________________
[४५६
सारणादि अधिकार रणारंभे वरं मृत्यु जास्फालनकारिणः । यावज्जीवं कुलीनस्य न पुनर्जनजल्पनम् ॥१६०१।। संयतस्य वरं मृत्युर्मानिनोंऽसकताडिनः । न दोनत्वविषण्णत्वे परोषहरिपूरये ॥१६०२।। वरं मृत्युः कुलीनस्य पुत्रपौत्राविसंततेः । न युद्ध नश्यतोऽरिभ्यः कतुं स्वकुललांछनम् ॥१६०३।। मा कार्षी|वितार्थ त्वं वन्यं स्वकुललांछनम् । कुलस्य स्वस्य संघस्य मा मास्त्वं देवनावशम् ।।१६०४।। म्रियते अमरे बोरा: पहारा लिला अपि कुर्वन्ति भ्रकूटोभंगं न पुनरिणां पुरः ॥१६०५।।
जिसप्रकार जनसमूहमें भुजास्फालन हारा युद्धको प्रतिज्ञा करनेवाले कुलीन पुरुषका रणांगणमें मरण हो जाना श्रेष्ठ है किन्तु जीवन पर्यन्त "यह युद्ध भूमिसे भागकर आया था" इसप्रकारका जनापवाद श्रेष्ठ नहीं है उसोप्रकार संघके मध्य में समाधिकी प्रतिज्ञा किये हुए मानी सयतका मरण होना श्रेष्ठ है किन्तु परीषहरूपी शत्रुके आनेपर दीनपना विषादपना श्रेष्ठ नहीं है अर्थात् अपनी प्रतिज्ञापर निश्चल रहते हुए मुनिका मरण होना भला है किन्तु रत्नत्रयसे च्युत होना चित्त में भय होना, मैं प्रतिज्ञा पालनमें असमर्थ हूं ऐसा दीन वचन कहना भला नहीं है ॥१६०१।।१६०२।।
जिसप्रकार कुलीन योद्धाको मृत्यु होना श्रेष्ठ है किन्तु युद्ध में शत्रुओंसे घबराकर भागकर जाने से पुत्र पौत्र आदि संतान परंपरामें अपने कुलमें जो कलक लग जाता है वह श्रेष्ठ नहीं है । उसीप्रकार हे क्षपक ! तुम जोवनके लिये दीनता मत करो। अपने कुल और संघका अपवाद मत करो । हे साधो ! तुम वेदनाके वशमें नहीं होना ।
___अर्थात् संघको दूषण लगे ऐसा कार्य मत करो अपनी प्रतिज्ञामें दृढ़ रहो। मेरे से प्रतिज्ञा पालन नहीं होता, आहार त्यागका नियम नहीं पलता इत्यादि दीन वचन मत कहो उससे संघको लज्जित होना पड़ेगा ॥१६०३।।१६०४।।
जैसे शस्त्र प्रहारसे पीड़ित हुए भी वीर पुरुष युद्ध में मर जाते हैं किन्तु पात्रुओंके सामने भ्रकुटो भंग नहीं करते हैं अर्थात् शत्रुसे डरकर भागते नहीं हैं ॥१६०५।।