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भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार
[ ३५ संक्लेशः पीज्यमानस्य, यूकालिक्षेण दुःसहः । पोड्यते तच्च कंडतो, यतो लोचस्ततो मतः ॥१०॥ मुडवं कुर्वतो लोचमस्स्यतो निर्विकारिता । प्रकृष्टा कुरते चेष्टा, वीतरागमनास्ततः ॥११॥ दम्यमानस्य लोचन, हृषीकार्थेऽस्य नाग्रहः । स्वाधीनत्वमदोषत्वं, निर्ममत्वं च विद्महे ॥१२॥ आत्मीया दशिता श्रद्धा, धर्मे लोचं वितन्वता।। भाषितं सकलं दुःखं, दुश्चरं चरितं तपः ॥१३॥
इति लोचः। अर्थ-संस्कार तो साधु करते नहीं अर्थात् केशों का धोना, सुखाना, तेल लगाना आदि क्रिया नहीं करते हैं तब उन केशों में जू आदि निरन्तर रहेंगे, उनसे पीड़ा होने पर संक्लेश होगा, अथवा खुजली आदि करने से उन जीवों को पीड़ा होगी इत्यादि दोष होंगे अत: जिनेन्द्र देव ने साधुजनों को केशलोच की आज्ञा दी है। इस प्रकार केशलोच नहीं करने पर क्या दोष आता है इस बातको बतलाया ।।६।।
अर्थ--केशलोच करने से मस्तक का मुंडन होकर निर्विकारता आती है, उससे मुक्तिमार्ग की ध्यानादि शिया में प्रवृत्ति हो जाया करती है। वोतरागभाव आता है ।।९।।
अर्थ--लोच द्वारा दमन हो जाने से इंद्रियों के विषयों में प्रवृत्ति कम हो जाती है। केशलोच के कारण स्वाधीनता बनी रहती है, अर्थात् केशों को काटने के लिये कैंची आदि को याचना नहीं करने से स्वाधीनता आती है। हिंसादि दोष दर होते हैं । शरीर में ममत्व नहीं रहता ।।९२।।
अर्थ-अपनी आत्म दर्शिता एवं आत्म श्रद्धा लोच करने से प्रगट होती है। दुःख सहन का अभ्यास सहज ही हो जाता है, धर्म पर प्रगाढ़ श्रद्धा होती है, केशलोच करने में शरीर का कष्ट सहन होता है और उससे कठोर चारित्र पालन, घोर तपश्चरण आदि का अभ्यास होता है अर्थात कष्ट सहिष्णुता प्रा जाने से, उच्च निर्दोष चारित्र पालन और अनशन आदि तपों में सहज प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार केशलोच करने के गुण बताये हैं ।।६।।
लोच प्रकरण समाप्त ।