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________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार नीचं यानमवस्थानं, नीचं शयनमासनं । प्रदानमवकाशस्थ, विष्टरस्योपकारिणः ॥ १२३ ॥ देशकालवयोभाव धर्म योग्य क्रियाकृतिः । प्रेषणादीनामुपधेः प्रतिलेखनम् ॥ १२४ ॥ । करणं किन कामादिकः । कायिको विनयोsवाचि साधूनां स यथोचितः ॥। १२५ ।। 1 [ ४३ बड़े साधुजन को आते देखकर उनके सम्मुख जाना, अन्यत्र विहार कर रहे हों तो उनके पोछे कुछ दूर तक जाना, अथवा खुद को भी साथ विहार करना हो तो मार्ग में उनके पीछे चलना ॥ १२२ ॥ अर्थ - पीछे गमन, नीचे स्थान पर खड़े रहना, उन आचार्यादि से नीचे स्थान पर शयन और आसन होना । उनके लिये निवास स्थान देना, सिंहासन देना, इस प्रकार गुरुजनों के प्रति प्रवृत्ति करना ।। १२३ । 1 अर्थ- गुरुजनों की सेवा देश, काल, उमर, भाव और धर्म के अनुसार करना चाहिये । रूक्ष प्रदेश है अथवा स्निग्ध है उसको देखकर सेवा करना, शीत ऋतु है अथवा अन्य है इसप्रकार काल के अनुकूल और उमर बाल वृद्ध आदि अवस्थाके अनुसार सेवा करें | धर्म के अनुसार अर्थात् व्रतादि में दूषण न आवे इस प्रकार सेवा करें। गुरु जन के भाव के अनुकूल वे जैसा चाहते हैं वैसे उनके शरीर को अपने पैर आदिका स्पर्श न हो इसप्रकार बैठकर सेवा करनी चाहिये। उनकी जैसी आज्ञा हो वैसे तथा उनका कुछ संदेश अन्यत्र भेजना हो तो उसे विनय पूर्वक स्वयं भेज देथे। आचार्य आदि के शास्त्र, पीछी कमण्डलु आदि उपकरणों का शोधन करे - उनमें जीव आदि का प्रवेश नहीं होने दे || १२४ ॥ अर्थ - इस प्रकार अपने शरीर द्वारा नित्य सेवा करना कायिक विनय कहा गया है, वह साधुजनों में यथा योग्य हुआ करता है ।। १२५ ।। बाचिक विनय का प्रतिपाद करते हैं
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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