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मररावागिद्धका स्ववशत्वमदोषत्यं धैर्यवीर्यप्रकाशनम् । नानाकारा भवत्येव, मचेलत्वे महागुणाः ।।६।। सम्यकप्रवृत्तनिःशेष, व्यापारः समितेन्द्रियः । इस्थमुत्तिष्ठते सिद्धौ, नाग्न्यगुप्तिमधिष्ठितः ।।८७॥ प्रापयादिलिगोऽपि, निवागह परायणः । जन्तुरच्छादकः शक्तेः संगत्यागी विशुद्धयति ॥१८॥ संस्कारा भावतः केशाः, संमृच्छन्ति निरन्तरम् ।
विशन्स्यागन्तवो जीवा, दूरक्षाः शयनादिषु ।।६।।
अर्थ- इसमें स्ववशता आतो है अर्थात मुनि लिंग में स्वेच्छा पूर्वक उठना बैठना, विहार कर जाना आदि कार्य संभव है हर कार्य में स्वाधीनता है। रागादि दोष नहीं होते, इस नग्न वेष से व्यक्ति का धैर्य और वीर्य प्रगट होता है । इस प्रकार के और भी अनेक गुण मुनिलिंग में निवास करते हैं ।।८।।
अर्थ-निन्थ लिंग के कारण संपूर्ण क्रियाओं में वह साधु सावधानी पूर्वक समीचीन प्रवृत्ति कर सकता है। इंद्रियाँ शांत हो जाती हैं अर्थात् इंद्रियरूपी अश्वों पर लगाम लग जाती है । गुप्तियों का पालन हो जाता है। इस प्रकार निःसंग हुआ वह साधु एक सिद्धि के लिये ही प्रयत्नशील हो जाता है ।। ८७।।।
अर्थ—जो अपवाद लिंगधारी है वह भी अपनी निन्दा गहीं करता हुआ अर्थात् मैं उत्सर्ग लिंगको धारण नहीं कर सका, मुझ में ऐसा धैर्य होना चाहिए था इत्यादि रूप पश्चाताप करे, यथाशक्ति परिग्रह का त्याग करे। जीव दया, इंद्रिय निरोध मन का निरोध करे। अपवाद लिंगधारो आर्यिका या क्षुल्लक या श्रावक श्राविका यह विचार करे कि हम संपूर्ण परिग्रह त्याग में असमर्थ हैं, कव ऐसा अवसर मिले कि जिससे मनिलिंग के योग्य शरीर प्राप्त हो । हमने अवश्य ही पूर्व जन्म में पाप संचय किया है जिससे आज उत्सर्ग लिंग धारण नहीं कर सकते । इत्यादि निंदा गर्दा युक्त होकर विशुद्ध परिणाम द्वारा आत्मशोधन करता है ।।८।।
इसप्रकार उत्सगलिंग अथवा अचेलगुण का वर्णन समाप्त हुआ।
अर्थ-~-साधुजन केशलोच करते हैं, यदि केशलोच न करे तो संस्कार के प्रभाव में केशों में संमूर्छन जोव उत्पन्न होंगे। शयन आदि के समय केशों में आगंतुक जीव इधर उधर से आकर बैठ जायेंगे, उनका प्रतीकार करना कठिन होगा ।।८९॥