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भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार
परिकम भयग्रन्थ, संसक्ति प्रतिलेखनाः । लोभमोहमवक्रोधाः, समस्ताः संति वजिताः ॥६४।। अङ्गाक्षार्थ सुख त्यागो, रूपं विश्वासकारणम् । परीषह सहिष्णुत्व, महवाकृतिधारणम् ॥८५॥
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में स्थित रहता है, इसप्रकार उत्सर्गलिंग आत्मस्थिति का कारण है। यह सहज स्वाभाविक वेष है अत: परम या श्रेष्ठ है। लोक विश्वास गुण-इस उत्सर्गलिंग से जगत् को विश्वास एवं श्रद्धा होती है कि इस साधु के लोभ लालच नहीं है शरीर से कितना निःस्पृह है, यह हमारे धनादिका अपहर्ता नहीं हो सकता क्योंकि जिसके तन पर वस्त्र ही नहीं वह क्यों चोरी आदि करेगा इत्यादि । इसप्रकार उत्सर्ग लिंग में अनेक गुण पाये जाते हैं।
अर्थ-परिकर्म, भय, ग्रंथ, संसक्ति, प्रतिलेखन, लोभ, मद, मोह, और क्रोध इन दोषों का त्याग उत्सर्ग लिंग में हो जाया करता है ।।८४॥
विशेषार्थ-निष्परिग्रही साधुको बस्त्र की याचना नहीं करनी पड़तो, धोना सुखाना आदि में समय नहीं जाता, वह समय स्वाध्याय ध्यान में लगता है । इसप्रकार परिकर्म वर्जन होता है। उत्सगं लिंगधारी को चौरादि का भय नहीं रहता, यह भय विवर्जना गुण हुआ । ग्रंथत्याग-इस लिंग में परिग्रह त्याग होता है। समस्त पदार्थ का त्याग हो जाने से आसक्ति का अभाव होता है। कोई पदार्थ जब पास में नहीं है तो उठाना रखना देखभाल आदि नहीं करना पड़ता इसको अप्रतिलेखन गुण कहते हैं। लोभ, मोह, मद और क्रोध परिग्रह के कारण होते हैं, यहाँ परिग्रह है नहीं अत: लोभादि का परिहार हो जाता है।
अर्थ-उत्सर्ग लिंग धारण करने से शरीर सुख इंद्रिय सुख विषय सुखों का त्याग हो जाता है । यह लिंग विश्वास का हेतु है । इसमें परीषह सहिष्णता आती है। यह अर्हन्त को आकृति धारण करना रूप है अर्थात् अर्हन्त प्रभु भी इस उत्सर्ग लिंग वेष वाले होते हैं ।।८५।।