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सुस्थितादि अधिकार
मारयत्यथवा
सूरि,
साधुर्मान ग्रहाकुलः ।
संसारकाननति, न मन्यते हि मानिनः ॥ ५०६ ।।
विश्वस्तो भाषते शिष्यः सूरेरग्रे स्वदूषणम् । सदाचार बहिर्भवः ॥५१० ॥
पुनख
परस्याथ
दूषयिष्यति न स्तथा ।
यथायं दूषितोऽनेन इति क्रुद्धो गणः सर्वः पृथक्त्वं प्रतिपद्यते ॥ ५११॥
एतस्याचार्यकं संघो विच्छिनति चतुविषः | निर्घाटयति वा रुष्टो रोषतः क्रियते न किं । । ५१२ ।
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वह मानना निर्मूल हुआ है ऐसे आचार्य संघ एवं चारित्रसे बस हो । मिथ्यादृष्टि लोग ही अच्छे हैं इत्यादि परिणाम द्वारा क्षपक अपने श्रद्धा और चारित्रसे च्युत हो जाता है अतः आचार्यका अपरिस्रावी होना अति आवश्यक है ।
अथवा अपने दोष प्रगट होते देख क्षपक मानरूपी पिशाचसे आकुलित होकर आचार्यको मार देता है । क्योंकि मानी व्यक्ति संसार भ्रमणको नहीं देखते, नहीं मानते ।। ५०९ ।।
क्षपकके दोष आचार्य द्वारा प्रगट किये जानेपर संघ के साधु विचार करते हैं कि अहो ! शिष्य तो आचार्य समक्ष विश्वस्त होकर अपने दोष प्रगट करता है और ये आचार्य उस दोषको दूसरोंको कह देते हैं, ये सदाचारसे रहित हैं ।।५१०||
इस आचार्यने जैसे इस क्षपकको दूषित किया वैसे आगे हम लोगों को भी दूषित कर डालेंगे । इस तरह विचार कर कुपित हुआ सर्व संघ उस आचार्यको छोड़ देता है ।। ५११ ।।
क्षपकके दोष प्रकट करने वाले आचार्यका चतुविध संघ नष्ट हो जाता है अर्थात् संघस्थ साधु उन्हें छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं । अथवा क्रोधावेश में आचार्यको ही संघसे निकाल देते हैं । क्रोधसे क्या नहीं किया जाता ? अर्थात् क्रोघसे सब कुछ अयुक्त कार्य किये जा सकते हैं ||५१२ ॥