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भक्तप्रत्याध्यानमरण अहं आदि अधिकार प्रदृष्टपूर्वमुच्चार्य मभ्यस्यति जिनागमम । यथा यथा यतिधर्म, प्रहृष्यति तथा तथा ।।१०६॥ शुद्धधा निःकंपनो मूत्वा, हेयादेय विचक्षणः । रत्नत्रयात्मके मार्गे, यावज्जीवं प्रवर्तते ॥१०७॥ तपस्यभ्यन्तरे बाह्य, स्थिते द्वादशधा तपः । स्वाध्यायेन समं नास्ति, न भूतं न भविष्यति ।।१०।। बहीभिर्भवकोटिभिर्यदज्ञानेन हन्यते । हंति ज्ञानी त्रिभिगुप्तस्तत्कर्मान्तमुहूर्ततः ॥१०॥ षष्टादमादिभिः शुद्धिरजानस्यास्ति योगिनः। ज्ञानिनो वल्भमानस्य, प्रोक्ता बहुगुणास्ततः ॥११॥ स्वाध्यायेन यतः सर्वा, भाविताः संति गुप्तयः ।
भवत्याराधना मृत्यौ, गुप्तीना भावने सति ।।११।।
अर्थ-जैसे जैसे विशिष्टरूप जिनागम का अभ्यास करता है जिसमें कि अदृष्टपूर्व-अपूर्व अपूर्व अर्थ भरा है श्रेष्ठ गूढ़ अर्थ भरा है, वैसे वैसे मूनिधर्म में महान हर्ष-विशिष्ट अनुराग होता है ।।१०६।।
अर्थशास्त्राभ्यास द्वारा जिसे हेयोपादेय को जानने में विचक्षणता प्राप्त हुई है वह पुरुष रत्नत्रय मार्ग में जीवन पर्यंत प्रयत्नशील रहता है ।।१०।।
अर्थ-बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से तप बारह प्रकार का है, उसमें स्वाध्याय नामके अभ्यन्तर तपके समान दूसरा तप नहीं है, न था और न आगे होगा। स्वाध्याय हो तोनों कालों में सर्व श्रेष्ठ तप है ।।१०।।
___ अर्थ-बहुत से करोड़ों भवों में अज्ञान पूर्वक किये आचरण से जो कर्म नष्ट होता है वह त्रिगुप्ति धारक ज्ञानी के अन्तर्मुहूर्त में नष्ट हो जाता है ॥१०९।।
अर्थ-अज्ञामी योगी षष्ठोपवास (बेला) अष्टमोपवास ( तेला ) आदि तम द्वारा भी जिस शुद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता उस शुद्धिको ज्ञानो भोजन करते हुए भो प्राप्त कर लेता है । अत: स्वाध्याय ज्ञान में बहुत गुण बताये हैं ।।११०॥
अर्थ-स्वाध्याय के द्वारा सभी गुप्तियां भावित होती हैं और गुप्तियों के सिद्ध होने पर मरण काल में आराधना की प्राप्ति हो जाती है ।।११।।