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सुस्थितादि अधिकार शुश्रषकप्रमादेन शय्यायामासनादिके । संपन्ने वानवाक्येन शिष्यकारणामसंवृते ॥५१७॥ वेदनाया मसह्यायां क्षुत्तष्पाहिमादिभिः । क्षपकः कोपमासाद्य मर्यादां विविभित्सति ॥५१॥ निर्यापण शांतेन शमनीयः स सूरिणा । क्षमापरेण धीरेण कुर्वता चित्तनिवति ॥५१६।। बहुप्रकार पूर्वांग श्रुतरत्नकरंडकः । सर्वानुयोगनिष्णातो वक्ता कर्ता महामतिः ॥२०॥
सुख कारीगुण
क्षपकको सेवा-वयावृत्य करनेवाले यतिजन सेवामें प्रमाद करके क्षपकको शय्याको समय पर ठीकसे न लगानसे, आसन बिछाने में देर करनेसे, अथवा सुदर रीति से नहीं बिछानेसे, आहार पानीको व्यवस्थामें देरी करनेसे, अपमानजनक वचन बोलनेसे, असंयमी गृहस्थ के निमित्त इत्यादि हेतुओंसे क्षपकको कोप उत्पन्न होता है । भूख, प्यास, गरमी, सर्दी आदि निमित्तोंसे तीव्र वेदना होनेपर भी क्षपक कुपित होता है और संयमकी मर्यादा तोड़नेकी इच्छा करने लग जाता है समाधिमरणके नियमोंका भंग करने लग जाता है उससमय निर्यापक प्राचार्य अत्यंत शांतभावसे धीरतापूर्वक क्षपकके चिसको प्रसन्न करते हैं । आचार्य यदि शांतपरिणामी नहीं होगा तो वह भी क्षपकके समान कुपितहोकर क्षपकको डाटने लगेगा, या अभिमानी होगा तो क्षपकको प्रसन्न करनेका प्रयास ही नहीं करेगा। क्षमाभावयुक्त बीर-तेजस्वी नहीं होगा तो वह क्षपकके अयुक्त वचन एवं कार्य से शांत नहीं रह पायेगा अर्थात् क्षपकके ऊपर क्षमाभाव नहीं रख सकेगा तेजस्विताके अभाव में क्षपकके ऊपर अपने वचनोंका प्रभाव नहीं डाल सकेगा अतः निर्यापक आचार्यको शांत, क्षमाशील, निरभिमानी एवं धैर्यशाली होना चाहिये । एवं गुण विशिष्ट आचार्य क्षपकके उत्पन्न हुए चित्त कलुषताको शांत कर देते हैं 11५१७।।५१८।।५१९।।
निर्यापक आचार्य बहुत प्रकारके अंग और पूर्व संबंधी ज्ञानरत्नों को मंजूषा-पेटी सहश हुआ करते हैं अर्थात् जैसे पेटी तिजोरो या आलमारी में सुर्वण रत्न भरे रहते हैं वैसे आचार्य में आचारांग आदि अंगोंका ज्ञान तथा पूर्वोका ज्ञान भरा रहता है, वे