SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ४१ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार जानीयो विनयः काले, विनयेऽवग्रहे मतः । बहुमानेऽनपह्न त्यां, व्यंजनेऽर्थे द्वयेऽष्टधा ।।११५॥ कुवंशः समिती गुप्ता, प्रणिधानस्य वर्जनम् । चारित्रविनयः साधो, र्जायते सिद्धिसाधकः ॥११॥ प्रणिधानं द्विधा प्रोक्त, मिद्रियानिद्रियाश्रयम् । शब्चादि विषयं पूर्व, परं मानादिगोचरम् ॥११७॥ २.विनय-श्रुत एवं श्र तज्ञानीका भक्ति आदर करना । ३. उपधान विशेष नियम धारण कर ग्रंथ पढ़ना अर्थात् अमुक शास्त्र का अध्ययन पूर्ण नहीं होगा तब तक इस वस्तुका मुझे त्याग है इत्यादिरूप नियम लेकर स्वाध्याय करना । ४. बहुमान-शुभ मनोयोग से पढ़ना, ग्रंथ को उच्चस्थान में विराजमान करके नमस्कार करके पढ़ना आदि । ५. अनिहुव-गुरु का नाम या ग्रन्थ का नाम नहीं छिपाना। ६. व्यञ्जन शुद्धि-ककारादि ध्यंजनों का शुद्ध उच्चारण । ७. अर्थ शुद्धि-जिस शब्द का जो अर्थ हो उसे वहां वैसे हो प्रकरण आदि के अनुसार करना । ८. उभय शुद्धि--व्यञ्जन शुद्धि और अर्थ शुद्धि पूर्वक ग्रंथ पढ़ना ॥११४॥ अर्थ-उपबृहण आदि पहले कहे गये जो गुण हैं वे तथा अरिहंत आदिमें भक्ति पूजा आदि करने में उद्यम शंका आदि दोषों का त्याग ये सब सम्पकल का विनय है ॥११॥ अर्थ--इन्द्रियों के विषयों का त्याग और कषायों का त्याग करना प्रणिधान का त्याग कहलाता है । समिति और गुप्तियों का पालन करना, साधुओं का यह सब आचरण चारित्र विनय कहलाता है जो सिद्धि का साधन भूत है ।।११६।। इन्द्रिय विषयों का त्याग इत्यादिरूप प्रणिधान का त्याग कहा था । यहां प्रणिधान का विशेष वर्णन करते हैं अर्थ-प्रणिधान दो प्रकार का है- इन्द्रिय प्रणिधान और अनिन्द्रिय [मन] प्रणिधान । शब्द रस आदि विषयों में होने वाला प्रणिधान इन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है, तथा मान मद आदि विषयक अनिन्द्रिय प्रणिधान कहलाता है ॥११७।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy