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मरगकण्डिका
कातरत्वं न कुर्वन्ति परोषहकरालिताः । किं पुनर्दीनताबोनि करिष्यन्ति महाधियः ।।१६०६॥ अग्निमध्यगताः केचिद्दह्यमानाः समंततः । प्रवेदना वितिष्ठन्ते जलमध्ये गता इव ॥१६०७।। साधकारं परे सत्र कुर्वन्त्यंगुलिनर्तनः । आनंदितजनस्वान्ता उस्कृष्टि कुर्वते परे ॥१६०८।। वेदनायामसह्मायां कुर्वन्त्यज्ञानिनो तिम् । लेश्यया भवद्धिन्या सुखास्वावपरा यदि ॥१६०६॥ तदा ति न कुर्वन्ति किं भवच्छेवनोचताः । ज्ञातसंसारनैःसार्या वेदनायां तपोधनाः ॥१६१०॥
वैसे ही महाबुद्धि वाले मुनि परीषहसे आक्रांत होनेपर भी डरते नहीं है जो डरते हो नहीं वे क्या दीनता, मुख विवर्णता, विषाद आदि करेंगे ? नहीं कर सकते ॥१६०६॥
कितने ही धीर वीर पुरुष अग्नि के मध्य में चारों तरफसे अतिशय रूपसे जलते हए भी वेदना रहित हो बैठ जाते हैं मानो पानोके मध्य में ही बैठे हों ।।१६०७।। बहत से धीर पुरुष उस अग्निके मध्य में स्थित होकर भी अंगुलियोंको चलाकर साधुकार करते हैं तथा कोई पुरुष आनंदसे विशिष्ट शब्द करते हैं ।।१६०८।।
भावार्थ---अग्नि में जलते हुए भी कोई धोर पुरुष अच्छा हुआ ऐसा अपना अभिप्राय अंगुलोको वजाना आदिके इशारे द्वारा प्रगट करते हैं, इस उपसर्गसे मेरा कर्म नष्ट होगा, यह अग्नि शरोरके साथ कर्मों को भी जला देवे इत्यादि रूप अंगुलो हिलाकर एवं विशिष्ट शब्द बोलकर कोई धीर वोर आगत उपसर्गको सहन करते हैं।
यदि बहुतसे अज्ञानी जीव असह्य वेदना आनेपर संसार बढ़ानेवाली अशुभ लेश्यासे युक्त होकर इन्द्रिय जन्य सुख स्वादमें लंपट हो धैर्यको धारण करते हैं अर्थात सांसारिक सुखोंके लिये महान महान् कष्ट वेदना-पीड़ाको बड़े ही धोरतासे सहते हैं। तो फिर संसारका छेद करने में उद्यत हुए तपोधन मुनि क्या वेदनाके आनेपर धैर्य धारण नहीं करेंगे ? अवश्य ही धैर्य धारण करेंगे । कैसे हैं मुनिराज ? जान लिया है संसार को असारताको जिन्होंने ।।१६०६।।१६१०।।