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________________ १६२] मरणकण्डिका प्राचार्यः करणोत्साहं विज्ञातु तं परीक्षते । जिघृक्षाऽविचिकित्साभ्यामुत्तमार्थे समाधये ॥५३७।। इति परीक्षणम् प्राराधनागतं क्षमं क्षपकस्य समोयुषः । दिव्येन निःप्रमावोऽसौ निमित्तेन परीक्षते ॥५३८।। जनों के साथ भलीप्रकारसे अवधारण करते हैं, क्योंकि सज्जनोंको परीक्षा करके-विमर्श करके कार्य करना चाहिये ।।५३६।। भावार्थ- आचार्य आगत मनिको आश्वासन देते हैं कि हे यते ! आप धन्य हैं । जो आराधना करने का निश्चय किया है। हम संघस्थ सेवाभावी परिचारक मनियों के साथ इस विषयमें विमर्श करते हैं। आप तबतक सुखपूर्वक संघमें विश्राम करें । कोई कार्य परीक्षण करके करना चाहिये यह सर्वसंमत बात है, अतः हम मुनियों के साथ विचार करते हैं। इस तरह उपसर्पण अधिकार पूर्ण हुआ (१८)। परीक्षा नामका उन्नीसवां अधिकार-- निर्यापक आचार्य आगत मुनिके आराधना क्रियाका कितना उत्साह है इस बातको परीक्षा करते हैं । आचार्य यह भी देखते हैं कि इस साधुके मनोज्ञ आहार में अभिलाषा आसक्ति और अमनोज्ञ आहार में ग्लानि है क्या ? अर्थात् इसके मिष्टाहार में लंपटता तो नहीं है । उत्तमार्थ जो चार आराधनायें हैं उनमें कितना उत्साह है। निर्विघ्न समाधि होने के लिये इन सब विषयोंका आचार्य परीक्षण करते हैं ।।५३७।। आराधना संपन्न कराने हेतु निकटमें आगत क्षपककी आराधनाके समय क्षेमसुख शांति होगो या नहीं इसकी आचार्य निःप्रमादो होकर दिव्य निमित्त ज्ञान द्वारा परीक्षा करते हैं ।।५३८।। विशेषार्थ-इस क्षपककी समाधि निर्विघ्न होगी या नहीं ? समाधिके लिये संस्तरमें आरूढ़ होनेपर इसके परिणाम शिथिल तो नहीं होंगे ? देश में शुभ होगा या नहीं इत्यादि आगामी विषयकी जानकारी आचार्य किसी देवके द्वारा या निमित्तज्ञान आदिसे कर लेते हैं इसतरह क्षपकके भविष्यको परीक्षा करते हैं । परीक्षा अधिकार समाप्त (१९) ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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