह रत्नत्रयसे शुद्ध आराधना हमारी रक्षा करे ।।११।। महा ऋद्धिशाली देवोंको लक्ष्मीको बुलाने के लिये जो दुतीके समान है ऐसी यह रत्नत्रयसे निर्मल बनी हुई आराधना हमारी रक्षा करे ॥१२॥ जो मक्ति प्रदान करने में समर्थ है, भवपरंपराका नाशक ऐसी यह रत्नत्रयसे विशुद्ध आराधना हमको आज शरणभूत होवे ।।१३।। यह आराधना ही उत्कृष्ट धर्म है, उत्कृष्ट तप है, जिनेश्वरने दिव्य ध्वनि द्वारा इसीका कथन किया है, यही ध्यान प्राप्तिमें कारण है ।।१४।। आराधनाको प्राप्ति होना हो संसार में सर्वोत्कृष्ट लाभ माना जाता है, यही Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ ] मरणकण्डिका एषेव परमो लाभ एव परमं मतम् । एषेव परमं तस्वमेव परमा गतिः ॥१५॥ एतस्या दुर्लभं वहि त्रिलोके कतमत्सुखम् । प्रतः शरणमेषका भवताम्मे भवे भवे ॥१६॥ छंद-शार्दूलया सर्वज्ञहिमाचलावपसता शीलप्रवाहास्मिका। यासद्धिसमषितर्गणधरै राराधिता निर्मला । या दुरभवासुलाहतनणां निर्धापणी स्यधुनी । सा यः पापविशोधनाय शुभवा भूयात्सदाराधना ॥१७॥ छंद-शार्दूलया सझानसमृद्धिनालकलिता सम्यक्त्वसत्कणिका । या चारित्रपलाशसंचर्याचता द्वघा तपोभासुरा ।। या भस्योत्तमषट्पदैः परिवृता नैःसंग्यपद्माकुला। सा बोऽस्यावतापमुज्ज्वलगुणराराधना पधिनी ।।१८।। उत्तम मत, उत्तम तत्त्व है और यही परमगति है ।।१५।। जिस व्यक्तिको इस आराधना को प्राप्ति हुई है उसको कौनसा सुख दुर्लभ है ? अत: मुझे यह भवभवमें शरणभूत होवे ॥१६॥ सर्वज्ञरूपी हिमाचलसे इस आराधनारूपी गंगाकी उत्पत्ति हुई है, यह शीलरूप जलप्रवाहसे युक्त है ऋद्धि संपन्न गणधर द्वारा मान्य है, निर्मल है, दुर्वार संसारके दुःखसे पीड़ित पुरुषको आनंदकारक ऐसो यह आराधना गंगा पाप लोगों के पापरूप मलको शुद्धिके लिये होवे तथा सदा पुण्यदायक होवे ।।१७।। सम्यग्ज्ञानकी वृद्धि होना ही जिसका नालदण्ड है, सम्यक्त्वरूपी कणिकासे युक्त तेरह प्रकारके चारित्ररूप पत्र समूहवाली, दो प्रकार के तपसे प्रफुल्लित भव्य जीवरूप भ्रमरोंसे वेष्टित, निष्परिग्रहता रूप कमलोंसे व्याप्त ऐसी यह आराधनारूपी पद्मिनी उज्ज्वल गुणों द्वारा आराधना करनेवाले तुम लोगोंका भवसंताप दूर करे ।।१८।। यह आराधना रूप गंगानदी, समस्त प्रास्रवोंको रोकती है, शरीर में उत्पन्न हुए रागादिमलको दूरकर गुणवान भव्यजीवोंको इष्ट सुन्दर ऐसा सिद्धि पद देती है, सल्लेखनाके धारक पुरुषोंको देवों द्वारा वंदनीय Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधनास्तवनम् ईद-शार्दूलया सर्वानवरोधिनी कलिमलं दूरं निरस्यांगजम् । संद्ध चारुपवं नयेवगुणवतो भव्यात्मनो वांछितम् ॥ चक्रेशाविसुखं सुरैरभिनुतं संयोज्य संन्यस्यतां । सा वः स्यान्मुनिहंससेवितरसा देवापगाराधना ॥१९॥ शार्दूलया शोलोज्ज्वलपुष्पगंधसुभगा सदध्यानसत्पल्लवा । भास्पदशनसंभवा वरतपः पत्रोच्चयेनांचिता॥ सम्यग्वृत्तालसन्महाफलवती भव्यालिझंकारिता । सा वो मानसमूतले प्रसरतादाराधनावल्लरी ॥२०॥ . शार्दूलया श्रीमच्छ तशीलनीरकलिता निर्वाणदानक्षमा । याऽपुण्यांबुधितारिणी शुचितया रंगत्तरंगाकुला ।। या निर्धू य कलेवराणि महतः संस्थापयेत्सत्सुखे । सा वो मंगलमातनोतु नितरामाराधनास्वधुंनो ॥२१॥ - . -- -- - - ऐसा पद देती है, चक्रवर्ती आदिका सुख देती है, मुनिजन रूप हंसों द्वारा सेवित ऐसी यह आराधना गंगा आपको प्राप्त होवे ।।१९।। यह आराधना रूपी लता शीलरूप उज्ज्वल सफेद सुगन्धित पुष्पोंसे मनोहर है, धर्म्यध्यान शुक्लध्यानरूप पल्लवोंसे युक्त, सम्यग्दर्शन रूप बीजसे उत्पन्न उत्कृष्ट तपरूपी पत्रसमूहसे भरी, सम्यक् चारित्ररूप महाफलबाली, भव्यरूपी भ्रमरोंके झंकारसे व्याप्त ऐसी यह आराधनावेल आपके मानस भूमिपर फैले ।।२०।। यह आराधना गंगा श्रुतज्ञान और हीलरूप पानी से भरी है, मोक्ष देने में समर्थ है, पुण्य समुद्रको प्राप्त होतो है, पवित्र है, ध्यानरूप तरंगोंसे व्याप्त है, सत्पुरुषों के शरीरोंको नष्ट करके उनको मोक्षसुख में स्थापित करती है ऐसी आराधना गंगा तुम्हारा मंगल करे ॥२१॥ यह आराधना रूप अंबिकादेवी मोहासुरका पराजय करके विजयी हुई है, इसकी भक्ति करनेवाले पुरुषोंको सर्व इष्ट पदार्थोकी प्राप्ति होती Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ ] मरण कण्डिका शार्दूल या मोहासुरसंगलठधविजया सर्वार्थसंपादनी । शूराणामसमाधिनाशनथिया कार्तित्रयाणांसताम् ।। या दुर्वारमहोपसर्गमथनी सिद्धिप्रियाणां सती । सावः पातु भावों प्रतिगतानाराधनाभ्यंबिका ॥२२॥ आर्दूल न - या शुद्वष्टकचारुमौक्तिकफलं मध्यस्थादिङ नायकः । भास्वद्बोध विचित्रसूत्र रचितेश्चारित्रसल्लक्षणः ॥ श्रीमद्गुप्तिसमुज्ज्वलं विरचिता दोषोप्ररोगापहा । सा यस्तिष्ठतु वक्षसीह सुतरामाराधनाकंठिका ॥२३॥ बाल या निःशेषपरिग्रहेभदलने दुर्वारसिंहायते । या कुज्ञानत मोघटा विघटने चंडांशुरोचीयते ॥ या चितामणिरेव चितिलफलैः संयोजयंतीजनान् । सा वः श्री वसुनवियोगिमहिता पायात्सदाराधना ||२४|| हैं, यह देवो परीषद् सहिष्णु शूरमुनियोंका दुःख दूरकर समाधिकी प्राप्ति करा देती है, सिद्धिप्रिय मुनिजनोंके दुर्वार महोपसर्गका नाश करनेवाली है, ऐसी यह आराधना अंबिका संसार बनमें भटके हुए आप लोगोंकी रक्षा करे ||२२|| यह आराधना कंठके मुक्ताहार के समान है इसमें षोडश कारण भावना रूप मोतो पिरोये गये हैं मध्य में दशलक्षण धर्मरूप रत्नोंकी रचना है और सम्यग्ज्ञानरूप धागे में यह हार रचा गया है चारित्र और गुप्ति रूप विशिष्ट मोती भी जिसमें है जो दोषरूपी उग्र रोग ज्वर आदि का नाश करती है ऐसी यह आराधना कंठिका आपके वक्षस्थल पर शोभायमान होवे ||२३|| यह आराधना सर्व परिग्रह रूपी हाथियोंका घात करनेको सिंहके समान है, अज्ञान अंधकार को नष्ट करनेको सूर्य किरणके सदृश है, चिंतित फलोंको देनेके लिये चितामणि तुल्य है ऐसो यह वसुनंदी प्राचार्य द्वारा पूजित आराधना आपकी सदा रक्षा करे ।। २४|| Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आराधनास्तवनम् ( ६५७ शार्दूलया संसारमहोदधेः प्रतरणी नौरेव भव्यात्मनाम् । या दुःखज्वलनावलीडवपुषां निर्धापणी स्वधुंनो । या चितामणिरेव चितितफलः संयोजयन्ती जनान् । सा निःश्रेयसहेतुरस्तु भवतामाराधना देवता ॥२५॥ शार्दूलपा पुण्यास्रवमूतिरेकपदवी स्वर्गालयारोहिणाम् । या मार्गत्रयवतिनीति विदिता निर्धूतनानारजाः ।। यस्याः सद्गुरुपर्वतः प्रभव इत्याहु पुरादिनः । सा वः पापनलानि गालयतु खल्वाराधनास्वधुनी ॥२६॥ शार्दूलया सर्वहिमाचलात्प्रगलिता पुण्यांबुपूर्णा शुचिः । या सज्ज्ञानचरित्रलोचनधरमा गणोन्द्र धुता ।। या कर्मानलघर्मपीडितमुनीन्द्र भावगाहक्षमा । सा वो मंगलमातनोतु भगवत्याराधनास्वधु नी ॥२७॥ - भव्य जीवोंको संसार सागर तिरने के लिये आराधना नौका सदृश है, दुःखरूप अग्निसे जले हुए जीवोंको शांतिसुख देनेवाली स्वर्गगगाके समान है और मनोवांछित फलोंसे लोगोंको संयुक्त करती है ऐसी आराधना देवता आपको मोक्ष देने में हेतु बने ॥२५।। पुण्यास्रव की मानो मूर्ति हो ऐसी यह आराधना गंगा स्वर्गारोहण करनेवालों को मार्गस्वरूप होबे, रत्नत्रय स्वरूप होनेसे लोग इस ओराधनाको विमार्गणा कहते हैं, इसकी सेवासे नाना प्रकारके पातक नष्ट होते हैं, सद्गुरु रूप पर्वतसे यह प्रगट हुई है ऐसा प्राचीन आचार्य कहते हैं । ऐसी आराधना गंगा तुम्हारे पापमलोंको गाले ।।२६।। यह आराधना गंगा सर्वज्ञरूप हिमालयसे उत्पन्न हुई है, पुण्यरूप जलसे भरी है, निर्मल है, सम्यग्ज्ञान और चारित्र रूप नेत्रों को धारण करनेवाले गणधरोंने जिसको मस्तक पर धारण किया है, कर्मरूप अग्निसे संतप्त हुए मुनिजन रूप हाथी जिसमें अबगाहन करते हैं ऐसी आराधना स्वर्गगंगा तुम्हारा मंगल करे ।।२७।। यह आराधना नदो पुण्य - Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ ] मरण कण्डिका शार्दूलया पुण्यांबुधिपूरणी कलिमलप्रक्षालनकोद्यमा । या निधय कलेवराणि विमलीकतुं क्षमाराधकान ।। या मासाद्य मनीभयूयपतयो निन्त्यिपंकात्मिकाम् । सा वोऽन्तर्मलदाहमा निहतादादाभनइधर्भुनी ! २८!! शार्दूलया संसारमहाविषापहरणे सन्मंत्रविद्यायते । या कर्मावृतताटचीप्रबहने दावानलोयते ।। या दुर्मोहतमोघटाविघटने चंडाशुरोचीयते । साव: पापमलानि हंत रुचिरा रत्नत्रयाराधना ॥२६॥ __शार्दूलधर्माराममहातरोः फलवती या पुण्य सन्मंजरी । मुक्तिश्रीललनाभिसारणपटुमष्टाक्षरा शंफली ॥ स्वर्गाग्रप्रविभासिसौशिखरारोहकनिः श्रेणिका । सा व: पातु पवित्रमूतिरमला रत्नत्रयाराधना ॥३०॥ समुद्रको पूरित करती है, पापमैलको धोने में समर्थ है, आराधक मुनियोंके शरीरोंको नष्ट करके निर्मल बनाने में यह सक्षम है, ऐसी आराधना नदी अन्तःस्थित कर्ममलदाहको नष्ट करे ॥२८॥ जो संसाररूपो तोब विषका हरण करने में उत्तम विद्याके समान है, कर्मरूपी वल्लीका वन जलाने में दावाग्निके समान है, मिथ्या मोहान्धकारको नष्ट करने में सूर्यकिरण सदृश है ऐसो यह मनोहर आराधना तुम्हारे पाप मलोंका नाश करे १।२६।। यह आराधना धर्मरूपो बगीचेके बड़े वृक्षको फलयुक्त उत्तम मंजरी है, मुक्तिरूपी सदरोको अभिशरण करने के लिये प्रवृत्ति करनेवालो स्पष्ट मधुर वचन बोलनेवाली सखी-दासी है, स्वर्गके अग्रभागपर शोभनेवाले मोक्षरूप प्रासादके ऊपरी भागमें भारोहण करने में नसनीवत् है ऐसी पवित्र व निर्दोष रत्नत्रय आराधना तुम्हारी रक्षा करे ॥३०॥ वह आराधना सम्यग्दर्शन रूप कांति से सुदर है, संज्ञानरूप उज्ज्वल नेत्रवालो, सच्चारित्र रूप प्राभूषणसे युक्त है, पवित्र तप और शोल समुदायरूप माला वस्त्रोंसे संयुक्त मुक्ति Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राराधनास्तवनम् शार्दूल या सरष्टि रुचिप्रभास्वरतनुः संज्ञान नेत्रोज्ज्वला । सफचारित्रविभूषणा शुचितपः शीलौघमाल्यांबरा || सूक्तिश्रीवर कामिनीप्रियसखो पुष्पेषु विद्वेषिणी । सा घोरेरभिवविता मम हृदि स्तान्नित्यमाराधना २१३१ ॥ शार्दूल या शुद्धधष्टयुक्त वनवलं ज्ञानोल्लसत्कणिकम् । चारित्रोज्ज्वलदीर्घनालममलं शोलोल्लसत्केसरम् ॥ मुक्तिश्री ललनानिवासकमलं बत्ते गुणनिमितम् । सा मे हृत्सरसि स्फुटं विकलतादाराधना पद्मिनी ||३२|| ॥ इति प्राराधना स्तवनम् समाप्तम् । रूपी सुन्दर स्त्रीकी प्रियसखी है, मदनसे द्वेष करती है, बुधजनोंसे वंदित ऐसी यह आराधना मेरे हृदय में नित्य निवास करे ||३१|| आठ प्रकारकी शुद्धि के साथ रहनेवाला सम्यक्त्व हो जिसका दल है, ज्ञान जिसकी कणिका है, चरित्र रूप उज्ज्वल दण्ड - नाल है, निर्मल शील समुदाय हो केसर है, जो मुक्तिरूपी लक्ष्मीका निवास स्थल ऐसे कमलोंको धारण करनेवाली गुणोंसे समुत्पन्न यह आराधना रूपी कमलिनी मेरे हृदयरूप सरोवर में विकास युक्त रहे ||३२|| आराधना स्तवन समाप्त | ६५९ ** Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिग::::लया मन्दसौर, * एक्खत्तवण्णणं (१) तं जघा । अस्सिणीणखत्ते अदि संथारं गिम्हवि तो सादिणवखत्ते रस कालं करेदि ।। (२) भरणिणखत्ते जदि संथारं गेहवि तो रेवविणक्वत्त पञ्चूसे मदि । (३) कित्तिगणक्खत्ते जदि संथारं गेहवि उत्तरफागुणिणखत्ते माझव्हे मरवि ॥ (४) रोहिणीणक्खत्ते जदि संथारं गेहति तो सवणणखते प्रद्धरते मरवि । (५) मियसिरणक्वते जदि संथारं गेहवि तो पुवफागुणणवलो मरवि । (२) भणि -: नक्षत्र गुणों का वर्णन :(१) अश्विनी नक्षत्रके समय क्षपकने संस्तर ग्रहण किया तो स्वाति नक्षत्रके समय रातमें उसको समाधि मरण प्राप्त होगा। भरणि नक्षत्रके समय क्षपकने समाधिमरणके लिये संस्तरका आश्रय किया सो रेवती नक्षत्रके समय दिनके प्रारम्भमें उसको समाधिमरण प्राप्त होगा। (३) कृतिका नक्षत्रके समय यदि मुनि बिछोने पर शयन करेंगे तो उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र पर मध्याह्न काल में उसका मरण होगा। (४) रोहिणी नक्षत्र पर संस्तर ग्रहण करने वाले मुनियोंका श्रवण नक्षत्र में आधी. रात के समय मरण होगा। (५) मृगसिर नक्षत्र पर सल्लेखनाका आश्रय लेनेसे पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र पर मुनिका देहान्त होगा। Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवखत्तवण्णणं [ ६६१ (६) अहाणखत्ते जदि संथारं गेहदि तो उत्तरदिवसे मरदि । जदि ण भरवि तदा तह्मि पुरोगवे णखत्रो मरिस्सदि ।। (७) पुणवसुणक्खत्ते जदि संथारं गेहदि तदा अस्सणिरणक्खत्ते अबरण्हे मरवि ॥ (८) पुस्सएक्खत आदि संथारं गेहदि तो मियसिरणक्खत्ते मरवि ॥ (९) असलिसणक्खत्ते जवि संथारं गेहदि तो चिाणक्खते मरवि ।। (१०) मघणखत्ते जवि संपारं गेहदि तो तद्दिवसे मरवि जदि ए मरवितका तसि पुरोगदे णक्षते मरवि ॥ (११) युन्नफग्गुणिणखत जदि संथारं गिणदि तो घणिट्ठाणक्खत्ते विषसे मरदि ।। (१२) उत्तरफगुणिणखत्ते जदि संथारंगिण्यावि तो मुलणक्खत्ते पयोसे मरवि ।। (१३) हत्थणक्ख ते जदि संथारं गिहार तो भरणिणखत्ते विक्से मरदि ।। - - - ----..-. (६) आर्द्रा नक्षत्र में यदि संस्तर किया तो दूसरे दिन मरण होगा यदि न हुवा तो गेके नक्षत्र में उसकी मृत्यु होगी । अथवा पुनः वही आर्द्रा नक्षत्र माने पर मृत्यु होगी। (७) पुनर्वसु नक्षत्र पर बिछौना ग्रहण किया तो अश्विनि नक्षत्र पर अपराह्न काल में मरण होगा। (८) पुष्य नक्षत्र पर शय्या ग्रहण करने से मृगसिर नक्षत्र पर मरण होगा। आश्लेषा नक्षत्रके समय शय्या स्वीकार करनेसे चित्रा नक्षत्र पर मरण होगा। (१०) मघा नक्षत्रके समय शय्या स्वीकार करने से उसो दिन मरण होगा अथवा आगे उसी नक्षत्रके आनेपर मरण होगा । (११) पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में यदि सन्यास ग्रहण के लिये शय्याका आश्रय करे तो धनिष्ठा नक्षत्र के समय दिनमें मरण होगा । (१२) उत्तरा फाल्गुण नक्षत्रमें शय्या ग्रहण की तो मूल नक्षत्र पर सायंकाल में मरण होगा। (१३) हस्त नक्षत्र पर यदि सन्यास लिया तो भरणी नक्षत्र पर दिन में मरण होगा। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ६६२ ] मरणकण्डिका (१४) चित्ताणक्खत्ते जदि संथारं गिहदि तो मियसिरणक्खते प्रद्धरत्ते मरवि ॥ (१५) सादिणक्खत्ते जवि संथारं गिण्हवि तो रेवदिणक्खत्ते प भावे मरवि ॥ (१६) विसाहणक्खत्ते जवि संथारं गिण्हदि तो असिलेसाणक्खत मरवि ॥ (१७) प्रसिलेसाणक्खत्ते जदि संथारं गिण्हवि तो पुष्व भद्दणक्खसे शिवसे मरदि । (१८) मूलणक्खत्ते जवि संथारं गिहदि तो जेट्टणक्खत्ते पमाववेलाए मरदि ॥ (१९) पुष्वासाढणक्खते जवि संथारं गिहषि तो मियसिरणाखसे पदोसवेलाए मरदि । (२०) उत्तरासाढणक्खो जवि संथारं गिण्हदि तो तहिवसे चेव अहवा भदपवणक्खसे प्रवरण्हे मरवि ॥ (२१) सवरणरणक्य जवि संथारं गिम्हदि तो उत्तरभद्दणक्खत्ते तद्दिवसे कालं करेदि ।। - - (१४) चित्रा नक्षत्र में सन्यास ग्रहण करने पर मासेर नक्षधर आधीरातमें मरण होगा। (१५) स्वाति नक्षत्रपर शय्या ग्रहणे तो रेवती नक्षत्रके समय प्रभात काल में मरण होगा। (१६) विशाखा नक्षत्र पर शय्या ग्रहण करनेसे आश्लेषा नक्षत्र पर मरण होता है। {१७) अनुराधा नक्षत्र पर शय्या धारण करनेसे पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में दिन में मरण होगा। (१८) मूल नक्षत्रपर शय्या ग्रहण करनेसे ज्येष्ठा नक्षत्रपर प्रभातकाल में मरण होगा। (१९) पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में शय्याका आश्रय करनेसे मृगसिर नक्षत्रपर रातके प्रारम्भके समयमें मरण होगा। (२०) उत्तराषाढ़ा नक्षत्रपर सन्यास धारण करनेसे उसी दिन या भाद्रपद नक्षत्र में अपराह्न काल में मरण होगा। (२१) श्रवण नक्षत्र में शय्या ग्रहणको जाय तो उत्तराभाद्रपदमें दिन में मरण होगा। Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवत्तवण्णणं [ ६६३ (२२) धणिट्ठाणक्ख ते जदि संथारं गिण्हदि तो तदिवसे कालं करेदि, जवि तदिवसे ____ कालं ए करेदि तो पुगतदिवसे चेव प्रागवे मरदि ।। (२३) सदभिसणखत्ते जवि संथारं गिम्हदि जेठाणखत्ते प्रत्थयणवेलाए मरवि ॥ (२४) पुटवभद्दपदणक्खत्ते जदि संथारं गिण्हवि पुण्णवसुणक्खत्ते रत्ति मरदि । (२५) उत्तरभद्दपवे णक्खत्ते जवि संथारं गिम्हवि तो दिवसे वहमाणे वा पुणरादि वा ' मरदि। (२६) रेवतिणक्खत्ते जदि संथारं पिण्हदि तो भधणखसे मराद । (२७) मूलणक्खत्ते जदि संथारं गिण्हदि तो जेट्ट पक्खत्ते भरदि ।। सम्मत्तं णक्खत्त वण्णणं । -- -.- - - .. . ..-- (२२) धनिष्ठा नक्षत्र पर शय्या ग्रहण करे तो उसो दिन या आगे उसी नक्षत्रके आनेपर मरण होगा। (२३) शतभिष् नक्षत्रपर सन्यास धारण करे तो ज्येष्ठा नक्षत्र पर सूर्यास्त के समय मरण होगा। (२४) पूर्वा भाद्रपद नक्षत्रमें यदि सन्यास ग्रहण करेगा तो पुनर्वसु नक्षत्र पर रातमें मरण करेगा। (२५) उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में शय्या ग्रहण करेगा तो उसी दिनमें या रात्रिमें मरण करेगा। (२६) रेवती नक्षत्र पर संस्तर धारक क्षपकका मघा नक्षत्र पर मरण होगा । (२७) मूल नक्षत्र में संस्तर लेवे तो जेष्ठा नक्षत्र में प्रात: मरण होगा। नक्षत्र गुण वर्णन समाप्त । Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Site प्रशस्ति ***** छंद उपजातिश्रोवेवसेनोऽजनि माथुराणां गणो यतीना विहित प्रमोदः । तत्वावभासी निहित प्रदोषः सरोयहाणा मित्र तिग्मरश्मिः॥१॥ छंद--- धृतजिनसमयोऽजनि महनीयो गुणमणि जलधेस्तदनुतिर्यः । शम यम निलयोऽभितगतिसूरिः प्रबलित मदनः पवनतसरिः॥२॥ छंद रयोद्धतासर्वशास्त्र जलराशि पारगो नेमिषेण मुनिनायकस्ततः । सोऽजनिष्ट भुवने तमोपहः शीतरश्मिरिच यो जनप्रियः ॥३॥ - --- --- माथुर संघके यतिओं के प्राचार्य, सब मुनिओंको आनन्दप्रद ऐसे देवसेन आचार्य हो गये हैं। जैसे सूर्य कमलोंको विकसित करता है, रात्रिका नाश करता है और पदार्थोको दिखाता है वैसे ये देवसेन आचार्य निहित प्रदोष थे अर्थात् दोषरहित थे और अन्य मुनियोंको दोष रहित करते थे । जोबादि तत्वोंका स्वरूप इन्होंने भव्य लोगोंको दिखाया था ।।१।। देवसेनाचार्य के शिष्य अमितगति नामक मुनि थे । वे गुणसमुद्र, शम और व्रतोंके आधारभूत थे, मदन का नाश करने वाले थे उनको बड़े विद्वान भी वंदन करते थे ऐसे आचार्य जैन मतको प्रभावना करने वाले हुये हैं ।।२।। इनके अनन्तर इस माथर संघ में नेमिषेण प्राचार्य हुवे । सर्व शास्त्र समुद्र के दूसरे किनारेको ये प्राप्त हुवे थे । चंद्र जैसा लोकप्रिय रहता है, बसे ये आचार्य लोकप्रिय व अज्ञानांधकारका नाश करने वाले थे ।।३। नेमिषेण आचार्यके शिष्य माधवसेन नामक आचार्य थे। इन्होंने माया और मदनका नाश किया था। ये वृहस्पतिके समान चतुर थे और इनको बुद्धि तत्व Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशस्ति छंद अनुकूलामाधवसेनोऽजनि मुनिनाथो ध्वंसितमायामदनकदर्थः । तस्य गरिष्ठो गरिय शिष्य स्तत्त्वविचारप्रवणमनीषः ।।४।। शार्दून विक्रीडितशिष्यस्तस्य मनीषिणोऽमित गतिर्गिप्रयालंबिनीम् । एनां कल्मषमोषिणी भगवती माराधनां स्थेयसोम ।। लोकानामुपकारकोऽकृतसती विध्वस्त तापाहदः । पद्मः सत्त्व निषेवितस्य विमलां गंगां हिमाद्रेरिव ॥५॥ छंद उपजातिपाराधनषायदकारि पूर्णामासश्चतुभिनंतदस्तिचित्रम् । महोद्यमानां जिनभाक्तिकानां सिध्यन्ति कृत्यानि न कानिसद्यः ॥६॥ छंद्र वंशस्थस्फटीकृता पूर्वजिनागमादियं मया जने यास्यति गौरवपरम् । प्रकाशितं कि न विशुद्धबुद्धिना महार्घतां गच्छति दुग्धतोघृतम् ॥७॥ शार्दूल विक्रीडित - यावत् तिष्ठत्ति पांडुकंबलशिला देवानिमूनि स्थिरा। यावत सिद्धिधरा त्रिलोकशिखरे सिद्ध समाध्यासिता ॥ ----.- -. -- विचारमें प्रवीण थी ।।४।। माधवसेन आचार्य के शिष्य अमितगति हुवे हैं। उन्होंने यह भगवती आराधना बनाई है। यह पाप नाशिनी, संसारताप हरण करनेवाली गंगानदोके समान है। गंगानदो हिमाद्री से उत्पन्न हुई है यह भगबती आराधना अमितगत्याचार्य रूपी हिमाचलसे उत्पन्न हुई है ।।५।। आचार्यश्री ने यह ग्रन्थ केवल चार महीने में बनाया है। इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है । क्योंकि महाप्रयत्नशाली जिनभक्त कौनसे कार्य सिद्ध नहीं कर सकते हैं ? पूर्व जिनागमका [शिवकोटघाचार्यका भगवती आराधना ग्रन्थ ] ।।६।। आधार लेकर मैंने यह ग्रन्थ रचा है। मेरा यह ग्रन्थ विवज्जनोंमें आदरणीय होगा । जैसे दूधसे निकाला गया घृत मूल्यवान और आदरणीय Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ ] मरकण्डिका तावत् तिष्ठतु भूतले भगवती विध्वंसयन्ती तमः । सा चैषा श्रमदुःखनोदनपरा चन्द्रप्रमेवोज्ज्वला ||६|| होता है ||७|| जबतक मेरु शिखर पर पांडुशिला रहेगी, जबतक सिद्धोंसे प्रधिष्ठित सिद्धशिला त्रैलोक्य के शिखरपर विराजमान रहेगी, तबतक चन्द्रकांतिके समान उज्ज्वल, श्रमदुःखका परिहार करनेवाली, अज्ञानांधकारका नाश करनेवाली यह भगवती आराधना इस संसार में स्थिर रहे ||८|| प्रशस्ति समाप्त Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगाहौल त्यालय ताप गतदार अथ प्रशस्ति बर्द्धमानो महावीरोऽतिवीरो वीरः सन्मतिः । अद्यापि शासनं यस्य राजते तं नमाम्यहम् ।।१।। नमस्तत्त्व दिग् वीराब्दे, कुन्दकुन्द मुनीश्वरः । समभूत् तत्त्वदेशक: मूल संघ प्रवर्तकः ॥२॥ तस्यान्वये सुविख्याताः, संख्याता: यतिनायकाः। पाणिपात्र पुटा हारा: बभुवतुः दिशांबराः ॥३॥ तस्मिन् क्रमेण संजातो गणाधिपस्तपोधनः । शान्तिसागर नामासौ मुनिधर्म प्रवर्तकः ।।४।। समलंकरोत् तत् पट्टमाचार्यों वीरसागरः । स्वाध्याये निरतः शाश्वत् विरतस्तनु भोगतः ।।५।। काय लियः यः पिसिन्धु यतीश्वरः । चतुर्विध गणैः पूज्यः, संजातः संघ नायकः ॥६।। तयोः पार्श्वे मया लब्धा, दोक्षा मंसार पारगा। प्राकरी गुण रत्नानां यस्यां कायेऽपि हेयता ।७।। [विशेषकम् ] संवेगभाव सम्पन्नो धर्म सिन्धु ऋषीश्वरः । आचार्य पदमासीनो, वीरशासन बद्धकः ॥८॥ अलंकरोति तत् पट्टमाचार्योऽजितसागरः । वैयाकरण मान्योऽसौ, शिक्षणैः कुशलः सदा ।।६।। मम शिक्षा प्रदात्री या, आर्यिका प्रमुखा मता 1 कवित्वादि गुणोपेता, ज्ञानमती हितंकरा ॥१०॥ नाम्ना जिनमती चाहं. ग्रन्थस्यास्यानुवादनम् । यया कृतं सदा भूयात्, परिणाम विशुद्धये ॥११॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारादि वर्णानुसार श्लोकों का क्रम श्लोक सं० पृष्ठ सं अनेना श्रद्धानेन हिमादिगुणाः सर्वे अरोचत्वरजिनाख्यातं अनंतेनापि कालेन अनुकूलं गृ होतो व नगाजायें स्पागो सुख अदृष्टपूर्वमुच्चार्थ अभितो घामानं तद् अव क्रियते वश्यं प्रवद्यभीरू: संविग्नः श्रक्लिष्ट सप: शास्त्र अकारित तपो योग्य मुक्ति मो अशन नीरसं शुद्ध अन्तर्बाहि संवा अयोग्यजन ससगँ ग्रपि संन्यस्यता विस्य विच्छेदय तीर्थस्थ प्रद भक्ति: परायस्य अश्विनाव असंपतेन चारित्र अमुक्तोऽपि गुण लो अजलवन्तो गुणान् वाण्या अनन्य सापको खण्ड श्रयं नोऽनुग्रहोपूर्वी अनन्यतापिभिः सर्वे अचेल कर मुद्दिष्ट अ ४५ ६२ ६६ ६ ६ ७४ ८५ १०६ १४८ १४९ १५४ *** १६८ २१२ २२२ २३७ २४० २७६ २-२ ३२१ ३३६ ३५७ ३७० ३७५ ३८६ ३६२ ૪૨૭ १७ २३ २४ २४ २९ २२ ३६ ४५ ४९ ५० ६४ ६५ ७० ७३ ७७ ७७ प 5€ ९८ १०५. १११ ૪ ११५ ११७ ११५ ११६ १३३ भवध मोरको नित्यं शुद्ध सुधि अयमन यो जीव अस्ति तीरंगतस्यापि अवपी तयोस्पोडो बतीचारास्तपोवृत ष्टाचाराद अपराधोऽस्ति यः कश्चिज् अनुप्रमादेन कनुकंध्यानुमाrयं हि अभ्यस्त ववतः स्वस्थ अरगतं घटी यंत्र अवज्ञाय वचस्तस्य अनाकुल मनुति अकारण त्रिधाहारं प्रथित्वा कश्चिदशेन अनुवासादिभिस्तस्य भ्रप्रमत्ता गुणाधाराः अनशन निरभृति सकलं अनुशिष्टन चे दत्ते मनादिकाल मिध्यात्व अनि लभ्यते येन अशानोषि भूतो गोपो मल्पं यचाणुतो नास्ति प्रसूनृतादिभिदुःख अल्पायु दुर्बलो रोगी अध्ये कार्व्यापिकेन प्रकृष्टः अवजा कारण वैरं श्लोक सं० BE ४४ १ ४५२ Yox ४९. ५०५ મસ पृष्ठ सं १३४ १३५ १३८ १४५ १५१ १५३ १६७ ५५६ १७० ५६३ १७१ ५१० १७९ ६१६ १८६ ६२० १८७ ६२४ १८५ ६८१ २०२ OPE २१३ ७२३ २१४ ७३३ २१७ ७४५ २२० २२१ २२२ २२४ २२८ २३४ २४३ २४४ २४६ २५१ २५४ ७४९ ७५१ LE ७७२ ७९० ८१८ ८२५ ८३२ ८५० ८६० Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रत्ययो भयं वर असत्य वादिनो दोषाः मसस्य मोचिनो दोषा अपराधे कृतेऽप्यत्र अदक्षं दृणमात्रेऽपि ब्रह्म दशधारकस्था अवमन्य भवाम्भोधी अरग्निशिखा जालं अभिलक्ष्य चिरं लब्ध्वा कारण स अप्यपर घेता अस्थान गृहं योषा अमनोदने स प्रमेय या वान्तं अमेध्यं भक्षयत्रो कं अमेयस्य कुटीगाव प्रभविष्यन्न बेडू गा अंगारस्येव कायस्थ गोदन स्नान पश्य प्रतो मृत्यु प्रमेय निर्माण भमेध्य पूर्ण अविश्वस्तोऽप्रमतो य अहं वतं कथं कि मे मरण्ये नगरे ग्रामे अवास्य नरस्यार्थो अन्तरे द्रव्यशोकेन अर्थ se faत्तोsस्सि अभीमि रखिले अंकुशोगत संगत्वं अकारि पडितस्येति श्लोक सं ८७६ co2 ८६१ ८६३ ५०० ९०८ ९५४ ९२० ९६० ६६३ ९८३ १०२२ श्लोक-सूची पृष्ठ सं० २५७ २५८ २५८ २६० ܐܐ २६४. २७५ २६७ २७६ I २०६ । २८२ २६१ २९२ ३०१ १०२६ १०६२ १०६४ ३०१ १०७१ ३०३ १०६४ ३०५ १०९२ ३०७ १०६४ ३०७ k{ ३१२ १११५ ३१३ ११५६ ३२५ ११५७ ३२५ १२.५ ३४२ १२०९ ३४३ १२१३ ३४३ १२२१ ३४८ १२२३ ૩૬ १२२४ ३४६ २१४९ ६२४ प्रमत्त गुणस्थाने अनुज्ञाते समे देखे अनंत दर्शन ज्ञानं अनंतमप्रतीबंध मन्तर्मुहूर्त शेषायु प्रयोगोऽन्यतरद वेद्यं अंगोपांग संरूपानं जवावेया यशो निर्माण अति समये इत्या अधर्मवशतः सिद्धा अनेनैव प्रकारेण संतापहः साधोः अप्रवेशोऽननुज्ञाते बर्हद गणधराचामे प्रशस्तं याचते क्रुद्धो अनपेक्ष्य यथा सौख्यं अक्षमणो निजेगेहे अतक विश्रामं अक्षचोरहृताः केचित् अन्तः शुद्धो बहिः शुद्धि अग्निव हृदयं प्रयते अरत्ययः करान अभाष्य भाषते भाषा प्रति जयिते भाषी मुमुक्त स्वयं यावत् अकुर्वाणस्तपः सर्वे कुतस्तपोऽन्येऽपि अज्ञानतिमिरोच्छे दि अभ्यग स्वेयनाशेप अयोग्य मशनपास [ ६६९ श्लोक ० पृष्ठ सं० २१६१ ६२७ २१६२ ६२७ २१७४ ६३२ २१७५ ६३२ २१-२ ६३४ २१६१ ६३८ २१९६ ६३९ २१९८ ६४० २१६६ ६४० २२१६ ६४४ १२५४ ३६२ १२६३ ३६५ १२६४ ३६५ १२७४ ३७१ १२७५ ૯ १३०७ ३८१ १३४० ३९ १६४३ १९१ १३६८ ३६७ १४१५ ४०८ १४२९ १४३० १४३१ १४५५ १५०० १५३६ १५३४ १५.४४ १५७७ १५८१ ४१५ ४१५ * ४२२ ૪૪ ૪૪૨ ४४ YVE ४५४ ४५४ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० ] मरणकंडिका लोक सं० पृष्ठ सं० आलोक सं० पृष्ठ सं० १९३१ ५६० ४६. १९५३ ५६६ १६२३ १६२७ ४७८ १९९६ १६४५ ४८० ४८४ २००५ अप्रमाद कपाटेन भनिदिष्ट फलं कर्म अहो द्वेषेण रागेण अपोम के वनो शुक्ल अन्तविमुखितो जीवो प्रतविशुक्षितो जन्तोः अविघ्नेन विगुतात्मा अवशेषित कर्माणः अदीन मनसो मुक्त्वा अवसनो यथा धन्धो पशुख मनसो बण्या: अभियोग्य क्रियासक्ता प्रस्य विग्रह संस्थान अक्षयं निर्मलं स्वस्थ ५६५ ५०६ २०१७ २०२९ ४९५ ५८६ ४९५ १७१७ १७४५ २०३७ २२१३ ५०३ ५०४ महमारापयिष्यामि मग्निमध्यगमा: केचिद् अवमौदर्य मंत्रेण अग्निराज मुतः शमस्या ममी तपोषनाः प्राप्ताः असुर वैतरण्यांक अत्राण पतितः क्षोण्या रेत स्वर! असंयम प्रवृत्तार्ता अभूतपूर्वमन्येषा अवश्यमेव दातव्यं अप्रमाणयक्षा तेन अतिक्रामति वाजोव अशनं कांक्षतो नित्यं असिधाराविषे दोष बध वाशरणकान्य अस्ति कर्मोदये बुद्धि अर्थः पापोदये पुसो अगम्या विषयाः सन्ति अवनीना इवैकत्र प्रभित्रं जायते मित्र अनादि निधनो ज्ञानो अनेक दुःख पानीये असंख्य लोक मानेषु मवाप्या नंतशो दुःस्न अशुभा: सन्ति नि:शेषाः मओं मूल मनाना अमेध्य निर्मितो देहः परस्यश्चक्षपा दृष्य १८०० ५२३ ५२७ ५२७ १८१५ १८१६ १०२३ १९४६ १५४६ १८५६ १८५९ १८६६ २१६ ५३५ ५३७ ५३८ बाराधना विषा प्रोक्ता माराधने चरित्रस्य आसवं सवरं भापवादिकलिंगोऽपि मात्मोया पशिता श्रद्धा भासने शयने स्थाने बाहार स्तृप्तये पुमा आत्मा प्रवचन संघ. माहार खवंता वांति आहार मरूपयावं पाहार गौचरह प्राचाम्ल रस हानिभ्यां माझा कोपोजिनेन्द्राणां आयिका मानसं सद्यो आयिका बने योगी २५१ २४६६ २५४ २५६ ८१ १८७५ ५४३ १६.४ १९०५ १९१० ३१२ ५५६ । आायका नयागा Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७१ श्लोक-सूची लोक पृष्ठ सं श्लोक सं. पृष्ठ म. ३६६ १२० ७२२ २१३ १२३ २१७ - ७४० ७०४ EN ४२४ ४२५ १२७ १२८ १२८ १२९ ८२४ ८२५ ८४३ २४५ २४९ २५. ४४४ २४७ बापृच्छयेति गणं सर्व आजा कोपो गणेशस्य प्रायिकाः क्षुस्लिकाः क्षुल्ला: भासोचना प्रवृत्तस्य मालोचना प्रवृत्तस्य प्राधार जीद कल्पाना भालोक्य सहसा यान्त मावश्यके ग्रहे क्षेपे आचारी सूरिराबारी आचारी स मतः सूरि मायारस्थः पुनर्दोषान् आस्म श्रम मनालोथ्य आलोचनो प्रतिमाय आया पाम विषिर्यन माया पाय दिशस्तु समोरे प्राचार्यों पत्र शिष्यस्य आचार्यः करणोत्साह माराधना गर्ने क्षम मामृच्छ्य झपकं सूरि मालोचना विषा साम्रो बालोषनादिकं सस्य आलोषितं मया सर्व पालोपामि निर्व आस्वाद्य कश्चिदेतेन आचाम्लेन क्षय याति पारावास्त्रिषाहारं भार:आचार्ययापके शिष्ये आराधना पुरोगाम भाश्रमाणां मतो गर्भ: पारमपातोऽगिनां घातो आहारोपविभेदेन पारगिव जन्तु आयास रस नाछेद साश्रयं स्वजनं मित्रं आकण्यं मूषिकस्यापि प्रापासे मधुरं रम्य आसने शयने स्थाने अाशी विषेरण बष्टस्य आयुध विविधः कोणी भासन् रामायणादीनि भाभिः समितिभि योगी आकांमति महादुःखं पारटम्ती भराकाम्सा मालोचनाधिकारस्य बारागे विपरनु स्वेचाई ८१६ ४७६ १४५ ८९९ ४७० १४२ ५१३ ९२५ २६८ १६२ ५३८ ५४० १२५५ ३६३ १७५ १८० ५९२ १३८६ ४०२ ६०८ ६१२ १४०५ १४७६ ४२८ भासने सपने स्थाने पाचे वृते द्वितीयेवा मात्म एसि विधत्ते यः आगमेन परिप्रेण आमन परामर्श मारमा स्वक्तः परं शास्त्र प्रावधानो यथा लोहं १८५ माधारं पुरुषं हत्या बाबा त्युपानक १८५ मालस्म सुख शीलरखे बाहार संजया व २०९ । माहार संशया भा! १५२८ ४४२ ६७८ ७०२ १७३४०१ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ ] मरकंडिका श्लोक सं पृष्ठ सं० लोक सं० पृष्ठ सं० १२७८ ४०० १५५२ १५७१ ४४७ ४५३ १५०४ १७३७ ५५४ २०३४ १७६८ १८१३ १९६२ १९२१ आहारं वल्ममानोऽपि आपात सुखदे भोज्ये १७४४ आरौद्र द्वयं त्याज्य आकाशे पक्षिणोऽन्योन्यं १८७१ आसवं कुरुते योगो १९२५ आलंबन भृतो लोको मायुधं योगिनो ध्यान १९७६ प्राराधना व बोधा १९८४ आराध्याराधना मेर प्राप्त रौद्र परः साधु २०२७ मालोचनामनापाय मादौ मध्ये असाने च प्राकृष्य नीयते यस्या २०७० मारापना विषिः पूर्व २०९७ पाराध्याराधना देवी २०६८ मारा क्षपक श्रेणी २१६६ आयुषा सदृशं यस्य २१८० आवेगेनाशुगामीव २२०२ माशीविषाइव स्याज्या ९८२ आम विषना: काश्वित् माम पक्वाशप स्थानं मात्मनः पतितो खेलो पाशामूले रसग्नो आरोहति नपं वृक्ष १२०८ आहार मुरविणाय्या १२५२ आराधना जन्मवतश्वतुर्थी २२३१ मारानीषा कथिता समासतो २२३२ माराधना भगवती कथिताम्बशस्या २२३४। (प्रशस्ति ) पाराधनगो यकारि पूर्णा ६ ५५६ ५६६ जवानों पर करवा ५१६ इस्येते साधव. पंच इन्द्रियार्थ महातृष्णा ५५८ इति विलोक्य तप. फल मुत्तम इत्थं शुश्रूष माणस्य ५७५ इत्थं आपक मापृच्छप इंषने नेव सप्ताञ्चिः इत्येष कवचोऽवाचि ५८८ इत्येवं क्षपक: सर्वान ५८९ इषं जगछारद वारिदोपमं ५९७ इन्द्रियाभिलाषा ६०१ इन्द्रिया सुखे येन इन्द्रियाश्या नियम्यते ६११ इत्यं यो दुर्लभी बाधि ६३१ इरधं यो ध्यायाति ध्यान इत्थं समत्व मापनः इत्थं संस्सर मापना २०२ इह लोक कियो युक्ताः २९४ इत्यं विराध्य ये जीवा ३०४ इदं विधान जिननाथ देशित ३०८ इद मेव बनो जैन ३४२ इस्ययं विनयोऽध्यक्षः इन्द्रियार्थ सुखासक्तः ६४७ इस्मं सत्सेखनामागे इस्थं गुणपरिणामो इदं नो मंगलं बाढ़ इति विमुख्य रहस्य विभेदक ६६५ । इति ज्ञात्वा महालाम १९२९ १९६२ १९७४ १९८७ २०२६ ५८ ५९ ५९. २०३६ २०७३ १७ १२६ २६४ ९४ ३८७ ११७ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ६७३ दलोक-सूची श्लोक सं. पृष्ठ सं. श्लोक सं० पृष्ठ संग १७४ १७५ १८५ पाठांतर 0 ३०३ ३८२ 0 ६२८ ११६ 0 ९०६ ४७२ ५६ १५.८ १४४ १७२ १-१ ० पर इस्युक्त सूरिणोत्कृष्टां इत्येकत्वगतः कृत्स्नं इत्यन्यम्माजतपत्र इदमालोचनं वसे इह बंध वधं रोध इन्द्रराज महस्वामि इच्छावती मनिच्छ वा इस्य मर्जयते पापं इस्मंगेऽवययाः सन्ति इन्द्रियार्थ रतियो इत्थं कृसाकियो मुच इहामुत्र सुखे दुःखे इंगिनी मरणे प्येव इंगिनी मृति सुखानुषंगिरें ईगिनी मरगां प्रोक्त इंगिनी मरणेऽवाचि इत्युक्त नि:प्रतीकारं २७७ ९६५ १०८२ ११२६ ३१६ २०० उद्गमोत्पादना वलभा अगमोत्पादनाहार उपचीतां निषद्यायाः उत्यापयिषु रास्मानं उद्यत : पंचधाचारं उत्थापने मलत्यागे उद्धृत्य कुर्वते कालं उक्तो दोष। सदोषम्य उल्लामी कुरुते बंद्यो उद्गमादि मला पोढा उद्यान मन्दिरे हुये उत्तराशाशिरा: क्षोणी उत्तमार्थ मृतो यस्य उद्बेगं कुरुते हिरो उच्चोऽपि सेवसे नीचं उपकारं गुणं स्नेह उहणश्चग्लो रविः शीतो उदीर्णोऽप्यंगिनो मोहो उदीयते यदा लोभी उद्देशामशंक सूत्र उन्मत्तो बधिरो मूको उच्च भवे बन नीषो उच्चस्खे महुशः कोऽत्र उभयस्वे जायते प्रीतिः २९ २१२२ २१३२ २१३३ २१३४ २१३५ २१४१ २४५ ९४१ २८२ ६२० ९८४ १०२७ ईषत प्रारभार संशायt २२०७ ३३१ १९१४ १२८५ १२८८ १२८९ ३७५ ३७६ उपद स्थितीकारी उत्कृष्टा मध्यमा होना। उपहादि तात्पर्य उक्त शदे रसे रूपे उपमारत मगार्हस्थ्य उपधि मुयतेऽशेष अपर्युपरि गुखेषु उन्मार्ग देशको पसे उपसर्ग महोमोधां १२७ १२९० . अमत्रस्व मिवनीचस्व उपचस्वाति निदानेऽपि उत्तारितः करोन्त्रण उपडीय माखिन: पक्षी ६८ । उदीयमानेन महोचमेन १३८७ x ४०२ ४०२ २०७ १५२६ ४४२ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ ] उत्पाटयो ने उदीरणं कर्मणः पीडाँ उप संस्तरं प्राय्य ऊर्ध्वाधः सत्रिलोकस्था उपवास मनध्याय उक्तो भक्त प्रतिज्ञाया उपेक्षते विनिक्षिप्त: उपदेशोऽन्य सूरीणा उपसर्ग हतः काल उपसर्गे सति प्राप्ते उच्च दुःखागदुर्गं (प्राराधना स्तवनं ) ऋद्धयः सन्ति या लोके एवं स्मृति परिणामो एक द्वित्रिच: पंच एव कामापो एवं भावयमान: संस् क ऋ एवं गुण परीणाम एवं गुणाकरीभूतं एकोऽपि संयतो योगी एते दोषाः संति संघे स्वकीये एक द्वि त्रीणि चत्वारि एक राय तनूरसर्गः एभि निर्याषक: सूरि एका मधुरं स्मि तरुपाचा संघो श्लोक [सं० पृष्ठ सं Yeo ४९२ ५११ ६०० ६१३ ६१६ ६१२ ६२० ६२१ ६५३ १६४० १६९८ १७७८ २०६७ २१०२ २१२० २१३१ २१४२ २१४४ 古 मरकंडिका १७६६ ५२३ २०१६ १६८ २१४ २४२ २४४ ३२६ ३३२ ३६३ ४११ ४१७ ५८६ ५६ ७ १ ७८ ७८ १०१ १०३ ११२ १२४ १२५ ४१८ १२५ ४३४ १३२ ४९३ ** ५.१२ १५५ स्वनिक्षेपे एक: संस्तरस्थोऽग्नो एक मेव विविमा यति ततः एति शल्यं निराक एतस्य कथने शुद्धिः एक द्वित्रिचतुः पंच एव मेकाग्र तस्का: एति सल्लेखना मूल एकत्र जन्मनि प्राणी एकोप्य नमस्कार एकत्रापि पदे पत्र एकोपि इम्यते येन एकेनासत्यवाक्येन एते दोषा न जायन्ते एकाकी जियते जीवो एतेषां चितनाम्मानो एकासाथ सहस्राणि एकत्र निधनं नामरे एकत्र कुरुते दोषं | एवं प्रज्ञायमानो सौ एवं भावित चारियो एकाग्र मानसश्चक्षु एकानेक भोपात्त एक द्विवितु: पंच एकेन्द्रियेष्वयं जीवः एवं काल गतस्यास्प एक मष्टसू यामेषु एकदा शुभमना विपद्यते श्लोक सं ५.३४ *** ५७८ ६३१ ६३६ ६६८ ७१० ७११ ७८६ ५०७ ८७५ ९०५ !=૪ १२९५ १४५६ १६६६ १७२३ १७६२ १७७६ १७९१ १७९८ १-६२ १८५० २०४४ २१२४ २१५६ पृष्ठ मं० १६१ १६४ १९५ १७५ १८९ '** २०८ २११ २११ २३३ २४० २४६ २५६ २६३ ५३१ ३७८ ४२३ ४९१ ४६७ ५०७ ५११ ५१७ ४२२ ५३९ ५४५ ५९३ ६१७ ६२५ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक-सूची [ ६७५ श्लोक सं० पृष्ठ सं० १५४ ३ ५८ श्लोक रा० पृष्ट म० एवं समासतोऽवाधि २१६० ६२६ एरंड घोषवम्जीवी (बाराधना) २२०१ ४१ एषय परमो धर्म ६५३ एवंव परमो लाम एवस्या दुर्लमं बहि २५४ २६४ २६९ १०५३ १०८५ ११०१ ११४७ ओ मोधेन भाषतेऽनाप ५७ १७० ३२१ ३४३ ४०१ ३६६ १३८२ १३५८ औरसगिक मचेलत्वं मोत्सगिक पक्षावेषी औषधानि सबीर्याण ५७ ४९० ३१८ कलशोऽस्तीति यद् भूते कर्कश निष्ठुर हास्य कन्याम रायिका निश्च कणिका शुक्षितः सुखः कर्णयो कणंगूयोऽस्ति कस्तूरिका कुरंगानां कषायेन्द्रिय संज्ञाभि कलि कल कल वर कश्चिद दीक्षा मुपेतोऽपि कषायाम गुरुत्वेन कषायाम गुरुत्वेन पश्यन् कषायाम गुरुत्वेन वृत्त कषायेन्द्रिय वोरण कषायमस उन्मत्तः कषायाक्ष पिशाचेन कषायाक्ष वश स्थायी कषायेन्द्रिय दोषण कषायेन्द्रिय दोषारीः कषायाम गृहीतस्य कषायनिय तुटाव कषायेन्द्रिय दुष्टाश्य, वंद कषाय मर्कटा लोला: कषायाक्ष द्विषो वा कषायाक्ष दिपा मत्ता कषायाक्ष गजा: मोल . ४०४ १३९८ ४०४ ४०५ १४.६ ११४ १४०७ ४.६ ४६२ १४६ १४६९ ४२७ कल्पाचार परिमान कषायाकुलपित्तस्य कषायाकुलचित्तानी कम्यमाना गुणाबाचा कश्पना करने दोष कथायामकबायर्या व कथामा कयने दक्षो कर्णाति न चे पत्ते कश्चित् श्रीवा विषं मुक्त कपा माऽपेशणोते कथ्या यह सुतस्यापि कश्चिद कटवा तदेतेन कश्चिदुदरते शस्यं कटुकेऽलादुनि और करणेन विना जान कषाय कलुषो यस्मा ५२१ १५८ ५२५ ५९३ १० ४२८ ४२६ २०४ १४८४ ४२९ २०५ ६८५ ७२१ १४५३ २१४ ४२६ २२६ ४३८ कषायास महा व्याघ्नाः कषाय चौरा नति कारिणः १५१४ कर्मानव निरोघेऽय १५२५ कतिक्त कषायाम्ल ६०२ ४४२ २३८ २५० ४५२ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ ] मरणकंडिका श्लोक मुं० पृष्ठ सं० १२१ ४२ .. .0 40 २३३ 6 16 W २५६ r ५५५ ५२७ २०० २०८ ८७३ २६६ १२२ लोक सं० पृष्ठ संग कस्यचित क्रिपमारणे पि का कास्त्र कि नाम ते काल: १५५३ कायिको बापिकातः कमजलि पुटैः पीत्वा कार्याय स्वीकता शय्या कर्कशे निष्ठुरे मिश्रियणे भाषणे १६७० ४५ कांदपी कैल्बिषी प्राई कमप्युिदीर्य मानाणि ४६२ कामे भोगे गणे देहे कर्मणा पसतीन्द्र तु ४६३ काष्टाश्म तृणभू शय्या काँग्यामिति ज्ञात्वा १७०५ कालो द्वादश वर्षाणि कलेबर मिवंत्याग्य १७६१ ५०७ कारप्रय माप कल्याण प्रापकोपाय १७९७ ५२२ कामेऽमुकत्र देशे वा कर्मोदये मति याति १८१४ कालानुसारतो ग्राह्या कर्म मागन सहानि बनाना १६३१ कालानुसारतो ग्राह्यो करोति पात कं जन्तु १८३२ ५३१ कालकूटं यथानस्य कषाय पट्टिका र १८५३ कामाकुलित वित्तम्य कर्मात्रवति जीवस्य साम्यमान जनं कामी कम सम्बन्धता जाता कामी शूरोऽपि तीक्ष्णोऽपि पल्म कार्यते पोरं १६१६ कामावना कुच फलानि कषाय तस्करा रौद्रा कालेयकानि सप्तांग कर्मभिः शक्यते भेस १९३२ ५६० कायः कृमि कुनाकोएं: कवाय संयुगे ध्यान कायो जर्मः पयोषीनो कषाय व्यसने मिन्न १९८१ कापिल्य नगरेऽपि कषायाति छाया १९८२ ५७७ काय क्रिया निवृत्ति कमायो ग्रन्थ खगेन १९९५ कामिभि भोंग सेगाया कर भावनाशीला: २०३६ कालरस्वं न कुर्वन्ति करोत्येनं ततो घोगी ६१९ कास शोश हचिदि कवायामध्यमानष्टी २१६९ काण्डवेगेन करास्थित मिवाशेवं २१७६ कोमतोऽपि न जीवस्य कर्मभिः क्रियते पातो ५४३ काले तीतेऽभवद सर्व कष्टक विनाशन २२२९ काले न निर्जरा नून करोति वशतिनीस्विरम २२३५६४८ । काल त्रितय भाषीनि १४३ ९७२ २७९ ५५६ १०५१ ३०५ ३०७ १२४५ १ ३८४ ५९० १६२१ ४६४ ४९२ १८४४ २२२५ ६४५ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किमालंदं परीहारं कि पुनर्विकृता कल्पाः कि करिव्यन्ति ते भोगा कि त्वमसि भूयोषि किन भुवने प्राप्त कुर्वतः समिती गुप्तः कुशलोऽपि यथा वैद्यः कुर्वाणस्यानु माम्येति कुरुते देशनां सूरि कुलीनो निदितं कर्म कुन्ति दारुण पीडा कुत्सिता तो मारी नु कुल जाति यशोधर्म कुचित समनि वा कुर्तिः कृते कुतोऽपि चेष्टा कुचित स्त्रोत स्पर्श कुन्तो देहिनां दुःखं कुपितः कुरुते मूढः कुल संघ यशस्कामा: कुलालेऽरिष्ट संशेन कुंभीपाके महातापे कूलोनो धार्मिको मानी कुर्याद् दिव्यादि भोगानां कि कुर्वन्विषवादिनं कुदर्शनः वृत्त कवश्य यो कुरुध्व सुख हेतुना श्लोक सं १६२ ११५२ १३३५ १७३५ २०७६ ११६ ५.५.१ ६०० ७२६ ** ९६७ १०१५ १०२० ११०२ ११९८ १३१९ १३३२ १४४२ १६१३ १६३४ १६५० १७२८ १७७२ १८५२ १९२६ १९९१ श्लोक-सूनी T पृष्ठ सं० ५३ ३२२ ३८९ ५०१ ६०२ ४ १ १६८ १८२ २१४ २७१ २८७ २९० २९१ ३०८ ३३६ ३८४ ३८७ ४१८ ૪ ४७७ ४८ १ ४९९ ५१० ५६६ 2 ५८० कृत्याकृत्ये तो शास्वा कृतिकर्म विषायासी कृत्वा त्रिशुद्धि प्रतिनिय कृश्वापि कल्मषं कश्वित् कृत्य स्तृणमयोऽसन्धिः कृषति दीव्यति सीव्यति कृत्वा हिसानृतस्तेय कृतस्य कर्मणः पूर्वं कशानू विकाम्भोभिः कृष्णा नीला च कापोती कृतकृत्या गृहीतार्था कृत्वस्तत्र समस्तेन कृतार्थता समापन केचित् सिद्धि पुरासनाः केनेही दीयमानानां कोदण्ड लगडादण्ड कोटप: पंचाष्ट षष्टी | को दोबैच्व प्रशान्तेषु को नामाप सुखस्वार्थ कोशलो धर्मसिंहोऽर्थं *मेण संल्लिखमंग क्रमेण वैराग्य विधीनियुक्तो श्रमेण फलमेतासु श्रीणाति वयते वस्त्रं शुद्धः कण्ठीरवः सर्प: श्लोक सं १२ ५.३१ १६० ५३९ १७८ ६५१ १९५ ६७२ २०१ ११८७ ३३६ १४४४ ४१८ ४६८ ३४३ ५७६ १७१० १२११ १६८९ २०५३ २०६० २१०६ १३७१ १८२५ २३२ ११०४ १५२२ १७४८ २१४५. [ ६७७ पृष्ठ मं० २५५ ७२९ २०५० • १००३ ४ ५९५ ५९७ ६१४ ३९८ *38 ७६ ३०९ ४४१ ५०४ ६२१ ८१ २१६ ५९५ ३३७ २६८ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.५८ ] मरणकंडिका श्लोक मं० पृष्ठ स. कोषो नाशयते धर्म कोच लोमं भयं मायां प्रलोक सं० पृष्ठ सं. १४६८ ४३३ १९८२ ३३३ शुदादि पीडिते देहे क्षुद तृष्णा व्याधि संहार क्षुष तृष्णादि महायाध भुषितस्तृषित: प्रान्ता क्षुधातृष्णादयस्तेषां ४४ १८७३ १८७६५४४ २२११ ३६ क्षे क्षम यावत् सुभिक्षं क्षेत्र वास्तु धनं धान्य १६६ ११७४ ५५ ३३० ६८३ २०७ अपामो वयं तद्यत् क्षपके पछा विधानेन क्षपकस्य सुखं पत्ते क्षपकाच्युषिते घिडणे क्षपकस्य कथा कश्या क्षपकावसथ द्वार क्षपकस्पात्मनो वास्ति क्षपको वाखिला स्त्रेधा क्षपयित्वेति वैराग्य क्षपकानन राजीवं क्षपको जायते तीन क्षणेन दोषोपयायसारिणः ७०५ ७४४ २१७ २२० १८२६० ४०५ ४१० १२३ P ४५४ १५७६ १७६६ ६५४ २५५ ४७९ क्षिप्तः श्वभ्राधनो क्षिप्रं क्षिप्तस्तत्रग्निना तप्तो क्षिप्रमााय गच्छन्ति ४७९ गणिव समं जल्पः गणेन साकं कलहादि दोष गणिन: प्रेक्ष्य शुश्रूषा गणे स्वकीयेऽपि मुणानुरागी गणाधिपः कृताभ्यासो गणे स्थिते सत्तीदक्षे गन्ति ऋषयः सत्यं गलस्याहार दाना गहित पुरसिकम निर्मित गल्छन्नुल्लंघते कोणी गत्वा मुख विहारराय गंभोरा मधुरा स्निग्धा गंभोरा मधुरा श्रव्या गंधे रूपे रसे स्पर्श गंभीरं मधुरं स्निग्ध गंमाया नावि मनाया गंध प्रसून धूपाद्यः ४८७ १८२१ क्षीणशक्त यंदा चेष्टा श्रीयते गुरु लघ्वादि २१९७ ६४० १५८ २८७ ५२२ ११५६ १५९३ ४५४ १७६ २१० २१५१ शुधया तृष्णया साधो क्षुद्राणामल्पस रवाना सुधादि पीडित: शून्ये क्षुधा तृष्णाभि भूतोपि शुप्यते कृष्यते लूयते ६२० गा २४१ १४६ २७४ | गाथका वादका नतंकाश्चाक्रिका ६५९ १९७ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक-सूची [ ६७१ नोक सं० पृष्ट ना १३६६ १८६३ ५३६ ८२६ २४५ २८३ २२१ ७३ १४२७ ११७७ ११८३३३४ श्लोक सं० पृष्ठ सं० । गानै मञ्चति वीसि गृहवास तथा त्यत्वा गाढ प्रहार विदोऽपि गृहीतोऽश्चग्रहाघ्राती गि गल्लीते मुघमानोऽङगी गिरिकन्दर दुर्गाणि ग्रता मुचता दारुण कल्मषं गो गीतार्थ रपिनो कृत्या गो स्त्री ब्राह्मण बालाना गोहिपीहमरासम रक्षी गोपनत्या ऋचा छित्वा गुड तैल षिक्षीर गोपासक्ता सुतं हत्या गुण दोषी प्रजायेते ३६५ ११३ गुणानां नाशनं वाचा ३७४ गुणाः स्थितस्येति बहुप्रकारा ४६३ प्रन्थो लोकद्वये दोष गुणं रमीभि। कलितोष्टभिर्जनः ५२१ ग्रन्यो महाभय नृणां गुरो निजं वोष मभाषमाणो ना गुणाना मालयः सत्य ८७० ग्राहस्सयोपदेशोऽयं गुवं रवयवः स्त्रीणां २०६ ग्रामस्थाभिमुखं कृत्वा गुणागुणो न जानाति १४३७ गुणरमोषः कलिते मनोरमै १५५४४४७ घोटकोच्चार तुल्यस्य गुर्वी दृष्ट्वामरो मानी गुवीं यद्यपि पीडास्ति १७७५ चन कंटे मतः सारः गुण बंधन मारुह्य १९३३ चतुरंग प्रपात्यापि . चतुरग परीगाम गृह्माति प्रासुको भिक्षा २२५ ___ ७४ पतलो गृध्नुतासक्ति गृहीतार्थों गणी प्रायः ४१४ १२४ . चनुf सकषामाणां गृानस्य यतेः सूरे Y33 पतुरंगमगीतायों गृहस्थ ववनं मुस्वा १६. चत्वारोवादिनोऽक्षोभ्या: गृहास्यवणं वादं य: ६३९ २७० चतुर्विधस्य संघस्य ग्रहीतु शक्यते जातु १००२ २८८ चर्म रोमाणि बायन्ते सुद्धा कांक्षकारणं सेवन ३५० । चमरीणां कचं शीर ३ ४०८ १११ २१९ ६९७ ७०८ २१. १०५७ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० } मरण कंडिका फ्लोक सं० १० सं० श्लोक मं० पृ० सं० ] १६३६ ४७८ चतुर्विधन संवेन चतुरंग बलोपेतः चन्द्रमा बढ़ते क्षीण छायाना मिव पायाना ५२५ ५२५ चा छिद्रापेक्षा: सेव्यमाना विभीमा १३८० डिबीरपिण्डवालोकः १८०१ XRY चारित्राराषने व्यक्त चारित्रं पंचमं सारो चारित्राराषने सिद्धा चारित्रं शोधयिष्यामि धारणा वारणा वाजिनो मेषका चारुदत्तो रिनीतोऽपि १७२ ३१७ ९७४ २८० ४५८ १७६ ५८३ १०८८ ४५३ चिकारयिषता शुतो विधकणो रोम कुपेषु चिरं तिष्ठति संस्कारे चिन्तामणिस्तपः सो चिन्तितं यच्छतो वस्तु चित्र दु:ख महावा चिराम्यस्त चरित्रोऽपि जननी भगिनी भार्या जननी जनक कान्त बनमध्ये भुजास्फालं अन्म मृत्यु जरा कोणी जम्ममृत्यू जरातके जघन्या मध्यमा पर्या अघभ्याराधनां देवीं बलानल विषयाल १०१६ १८६६ २०२० ४४५ ४४७ ५८६ १५४३ १५५१ १८८१ २०२८ ५४५ जन्ममृत्यु जरा रोग २२२० ६४४ 40 चूणितः कुट्टितस्विनी १६४८ ३३८ ४१६ चेनादयोऽखिला ग्रन्थाः चेल मात्र परित्यागी १२१५ ११७६ १६१८ २७४ जायते धनिनो बायः ४८० जाति रूप कुलश्वयं जायन्ते सकला दोषा ३४४ जानतं कथिते काये ३३२ जायमानः कषायाग्निः जानाति प्रासुकं द्रव्यं जानाति व्यवहारं यः जानतोऽपि तथा दोष जानीते मे यतः सर्वा १०६ ' जातस्य प्रतिसेवासः १४१ घस्यस्य संमुख प्राच्या १७४ ५५२ १६८ १८६ पौराणा मिद सांगत्यं ३४४ ६४९ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानतां पश्यतां तेष जिनेन्द्र भाषितं तथ्य जिन्हा करणष्ठ नामाक्षि निण्छेद्रियमस्या विनेश सिद्ध नेत्येषु जिनंरमाणी मिथ्यात्वं जिनामा स्वपरोतारा जिना पानिता सर्वा जिनेन्द्र वचन धा जिनेन्द्र यक्ष नागादि जिनार्थाया दिशः प्राच्या जिनेश वाक्य प्रतिकूल जिनेन्द्र भक्ति रेकापि जिनपति वचनं भव भय मथमं जी जीवाजीव विकल्पेन मिव जी तृण मुख्यं जी सैय्या सफले मंत्री जीवानाममक्ष सामग्री जीव पोतो भfमोक्षो पते प्रीतितः पाप जि जेतव्यः क्षमया कोषो येष्ठे सूर्यः सिते पक्षे जैनिका संगती नष्ट शामियान जु जे शा श्लोक [सं० २२२२ 중국어오 १६७६ १७२७ ४९ VE ११२ ३३० Vrq V= ५=८ ६३३ ७७७ 505 ८३८ ६३८ १७८१ १०६१ १०१७ २६७ १२९ ११५३ E लोक-सूत्री पृष्ठ सं० ६ ४५ ३६९ ४६६ ४६८ १५ २२ ४० १०२ * १७६ १७७ १९० २३१ 71 ૨૪૬ २७० ५१२ ५२५ ५३८ २६० EX २६९ ३२२ काले ज्ञान दर्शन चारित्र ज्ञान विज्ञान संपन शारदा भवा ज्ञानेन शम्यते दुष्टं तयुक्तः ज्ञानोद्योतो महोद्योतो ज्ञान प्रकाशके इत ज्ञानोचोलं विना योऽत्र ज्ञानं दोष विनाय ज्ञानं परोपकाराय शानाराधने प्रीति ज्ञान दर्शन चारित्र संपद शेयं प्रत्येक बुजेन तत्र केवलिनो व तंत्र जीवादि तत्वानो तदत्सगिक लिंगान तपस्वध्यंतरे बा तपस्तपोऽधिके भक्ति सद् दुष्ट मानमं येन तस्मादेकोत्तर श्रेण्या शरियते कर्म तत्तवोऽभिमतं बाह्य ध्येयं सर्वदा यत्र शे तत्र विध्यापिते मद्यो ततः समीपे व्यवहार देविन ततः स्थापनाकारी ततो वमस्तस्य [ ६८१ सं० पृष्ठ सं० ८१ It's १७४ (0) ६४८ ७६४ ७९८ ८०० ܐܘܪ ५०३ १४०३ १४१० tv १९३६ ३७ ५५ ६० ७९ १०८ १२० १४७ २१७ २४३ २४५ २६९ २१४ ૪૭ ४७६ ४७६ ५७ -१ १९४ २३६ २३६ २३७ २३५ २३८ ४०६ ૪૭ ४३१ ५९१ ૪ २० २२ ३० ४२ ૪. ७२ ७८ 195 ८५ ६७ १४५ १४६ १४६ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२] मरणकंडिका श्लोक स० पृष्ठ सं. श्लोक सं० पृष्ठ सं० ४६० १८७ ६२२ ४८० ६६. ४८१ ६९१ ४६२ ७१४ १७५० अस्येति सायं माणस्य सदा ति कुर्वन्ति तप्तायः प्रतिमाकीर्ण तष्ट्वा लोकेऽखिलं गात्रं तरसा येन नीयन्ते तथा सिद्धि समीपस्थाः तपसा दीयमानेन तपसामायमानोऽनी तदीयं सफल जम्म तत्र द्रयाणि सर्वाणि तपस्यवस्थित चित्र सवभावेजलाशा ततो वेश्यमानोसो ७३२ तानी क्षपको नूनं अतः सम्यबस्व चारित्र तस्थ सूत्रार्थ दक्षण तपो भाव नियुक्तस्य तस्या नयन्ति चत्वारो तस्या मंवृत पाण्यानां तत: कृस्या मनोजाना ततोऽसौभावितः पान तपोशाम चारित्राणि तथा शीलानि तिष्ठन्ति तथा निरीक्षते व्यं ततोऽस्ति सप्तमे मासे तरुणस्यापिगम्य तम्कराणां मयं जात तस्माम्मनोवच काय ततोहोचव नीचस्वे तपः फलति कल्याणं सपः संसारकान्तारे १९४५ ५२२ १९७० ५७२ १८५ ५७५ १९७५ २०४६ २१७७ ११३८ ११८४ १२४७ ३५३ ५३ १२६२ ३७७ ४४४ ४४६ १२८० १६४२ १६६३ २०६३ ता तावन् मे देहनिक्षेपः ताभ्यां प्रपोडितो बाढ़ तम्पार्य प्लोपते कुष्ठी ताशी वेदना वने साडने वाहने बंधने त्रासने ताबद वेदनया नावा ति सितवाक्षि पानीयं तियंगकं मुपर्यक सिलनास्या मिक्षि सिष्ठस्यामाशय स्याध तियंगति सीत्र विचित्र वेदनां तिरस्कृता नृपाः सन्त: १६७ १३७२ १४५६ २२८ ७४ ४३० तन्नास्ति मुवने वस्तु तं गृहीते मार्म बेदी गण स्व ततोऽपथेन घावन्तः ततः मील परिदास्ते तदा समबने रम्ये तस्य शुद्धोम भावोऽस्ति तपः क्रियाया मनिशं स्वविग्रहो नतोऽमुसासनं श्रध्यं तमा देगनां कृत्वा तवापदेश पीयूप तथेति मोहमापन्न: ६५७ १५२६ ४२ २७५ ३०० १०५६ १५५८ YYE १५५६ तो ४८५ सोत व्यथासु योनीषु ४५५ । तोर्ण त पयोषीनां १४८ ५३२ . १६० १५८२ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक-सूची [ ६८३ प्रलोक सं० पृष्ठ सं ६७५ त्रिवली कलितालीको विकाल दोषदा नित्यं निदमा पेन पात्यते निदर्श विकिद्धि तृण क्षोणि पाषाण काष्ठ तृतीयं तद वो सत्यं सृप तुल्यमवेत्य विशिष्ट फलं सणादि संस्तरो योग्य श्लोक सं० पृष्ठ सं० १४३२ १४७० ४२८ १७०२ २११७ ८५६ १७५६ बेधा विशुद्ध वित्तम ३४६ ७१७ श्रलोक्य मुपलभ्यापि श्रलोक्येन यतो मुल्य ७७४ २३० २४३ तेष संसर्गतः प्रीति तेन तैलादिना कार्या ते बीजेन विना सस्य तेभ्यो निरसने लेषो तेजो नश्यति जीवानां ते धग्या ये नरा धर्म ३४४ ७५१ १२१७ ११० १९५१ १९१० वं कार्यवपरिसावी स्वमतः समिती: पंच एवं पराजित्य नि:शेषा ५८० १२६६ १५६५ ४५७ तेजः पदुमा तथा शुक्ला तेजो लेश्या मधिष्ठाय तेथभ्या शानिनो धीरा सेवा कम पायेन ६.२ २०७५ २२१४ दयमान प्रदा सम्यक दम्यमानस्य लोचन पन्तधावन कण्डूति दर्शने घरणे ज्ञाने तोयं विषय तुष्णाया १९८३ ५७७ २३४ स्य २६३ २९४ ९२ ९३ ३७९ श्यजता संपमं धा स्यजस्यारापका देहं दर्शने करणेशाने पाते सकलो लोको ३१३ 9. २००६ ५८४ २२४ 2 त्या दौन जान चारित्र पत्तं सातिशयं सन स्वाज्याऽऽर्या संगति गरवत् ३३४ १४ ५२७ १५९ ६४३ त्रिः करवा लोचना सुद्धा त्रिविघं वा परित्याज्यं त्रिलोक दाही विषयोस तेमाः दशषा स्थिति कल्पे बा पदाति शम अपकस्य सूरि दर्शन शान चारित्र २१८ | वदाति सौख्यं विधुनोति दुःख ३२९ । वाते न हुताशेन २३० ११. ०६६ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ ] दष्ट काम भुजंगेन दाते पंचमे मात्र दशाहं कललीभूतं दर निःशेष चर्मा दशास्ति मनः शुद्धिः दस शापं विनर दोषं दर्शन ज्ञान चारित्र दयालो: सर्वं जीवाना द: क्रियमाणेऽपि दर्शन शान चारित्र दर्शन द्विपमधिष्ठितो बुधो ददाति चितितं सोडयं दर्शन ज्ञान होमास्ते दंड कपाटकं कृस्वा क्षन्ता व्यक्षाणि गच्छन्ति दायकाना मरोषस्य दारिद्र्य विनसां व्याधि दारितः कपिष्टस: दिवसे प्लोबसे सूर्या दिग्देशानथं दण्डानां दीक्षा प्रभृति निःशेषं दीक्षितोप्रथमः कश्चित् दीक्षित्वापि पुनः साधुः दुलो यस्य जायेते था ट्रु प्रलोक सं० पृष्ठ सं० ९२४ २६७ २६८ ९२७ १०५४ १०८३ १२३० १४९५ १५७२ १६९४ १५०१ १७८२ १६४७ २०४१ २०६० २१८५ १९५ ३६५ ९९१ १६५२ ९३० २१५३ ५.३३ १३२४ १३९३ मरकंडिका ७५ २६९ ३०५ ३४८ ४३२ *૫૨ ४६ १ ४३७ ५१३ ५६४ ५६१ ६०५ ६३५ ६४ ११६ २८५ ४८ १ २६६ ६२७ १६१ ४०१ ४०४ २६ दुर्वारकारणं यस्य दुश्चिरं पश्विमे काले दुर्जनेन कृते दोषे दुर्जनापराधेन दुष्टानां रमते मध्ये दृष्टोऽपि मुचते दोष दुःखतः संग्रमं लदा दुःख कुलित स्वान्त दुःसहा बेवनैकत्र दुर्भिक्षेमके मार्गे दुर्गती यानि दुःखनि दुचः कामिनी पार्शः दुःख यान निकुणा निषेविताः दुराशा गिरिदुर्गाणि दुरन्ताश्चचाषुष्टाः दुर्जयानर निपि भर्तृभिः दुर्भिक्षे परके कक्ष दु:स्प खाद्यमानोयत् दुःकृत कर्मविपाकवशत्यं दुःसहं करीभूतः दु स्वया प्राप्त दुभिक्षादिषु माजरी दुःख जन्मसमं नास्ति दुःखोदके भवाम्भोधौ दुःशील भूत बेताल दूरस्थितं फलं रक्त' दूतिका हृतये येयं श्लोक [सं० पृष्ठ सं० ७६ ३० ६१ १०१ ११० १११ १११ १४६ १७० १७१ १६१ २४६ १८४ ३५५ ३५६ ३५७ ३५९ ४५० ५६० ५६५. ६३८ ३४ ९५५ १४२८५ १३६७ १३७६ १४९४ १६११ १६४७ १६५६ १६७१ १६८३ १७३० १७५३ १९१२ २११६ [प्राराधनास्तवनं ] ८६४ १३ २७५ ४१४ ३६८ Yo ४३२ ४६१ ४८० ४८२ ४८५ ४८८ ४६९ ५०५ ५५५. ६१५ २५९ ६५.३ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृष्टि बुद्धि स्थिरीकारी सूर्योऽथ शूलस्थ दृश्यते भुवने दोषा दृष्टश्रुतानुभूतानां दृष्ट्वात्मनः परं हीनं इष्टष्टानि सौख्यानि देशकाल वयोभाव सु देय: संघाटकोऽयं देशो जाति कुलं रूपं देह कर्मसु चेष्टन्स देवेंरेकं वृणीष्वत्वं देवेभ्य: प्रातिहार्याणि बेहस्य बीज निष्पत्ति देस्या सुचि निर्बीजं बेदरुपाक्ष मयत्वेन देश संमति निक्षेप dreast सुखं मुक्त्वा देवये मानसं दुःखं देहाचं वरः सार्धं देवो महको मूटवर देशो जातिः कुलं रूप देशrfare लब्धेषु देवमान तिर्यभ्य: वह त्रितय बंधय दोवेम्पो यावदुःख व श्लोक सं० १५० ८०५ ९१३ ११५० १४४७ १८०२ श्लोक-सूची ४५.१ पृष्ड सं० ४९ २३६ २६५ ३२२ ४२० ५२४ १२४ ९ ४२८ १३० ४४८ १३६ ૬૭ २०३ ८१५ २४३ १०४१ २६४ १०५० २६७ १०५१ २६८ १२१९ ३४५ १२५० ३५४ १३४२ ३९० १६७६ ४८७ १८३५ ५३१ १८९४ ५५० १६६० ५६८ १९६१ ५६९ २११५ ६१५ २१६३ ६३६ ४३ १३८ दोषमुद्गात्यते तस्य दोनो निवेशितो यत्र दोबा बत्तीर्णोऽपि ददाति पीडां दोषान्न प्रांजलीभूय दोषा कामस्य नारीणा दोषाच्छादनतः सा स्त्री दोषाणा मालयो राम दोषा से सन्ति नारीण दोषानिति सुधी वा दोषाय जायते ज्ञानं दोषो न मानोऽपि द्योतनं मिश्रणं सिद्धि यो दर्शनादीना द्रव्यथिति परित्यजय द्रव्यभाव श्रितिज्ञाना: द्रव्यं क्षेत्र सुधीः फाल द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय यथा दुःखं द्रविग पहिलीभूय द्रव्यापहरण द्वार द्रष्टुं घृणापते देहो वयं क्षेत्रं बलं काल द्वादशात्मक तपोरयंत्रित रिपाइ द्वारे हावापीत्यनुप्रेक्षा च द्वा [ ६८५ लोक सं० पृष्ठ रां० ૪૨૫ १५० ૪ १५.२ ६२५ १६८ ६४५ १९३ ५१२ २६५ १०१३ २९० १०२३ २६१ १०३१ २६३ १३४५ १४०४ १५०६ २ १८० १८१ २६३ ४८१ ८८९ ८९५ १०५२ २०६० १९५६ १९३४ १९६५ ३६१ ४०६ ४३६ १ १ ६० ६० ८३ १४२ १४७ २६० २६१ २६८ ६०८ ५६७ সুভ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ ] मरकंडिका श्लोक सं. पृष्ठ सं० श्लोक सं० पृष्ठ सं० द्वितीयं तद् वयोऽसत्य [पाराधना स्तब] निपमिव हरिकाम्लामभु मीनेचकोव ११६० ३२६ धर्माराम महातरो: ३० ६५८ द्वितय लोक भयंकर मुत्तमो १५०५ ४३५ दि चतुबहुपादा ये १८२२ ५२८ पान्यं कृषीवलस्यैव १४३८ धावते देहिमामायु १८०८ ५२५ दीपायनेन निःशेषा २०८ the cho १३१ हूँ योजन: प्रकोपेन वर्ष कलिभयं वरं दुषमप्रन्ययं निन्दा १४४१ १४४८ धीरता सेनयाचीरो धीरोऽखिलांग पूर्वको धीर राधारितं धन्याः धीरे राचरित स्थान धीरोऽवन्ति कुमारोऽगात ५९६ १४५४ ४६२ वै हूँ षिकी कायिको प्राण २४६ धुनोते क्षणतः कर्म ७४७ ७ २२१ पृति स्मृति मति श्रद्धा धूत जिन समयो [प्रशास्ति] १ ६६४ १६१ धर्माधर्म नमः कालः घम्यास्ते मानवा लोके प्रन्म: स त्वं वंदनीयो बुधानां पन्यं स्त्री व्यावनिमुक्ताः धर्म पाप मिकतन शस्त्री धरण्यामा चमग धर्म धर्य कृतज्ञरय ध्या १४६१ ९१४ २६५ १७२८ १४५ १५६५ ४४९ १७६० ५१७ घन्यस्य पार्थिवादीना धम्यं चतुविध्यात्या धर्म सर्वाणि सोयानि धर्म भवति सम्यक्त्व धर्मध्यानमसिमान्तो धर्म कर्म पराधीनाः धन्या महानुभावा स्ते १७८४ १९५० १९५७ घ्यायति मीचति सीदति रोदिति ४६४ ध्यान प्रयुक्तो यात्यध्वं ४६ ध्यान योधा. वशीभूता ध्यान विघ्नं करिष्यति ५१५ ज्याने प्रवर्तते कांक्षन ध्यायत्येकान घेतस्को ध्याग्ता पूर्व दक्षेण ध्यान करोत्यवष्टम्म ध्रि ६०३ । प्रियते शुद्ध शीसाभि ५६७ १६७१ १९७८ ५७ १९६७ २०३१ २०७७ ५८९ १.४० २६४ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्रुव सिद्धिश्चतुर्ज्ञान ध्वाकान्त कुशीह म वित्ते व्रतं शीलं न मू दन्तोष्ठ कर्णाक्षि न स्कन्ध कट्ट न को बधिरो न प्रवर्त्तथि मार्गे न शक्नोचि स्याज्य न कि यूनोत्पविद्यस्य न चेद दोगु नमस्कारेण गृह्णाति न शक्यते वशीक ध्वा न नरस्य चन्दनं चन्द्र नरो मातेव विश्वास्यः न विश्वासो दया लज्जा न रात्री न दिया शेते न वेत्ति नवमे किंचिद् न पश्यति नेत्रोऽपि नरो विरागो बुध वृन्द वंदितो मग भूमि नभोऽम्भोषि न दृष्टमपि सद्भावं न रामा निखिलाः सन्ति नराणां भेदने शुल न पश्यत्यंगनारूपं न दोषश्वापदे भीमे न feasts रदोऽभ्येति श्लोक [सं० पृष्ठ सं० ३०६ ११३१ ६५ ૧૪ ९५ १४२ १४४ २७८ ३३६ ६०६ ७६६ श्लोक-सूची ११५८ ११६५ (૬૨ ९५ ३१६ २४ ३६ ३६ ४७ ४८ 公益 १०४ १८३ २३४ ७९२ २३५ ८६३ २५४ ८६८ २५५. ८९२ २६० ९१७ २६६ १२ २६६ ९४५ २७३ ९७३ २८० १००० २८७ १०१२ २८९ १०३४ २६३ १०२५ २९२ ३२६ ३२८ ३२६ नदी जलै रिवाम्भोषि नरश्यादि निदानं नरत्व संयम प्रप्ति नग्नो बालस्वास्वस्थः नदी जलै रिवाम्भोषि न दोषाननपाकृत्य न विभीष्यः स नो वाच्यो नरके वेदनाश्चिश्रा न तस्य संपन नरः पापोदये दोष न कोपि विद्यते श्राणं नगदुर्गेश्री शैले न योधा रथ हस्ताश्वा न कोपि देहिनः शत्रु न यस्यास्ति स्मृतिश्यिते न कर्म निर्जरा जन्तो नष्टा प्रमादती बोधि: न धर्माभावतः सिद्धा न कर्मा भावतो भूयो नासाहति संन्यास नायबंधन बरोऽन्य नालिका धमयज्ज्ञात्वा नास्तीन्द्रिय सुखं चिज् नारितः परोस्त्यस्या नामान्यपि दुनि नारोभ्यः पश्यतो दोषा नारीणां दर्शनोद्देश नाभ्यन्तरः स संगस्य ना [ ६८७ श्लोक नं० पृष्ठ स० १२०० ३४० १२-१ ૨૪ १२८३ १३१४ १३२५ १५२० १५९० EE १७४२ १८१७ १८२० १८२१ १-२४ १८५० १९३५ १९३८ १९६३ २२०८ २२१५ ७८ ૩૩૪ ३८३ ३८५ ४४० १०१४ २०१५ १०२९ ११४० ११७५ ४५६ ४७८ ५०३ ५२७ १२८ ५२८ ५२६ ५३५ ५६१ ५६२ ५७० ६४२ ૬૪૪ ३० १०६ १६५ ३४२ ६५२ ४४ २५० २१० २६१ २९२ ३२० ३११ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक सं पृष्ठ सं. १९४ १९६ ४६३ ६६६ ६७४ ५३५ ६६५ २०७ २२२ ७५० ८४१ ८४२ २४० २६४ २९५ 51 ६८८ ] मरकंचिका लोक सं. पृष्ठ सं० नार्थे संचीयमानेऽपि नि:शेष भाषते सोपं नागो भोगरते रस्ति १३३१ ३७ निस्पर्शवग्निश्चतुरंग दोषं नास्ति निद्रा तमस्तुस्य १५२३ निविडाः संवृत द्वाराः नायोऽपि लभ्यते कोप १७०७ नि:स्निायव सुब स्पर्श: नाना देशगता: पाषा १२. निर्यापके समय स्वं माना प्रकृतिके लोके १८४७ निशि जाग्रति पत्यारो नाक्ष सी निगृह्यन्से १६३. निर्यापको गणी शिक्षा नाना विधानि कर्माणि १६४० ५६२ नियम्यते मनोहस्ती नाना विद्यासु जातासु २१२९ ६१८ निर्वतंना सनिक्षेपर नाम कर्म क्षयान तम्य २२०० नियंतनोपनिर्दहो निरस्तोगांगरागस्य नि निमज्यन्ते न पानीयं निरिणस्य सुखं सारो निधानि लजनीमानि नि:यस सुखादीनी निरीक्षप्ते यो पपुष : स्वभाव निति संयमस्थोपि निसर्ग मोहित स्वान्तो निपुणं विपुलं शुद्ध निरस्यति तप्तो लज्जा निकुपो निरनुभोगः १६० निर्मपादं मन संगात निद्राजयः समाधान २१७ निःसारा मलिना जीणों निद्राइद्धि मद स्नेह निधन मृति तत्र यदेकको निगृहीतेन्द्रिय द्वार: निकषायो यतिदन्ति: ३२३ निःसंगे जायते व्यक्त निगंणो मुणिनां मध्ये निदन गोऽल्पसौख्याम निगुणोऽपि सता मध्ये ११४ निदान माया विपरीत दर्शन निपीडपमान: क्षफ; परीषदः । ४७४ निषेधु सिद्धि लाभस्य निवर्तनं न दोषेभ्यो निदानेऽपि कुलाबीनि निरयोत्पीडी पीडयित्वा समस्तांस ५०३ निश्वमाणो बनिता कलेवर निर्यापकेत शान्तेन ५१९ निरस्त दारादि विपक्ष संगती निर्यापक गुणोपेतं निदानी प्रेक्षते भोगान नि:पत्रः कटुक: शुष्क ५८० निघते संयतः सर्वे निवेदितं मया सर्व १८ | निर्मानी लभते पूजां ३१७ ३२१ ३२१ ३४० .4x १२३१ १२७८ १२७२ १२९७ ५ १३३५ १४०० ४०५ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक-सूची [ ६८९ श्लोक सं५ पृ० सं० । श्लोक सं० १० सं० २४२ १५२४ १५६८ ३७१ ४३१ । नृवं जाति: कुलं रूप नृत्येऽहता हुता वार्थाः नृत्वं सत्वं बलं घीर्य ४५२ सूत्रे योऽअसुखं मूढो ४५३ नृपे हते हि चौरेण ६०३ १२७३ १९२२ २१४७ १५७३ ५०४ नेह सिद्धपति विद्यापि ७७९ १७७६ निषेवितः कोपरिपुर्यतो निगं जय नरं निद्रा निद्रा प्रीतो भये शोके निद्रा विमोक्ष काले त्वं निद्रां कुरुते गुर्वी निमज्जतं भवाम्भोधौ निर्यापन मयांदा निमेष मात्रके सौख्य निराकृत्य वचोयोग निदो दारिद्रय मंश्चर्य नियपि मपि नि:पुण्यं निसर्गत:कोपि समेपि धल्लभो निद्यस्थान भवाः कामा निसर्ग मलिन: कायो निवेशयन्ती भुवनाधिपत्ये निषद्या नाति दूरस्था निबद्ध प्रथमं तत्र निरुद्ध कथितं तस्य निष्पाद्य सकसं संघ नेक मप्यार येन ५५४ १४० निःक्रम्य स्थंडिलानोस निषद्योत्थान निःशेष तिष्ठिताशेष कृस्यामा १६०१ नोपकारं कुलीनोऽपि ५५४ १९०८ परीषहोपसर्गावि २०४३ परिकम निधातय २०४६ ५६४ पंडित रितात्स्थिं २०५५ परोपदेश सम्पन्न २०६६ परिकम भय ग्रन्थ २१०४ ६१३ परितो धावते चेता २१०७ पर्याय रक्षितो दीर्घ पंचेति भावनात्स्यवस्वा २२०६ ६४३ पर्यकम पर्यक पर दोष परोषाद पवित्र विद्योद्यतदान परित परापवादो द्यत यो जरन्तः ३७७ परीष धोरतम स्वसंघ १४०२ __४२६ परीषहेषु विश्वस्त १५०२ पंस षट् सप्त वा मरवा १५०८ ४३६ । परकार्य पराधीना। १६३ ७५ २३० ३५४ 12 नीचं पान मवस्थान नीच गोत्रं नरं मानो १२१ ४०१ ४०५ १२२ नीला प्रत महावारि नीचरये मम कि दुःख नीचेन खाद्यमानोऽपि १२५ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६. ] मरण कंडिका श्लोक सं० पृष्ठ सं० ५८५ १८१ ६२६ ५१८ १६ १८९ पावप रुनतः सेयं पार्श्वस्परस मनारोग्यं पावस्थान निज दोष पानं नयन्ति चत्वारो पाषाणोऽपि तरेत तोये पावकः सुखारुणां पाप कर्म महाटग्यां पार्श बंदोऽभितीभित्रो पादयो कटके मरने १.०८ २८९ २६२ ३९८ ४८१ २१२८ ७५६ श्लोक सं० पृरुक सं. परैः सूचयते दृष्ट ६०२ परिविष्टेऽभवद् दोषो ६०९ पंचाक्ष प्रसरो यस्या ६१२ पर्वतेषुपथा मेरु ८१६ २४३ परी सपों वदंती निरस्पये ८५१ २५२ परकीयो स्त्रियं ष्ट्वा ९५६ २७६ परो वास्ति मुख स्पर्शी ३०२ परिहार्य प्रविहन्ति देहिनो पठति जल्पत्ति लुउति लुपते ११८ ३३७ पर दुःख क्रियोत्पन्न १४९६ ४३४ परेषु विद्यमाने १५०३ ४३५ पलालरिव निःसार ४४४ परीषहातुरः कश्चित् १५८९ ४५६ पंचधा स्थाघरा जीवाः ४८३ पराभने तिरस्कारे ४५६ परोऽयं विग्रहः सायो १७१४ परीषह प्रभवति संस्तरे स्थितो पंचास्तिकायषट्काम ५२० परिणापान्तरेवंगी ५४१ पर्वतानि तीर्थाणि परस्य दीकिसा येन ६०३ परिषहोपसगाणां २११२ परोषहोपसगाणाम पंचधाशुवतं प्रोक्त २१५१ पंच मानावृतीस्तत्र २१७२ ६३२ पिव सम्यक्त्व पीयूष पिशाचेनव कामेन पिलिंषितं दन्त ३०१ ४९० पीडामा मुघकासम्म पोनस्तनीन्दुवमत्रा ११०५ १४८ २०५० पुनर्भव लतामूल पुद्गला ये शुभाः पूर्व पुद्गला विविधोपायः पुरुषः कथितं घोर पुण्योदये पर्रा कीति पुरो गंतव्य मेकेन पुरत्नाति न जायन्ते पुरस्य खातिका यदवत् पूवेदं मतपिछाषा ४८८ १४०१ १७४० १७६० १८१८ २०५६ १०३७ १२४६ ५२८ २६७ ३५२ पा २१७० पादोपगम भक्त ३२ पादकावसथद्वार पावस्थामप्र संसक्त १०७ । पूजा संपादक वाक्य Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ पूजो सम्मन संगेन पूर्व कुर्यावसमाधान पूर्व फारराति देवेन पूर्व भवाजित दुष्कृत जात पूर्व मुक्त स्वयं प्रख्या पूर्वकर्मागतासात पूर्वजन्मकृत कम निर्मित पूर्वस्थ कर्मणः पुसो पूर्वोक्त विधिना ध्याने पूर्व संयोबनान् इस्ति पृष्टोऽमृष्टोऽपि यो कते पृथक्व [ग] पृथ्वीवाग्निकापादो श्लोक-सूची [ ६६१ एलोक सं० पृ० सं० लोक सं० पृ० सं० ३६. १११ प्रत्याख्यानोपदेशाची ४५६ प्रतिकारती तनूत्सर्गे ७४८ २२१ १६२५ प्रथमं तद वचोऽसत्यं १६८२ ४८८ प्रवृत च ततो लोभे ८७ ૨૧૬ १५.६ ४६४ प्रसूनमित्र निन्धं ९६२ २८ १७११ ४९४ प्रवम्यं सोश्यं वितरन्ति पुःखं १३१७ ३८४ १८५७ ५३७ प्रमादवबना: साधु १४७५ ५६२ प्रकटोऽपि जन र्दोषः ६३० प्रतिक विधातव्य ११८८ ४५५ ६३० प्रविशन्ति रणं पूर्ण १५९६ ४५८ प्रपेवे मशकर्वशः प्रमाणी कुरुते भक्तो प्रत्यास्थानमनादाय ४६७ प्रत्याहस्थ मनोऽक्षारिण १७६२ प्रतीकारोस्ति रोगाणां १८२६ ५२९ प्रतीकारो न रोग १८०९ १८२७ प्रदेशाष्टकमस्यस्य १०६७ ५४१ प्रतिपय तपोपाही २००२ प्रसिदो यदि संन्यासः ५९६ ११७ प्रकाशमप्रकाशंच २०५९ २८१ प्रकाश निक्तिं मंचं १०६६ ३०७ २८५ प्रययसि भवमार्ग मुक्तिमा व्रणक्ति ११६१ प्रतिबंध प्रतीकार १२३३ प्रमाणं काल बाहुल्य २०९९ प्रवज्या ग्रहणे योग्यो ४७१ १४४ प्रविकीर्ण यथा वस्त्र ४८४ ६७३ २०१ प्राप्ताश्चारुमारित्र ६५७ २०२ प्रासुकं सुलभाहारं १५६ ६८२ २०२ । प्रारभारानिमाराम २१३८ ११ ५१५ पौर्वाहिको यथा छाया ५२६ ५८२ ७७ २६६ प्रबत्ती सुखं यस्य प्रणिधान विधा प्रोक्त प्रदेशे पावनीभूते प्रणम्य पतितः संघ प्रवज्य संघमन्सि प्रवृश्चमं संवेगः प्रपाल्पा पि चिरं वृत्त प्रवेशे निर्गमे स्थाने प्रभ्रष्ट बोषि लामोऽत: प्रमाण रवितो योग्यः प्रत्याख्यान विवोधीराः 1४७ प्रा प्रलाद जनक पम्य Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ ] मरणकंडिका १७ श्लोक सं० पृष्ठ सं० २४३ ८५६ २८९ १३३७ १५५७ ४४८ प्राप्म दुलंम संतस्या प्राणिषातादयो दोषा: प्रांजल बिनास्त्रीषु प्राप्यापि कृषध तो जीयो प्राप्योपदेश पीयूषं प्राघुर्य गह' भावानां प्रायोपगमन फेचित् प्रि प्रिय वर्माशय: साधु प्रियस्य विगमे दुःख प्रियाप्रिय पदार्थाना प्रियायोगाप्रिय प्राप्ति प्रिया सवित्री पितृ देहजादी प्रो २१४३ १५३ ४०५ ५१० ५७६ १७७० १७०८ १२०४ श्लोक सं० पृष्ठ सं. बहिः शुदितो लिंग १४१६ ४०९ बलीयेभ्यः समस्तम्यो १७०४ ४९३ बलं पलायसे रूप १८११ ५२६ बलकेशन चक्रेश १२८ ५.३० बंघस्य बंधनेने १८४० ५३३ बंधन तुल्यं चरण सहायं १८४१ ५४३ धुरं सावको धम १८५३ गह सस्थान रूपाणि १८६४ १३. बंभ्रमीति चिरंजीवो १५८५ बंधू रिपू रिपुबंधु १८९६ बल ध्यान पतेधते १९७९ बहुनात्र किमुक्तन २०२१ (आराधनास्तवनं ) बंधुः स्वर्गापवर्ग प्रभव वा बाह्मनतपसा सर्वा वाह्यामाभ्यातरी कृत्वा २७७ बालान् वृद्धान् क्षकाम् बाला स्वांकोचिसा स्टा बाह्याकारणाति शुशोऽपि ६.७ १८३ बाहुभ्यां जलधेः पारं २९ मासे यदि कृतं कोपि १०७० बाह्यमाभ्यन्तरं संग १९७२ ३३० बालपचरति पत्रक १२५८ ३३३ बायाभ्यन्तर भेदेन १९८८ बादरं तीर्थकृस्वता २१९२ २१०१ प्रोता भक्त प्रतिशेति प्रोक्तोभक्त प्रतिमायाः २१५७ ६२७ १०९ ४०० ५२० १५७ २०७ १०१० ३०२ ७६८ बहीभिर्मवकोटिभि बहुदोषाकरे यामे बह दुर्लभ सातत्या बहुपकार पूर्वाग बाहिवदन्ति चत्वारः पलानि नायकेनेव ग्रहल्प व परद्रष्य बन्धु जाति कुलं धर्म बबने महिलापाश बधने छोटने छेदने भेदने बध्यते समितो नार्यः बन्षमुक्तः पुमबन्ध बहिनिभूत बेषेख ८८३ २५९ २६६ ९३२ १०२४ ६३६ २६२ ३४६ बीजादयो येम शरीर धर्मा १११६ ३१३ १३९२ • १४१२ ४. | दुधनं शील रहिता नितम्बिनी ३९७ १२० Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६९३ प्रलोक सं० पृष्ठ सं० २०८४ २२३० १४६ २६९ १७१ ५६२ ५६४ ६४२ १९२ २५५ ३६० १२६८ १२७० ३६८ ५१ ७०३ श्लोक-सूची श्लोक सं० पृष्ठ सं० बुभुक्षा सादगी माता १६८७ ४८९ भत स्यागोस्स्यवोधारो भवति पंडित पंडित मृत्युना ब्रह्म व्रत मुमुक्षूणा ३४३ १०६ मा भाव शुश्या विनोत्कृष्ट भजते मरण पानं मावशल्यं त्रिधा तत्र भक्तिः पूजा गोवादो भावशास्य मनुद्धृत्य भवत्यन्ये भवाः सप्त भाव शुद्धि न कुर्वन्ति भक्तस्वाग: प्रशस्तेषु भाषमाणो नरः सत्यं भक्त त्याचवीपारं भावना भावयेने ताः भावनाः समिति गृप्तयो भक्ति प्रलादनं कोक्ति भक्ति रहस्सु सिद्धषु भाव शुद्धि मधिष्ठाय भवम्ति दोषानणेऽम्यवीये ४१२ १२४ मि भद्रः सारणया हीनो ४१६ भिक्षाच विमानेन भयमान मृषा माया ५७२ भी भवत्याक्षेप निर्वेग ६८४ भीष्यमाणोऽध्यहोरात्रं भवंति येषां गुणिनः सहाया ७१८ २१३ भीशोकमानमारसयं भवद् म महामूलं ७५५ मोत: करोति दुःखेम्या भक्ति महस्सु सिषु भीरु जस गाणि ग्लान भक्तिमाराषनेपानी ७८० भवभय विचयन बितय बिमोदी ८८२ २१८ भूज्यते यदनिच्छन्ती भवन्ति सफला शेषा भुजंगीनामिव स्त्रीणां भवन्ति सर्वदा दोषा ९९५ भुज्यमानश्चिरं भोगे भवम्तो भविनो भूता १२३५ ३४९ मुक्तोभिताः कृताः सर्वे भव पारीर निवेद १२८४ मुक्त पूर्वे यते ! कोऽस्मिन् भक्त्यब्रह्म पर्याय अक्रमा भोग च्युताः सन्तो भवान्तर समं गत्वा १८३५ ५॥२ भवन्ति जल्लोषषयो मुनीता ५५५ মু২ি গজ জয় নয়। भगवंतोऽत्र ते पूरा २०७४ भूरि श्रृंगार कल्लोला भक्तत्यागः सपोचारो २०६३ ६०४ । भूस्या भूस्या भृतो यत्र २०३ १६७२ १८५६ २०५२ ४६ ५६५ २७७ ३०५ १५२४ १४९० २०२२ ५०७ १८७ १२९ ५४. Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ३२१ ३४६ १५२ २२७ ३२४ ६६४ ] मरणकंडिका श्लोक सं• पृष्ठ सं. पसोक सं० पृष्ठ सं. महान्तं दोष मासाद्य २७० २७८ भोगने चकतेऽन्येन १८५ मत्सरा विनवायास १०१९ २९१ भोगायं मेव चारित्रं १२९६ ३७६ मयूर देहाद वेहो भोगा, वइते साधु १३०४ ३८० मन्मनः कोमल वाक्यः ११४२ भोगेषु भोमि गोण ३६६ महिला मामथावास मोगमध्ये प्रदोक्यन्ति ३८५ महापनं समृोऽपि १२०१ भोगिनश्चक्रिणो रामा १७३० महाश्रम करे भारे १२३४ भोज्य कण्ठगत प्राण मनसो दोष विश्लेषो भोगं रोगं धनं शल्य १८२४ ५३२ मनोगुप्यषणावान १२६१ ३६४ भोगोपभोग संध्यान २१५४ ६२७ महिला लोकनालापी १२६५ भोगिनो मानवा देवा २२२३ ६४५ महावतानि जायन्ते १२७१ मधुराः सेवमाना हिं ३७६ भ्रष्टोऽस्ति दर्शन भ्रष्टो ७६६ मध्यंदिन दिनाकं तप्तस्य १३२० अतः महि ६.१४ ४०८ मधुलिप्ता मसेर्धारा १४२० ४१० महागुणमवृत्तस्थ मयमास रसासक्तः ૪૨૨ मन्यते दमितं सत्त्वं महोपशम सत्याय १४७६ मंदिराधिषु तु गेषु १७९ मनः काया सुख ध्यान महाविकार कारिण्या ४५० ममत्वं कुरुते हित्वा २६७ ४५० मनसा वपुषा वसा भगवन् । मधुलिप्ता मारा ५०४ मनीषितं वस्तु समस्त मंगिनी ५३६ मंदो भवम्ति जीवस्य महामते ! तिष्ठ निराकुलः स्वं ५८० महन् मध्यम नक्षत्रे २०६५ मध्ये गणस्य सर्वस्थ [माराधना स्तवनं ] मधुरा लोचनषादी मत्यचितिप्त लामाय मनुष्यः कृतपारोऽपि मलं क्षिपन्ति चत्वारो २०७ मा मम पितृ जननी सदशः २१२ मान माया मद क्रोध मध्यस्थो न कषि: शस्य: ७९६ २३६ मास्मका विहारं त्वं २९० मन्दायते मति यति २६७ मावश्यके कृथा जातु महात्म्प भूषनव्याति २७० । मार्ग चौरापगा राज . ४२८ २२. १८० Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माम धर्मधुरंस्याक्षु माश्यन्तु स्वयशो मा ग्रहीषुः परीवाद arrator सूरि माया निदान मिष्याव मामकार्षीः प्रमादं त्वं माक्षिक मालिकाभि मान्या ये सन्ति मना मातरस्कर्तॄणा मासेन बुदबुवीतं मासेन पुलका पंच मासमेकं स्थिatssयक्षं मांसपेशी शिरा स्नायु मानसं स्वरूप सत्वस्य माया शहयेन हो बोधे: मादेवं कुरुतो जस्तोः मानेन सद्यः सगरस्य पुत्रा माया दोषाः पुरोद्दिष्टाः मानिनो योगिनो धीराः माकार्षी र्जीवितार्थ त्वं मासोपवास सम्पन्न मारत के सा मानुषीमति मापद्य मा स्वसृ सुताः पुस मागोवोतोपयोगाना मतिवास्ति सुदिषवास्यः भावार्जव नःसंग्य माता पोषयने पुत्र माता सुता स्नुषा भार्यां श्लोक-सूची हलोक सं० पृष्ठ सं० ३०५ ३६८ ३८० ५०९ ५६१ ७६६ ६४ ११३ ११६ १४८ ૩૦ २२७ ८१३ २४२ ९७६ २८ १ १०३५ २६३ १०५५ २६९ १०५६ २९९ १०६० ३०० १०७३ ३०४ ११३७ ३१६ १३४८ ३९२ १४५१ ४२१ १४५.२ ४२१ १५३२ ४४३ १६०० ४५८ १६०४ ४५E १६२४ ૪૬ १६२६ १६६५ ११४८ F જન્મ ३२१ ३५३ ४४५ १२४६ १५४१ १७६४ ५१९ १८४८ ५.३५ १८९० ५४७ मांस लिप्त सिरान मात्रा पंचक कालेम माधवसेनोऽजनि मुनिनाथो मिथ्यात्वं वेदयन गी मिथ्यादर्शनंना सौम्यं मिष्याष्टि जनागम्या मिथ्यात्व वमनं दृष्टि मिध्यात्व मोहिताः सत्य मिथ्यादेव मोहितो जन्तो मिथ्यात्वरेरकक्षेत संघ (safer) free वेद हास्यादि मित्र भेदे कृते स मित्रे पात्र फुले संघे मिध्यास्य मोहित स्वान्तो मिथ्यात्वा व्रत कोपादि मियास्वमालव द्वारं मुहूर्तमपि ये लब्ध्वा मुण्डवं कुर्वतो लोच पवन कल्पं वं मुमुक्षूण किमन्येषा मुहूर्त मध्यतः स्यातु मुक्त शस्य ममवोsसा मुने! महाव्रतं रक्ष मुनिनानिच्छता लोके चासत्यं वचः साधोः मि انی लोक सं० १९०७ २१६४ मु ४ ४४ २५२ ६६४ ७५३ ७५७ ७५८ .७६२ ११७३ १४५७ १७७१ १८५८ १९१६ १९२७ ५४ ६१ २९२ ३०७ YEE ५७६ ७५४ ८४६ ८५२ [ ६६५ पृष्ठ स० ५५४ ६३९ ६६५ १५ ८० १९९ २२३ २२४ २२४ २२५ ३३० ४२३ ५१० ५३८ ५५६ ५५९ २१ ३५ ६२ १५ ××× १७४ २२३ २५१ २५२ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সত্তিকা प्रलोक सं० पृष्ठ सं. १४५ २५६ २८४ २९५ १६७४ ३४५ १०७ ४२० ४८६ १४८ लोक सं० पृष्ठ सं० | पियरते सपोवीराः सुपो बटी विखी नग्न मुस्वापि कायन ग्रन्थं भुषतः शपकस्येस्य १५८५ ४५५ बच भावित योगोपि मुक्ति दाने क्षमा [पाराषना स्त.] १३ ६५३ यस्य विधामगोदोषो पस्य दुःख सहस्राणि ययुदेति कषायाग्नि मुक संज्ञान बलने क्षेपक १६. यह वीर्घकाल संबास मूर्धन्यस्त कराम्भोजो २१२ यः पिण्ड मुपधि भयो मूच्छिता पाटलीपुत्रे १४२४ यथा यथाऽनिर्श साशे पूनि प्रण्डालने वह्नि पचदम्पपि द्रव्य यद्यपि प्रस्थितो मूले मृतावाराध यन्ने यद्यपि प्रस्थितो मूले मृत्युकाले श्रुतस्कम्पः cot यतः प्रसूचने दोषं मृत्तिकाबन पायाण पयायष्टम्म हस्ताभ्यां मृत्यु व्याघ्र भिसा पूर्व १११५ ३१२ यथाय दूषितोऽनेन मृत्यु जन्म जरास्म १५३८ यजमानमते अनेस् मृगमीनी परी अन्त्योः १९३० यदि दृष्टं दृष्टं च यत् कल्प व्याहारसंग मेध्यान्य मेण्यानि करोत्यमेध्यं ५५५ यतो समाधिना मृत्यु यपिदिष्टं पानकर्माधिकारे मथुन सेवमानोगो यजन्मलनकोटिभि ग्रथा न ते प्रियं .खं मोहोदयाकुलस्तर यथाकाशे स्वितो लोको मोहोदयेन जायन्ते १०४५ यथा तिष्ठन्ति पक्रस्य मोक्षाभिलाषिणः सायो १७२२ पत्तो हष्टः परं हवा मोक्षः संवर होनेन १९४६ मषा प्रभाते वास: मोक्षावसान कल्याण १९४८ ५६५ यत्र तत्र प्रदेशे ता नि यथाभिद्र यमाणासु नियते बल्ल मा पूर्व ११०७ ३१० | यथा यथा स्त्री पुरुषेण मन्यते १६५ १८७ ७०७ ७३९ २१२२० १७ २२० २४४ ૨૪૪ २६५ २४६ ५३१ ८५६ २५१ २७६ २७५ ९६४ २६ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक-सूची [ ६९७ श्लोक सं० पृष्ठ सं. लोकमं० पृष्ठ सं० १००१ २८७ १७१२ १८९५ १९४९ १९५५ ५६५ १०५८ १६७ ५८४ ११०३ २००८ २०२१ २०५५ ५६५ ५६६ यते ! देहममरवेन यत्र खादति पुत्रस्य यषास्वी सुभग: पूज्यो सपा यथा विपद्धत यथास्यात विधि प्राप्ता यदेव म्रियतेकाले यस्योपकरणं किंचित यदि तस्य शिरो दन्ता पदा संक्षिप्यते वाणी यथोक्त कुरुते सर्व पर निभिपते देहं पदायुषोऽधिकं फर्म यः षण्मासावशेषायुः पथानल शिखा नित्य यत् सर्वेषां ससौख्याना २.९५ ३२७ ३६४ पथा समीरणो को भो सो पति महादान यथा नरा विमुचते यतोऽशुचीनि सर्वाणि यस् किचित् पुरते बाते यदि षण्णवति रोगाः यथा यथा वयोहानि: यः करोति गुरु भाषितं मुदा । यदि ते जायते बुद्धि यथा यदा तवष्टा यते: स्पर्श से बंधे यत् सुखं मोगज अन्तो यथा यथा निषेम्पन्ते या साधुः सार्थतो भ्रष्टः यम्जायते यथाछन्दो पत्र प्रयान्ति स्थिति जन्मवृती। यथैवोन विषः सर्पः यः क्रोधमान लोभाना यदा प्रबाघते निता यतस्वाभ्यन्तरे वाह यथा मे निस्तरायारमा मथारमनो गणस्यापि १२५० ६२० १३०५ १३२३ ३८१ ३८५ २१४० २१७६ २१८१ २२०४ २२१२ ६३ ६४५ ४०९ १४१७ १४३६ ४२३ ८३ ३२ ४३९ २५६ 5 १५२७ १४६० ४४६ २४१ यात्रा साधन गार्हस्थ्य या रुक्षा लोच बीभत्सा या भिक्षु प्रतिमाचित्रा बावजीवं विमुचस्व या यौवने प्रिया कान्ता याबम्तः केवन ग्रन्थाः या राषिता महापौर यावन्ति सन्ति मौसपानि यावन्तो वासरा गाव पारदस्ति बलं वीर्य पावन्न क्षोयसे वाणी ३४६ १२३३ १५६२ यवासी नितरां क्षीण यमुना वक्र निक्षिप्तः यंत्रेण पीड्य मानांगा: यसबभ्रावसथे भीमे पचले बूट शाल्मल्या यसनः परायनो यत् स्फुटल्लोगनोदण्यी ५४३ ४७६ ४७६ १६७४ २०६१ २.८७ २०१२ २११॥ ४-१ ४२२ । यावज्जीवं विधामार ६१४ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ ] विश्रामरया ( माराधना स्तवनम् ) या मासागावनत्र या माराव्याशु या सौभाग्यं या काम कोष लोभ या मंत्री स्वाति कान्ति कुद्दामिका जाता या सर्वेश हिमाचल या सज्ञान समृद्धि या सर्वाखवरोधिनी या गीलोज्वल पुष्प या श्रीमच्छ्रतशील या मोहासुरसंग लब्ध या शुद्धपष्टक चार मौक्तिक या निःशेष परिवहेभ दलने या संसार महोदधेः या पुण्याखव मूर्ति या सर्वज्ञ हिमाचलाइ प्रगलिता या पुण या संसार महाविषापहरणे या सष्ट रुचि प्रभास्वर यः शुद्धपष्टक युक्त वन व मलोक सं० २२०५ ( प्रशस्ति ) यावत् तिष्ठति पाण्डुकं बलशिला यु युवापि वृद्धशीलोऽस्ति युपपत् केबलालोको २ ३ ४ ५ ६ १० १७ १५ १६ २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २५ २९ ३१ ३२ = ११२७ २२१८ मरणकटिका पृष्ठ सं० ६४२ ६५० ६५१ ६५१ ६५१ ६५२ ६५३ ૬:૪ ६५४ ६५५ ६५५ ६५५ ६५६ ६५६ ६५६ ६५७ ६५७ ६५७ ६५० ६५८ ६५९ ६५ε ६६५ ३१६ ६४४ यूयमासावन कृष्णं येयेऽपि केचनाद्वारा ये स्वायं कर्त्तुं मुक्ताः ये धर्म भाव मज्जादि ये सति बचमेली के ये मेहगुह्यः सति येतागित मुक्ता ये रामा काम भोगानां ये शकाः पतनं शता ये जन्म द्वितये दोषाः ये कल्पाना मनतानां येवतीन्द्रियायो ये मृता मुक्तसम्यबस्था येन देशमसिना नियते ये पोष्यते दुःख दान प्रवीणा रेवाधना देवी योगा मावन हीयते योsन्यस्य दोष माकण्यं यो नैति परया भक्त्या योsपरावो मयाकारि योपवेषधरः कर्म योष स्पजति विद्वाम्सो योषितां नर्तनं गानं योगिनो मुच्यमानस्य यो नीचत्य मिबो यो श्लोक [सं० पृष्ठ सं० ३७८ २२३ ५०१ ७७० 559 १०८७ १३२२ ૪૬૨ १७०० १७३१ १८६६ १६५२ २०४२ २१५८ १४१५ २००७ १६५ ३५३ ७१२ ११५ ७३ १५१ २२५ २५८ ३०६ ३८५ ¥¢& ४६२ ४९६ ५० ५६६ ५९२ ६२७ *** ५८४ ** ११६ २११ ७४२ ११९ ९६७ २७७ १०३० २९३ ११४४ ३२० १२६६ ३६६ १२५१ ३७५ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यो दृश्ये सेवते घोगं योगः कर्मास दुष्टो यो सुनिदिशुद्धात्मा योग्यं पूर्वोदितं कृत्वा यौवनेन्द्रिय लावण्ये रत्नत्रये यतो यश्नः रस्तत्रयं विराध्यामि रस देहसुखाना स्था रत्नत्रये विधातव्यं रहस्य भेदिना सेन रहस्यस्य कृते भेदे रक्तस्प कृषि रागेण रसेन पीतं जतुना प्रपूर्ण तो युव संगत्या जो धुनी हृदयपुनीते रक्षण स्थापनाडीनि रक्षणाय मता तेच रणारं वरं मृत्यु यं जगत् सार कुलित चिस्य रत्न संभूत पात्रस्था रश्नयकुठारेण राजन्यः सर्वदा योग्दा राग पाषिक सहयो राग द्वेषा बायाकृत्प राग द्वेष कषायाक्ष यो रा क्लोक [सं० पृष्ठ सं० १९२३ XX= १९२४ ५५८ १९३७ ५६२ २१०० ६१४ १११० બ १८२ २४८ २५८ श्लोक-सूची ५०७ ५०८ ५६५. ६११ ११२६ ११३६ १२२० १२४२ १६०१ १७२६ १७३९ १७५७ २०१० ३१० ५. ६४ ७९ ६० १५४ १५४ १८१ १८४ ३१५ ३१९ ३४५ ३५० ४५९ ४९८ *** ५०६ ५८४ २३ २७१ ४१७. १४३ ५४७ १६० 주 राग द्वेषादिभिरना राजकार्यावुरा सम्य राग द्वेष सब कोष रागद्वेषो मदोवा रामा वर्चोमध्यवर्ती मनुष्यः राम्रो मनोहरे पम्ये राति मातरोऽष्टो रामस्य जायदस्य राद्धान्त सचिवाः सन्तः रागद्वेष को मार मोदा रागद्वेष मद कोष रागद्वेष मय कोष लोभ राम हेतु पराधीनं रूप गंध रस स्प रूपं संतमसि इष्टुं रुद्रः पाराशरी नष्टो कर्दम दुर्गम दुर्भ रूप शब्ध रस स्पर्श गंधासक्ता रूप शब्द रस स्पर्श गंधान कविता पूजनीयोऽपि रूपे भान त रूप गंध रस स्पर्श रोक्का जन्तवो भक्त्या रोषो दुरुतशे यस्य रोग मारि चौर रि रोड' चतुर्विषं ध्यानं ये मारो त्रिया स्वत्वा [ ६८ श्लोक [सं० पृष्ठ सं० १७२ १६३ २५४ २७५ ३१३ **** ३६४ ४२५ ४६२ ५१३ ५३८ ૬૪ ६४५ ५६७ ६४४ ८६१ ९५६ १११७ १२२६ १२६० १४६६ १६१७ १७८३ १८६० २२१९ २२२६ ५४६ १००४ ११५४ ११९१ १४२१ १४२२ १४४३ १४६१ २२२४ ५२ ७३ ७८४ १७८६ १७८९ १६६ २८८ ३२२ ३३७ ४१० ४१० *** ४३१ ६४५ १६ R २३३ ५१६ ५१६ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० ] मरणकंडिका फ्लोक सं० पृष्ठ सं० मेषा लेप घन स्वच्छ श्लोक सं० पृष्ठ सं. १४६२ ३४८ १०० ४२४ ४२५ ४२६ ४३० ११८ लोभतो लभते दोष लोम स्तृणेऽपि पापा लोभेन लोभ: "रिवद्धमानी लोक द्वये दुःख फलानि पत्ते लोक ये पराः पूजाः लोक स्वभावं चपन दुरंत लोक मूर्यनि तिष्ठन्ति १४६७ १५१३ मध्य स्वेव रको ग्राहि लभमानो गुणाने बग्गा जुगुप्सतं योगी लम्प सिदि पधा माता अघुभूमि समोरुन्द्रो लभते दारुणं दुःखं सज्जनीयेऽति बीभरसे लभते यातनाश्मित्रा अत्रुः सर्वत्र निःसगो लध्यमानोऽहिना सुप्तो लभ्यते नर देवानां लवी विपत्ति मुबी वा २६२ ६०२ १०११ ६०६ १९०३ १२१७ १२२२ ६४४ ३४८ ११२ १५४२ ७२४ २१४ ७२५ २१४ ७८३ ८६७ १०१ ८६७ लालितः सर्वदा सौख्य लाघवं दुष्ट संगेन लाला निष्ठीवन प्लेष्म लाभ लाभ मनन्ताश्च ३०६ १०६ १२८७ २६६ ३७५ २७३ लि २८६ लिप्यते वर्तमानोऽपि ११६३ बरं संयत त: प्राप्ता छ"सु बिगिर स्पृष्ट्या बल्भिस्वा सबै मेतेन धभित्या सुराहार वंदना मक्ति मात्रेण वश्या भवन्ति सरयेन वर्ष बर्ष भयं रोष बलि विध्याप्यते नौर वर्ष द्वादशकं वेश्या बंधयन्ति नरान् नार्य: वस्त्रावलोकन: स्त्रीणी वर्ष वातं क्षुध तृष्णा वरं मृत्युः कुलीनस्य वहमानो नरो भारं बसन्त तिलका माता वक्रण विमलाहेतोः पर्चरस्नेष गोशी वर्ष रत्नत्रयो पोगा: वसते नैऋते मागे यम्वमानोऽश्नुते पुण्यं ३२८ ३२० ११४३ ११६६ सूपति पातकलोपि चरित्र लुनीते धुनीते पुनीते कृणोते १८८४ ५५१ लुना तृष्पर लता सवा २२७ १९५० २०१८ १९६२ ५८० बयानां जायते शुद्धिः लेण्या शारीर योगाभ्या २०६१ Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ४३२ ५.०६ ६१६ प - श्लोक-सूची [ ७०१ श्लोक सं० पृष्ठ सं० । श्लोक सं० पृष्ठ सं० विध्यापयति यो धेश्म २६१ बिनीतो गुरु अथषा वाचिताभिमुखं स्वागत ३०४ वाक्या सहिष्णुता वारया विना गुण परीणाम २७२ भायोगण स्थितः पश्य विमुक्तः सातो जात: विद्यमान गुरणं स्वस्थ बाक्ये राज्यायिता लोका ३७२ वाक्या क्षमाया मसमाधिकारी विश्राम्यासी शक्य मुदतु कामः । १२२ १३१ विविध दोष मापन वास्तव्या गंतुका सम्पा ४२६ ४५३ १४७ विश्वस्तो भाषते सर्वा बास्तव्यो हास्तिने धीरो १५४ विश्वरतो भाषते शिष्य। वाचना पृनानाम्नाथ १४१५ वाचना पृच्छनाम्नाय २१२३ विश्वास घातक एवं विद्यते यद्यत्तीचारो १६६ विमुचाभिमुखं स्थित्वा विस्तरेणागमोक्त (क्षेपक) विज्ञातव्य मयोगानी विश्वस्तोऽस्फुटितोऽकप: विनयो वर्शमे शाने विक्षेपणी रतस्यास्य विनयेन विना शिक्षा विक्षेपणी विमुच्यातः ६५९ २०५ विमुक्ति: साइपने येन १३२ विषाग्नि कृष्ण साचा: विनयेन विना तेन १३३ विदो मिथ्यात्व शस्पेन विनयं न विना ज्ञान विविध दूषण कारि कुदर्शन ७६५ विकल्प विविध लोक विधिनोप्तस्य सस्यस्य ७८२ विशुद्ध दर्शनं साको विद्विषो नायकेनेव ७८८ विनिष्क्रम्य प्रवेशावि विधिना योग कोपादि ८३६२४७ विपाते समाधि ते १७२ विवेक नियताधार ८४७ २५० विवेको भक्त पामांग १७५ विपरीतं ततः सत्यं ८६२ विध्यापितः क्रिया योग्यां १९६ विशंति पर्वतेऽम्भोधी विमुपस्युपस नो विद्यमाने पमे लोका ११ विधाय विधिना दृष्टि वित रन्ति जना: स्पानं १६४ विविक्त वसतिः सास्ति विषाय पुरुषः स्तेयं विचित्रः संलिखत्यग २६० ८३ विमुचते य: परवित्त मंजसा २६४ विज्ञान काल माइप विधत्ते चाटु नीरम्य ६०७ २२५ २२६ म २६० २०४ . ६.१ 1 २८० Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरणकंडिका पाएत ५५७ श्लोक सं. पृष्ठ सं. श्लोक सं० पृष्ठ सं० विशोलो दुर्भगोऽमुष ६६९ २७८ विषादे रोदने धोके १७०६ ४६३ विनंभ संस्तव स्तेहा ९७९ २८१ विचक्षु धिरो मू १८७७ विश्रम यन्ति ता मत्यं ९८० २८१ बिहाधिपति राजा ५४३ विरक्यते स्वयं तस्याः ११०८ विचित्यमानं जगतो विहितं १९०२ विश्रयाचपलाक्षो यः विषयेष्वभिलाषों यः १९२० विश्वासे सति विनभो ११३९ विपुल सुख फलानो कल्पने करपल्ली १९६४ ५७० विषयेभ्यो दुरलेश्य १२२५ वितकों भव्यते तत्र १६६६ ५७२ विषयविष्टपस्थस्य ३२८ विधायाराधना देवी २०१४ ५८५ विलास सलिलोत्तीर्ण ११६७ ३२६ विशुद्ध दर्शन जाना: २०१६ विपुल यौवन नीर मनाकुलो ११७१ विराध्य में विपश्यन्ते विपुल वोचिविगाट नभस्तले ३३८ विधीयते न यद्येवं २०५४ विश्वस्ता ये प्रतायन्ते ३८२ विधायालोचनाम ६१४ विभीमरूपाः कुटिल स्वभावा १३१६ ।। विषायालोचना सम्यक ६२७ विहो निदान शल्येन १३४९ विवर्तमान चारित्रो २१७८ विधिनोप्तस्य सस्यस्य ४४४ विमिद्यध्यान शास्त्रण २२०६ विशोध्य सिद्धांत विरोषि व ४४५ २२३३ विधान स्तपो भक्त्या १५४० ६४८ भीम विषयोमोध्ये १५४५ ४४६ विक्राणाति सपोऽनध वीरवत्यापि शूलस्थ १८८ विशोध दर्शन ज्ञान १३४४ वीक्ष्यमाणो मनुष्याणा १०९९ विहाय हरिणो यूपं ४०२ गीर्य निगृह्यते मन बीसराय पारित विधाय ज्वलितं हस्ते ४०४ विदधाति गुणं ज्ञानं १४०४ মীৱঘি এলা विधान स्तथा कोपं विधानोऽपि चारित्र ૪૨૨ वृद्धवृद्ध नराः शील विचित्र वेदना दष्टा: १४७१ ४२७ बुख स्तरुण शीलोऽस्ति विवासि यशश्चक्षु १४९२ वृधो गणी तपस्वीच ११५१ ३२२ वितरति विपुला निकृति धरित्री १५१०४३५ तृद संयम तपः पराक्रमः १२७७ विज्ञाय विकृति तस्य १५७६ ४५४ । वृत्तं नाक्ष कषायातः १४० विराधितो भवमानो १५५१ ५७ । वृधि हानी कवायाणी ६४२ २८४ 0 र ४३२ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक-सूची [७०३ श्लोक सं० १० म० श्लोक सं० पृ. सं. १६७४ ४६० व्रत प्ररोहणाहत्वं व्रतं शीलं तपोदान देवनाथा मसद्यायो वेदनो कर्मणां दat वेदमाना प्रतीकारे वेद्यामुर्नाम गोत्राणि ८२३ २४४ २१३० २१८६ ६१८ ६३६ ___४७ 9 १८ ३२४ ५८७ १७७ वयावृत्तं तपोऽन्तस्थं बयावृत्य करस्त्यक्त वैरिणो देहिनां दुःखं वैयाकृत्य गुणाः पूर्व वयावृत्यं ततः कार्य वैमानिक स्थल यासो १३३४ ४५३ ४६ १८ ९७७ २८१ २०७२ ६०२ व्य १०७२ १२०७ १४२ ३४२ व्यवहार मतो जीद व्यवहारा परिसमुळेदी ध्यवहारा बुधः शक्तो ३८ ૪૬૯. १४४ गंका कांक्षा चिकित्सान्य शक्तितो भक्तित: संघे शस्तमन्यपिस्थान शब्दाकुले चतुर्मास मायनासन निक्षेप शंकमानमना निद्रा शठस्ते स्त्रीजनस्तीक्षण शलाका पुरुषास्ताभि मासानि त्रीणि संध्यस्थमा शब्दं कंचिदसौ श्रस्वा पात्रको यान्ति मित्रत्व शल्य दुः कंटकविताः शत्रूपकारा दोषी शक्तिभिः सूचिभिः खड्ग शब्द रूपे से गधे शत्रुसनिलव्याघ्राः शब्द वर्ण रसे गन्धे अान्द गेष रस स्पर्श सप्तोऽस्मिन् हतोऽनेन पारीरं मानसं दुःखं शारीरादात्मनोऽन्यत्त्वं शयालोमुखमश्येरम शस्त्र प्रहमतः स्वार्थ सरीरं पंचधा तत्र ४१६ ध्या १६५६ ४८२ १२५ ४०२ ४३ १७.७३ १२१ १८८ २५४ ४२५ ४३० १४५७ ९८९ २८५ । व्यापारः क्रियते नित्यं व्यापार हीनस्य ममत्व हाने: व्याघ्र विषेषले सर्प ध्यानायो महादोष ध्याना इव परित्याज्या ध्यान णा कृतो हन्तु ध्यापोऽस्ति यत स्तस्य ज्यालोकादि विनिमुक्त व्याकुलो भवति प्राणी व्याकुलस्य सुखं नास्ति श्याकुलो घेवमाप्रस्तः व्याधितो व्यसनी शोकी ५०५ १२२२ ३४० १२४६ १७५१ १८५५ १८७२ २१४८ ६२४ १३२८ १८७८ ५४४ ] मामिकी शामिकी Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ ] मरणकंडिका शलोक सं० पृष्ठ सं० ७९९ २३७ ५८२ १०७० १९६६ २००४ २०२५ ५८३ ५८७ ६४५ प्रलोक सं० पृष्ठ से शांतोपि क्षोभ्यते मोहो ११२३ ३१५ ।। शुध लेश्यस्य यस्यान्ते शांतो प्युदीयते मोहः ११२५ सुख शील कलिता सुजायते शाकयत् भृज्यमानो यत् ___४८१ शुक्र मस्तिष्क मेकासि शुक्ल लेश्योतमाशं म: शुरुसमा गुणवृद्धि गरिष्ठा शारीरं मानसं तुःख १६५७ ४६ शुक्ल लेश्यामनापिलष्टा शान्तिर्भवति सर्वेषा ५९६ पाारीरं मानसं सौख्य २२२१ सुन्य वेशम शिला वेश्म शुन्य बेधम रजो भस्म शिष्टोपि दुष्ट संगेन ३५१ मिसान मुति पानाम्या शेषांगान शुक्ल लेण्याया: शिवसुखमनुपम मपरुज ममलं ५२८ शिल्पानि बहु भेषानि २७५ शिरा बालानि चत्वारि शोकषा सुखापास शिश्रायाराधनां देवी पोधयित्वोपषिमस्या शिष्य स्तस्यमनीषिणोऽमितमति शोचति प्रपमे धेगे (प्रशस्ति ) शोणित प्रम्रवहार शोषणे पेषणे करणे २००० १०७४ ३०४ ३८१ ७५२ १२६ ११६ २२२ २६८ ४८२ ५२४ ९४८ श्रामण्यं सर्वबा कुर्वन् श्रावके नगरे ग्राम २७४ शीतातप क्षुधा तृष्णा शीलसयम रत्नाझ शोत मुणं झुधी तृष्णां वीस संयम तपो पहिया चीनबस्यो दिलोज्यन्ते सीतादयोऽखिलाः सम्यक शीतवाता तपादीनि २४७ १६० ५२ ( प्रमस्ति) २८६ १०४२. १२२७ १२२८ २६२ ४६२ १६१० ४६ २६५ श्री देवसेनोजनि मायुराण श्री भूतिमहतीं प्राप्य ३४० अतपानं यतस्तस्मै अतिपानक शिक्षान्न अण्वतो भूरि भूरीणों मृत्वा सल्लेखना सर्वे १०८ श्रेणिको व्रत दोनोऽपि १५७ | श्रेयसामाकरो औवं १५७ २११ शुश्षा निकंपनो भूस्वा शुदि रालोचना शय्या शुभाशुभेन गन्धेन शुभषक प्रमादेन ७७१ १५४६ २२८ ४४६ __५१७ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . श्लोक-सूची [७०५ ग्लोक सं० पृष्ठ सं लोक सं० पृष्ठ सं० १८९७ ५५२ भोषियो ब्राह्मणो भूत्वा २३१ श्लाघ्या भवन्ति नार्योऽपि १०४७ सन्तोष भावितः सम्यग समस्फिग समस्फिक सन्तोष: संयमो देह म भरावा स्थलिप्त: क्षिप्त ३३७ ।। ग्वसिसि रोपिति माद्यति सज्जते ११८९ स्वसिति रोविसि सीदति वेपते १२१२ प्रय तिर्यग नर स्वर्ग प्रवध भूमिधलए वह्नि ___ २५३ २७३ २८३ २५६ २९६ ४७८ ६५३ १ सकलं गएर मामम्प स सूत्रार्थ रहस्यशः समये गणी मर्यादा समर्थो न विपत्ते यो सगुणो गुणिनां मध्यं म जीव हिते वृद्ध सर्वज्ञरित्र में वृद्ध स प्रणम्य गणनायकं त्रिषा सल्लेखनायाः कुरुते प्रकाशनां समाधान विधि तस्य समस्तं स्पृण चारित्र षष्ठीष्टमादिभिः शुचिः षष्ठाष्ट्रमाविभिषिचत्र षण्मामीमास्टेन पर्वमसि मितं पित्त बद अस्प प्रमिस वर्षों ३६३ २५८ २६२ १०७६ १०८० ४४२ १३५ ३०४ ३०५ ४५८ , द . १६७ १६८ प . १ . ८ AU . सम्पपरवा सघने साधक समिति गुप्ति संज्ञान सदोषाय जायन्ते सबीचार मवीनारं समृहस्य सलज्जस्म सम्यक् प्रवृत्त निःशेष सर्व जीवावयो भावा समाहितं मनो यस्य समस्ताः सम्पदः सयो सत्येव स्मृति माहात्म्ये समस्त दम्य पर्याय समानुदिशं सर्व संबंश शासन ज्ञान सस्लेसना विषा साको १३८ ६ । स षट् त्रिंशत् गुग्गेनापि सर्व तीचंकृतोऽनंत ५५० सम्यक्त्व वृत्त नि:शल्या ३२ सम्यगालोषयेत् सर्व ३४ । सम्यक् स्वज्ञान वृत्ते समुद्र मिम्नगादीनां ५८६ सर्व दोष श्रयाकांक्षी ६३६ स सामान्य विशेषाध्या ६४० सम्यगालोचते तेन स चारित्र गुणाकांक्षी सम्ति यस्याः समीपे निकृष्ट किया ६६१ समाधानोयतो गुनोः ७२८ सम्यमस्वस्य च यो लाम ७७३ ४६ । १६३ १८५ १८८ २१५ २१० Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६] मरणकंडिका ग्लोक सं० पृष्ठ सं० ४८४ ४६ १६५६ १७१५ १७५९ ५१० १७७४ २६२ १०२० १७८० १८७६ १८८५ ५४७ श्लोक सं० पृष्ठ सं. समस्तानि दुःखानि विविध सद्यः ७९१ २३५ । समुद्रा इब गंभीर सदा रामयितध्योऽसौ ७९७ २३६ सवा परषशी भूता सर्वेः सबै समं प्राप्ताः २४५ सलिम माक्त शौत महास सॉप्यथ हृते द्रव्ये 4८ २५९ समुद्री सीता स दुःख मय शोऽनर्थ ९४० २७१ सर्व साधारणं दुःखं सलिलेनेव कामेन सहमानो मुने सम्य सर्वस्य हरण रोष २७६ समश्मलाशया रामा: ९९० सल्लेखना श्रमं साम्रो ! २८५ स पघ्रिण गुहा रस्ने २८६ समस्त दण्य पर्याय सपिगीय कुटिला विभीषणा समानो भव सबंध सर्वशास्त्र समुहाणी समय मिति सर्वत्र स व पूय मांसास्थि ३०२ स पसुभि स्विमि म्या सचित्ता अंगिनो रित १२१८ ३४४ सर्व सर्वेः समं प्राप्ताः समस्त प्रन्य निर्मुक्तः १२३८ सर्वभावगत शुक्र्क सहसादृष्ट दुष्टा १२५३ ससंगस्याङ्गिनः कत्तु समितो लिप्यते नाच १२५६ सर्वलेल्या विनिमुक्तः स सूत्राय मणिभिन्ते १२७९ सयथाख्यात पारित्राः समाधि मरणं बोधि १२८२ ३७४ सर्व प्रतातिचारस्था: स संगस्यानिवृत्तस्य सर्वस्यापि समाधान स सिद्धियामिनः साधु १३७३ ३९९ स चूर्ण के शरापि सर्वागीण मनालीढो १४०२ ४०५ समिरुत मवीधारं सरय्यां गंघमित्राख्यो संस्थाप्य गणिनं संधे सर्वेपि कोपिनो पोषा १४४९ संपर्धतेऽखिला स्तस्य सप्तवर्षाणि निःशेष सहसा स्खलने जाते सध्यान मंत्र राम्य ४२७ संस्तरः क्रियते नान सत्येपि भवंतो दोषे समानी कुरुते दोष १५०४ ४३५ संयतासंयतो जीवः सदेव मुपयुक्त न १५१६ ४४० सहसोपस्मिते भृत्यो सम्तोष बलत स्तीमा १५९४ ४५७ । समुदाते कृते स्नेह १९७२ ५७४ ५८१ ५८२ २.०३ २०२४ ५८७ १३०२ २०४८ २०६१ २०६८ ४११ २१०५ ४२० २११८ ४२३ २१२७ ४३३ ६२६ २१५० २१५१ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक-सूची [७०७ लोक सं० पृष्ठ सं. संसाराणव मुत्तीर्णा श्लोक सं. पुछ सं० २२२६ ६४६ । सिकता तण कल्लोल (प्रशस्ति ) सिद्धयन्ति दुःखानि नश्यन्ति सिको विवईनो राजा ९६१२८७ १२४० सर्वशास्त्र जल राशिपारगो ६१२ २४ ५३३ १५८ १७० ४१८ सुखकारी दधात्येनं सुभगत्वमसौभाग्य सुचपास्करो की सुरूपोऽपिनरो कष्टो सुखं श्रलोक्य लाभेऽपि सुंदरा स्त्रिदिव वासि मुदी सुख दुःख सहा वृत्त सुखं साप्सरसो देवाः सुखाय यदि लम्यन्ते सुतार्थ पाटलीपुत्र १४४० १४६४ १६५१ ४२५ ७६७ ८५७ २२७ २५३ २०१५ ५८५ २११८६१६ २१४६ २८२ माथुर्मापित चारित्री साधुगवेषयन्मुक्ति साधुः सस्लेखना फत सार्वकालिक मन्याच सावष्टंभ समूत्सर्ग साधुषारणया संध: सारणां वारणा नास्य सारं द्वारं पुरस्मेव सावा गहितं वाक्य साकेताधिपतिदेव साधरणेऽत्र सर्वेषां सामान्येन ततो नेह साधयन्ति महार्थयन् साधुः सायं परित्यज्य साघुः सार्थ पथं स्पषत्वा साघु सार्थ स दूरेण साधुकारं परेवत्र साक्षीकृत्य ग्रहीतस्य साक्षीकृत्य पराभूताः साषवो बांधवास्तस्माद् साधूनां स्थिति कल्पोऽय १०४६ १२४१ १३६० १३६२ १३६९ ३६७ १७९ २७० ६३६ ३९८ सूत्रानुसारतः सायोः मूरिधारणया संघः सूरिभक्तन पानेन सूर्योपाध्याय संघानां सरेाति प्रमावेन सूक्ष्म साधारणोद्योत सूक्ष्मलोभ गुणस्थाने सूक्ष्मो मनोवचो योगी सूक्ष्म क्रियेण बद्धोऽसौ ४६० २१६७ ४६१ ४६६ १७१६ १७१६ १८५४ २०४५ ६३७ २१५८ २१९० ६.१ १०२ सिदान् नस्वाहवादीश्व सिका संसारिणो जीवाः सिद्ध चत्य छु तापार्य सेवमानो यथाहारो सेवमानो यथा वह्निः सेवमानो नरो नारी २३१ | सेवन्ते मद्य गोमांस ७७८ १६१२ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो ७० ३६६ स्थ २५१ ७०८ ] मरणपंडिका फ्लोक सं० पृष्ठ सं० श्लोक सं० पृष्ठ सं० सेश्यते क्षपको येन २०८२ हावाब ६ स्वपो चिह्न माशय सोऽयचा पंचधामाय्या स्वाभ्यामेन यतः सर्वा सोवा सृष्णा बुभुक्षेते १६८८ स्वाध्यायः १०५ स्वापस्त निवास स्य २०२ स्तेनोवा जागरकेभ्यः स्वसुविधमतां दृष्ट्वा म्तेनाग्नि जल याद स्वयं साधोः स्थिरत्वे स्तोष्यते क्षपकः सूरे स्वान्तानिष्ट मपि प्राय स्तेयासत्यवचोरक्षा १७६७ स्पस्सवेन गुणायाम्ति स्वरूपोऽप्यन्यगुणोधन्यं २८४ स्थूलं वतातिधारं यः ६०५ स्वस्यापरस्य वा त्यागे २०४ स्थलं सूक्ष्मं च चेद दोषं १८४ स्वम्यस्तं कुरुते शानं ७९३ २३५ स्थिरत्वं नयते पूर्व ६५० स्वकीये परकीये वा स्थयान्स: प्रियधर्माणः ६७६ स्वमातु रप्यविश्वास्यो स्थानानि तानि सर्वाणि ४०. स्विते विद्यते तप्यते ૨૬ ૬ स्थानत चलति नाफ पर्वतः १५६६ स्वरूपेऽपि विहिते दो २०२ स्थावरं मारक स्वर्ग भोगिनरनाथ कामिनी: ३७२ २१८७ ६३७ स्वस्थाध्यात्मरतिजन्तो ३८७ स्ना स्वयमेवाशनं दान्तं १३९० ४०२ स्नाति क्षषक तीर्थ ये २०७९ ६०३ ६०३ स्वारोपित भरा: केषित १६१६ स्वयं पुराकृतं कर्म १७१२ (प्रशस्ति ) स्वकीपा देहिनोऽत्रैव १८३६ ५३२ स्फुटी कृता पूर्व जिनागमादियं __ ७ ६६५ स्वकीयं परकीय न ५३२ स्वयं पलायसे कम १९४४ स्त्री राज्य मन्यथाहार ६५० २०३ स्वगणस्थ मिति प्राज्ञं २०६४ ६०६ स्त्री निप्पोन्नतस्यापि २८० स्वय मात्मन: सर्व २११४ श्रोतसा नीयमानस्थ स्वाध्यायकाले विक्षेपा २१२५ ६१७ नसते बपि जान १४०९ ४०७ { पाराधना स्त.) स्त त्व संरच १४५८ ४२३ । स्वान्तस्था या दुरापा ८७४ २५६ ६३१ स्थलो मनो बचो योगी Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 709 लोक सं• पृष्ठ सं. 1812 526 1851 1887 556 2152 626 श्लोक-सूची श्लोक मं० पृक सं० हिम पूजा इषानिस्या 919 हितं करोति यो यस्य 288 हिंसारमादिदोषेण 288 हिसादयो मता दोषाः 1007 288 हिमा मसूनृतं स्तेयं 1112 311 हिताहित मानानो हितादानाहित त्यागी 1700 हित प्रिय परिणाम 610 हित्वा निमत्स्य मामोऽसौ 812 242 हिस्सा दोषान मसापीति 19 266 हिसातोऽविरतिहि सा 1005 हिसा निमिष 1006 288 हिसादीनां मुनेः प्राप्ति 1007 288 341 104 हस्तन्यस्त कपोलोऽसो हरन्ति मानसं रामा हसिता रोदनर्वाक्यः हरंति पुरुष वाचा हन्तुमग्ने कृतो मूहो हन्यते तास्यते बध्यते ध्यते हतं मुष्टिभिराकाशं इम्ती जीवितं ष्ट्या होंत्सुकत्व बोनस्व हस्तन्यस्त कपोलोसो हरम्ति मानसं रामा हसितः रोवमक्षिः हरन्ति पुरुषं वाचा हातुमकृतो मूढो 128 160 288 247 352 hto हुंकाराप्ति नेत्र 5 1985 62 ___366 320 427 हास्य कांद कोरकूतय हासोपहास लीलाभि हाहा भूतस्य जीवस्य हास्य सोमभय क्रोध हानि पनी प्रजायेते 341 हृषीक तस्करीमेः हृषीक मागंणा स्तीक्ष्णा हृषीक मार्मणा तीक्ष्णा साधुभि हृषीक विमयः सदभिः तुषोक दन्सिनो दृष्टान् 1202 1262 1286 428 364 1474 1458 302 14 हिमास्ति देहिनोऽचार्य 1725 48 / हेयाः क्रमेण घस्वार 70020