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________________ सारणादि अधिकार [ ४५.५ तथेति मोहमापन्नः सारणीयो गणेशिना । तथास्ति शुखलेश्याकः स प्रत्यागतचेतनः ।।१५६२॥ कस्त्वं कि नाम ते काल: सांप्रतं कः क्व वर्तसे । कोऽहं किं मम नामेति तं पृच्छति गणी यतिम् ।।१५८३॥ इत्थं अपफमापृच्छ्य चित्तं जिज्ञासता सता । वत्सलत्वेन कर्तव्या सारणा तस्य सूरिणा ॥१५८४।। मुह्यतः क्षपकस्येत्थं यः करोति न सारणम् । तेनासो वजितो ननं जिनधर्म इनोज्ज्वलः ।।१५८५॥ आचार्य प्रयत्न करते हैं तथा शुद्ध लेश्या वाला हुआ पुनः सावधान होबे ऐसा यत्न करते हैं ॥१५८२।। आचार्य क्षपकको इसतरह सावधान करते हैं कि हे साधो ! तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है ? इससमय कौनसा काल प्रवृत्त हो रहा है ? तुम कौनसे देश मेस्थान निवास कर रहे हो ? बताओ मैं कौन हूं? मेरा नाम क्या है ।।१५८३।। इस प्रकार क्षपकको पूछकर उसका चित्त सावधान है या नहीं इस बातको जानने की इच्छासे आचार्यको क्षपकके लिये वत्सल-धर्मस्नेहसे बार-बार सावधान करना चाहिये तथा स्मरण दिलाना चाहिये ।।१५८४।। भावार्थ-यह क्ष पक सावधान है या नहीं इसका परीक्षण करने के लिये आचार्य बड़े प्रेमसे उपर्युक्त प्रश्न बार-बार पूछते हैं। यदि सावधान है तो प्रश्नका उत्तर ठोकसे देगा और सावधान नहीं है तो उसको सावधान करने का उपाय करते हैं। इस प्रकार आचार्य द्वारा क्षपकको सावधान करना स्मरण दिलाना परमावश्यक है । यदि मोहित हुए उस क्षपककी सारणा नहीं करता है अर्थात् व्रतादिका स्मरण नहीं दिलाता तो समझना चाहिये कि उस आचार्य द्वारा नियमसे क्षपकका त्याग किया और क्षपकका त्याग करना उज्ज्वल जिनधर्मका त्याग कहलाता है ।।१५८५।। भावार्थ-~~रत्नत्रय धर्म स्वरूप जिनधर्म है, रत्नत्रय धर्म साधुजनोंमें रहता है अत: क्षपकका त्याग करनेसे जिनधर्मका त्याग हुआ माना जायगा ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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