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सारणादि अधिकार शिधायाराधनां देवीं मुद्गलाद्रौ सुकौशलः । भक्ष्यमाणो मुनिनिया संद्धाथिरविषण्णवीः॥१६१६॥
आराधनाओंके अबलम्बनमें समता पूर्वक शरीरको त्यागकर अच्युतस्वर्ग में महर्दिक देव हुए।
कथा समाप्त । सिद्धार्थ नामके राजाके सुकौशल नामके पुत्रने दीक्षा ली, वे प्रसन्न मनसे मुद्गल नामके पर्वतपर स्थित थे, उस वक्त व्याघ्री द्वारा खाये जानेपर भी उन्होंने आराधना देवीको प्राप्त किया था ॥१६१६।।
सुकौशल मूनिको कथाअयोध्या नगरोमें प्रजापाल राजा राज्य करते थे। उसो नगर में सिद्धार्थ नामके सेठ अपनो सहदेवी आदि ३२ स्त्रियोंके साथ सुखसे रहते थे। बहुत समय व्यतीत हो जाने के बाद उनके सूकोशल नामका पूत्र हुआ, जिसका मुख देखते ही सिद्धार्थ सेठ मुनि हो गये। सुकौशल कुमार का भा ३२ कन्याओंसे विवाह हुआ, उनके साथ वे महाविभूतिका उपभोग करते हुए सुखसे जोवन यापन करने लगे। एक समय विहार करते हुए सिद्धार्थ मूनि भिक्षार्थ अयोध्या आये । "इन्हें देखकर मेरा पुत्र मुनि हो जायेगा" इस भयसे सेठानी ने उन्हें नगरसे बाहर निकलवा दिया। "जो एक दिन इस नगरके स्वामी थे, उन्हींका आज इतना अनादर किया जा रहा है" यह सोचकर सुकौशलकी धायको बहुत दुःख हुआ और वह रोने लगी। सुकौशल ने उसके रोनेका कारण पूछा । धायसे (अपने पिता) मुनिराज के अपमानकी बात सुनकर उन्हें दुःख हुआ और उसी समय उन्हीं मुनिराजके पास जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा की बात सुनते ही सुकौशल को माँ अत्यन्त दु:खी हुई और पुत्र वियोग जन्य आर्तध्यानसे मरकर मगध देशके मौगिल नामक पर्वतपर व्याघ्री हुई। सिद्धार्थ और सुकौशल मुनिराजने उसी पर्वत पर योग धारण किया था । योग समाप्त होनेपर भिक्षाके लिए पर्वतसे उतरते हुए युगल मुनिराजोंको व्याघ्रोने देखा और झपट कर अपने ही पुत्र सुकौशल मुनिको खाने लगो । मुनिराजने उपसर्ग प्राप्त होनेपर समाधि द्वारा प्राण त्यागे और सर्वार्थ सिद्धि में गये ।
कथा समाप्त ।