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सारणादि अधिकार
इत्थं शुश्रूषमाणस्य संस्तरस्थस्य वेदना । पूर्वकर्मानुभावेन काय काप्यस्य जायते ॥१५७१॥ वर्शनशानचारित्रतपोरन भूतस्ततः । संसारमा घोरे गाशिमोतो सिसाणति ।।३५७२॥ निमज्जंतं भवाम्भोधौ यो दृष्ट्वा तमुपेक्षते । अधार्मिको निराचारो नापरो विद्यते ततः ॥१५७३॥ वैयावस्यगुणाः पूर्व कथिता ये प्रपंचतः । तेरपेक्षापरो नीचस्स्यज्यते निखिलैरपि ॥१५७४॥ वैयावत्यं सतः कार्य चिकित्सां जानता स्वयम् । बंद्योपवेशतश्चास्य शक्तितो भक्तितः सदा ।।१५७५।।
इसप्रकार निर्यापक द्वारा उपदेशसे जिसको सेवा हो रही है एवं वैयावृत्य करनेवाले मुनियों द्वारा जिसको सेवा हो रही है ऐसे संस्तरमें स्थित क्षपकके शरीरमें पूर्वके असाता कर्मके उदयसे कोई उदरशूल आदि वेदना उत्पन्न होती है ॥१५७१।।
उस वेदनाके होनेसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूपो रत्नोंसे भरी हई यह क्षपक मुनिरूपी नौका घोर संसार सागर में डूबती है ।।१५७२।। वेदनासे आकुल व्याकुल क्षपकके परिणाम प्रशुभ होते हैं और उस परिणामसे मरण होवे तो क्षपकका भयसागर में डूबना संभव है । उस वक्त अस क्षपकको भवसागर में डूबते हुए देखकर जो साधु एवं निर्यापक उसको उपेक्षा करता है उनको सम्हालता नहीं अर्थात् उपदेश और सेवा द्वारा क्षपकको समाधान नहीं कराता है वह अधार्मिक है, आचारहीन है उससे अधार्मिक और आचारहीन दूसरा कोई नहीं है ।।१५७३।
पहले विस्तारपूर्वक वैयाकृत्यके गुण बतलाये हैं । जो मुनि क्षपककी उपेक्षा करता है वह उन गुणोंसे भ्रष्ट होता है । अर्थात् क्षपककी उपेक्षा करने से क्षपक संसार सागरमें डूबेगा और उपेक्षा करने वालेके गुण भी नष्ट होंगे ।।१५७४।। इन सब बातों को ध्यानमें रखकर संघस्थ मुनियोंको वेदनाके चिकित्सा विधिको स्वयं जानकर क्षपकको देयावत्य अवश्य करना चाहिये तथा वैद्यके उपदेश के अनुसार शक्ति और भक्तिसे क्षपक की सदा ही वैयावृत्य करना चाहिये ।।१५७५।। क्षपकको बेदनाको जाने कि इस वेदना