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मरगकण्डिका
तस्येतिः सार्यमाणस्य कस्यचिज्जायसे स्मृति । तोत्रकर्मोक्ये नान्यः स्मरणं प्रतिपद्यते ॥१५८६॥ संततसारणवारणकारी कामकषायहृषीकनिवारी। धर्मवतो विवधोत समाधि सर्वमपास्यगणो तरसाधिम् ॥१५८७।।
॥ इति सारणं ॥ प्रतिकर्म विधातव्यं तस्य स्मृतिमगच्छतः । उपदेशोऽपि कर्तव्यः स्मरणारोपणक्षमः ॥१५८८।। परोषहातुरः कश्चिमानानोऽपि न बध्यते । आर्तः पूत्कुरुते दीनो मर्यादा च बिभिसति ॥१५८६।। न बिभीष्यः स नो वाच्यो वचनं कटुकादिकम् । न त्याज्यः सूरिणा तस्य कर्तव्यासावना न च ॥१५६०।।
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इसतरह आचार्य द्वारा सारणा करनेपर किसी क्षपकको स्मरण हो आला है कि अहो ! मैं व्याकुल होकर अपने चारित्र धर्मसे च्युत हो रहा हूं, अब मुझे इस करुणानिधान गुरुके प्रसादसे धर्म में स्थिर चित्त होना है इत्यादि । कोई क्षपक आचार्य द्वारा बार-बार स्मरण दिलाने पर भो तोनकर्मका उदय होनेसे स्मरणको प्राप्त नहीं होता है ॥१५८६।। आचार्य सतत ही क्षपककी सारणा और वारणाको करता है काम, कषाय तथा इन्द्रियोंका निवारण करनेवाला वह गणी धर्मात्मा क्षपकको पोड़ाको शीघ्रतासे दूर करते हुए समाधिको कराता है ।।१५५७।।
(३४) इसप्रकार सारणा नामका चौतोसवां अधिकार पूर्ण हुआ। (३५) कवच नामका पैतीसवां अधिकार--
स्मतिको नहीं प्राप्त हुए उस क्षपकका वह सावधान हो ऐसा उपाय निरंतर करना चाहिये तथा स्मरणको प्राप्त हो ऐसा उपदेश भी देना चाहिये ।।१५८८॥ . .
कोई क्षपक सावधान तो है किन्तु परीषहोंसे पीड़ित होकर कुछ बोध नहीं कर पाता है । भूख प्यास को वेदनाके द्वारा दुःखी हुआ क्षपक पुकारने लगता है दीन वचन कहता है तथा आहार पानकी प्रतिज्ञाको भंग करना चाहता है ।।१५८६।। इसप्रकार क्षपक विपरीत चेष्टा करने लग जाय तो आचार्य उसे डरावे नहीं तथा कडवे