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सुस्थितादि अधिकार अतिचारास्तपोवृत्त ज्ञानसम्यक्त्वगोचराः । मनोवाक्काययोगेन, जायन्ते त्रिविधा यतेः ॥५०५।।
मुनिजनोंको सम्यक् ज्ञान चारित्र और तपमें मन वचन और काय द्वारा प्रतीचार लगा करते हैं, इसतरह मन द्वारा, वचन द्वारा तथा काय द्वारा तीन प्रकारसे अतीचार उत्पन्न होते हैं ||५.!!
विशेषार्थ-मूलाराधना टीकामें सम्यग्दर्शन आदिके अतीचारोंका सुविस्तृत वर्णन पाया जाता है । तदनुसार यहां किंचित् बताते हैं. सम्यक्त्वके अतोचार शंकाकांक्षा आदि पांच या पच्चीस हैं ये सर्व विदित हैं । सम्यग्ज्ञानके अतीचार-अकाल में सिद्धान्त ग्रन्थका पढ़ना, गुरु का, शास्त्रका नाम छिपाना आदि रूप है इसका भी वर्णन हो चका है। चारित्रके अतीचार-पंच महाव्रतोंके अतीचार चारित्रके अतीचार कहलाते हैं । प्रत्येक महावतको पांच पांच भावनायें आगममें बतलायी हैं जैसे प्रथम अहिंसा महावतको वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदान-निक्षेपण समिति, और आलोकित पान भोजन ये पांच भावनायें हैं । इन भावनामोंसे रहित व्रतपालन चारित्रके अतीचार हैं। तपके अतीचार-तप बारह प्रकारका है। प्रथम अनशन तपके अतोचार-स्वयंको उपवास है और दूसरोंको भोजन कराता है अनुमोदना करता है इत्यादि अनशन तपके अतीचार है । अवौदर्य तपके अतीचार-भूखसे कम खाना रूप अवमौदर्य तपका अनुष्ठान करता है किन्तु मन में भरपेट भोजनकी इच्छा है । तुम खूब खाओ इत्यादि कहना ये अवमौदर्य के अतीचार जानने । वृत्ति परिसंख्यान तपके अतिचार-सात घर तक जागा अमुक वातासे अमुक वस्तु हो लूगा इत्यादि नियम लेकर उसमें किसो कारणवश कमी करना इत्यादि । रसत्याग तपके अतीचार-रसका त्यागकर उसमें मनमें लालसा बनो रहना, दूसरोंको रसवाला आहार कराना इत्यादि । विविक्त शय्यासन तपके अतीचार-अमुक वसतिमें इतने काल तक एकान्तमें रहूँगा ऐसा नियम लेना और उस वसतिमें रहते हुए अरतिके भाव होना कि यह स्थान कष्टदायक है मैंने व्यर्थ ही यहां का नियम लिया इत्यादि । कायक्लेश तपके अतीचार-अमुक आसन या अमुक प्रतिमायोग आदिका पहले नियम लेना पुनः उसमें अरतिभाव होना या उष्णसे पीड़ित होनेपर शीतलताको इच्छा करना इत्यादि । प्रायश्चित्त तपके अतीचार-आलोचना करने में आगममें कहे गये आकपित आदि दोष लगाना । प्रतिक्रमणके अतीचार-किये गये अपराधोंके प्रति त्याग