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________________ ४५४ ] मरण कण्डिका विज्ञाय विकृति तस्य वेदनाया: प्रतिक्रिया । ओषधैः पानकः कार्या बातपित्तकफापहैः ॥१५७६।। प्रभ्यंगस्वेदनालेपस्तिकांगमई नः । परिचर्यापरेणापि कृरपास्य परिकर्मणा ॥१५७७॥ कस्यचिक्रियमाणेऽपि बहुधा परिकर्मणि । पापकर्मोदये सीने न प्रशाम्यति बेदना ॥१५७८।। क्षपको जायते तीव्र रुपसर्गपरीषदः । अभिभूतः परायत्तो विह्वलीभूतचेतनः ॥१५७६॥ घ्याफुलो बेगनास हलः परीत हातितः । प्रलपत्यनिबद्धानि वाक्यानि स विचेतनः ।।१५८०॥ अयोग्यमशनं पानं रात्रिभुक्ति स कांक्षति । चारित्यजनाकांक्षी जायते बेबनाकुलः ॥१५॥ का कारण क्या है तथा उसके प्रतीकारको भलोप्रकारसे समझकर वातपित्त और कफ की नाशक पेय औषधिके द्वारा वेदनाका परिहार करना चाहिये ।।१५७६।। शरीरको शीत करना अथवा आवश्यकता और वेदनाके अनुसार अग्निसे सेक, और औषधिका लेप और वस्तिकर्म (इनिमा) तथा अंग मर्दन द्वारा इस क्षपककी परिचर्या करना चाहिये तथा अन्य भी प्रक्रियाके द्वारा वेदनाको दूर करना चाहिये ।।१५७७।। इसप्रकार उपचार करनेपर भी किसी क्षपकके तोत्र पापकर्मके उदयसे वेदना शांत नहीं होती है ।।१५७८।। उस समय तोव्र वेदना या उपसर्ग परोषहोंसे क्षपक अभिभूत होता है, वेदनाके आधीन हआ मूच्छित-बेहोश हो जाता है ।।१५७६।। वेदना प्रस्त व्याकुल हुआ क्षपक परोषहोंसे पीड़ित होकर बेभान हुआ असंबद्ध प्रलाप करने लगता है ॥१५८०।। वेदनासे आकुलित वह क्षपक साधुपदके प्रयोग्य ऐसे पानको तथा रात्रि भोजनको चाहने लगता है तथा चारित्रको त्यागनेकी भावना करता है ।।१५८१।। इसतरह क्षपककी मोहरूप विषम स्थिति होनेपर निर्यापक आचार्य उस क्षपकका मोह-मूर्छाभाव से दूर हो उस रूप सारणा करता है अर्थात् क्षपक अपने व्रतादिका स्मरण जिस तरह करे उसतरह
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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