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मरणकण्डिका
भक्तिः प्रल्हादनं कोति, लाघवं गुरुगोरवं । जिनेंद्राज्ञा गुणश्रद्धा, गुणा वैयिका मताः ॥१३५॥ यिनयं न विना ज्ञानं, दर्शनं चरितं तपः । कारणेन विना कार्य, ज्ञायते कुत्र कथ्यताम् ॥१३६॥ समस्ताः संपरः सद्यो विधाय वशतिनीः । चितामणि रिवाभीष्ट, विनयः कुरुते न कि ॥१३७॥ समाहितं मनो यस्य, वश्यं त्यक्ताशुभास्रवम् । उह्यते तेन चारित्र, मश्रान्तेनापदूषणम् ॥१३८॥
अर्थ-जिनेन्द्र आदि में प्रगाढ़ भक्ति, प्रसन्नता, यश, लाघव [मनका भारी नहीं होना गुरुका गौरव बढ़ना, जिनेन्द्र को आज्ञा का पालन, गुणों में श्रद्धा भाव ये सबके सब गुण विनय करन से प्राप्त होते हैं ।।१३५॥
अर्थ-विनय के बिना तो ज्ञान, दर्शन चारित्र तप ये कुछ भी उपयोगी नहीं हैं अथवा विनय के अभाव में ये होते हो नहीं । कारण के बिना कार्य होना कहां सम्भव है ? अर्थात् जैसे कारण बिना कार्य नहीं होता वैसे विनय उक्त ज्ञान आदि नहीं होते हैं ॥१३६।।
अर्थ-- इसप्रकार समस्त संपदाओं को शीघ्र वश वर्ती करने वाले, इस चिन्तामणि के समान अभीष्ट विनय को क्यों न किया जाय ? अवश्य ही किया जाना चाहिये ॥१३७॥
विनय सूत्र समाप्त
समाधि नामका पांचवां अधिकार
अर्थ-जिसका मन समाहित है [शान्त या स्थिर है] वशमें है अशुभ आम्रव के कारणभूत परिणाम जो मन में नहीं करता ऐसे मनवाले अविश्रोत साधु द्वारा ही निर्दोष चारित्र का वहन सम्भव है । यहां पर समाहित मन का यह भी अर्थ है कि जिस मनको जप, तप, स्वाध्याय, स्तोत्र आदि किसी भी कार्य में सहज ही लगा सके ।।१३८।।