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________________ ५९२ ] मरणकटिका ये मृता मुक्त सम्यक्त्वाः कृष्णलेश्याविभाषिताः। तथालेश्या भवाम्भोधौ ते भ्रमन्ति दुरुत्तरे ॥२०४२॥ छंद-उपजाति-- निवेशयंती भुवनाधिपत्ये मनीषितं कामदुधेव धेनुः । पाराषिता किं न ददाति पुसामाराधना सिद्विवधूवयस्या ॥२०४३॥ ॥इति फलम् ॥ सम्यग्झानसे रहित ३ जीव देवलोककी आयूपूर्ण कर वहांसे च्युत होकर घोर संसार सागर में चिरकाल तक परिभ्रमण करते हैं ॥२०४१।। जो कृष्ण नील कापोत लेश्याओंसे भावित अंत:करण वाले हैं । सम्यक्त्व रत्न को जिन्होंने छोड़ दिया है ऐसे साधु मरणकर उसीप्रकारकी लेश्यासे युक्त होकर संसाररूप भयंकर समुद्र में परिभ्रमण करते रहते हैं ।।२०४२॥ भावार्थ--पावस्थ आदि मुनि, कंदर्प आदि पांच प्रकारकी नीच भावनासे युक्त होते हैं । ये सभी नियमसे सम्यक्त्वादि रहित बाल मरण ही करते हैं, जिनको लेश्या खोटी है-कृष्ण लेश्या आदि युक्त होकर मरते हैं वे नियमसे भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं । वहां भी प्रायः उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो पाती। पहले मुनि अवस्थामें सतत् नीय संक्लिष्ट परिणाम युक्त रहने से वे खोटे संस्कार तथा जिनदीक्षा की विराधना का महान पाप अजित होनेसे वे सम्यक्त्व रत्नको नहीं पाते वहांसे च्युत होने पर एकेन्द्रिय आदि पर्यायोंमें जहांकि कृष्णादि तीन खोटी लोश्या ही है ऐसे भवों में परिभ्रमण करते हैं । जिनको मरणके समय कृष्ण आदि अशुभ लोश्या है उनकी नियमसे दुर्गति होती है । ऐसा जानकर महादुर्लभ सम्यक्त्व और व्रतादि की कभी विराधना नहीं करनी चाहिये एवं समाधि ग्रहणकर भूख प्यास आदिके कारण उससे च्युत नहीं होना चाहिये । अब इस आराधनाके फलनामा प्रकरणका उपसंहार करते हैं सम्यक्त्व आदि चार प्रकारको आराधनाओं के आराधक पुरुषोंको यह आराधना देवी तीनलोकके स्वामित्वमें स्थापित करती है । समीचीन प्रकारसे आराधित की गयी यह आराधना मनोवांछित फलको देनेके लिये कामदुधा धेनु है । यह सिद्धिरूपी वकी
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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