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मरगवण्डिका
विश्वस्तो भाषते सर्वानाचार्याणामसौ न सः । प्राचार्यों भाषतेऽन्येभ्यस्ता, स्तुवन् स्विदधार्मिकः ॥५०६।। रहस्यभेदिना सेन, त्यक्ताः, कल्मषकारिणा । साधुरात्मा गणः संघो, मिथ्यात्वाराधना कृता ॥५०७॥ रहस्यस्य कृते भेदे, पृथग्भूयोवतिष्ठते । कोपतो मुचते वृत्तं, मिथ्यात्वं या प्रपद्यते ॥५०८।।
बुद्धि नहीं होना इत्यादि । ऐसे ही विनयतप आदिमें अतीचार होते हैं उन्हें प्रागमसे जान लेना चाहिये ।
क्षपक मुनि यह आचार्य विश्वस्त है शिष्यके दोषको अन्यको नहीं कहता ऐसा विश्वास करता है यदि ऐसा विश्वास पात्र आचार्य क्षपकके आलोचित दोषोंको अन्य जनों के समक्ष कहता है तो वह आचार्य जिनधर्मविहीन है, क्योंकि क्षपकके दोषोंका प्रगट करना जैनधर्मसे बाह्य है-निषिद्ध है ॥५०६।।
क्षपकके मुप्त दोषोंका प्रकाशन करने वाले पापकारो उस आचार्यने चार आराधना नष्ट कर दो ऐसा समझना चाहिये, इतना ही नहीं उसने क्षपक साधुका त्याग किया, संघका त्याग, अपने आत्माका भो त्याग कर दिया और मिथ्यात्वको आराधना की ऐसा समझना ।।५०७।।
भावार्थ-क्षपकके आलोचित दोष प्रगट करना योग्य नहीं है, यदि प्रगट करेगा तो उसने क्षपकका उसोसमय त्याग किया ऐसा समझना, क्योंकि अपने दोष जन जन के प्रत्यक्ष हुए हैं यह देखकर क्षपक भय एवं लज्जासे अपना घात कर सकता है अथवा रत्नत्रय धर्मको छोड़ देगा, क्रोधित होकर संघका त्यागकर बाहर संघ और संघ नायकको निंदा करेगा, अतः क्षपकके दोषोंको प्रकट करने वालेको क्षपकत्याग, संघत्याग, मिथ्यात्वकी आराधनादि रूप दोष उपस्थित होते हैं ।
___ अपने रहस्य प्रकट हुआ देख क्षपक मुनि संघसे पृथक् होगा या क्रोधसे दीक्षा चारित्र छोड़ देता है, अथवा मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है ॥५०८।।
भावार्थ-क्षपक अपने दोषको प्रगट हुआ जान संघको छोड़ देता है, उसके मनमें विचार आता है कि अहो ! मैंने तो इन आचार्यों को प्राणवत् माना था, आज