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________________ भक्तप्रत्याख्यानमरण अर्ह आदि अधिकार रोगो दुरुत्तरो यस्य, जरा श्रामण्य हारिणी । तिर्यग्भिर्मानवैर्देवं रूपसर्गा: प्रवर्तिताः ॥७३॥ अनुकूल होतो वा वैरिभिर्वृध हारिभिः । योsटव्यां पतितो घोरे, दुर्भिक्षे च दुरुतरे ॥७४॥ दुर्बलौ यस्य जायेते, श्रवण चक्षुषी तथा । वित्तु" न समर्थो यो, जङघाबल निर्वाजितः ॥ ७५ ॥ [ २९ ३५. कवच - क्षपक को धर्मोपदेश द्वारा वैराग्यरूप हढ़ कवच पहना देना इसमें घोर परीषद् विजयी सुकुमाल आदि मुनियों की कथायें हैं । ३६. समता -- समताभाव का वर्णन । ३७. ध्यान - धर्मध्यान आदि का सविस्तार कथन । ३८. लेश्या - छह लेश्या का कथन एवं मरते समय कौनसी लेश्या होवे तो क्षपक किस गति में जाता है इसका वर्णन | ३९. फल- चार आराधनाओं की आराधना करने से क्या फल मिलता है । ४०. आराधक के शरीर का त्याग क्षपक की मृत्यु होने के बाद संघका कर्तव्य क्या है क्षपक के शवका क्या करना इत्यादि विषय का कथन | उपर्युक्त चालीस अधिकारों में से प्रथम ग्रहं नामके अधिकार का प्रारम्भ करते हैं अर्थ- जिस मुनिके मुनिपने का नाश करने वाला बुढ़ापा आया है, या जिसको दूर करना अशक्य है ऐसा रोग आ गया है, अथवा तिर्यंच, मानव और देव द्वारा उपसर्ग प्राप्त हुआ है ||७३|| अर्थ- संयम को नष्ट करने वाले अनुकूल शत्रु द्वारा जो गृहीत है, भयंकर वनमें आ गया हो, भयंकर दुर्भिक्ष पड़ गया हो ||७४ || अर्थ -- जिसके नेत्र दुर्बल हो गये हों, अर्थात् नेत्रों से दिखना बिलकुल मंद हो गया हो । कर्ण दुर्बल हुए हों। जो विहार करने में असमर्थ हो चुका है, जंघाबल रहित हो गया हो ।।७५।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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