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________________ ४२ ] मरणकण्डिका उक्तं शम्दे रसे रूपे, स्पर्श गन्धे शुमेऽशुभे । रागद्वेषविधानं यत्रावाचं प्रणिधानकम् ॥११८।। मान माया मद क्रोध, लोभमोहादिकल्पनम् । अनिद्रिया श्रयं ज्ञेयं, प्रणिधानमनेकधा ॥११॥ तपस्तपोऽधिके भक्तिर्यच्छेषाणामहेलनं । स तपो विनयोऽवाचि, ग्रंथोक्तं चरतो यतेः ॥१२०॥ कायिको वाचिकश्चैतः, पंचमो विनयस्त्रिधा। सर्वोप्यसौ पुनधा, प्रत्यक्षेतर भेदतः ॥१२॥ संभ्रमो नमनं सूरेः, कृतिकाजलिक्रिया । सम्मुखं यानमायाति, यास्यनुवजनं पुनः ॥१२२॥ अर्थ-शुभ और अशुभ शब्द, रस, रूप, स्पर्श और गन्ध में जो राग द्वेष होता है उसे इन्द्रिय प्रणिधान जानना ।।११८।। अर्थ-मान, माया, मद, क्रोध, लोभ, मोह आदि भाव मन में उत्पन्न होना अनिन्द्रिय प्रणिधान है वह अनेक प्रकार का है ।।११।। [सब प्रकार के प्रणिधान का त्याग कर अपने चारित्र को उज्वल बनाना चारित्र का विनय है।] चौथे तप विनयका वर्णनअर्थ-बारह प्रकार के अनशन आदि तपमें और अपने से जो साधु अधिक तपस्वी हैं उसमें भक्ति का होना तप का विनय है । जो साधु जन तप में अपने से कम हैं उनका तिरस्कार नहीं करना यह भो तप बिनय है, शास्त्रोक्त आचरण करने वाले साधु के इसप्रकार तप का विनय होता है ॥१२०॥ ___ अब उपचार नामका पांचों विनय बतलाते हैं अर्थ---उपचार विनय तीन प्रकार का है-कायिक, वाचिक और मानसिक । पुनः उन तीनों विनयों के दो-दो भेद हैं.---प्रत्यक्ष और परोक्ष ।।१२१॥ कायिक विनय का वर्णन चार श्लोकों द्वारा करते हैं अर्थ-आचार्य आदि आने पर उठकर खड़े होना, नमन करना, अंजली बद्ध नमस्कार, आचार्य भक्ति आदि बोलकर नमस्कार रूप कृतिकर्म करना, आचार्य आदि
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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