SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६२ ] मरकण्डिका शद्धान्त सचिवाः सन्तः सन्तुष्टाः शुद्धवृत्तयः । साधयन्ति स्थिताः स्वायं व्यालदन्तान्तरेष्वपि ।। १६१७ ।। धीरोऽवन्ति कुमारोऽगास्त्रिरात्रं शुद्धमानसः । शृगाच्या खाद्यमानोऽपि देवोमाराधनां प्रति ।। १६१८ || जंगली पशुओं से व्याप्त गिरियोंके कंदरा गुफा प्रादिमें प्रविष्ट होते हैं ( वहां ध्यान में लीन होते हैं) ।। १६१६।। जो सिद्धांत ग्रंथ में कुशल हैं अर्थात् श्रतरूपी सागरके पारगामी हैं, संतोष भावयुक्त हैं अत्यंत शुद्ध चारित्र के धारक हैं ऐसे सन्त पुरुष क्रूर सिंह आदि जतुओं के दाढोंके मध्य में स्थित होनेपर भी अपना स्वार्थ जो मोक्ष पुरुषार्थ है उसको सिद्ध करते हैं ।।१६१७ ।। अहो क्षपक ! देखो ! अवंति सुकुमार तीन रात्रि तक शृगाली द्वारा खाये जानेपर भी आराधना देवो सम्यक्त्व आदि चार आराधनाको प्राप्त हुए थे । कैसे थे सुकुमार ? अत्यंत शुद्ध है मानस जिनका तथा धीर वीर पुरुष थे ।। १६१८ ।। सुकुमार मुनिकी कथा अवन्ति देश के उज्जैन नगर में रहने वाले सुरेन्द्रदत्त सेठ और यशोभद्रा सेठानी के एक सुकुमाल नामका पुत्र था, जो इतना सुकूमार था कि उसको आसन पर पड़े हुए राईके दाने भो चुभते थे। दीपक की लौं भी वे देख नहीं सकते थे और अतुल वैभव के बीच स्वर्गोपन भोगोंको भोगते हुए सुखपूर्वक अपना जीवन यापन कर रहे थे । एक दिन आपके मामा यशोभद्र मुनिराज त्रिलोक प्रज्ञप्तिका पाठ कर रहे थे, उसे सुनकर इन्हें जाति स्मरण हो गया । उसी समय महलसे निकलकर मुनिराजके पास जाकर दीक्षित हो गये । अपनी आयु मात्र तीन दिनकी जानकर सुकुमाल मुनि जंगल में चले गये और वहाँ प्रायोपगमन सन्यास लेकर आत्मध्यान में लीन हो गये । उसी समय पूर्वभवके वैर संस्कारके वशीभूत होती हुई एक स्यालनो बच्चों सहित भाई और उनके शरीरको खाना शुरु कर दिया तथा तीन दिन तक निरन्तर खाती रही । इस भयंकर उपसर्गके आ जाने पर भी सुकुमाल मुनि सुमेरु सदृश निश्चल रहे और अपनी चारों
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy