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मरकण्डिका
छंद वंशस्थ --
गुरमीभिः कलितोष्टभिर्जनैः समेत्यकीति शशिरश्मिनिर्मलां । श्राराधनासिद्धिवरांगना सखों दबाति सूरिः क्षपकाय निश्चितम् ।।५२६ ॥
इति सुस्थितः ।
I
निर्वाचक गुणोपेतं उपसर्पत्यसौ
कृतिकर्म विधायासौ आचार्य वृषभं वक्ति
तीर्णपयोधीनां
युष्माकमीश पावान्ते
मार्गयित्वातियत्नतः सूरज्ञानचरित्रमार्गकः
परिपूर्ण त्रिशुद्धितः । मस्तकारोपितांजलि:
समाधानविधाथिनाम् ।
खोतयिष्यामि संयमम् ।। ५३२ ||
।।५३० ।।
।। ५३१०
आचारवान् आदि आठ गुणोंसे मण्डित निर्यापक आचार्य चन्द्र किरण के समान निर्मल ऐसो आराधना की सिद्धि रूपी श्रेष्ठ स्त्रीकी सखो नियमसे क्षपक के लिये देते हैं ।। ५२९ ।।
[ इस श्लोक में "समेत्य जनैः” इन दो पदों का अर्थ संदर्भ नहीं बैठा अतः छोड़ दिया है ] इसप्रकार अर्ह आदि चालीस अधिकारोंमेंसे सुस्थित नामका सतरहवां अधिकार समाप्त हुआ ।
उत्सर्पण नामका अठारहवां अधिकार
ज्ञान चारित्र मार्ग पर चलने वाला, यह क्षपक साधु आचारत्व आदि आचार्य के गुणों से युक्त ऐसे निर्यापक आचार्य का बड़े प्रयत्न से अन्वेषण करके उनके निकट जाता है ||५३०||
मन वचन कायकी शुद्धि पूर्वक आवर्त शिरोनति कायोत्सर्ग सहित सिद्धभक्ति, भक्ति और आचार्य भक्तिरूप कृतिकर्म को परिपूर्ण करके अभ्यागत मुनि मस्तकपर अंजलिको रखकर आचार्य श्रेष्ठ को कहता है ।। ५३१||
हे ईश ! श्रुतरूपी सागरके पारगामी, समाधान करनेवाले ऐसे आपके चरणों के सानिध्य में मैं अपने संयमको प्रकाशित - उज्ज्वल करूंगा ।।५३२॥