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मरणकण्डिका
सर्वे जीवादयो भावा, जिनशासन शिक्षया । तत्वतोऽत्रावबुध्यन्ते, परलोके हिताहिते ।।१०२।। हिताहितमजानानो, जीयो मुह्यति सर्वथा । मूढो गृह्णाति कर्माणि, ततो भ्राम्यति संसती ॥१३॥ हितावानाहि-तत्त्यागौ, हिताहितविबोधने । यतस्ततः सदा कार्य, हिताहितवियोधनम् ।।१०४।। स्वाध्यायं पञ्चशः कुर्वस्त्रिगुप्तः पंचसंवृतः ।
एकानो जायते योगी विनयेन समाहितः ॥१०५॥ - - - - - - संसार शरीर भोगों से नवीन-नवीय संवेष ( ET, I होती है, इनाय में स्थिरता, तप करने की भावना और धर्मोपदेश देने की योग्यता ये गुण जिन शिक्षा द्वारा प्राप्त होते हैं ।।१०१॥
आगे इन्हीं को बताते हैं
अर्थ-जिन शासन की शिक्षा द्वारा जीव अजीव आस्रव आदि सभी पदार्थों का वास्तविक बोध होता है। परलोक में हितरूप क्या है अहितरूप क्या है इसका ज्ञान होता है ।।१०२।।
अर्थ-जब तक यह जीव हित और अहित को नहीं जानता है तब तक वह सर्वथा मोहित रहता है मोह के कारण मूढ़ हुआ प्राणी कर्मों का बंध करता है और उससे संसार भ्रमण करता है ।।१०३।।
अर्थ-जब यह भव्य जीव हित अहित को जान लेता है तब भली प्रकार से हितका ग्रहण और अहित का त्याग करने में समर्थ होता है, इसलिये हमेशा अपने आत्मा का हित क्या है और अहित क्या है इसको जानना चाहिये ।।१०४।।
अर्थ—जो पंच प्रकार के स्वाध्याय ( वाचना, पृच्छना, अनुप्रक्षा, आम्नाय और उपदेश ) को करता है, त्रिगुप्ति पालन और पंच इन्द्रियों का निरोध करता है वह विनय युक्त साधु एकाग्रचित्त होता है-ध्यान के योग्य होता है ।।१०।।