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________________ ४० ] मरणकण्डिका जिनाज्ञा स्वपरोत्तारा, भक्तिर्वात्सल्यवर्द्धनी। तीर्थप्रयतिका साधोनितः परदेशना ॥११२।। इति शिक्षा। विनयो दर्शने झाने, चारित्रे तपसि स्थितः। उपचारे च कर्तव्यः, पंच धापि मनीषिभिः ॥११३॥ उपहावि तात्पर्य, भक्त्यादिकरणोद्यमः । सम्यक्त्वविनयोज्ञेयः, शंकादीनां च वर्जनम् ॥११४॥ अर्थ-स्वाध्याय के द्वारा जिनाज्ञा का पालन, स्व-पर उद्धार, भक्ति, वात्सल्यवृद्धि, तीर्थ प्रवर्तन, उपदेश इतने गुण प्राप्त होते हैं ।।११२।। भावार्थ-शास्त्र का स्वाध्याय करने से भगवान की आज्ञा क्या है इसका बोध होता है, स्वका उद्धार और परका उद्धार कैसे हो यह ज्ञान हो जाता है। स्वाध्याय से गुणों में प्रगाढ़ भक्ति जाग्रत होती है। साधर्मी में वात्सल्य बढ़ता है । ज्ञान होने से प्रभावना करने में समर्थ होता है। तीर्थंकर का तीर्थ रत्नत्रयधारी के रहने से होगा, श्रुतकी परिपाटी बनी रहने से होगा और रत्नत्रयधारी तथा श्रुतकी परिपाटी स्वाध्याय करने वाले होंगे तभी संभव है अतः स्वाध्याय तीर्थ प्रवर्तक है। परको धर्मोपदेश तो स्वाध्याय के बिना दे नहीं सकते। इसलिये स्वाध्याय में इतने गुण निवास करते हैं ऐसा जानकर उसको सदा करते रहना चाहिये 1 शिक्षा प्रकरण समाप्त (३) अब विनय नामका चौथा अधिकार प्रारम्भ होता है अर्थ- बुद्धिमानों को पांच प्रकार विनय करना चाहिये, सम्यग्दर्शन में, ज्ञान में, चारित्र में और उपचार में। रत्नत्रय और रत्नत्रय धारियों में आदर के भाव, भक्ति का होना, उनके प्रति झुकना, नम्रता होना बिनय कहलाता है । अथवा जो अशुभ कर्मों को दूर करता है उसे विनय कहते हैं---"विनयति-अपनयति अशुभं कर्म इति विनयः' इसप्रकार विनय शब्दकी निरुक्ति है ।।११३।। ज्ञान विनय पाठ प्रकार का है-काल, विनय, उपषान, बहुमान, प्रनिह्नव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय । अब यहां पर आठों का कथन करते हैं अर्थ–१ कालविनय-शास्त्र का स्वाध्याय योग्य काल में करना, संध्या समय पर्व काल आदि कालों में सूत्र ग्रंथों का अध्ययन नहीं करना इत्यादि कालविनय है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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