________________
सुस्थितादि अधिकार
[ १६३ छंद शालिनी-- तं गृहीते मार्गवेदी गणं स्वं राज्य क्षेत्रं भूमिपालं निरूप्य । साधुसूरे गृह्णतो निःपरीक्षं चित्रा दोषा दुनिवारा भवति ।।५३९ ।।
॥ इति निरूपणम् ॥ आपृच्छय क्षपकं सूरिावाति प्रतिचारकः । अनुज्ञातमपृच्छायां त्रयाणां मनसः क्षतिः ॥५४०।। इति पच्छा ॥
निरूपण नामका बीसवां अधिकार
रत्नत्रय मार्गके ज्ञाता आचार्य अपने स्वयंका और संघका भाव देखकर राज्य एवं राजा कैसा है ? समाधिमें बाधक तो नहीं है ? यह क्षेत्र या देश समाधिके योग्य है या नहीं इन सबको देखकर फिर समाधि के हेतु आये हुए क्षपकको ग्रहण करते हैंसमाधि करने के लिये आज्ञा देते हैं । यदि बिना परीक्षा किये समाधिके लिये साधुको स्वीकृति देते हैं तो दुनिबार विचित्र दोष आते हैं ।।५३६।।
विशेषार्थ-राज्य, राजा, संघ, शुभाशुभ विषयोंका विचार कर तथा स्वत: के और क्षपकके उत्साह आदिको देखकर आचार्य समाधिके लिये आज्ञा देते हैं। आचार्य सर्व प्रथम क्षपकको आहारमें लंपटता है या नहीं यह देखते हैं। यदि वह आहारमें लंपट है तो सदा आहारका चिंतन करेगा फिर आराधक कैसे होगा? भूख आदिसे पीड़ित हुआ रोना चिल्लाना प्रारंभ कर देगा। और इससे धर्मको दुषण प्राप्त होगा।
क्षपककी आराधनामें विघ्न आयेगा या नहीं इसका निर्णय यदि नहीं किया जाय तो विघ्न आनेपर क्षपकका त्याग करनेसे उसके कार्य की सिद्धि नहीं होगो और उससे आचार्य की निंदा हो जायगी । इस क्षपकके समाधिकार्यसे राज्यमें शुभ होगा या अशुभ, इसका परीक्षण आचार्य करते हैं । राज्यादिमें अशुभ होगा ऐसा ज्ञात होता है तो उस राज्यको छोड़कर अन्य राज्यका आश्रय लेना पड़ता है, क्योंकि राज्य का नाश हुआ तो क्षपकको क्लेश होगा और आचार्यको भी संक्लेश होगा । गणको समाधि कार्यसे उपद्रव होगा ऐसा ज्ञात होनेपर समाधिकार्यको हाथमें नहीं लेते हैं।
निरूपण अधिकार समाप्त (२०) ।