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________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अहं आदि अधिकार [३१ यस्य त्रिस्थानगो घोषो, दुनियारो विरागिणः । लिग मौत्सगिक तस्मै, संस्तरस्थाय दीयते ।।८०॥ उत्सर्ग लिंग भी नाम है तथा अनौगिक लिंगका अपवाद लिंग भी नाम है। उत्कृष्ट लिंग औत्सर्गिक है । जिनेन्द्र ने दोनों लिंगों का वर्णन किया है ।।७।। भावार्थ-संपूर्ण परिग्रह का यावज्जीव त्याग करना उत्सर्ग है और इसके साथ नग्न रूप धारण करना औत्सर्गिक अथवा उत्सर्ग लिंग कहलाता है। यह दिगम्बर जैन साधु के होता है भक्तप्रत्याख्यानमरण के अधिकारी उत्सर्ग लिंगधारी साधुजन होते हैं । अपवाद लिंग गृहस्थ के होता है, अन्त समय में गृहस्थ यदि समाधिमरण नका चाहता है और उसके सिर में ( पुरुषलिंग-अंडकोष ) दोष नहीं है तो वह औत्सर्गिक लिंग अर्थात् निग्रंथ नग्न वेष लेकर समाधिमरण कर सकता है । जिस गृहस्थ के पुरुषलिंग में दोष है, जो गृहस्थ अतिलज्जाशील है, जो मिध्यान्त्री परिवार वाला है, ऐसा गृहस्थ समाधिमरण करते समय कौनसा लिंग धारण करे, इस बातका वर्णन आगे को कारिकाओं में करेंगे । अर्थ-वैराग्यवान समाधिमरण करने का इच्छुक ऐसे गृहस्थ के पुरुष लिंग में यदि तीन स्थानों में दोष है तो उसके लिये संस्तर पर आरूढ़ होने पर अन्तसमय में उत्सर्गलिंग-नग्नवेष दिया जाता है ।।८।। विशेषार्थ-जो गृहस्थ अंतममय में दीक्षा ग्रहण कर समाधि करना चाहता है उसको मुनिदीक्षा देकर निर्यापकाचार्य भलोप्रकार से समाधिमरण में सहायक होते हैं, अब यदि उसके पुरुष लिंग में ( मेहन-अण्डकोष या लिंग में ) कोई दोष है तो उसको संस्तरारूढ़-आहार का क्रमशः त्याग करते हुए एवं वसतिका के बाहर के क्षेत्र का त्याग कराके अनंतर मुनि लिंग धारण कराते हैं | गृहस्थ के लिंग में त्रिस्थानगत दोष ये हैं-मेहन और दोनों वृषणों में दोष तथा लिग चमं से आच्छादित नहीं होना, अण्डकोष को वृद्धि होना, लिंग अधिक लम्बा होना आदि दोष हैं। कोई गृहस्थ ऐमा है कि उसके लिंग दोष तो नहीं है, किन्तु लज्जाशील अधिक है अथवा अन्य कुछ कारण है तो उसे मुनिलिग धारण नहीं कराना चाहिये । इसो बातको आगे कहते हैं।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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