________________
ध्यानादि प्राधिकार
[ ५८१
अशुद्धमनसो वश्याः कषायेन्द्रियविद्विषाम् । पूज्याल्यासावनाशीला नीचा मायापरायणाः ॥२०३०।। धर्मकर्मपराधीनाः पापसूत्रपरायणाः । संघकृत्ये ममानेन कि कृत्यमिति वादिनः ॥२०३१॥ सर्ववतातिचारस्थाः सुखास्वादनलालसा: । प्रनाराधितचारित्राः परचिताकृतोद्यमाः ॥२०३२।। इहलोकक्रियोक्ताः परलोकक्रियालसाः । मोहिनः शवलाः क्षुद्राःसंक्लिष्टा दीनवृत्तयः ।।२०३३।। मालोचनामनाधाय ये नियंते कुबुद्धयः । त्रिदिवे निविताचारा तुर्भपाः संति ते सुराः ।।२०३४।।
आगे किन किन मुनियोंकी समाधि नष्ट होती है एवं देवदुर्गति होती है उनका स्वरूप बताते हैं--
जो अशुद्ध मनवाले हैं, कषाय और इन्द्रियरूपी शत्रुओंके वशमें हैं, पूज्य पुरुष-- तीर्थकर गणधर आदिको आसादना करनेका जिनका स्वभाव है, नीच हैं, मायामें तत्पर हैं । धर्मकार्यको पराधीन होकर करते हैं अर्थात् आचार्य संघ आदिके भयसे सामायिक आदि करते हैं स्वयंके रुचिसे स्वाधीनतासे धर्म क्रियायें नहीं करते, काम शास्त्र, वैद्यक शास्त्र, काव्य, नाटक, चोर आदि विद्याके शास्त्र पढ़ने पढ़ाने में सदा लगे रहते हैं, जब संघका कोई वैयावृत्य आदि काम आता है तो उस समय कहते हैं कि मेरे को क्या करना है, मुझे इससे कुछ प्रयोजन नहीं इत्यादि अर्थात् संघका काम नहीं करते । महाप्रतादि सबमें अतीचार लगाते हैं, सदा सुखिया जीवन जीते हैं अथवा सुख और स्वादु भोजनके लंपटी हैं, चारित्रको आराधना नहीं करते, पर गृहस्थ आदिकी चिंता करने में हो उद्यत हैं । इस लोक संबंधी क्रिया-शरीर संबंधी, देश राज्य संबंधी या गृहस्थ संबंधी क्रियामें तो तत्पर हैं और परलोक संबंधो क्रिया-निर्दोष व्रतपालन, समोचोन ज्ञानवृद्धि आदिमें आलसी हैं, मोही हैं, शिथिलाचारो, क्षुद्र, संश्लिष्ट परिणाम युक्त और दीनवृत्तिभिखारी जैसी दीनता करते हैं, कुबुद्धि है ऐसे भ्रष्ट मुनि दोषोंको आलोचना बिना किये ही मरते हैं और स्वर्गमें निंदित आचरण दासकर्म वाहनकर्म आदि आचारको करनेवाले अप्रिय नीच देव होते हैं ।।२०३०॥२०३१।१२०३२।।२०३३।।२०३४।।