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मरणकण्डिका
इत्थं संस्तरमापना रौद्रातवशवतिनः । रत्नत्रयं विशोध्यापि भूयो भ्रश्यन्ति केचन ॥२०२६॥ प्रातरौद्रपरः साधुर्यो मुचति कलेवरम् । एतां दुःखप्रदामेष देवदुर्गतिमृच्छति ॥२०२७॥ चिराभ्यस्तचरित्रोऽपि कषायाक्षवशीकृतः । मृत्युकाले ततःसयो यदि भ्रश्यति संयतः ॥२०२८।। प्रवसन्नो पथाछयो यः पार्श्वस्थः कुशीलकः । संसक्तश्च तदा कि न स भ्रश्यति कुमानसः ।।२०२६॥
इसप्रकार प्रशस्त शुभ लेश्यापूर्वक समाधि करनेका महान श्रेष्ठ फल बताया अर्थात शुभ लेश्या युक्त और चार आराधनाओंकी आराधना करनेवाले साधु स्वर्ग और अपवर्गरूप सार फलको प्राप्त करते हैं ऐसा आराधनाके फलका वर्णन किया।
आगे जो आराधनाकी विराधना करते हैं अर्थात् समाधिमरणका नियम लेकर भी दुर्लेश्या और दुर्व्यानके वश होते हैं उन मुनियोंको उक्त विराधनाका क्या फल मिलता है इस विषयको बतलाते हैं
____ कोई क्षपक मुनि संस्तरमें आरूढ़ होनेपर तथा रत्नत्रयका शोधन करके भो रौद्रध्यान और आर्तध्यानके वश हो जाते हैं इसतरह वे पुनः भ्रष्ट होते हैं। जो रस्नत्रयसे च्यत हुए हैं वे आर्तध्यान रौद्रध्यान पूर्वक शरीरको छोड़ते हैं उक्त खोटे ध्यानसे दुःखदायी देव दुर्गतिको प्राप्त होते हैं । भाव यह है कि समाधिका नियम लेनेपर भी किसी क्षपक मुनिको आर्त रोदध्यान हो जाता है उससे आराधनाको विराधना होनेसे वह देवदुर्गतिमें होन देवों में चला जाता है ।।२०२६॥२०२७।।
जिसने चिरकाल से चारित्रका अभ्यास किया है ऐसा संयत भी यदि मत्यकालमें भूख आदिकी वेदनासे कषाय और इन्द्रियोंके वश होता है और चारित्रसे एवं समाधिसे भ्रष्ट हो जाता है तो फिर जो साधु अवसन्न, यथाछंद, पार्श्वस्थ, कुशील और संसक्त इन पांच प्रकारके भ्रष्ट कुबुद्धि मुनियों में से कोई है वह क्या समाधिसे व्युत नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥२०२८।।२०२६।।