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________________ ३० ] मरणकण्डका जायतेऽन्यवपीदृशम् । संघतोऽसंयतोऽपि सः ॥७६॥ श्रामण्यमपदूषणम् दुर्वारं कारणं यस्य भक्तत्यागमृते योग्यः, प्रवर्तते सुखं यस्य दुभिक्षा भयं योग्या दुरापा न च सूरयः ॥७७॥ नासावर्हति संन्यासमहटे पुरतो भये । मरणं याचमानोऽसौ निविष्णो वृत्ततः परम् ॥७६॥ इति श्रही । तदत्सगिक लिंगानां, लिगमत्सगिकं परं । attafie लिगानामपीदं वयंते जिनैः ॥७६॥ अर्थ — इसीप्रकार अन्य कोई दुर्वार कारण उपस्थित हो गया है तब वह भक्त प्रत्याख्यानमरण के योग्य होता है। भक्त प्रत्याख्यानमरण के योग्य संयत मुनि है तथा असंयमी भी यथायोग्य इस मरण को कर सकता है [ संयतासंयत भी यथाशक्य इस मरण के योग्य हैं ] इसप्रकार भक्त प्रत्याख्यान नामके सन्यासमरण के योग्य कौन है इस बातको यह अहं नामका अधिकार बतलाता है ||७६ || कौनसे साधु सल्लेखना के योग्य नहीं हैं इस बात को बतलाते हैं अर्थ - जिस साधु के चारित्र निर्दोष पलता हो, व्रतों में दोष उपस्थित न हो, बिना परिश्रम के संयम का निर्वाह हो रहा है, दुर्भिक्ष के कारण अन्न पान का अभाव नहीं है तथा निर्यापक आचार्य की प्राप्ति आगे दुर्लभ नहीं हूं ऐसे समय में समाधि नहीं करनी चाहिये । ऐसे साधुजन समाधि के अर्ह ( योग्य ) नहीं हैं, अनई ( अयोग्य ) हैं ॥७७॥1 अर्थ - आगामो काल में रोग दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं है वे साधु समाधि के योग्य नहीं हैं । इसप्रकार समाधि का अवसर अभी प्राप्त नहीं है और फिर भी कोई साधु समाधिमरण चाहता है तो समझना चाहिये कि वह अपने चारित्र से विरक्त हुआ है ||७८ ॥ अहं अधिकार समाप्त | लिंग नामका दूसरा अधिकार - अर्थ - औत्सर्गिक लिंग वालों के औत्सर्गिक लिंग और अनोत्सर्गिक लिंग वालों के अनत्सर्गिक लिंग होता है, इसप्रकार लिंग के दो भेद हैं । औत्सर्गिक लिंग का
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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