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________________ ४५८ ] मरकण्डिका श्रमाराधयिष्यामि प्रतिज्ञा या त्वया कृता । मध्ये संघस्य सर्वस्य तो स्मरस्यधुना न किम् ।।१५६६ ।। जनमध्ये भुजास्फालं विधाय बलगवितः । कुलीनो रणे मानी शत्रुत्रस्तः पलायते ।। १५६७।। कः कृत्वा स्वस्तवं मानी संघमध्ये तपोधनः । परीषहरिपुत्रस्तः क्लिश्यत्यपातमात्रतः ॥ १५६८ ।। कः प्रविशति रणं पूर्ण शत्रुमर्दनलालसाः । यच्छन्ति नासुनाशेऽपि शत्रूणां प्रसरं पुनः ।। १५६६ मानिनो योगिनो धीराः परोषह निषूदिनः । सहन्ते वेदना घोराः प्रपद्यन्ते न विक्रियाम् ।। १६००॥ विशेषार्थ — परीषहों को और उपसर्गोको सहन करनेका आचार्य उपदेश दे रहे हैं कि भो क्षपकराज ! तुम मन, वचन और कायसे इन परीषहादिको जोतो । मनमें क्षुधा तृषा आदि परीषहसे दुःखी भयभीत नहीं होना मनसे परीषह जीतना कहलाता है | हा ! मुझे बड़ा कष्ट है अही यह कैसा पापका उदय आया हत्यादि दीन, वचन नहीं कहना बचन से परीषद् जीतना है तथा पीड़ा वेदना होनेपर भी मुखमें दीनता व्यक्त नहीं करना शरीरको निश्चल रखना इत्यादि कायसे परोषह जीतना है। इसप्रकार मरणकाल में कष्टों को सहन करनेसे आराधनाकी सिद्धि होती है । अहो क्षपक ! तुमने सर्व संघके मध्य में प्रतिज्ञा को थो कि मैं आराधना करूंगा । अब उस प्रतिज्ञाको क्यों नहीं करते ? क्या प्रापको प्रतिज्ञा याद नहीं है ? ।। १५९६ ।। जनसमुदायमें भुजाओं का आस्फालन कर करके गर्थपूर्वक जो युद्धको प्रतिज्ञा करता है वह मानी कुलीन पुरुष रणमें शत्रुसे घबराकर क्या भाग जाता है ? नहीं भागता है ।। १५९७।। ऐसा कौन मानी तपोधन है जो संघके मध्य में अपनी प्रशंसा करके परोषह्के आगमन मात्र से परोषहरूपी शत्रुसे त्रस्त हो क्लेश करता है ? अर्थात् कोई भी तपोधन सर्व समक्ष लो हुई प्रतिज्ञाका भंग नहीं करता है ।।१५६६ ।। शत्रुको नाश करने की इच्छावाले सुभट रण में प्रविष्ट होते हैं वे प्राण नष्ट होनेपर भी शत्रुओंके आधीन नहीं होते । वैसे ही मानी योगी धीर वीर मुनिजन परीषहोंके सहनेवाले होते हैं के घोर वेदनाको सहते हैं । वे धीर मुनि कभी भो वेदनासे विकारभावको प्राप्त नहीं होते ।।१५६६|| १६०० ll
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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