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________________ सारणादि अधिकार [ ४५७ विराधितो भवन्मानो वचनः कटकादिभिः । जिपक्षस्यसमाधानं प्रत्याख्यानं जिहासति ॥१५६१॥ निर्यापन मर्यादा तस्य मंक्षु मुमुक्षतः । कर्तव्यः कवचो गाढः परोषहनिवारणः ॥१५६२॥ गंभीरं मधुरं स्निग्धमादेयं हृदयंगमम् । सूरिणा शिक्षणीयोऽसौ प्रज्ञापनपटीयसा ॥१५६३।। संतोषबलतस्तोत्रास्ता रोमान्तकवेदनाः । प्रकातरो जयामूढो वृत्तविघ्नं च सर्वथा ॥१५६४।। त्वं पराजित्य निःशेषानुपसर्गपरीषहान् । समाधानपरो भद्र ! मृत्याचाराधको भव ॥१५६५।। कठोर आदि वचन भो नहीं कहे, न उसको छोड़े, आसादना-तिरस्कार भी नहीं करे ।।१५६०॥ क्योंकि कटुक वचनों द्वारा जिसका विराधना हुई है ऐसा वह क्षपक अशांति को प्राप्त होगा तथा अपने संयम आदिको छोड़ने को इच्छा करेगा ।।१५६१।। मर्यादाप्रतिज्ञाका भंग करने के इच्छुक उस क्षपकके आचार्य द्वारा परीवहका निवारण करनेवाला गाढ कवच करना चाहिये ।।१५९२।। समझाने में चतुर ऐसे आचार्य द्वारा यह क्षपक शिक्षणीय है, क्षपकको गंभीर मधुर, स्निग्ध हृदयमें प्रवेश करनेवाले ऐसे ग्राह्य वचन कहे अर्थात् ऐसे वचनों द्वारा उपदेश देवे ।।१५६३।। निर्यापक क्षपकको कहते हैं कि हे क्षपक ! तुम छोटी बड़ी व्याधियोंको तथा तोत्र वेदनाको मंतोष बलसे नष्ट करो । कातरपना-अधोरपनासे रहित सावधान हो, इस आगत चारित्रके विघ्नको सर्वथा जोतो ॥१५६४।। भावार्थ--आचार्य वेदनासे पीड़ित क्षत्रकको समझाते हैं कि तुम कातरपनेका त्याग करो, वेदनामें द्वेष और वेदना प्रतीकारमें राग मत करो क्योंकि रागद्वेष चारित्र रूपो संपत्तिको लूटनेवाले है । संतोष और धैर्यसे वेदनाको सहन करो । हे भद्र ! तुम समस्त परोषह और उपसर्गोको जोतकर समाधान युक्त हो इस मरणकालमें चतुर्विध आराधानाओंका पाराघन करो ।।१५९५॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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