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ध्यानादि अधिकार
एवं कालमतस्यास्य बहिरंतनिवासिनः । स्पजंति यत्नतो गात्रं वैयावृस्पकराः स्वयम् ।। २०४४ । ।
करते हैं
साधून स्थितिकल्पोऽयं वर्षासु ऋतुबंधयोः । समस्तैः साधुभिर्यत्नाद्यनिरूपया निषधका ॥२०४५।।
सखी आराधना क्या फल नहीं देती । सर्वे हो अभ्युदय और निःश्रेयस सुखोंको देती है
।।२०४३॥
इसप्रकार आराधना फल नामका उन्चालिसव अधिकार पूर्ण हुआ । अब आगे आराधक त्याग नामा अंतिम चालीस
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अधिकार प्रारम्भ
संस्तरको प्राप्त क्षपककी जब मृत्यु हो जाती है तब उसका शरीर वसतिका के बाहर या भीतर में स्थित है उसको वैयावृत्य करनेवाले मुनि स्वयं यत्नपूर्वक यथास्थान ले जाकर छोड़ देते हैं ।। २०४४ ||
भावार्थ — क्षपककी समाधि- प्राणांत हो जानेपर वैयावृत्य करनेवाले मुनिगण जो कि धैर्यशाली हैं जिन्होंने अनेकों बार सल्लेखनाको देखा एवं करवाया है शारीरिक सामर्थ्य से युक्त हैं ये क्षपकके शरीरको लेजाकर उचित प्रासुक भूमिपर छोड़ आते हैं, उस शवको किस दिशा में कितनी दूर किस तरीकेसे ले जाना इत्यादि विषयोंको आगे बता रहे हैं ।
यहां प्रश्न होता है कि शरीरादिसे भी निःस्पृह ऐसे यतिगण शवको स्वयं क्यों ले जाते हैं एवं उस अंतिम विधिमें प्रयत्नशील क्यों होते हैं ? इसका उत्तर देते हैं
gar यह स्थितिप है कि वर्षायोग के प्रारंभ और अंतमें तथा ऋतुके प्रारंभ में समस्त साधुओं द्वारा प्रयत्नपूर्वक निषद्याका प्रतिलेखन निरीक्षण होना चाहिये । अर्थात् जिस भूमिपर क्षपकके शवका विसर्जन किया है वह स्थल निषद्या कहलाता है और उस निषद्याका प्रतिलेखन साधुओंको उक्त समयपर करना तथा उस निषद्याकी वंदना करना आवश्यक होता है || २०४५