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ध्यानादि अधिकार
विराध्य ये विपद्यते सम्यक्त्वं नष्टबुद्धयः । ज्योतिर्भाविनभोमेषु से जायन्ते वितेजसः ॥२०४० ॥ दर्शनज्ञान होनास्ते प्रच्युता देवलोकतः । संसारसागरे घोरे बंभ्रमन्ति निरंतरम् ॥। २०४१ ।।
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विशेषार्थ - कंदपं भावना आदि पांच प्रकारको भावनासे युक्त मुनिका समात्रिपूर्वक मरण नहीं होता प्रर्थात् भक्त प्रत्याख्यान आदिरूप पंडित मरण नहीं होता उनका तो बालमरण ही होता है । कंदर्प भावना आदि पांचों भावना एवं उन भावनाओंके करनेवाले मुनियोंका स्वरूप यहां पर बताते हैं-- कंदर्प काम या कामवासनाको कहते हैं, कामवासना से युक्त जिनका मन है, अश्लील, भण्ड वचन बोलते हैं दूसरोंकी वासना को बढ़ाते हैं, हँसी-मजाक करते हैं, कुचेष्टायें करते हैं वे मुनि कंदर्प भावना युक्त हैं ऐसा जानना चाहिये ऐसे मुनि मरणकर कंदर्प जातिके देव होते हैं जिनमें उपर्युक्त कामकी उत्तेजना, अश्लीलता आदि खोटी चेष्टायें स्वभावतः पायी जाती हैं। जो साधु तीर्थंकर का अविनय करते हैं, संघ चैत्य चैत्यालयको आसादना करते हैं, साधर्मी से विपरीत चलते हैं मायावी हैं, वे किल्विष भावनायुक्त हैं, वे मरणकर किल्विषक जातिके नीच चंडाल सहशदेव होते हैं । जो मंत्र, तंत्र, ज्योतिषी आदि कार्यों में लगे रहते हैं, साधु पदके अयोग्य ऐसे कार्य करते हैं वे अभियोग्य भावनावाले मुनि हैं और वे मरणकर अभियोग्य जातिके देव बनते हैं जो कि हाथी, घोड़ा, मयुर आदिका रूप लेकर अन्य उच्च देवोंकी सेवा करनेवाले हैं । मिथ्यामागंका तो प्रचार करते हैं और सन्मार्गस्वरूप जो जैनधर्म है उसका नाश करते हैं अर्थात् मिध्यात्व मोहसे मोहित हैं बुद्धि जिनकी ऐसे गाढ़ मिथ्यात्व भावना संयुक्त यति भांड सदृश जातिके संमोही देवों में उत्पन्न होते हैं । जो निदान युक्त हैं रौद्र परिणामी, वैर बांधने वाले अत्यंत संक्लिष्ट परिणामके धारक तीव्र कषायी मुनि हैं वे अंत्रावरीष नामवाले प्रसुर जातिके देव होते हैं । इसप्रकार कंदर्प आदि भावनायें और उन भावनावाले मुनियोंका स्वरूप कहा । ये सभी मुनि आराधना रहित बाल मरण करते हैं और नीच देव होते हैं वहां च्युत होकर चतुर्गति संसार में भ्रमण करते हैं ।
जो सम्यक्त्वको विराधना करके मृत्युको प्राप्त होते हैं वे नष्टबुद्धि ज्योतिष, भवनवासी और व्यंतर इन होन देवपर्यायमें उत्पन्न होते हैं ||२०४०|| सम्यग्दर्शन और