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________________ ५९० } मरणकण्डिका संघकृत्ये निरुत्साहाः किमनेन ममेति थे। ते भवन्ति सुरा म्लेच्छा वाद्यवादिविवौकसा ॥२०३५॥ कंदर्पभावनाशीलाः फंदर्याः संति नाकिनः । निघाः किल्विषिकाः संति मृताः किल्बिषभावनाः ।।२०३६॥ अभियोग्यक्रियासक्ता आभियोग्या:सुरा मताः। प्रासरी भावनाः कृत्वा मृत्वा सन्त्यसुराः पुनः ।।२०३७॥ संमोहभाषनोयुक्ताः संमोहास्त्रिदशामृताः । विराधकः पराप्येवं प्राप्यते देवदुर्गतिः ॥२०३८॥ इत्थं विराध्य ये जोधा म्रियते-संयमादिकम् । तेषां बालमृतिस्तस्याः फलं पूर्वत्र वर्णितम् ॥२०३६।। __ जो साधु संघके कार्यमें निरुत्साही हैं और कहते हैं कि इस संघके वैयावृत्य आदि कामसे मुझे क्या प्रयोजन है ? मैं कुछ भी काम नहीं करूंगा इत्यादि । सो ऐसे मुनि देवसभामें बाजे बजाना, गाना आदि होन कार्य को करनेवाले म्लोच्छ जैसे देव होते हैं । भाव यह है कि जो मुनि संघके कार्य में दूर-दूर रहता है, वैयावृत्यादिमें मुह छिपाता है कि मुझे ये कार्य न करना पड़े । ऐसा मुनि-मरकर स्वर्ग में नोच चंडाल जैसा देव बनता है वह देवसभासे दूर रहता है उसे सभामें प्रवेश नहीं मिलता है ।।२०३।। ___कंदर्पभावनासे युक्त मनि मरणकर कंदर्प जातिके देव होते हैं। जो मनि किल्विष भावनासे युक्त होते हैं वे मरकर किल्विषिक जातिके निंदनीय देव होते हैं। आभियोग्य क्रियामें-दासक्रियामें जो लगे रहते हैं वे मरणकर आभियोग्य जातिके देव होते हैं । आसुरी भावनाको करके भरण करनेवाले भ्रष्ट मुनि असुरकुमार देव होते हैं और संमोह भावनामें तत्पर रहनेवाले मुनि संमोह जातिके देव होते हैं। जो रत्नत्रयको आराधना नहीं करते, चार आराधना एवं समाधिको विराधना कर डालते हैं वे इन कंदर्प आदि नीच जाति रूप देवदुर्गतिको प्राप्त करते हैं तथा इसोप्रकार की अन्य हीनदेव पर्यायको पाते हैं ॥२०३६।।२०३७।।२०३८।। इसतरह संयम रत्नत्रय समाधि आदिको विराधना करके जो जीव मरते हैं, उनका मरण बालमरण कहलाता है, उस बालमरणका फल पहले बता ही दिया है ॥२०३९।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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