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भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार
[४५ विनयेन विना शिक्षा, निष्फला सकला यतेः । विनयो हि फलं तस्याः, कल्याणं तस्य चिन्तितम् ।।१३१॥ विमुक्तिः साध्यते येन, श्रामण्यं येन वद्ध चते। सुरिराराध्यते येन, पेन संघः प्रसाधते ॥१३२॥ विनयेन विना सेन, निर्वृति यो यियासति । तरडेन विना मन्थे, स तितोषति वारिधि ।।१३३॥ कल्पाचार परिज्ञानं, दोपनं मानभंजनम् ।
प्रात्मशुद्धिरवैचित्यं, मैत्री मार्दवमार्जवम् ॥१३४॥ योग्य प्रिय आचरण, गृहस्थ को, आर्यिका को आशीर्वाद आदि द्वारा सन्तुष्ट करना ये सब छोठे तथा बड़े के साथ होने वाले प्रिय व्यवहार विनय को कोटि में आ जाते हैं । इसप्रकार के विनय को संसार का नाश करने के इच्छुक व्यक्ति को सदा करते रहना चाहिये ।।१३०॥
___ अर्थ-विनय के बिना साधु की सब शिक्षा निष्फल है क्योंकि शिक्षा का फल तो विनय करना है, बिनय करने से आत्म कल्याण होता है । विनय का फल सम्पूर्ण कल्याणों को प्राप्ति है ।। १३१।।
अर्थ-जिसके द्वारा मुक्ति सिद्ध की जाती है, जिसके द्वारा साधुपना वृद्धिंगत होता है, जिसके द्वारा आचार्य को आराधना होती है, जिसके द्वारा संघ प्रसन्न किया जाता है वह विनय है, अर्थात् बिनय करने से ये सर्व कार्य अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं ।।१३२।।
अर्थ---ऐसे विनय गुण के बिना जो मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, वह बिना जहाज के सागर को पार करना चाहता है, अर्थात् जिस प्रकार बिना जहाज के सागर तिरा नहीं जाता उसप्रकार विनय के बिना संसार से मुक्त नहीं हुआ जाता ।।१३३।।
___ अर्थ-कल्प प्रायश्चित्त को या प्रायश्चित्त ग्रंथ को कहते हैं, मुनिजनों के आचरण का जिसमें कथन हो वह आचार शास्त्र है, विनय करने से इन दोनों शास्त्रों का परिज्ञान वृद्धिंगत होता है । विनयसे मानकषाय घमण्ड का अभाव होता है, बात्मा को शुद्धि चित्त में स्थिरता, मैत्री भाव, मार्दव आर्जव भाव प्राप्त होते