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मरणकण्डिका
समृद्धस्य सलज्जस्य, योग्यं स्थानविदतः । मिथ्याहा प्रचुरजाते, रनौत्सर्गिकमिष्यते ।।१।। औत्सर्गिक मचेलत्वं, लोचो व्युन्सृष्टदेहता । प्रतिलेखनमित्येवं, लिंगमुक्तं चतुर्विध ।।८२॥ यातासारामा ल्य, निवेकास्थितिङ्गिया।
परमोलोक विश्वासो, गुस्सालिंगमुपेयुषः ।।१३।। --... -- - . . .- -. -
अर्थ-जो गृहस्थ समाधि का इच्छुक तो है किन्तु अधिक धनाढय है और अतिलज्जावान है अथवा जिसके परिवार के व्यक्ति मिथ्याइष्टि हैं ऐसे गृहस्थ को अपवाद लिंग हो योग्य है अर्थात् उसे वस्त्र का त्याग नहीं कराना चाहिये । वस्त्र सहित अवस्था में यथायोग्य समाधिमरण करना कराना युक्त है ॥८॥
___ अर्थ-औत्सर्गिक लिंग चार प्रकार का है-अचेलकत्व-वस्त्र मात्रका त्याग । लोच-शिर, दाढ़ी एवं मूछके केशोंका हाथों से उखाड़ना (केशलोच) व्युत्सृष्ट देहताशरीर के ममत्व का त्याग । प्रतिलेखन-पिच्छी ग्रहण करना । मुनिवेष में ये चार महत्वपूर्ण चिह्न हैं । इन चार के बिना मुनि लिंग संभव नहीं है ।।८।।
उत्सर्ग लिंग क्यों धारण किया जाता है इस बातको बतलाते हैं
अर्थ-उत्सर्ग लिंग यात्रा का साधन है, गृहस्थ से विवेक अर्थात् पृथक् करण रूप है, आत्मस्थितिरूप है, शरीरस्थितिरूप है, श्रेष्ठ है, लोकों को विश्वास का कारण है इसप्रकार इतने गुण उत्सर्ग लिंग धारण करने में होते हैं ।।३।।
भावार्थ-यहां पर उक्त गुणों का विवेचन करते हैं-यात्रा साधन गुणनग्न वेषको देखकर आहारादि दान गृहस्थजन दे सकेंगे। इस व्यक्ति में रलत्रय धर्म है ऐसी प्रतीति का कारण उत्सर्ग लिंग है यह मोक्षमार्ग की यात्रा में इस प्रकार साधनभत है। इस वेषसे गृहस्थ से साधु का पृथक्करण भली प्रकार से हो जाता है अतः इस लिंग में गार्हस्थ्य विवेक नामका गुण है। आत्मस्थिति गुण-उत्सर्ग लिंगधारी को सदा विचार रहेगा कि मैंने वस्त्रादिका त्याग संसार के नाना दुःखों से छुटने के लिये किया है, चतुर्गति भ्रमण न हो इसलिये किया है, इस बेष में यदि कोई कपट आदि करूगा तो दुर्गति का पात्र बनूगा । इसप्रकार विचार आने से सदा वह आत्म भावना