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मरणकण्डिका
कथानां कथने दक्षो हेयादेय विशारदः । कुख' शास्ति यति/रः प्रकृतप्रतिपादकः ॥५२१॥ गंभीरा मधुरा श्रध्यां शिष्यचित्तप्रसादिनी । सुखकारी दवात्यस्मै स्मत्यानयनकारिणीम् ॥५२२॥ सुखकारी बधास्येनं मजन्तं दुस्तरे भवे । प्रतरत्नभूतं पोतं कर्णधार इयार्णवे ॥५२३।। शीलसंयमरत्नाढ्यं यतिनावं भवार्णवे । निमज्जती महाप्राज्ञो विति सूरिनाविकः ॥५२४॥ कर्णाहुति न चेदत्ते पतिस्थामकरी गणी ।।
प्राराषना सुखाहों जहाति क्षपकस्तदा ॥५२५॥ प्रथमानुयोग आदि चारों अनुयोगोंके कथनमें निष्णात होते हैं, अनुयोग रचना करने में प्रवीण, महाबुद्धिशाली हुआ करते हैं ।।५२०।।
माराधना तथा दैताग्य संबंधो कथालोंके कहने में दक्ष, हेय क्या है उपादेय क्या है इसका भलीभांति प्रतिपादन करनेमें निपुण, प्रकृत समाधिके विषयको समझाने में प्रयत्नशील ऐसे धीर निर्यापक ही कुपित हुए क्षपकको शांत एवं प्रसन्न कर सकते हैं ।।५२१॥
वे निर्यापक बड़ी ही गंभीर, मधुर, कर्णप्रिय, शिष्यके चित्तको तत्काल प्रसन्न करनेवाली, सुखदायक क्षपकके विस्मृत हुए चित्तमें पुनः स्मरण कराने में समर्थ ऐसी श्रेष्ठ बाणी द्वारा क्षपकके लिये दिव्य देशना-उपदेश देते हैं ।।५२२।।।
एवं गुण विशिष्ट सुखकारी महान निर्यापक आचार्य दुस्तर भव समुद्र में डूबनेके सन्मुख हुए क्षपकको सहारा देते हैं ! जिसप्रकार श्रेष्ठ रत्नोंसे भरी समुद्र में डूबती हुई नौकाका सहारा कर्णधार ( खेवटिया ) हुआ करता है, ठोक इसीप्रकार अठारह हजार शील और अनेक प्रकारके संयम रूपो रत्नोंसे युक्त यति रूपी नौकाको जो कि भव समुद्र में डूबनेके सन्मुख हो चुकी है उसको महाप्राज्ञ आचार्य रूपी कर्णधारनाविक धारण करते हैं अर्थात् उस यतिनौका को डूबने नहीं देते ।।५२३ ।। ५२४॥
यदि आचार्य जो कणोंके लिये संतोष कारक होनेसे आहुति सदृश हैं, धैर्य और स्थैर्य को करने वाली ऐसी श्रेष्ठ वाणी क्षपकको नहीं देते अर्थात् नहीं सुनाते हैं तो वह क्षपक सुखावह आराधनाको छोड़ देता है ।।५२५।।