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________________ मरणकण्डिका न 5 दन्तोष्ठ कर्णाक्षि, नखकेशादि संस्कृतिम् । भजन्त्युद्वर्तनं स्नानं, नाभ्यण ब्रह्मचारिणः ।।६४॥ न स्कन्धकुट्टनं वासं, माल्यं धूपविलेपनम् । कराम्यां मलनं चूर्ण, चरणाभ्यां च मईनम् ॥६॥ या रूक्षा लोचबीभत्सा, सर्वांगीणमला तनुः । सा रक्षा ब्रह्मचर्यस्य, प्रख्दनललोमिका ।।६।। व्युत्सृष्टदेहता। प्रासने शयने स्थाने, गमने मोक्षणे आहे । भामर्शन परामर्श, प्रसारापुञ्चनादिषु ॥६॥ अब पुत्सृष्टदेहता गुण का प्रतिपादन तीन श्लोकों द्वारा करते हैं अर्थ--ब्रह्मचर्य व्रतधारी साधुजन अपने भौं, दांत, प्रोठ, कान, आंख, नख, केशादि के संस्कार को नहीं करते हैं । उबटन और अभ्यंग स्नान नहीं करते हैं ।।१४।। अर्थ-शरीर को दबाना, कूटना आदि नहीं करते, सुगंधित पदार्थ, पुष्पमाला, कालागरुधूप विलेपन आदि का त्याग करते हैं। हाथों से मलना, परों से रगड़ना, बाहूमर्दन इत्यादि क्रिया को नहीं करते हैं ॥१५॥ अर्थ-शरीर में रूक्षता, केशलोच से बीभत्सत्ता सर्वांग में मलका होना, नख लोमादि संस्कार नहीं करना इत्यादि से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। इन क्रियाओं से शरीर सौन्दर्थ समाप्त होता है और उससे ब्रह्मचर्य निर्दोष होता है । ।।६६।। इसप्रकार व्युस्सृष्टदेतागुरण का व्याख्यान समाप्त हुप्रा । प्रतिलेखन गुणको कहते हैं-- अर्थ-~-आसन, शयन, स्थान, गगन इन क्रियाओं में तथा किसी वस्तु को रखना और उठाना तथा शरीर मल का त्याग, शरीर का आमर्श ( स्पर्श ) परामर्श करने में एवं शरीर को फैलाना सिकोड़ना इन सब क्रियाओं में जीवों को रक्षा करने हेतु प्रतिलेखन अर्थात् पिच्छी का धारण अत्यन्त आवश्यक है, पिच्छी द्वारा भली प्रकार
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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