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१५.६ ]
मरकण्टका
प्राचार्यो यत्र शिष्यस्य विदधाति विडंबनां । धिक् तान्निर्धर्मकान्साधूनिति वक्तिजनोऽखिलः ।। ५१३।। विश्वासघातका एव दुष्टाः संति दिगंबराः । ईशीं कुर्वते निदां मिथ्यात्वाकुलिता जनाः ।। ५१४ ।। पृष्टोऽपृष्टोऽपि यो ब्रूते न रहस्यं कदाचन । इत्यादयो न विधन्ले दोषास्तस्य गणेशिनः ।। ५१५।।
छंद द्रुतविलंबित-
इति विमुच्य रहस्य विभेदकं भजत गुह्यनिगूहकमंजसा ।
न हि विशुद्ध हिताहितयस्तवो हितं प्रपो भजत्यहितं जनाः ।। ५१६ ।।
क्षपकके दोष प्रकट करने से अखिल लोग कहने लग जाते हैं कि देखो ! इस धर्म में आचार्य हो अपने शिष्यके दोष बतलाकर विडंबना कर रहे हैं, धिक् धिक् ऐसे धर्मविहीन साधुओं को। ये जैन साधु ऐसे ही होते हैं ।।५१३||
ये दिगम्बर दुष्ट हैं ये जैन साधु इसतरह विश्वासघात करते हैं । मिथ्यादृष्टि लोग क्षपकके दोष प्रकट करनेपर इसतरह जैनधर्मकी निंदा करते हैं ||५१४॥
जो आचार्य किसीके द्वारा क्षपकके दोषोंके बारेमें पूछनेपर अथवा नहीं पूछने पर कभी भी उसके दोष नहीं बताता, उस श्रेष्ठ निर्यापक आचार्यके ऊपर कहे संघत्याग, आमात्याग आदि दोष नहीं लगते हैं ।। ५१५ ||
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ग्रंथकार निर्यापकाचार्यको उपदेश देते हैं कि उपर्युक्त अपरिस्रावी गुणको जानकर तुम क्षपकके दोषका भेदन प्रगटोकरण कभी नहीं करना । तुम गुप्त दोषको प्रकट करना छोड़ दो, क्षपकके दोष छिपाओ । क्योंकि हित और अहितको जिन्होंने भली प्रकारसे ज्ञात कर लिया है वे पुरुष कभी भी हितको छोड़कर अहित में प्रवृत्त नहीं होते हैं । अर्थात् हित अहितके ज्ञाता पुरुष हितको करते हैं अहितको नहीं, वैसे ही क्षपकका अपराध प्रगट करना दोष है और उसे प्रकट नहीं करना गुण है ऐसा जानने वाले गुणको करते हैं दोप को नहीं ||५१६ ||
|| अपरिस्रावी वर्णन समाप्त ||