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सुस्थितादि अधिकार
दीक्षा प्रभृति निःशेषं विधायालोचनामहम् । विजिहीर्षामि निःशल्यश्चतुरंगे निराकुलः ११५३३ । एवं कृते स्वनिक्षेपे ततो ब्रूते गणेश्वरः । निर्विघ्नमुत्तमार्थ त्वं साधयस्व महामते ।। ५३४।। छंद शालिनी -
धन्यः स त्वं वंदनीयो बुधानां साधो ? बुद्धिनिश्चिता चास्तमोह | यस्यासन्नाराधनसिद्धि दूतों तीक्ष्णां जन्मारामशस्त्रों गृहीतुम ।।५३५ ।।
छद उपेन्द्रवज्जा
महामते तिष्ठ निराकुलः स्वं प्रयोजनं यावदिदं स्वदीयं ।
समं सहायैरवधारयामस्तत्वेन कृत्यं हि परोक्ष्य सद्भिः || ५३६ ॥
। इति उपसर्पण सूत्रम् ।
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भावार्थ - - समाधिका इच्छुक क्षपक निर्यापक आचार्यको निवेदन करता है कि हे प्रभो ! मैं आपके पावन चरणों के आश्रय में संयमका प्रकाशन करना चाहता हूँ, अर्थात् आलोचना आदिसे अपनेको शुद्ध करना चाहता हूँ ।
इसप्रकार क्षपक द्वारा निर्यापक आचार्य उससे कहते हैं सल्लेखना है उसकी साधना करो
दीक्षा के दिन से लेकर आजतक जो मेरे महाद्वैत आदिमें दोष लगे हैं उन सबकी पूर्णतया आलोचना करके शल्य रहित होना चाहता हूँ निराकुल हुआ मैं अब चार आराधनाओं में प्रवृत्ति करना चाहता हूँ ।।५३३ ।।
विनयपूर्वक प्रार्थना करनेपर एवं समर्पित होनेपर कि है महामते ! तुम निर्विघ्नतासे उत्तमार्थ-जो ||५.३४ ।।
निर्यापक आचार्य क्षपकसे कह रहे हैं कि सिद्धि रूपी स्त्रीकी दूतो के समान, जन्मरूपी उद्यान को नष्ट करनेके लिये तोक्ष्ण शस्त्र के समान आराधना को ग्रहण करने के लिये जिसकी बुद्धि निश्चित हो चुकी है ऐसे तुम धन्य हो । हे साधो ! तुम ज्ञानी पुरुषोंको वंदनीय हुए हो । अहो ! तुम मोहरहित हो ।। ५३५ ।।
आचार्यं क्षपको कह रहे हैं कि हे महामते ! तुम निराकुल होकर संघ में ठहरो, जब तक कि अपना प्रयोजन है, तब तक तुम्हारे इस विषयको परिचारक मुनि