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________________ ४८ ] मरणकण्डिका विकल्पविविधैर्लोकं, पूयित्वा मलीमसः । मेघवन्दमिव स्वान्त, क्षणेनैव विनश्यति ॥१४३।। न प्रवर्तयितु मार्गे, दुष्टो बाजीय सामान : ग्रहीतु शक्यते चेतो, न मत्स्य इव बोलनः ॥१४४॥ यस्य दुःखसहस्राणि, भजते वशवतिनः । संसारसागरे घोरे, बंभ्रम्यन्ते शरीरिणः ॥१४५।। संसारकारिणो दोषा, रागषमदादयः । जीवानां यस्य रोधेन, नश्यंति क्षणमात्रतः ॥१४६।। तदुष्टं मानसं येन, निवार्याशुभवृत्तितः । प्रवृत्तशुभ संकल्पं, स्वाध्याये क्रियते स्थिरम् ॥१४७॥ अभितो धावमानं तद्विचारेण निवर्त्यते । निगह क्रियते चित्तं, दुर्वृत्त इव लज्जितम् ।।१४८॥ - - -. -. अर्थ-अशुभ मलोन ऐसे विविध संकल्प विकल्पों द्वारा सम्पूर्ण लोक को परित करके यह मन शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, जैसे मेघों का समुदाय अनेक आकर प्रकार द्वारा आकाश को पूरित करके क्षण भर में विनष्ट होता है ॥१४३।। अर्थ-जैसे दुष्ट अश्व को मार्ग पर चलाना शक्य नहीं है जैसे अति स्निग्ध दोलन मत्स्यको पकड़ना शक्य नहीं है वैसे ही मनको वश करना शक्य नहीं है ।११४४|| अर्थ-जिस मनके वश में हुए ये संसारी प्राणो गण सहस्रों दुःखों को सहते हैं तथा घोर संसार सागरमें परिभ्रमण करते हैं ।।१४५॥ ___ अर्थ-जिस मनके रोक देने से राग, द्वेष, मद आदि संसार के कारणभुत जीवों के समस्त दोष क्षण मात्र में नष्ट हो जाते हैं, उस दुष्ट मनको अशुभवृत्ति से रोककर शुभ संकल्प में प्रवृत्त कर स्वाध्याय में स्थिर किया जाता है अर्थात् ऐसे चंचल और दुष्ट मनको स्वाध्याय स्थिर करना चाहिये ।।१४६-१४७।। अर्थ-चारों तरफ दौड़ते हुए इस मनको तत्त्व विचार द्वारा अपनी तरफ . लौटाया जाता है, जैसे खोटे आचरण करने वाले कुपुत्र आदि को उसके दुराचरण का ला फल दिखाकर लज्जित कर निगृहीत किया जाता है । अपने में बार-बार निन्दा गह
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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