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________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं प्रादि अधिकार तितयाविव पानीयं, चारित्रं चहचेतसः । वचसा वपुषा सम्यक्, कुर्वतोऽपि पलायते ॥१३६।। परितो धावते चेतश्चरण्युरिव चंचलम् । परमाणुरिव क्षिप्रं, दूरं यात्यनिधारितम् ॥१४०॥ घांच्छिताभिमुखं स्वान्तं, निषेद्ध, केन शक्यते । नगापगापयो निम्ने, प्राप्तं तद्रूध्यते कथं ॥१४॥ न मूको वघिरोऽन्धो वा, भू ते श्रृणोति पश्यति । यस्तु हेयमुपादेयं, विषयाकुलितं मनः ॥१४२।। अर्थ-जिस साधु का मन चंचल है उसके वचन और काया से भली प्रकार चारित्र का आचरण करते हुए भो वह चारित्र पलायमान हो जाता है, जैसे कि चलनी में पानी टिकता नहीं पलायमान होता है अर्थात् गिर जाता है ।।१३९।। अर्थ-यह मन चारों ओर दौड़ता रहता है, वायुवत्-चंचल है, बिना किसी रुकावट के शीघ्र ही परमाणु के समान अत्यन्त दूर पहुंच जाता है ।।१४०।। अर्थ-अपने इष्ट विषय के सन्मुख जाते हुए इस मनको किसके द्वारा रोका जाना शक्य है ! पर्वत से नीचे की ओर गिरते हुए नदीके जलको किस प्रकार रोक सकते हैं ? ॥१४१॥ भावार्थ-यह है कि जैसे पर्वत से गिरते हुए जल को रोका जाना अशक्य है वैसे इष्ट वस्तु में जाते हुए मनको रोकना अशक्य है । अर्थ-जिसप्रकार मूक व्यक्ति बोल नहीं सकता, बहिरा सुनता नहीं और अन्धा देखता नहीं, इसप्रकार विषयों में फंसा मन हेयोपादेय तत्त्व को जानता नहीं, अथवा विषयाकुलित मन मूक के समान हेय और उपादेय तत्त्व का कथन नहीं कर सकता। बहिरे के समान उस तत्त्व को दूसरे से सुन नहीं सकता । अन्धे के समान उस हेयोपादेय वस्तु को देख नहीं सकता है ॥१४२।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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