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मरण कण्डिका
पूजासम्पादकं वाक्यमनिष्ठुर मकर्कशम् । अक्रियावर्णकं श्रव्य, सत्यं सूत्रानुवीचिकं ॥१२६॥ उपान्तमाहिर हितमिनमहेलनम् । योगिनो भाषमागस्य, विनयोऽवाचि वाचिकः ।।१२७॥ हितप्रियपरिणामं, विवधानस्य मानसः । पापाव परिणाम, मुचतो बिनयोमतः ॥१२॥ इत्ययं बितयोऽध्यक्षः, परोक्षः स मतो गुरोः । अप्रत्यक्षेपि या वृत्ति, राज्ञानिर्देशचर्ययोः ॥१२६।। संयतानां गृहस्थानां, धायिकाणां यथायथम् । विनयः सर्ववा कार्यः, संसारान्तं यियासुना ॥१३०॥ - - - - - - -
अर्थ--आदर सूचक वचन बोलना, निष्ठुरता से रहित, कठोरता से रहित पापारम्भ कारक वचन से रहित कर्णप्रिय, सत्य शास्त्र के अनुसार ही बचन बोलना ।।१२६।।
अर्थ-उपशम भाव को करने वाले, गृहस्थ जैसे चकार मकार वाले न हो ऐसे वचन बोलना चाहिये । हितकर, मित-अल्प, तिरस्कार रहित ऐसे वचन योगी जन बोलते हैं यह वाचिक विनय कहा गया है ।। १२७।।
मानस विनय का वर्णनअर्थ-मनमें हित रूप प्रियरूप कोमल परिणाम रखने वाले के एवं पापास्रवके कारणभूत परिणाम का त्याग करने वाले मुनि के मानस बिनय होता है। अर्थात् परिणाम निर्मल रखना, अशुभ भावको छोड़ देना मानसिक विनय कहलाता है ।।१२८॥
अर्थ-इसप्रकार कायिक आदि तीन प्रकार का विनय गुरुजनों के प्रत्यक्ष रहते हुए किया जाय तो वह प्रत्यक्ष विनय कहलाता है और उनके प्रत्यक्ष नहीं रहते हुए किया जाता है वह परोक्ष विनय है । तथा परोक्ष में भी आचार्य की आज्ञा का पालन करना, उनके निर्देश के अनुसार चलना ये सब परोक्ष विनय है ।।१२९।।
अर्थ-- साधुओं को साधुओं का विनय करना चाहिये, गृहस्थ और आर्थिकाओं का भी उनके योग्य बिनय होता है । अपने से छोटे साधुजन हैं तो उनके साथ यथा