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________________ सारणादि अधिकार [ ४६१ भिक्षे मरके कक्षमये रोगे दुरुत्तरे । मानं क्वापि विमुचंति कुलोना जातु नापदि ॥१६११॥ सेवंते मद्यगोमांसपलांङवादि न मानिनः। कर्मान्यदपि कृच्छेऽपि लज्जनीयं न कुर्वते ॥१६१२।। कुलसंघ यशस्कामाः कि कर्म जगच्चिताः । मानं विमुच्य कुर्वन्ति लज्जनोयं तपोधनाः ।।१६१३।। लध्वी विपत्तिमुरू वा यः प्रयातो विषीदति । नरा वदन्ति तं षढं धोराः पुरुषकातरम् ॥१६१४॥ समता इव गंभौरा निःकम्पाः पर्वता इव ।। विपद्यपि महिष्ठायां न क्षुभ्यन्ति महाधियः ।।१६१५।। स्वारोपित भराः केचिनिःसंगा निःप्रतिक्रियाः । गिरिप्राग्भारमापनाश्चित्रश्वापदसंकटम् ॥१६१६॥ -- . -.. जो कुलवंत पुरुष होते हैं वे कभी भी दुर्भिक्ष में, मारीमें, जंगलके भयके समय, भयानक रोगमें और आपत्तिमें कहीं पर भी गौरवको नहीं छोड़ते हैं ।।१६१११। ___ कुलका स्वाभिमान रखने वाले सामान्य गृहस्थ जन भी मद्य, गोमांस, प्याज आदि निंदनीय पदार्थों का सेवन नहीं करते हैं तथा अन्य भी गलत कार्य कष्ट आनेपर भी नहीं करते हैं ॥१६१२।। जब सामान्य जन की यह बात है तो फिर जो तपोधन मुनिराज कुल और संघके यशकी कामना करते हैं, जो जगत्में पूज्य हैं वे अपने गौरवको छोड़ कर लज्जनीय कार्यको कैसे कर सकते हैं ? नहीं कर सकते ।।१६१३॥ जो पुरुष छोटी या बड़ी विपत्तिके आनेपर खेद करता है भयभीत होता है उसको धीर बोर जन नपुंसक कहते हैं, यह डरपोक मनुष्य है ऐसा कहते हैं ।।१६१४।। जो महाबुद्धिवान होते हैं वे समुद्रके समान गंभोर होते हैं, पर्वतके समान अकंप होते हैं बड़ो भारी विपत्ति में भी क्षोभको प्राप्त नहीं होते हैं ।। १६१५।। ____ कितने ही महापुरुष ऐसे हैं कि जो संपूर्ण कार्यका भार स्वयंपर लेकर परिग्रह रहित होते हैं, आयी हुई आपतिका कुछ भो प्रतीकार नहीं करते हैं । अनेक प्रकारके
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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