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________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अर्ह अादि अधिकार [ ३७ स्वपक्षे चिह्न मालम्ब्यं, साधुना प्रतिलेखनम् । विश्वास संघमाधार, साधुलिग समयनम् ।।९।। लध्वस्वेदरजोग्राहि, सुकुमार मुदितम् ।। इति पंचगुणं योग्य, ग्रहीतु प्रतिलेखनम् ॥६६॥ इति प्रतिलेखन । इति लिगं । निपुणं विपुलं शुद्ध, निकाचितमनुत्तरम् । पापच्छेदि सदा ध्येयं, सार्वीय वाक्यमाहतम् ॥१००। गधं-सर्वभावहिताहितावबोध-परिणामसंवर-प्रत्यग्रसंवेग-रत्नत्रयस्थिरत्वतपो-भावना परदेशकत्वलक्षणगुणाः सप्त संपद्यन्ते जिनवचनशिक्षया ॥१०॥ से छोटे बड़े जोवों को रक्षा होती है। सोना है बैठना है वस्तु रखना उठाना है तो पिच्छी द्वारा जीवों को दूर कर उक्त क्रिया कर सकता है अत: साधुओं को पिच्छी ग्रहण आवश्यक है, तथा जैन साधुओं का यह चिह्न विशेष भी है. यह विश्वास और संयम का आधार है ।।६७-६८।। अर्थ-पिच्छो में पांच गुण बतलाये हैं-लघूत्व-यह हलकी होती है । अस्वेदत्व-पसीना ग्रहण नहीं करती। रजो अग्रहण-धूलि आदि को ग्रहण नहीं करती। सुकुमार है और कोमल है इसप्रकार मयूर पंखों की पिच्छी में ये गुण होते हैं ।१९९।। इसप्रकार यहां तक बालोस अधिकारों में से दूसरा लिंग नामा अधिकार पूर्ण हश्रा। लिंग के जो चार गुण बताये थे उनका कथन समाप्त हुआ। अब शिक्षा नामा तीसरा अधिकार प्रारम्भ करते हैं अर्थ-जिनेन्द्र देव के बाक्य निपुण हैं-प्रमाण नय से युक्त हैं । सूक्ष्म पदार्थ के विवेचन में समर्थ होने से विपुल और रागद्वेष रहित होने से शुद्ध हैं। अवमाढ अर्थ के प्रतिपादक प्रतिपक्ष रहित होने से अनुत्तर हैं । पापनाशक हैं, सदा ध्येयरूप और सब जीवों के हितकारक हैं ।।१०।। अर्थ--यहां गद्य द्वारा शिक्षा में जो सात गुण होते हैं उनको बतलाते हैंसम्पूर्ण पदार्थों में कौनसा हितरूप है कौनसा अहित रूप है इसका ज्ञान जिन वाक्यों से होता है इसप्रकार हेयका ज्ञान और उपादेय का ज्ञान होता है भावसंवर प्राप्ति ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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