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________________ सुस्थितादि अधिकार [ १५९ क्षपकस्य सुखं दत्ते कुर्वन्यो हितवेशनाम् । निर्यापकं महाप्राज्ञं तमाहुः सुखकारणम् ॥५२६।। ववाति शर्म आपकस्य सूरिनिर्यापकः सर्वमपास्यदुःखम् । यतस्ततोऽसौ क्षपकरण सेन्यः सर्वे भजन्ते सुख कारिणं हि ॥५२७॥ ॥ इति सुखकारी॥ छंद शशिकलाशिवसुखमनुपममपरुजममलं तवति शमयति हितकृति सकलं । वितरति यतिपतिरिति गुणकलितः शमयमदममयमुनिजन महितः ।।५२८॥ .. - ..--. .. - -- - --- भावार्थ-निर्यापकके वचन कानों में मधुर लगने वाले हुआ करते हैं आचार्य के वचन को सुनकर क्षपकको धैर्य आता है । लोक व्यवहारमें भी देखा जाता है कि कोई व्यक्ति आपत्ति या रोग आदिसे घबराया हो और उसे कोई मिष्ट वचन द्वारा दिलासा देता है तो वह पुरुष कुछ धैर्यको प्राप्त होता है । यदि क्षपकके वेदना आदिसे पीड़ित होनेपर उसे उपदेश-रूप अमृत नहीं पिलायेंगे तो क्षपक मुक्ति सुखको कारणभूत ऐसी आराधनाको त्याग देगा । जो महाप्राज्ञ निर्यापक हितका उपदेश करते हुए क्षपक को सुख देते हैं अतः उस आचार्यको "सुखकारी' इस नामसे कहते हैं ।।५२६।। जिस कारण से निर्यापक आचार्य क्षपकके सर्व दुःखको दूर करके सुख देते हैं उस कारणसे यह आचार्य क्षपकके द्वारा सेवनीय होते हैं । ठोक हो है क्योंकि सब हो जीव सुखकारी पदार्थका आश्रय लेते हैं ।।५२७॥ निर्यापकके सुखकारी विशेषणका वर्णन समाप्त । शम-शान्ति, यम-वत नियम और दम-इन्द्रिय दमन स्वरूप जो मुनिजन हैं उनके द्वारा पूजित और गुणोंसे संयुक्त जो निर्यापक आचार्य है वह अनुपम, रोग रहित, निर्दोष हिसकारी ऐसे सकल शिव सुखको महावतधारो प्रशमभाववाले क्षपकके लिये अर्पित करता है ।।५२८॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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